यू.पी. पावर निगम लिमिटेड बनाम राजेश कुमार (2012)

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यह लेख Shenbaga Seeralan S द्वारा लिखा गया है। यह मामला पदोन्नति में आरक्षण के विषय को स्पष्ट करता है। इसके अलावा, न्यायिक मर्यादा और निर्णयों के पूर्ववर्ती मूल्य पर भी चर्चा की जाती है। लेख में मामले का विस्तार से वर्णन किया गया है तथा निर्णय की जटिल अभिव्यक्तियों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय लोकतंत्र की मीनार समानता और स्वतंत्रता के आदर्शों की आधारशिला पर खड़ी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14-22 प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकारों के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में समानता और स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं। हालाँकि, राज्य का यह दायित्व है कि वह समाज के कुछ वर्गों को, लम्बे समय से उनके सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए, विशेष विशेषाधिकार प्रदान करे। इस प्रकार, संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र के मैग्ना कार्टा को तैयार करने के लिए एक समाजवादी, समतावादी दृष्टिकोण अपनाया है। वंचित समुदायों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की अवधारणा शुरू की गई थी। आरक्षण को समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों को संविधान में निहित सिद्धांतों के आधार पर सुरक्षात्मक भेदभाव प्रदान करने के लिए राज्य द्वारा अपनाए गए तंत्र के रूप में चित्रित किया जा सकता है। रोजगार, शिक्षा और चुनावी प्रक्रियाओं में कोटा के माध्यम से आरक्षण प्रदान किया जाता है। 

अमेरिकी इतिहासकार ग्रानविले सीवार्ड ऑस्टिन ने अपनी पुस्तक भारतीय संविधान: कॉर्नरस्टोन ऑफ ए नेशन (1966) में भारतीय संविधान की प्रकृति और यह किस प्रकार सामाजिक असमानता को दूर करने के उद्देश्य से बनाया गया है, के बारे में बताया है। जातिगत और आर्थिक असंतुलन से ग्रस्त समाज में सापेक्षिक (रिलेटिव) समानता बढ़ाने और सामाजिक उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए विशेष संरक्षण की आवश्यकता है। नवीन उद्देश्यों के बावजूद आरक्षण की अवधारणा आलोचना से बच नहीं पाती। भारतीय समाजशास्त्री आंद्रे बेतेइले ने अपनी पुस्तक जाति, वर्ग और शक्ति (1965) में विशेषाधिकारों से उत्पन्न भेदभाव को एक खतरनाक साधन बताया है, भले ही इसके पीछे क्रांतिकारी इरादे हों। आरक्षण के माध्यम से सुरक्षात्मक भेदभाव ने समाज को सरकार पर और अधिक निर्भर बना दिया है तथा सामाजिक भावनाओं को आत्मसात करने के लिए एक ढांचा तैयार कर दिया है। कुछ अवसरों पर, आरक्षण को वोट बैंक की राजनीति को बढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। इस लेख का उद्देश्य मामले के मूल और अंत को स्पष्ट करना तथा इससे उभरे विचारों पर गहराई से विचार करना है। 

मामले का विवरण

  • अपीलकर्ता: उत्तर प्रदेश पावर निगम लिमिटेड
  • प्रतिवादी: राजेश कुमार एवं अन्य
  • मामला संख्या: सिविल अपील संख्या 2608/2011
  • समतुल्य उद्धरण: (2012) 7 एससीसी
  • पीठ: न्यायमूर्ति डॉ. दलवीर भंडारी एवं न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा

शामिल अधिनियम: 

महत्वपूर्ण प्रावधान 

मामले के तथ्य

यह मामला आरक्षण के मुद्दे से संबंधित विभिन्न सिविल अपीलों का सम्मिलित संस्करण (वर्जन) है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्पीड़ित समुदाय के लिए रोजगार में आरक्षण सुनिश्चित करने हेतु उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण) अधिनियम, 1994 नामक एक अधिनियम बनाया। विशेष रूप से, अधिनियम की धारा 3(7) पदोन्नति द्वारा भरी जाने वाली नियुक्तियों के लिए अधिनियम के अधिनियमन के दौरान लागू आरक्षण को अनुमोदित करेगी, जब तक कि विधायिका द्वारा इसे संशोधित न कर दिया जाए। इसी प्रकार, उत्तर प्रदेश सरकारी सेवा वरिष्ठता नियम, 1991 के नियम 8-A के तहत अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति की पदोन्नति पर परिणामी वरिष्ठता सुनिश्चित की गई। यह आरक्षण या रोस्टर योजना के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। इस मामले में कुछ अपीलें मुकुंद कुमार श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2010) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ के आदेश के विरुद्ध थीं। उपरोक्त मामला विभिन्न सरकारी विभागों के समूह A, समूह B और समूह C अधिकारियों द्वारा दायर कई रिट याचिकाओं से संबंधित है, जिनमें उत्तर प्रदेश सरकारी सेवा वरिष्ठता नियम, 1991 के नियम 8-A और अधिनियम की धारा 3(7) को चुनौती दी गई है।

यह तर्क दिया गया कि नियम के प्रावधान, जो पदोन्नति के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की एक अलग सूची बनाने में सक्षम बनाते हैं, उत्तर प्रदेश चयन द्वारा पदोन्नति (लोक सेवा आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर के पदों पर) पात्रता परीक्षा नियम, 1986 के तहत योग्यता सूची के विपरीत, अन्य श्रेणियों के लिए अनिवार्य है। यदि आरक्षित कोटे में कोई रिक्ति न हो तो पात्रता सूची में यह वृद्धि सामान्य सूची के लिए भी की जाती है। यह तर्क दिया गया कि पदोन्नति सूची में यह वृद्धि पहले से उपलब्ध आरक्षण के अतिरिक्त त्वरित वरिष्ठता प्रदान करती है। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद खंडपीठ ने अधिनियम और 1991 के नियमों में निहित प्रावधानों की वैधता को बरकरार रखा। इस मामले में कुछ अन्य अपीलें – प्रेम कुमार सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2011) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ, लखनऊ पीठ के फैसले के खिलाफ अपीलें है, तथा अन्य संबंधित याचिकाएं शामिल हैं। उपरोक्त मामले में, अधिनियम की धारा 3(7) और 1991 के नियम 8-A की वैधता को चुनौती देने वाली एक ही दलील थी। 

मामले के प्रतिवादी श्री राजेश कुमार और दो अन्य ने 2009 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में एक रिट याचिका दायर की। उन्होंने अधिनियम की धारा 3(7) और 1991 के नियम 8-A को असंवैधानिक घोषित करने की गुहार लगाई। यह तर्क दिया गया कि राज्य सरकार और यू.पी. पावर निगम  लिमिटेड (जिसे यहां निगम कहा गया है) ने एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ (2006) मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया, जिससे संवैधानिक प्रावधानों में बाधा उत्पन्न हुई। निगम ने दलीलों के जवाब में सुझाव दिया कि उच्च पदों पर अनुसूचित समुदाय के प्रतिनिधित्व में असमानता है, जिसके कारण सरकार से अनुसूचित समुदाय को पदोन्नति में त्वरित वरिष्ठता प्रदान करने के लिए नियम बनाने का आग्रह किया गया। निगम ने मुकुंद कुमार श्रीवास्तव मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया। उच्च न्यायालय, लखनऊ की खंडपीठ को दो कारकों पर निर्णय लेना था, पहला, सरकार द्वारा बनाए गए नियमों की वैधता, तथा दूसरा, इलाहाबाद की खंडपीठ के निर्णय की वैधता। 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का विचार था कि प्रतिवादियों को प्रति-शपथपत्र (काउंटर एफिडेविट) दाखिल करने का अवसर दिए बिना रिट याचिकाओं पर निर्णय नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, अधिनियम के प्रावधानों की वैध प्रकृति पर निर्णय लेने के लिए न्यायालय ने इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर भरोसा किया। अधिनियम की धारा 3(7) संविधान के अनुच्छेद 16(4-A) और अनुच्छेद 16(4-B) के विरुद्ध नहीं है, क्योंकि परिणामी वरिष्ठता और कैच-अप नियम संवैधानिक अंश नहीं हैं, बल्कि न्यायिक घोषणाओं से विकसित हुए हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का मत था कि 1991 के नियम 8-A ने संविधान के अनुच्छेद 16(4-A) में निहित प्रावधानों को अधिक गंभीर बना दिया है, जिससे प्रावधानों की संवैधानिकता बरकरार रहती है। 

लखनऊ की खंडपीठ ने बहुत सोच-विचार के बाद यह राय बनाई कि इलाहाबाद की खंडपीठ के निर्णय में एम. नागराज मामले में दिए गए उदाहरण के अनुसार न्यायिक मार्ग का पालन नहीं किया गया है, न ही राज्य सरकार ने अपने संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन किया है। इलाहाबाद की खंडपीठ द्वारा प्रदान की गई राहत में त्वरित वरिष्ठता के मुख्य मुद्दे पर विचार नहीं किया गया, जो याचिका दायर करने का कारण है, बल्कि इसमें 1991 के नियमों के नियम 8-A की वैधता को बरकरार रखा गया। सभी आवश्यक दलीलों की जांच करने के बाद, लखनऊ स्थित खंडपीठ ने कैच-अप नियम के माध्यम से त्वरित वरिष्ठता के दावों को खारिज कर दिया और इलाहाबाद पीठ के फैसले को एक विश्वसनीय मिसाल के रूप में स्वीकार करने से भी इनकार कर दिया। लखनऊ की खण्डपीठ ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया और धारा 3(7) और 1991 नियम के नियम 8-A को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इस निर्णय को चुनौती देते हुए, निगम ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक सिविल अपील दायर की, जिसमें लखनऊ स्थित उच्च न्यायालय की खंडपीठ के निर्णय को चुनौती दी गई, जहां प्रतिवादी श्री राजेश कुमार के साथ-साथ कई अन्य निजी प्रतिवादी भी हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय मुकुंद कुमार श्रीवास्तव मामले और प्रेम कुमार सिंह मामले से संबंधित विभिन्न सिविल अपीलों पर विचार कर रहा है, जिसमें अनेक अपीलकर्ता और प्रतिवादी शामिल हैं। 

उठाए गए मुद्दे 

इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उठाए गए संबंधित प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं:

  • क्या अधिनियम की धारा 3(7) और 1991 के नियम 8-A संविधान के अनुच्छेद 16, अनुच्छेद 16(4-A) और अनुच्छेद 16(4-B) का पालन करते हैं?
  • क्या निर्णयों की आलोचना करने और पूर्व उदाहरणों पर भरोसा करने में न्यायिक शिष्टाचार, औचित्य और परंपरा का पालन किया जाता है? 

पक्षों के तर्क

इस मामले की जटिलता और महत्व के कारण, अपीलकर्ता और प्रतिवादियों के वकीलों की ओर से विस्तृत तर्क प्रस्तुत किये गये। इस अवसर पर विभिन्न पक्षों की ओर से कई विद्वान वकील उपस्थित हुए। 

अपीलकर्त्ता

कुछ अपीलों में निगम की ओर से उपस्थित वरिष्ठ वकील श्री अन्ध्यारुजिना और श्री राजू रामचंद्रन ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए दस्तावेजों की उचित जांच नहीं की। सरकार का मानना था कि अनुसूचित समुदाय को उनकी जनसंख्या के आकार को ध्यान में रखते हुए वरिष्ठ पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। वकीलों ने इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला कि जनसंख्या के आकार और उसके अनुरूप प्रतिनिधित्व में गणितीय सटीकता का अभाव होने के बावजूद सरकार द्वारा लिया गया निर्णय सामाजिक उद्देश्य के लिए है। विभिन्न संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से, जो अनुच्छेद 16(4-A) और अनुच्छेद 16(4-B) लाए गए, केंद्र सरकार द्वारा अनुसूचित समुदाय को सुरक्षात्मक भेदभाव प्रदान करके सामाजिक पिछड़ेपन के मुद्दे का समाधान किया गया है। यह तर्क दिया गया कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पारित नियम भी इसी प्रकार का है। सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए तथ्यात्मक आंकड़ों ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन को उजागर किया तथा इसे पदोन्नति में उनके खराब प्रतिनिधित्व से जोड़ा है। इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के निर्णय के आधार पर यह भी तर्क दिया गया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अलग-अलग वर्ग हैं और पिछड़ेपन की कसौटी उन पर लागू नहीं की जा सकती। 

अविनाश सिंह बागड़ी बनाम आईआईटी दिल्ली (2009) के फैसले में यह भी माना गया कि क्रीमी लेयर की अवधारणा अनुसूचित समुदाय पर लागू नहीं की जा सकती। वकीलों ने सामाजिक न्याय समिति की दिनांक 28-06-2001 की रिपोर्ट प्रस्तुत करके अपने दावे का समर्थन किया, जिसमें अनुसूचित समुदाय के पिछड़ेपन की पुष्टि की गई थी तथा पदोन्नति में आरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया गया था। यह भी उल्लेख किया गया कि पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध कराने के बावजूद, लखनऊ उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने इसे नजरअंदाज कर गलत राय बना ली। वकील द्वारा तत्काल संबोधित किया गया एक अन्य मुद्दा संविधान के अनुच्छेद 335 के तहत चित्रित प्रशासन की दक्षता से संबंधित था। वकील ने तर्क दिया कि जब आरक्षण 50% से कम है, तो किसी विशेष समुदाय को अनुचित लाभ पहुंचाने का कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि 50% आरक्षण के अंतर्गत आबादी का बड़ा हिस्सा आता है। इस प्रकार, आरक्षण के प्रशासन में दक्षता में बाधा डालने वाले कारक होने के दावे पर वकीलों द्वारा कड़ी आपत्ति की गई। 

कुछ अपीलों में निगम की ओर से उपस्थित विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.एस. पटवालिया ने तर्क दिया कि अनुसूचित समुदाय का पिछड़ापन एक व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) अवधारणा नहीं बल्कि एक वस्तुपरक (ऑब्जेक्टिव) अवधारणा है। ऐतिहासिक अधीनता को ध्यान में रखते हुए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और अनुच्छेद 342 के तहत समुदाय के कुछ वर्गों को राष्ट्रपति की सूची की अनुसूचित श्रेणी में रखा गया है। इस छत्रछाया में पिछड़ेपन की जांच के लिए आंकड़े महज औपचारिकता मात्र हैं, अनिवार्यता नहीं है। ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2005) के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसने इस तथ्य को सुनिश्चित किया कि समुदाय के पिछड़ेपन को अनुसूचित सूची में रखकर दोहराया जाता है, जिसे राज्य द्वारा पुनर्वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। वकील ने यह भी सुनिश्चित किया कि अधिनियम से पहले, उच्च पदों और पदोन्नतियों में अनुसूचित समुदाय के प्रतिनिधित्व की पहचान करने के लिए डाटा संग्रह किया गया था, जो त्वरित वरिष्ठता के पक्ष में ऐसे प्रावधान को लागू करने का आधार बना था। 

प्रतिवादी

कुछ निजी प्रतिवादियों की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील श्री पी.पी. राव ने लखनऊ उच्च न्यायालय की खंडपीठ के फैसले की निंदा की। उनके अनुसार, जब पदोन्नति में आरक्षण का आदेश संशोधन से पहले जारी किया जाता है तो मात्रात्मक डाटा प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं होता है। इस प्रकार, अधिनियम की धारा 3(7) केवल वैधानिक मिसाल को मान्यता दे रही थी। यह तर्क दिया गया कि उच्च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण को अत्यधिक मानकर एम. नागराज मामले में दिए गए फैसले की गलत व्याख्या की है। वकील ने दोहराया कि संविधान का अनुच्छेद 16 वंचित वर्गों का सीमांकन करता है, लेकिन व्यक्तियों के पिछड़ेपन का सीमांकन नहीं करता है। इसलिए, अनुसूचित समुदाय के पिछड़ेपन का विशेष मूल्यांकन आवश्यक नहीं है। इन तर्कों के अतिरिक्त, विद्वान वकील ने मामले को एक बड़ी पीठ को सौंपे जाने का अनुरोध किया। 

कुछ याचिकाकर्ताओं की ओर से उपस्थित वरिष्ठ वकील श्री राकेश द्विवेदी ने तर्क दिया कि लखनऊ उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने एम. नागराज मामले में फैसले में सुझाए गए परिमाणीकरण को गलत समझा है। अनुसूचित समुदाय का पिछड़ापन संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त एक वस्तुपरक अवधारणा है। यह बात सामने रखी गई कि अन्य दलों ने पदोन्नति में आरक्षण देने में अनुसूचित समुदाय के पिछड़ेपन को दूर करने संबंधी कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया है। अजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (1999) के निर्णय द्वारा अस्तित्व में लाई गई कैच-अप नियम की अवधारणा को 77वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में अनुच्छेद 16(4-A) जोड़कर निरस्त कर दिया गया है, जिससे अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ (रेलवे) बनाम भारत संघ (1996) के निर्णय को प्रमुखता मिल गई है। वकील ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 335 के तहत प्रशासन में दक्षता बनाए रखना राज्य का विषय है; इसलिए, विभिन्न वर्गों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की पहचान करना राज्य का व्यक्तिपरक निर्णय है। 1991 के नियमों के नियम 8-A का लागू होना, आरक्षण देने के मामले में राज्य के अधिकार क्षेत्र में आता है, जिससे सामाजिक रूप से कुशल प्रशासन उपलब्ध होता है। वरिष्ठ अधिवक्ता ने इस तथ्य को सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न निर्णयों पर प्रकाश डाला कि आरक्षण देने से संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदत्त समानता का अधिकार प्रभावित नहीं होता है। 

प्रतिवादियों की ओर से उपस्थित वरिष्ठ वकील श्री शांति भूषण का पूर्व वकीलों के संबंध में विरोधाभासी दृष्टिकोण था। विद्वान अधिवक्ता ने तर्क दिया कि 1991 के नियम 8-A को तैयार करते समय एम. नागराज मामले में संवैधानिक पीठ के निर्णय का पालन नहीं किया गया है। निर्णय में राज्य को यह आदेश दिया गया कि वह किसी भी अतिरिक्त आरक्षण, जो उस समय लागू नहीं था, को प्रदान करने से पहले प्रासंगिक और विश्वसनीय आंकड़े एकत्र करे, विशेष रूप से पदोन्नति में आरक्षण के मामले में एकत्र करे। यह कहा गया कि राज्य ने अनुसूचित समुदाय को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए अधिनियम के प्रावधानों में संशोधन करने में कोई समझदारी भरा निर्णय नहीं लिया है। विद्वान अधिवक्ता ने कहा कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अभ्यर्थियों को पदोन्नति में त्वरित वरिष्ठता प्रदान करके संविधान के अनुच्छेद 335 द्वारा प्रदत्त कुशल प्रशासन की अवधारणा की अवहेलना की गई है। यह भी दावा किया गया कि अधिनियम की धारा 3(7) और 1991 के नियम 8-A के प्रावधानों के कारण कुशल सामान्य श्रेणी के अधिकारियों की असहमति उत्पन्न हो गई है, जिससे वे पदोन्नति में अपना उचित स्थान खो बैठे हैं। 

अन्य प्रतिवादियों की ओर से उपस्थित विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. राजीव धवन, श्री विनोद बोबडे और श्री रंजीत कुमार ने लखनऊ खण्ड पीठ के फैसले के पक्ष में तर्क दिया। जैसा कि वरिष्ठ वकीलों ने तर्क दिया, एम. नागराज मामले में फैसले की व्याख्या अलग तरीके से की जानी चाहिए। संवैधानिक पीठ के निर्णय में यह दावा किया गया कि सामाजिक न्याय एक सर्वव्यापी घटना है, जिसमें संतुलन बनाए रखने के लिए उचित प्रतिबंधात्मक मापदंडों की आवश्यकता है। अधिनियम की धारा 3(7) और 1991 के नियम 8-A ने पदोन्नति में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उम्मीदवारों को त्वरित वरिष्ठता प्रदान करके आरक्षण की सीमा को पार कर लिया है। यह तर्क दिया गया कि यह न तो संवैधानिक प्रस्ताव के अनुरूप है और न ही एम. नागराज मामले में दिए गए निर्णय द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुरूप है। विद्वान वकीलों ने यह भी तर्क दिया कि राज्य द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़े और रेखा-चित्र (चार्ट) वरिष्ठता की संख्या पर प्रकाश डालते हैं, लेकिन त्वरित वरिष्ठता के मूल मुद्दे और प्रशासन की दक्षता पर इसके प्रभाव पर प्रकाश नहीं डालते है।

वकीलों ने गंभीरतापूर्वक कहा कि रोस्टर प्रणाली के साथ त्वरित वरिष्ठता महत्वपूर्ण प्रभाव पैदा कर सकती है। तर्क के समर्थन में वकीलों ने कहा कि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का उम्मीदवार इस त्वरित वरिष्ठता के साथ 50 वर्ष की आयु में पदनाम के उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएगा, जबकि सामान्य श्रेणी का उम्मीदवार, सेवानिवृत्ति की आयु में भी, कल्पित छह स्तरों में से तीसरे या चौथे स्तर तक नहीं पहुंच पाएगा। यह अनुचित लाभ संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों के विरुद्ध होगा तथा संविधान के अनुच्छेद 335 द्वारा परिकल्पित राज्य के कुशल कामकाज को भी प्रभावित करेगा। वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 16(4A) और अनुच्छेद 16(4B) पूर्ण मौलिक अधिकार न होकर मात्र सक्षमकारी प्रावधान हैं। वकीलों ने सामान्य श्रेणियाँ कल्याण संघ बनाम भारत संघ (2012) के फैसले पर प्रकाश डाला, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया था कि जब पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ चुनौती दी जाती है, तो इसका निर्णय एम. नागराज मामले के फैसले द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए। अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) के निर्णय का हवाला देते हुए यह भी आग्रह किया गया कि किसी विशेष वर्ग को आरक्षण प्रदान करने से सम्पूर्ण प्रशासन की कार्यकुशलता बाधित नहीं होनी चाहिए। 

यू.पी. पावर निगम लिमिटेड बनाम राजेश कुमार (2012) में निर्णय

माननीय सर्वोच्च न्यायालय सभी तथ्यों का गहन निरीक्षण करने तथा तर्कों का गहन अवलोकन करने के बाद निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचा: 

  • न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 3(7) और 1991 के नियम 8-A संविधान के विरुद्ध हैं। यह भी नोट किया गया कि ये प्रावधान एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ (2006) में संवैधानिक पीठ के फैसले का खंडन करते हैं। 
  • न्यायालय ने इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के फैसले के आधार पर किसी भी आरक्षण की अनुमति दी, लेकिन अधिनियम की धारा 3(7) और 1991 के नियमों के नियम 8-A की सहायता के बिना नहीं। 
  • न्यायालय ने इलाहाबाद पीठ के फैसले को गैर-बाध्यकारी मिसाल मानने के लिए लखनऊ उच्च न्यायालय की खंडपीठ के निर्णय की निंदा की। समान संख्या वाली पीठ द्वारा लिए गए निर्णय को असहमति की स्थिति में बड़ी पीठ को संदर्भित करना न्यायिक अनुशासन है। हालाँकि, लखनऊ पीठ ने इलाहाबाद पीठ के फैसले को अनुचित बताया, जिसकी बहुत निंदा की गई। 
  • न्यायालय ने इलाहाबाद पीठ के फैसले के खिलाफ अपील स्वीकार कर ली तथा विवादित आदेश को रद्द कर दिया। लखनऊ पीठ के निर्णय को संशोधन के अधीन वैध माना गया। अतः सभी अपीलों का निपटारा किया जाता है तथा संबंधित पक्षों को संबंधित लागतें वहन करनी होंगी। 

निर्णय के पीछे तर्क

इस मामले की आधारशिला एम. नागराज मामले के फैसले की व्याख्या और पदोन्नति में आरक्षण से निपटने में संविधान के अनुच्छेद 16, अनुच्छेद 16(4A), अनुच्छेद 16(4B) और अनुच्छेद 335 के महत्व में निहित है। संविधान के अनुच्छेद 16(4A) के बावजूद राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित किसी भी वर्ग के पदों पर पदोन्नति में परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने का अधिकार दिया गया है। यह एक सक्षमकारी प्रावधान है जो राज्य को राज्य सेवाओं के उच्च ग्रेड में अनुसूचित समुदाय के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आधार पर विशेषाधिकार प्रदान करने के लिए सशक्त बनाता है। 

हालाँकि, संविधान का अनुच्छेद 16(1) राज्य रोजगार के मामलों में सभी नागरिकों को समान अवसर की गारंटी देता है। ये दोनों प्रावधान एक दूसरे के विपरीत हैं, क्योंकि ये संविधान के अनुच्छेद 16(1) के साथ अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार के साथ परिणामी वरिष्ठता विवाद हैं। इस मामले में दो न्यायाधीशों के पैनल ने विभिन्न अवसरों पर एम. नागराज मामले के बयानों को पुनः स्थापित किया। सबसे पहले, परिणामी वरिष्ठता की अवधारणा से निपटने के लिए, पीठ ने भारत संघ बनाम वीरपाल सिंह चौहान (1995) और अजीत सिंह जनुजा बनाम पंजाब राज्य (1996) सहित सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों पर भरोसा किया, ताकि इस तथ्य को पुनः स्थापित किया जा सके कि न्यायसंगत न्याय प्रदान करने के लिए कैच-अप नियम और परिणामी वरिष्ठता न्यायिक रूप से विकसित अवधारणाएं हैं। अदालत ने इस तथ्य का विरोध नहीं किया कि अनुसूचित समुदाय के ऐतिहासिक उत्पीड़न को ध्यान में रखते हुए, सामाजिक रूप से समतापूर्ण समाज की स्थापना के लिए आरक्षण एक आवश्यक शर्त है। 

न्यायालय पर पिछड़ेपन, प्रतिनिधित्व और दक्षता की अवधारणाओं को उचित संतुलन में रखने का दायित्व था। पीठ ने विलियम डारिटी के लेख का हवाला दिया, जिसका शीर्षक था, तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक कार्रवाई: नस्लीय और जातीय बहिष्कार का मुकाबला करने की रणनीतियां, जिसमें लेखक ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि सकारात्मक कार्रवाई किस प्रकार पारस्परिक प्रभाव डालती है। लेख में उल्लेखनीय बिंदु जिस पर न्यायालय ने विचार किया, वह यह था कि जब आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्रवाई लागू की जाती है, तो यह वर्ग के आधार पर होनी चाहिए, न कि नस्ल या जातीयता के आधार पर होनी चाहिए। न्यायालय को कानून के अनुसार व्यक्तिगत मामलों की जांच करने के लिए अपनी मार्गदर्शक शक्ति का प्रयोग करने का दायित्व था। एम. नागराज मामले में दिए गए निर्णय के अनुसार, न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि मात्र सक्षमकारी प्रावधान कार्यकुशलता या संवैधानिक प्रावधानों के लिए बाधा नहीं है, बल्कि बिना किसी समर्थनकारी डाटा के उन प्रावधानों का अनियमित कार्यान्वयन एक खतरनाक पहलू है। 

सरकार की स्थिरता उसके प्रशासन की दक्षता से निर्धारित होती है। इस प्रकार, दक्षता को सुविधाजनक बनाने के लिए, संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 335 के माध्यम से प्रशासन में दक्षता की अवधारणा को अंकित किया। हालाँकि, संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार, समाज के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उनकी शिक्षा और रोजगार के अवसरों में वृद्धि करके देखभाल और सहायता प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है। इससे उनके लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित होगा, जिससे उन्हें लंबे समय से वंचित रखा गया है। यह जरूरी है कि सरकार बिना किसी असमानता के दोनों प्रावधानों को एकसमान रूप से लागू करे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, समाज के कमजोर वर्गों की स्थिति को दर्शाने के लिए उचित समर्थन आंकड़े होने चाहिए; इससे बनाई गई योजना अधिक लक्ष्य-विशिष्ट बन सकेगी। यही कारण है कि समाज के प्रत्येक वर्ग को प्रदान किए जाने वाले आरक्षण का प्रतिशत उनकी जनसांख्यिकी, आर्थिक स्थिति, ऐतिहासिक भेदभाव और संवैधानिक विचारशीलता पर आधारित है। विभिन्न स्रोतों और उद्धरणों के माध्यम से, न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सरकार द्वारा शुरू की गई किसी भी सामाजिक सुरक्षात्मक भेदभाव योजना को उचित सांख्यिकीय विश्लेषण के बाद ही क्रियान्वित किया जाना चाहिए। 

इसके बाद न्यायालय अधिनियम की धारा 3(7) और 1991 के नियम 8-A की वैधता का परीक्षण करने के बिंदु पर पहुंचा। जैसा कि विभिन्न घोषणाओं में चर्चा की गई है, किसी भी आरक्षण के लिए मार्गदर्शक कारक समुदाय का पिछड़ापन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, सामाजिक रूप से न्यायसंगत प्रशासन, निश्चित आंकड़े और प्रस्तावित अधिकतम सीमा होंगे। जब राज्य की कार्रवाई से इनमें से किसी भी मार्गदर्शक कारक का खंडन होता है, तो ऐसी कार्रवाई कानून द्वारा निरस्त कर दी जाती है। राज्य के लिए आरक्षण मानदंड बनाने में पिछली घोषणाओं के अनुसार प्रक्रियाओं का पालन करना अनिवार्य है। इस प्रकार, राज्य के लिए यह आवश्यक है कि वह मात्रात्मक आंकड़े प्रस्तुत करे जो उस समुदाय के पिछड़ेपन का समर्थन करते हों जिसके लिए आरक्षण दिया जा रहा है। आवश्यक मात्रात्मक आंकड़ों के बावजूद, राज्य को आरक्षण की स्वीकार्य सीमा, अर्थात कुल उपलब्ध रिक्ति के 50% को पार करने की अनुमति नहीं है। यदि आरक्षण की सीमा में अत्यधिकता पाई जाती है, तो ऐसे आरक्षण से प्रशासन की कार्यकुशलता में बाधा उत्पन्न होगी। 

इन सभी विचारों के आलोक में, न्यायालय ने 77वें, 81वें, 82वें और 85वें संविधान संशोधन को वैध माना। ये संशोधन अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को किसी भी श्रेणी के पदों पर पदोन्नति में आरक्षण देने के उद्देश्य से सक्षम प्रावधान थे। न्यायालय ने सूरजभान मीना बनाम राजस्थान राज्य (2011) के फैसले पर भी प्रकाश डाला, जिसमें एम. नागराज मामले के फैसले को बहाल किया गया था, तथा समुदाय के पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए मात्रात्मक आंकड़ों की आवश्यकता पर बल दिया गया था। इस मामले में न्यायालय इस अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचा कि किसी भी वर्ग के पदों पर पदोन्नति में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को त्वरित वरिष्ठता प्रदान करने से पहले सरकार द्वारा मात्रात्मक आंकड़े एकत्र करने के लिए कोई नया प्रयास नहीं किया गया है। 

पीठ ने निर्णय के पूर्ववर्ती मूल्य को प्रतिपादित करने के लिए सुंदरजस कन्यालाल भतीजा बनाम कलेक्टर (1989) के निर्णय पर भरोसा किया। इस मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रस्तुत की कि बहु-न्यायाधीशों वाली अदालत में, न्यायाधीश पूर्व उदाहरणों से बंधे होते हैं। जब कोई घोषित सिद्धांत नहीं होता, तभी न्यायाधीश अपने विवेक के आधार पर निर्णय ले सकते हैं। यह एक असंहिताबद्ध (अनकॉड़ीफाइड) नियम और न्यायिक शिष्टाचार का सिद्धांत है कि जब एक पीठ के निर्णय और किसी अन्य पीठ या यहां तक कि एकल न्यायाधीश के निर्णय के बीच असहमति हो, तो निर्णय को एक बड़ी पीठ को भेजा जाना चाहिए। इस सिद्धांत का कोई भी विरोधाभास, चाहे उसका कारण कितना भी महान क्यों न हो, न्यायिक अनुशासन के विरुद्ध है। न्यायालय ने इलाहाबाद पीठ के निर्णय को गैर-बाध्यकारी मिसाल बताते हुए लखनऊ खंडपीठ द्वारा अपनाई गई न्यायिक संस्कृति पर अपनी असहमति व्यक्त की। न्यायालय ने न्यायाधीशों से आग्रह किया कि वे समाज का विश्वास बनाए रखने के लिए न्यायिक अनुशासन और उत्साह के इस बुनियादी स्तर का पालन करें।

विवादित अवधारणाएँ

  • परिणामी वरिष्ठता: पदोन्नति के दौरान अपनाई जाने वाली विधि, जहां आरक्षित श्रेणी से संबंधित व्यक्ति पदोन्नति में आरक्षण के माध्यम से सामान्य उम्मीदवार की तुलना में वरिष्ठता प्राप्त करता है। यह त्वरित वरिष्ठता प्रबंधन की रोस्टर प्रणाली पर लागू होती है। इस प्रकार, अपेक्षाकृत कम अनुभव के साथ, एक अभ्यर्थी किसी विशेष संवर्ग (कैडर) में आरक्षण के माध्यम से वरिष्ठता प्राप्त कर लेता है। 
  • कैच-अप नियम: इस पद्धति में, सामान्य वर्ग से संबंधित उच्च अनुभव वाला व्यक्ति उच्च वरिष्ठता रखता है, भले ही आरक्षित उम्मीदवार द्वारा अर्जित वरिष्ठता कुछ भी हो। 

दृष्टांत

मान लीजिए कि व्यक्ति ‘X’ आरक्षित श्रेणी से संबंधित है और व्यक्ति ‘Y’ सामान्य श्रेणी से संबंधित है। अब, व्यक्ति ‘X’ को रोजगार में आरक्षण के माध्यम से ग्रुप D सेवाओं के एक पद पर नियुक्त किया जाता है, और व्यक्ति ‘Y’ को व्यक्ति ‘X’ से एक वर्ष पहले ग्रुप D सेवाओं के उसी पद पर नियुक्त किया जाता है। दस वर्ष की सेवा के बाद दोनों ग्रुप C सेवाओं में पदोन्नति के हकदार होंगे। अब मान लीजिए कि ग्रुप C सेवाओं में पदोन्नति द्वारा भरी जाने वाली रिक्ति अनुसूचित समुदाय के लिए आरक्षित है। इस उदाहरण में, परिणामी वरिष्ठता के आधार पर, व्यक्ति ‘X’ पदोन्नति का हकदार हो जाता है, भले ही उसके पास व्यक्ति ‘Y’ की तुलना में कम अनुभव हो। इस प्रणाली को परिणामी वरिष्ठता तंत्र कहा जाता है। यदि व्यक्ति ‘Y’, आरक्षण की उपस्थिति के बावजूद, वरिष्ठता और अनुभव के आधार पर व्यक्ति ‘X’ से पहले पदोन्नति का हकदार हो जाता है, तो उस प्रणाली को कैच-अप नियम कहा जाता है। 

संदर्भित पूर्ववर्ती उदाहरण

न्यायालय ने समानता की सामान्य अवधारणा के संबंध में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण के प्रश्न पर निर्णय लेने में विभिन्न उदाहरणों पर भरोसा किया। निर्णय में उद्धृत सभी मामलों में से कुछ मामले, लिए गए निर्णय और पीठ के आकार के कारण उल्लेखनीय महत्व रखते हैं। वे मामले इस प्रकार हैं: 

एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ (2006)

यह मामला आरक्षण की मूल अवधारणा को तय करने में महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इस मामले का निर्णय आज भी आरक्षण के मामलों में मार्गदर्शक के रूप में बना हुआ है। पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ में शामिल मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वाई.के.सभरवाल, न्यायमूर्ति के.जी.बालकृष्णन, न्यायमूर्ति एस.एच.कपाड़िया, न्यायमूर्ति सी.के.ठाकर और न्यायमूर्ति पी.के.बालसुब्रमण्यन ने समाज के किसी विशेष वर्ग के पिछड़ेपन से निपटने के लिए आरक्षण के मानदंड तय करने के लिए राज्य को कठोर सिद्धांत दिए। इस मामले में याचिकाकर्ता ने 85वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2001 को रद्द करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उत्प्रेषण (सर्टिओरारी) याचिका दायर की, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 16(4A) के सक्षम खंड को शामिल किया गया था। याचिकाकर्ताओं द्वारा दावा किया गया है कि इस अनुचित प्रविष्टि से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को पदोन्नति में परिणामी वरिष्ठता प्रदान करके भारी लाभ हुआ है। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि यह अनुचित लाभ सभी के समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है और इसलिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से इस संशोधन को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया। यह मामला इस समय दायर की गई कई रिट याचिकाओं से संबंधित था। 

याचिकाकर्ताओं ने त्वरित पदोन्नति की सुविधा के लिए परिणामी वरिष्ठता को जोड़ने का कड़ा विरोध किया। इसे निम्नलिखित तीन आधारों पर चुनौती दी गई: 

  • संविधान के मूल ढांचे के संबंध में प्रावधान की वैधता
  • प्रावधान की स्पष्टता के साथ व्याख्या
  • पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित सरकारी आदेशों के माध्यम से कार्यान्वयन 

प्रशासन की दक्षता को भी चित्र में लाया गया, क्योंकि अत्यधिक आरक्षण निश्चित रूप से संविधान के अनुच्छेद 335 के तहत अनिवार्य कुशल प्रशासन के ढांचे को बिगाड़ देगा। 

न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करना सरकार की जन्मजात शक्ति है। हालाँकि, न्यायालय का दृढ़ मत था कि संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं किया जा सकता।

न्यायालय ने मिनर्वा मिल्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1980) के फैसले को एक मिसाल के तौर पर लेते हुए कहा कि सरकार को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के प्रावधानों को लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों में बदलाव करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह भी कहा गया कि कानून के शासन की न्यायसंगत स्थिति को बनाए रखने के लिए बुनियादी ढांचे और सामाजिक योजनाओं के बीच संतुलन आवश्यक है। इस संबंध में आर.के.सभरवाल एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य (1995) के निर्णय के आधार पर आरक्षण की सीमा 50% निर्धारित की गई। यहां तक कि आगे बढ़ाई गई रिक्तियों के मामले में भी 50% से अधिक पद आवंटित नहीं किए जा सकते। पीठ ने आरक्षण और समानता के मुद्दे से निपटने के लिए मूल्यवान सिद्धांतों का एक समूह प्रदान किया। 

  • संविधान के अनुच्छेद 16(4A) और अनुच्छेद 16(4B) के अंतर्गत सक्षमकारी प्रावधान संवैधानिक रूप से वैध हैं। हालाँकि, राज्य को प्रावधानों को सशक्त बनाने वाले कानून बनाने के लिए विश्वसनीय आंकड़ों की आवश्यकता है। 
  • संविधान का अनुच्छेद 16(4) राज्य द्वारा सुरक्षात्मक भेदभाव को सक्षम बनाता है, जबकि संविधान का अनुच्छेद 16(1) देश के सभी नागरिकों को रोजगार के अवसरों में समानता प्रदान करता है। ये प्रकृति में पूरक (कॉम्प्लीमेंट्री) हैं तथा मौलिक अधिकारों को कायम रखते हैं। 
  • आरक्षण प्रणाली में प्रत्येक पद किसी विशेष समुदाय या वर्ग से एक उम्मीदवार को दिया जाता है। बाद में रिक्त होने पर, पद को उस विशेष समुदाय या वर्ग के उम्मीदवार द्वारा भरा जाना होगा। 
  • कैडर की ताकत रोस्टर प्रणाली का एक महत्वपूर्ण पैरामीटर है, जो समुदाय में प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता पर प्रकाश डालता है। इसके अलावा, कैडर शक्ति के कारक का उपयोग रिक्तियों की 50% की अधिकतम सीमा को पार किए बिना आरक्षण की निगरानी के लिए किया जाता है। रोस्टर प्रणाली पद-विशिष्ट होनी चाहिए न कि रिक्ति-विशिष्ट। 
  • पिछड़ापन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व दो ऐसे कारक हैं जिनका सत्यापन संविधान के अनुच्छेद 16(4A) के तहत अनुसूचित समुदाय को पदोन्नति में परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने के लिए राज्य द्वारा किया जाना है।
  • जब कोई पद अत्यधिक समय तक रिक्त रहता है, तो इससे प्रशासन में उसकी प्रभावशीलता पर निश्चित रूप से असर पड़ता है। इसलिए, राज्य को किसी विशेष वर्ग या समुदाय के लिए रिक्ति को भरने के लिए एक विशिष्ट समय सीमा निर्धारित करनी होगी। जब अवधि निर्धारित समय सीमा से अधिक हो जाती है तो पद अन्य वर्ग के अभ्यर्थियों को आवंटित करना पड़ता है। 
  • जब सरकार संविधान के अनुच्छेद 16(4) में उल्लिखित मापदंडों का पालन किए बिना आरक्षण प्रदान करती है, तो ऐसे अधिनियम को अवैध और संविधान के अधिकारातीत (अल्ट्रा वायर्स) माना जाएगा। 
  • संविधान के अनुच्छेद 335 के तहत प्रशासन में दक्षता और संविधान के अनुच्छेद 16(4) द्वारा परिकल्पित आरक्षण के बीच संबंध मामला-विशिष्ट है और कोई सामान्य कदम नहीं है। 
  • किसी समुदाय के पिछड़ेपन के संबंध में डाटा संग्रहण, स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर किया जाने वाला मामला-विशिष्ट कार्य है। सरकार को इस संबंध में उचित महत्व और अनुपालन दिखाना चाहिए। 

इस प्रकार संवैधानिक पीठ ने 77वें, 81वें, 82वें और 85वें संविधान संशोधन अधिनियमों की वैधता को बरकरार रखा और रिट याचिका का निपटारा कर दिया। राज्य अधिनियमों से संबंधित व्यक्तिगत याचिकाओं को उचित पीठों को भेजा गया। 

इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992)

यह मामला केन्द्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण से संबंधित है। मामले की याचिकाकर्ता, अधिवक्ता इंद्रा साहनी ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की, जिसमें मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के सरकार के फैसले को चुनौती दी गई, जिन्हें संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत तैयार किया गया था। यह मामला नौ न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ के समक्ष लाया गया जिसमें न्यायमूर्ति एम.एच. कनिया, न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया, न्यायमूर्ति एस. रानावेल पांडियन, न्यायमूर्ति टी.के. थॉमेन, न्यायमूर्ति ए.एम. अहमदी, न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह, न्यायमूर्ति पी.बी. सिंह, न्यायमूर्ति आर.एम. सहाय और न्यायमूर्ति बी.पी. जीवन रेड्डी शामिल थे। इस मामले का मुख्य भाग सार्वजनिक रोजगार में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को दिए गए आरक्षण तथा इस आरक्षण की सीमा के विरुद्ध चुनौती है। भारत सरकार ने 1979 में भारत में सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का आकलन करने के लिए बी.पी. मंडल (जो संसद सदस्य हैं) के नेतृत्व में दूसरा आयोग गठित किया। आयोग ने एक वर्ष के पुनर्विचार के बाद 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें सार्वजनिक रोजगार में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की गई। समाज के सामान्य वर्ग ने इस सिफारिश का विरोध किया और तर्क दिया कि इस सिफारिश का क्रियान्वयन संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 16(1) में निहित समानता के अधिकार के प्रावधान का घोर उल्लंघन होगा। न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये गये: 

  • क्या किसी समुदाय के पिछड़ेपन की घोषणा के लिए आर्थिक मानदंड पर्याप्त है?
  • क्या संविधान का अनुच्छेद 16(4) सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद 16(1) का अपवाद है? 

याचिकाकर्ता, जो सार्वजनिक रोजगार के लिए सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों का सामूहिक प्रतिनिधित्व करते हैं, ने दावा किया कि जाति के आधार पर आरक्षण भारतीय समाज में खाई को चौड़ा करता है तथा असमानता को गहरा करता है। समाज के एक विशेष वर्ग को, चाहे वह किसी भी वर्ग से चुनाव लड़ रहा हो, अतिरिक्त आरक्षण देने का कार्य सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों के विरुद्ध स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण कार्य है, जो संविधान के अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है। यह भी तर्क दिया गया कि जाति के आधार पर आरक्षण में कोई भी विस्तार संविधान के अनुच्छेद 335 द्वारा परिकल्पित प्रशासन की दक्षता को प्रभावित करेगा। बी. वेंकटरमन बनाम तमिलनाडु राज्य (1951) के फैसले को एक मिसाल के रूप में रेखांकित किया गया, जिससे यह दोहराया गया कि सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण प्रदान करने के लिए जाति को एक पैरामीटर के रूप में नहीं लिया जा सकता। एम.आर. बालाजी एवं अन्य बनाम मैसूर राज्य (1963) के निर्णय को भी इसी तथ्य पर जोर देने के लिए प्रस्तुत किया गया तथा इस पहलू को भी रेखांकित किया गया कि कुल आरक्षण 50% की स्वीकार्य सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए। 

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने के विरुद्ध कठोर तर्क दिया गया, क्योंकि इससे आरक्षण दोगुना हो जाएगा और इससे सार्वजनिक रोजगार की व्यवस्था बेकार हो जाएगी। हालाँकि, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि आरक्षण एक सुरक्षात्मक भेदभाव पद्धति है जिसका पालन समाज में सामाजिक न्याय बनाए रखने के लिए किया जाता है। समाज के सामाजिक पिछड़ेपन का विश्लेषण करने के लिए आयोग का गठन संविधान के अनुच्छेद 340 के अनुसार किया गया था। आयोग ने व्यापक शोध किया और उस शोध के आधार पर राज्य को सिफारिशें दीं, इसलिए प्रतिवादियों द्वारा यह तर्क दिया गया कि आरक्षण प्रदान करने की राज्य की मंशा उचित आंकड़ों द्वारा समर्थित है। आयोग द्वारा ओबीसी के पिछड़ेपन से संबंधित आंकड़े उन्हें विशेष सुविधाएं प्रदान करने के उद्देश्य से एकत्र किये गए थे। 

याचिकाकर्ता द्वारा किया गया यह दावा कि डाटा पुराना हो चुका है, प्रतिवादियों द्वारा स्वीकार नहीं किया गया। इसके अलावा, संविधान के अनुच्छेद 16(4) में सक्षम प्रावधान इस शर्त पर आरक्षण की अनुमति देता है कि पिछड़ापन उचित आंकड़ों द्वारा समर्थित हो और अधिकतम सीमा पार न की जाए। यह तर्क दिया गया कि प्रशासन में दक्षता तभी प्राप्त की जा सकती है जब समाज के सभी वर्गों के बीच समान विकास हासिल किया जाए; आरक्षण का उद्देश्य पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करना है, जिससे उस विशेष समुदाय के जीवन स्तर में सुधार हो सके। इसलिए, सरकार द्वारा की गई सुरक्षात्मक कार्रवाई को संविधान के अनुच्छेद 335 के अधिकारातीत नहीं कहा जा सकता। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि 

  • अनुच्छेद 16(4) संविधान के अनुच्छेद 16(1) का एक सक्षम प्रावधान है न कि अपवाद है।
  • पिछड़ेपन के लिए सामाजिक-आर्थिक कारकों के साथ-साथ ऐतिहासिक अधीनता को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इसलिए, पिछड़ेपन को परिभाषित करने के लिए जाति को भी एक पैरामीटर के रूप में लिया जाता है। 
  • हालाँकि, पीठ ने इस तथ्य पर सहमति व्यक्त की कि विशेष पिछड़े समुदाय का एक उच्च आय समूह, जिसे नवोन्नत वर्ग कहा जाता है, आरक्षण से बाहर रखा गया है। 
  • कुल आरक्षण 50% की स्वीकार्य सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए। 
  • पीठ ने पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति नहीं दी (जिसे बाद में संशोधन के रूप में जोड़ा गया)।
  • नौ न्यायाधीशों की पीठ ने 6:3 बहुमत से मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर अपनाए गए आरक्षण का समर्थन किया।

यू.पी. पावर निगम लिमिटेड बनाम राजेश कुमार (2012) का आलोचनात्मक विश्लेषण

आरक्षण सरकार द्वारा पिछड़ेपन की वर्तमान स्थिति की भरपाई के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से किए गए अत्याचारों को ध्यान में रखते हुए की गई एक सामाजिक कल्याण नीति है। प्रसिद्ध तमिल साहित्य, तिरुक्कुरल, में एक कहावत है, 

“पिरप्पोक्कुम एला उइरक्कुम सिरप्पोव्वा सीथोलिल वेट्रुमाई यान”

इसका अर्थ यह है कि इस संसार में जन्म लेने वाले सभी लोग एक दूसरे के बराबर हैं; वे अपने द्वारा अपनाए गए सिद्धांतों और कार्यों के आधार पर उच्च या निम्न वर्ग के बन जाते हैं। मानव सभ्यता के पहले के हिस्से में परस्पर संबद्ध दृष्टिकोण था, जहां समाज का हर वर्ग बिना किसी भेदभाव के तथाकथित राष्ट्र के विकास में योगदान देता था। जब यह काम एक कबीले का व्यवसाय बन गया, तो जाति की बुरी व्यवस्था ने समाज में अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दीं। जाति व्यवस्था ने समाज में असंख्य दुखों को जन्म दिया है, विशेषकर उन लोगों के लिए जिन्हें समाज के अन्य वर्गों द्वारा निम्न वर्ग के रूप में पहचाना जाता है। उन्हें स्वच्छ आवास, उचित वस्त्र और पर्याप्त भोजन जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा गया। 

उपरोक्त असमानताओं के साथ-साथ, उन्हें बुनियादी मानवीय सम्मान और अवसर से भी वंचित रखा गया। चरम मामलों में, उन्हें अमानवीय दंड और क्रूरता का भी सामना करना पड़ा। भारतीय परिप्रेक्ष्य में, विभिन्न समाज सुधारकों और कार्यकर्ताओं के प्रयासों से, शोषित समुदाय के दर्द और पीड़ा को दुनिया के सामने लाया गया। जातिगत असमानताओं के विरुद्ध लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए सुधारवादियों द्वारा विभिन्न सुधार आंदोलन शुरू किए गए। इनमें उल्लेखनीय हैं सतनामी समाज, जिसकी स्थापना घासीदास ने 1820 में निम्न जाति के लोगों की सामाजिक स्थिति में सुधार लाने के लिए की थी; 1828 में राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज ने जाति-आधारित भेदभाव की आलोचना की; 1867 में आत्माराम पांडुरंग द्वारा स्थापित प्रार्थना समाज सभी जातियों की आध्यात्मिक समानता में विश्वास करता था; 1873 में ज्योतिराव फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज ने जाति समानता का प्रचार किया; ई.वी. रामासामी नायकर द्वारा शुरू किया गया आत्मसम्मान आंदोलन जातिगत भेदभाव के खिलाफ था। ये सुधार पहल पूरे देश में और सभी धर्मों में आयोजित की गईं। हालाँकि, इन सभी आंदोलनों के बावजूद, उत्पीड़ित वर्गों की सभी पीड़ाओं को मिटाने का एकमात्र रास्ता उचित प्रतिनिधित्व के माध्यम से उन्हें अधिकार सौंपना है। 

1882 में भारतीय सिविल सेवा अधिकारी सर विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने संयुक्त रूप से जाति-आधारित आरक्षण का विचार प्रस्तुत किया था। हंटर आयोग का गठन लॉर्ड रिपन द्वारा ब्रिटिश भारत की शैक्षिक व्यवस्था में सुधार लाने तथा समाज के सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए किया गया था। महाराष्ट्र के कोल्हापुर के महाराज छत्रपति साहूजी महाराज ने गरीबी उन्मूलन और उनकी आजीविका में सुधार लाने के उद्देश्य से 1902 में पिछड़े वर्गों के लिए सेवाओं में आरक्षण की शुरुआत की थी। साउथ बरो समिति की सिफारिशों के आधार पर, ब्रिटिश संसद द्वारा भारत सरकार अधिनियम, 1919 पारित किया गया, जिसने पहली बार दलित वर्ग के लोगों को सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया। डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने राव बहादुर श्रीनिवासन के साथ 1930 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय दलित वर्ग सम्मेलन में भाग लिया, जिसमें दलित वर्ग के लिए सार्वजनिक सेवाओं में आरक्षण की मांग की गई। पहला बड़ा आरक्षण 1933 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा प्रस्तुत सांप्रदायिक पुरस्कार के रूप में आया। इस निर्णय के तहत मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, आंग्ल-भारतीय, यूरोपीय लोगों और दलितों को पृथक निर्वाचिका प्रदान की गई। गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के इस कदम का विरोध करते हुए कहा कि इससे हिंदू समुदाय में सांप्रदायिकता बढ़ेगी। डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने शुरू में गांधीजी के दावे का विरोध किया; हालाँकि, बाद में वे दोनों पूना समझौते पर हस्ताक्षर करके आम सहमति पर आ गए, जिसमें आरक्षण के साथ एकल हिंदू निर्वाचन क्षेत्र का आश्वासन दिया गया। स्वतंत्रता के बाद सार्वजनिक सेवाओं में केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण प्रदान किया गया, जो 22.5% निर्धारित था। बाद में, 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद ओबीसी के लिए आरक्षण बढ़ा दिया गया, जो 27% तय किया गया। वर्ष 2019 में 103वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 10% का आरक्षण प्रदान किया गया। प्रतिशतता और मानदंड कार्यक्षेत्र दर कार्यक्षेत्र और जनसांख्यिकी के आधार पर भिन्न होते रहते हैं। 

भारत में आरक्षण के मापदंड

निर्णय के परिणामों का विश्लेषण करने के लिए आरक्षण के मानदंडों और समाज पर इसके प्रभाव को समझना आवश्यक है। 

भारत में सरकारी नौकरियों के लिए केंद्रीय आरक्षण 

क्र.सं. वर्ग प्रतिशतता
1. अनुसूचित जाति (एससी) 15%
2. अनुसूचित जनजाति (एसटी) 7.5%
3. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) 27%
4. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) 10%
5. बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्ति*   4%**

* प्रासंगिक विकलांगता का 40% से कम नहीं 

** दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के बाद प्रस्तुत किया गया

आरक्षण का प्रतिशत – राज्यवार 

क्र.सं. राज्य/संघ राज्य क्षेत्र अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अन्य पिछड़ा वर्ग आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग अन्य कुल
1 आंध्र प्रदेश 15 6 29 10 60
2 अंडमान व नोकोबार द्वीप समूह 12 38 50
3 अरुणाचल प्रदेश 80 80
4 असम 7 15 27 10 59
5 बिहार 20 2 43 10 75
6 चंडीगढ़ 27 27
7 छत्तीसगढ 13 32 14 10 69
8 दादरा और नगर हवेली तथा दमन और दीव 3 9 27 39
9 दिल्ली 15 7 27 10 59
10 गोआ 2 12 27 10 51
11 गुजरात 7 14 27 10 58
12 हरियाणा 20 23 10 53
13 हिमाचल प्रदेश 25 4 20 10 59
14 झारखंड 10 26 14 10 60
15 कर्नाटक 17 7 32 10 66
16 केरल 8 2 40 10 60
17 लक्षद्वीप 10 10
18 मध्य प्रदेश 16 20 14 10 60
19 महाराष्ट्र 13 7 32 10 10 (मराठा)1(अनाथ) 73
20 मणिपुर 3 34 17 54
21 मेघालय 80 80
22 मिज़ोरम 80 80
23 नागालैंड 80 80
24 ओडिशा 16 22 11 10 59
25 पुदुचेरी 16 34 50
26 पंजाब 29 12 10 51
27 राजस्थान 16 12 21 10 5(एमबीसी) 64
28 सिक्किम 7 18 40 20 85
29 तमिलनाडू 18 1 50 69
30 तेलंगाना 15 10 29 10 64
31 त्रिपुरा 17 31 2 10 60
32 उत्तर प्रदेश 21 2 27 10 60
33 उत्तराखंड 19 4 14 10 47
34 पश्चिम बंगाल 22 6 17 10 55

यह ध्यान देने योग्य है कि कई राज्यों ने इंद्रा साहनी मामले में दिए गए निर्णय द्वारा निर्धारित 50% की सीमा का उल्लंघन किया है। यह कार्य संविधान संशोधन के माध्यम से तथा कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में रखकर किया गया है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु राज्य में, तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (शैक्षणिक संस्थानों में सीटों का आरक्षण और राज्य के अधीन सेवाओं में नियुक्तियों या पदों का आरक्षण) अधिनियम, 1994 के माध्यम से शिक्षा और रोजगार में 69% आरक्षण की गारंटी दी गई है। यह अधिनियम संविधान की नौवीं अनुसूची में रखा गया है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 31B के तहत शून्य घोषित करने से बचाया गया है। प्रत्येक वर्ग के लिए प्रदान किए गए आरक्षण में वर्ग के भीतर आंतरिक आरक्षण है, जिससे व्यक्तिगत संप्रदायों को सशक्त बनाया जाता है। तमिलनाडु में 69% आरक्षण में पिछड़े वर्गों के लिए 26.5%, पिछड़े वर्गों (मुस्लिम) के लिए 3.5%, सबसे पिछड़े वर्गों (एमबीसी) और विमुक्त समुदायों के लिए 20%, अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जाति (अरुणथियार) के लिए 3%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 1% शामिल है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, बिहार आदि कई राज्यों में इसी प्रकार की जटिल आरक्षण संरचना है। यह एक लंबी न्यायिक और राजनीतिक लड़ाई के माध्यम से हासिल किया गया। 

“नवोन्नत वर्ग” की अवधारणा पहली बार केरल राज्य बनाम एन.एम. थॉमस (1974) के फैसले में प्रतिपादित की गई थी। नवोन्नत वर्ग का तात्पर्य अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में उच्च आय वाले या अत्यधिक लाभान्वित लोगों के समूह से है। 1992 में, इंदिरा साहनी मामले में दिए गए फैसले ने आरक्षण के लाभ से क्रीमी लेयर श्रेणी के अभ्यर्थियों को बाहर कर दिया। नवोन्नत वर्ग के निर्धारण हेतु मानदंड तैयार करने हेतु आर.एन. प्रसाद की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई थी। नवोन्नत वर्ग के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिए वर्तमान स्थितियाँ हैं 

  • यदि अभ्यर्थी के माता-पिता 40 वर्ष की आयु से पहले समूह A या समूह B सेवा में हों।
  • यदि परिवार की वार्षिक आय 8 लाख रुपये से अधिक है, जिसमें वेतन और कृषि भूमि से आय शामिल नहीं है। 

नवोन्नत वर्ग की अवधारणा, आरक्षण नीति के लाभों को वास्तविक और पात्र लाभार्थियों तक पहुंचाने की गारंटी देने में एक सीमित कारक है।

आरक्षण का प्रभाव

आरक्षण एक सामाजिक इंजीनियरिंग तकनीक है जिसे राज्य द्वारा पिछड़े समुदायों की दमनकारी स्थिति को कम करने के लिए अपनाया जाता है। हालाँकि, केवल योजना बनाना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि प्रभाव तथा चिंता के क्षेत्रों की पहचान के लिए उचित कार्यान्वयन और समीक्षा आवश्यक है। भारत सरकार के लोक उद्यम (एंटरप्राइज) विभाग द्वारा 2016 में जारी ब्रोशर (डीपीई-जीएम-15/001/2016-जीएम-एफटीएस-5921) में दिए गए आंकड़ों द्वारा अनुसूचित समुदाय के प्रतिनिधित्व पर प्रकाश डाला गया था। आंकड़े इस प्रकार हैं: 

वर्ष समूह A समूह B समूह C समूह D कुल
अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति
1965 1

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2

उपरोक्त तालिका (टेबल) सार्वजनिक सेवाओं में अनुसूचित समुदाय के प्रतिनिधित्व में स्पष्ट सुधार दर्शाती है। वास्तव में, यदि वृद्धि के प्रतिशत पर विचार किया जाए तो समूह A सेवाओं में प्रतिनिधित्व अन्य सेवाओं की तुलना में अधिक बढ़ा है। जब ओबीसी पर विचार किया जाता है, तो वे मंडल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन के बाद ग्रुप A सेवाओं में 8.37%, ग्रुप B सेवाओं में 10.01% और ग्रुप C सेवाओं में 17.98% का प्रतिनिधित्व करते हैं। आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाना है, यही कारण है कि इसे सार्वजनिक सेवाओं, पदोन्नति, शिक्षा, राज्य के स्वामित्व वाली आवास सुविधाओं, छात्रवृत्ति, प्रशिक्षण आदि सहित विभिन्न स्तरों पर प्रदान किया जाता है। इन योजनाओं का प्रभाव प्राथमिक और उच्च शिक्षा दोनों में अविकसित क्षेत्रों के विद्यार्थियों के नामांकन प्रतिशत में देखा जा सकता है। आरक्षण का मुख्य उद्देश्य ऐतिहासिक अन्याय के घावों को भरना है। यह अन्याय अनादर के रूप में था, जो दलित समुदाय को नीची नौकरियों की जिम्मेदारी सौंपकर हासिल किया जाता है। इसलिए, उन्हें अपना सम्मान वापस दिलाने के लिए, प्रभावित समुदाय को निम्न-श्रेणी की नौकरी से बाहर निकालना होगा। इस बीमारी का रामबाण इलाज उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और वैकल्पिक रोजगार के अवसर प्रदान करना है। आरक्षण उन्हें शिक्षा और रोजगार प्रदान करने के लिए एक सक्षम तंत्र है, जिससे उन्हें लंबे समय से वंचित रखा गया है। जैसा कि संविधान निर्माताओं ने परिकल्पना की थी, समानता का अर्थ मात्रात्मक संतुलन ही नहीं बल्कि गुणात्मक संतुलन भी है। इस प्रकार, ऐतिहासिक कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए, आरक्षण के माध्यम से पिछड़े समुदाय को रणनीतिक लाभ प्रदान किया जाता है। 

भारत में जाति-आधारित आरक्षण के कारण गैर-आरक्षित वर्ग के रोजगार पर पड़ने वाले प्रभाव पर एक शोध अध्ययन, अमेरिका के ह्यूस्टन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर शुभांगी सिंह द्वारा किया गया था। भारत में रोजगार संबंधी आंकड़े विश्व मूल्य सर्वेक्षण के संग्रह से प्राप्त किए जाते हैं। स्टेटा सॉफ्टवेयर का उपयोग करके 2001 (वेव 4) और 2012 (वेव 6) के रोजगार आंकड़ों के बीच तुलना की गई है। तुलना के लिए प्रयुक्त विभिन्न मापदण्ड हैं – शैक्षिक स्तर, रोजगार, तथा व्यवसायों का स्वामित्व। परिणाम आश्चर्यजनक थे, जिनसे यह तथ्य सिद्ध हो गया कि पिछड़े समुदायों के आरक्षण से खुली श्रेणी के उम्मीदवारों की नौकरी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। सामान्य श्रेणी में उच्चतम डिग्री प्राप्त करने वाले लोगों का प्रतिशत 2001 में 10.3% से बढ़कर 2012 में 12.2% हो गया है। सामान्य वर्ग द्वारा अपनाए गए उद्यमशील उपक्रम (एंटरप्रन्योरियल वेंचर) 4.1% से बढ़कर 23.9% हो गए हैं। विश्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त करने वाले अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों के प्रतिशत में वृद्धि हुई है, लेकिन इससे सामान्य वर्ग के प्रतिशत में कोई कमी नहीं आई है। समाज के सभी वर्गों में बेरोजगारी के प्रतिशत में समग्र कमी आई है। निजी नौकरियों के प्रति वरीयता और सार्वजनिक नौकरियों के प्रति वरीयता के बीच के अनुपात में इस दशक में बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है, जिससे यह पता चलता है कि आरक्षण के कारण सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए अवसर प्रभावित नहीं हुए हैं। यह विश्लेषण स्पष्ट संकेत देता है कि जाति-आधारित आरक्षण से सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों की रोजगार या शैक्षिक स्थिति पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा हैं। 

जून, 2021 में भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के तत्वावधान में विकास अध्ययन केंद्र, तिरुवनंतपुरम, केरल द्वारा एक परिकल्पना-परीक्षण अध्ययन किया गया था। अध्ययन का उद्देश्य यह जांचना था कि क्या उच्च शिक्षा में आरक्षण से ओबीसी उम्मीदवारों के लिए बेहतर नौकरियां पाने की संभावनाओं में कोई बदलाव आया है। अंतर में अंतर विधि एक मात्रात्मक, अर्थमितीय प्रयोगात्मक दृष्टिकोण है, जिसमें सकारात्मक और नकारात्मक स्थितियों वाले दो जनसंख्या नमूनों की तुलना करके परिणाम में अंतर ज्ञात किया जाता है। विश्लेषण हेतु डाटा राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन, भारत सरकार द्वारा आयोजित आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण, 2018 से लिया गया है। यह डाटा भारत के विभिन्न भागों के ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के 1,02,113 परिवारों की सामाजिक-आर्थिक तथा जनसांख्यिकीय जानकारी को सम्मिलित करता है। आरक्षण की तीव्रता एक मापदंड है, जिसे किसी समुदाय में आरक्षण के प्रतिशत और कुल जनसंख्या में समुदाय के प्रतिशत के अनुपात के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस विश्लेषण का परिणाम यह था कि आरक्षण नीति ने रोजगार के अवसरों के संदर्भ में पिछड़े समुदायों के कल्याण पर सकारात्मक प्रभाव डाला। शिक्षा में आरक्षण ने सरकारी सेवाओं, विशेषकर प्रशासनिक, कार्यकारी और प्रबंधकीय सेवाओं में रोजगार पर सकारात्मक प्रभाव डाला है। हालांकि, आरक्षण की तीव्रता बढ़ने से रोजगार की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता है। वास्तव में, आरक्षण की तीव्रता बढ़ने से रोजगार की स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। निम्न दर्जे की सरकारी नौकरियों पर इसका थोड़ा प्रभाव पड़ा है, जिसका कारण ऐसी नौकरियों में कम कौशल की आवश्यकता हो सकती है। 

2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के अनुसार, कुल जनसंख्या में से 18.46% अनुसूचित जाति से और 10.97% अनुसूचित जनजाति से हैं। मोटे तौर पर यह राशि क्रमशः 15.88 करोड़ और 9.27 करोड़ होती है। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा आयोजित केन्द्रीय सरकारी कर्मचारियों की जनगणना, 2011 के अनुसार, समूह A, समूह  B, समूह C और समूह D पदों पर कर्मचारियों की कुल संख्या क्रमशः 93853, 380044, 2127752 और 485629 है। उपरोक्त तालिका के आधार पर, आइए हम गणना के उद्देश्य से मान लें कि विभिन्न सेवाओं के लिए रोजगार प्रतिशत समान रहता है (निश्चित रूप से, यह प्रतिशत में बढ़ गया होगा)। आइए हम प्रत्येक श्रेणी के पदों में प्रतिनिधित्व की तीव्रता की गणना करने का प्रयास करें। तो, कुल ग्रुप A कर्मचारियों में से लगभग 12.5% अनुसूचित जातियों से हैं; यह लगभग 11,731 है। समूह A सेवाओं में अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों की कुल संख्या को कुल जनसंख्या में अनुसूचित जाति के लोगों की कुल संख्या से विभाजित करके प्रतिनिधित्व की तीव्रता की गणना करने पर परिणाम 0.00000738 प्राप्त होता है। इससे पता चलता है कि आरक्षण के बाद भी प्रतिनिधित्व का आंकड़ा कम है। 

आरक्षण के विरुद्ध तर्क

भारत में आरक्षण प्रणाली की विभिन्न विशेषज्ञों और सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों द्वारा कई आधारों पर आलोचना की जाती है। भारत में आरक्षण नीति की आलोचना एक पक्षपातपूर्ण पद्धति के रूप में की जाती है, जो एक बड़े वर्ग को भेदभाव के अलावा कुछ नहीं देती। आलोचकों का दावा है कि सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के आर्थिक और सामाजिक कमजोरियों से ग्रस्त होने के बावजूद, उन्हें वे अवसर नहीं मिलते जो पिछड़े या अनुसूचित समुदायों को उपलब्ध हैं। यह भी विवाद है कि पिछड़े समुदाय के लिए भी क्रीमी लेयर पृथक्करण के रूप में एक सीमित कारक मौजूद है, लेकिन अनुसूचित समुदाय को बिना किसी सीमा के अत्यधिक आरक्षण का लाभ प्राप्त है। गैर-पिछड़े समुदायों के लोगों द्वारा हमेशा यह दावा किया जाता है कि आरक्षण की नीतियां समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध हैं, जिसे भारतीय संविधान का मूल सिद्धांत माना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 14 में किसी भी आधार पर भेदभाव की अनुमति नहीं है, लेकिन एक वर्ग को आरक्षण देने के नाम पर अन्य समुदायों के अधिकारों को छीना जा रहा है। आरक्षण प्रदान करने में लाभार्थियों की पहचान सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। 

यद्यपि आरक्षण की पूरी प्रणाली की कई बार आलोचना की जाती है, लेकिन यह भी उजागर किया जाता है कि पिछड़े समुदायों के लोग, जो इतने वंचित हैं, आरक्षण प्रणाली के बारे में जानते तक नहीं हैं। ऐसे मामलों में, वे आरक्षण के लाभ का दावा नहीं करते हैं, जिससे प्रतिनिधित्व के बिना उनकी वंचित स्थिति बनी रहती है। जैसा कि कई विशेषज्ञों ने कहा है, भारत में अनेक जातियों और उपजातियों की उपस्थिति के कारण यह अत्यधिक सांप्रदायिक है। जाति-आधारित आरक्षण की व्यवस्था सांप्रदायिकता की आग को भड़काती है। आरक्षण प्रणाली में बड़े वर्ग के भीतर अलग-अलग समुदायों के लिए उप-आरक्षण आवंटित किए गए हैं; इससे समुदायों के बीच दरार पैदा होती है। बदले में, परिणामी वर्ग अपने पिछड़ेपन का हवाला देते हुए आरक्षण का उच्च प्रतिशत मांगेगा। यह एक कभी न ख़त्म होने वाला दावा है जिसके परिणामस्वरूप देश के कई हिस्सों में अराजकता और हिंसा फैल गई है। 

दूसरा बड़ा मुद्दा यह है कि प्रत्येक समुदाय का प्रतिनिधित्व एक राजनीतिक उप-समूह द्वारा किया जा रहा है। यह राजनीतिक घराना चुनावों के दौरान संसाधन जुटाने और घर-घर जाकर प्रचार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रमुख दल उस निर्वाचन क्षेत्र में अपने समुदाय से संबंधित व्यक्ति को चुनाव लड़ाकर इन उप-कुलों की सद्भावना प्राप्त करती हैं। सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों को छोड़कर, अन्य सभी निर्वाचन क्षेत्रों के लिए उम्मीदवारों का चयन उस क्षेत्र की प्रमुख जाति के आधार पर किया जाता है। ये गौण जाति-आधारित दल अपने समुदायों के कल्याण के लिए काम करती हैं और प्रमुख दल से अपने लिए लाभकारी योजनाएं लाने का आग्रह करती हैं। ऐसा ही एक दायित्व है नया आरक्षण या मौजूदा आरक्षण प्रदान करना। अगले चुनाव में समर्थन और संभावनाओं को देखते हुए, सत्तारूढ़ दल वादे के आधार पर कानून बनाएगी। यह केन्द्र और राज्य दोनों जगह होता है। इस प्रकार, जैसा कि विशेषज्ञों का दावा है, आरक्षण एक राजनीतिक रूप से सक्रिय घटना बन गई है। 

आरक्षण के खिलाफ एक और प्रमुख तर्क आरक्षण की समय-सीमा है। इस लेख के मामले में और एम. नागराज मामले में भी इस बिंदु पर चर्चा की गई थी। जनहित अभियान बनाम भारत संघ (2022) के मामले में, फैसला सुनाते समय, पांच न्यायाधीशों वाले संवैधानिक पैनल के न्यायाधीशों में से एक, न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी ने कहा कि आरक्षण एक समय सीमा के साथ बनाया जाना चाहिए। न्यायाधीश ने आरक्षण की अवधारणा पर पुनर्विचार करने की सख्त जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि आरक्षण समानता प्राप्त करने के साधनों में से एक होना चाहिए, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं होना चाहिए। न्यायमूर्ति ने परिवर्तनकारी संविधानवाद नामक एक शब्द का भी उल्लेख किया, जिसके द्वारा समतावादी (इगैलिटेरियन), वर्गविहीन समाज की आवश्यकता पर बल दिया जाता है। सापेक्ष समय-सीमा के बिना, एक समुदाय में निहित विशेषाधिकार दूसरे समुदाय के लिए बोझ बन जाएंगे। इस बात का भी पुरजोर विरोध किया जाता है कि आरक्षण का स्वरूप पुराने और अप्रचलित आंकड़ों पर आधारित है। आरक्षण का प्रतिशत निर्धारित करने के लिए प्रयुक्त सबसे हालिया डाटा 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) है। इसके अलावा, यह भी तर्क दिया गया कि जनगणना में एकत्रित मापदंड आरक्षण के लाभकारी भागफल को निर्धारित करने के लिए प्रासंगिक नहीं थे। इसलिए, पुराने आंकड़ों, असीमित समय-सीमा और अप्रासंगिक मापदंडों के साथ, आरक्षण की नीति भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ा झटका साबित होगी। 

अत्यधिक आरक्षण प्रदान करने के स्थान पर, जो मांग और भटकाव को बढ़ाता है, राज्य को ऐसी नीतियों को लागू करने पर ध्यान देना चाहिए जिनका उद्देश्य जातिविहीन समाज का निर्माण करना हो। आरक्षण के संबंध में विभिन्न संप्रदायों के बीच हिंसा के उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त, आरक्षण के लाभ से वंचित वर्ग के लोग विभिन्न स्तरों पर निराश हैं। कौशल होने और आवश्यक प्रयास करने के बावजूद, कई लोग अपने उचित अवसरों से वंचित रह जाते हैं। इससे उन्हें सीमाओं के पार अन्यत्र अवसर तलाशने के लिए बाध्य होना पड़ता है। एक कुशल उम्मीदवार को उसके योग्य अवसर से वंचित करने के अलावा, आरक्षण के कारण प्रतिभा पलायन भी होता है, जो अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राष्ट्र की सद्भावना के लिए भी हानिकारक है। आलोचकों के अनुसार आरक्षण अनुसूचित समुदाय से लेकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, शिक्षा से लेकर पदोन्नति तक सभी क्षेत्रों में फैल रहा है और तेजी से बढ़ रहा है। संवैधानिक दूरदर्शिता बनाए रखने के लिए जांच और संतुलन की एक निश्चित प्रणाली शुरू की जानी चाहिए।

हम संतुलित आरक्षण कैसे प्रदान करें?

आरक्षण एक सरल किन्तु महत्वपूर्ण व्यवस्था है जो वस्तुतः लाभार्थियों के जीवन को बदल देती है। इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए, प्रभावी कार्यान्वयन के लिए सावधानीपूर्वक योजना और रणनीतिक निर्माण की आवश्यकता है। इस दृष्टि से, प्रशासन में दक्षता प्राप्त करने के साथ-साथ पिछड़े समुदायों को विशेषाधिकार प्रदान करने के लिए कुछ बाधाओं को दूर करना अनिवार्य है। 

  • अत्यधिक आरक्षण से बचें: उत्तर प्रदेश पावर निगम  लिमिटेड बनाम राजेश कुमार एवं अन्य (2012) में अपील खारिज करने का मुख्य कारण दोहरा आरक्षण है। जब विद्युत निगम के कर्मचारी रोजगार के दौरान आरक्षण के हकदार थे, तो त्वरित पदोन्नति के लिए परिणामी वरिष्ठता के माध्यम से पदोन्नति में आरक्षण को दोहरे लाभ की योजना माना जाता था। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान के विरुद्ध बताया। केरल के तिरुवनंतपुरम स्थित विकासात्मक अध्ययन केंद्र के विश्लेषण के परिणाम भी इसी प्रकार के तथ्य उजागर करते हैं। जब आरक्षण की तीव्रता बढ़ जाती है तो इसके रोजगार की स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब विभागीय परीक्षाएं योग्यता की जांच के लिए उपलब्ध हैं और रिक्तियों के आवंटन को विनियमित करने के लिए रोस्टर प्रणाली उपलब्ध है, तो कैच-अप नियम या परिणामी वरिष्ठता के माध्यम से पदोन्नति में आरक्षण निश्चित रूप से संविधान के अनुच्छेद 335 में निहित प्रशासन की दक्षता को प्रभावित करेगा। यह प्रदर्शन के बजाय वर्ग को प्रमुखता देकर कलाकारों का मनोबल गिराएगा।
  • समय सीमा: दक्षता का परीक्षण केवल एक निश्चित समयावधि में ही किया जा सकता है। जब किसी नीति की प्रभावशीलता को अनंत समयावधि में मापा जाता है, तो इसका परिणाम हमेशा शून्य ही होगा। संविधान निर्माताओं ने शुरू में आरक्षण देने की समय-सीमा 10 वर्ष निर्धारित की थी; बाद में कई संशोधनों के बाद इसे बढ़ा दिया गया। भारत को गणतंत्र राष्ट्र बने 74 वर्ष हो चुके हैं फिर भी आरक्षण बढ़ती संख्या के साथ जारी है। विस्तार प्रदान करने से पहले, 10 वर्ष की अवधि के लिए आरक्षण के प्रभाव का व्यापक विश्लेषण किया जाना चाहिए। इसमें लाभार्थी की स्थिति, शैक्षिक योग्यता, पारिवारिक आजीविका, व्यावसायिक व्यवस्था और जीवन के अन्य मानक शामिल होने चाहिए। यह जानकारी आरक्षण के अगले चरण में सहायक होगी। समय-सीमा नियम एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ (2006) के निर्णय में निर्धारित ठोस सिद्धांतों में से एक है। 
  • अधिकतम सीमा का निर्धारण: कुल आरक्षण की 50% की अधिकतम सीमा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के माध्यम से तय की गई थी। डॉ. जयश्री लक्ष्मणराव पाटिल बनाम मुख्यमंत्री (2021) के फैसले में भी इसे दोहराया गया, जिसमें असाधारण स्थिति न होने तक अधिकतम सीमा को बरकरार रखा गया। यह मामला पृथक मराठा आरक्षण के मुद्दे पर आधारित था। अधिकतम सीमा तय करने की आवश्यकता प्रमुख है, विशेषकर तब जब आरक्षण का प्रश्न प्रत्येक समुदाय द्वारा उठाया जाता है। यदि सीमाओं का स्थायी निर्धारण नहीं किया गया तो आरक्षण राजनीतिक दलों के लिए वोट हासिल करने का एक साधन बन जाएगा। हाल ही में, तमिलनाडु में एमबीसी आरक्षण से बाहर एक समुदाय को 10.5% उप कोटा देने वाले अधिनियम को मद्रास उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। यदि यह कदम लागू किया गया तो इसका मतलब यह होगा कि एमबीसी के लिए 20% आरक्षण में से एक जाति को 10.5% मिलेगा, तथा वर्ग की शेष 107 जातियों को 9.5% मिलेगा। इससे अन्य समुदायों के प्रति घोर अन्याय हो जाता। जब न्यायपालिका द्वारा प्रत्येक विधायी कार्रवाई के लिए छूट दी जा रही है, तो 100% आरक्षण का दिन दूर नहीं है। 
  • डाटा-संचालित दृष्टिकोण: राज्य द्वारा अपनाई गई कोई भी नीति समाज की आवश्यकताओं से उत्पन्न होती है। समाज की हर ज़रूरत को सरकार द्वारा पूरा नहीं किया जाता। यह तय करना सरकार की भूमिका है कि प्राथमिकता क्या है और कौन सी कार्रवाइयां स्थगित की जा सकती हैं। सरकार की प्राथमिकताएं तात्कालिकता की डिग्री या आंकड़ों के माध्यम से तय की जाती हैं। वर्तमान प्रशासन में, लाभार्थियों का निर्धारण करने, लक्ष्य तय करने, तंत्र की पहचान करने और परिणामों का विश्लेषण करने में डाटा महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब आरक्षण पर विचार किया जाता है तो डेटा को प्राथमिक भूमिका निभानी चाहिए। एम. नागराज मामले में भी इसी सिद्धांत को बरकरार रखा गया है कि सरकार को सहायक आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद ही पिछड़े समुदायों को आरक्षण प्रदान करना चाहिए। प्रत्येक घर का एक नया सर्वेक्षण किया जाना चाहिए, अथवा एसईसीसी जैसे पहले से मौजूद सर्वेक्षणों में खुले प्रश्न जोड़े जा सकते हैं। सर्वेक्षण मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकृति का होना चाहिए। मात्रात्मक मैट्रिक्स का उपयोग प्रतिगमन विश्लेषण के लिए इनपुट के रूप में किया जा सकता है, जिससे पिछड़ेपन के स्तर को निर्धारित करने के लिए कई द्वितीयक पैरामीटर प्राप्त होंगे, जबकि गुणात्मक संकेतकों का उपयोग पिछड़ेपन की प्रकृति को निर्धारित करने के लिए परिकल्पना परीक्षण में किया जा सकता है। 
  • आरक्षण का दायरा बढ़ाना: इसमें कोई दो राय नहीं है कि आरक्षण में जाति प्राथमिक कारक है। लेकिन अभी जाति प्राथमिक कारक क्यों होनी चाहिए? आइए हम यह मान लें कि आरक्षण प्रदान करने में अर्थव्यवस्था ही एकमात्र कारक है। व्यक्तियों द्वारा स्वयं को निम्न आय वर्ग के रूप में पंजीकृत कराने तथा आरक्षण का लाभ प्राप्त करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई जाएगी। हालाँकि, इस नवयुग में भी, सामान्य श्रेणी का कोई व्यक्ति आरक्षण प्राप्त करने के लिए स्वयं को अनुसूचित श्रेणी के रूप में प्रस्तुत नहीं करेगा। देश के कई हिस्सों में जाति और ऐतिहासिक पदानुक्रम से जुड़ा कलंक अभी भी व्याप्त है। दिन-प्रतिदिन की घटनाओं में जाति-आधारित हिंसा देखना दुर्भाग्यपूर्ण है, तथा शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों के बीच जाति-गर्व को देखना और भी अधिक निराशा पैदा करता है। यही कारण है कि अंतरजातीय विवाह करने वाले उम्मीदवारों के लिए आरक्षण जैसी नीतियों से जातिविहीन समाज की प्राप्ति की संभावना अधिक है। ईडब्ल्यूएस श्रेणी में 10% आरक्षण भी समय-सीमा आधारित नीति है। इसलिए, समय सीमा के बाद, उसी उम्मीदवार को आरक्षण प्रदान करने के बजाय नए लाभार्थियों को प्रणाली में लाया जाना चाहिए। के.सी. वसंत कुमार एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (1985) के फैसले में यह कहा गया था कि आरक्षण प्रदान करने के लिए आर्थिक स्थिति को मानदंड मानते हुए, स्थिति को सत्यापित करने के लिए “साधन परीक्षण” आयोजित किया जाना चाहिए। आरक्षण के लिए पात्रता तय करने से पहले यह परीक्षण एक सीमित कारक होना चाहिए। हाल ही में 106वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2023 के माध्यम से संसद और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सीटों सहित महिलाओं के लिए 33% आरक्षण प्रदान किया गया। यह भारत में पहला लिंग आधारित आरक्षण है। 
  • जागरूकता और सक्रियता: आरक्षण देश में मतभेदों और असंतुलनों के लिए अमृत नहीं है; बल्कि, यह एक अदूरदर्शी आंख के लिए एक लेंस है लेंस का आकार बढ़ाया जा सकता है, लेकिन केवल आंखें खुली होने पर ही चित्र को विस्तार से देखा जा सकता है। आरक्षण का प्रतिशत चाहे जितना भी बढ़ा दिया जाए, पिछड़ापन समाप्त नहीं हो सकता, उसे सिर्फ बदला जा सकता है। जब जातिगत पिछड़ापन कम होता है, तो आर्थिक पिछड़ापन उभरता है; बाद में, जब आर्थिक पिछड़ापन कम होता है, तो शैक्षिक पिछड़ापन पैदा होता है; परिणामस्वरूप, जब शैक्षिक पिछड़ापन खत्म होता है, तो तकनीकी पिछड़ापन उभरता है। प्रत्येक मामले के लिए आरक्षण उपलब्ध नहीं कराया जा सकता। वास्तविक जाति-आधारित भेदभाव को दूर करने के लिए सामाजिक इंजीनियरिंग तकनीकों को अपनाना होगा। जाति हिंसा, संप्रदायवाद और सांप्रदायिकता के लिए ईंधन का काम करती है। सरकार बनाने वाले राजनीतिक दल मतभेदों को कम करने के बजाय आग को भड़काते हैं और उसकी गर्माहट का आनंद लेते हैं। वर्गों के बीच मतभेदों को दूर करने के लिए समाज-संचालित सक्रियता शुरू करनी होगी। पिछड़े समुदाय को पूरी तरह से सरकार पर निर्भर बनाने के बजाय, सकारात्मक कार्यों के माध्यम से उनकी वास्तविक क्षमता को सामने लाया जाना चाहिए। 

इन कार्यों के साथ-साथ विशेषज्ञों द्वारा उचित निगरानी और फीडबैक के आधार पर लगातार सुधार से आरक्षण की दक्षता में सुधार आएगा और योजना को वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंचाने में मदद मिलेगी। 

वे निर्णय जिनके लिए इस मामले का हवाला दिया गया

क्र.सं. मामला न्यायालय संदर्भ
1 मनीष उपाध्याय एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2017) इलाहाबाद उच्च न्यायालय अधीनस्थ कृषि सेवाओं में तकनीकी सहायक के पद के लिए लिखित परीक्षा के परिणाम के आधार पर अभ्यर्थियों के चयन और आरक्षण के आधार पर रिक्तियों के आवंटन से संबंधित मामले।
2 त्रिपुरा राज्य एवं अन्यवी.जयंत चक्रवर्ती एवं अन्य(2017) भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 16(4), 16(4A) और 16(4B) की व्याख्या पर चर्चा की गई। पूर्व उदाहरणों का हवाला देकर पुनर्विचार से इनकार किया जाता है।
3 अरविंद राजवेदी बनाम अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य (2015) भारत का सर्वोच्च न्यायालय इलाहाबाद उच्च न्यायालय को निर्देश दिया गया कि वह राजेश कुमार मामले में निर्णय के इर्द-गिर्द किसी भी याचिका पर विचार न करे।
4 बी.के. पवित्रा एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2017) भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपील में कर्नाटक सरकार द्वारा 2002 में सरकारी कर्मचारियों के लिए प्रदान की गई परिणामी वरिष्ठता की वैधता से संबंधित मामला शामिल था। न्यायालय ने कर्नाटक आरक्षण के आधार पर पदोन्नत सरकारी सेवकों की वरिष्ठता निर्धारण (राज्य की सिविल सेवाओं में पदों के लिए) अधिनियम, 2002 के प्रावधानों को संविधान के अधिकारतीत माना है।
5 अंजनी कुमार सोनी पुत्र स्वर्गीय श्री राम गोपाल बनाम माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद (2013) इलाहाबाद उच्च न्यायालय यह याचिका न्यायिक सेवा परीक्षा में सभी श्रेणियों के अभ्यर्थियों के लिए 50% कटऑफ अंक के मानदंड के खिलाफ दायर की गई थी। न्यायालय ने इन प्रावधानों को बाध्यकारी माना।
6 आइवी गोहेन दासगुप्ताव बनाम भगवान पाटोर और अन्य (2023) गुवाहाटी उच्च न्यायालय यह अपील पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने के विरुद्ध की गई थी। यह माना गया कि आरक्षित श्रेणी का अभ्यर्थी केवल आरक्षित श्रेणी के लिए निर्धारित पदों पर ही पदोन्नति में परिणामी वरिष्ठता प्राप्त कर सकता है। 
7 समानता मंच बनाम असम राज्य और अन्य(2024) गुवाहाटी उच्च न्यायालय यह याचिका असम में आरक्षित वर्ग की सामाजिक-आर्थक स्थिति और पर्याप्त प्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए गठित एक सदस्यीय आयोग की सिफारिश के कार्यान्वयन के खिलाफ थी। यह माना गया कि मात्रात्मक डेटा एम. नागराज मामले में निर्धारित सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था, और इस प्रकार याचिका को अनुमति दी गई। 
8 शैलेन्द्र सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019) इलाहाबाद उच्च न्यायालय याचिकाकर्ता को परिणामी वरिष्ठता के आधार पर सहायक अभियंता (इंजीनियर) के पद पर पदोन्नत करने के लिए राज्य सरकार को निर्देश देने के लिए याचिका।
9 जितेन्द्र सिंह बनाम रेल मंत्रालय (2022)  केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण – दिल्ली याचिका में यात्री लोको पायलट के पद पर पदोन्नति में आरक्षण को चुनौती दी गई थी। मूल आवेदन को स्वीकार कर लिया गया तथा पदोन्नति के लिए आरक्षण सूची को वापस लेने का आदेश दिया गया। 
10 एस.पन्नीर सेल्वम और अन्य बनाम तमिलनाडु सरकार और अन्य (2015) भारत का सर्वोच्च न्यायालय तमिलनाडु राजमार्ग विभाग में सहायक अभियंता के पदों पर पदोन्नति के आरक्षण में कैच-अप नियम जारी करना। सरकार को परिणामी वरिष्ठता के आधार पर तैयार की गई वरिष्ठता सूची को संशोधित करने का आदेश दिया गया। 

निष्कर्ष

आरक्षण प्रणाली, विशेषकर पदोन्नति में आरक्षण का व्यापक विश्लेषण, समाज पर इसके प्रभाव को समझने के लिए किया गया है। आरक्षण एक सामाजिक इंजीनियरिंग उपकरण है जिसका उपयोग विभिन्न वर्गों के बीच समानता लाने तथा भेदभाव के कारण पीढ़ियों से हो रहे नुकसान की भरपाई के लिए किया जाता है। हालाँकि, आरक्षण के सिद्धांतों और इसकी सीमा के बारे में समाज के विभिन्न वर्गों के बीच लगातार असहमति रही है। एम. नागराज मामले तक राज्य न्यायालयों के लिए पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित याचिकाओं पर विचार करना बोझिल था। इस लेख में चर्चित मामले में एम. नागराज मामले के निर्णय का उपयोग किया गया तथा रोजगार में समानता के संवैधानिक प्रावधान को कायम रखने के लिए दृढ़ निर्णय दिया गया, जिससे संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित प्रशासन की दक्षता को बनाए रखा जा सके। यह ध्यान देने योग्य है कि कोई भी नीति, अधिनियम या घोषणा अपरिवर्तनीय नहीं है। जनता की आवश्यकताओं और समाज के विकास के आधार पर, देश को नियंत्रित करने वाला कानून विकसित होता रहता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

रोस्टर प्रणाली क्या है?

यह एक अंक-आधारित प्रणाली है जिसका उपयोग वरिष्ठता क्रम निर्धारित करने के लिए किया जाता है। प्रत्येक अभ्यर्थी को आवंटित अंकों के आधार पर, उच्चतम अंक से शुरू करके रिक्तियों को भरा जाता है। अंक एक रजिस्टर में दर्ज किए जाते हैं जिसे रोस्टर रजिस्टर कहा जाता है। रोस्टर रजिस्टर का उपयोग केवल तभी किया जाता है जब किसी विशेष संवर्ग के लिए कुल रिक्तियां 2 से 13 के बीच होती हैं। रोस्टर आधारित रिक्ति भरने की प्रणाली में, प्रत्येक अभ्यर्थी के लिए अलग-अलग मापदंडों वाले कॉलम बनाए जाते हैं, तथा संबंधित मापदंडों के लिए अंक तदनुसार उल्लिखित किए जाते हैं। मापदंडों में आरक्षण की प्रकृति, श्रेणी, नियुक्ति की तिथि, आरक्षित समुदाय में उप वर्ग आदि शामिल हैं। कुल अंकों के योग से रोस्टर का क्रम बनता है, तथा रिक्तियों को अवरोही (डिसेंडिंग) क्रम में भरा जाता है। रोस्टर पर अधिकतम अंक विभाग और रिक्तियों के आधार पर भिन्न होते हैं। आर.के.सभरवाल एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य (1995) के फैसले में यह उल्लेख किया गया था कि आरक्षण रोस्टर प्रणाली पर आधारित है, तथा रोस्टर को वर्ष दर वर्ष चलने वाले खातों के आधार पर लागू किया जाएगा। 

आरक्षण-समाप्ति क्या है?

यह एक प्रक्रिया है जिसके तहत आरक्षित वर्ग के लिए आवंटित रिक्तियों को अनारक्षित वर्ग के लिए खोल दिया जाता है। यह बहुत दुर्लभ घटना है जब समूह A सेवाओं में कोई पद लम्बे समय तक रिक्त रहता है। किसी रिक्ति को अनारक्षित करने की घोषणा संबंधित विभाग या मंत्रालय द्वारा की जाती है। यह कदम राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के साथ परामर्श के बाद क्रमशः एससी, एसटी या ओबीसी को आवंटित रिक्तियों पर लागू किया गया है। यह जनहित में तथा संविधान के अनुच्छेद 335 में वर्णित प्रशासन की दक्षता बनाए रखने के लिए उठाया गया कदम है। एस.एस. शर्मा एवं अन्य बनाम भारत संघ (1980) के निर्णय में यह कहा गया था कि आरक्षण समाप्त करने का कदम तभी उठाया जाना चाहिए जब सभी चिंतन और प्रयासों के बावजूद आरक्षित रिक्तियों को भरा न जा सके। 

आरक्षण लागू न होने के अवसर क्या हैं?

  • अस्थायी नियुक्तियों के मामले में, जिनकी अवधि आमतौर पर 45 दिनों से कम होती है।
  • मौसमी नौकरियाँ जिनका भुगतान कार्य की अवधि के आधार पर किया जाता है। इसमें आपदा न्यूनीकरण कार्य, राहत एवं पुनर्वास कार्य आदि जैसी आपातकालीन सेवाएं शामिल हैं। इसमें आवश्यकता-आधारित सार्वजनिक सेवाएं भी शामिल हैं। 
  • एक ही कैडर के भीतर पदोन्नति। उदाहरण के लिए, यदि चयन पद्धति के माध्यम से एक समूह A पद से दूसरे समूह A पद पर पदोन्नति की जाती है, तो कोई आरक्षण लागू नहीं होता है।
  • वैज्ञानिक और तकनीकी पद जो समूह A सेवाओं के उच्चतर संवर्ग में हैं। चयन पूर्णतः योग्यता पर आधारित है। 
  • उच्चतर संवर्ग में प्रतिनियुक्ति या किसी अन्य विभाग से आमेलन (ऐब्सॉर्प्शन) की स्थिति में है। 
  • जब पद एकल संवर्गीय होता है तो आरक्षण लागू नहीं होता है।

संदर्भ

  • Dr. Bijoy Chandra Mohapatra, Dr. Sudhansu Ranjan Mohapatra, “Reservation Policy in India” (2013, Research India Press)
  • Mulchand S. Rana, “Reservations in India: Myths and Realities” (2008, Concept Publishing Company)

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