सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) का आदेश 10

0
290

यह लेख Kanika Goel द्वारा लिखा गया है। प्रस्तुत लेख एक व्यापक साहित्य है, जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 10 पर विस्तृत रूप से चर्चा करता है। इस लेख में आदेश 10 के अंतर्गत न्यायालय द्वारा पक्षों के परीक्षण से संबंधित सभी नियमों का विस्तृत विवरण दिया गया है, साथ ही सिविल कार्यवाही में इसके उद्देश्य और प्रासंगिकता पर भी प्रकाश डाला गया है। यह लेख आदेश 10 से संबद्ध महत्वपूर्ण प्रासंगिक मामलों को भी शामिल  करता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

सिविल मुकदमों से निपटने वाले प्रक्रियात्मक कानून को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (जिसे आगे सी.पी.सी. कहा जाएगा) के तहत संहिताबद्ध (कॉड़ीफाइड) किया गया है, जो 1 जनवरी 1909 को लागू हुआ था। सीपीसी को दो भागों में विभाजित किया गया है; धाराएं और प्रथम अनुसूची, जिसमें सभी आदेशों को बताया गया है। चूंकि सिविल मुकदमे की प्रक्रिया विभिन्न चरणों से होकर गुजरती है, ऐसा ही एक चरण न्यायालय द्वारा पक्षों का परीक्षण है, जिसे सीपीसी की आदेश 10 के तहत निपटाया जाता है। पक्षों का परीक्षण वह चरण है जहां न्यायालय को स्वीकृत और अस्वीकृत दलीलों का पता लगाने के लिए संबंधित पक्षों से प्रश्न करने की स्वतंत्रता और अधिकार होता है। यह न केवल सिविल कार्यवाही में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करता है, बल्कि न्याय प्रशासन भी सुनिश्चित करता है। पक्षों का यह दायित्व है कि वे मुकदमे के विषय-वस्तु से संबंधित प्रासंगिक और महत्वपूर्ण तथ्यों का खुलासा करें, जिससे अदालत को आगे के परीक्षण के लिए निर्णय लेने का अवसर मिले। सिविल मुकदमे की कार्यवाही करते समय आदेश 10 में निहित नियम अपरिहार्य (इंडिस्पेंसेबल) हैं। 

हालांकि, सी.पी.सी. के आदेश 10 में अंतर्निहित नियमों की विस्तृत व्याख्या की ओर बढ़ने से पहले, सिविल मुकदमे के विभिन्न चरणों और आदेश 10 के तहत बताए गए पक्षों के परीक्षण के पीछे के उद्देश्य को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। आइये इस लेख में इन पहलुओं की संक्षिप्त व्याख्या पर गौर करें। 

सिविल मुकदमे के चरण

सिविल मुकदमा दो पक्षों के बीच शुरू किया जाता है जो चाहते हैं कि किसी सिविल गलती से संबंधित उनके कानूनी विवाद को उपयुक्त न्यायालय में निपटाया जाए। भारत में सिविल प्रकृति के वाद सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा शासित होते हैं। एक प्रक्रिया के रूप में, एक सिविल मुकदमा विभिन्न चरणों से गुजरता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उचित निर्णय पारित किया जाए। इन चरणों में शामिल हैं: 

  • कार्रवाई का कारण: न्यायालय में सिविल वाद तभी दायर किया जाता है जब किसी पक्ष के किसी अधिकार का उल्लंघन होता है या दूसरे पक्ष द्वारा कोई सिविल गलती की जाती है। सी.पी.सी. में निर्धारित कानून के अनुसार, कार्रवाई का कारण और कुछ नहीं बल्कि वे परिस्थितियां हैं जिनके कारण पक्षों के बीच विवाद उत्पन्न होता है। 
  • मुकदमा दायर करना (सी.पी.सी. की धारा 26 को आदेश 6, 7 और 8 के साथ पढ़ें): एक बार, पक्षों (अर्थात् वादी और प्रतिवादी, आदेश 1 के प्रावधानों के अनुसार) द्वारा कार्रवाई का कारण निर्धारित कर लिया जाता है, जिसके कारण विवाद उत्पन्न हुआ है, तो सी.पी.सी. के आदेश 4 के प्रावधानों के अनुसार वाद दायर करके मुकदमा शुरू किया जाता है। वादपत्र (प्लेन्ट) एक दस्तावेज है जिसमें विवाद का वादी तथ्य और शिकायत का सारांश बताता है। यह सिविल मुकदमेबाजी की सम्पूर्ण प्रक्रिया की नींव रखता है। 
  • सम्मन जारी करना (सी.पी.सी. की धारा 2732 को आदेश 5 के साथ पढ़ें): जब कोई शिकायत दायर की जाती है और अदालत द्वारा स्वीकार कर ली जाती है, तो प्रतिवादी को सीपीसी की धारा 27-32 के साथ आदेश 5 के प्रावधानों के अनुसार सम्मन जारी करने के 30 दिनों के भीतर अदालत के समक्ष उपस्थित होने के लिए सम्मन जारी किया जाता है। 
  • लिखित कथन (आदेश 8): सम्मन जारी होने पर, प्रतिवादी को उसका अनुपालन करना होता है तथा वादी के आरोपों के उत्तर में आदेश 8 के अंतर्गत लिखित बयान दाखिल करने के लिए अदालत के समक्ष उपस्थित होना होता है। हालाँकि, प्रतिवादी को प्रत्येक आरोप का स्पष्ट रूप से खंडन करना आवश्यक है। 
  • पक्षों की उपस्थिति (आदेश 9): आदेश 9 के अनुसार, जब दोनों दस्तावेज दाखिल और स्वीकार कर लिए जाते हैं, तो पक्षों को एक निश्चित तिथि पर अदालत के समक्ष उपस्थित होना आवश्यक होता है, अन्यथा प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय आदेश पारित किया जाता है। 
  • पक्षों का परीक्षण  (आदेश 10): सी.पी.सी. के आदेश 10 के दायरे में, न्यायालय को कानून और तथ्यों के मुद्दों को सूचीबद्ध करने के लिए पक्षों का परीक्षण करने का अधिकार है। परीक्षण की प्रक्रिया के दौरान पक्षों के बयान मुकदमे के रिकॉर्ड का हिस्सा बनते हैं। 
  • मुद्दों का निर्धारण: एक बार जब पक्ष अपने मुद्दे प्रस्तुत कर देते हैं, तो अदालत मामले के तथ्यों के आधार पर अंतिम मुद्दे निर्धारित करती है। हालाँकि, तैयार किए गए मुद्दे या तो विवादित तथ्य या कानून के मुद्दे हो सकते हैं। 
  • गवाहों का परीक्षण और पक्षों द्वारा तर्क: सिविल मुकदमे का एक महत्वपूर्ण चरण होने के कारण, वादी के गवाहों का परीक्षण उनके अपने वकील द्वारा किया जाता है और फिर प्रतिवादी के वकील द्वारा जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) की जाती है। एक बार परीक्षण समाप्त हो जाने पर, पक्ष अदालत के समक्ष अपनी दलीलें रखते हैं। यदि तर्कों के अवलोकन के बाद न्यायालय की राय है कि प्रतिवादी के विरुद्ध कोई सारवान मुद्दा मौजूद नहीं है, तो वह आदेश 12 और 15 के अनुसार प्रथम सुनवाई में ही मामले का निपटारा कर सकता है। हालाँकि, अन्यथा, मामला आदेश 18 के तहत परीक्षण के साथ आगे बढ़ता है। 
  • निर्णय: सी.पी.सी. के आदेश 20 को धारा 33 के साथ पढ़ने पर निर्णय का उल्लेख मिलता है। सभी पक्षों की दलीलों पर विचार करने के बाद न्यायालय निर्णय सुनाता है तथा उसके बाद डिक्री जारी करता है। 

सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के आदेश 10 के अंतर्गत नियम

सी.पी.सी. का आदेश 10 न्यायालय द्वारा पक्षों के परीक्षण से संबंधित है और इस आदेश के अंतर्गत निम्नलिखित नियम शामिल हैं: 

आदेश 10 नियम 1

आदेश 10 का नियम 1, अभिवचनों (प्लीडिंग) में स्वीकृत और अस्वीकृत आरोपों का पता लगाने से संबंधित है। शिकायत और लिखित बयान प्रस्तुत किए जाने के बाद, सुनवाई की पहली तारीख को न्यायालय पक्षों से कहेगा कि वे अपने-अपने अभिवचनों में बताए गए तथ्यों को स्वीकार करें या अस्वीकार करें। इस अभ्यास के पीछे का उद्देश्य मुकदमेबाजी के दायरे को कम करना तथा सिविल मुकदमे की विषय-वस्तु से संबंधित तथ्यों और कानूनों के मुद्दों को उजागर करना है। 

“सुनवाई की पहली तारीख” शब्द का संकेत सर्वोच्च न्यायालय ने वेद प्रकाश वाधवा बनाम विश्व मोहन, (1981) के मामले में दिया है, जिसमें पीठ ने कहा था कि “मुकदमे की पहली सुनवाई” कभी भी पक्षों के प्रारंभिक परीक्षण (आदेश 10 नियम 1) और मुद्दों के निपटारे के लिए तय की गई तारीख से पहले नहीं हो सकती है।” 

उपरोक्त सिद्धांत को न्यायालय ने कंवर सिंह सैनी बनाम दिल्ली उच्च न्यायालय (2012) में दोहराया था, जिसमें कहा गया था कि आदेश 10 नियम 1 में मुकदमे के पक्षों के बयान को मुकदमे की “पहली सुनवाई” में दर्ज करने का प्रावधान है, जो मुद्दों के निर्धारण के बाद आता है और यह कभी भी पक्षों की प्रारंभिक परीक्षण और मुद्दों के निपटारे के लिए तय की गई तारीख से पहले नहीं हो सकता है। “सुनवाई की पहली तारीख” शब्द का अर्थ सम्मन की वापसी का दिन नहीं है, बल्कि वह दिन है जिस दिन अदालत मुद्दों और साक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए अपना दिमाग लगाती है। 

आदेश 10 नियम 1A

आदेश 10 का नियम 1A, पक्षों को विवाद के वैकल्पिक समाधान के किसी भी तरीके को चुनने के लिए न्यायालय के निर्देश से संबंधित है। इस नियम के अनुसार, किसी सिविल मुकदमे पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने वाला न्यायालय पक्षों को वैकल्पिक विवाद समाधान (जिसे आगे ए.डी.आर. कहा जाएगा) के किसी भी तरीके को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कर्तव्यबद्ध है, जिसका उल्लेख सी.पी.सी. की धारा 89 के अंतर्गत किया गया है। एक बार जब पक्ष धारा 89 के तहत निर्दिष्ट एडीआर का तरीका चुन लेते हैं, तो इस प्रयोजन के लिए न्यायालय पक्षों को मंच या उनके द्वारा चुने गए प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति की तारीख तय करेगा। 

इस नियम के अनुसरण में, एफकॉन्स इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम चेरियन वर्की कंस्ट्रक्शन कंपनी (प्राइवेट) लिमिटेड (2010) मे सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि “न तो धारा 89 और न ही आदेश 10 नियम 1A का उद्देश्य मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) और सुलह अधिनियम, 1996 या कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के प्रावधानों को खत्म करना या संशोधित करना है। धारा 89 यह स्पष्ट करती है कि एडीआर प्रक्रियाओं में से दो (अर्थात् मध्यस्थता और समझौता) मध्यस्थता और समझौता अधिनियम द्वारा शासित होंगे, दो अन्य (अर्थात् लोक अदालत समझौता और बिचवई) कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 द्वारा तथा एडीआर प्रक्रिया का अंतिम भाग न्यायिक समझौते द्वारा शासित होगा।”  

आदेश 10 नियम 1B

इस आदेश के नियम 1B के अनुसार, नियम 1A के अंतर्गत किसी प्राधिकारी को वाद भेजे जाने के बाद पक्ष सुलह के लिए मंच के समक्ष उपस्थित होने के लिए बाध्य हैं।

आदेश 10 नियम 1C

आदेश 10 का नियम 1C, नियम 1A के स्थान पर सुलह के प्रयास विफल होने पर पक्षों की अदालत के समक्ष उपस्थिति से संबंधित है। एक बार जब मामला एडीआर मंच को भेज दिया जाता है और उस मंच के पीठासीन अधिकारी की राय है कि मुकदमे का निर्णय सिविल न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए, तो वह मामले को उस सिविल न्यायालय को वापस भेज सकता है, जिसके पास उस मामले पर अधिकार क्षेत्र है। हालाँकि, मामले को सिविल न्यायालय को संदर्भित करने की शक्ति केवल ऐसे मंच के पीठासीन अधिकारी के पास ही होती है। 

आदेश 10 नियम 2

आदेश 10 का नियम 2 पक्षों और उनके साथियों के मौखिक परीक्षण के बारे में बात करता है। विवादित मामले को समझने के लिए, मुकदमे के विषय-वस्तु पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने वाले न्यायालय को पक्षों और उनके साथियों से मौखिक रूप से पूछताछ करने का अधिकार है। इससे न्यायालय को विवादित मामले के अंतर्निहित मुद्दों पर निर्णय लेने में सहायता मिलती है। कुछ ठोस उत्तर पाने के लिए प्रश्न पक्षों के साथी के रूप में कार्य करने वाले लोगों से भी पूछे जा सकते हैं। अदालत मुकदमे के किसी भी बाद के चरण में पक्षों से मौखिक रूप से पूछताछ कर सकती है। 

कपिल कोरपैक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम हरबंद लाल (2010) के महत्वपूर्ण उदाहरण में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश 10 के नियम 2 के दायरे का निर्धारण करते हुए कहा कि जहां एक ओर नियम 1 पक्षों द्वारा स्वीकृति और खंडन का पता लगाने में सक्षम बनाता है, वहीं नियम 2 अन्य पक्षों द्वारा लगाए गए आरोपों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विवाद के किसी भी मामले को स्पष्ट करने की ओर ले जाता है। फैसले के शब्दों में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “नियम 2 अदालत को न केवल किसी भी पक्ष, बल्कि किसी भी पक्ष या उसके वकील के साथ आने वाले किसी भी व्यक्ति से पूछताछ करने में सक्षम बनाता है, ताकि मुकदमे से संबंधित किसी भी महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया जा सके, या तो पहली सुनवाई में या बाद की सुनवाई में। आदेश 10 के नियम 2 के तहत मौखिक परीक्षण का उद्देश्य मुकदमे में विवादित मामलों का पता लगाना है, न कि साक्ष्य दर्ज करना या स्वीकृति सुनिश्चित करना।

ए. षणमुगम बनाम अरिया क्षत्रिय राजकुला वामसथु मदालया नंधवना परिपालनाई (2012) के एक अन्य मामले में, अदालत ने माना था कि “मुद्दों को तैयार करना एक सिविल मुकदमे का एक बहुत ही महत्वपूर्ण चरण है और आदेश 10 के नियम 2 के तहत मुद्दों को तैयार करने से पहले न्यायाधीश के लिए पक्षों की दलीलों का आलोचनात्मक परीक्षण करना महत्वपूर्ण है। सत्य की खोज में, अदालत को मामले के मूल तक जाना चाहिए और विवादों को खत्म करना चाहिए। 

आदेश 10 नियम 3

आदेश 10 के नियम 3 के अनुसार, न्यायालय की अध्यक्षता करने वाले न्यायाधीश को मौखिक परीक्षण के दौरान पक्षों द्वारा दी गई जानकारी को लिखित रूप में दर्ज करना होगा, जो मुकदमे के रिकॉर्ड का भी हिस्सा होगा। 

आदेश 10 नियम 4

इस आदेश का नियम 4 वकील द्वारा उत्तर देने से इंकार करने या असमर्थता के परिणाम से संबंधित है। जैसा कि इस नियम से पता चलता है, यदि नियम 2 के तहत पक्षों के मौखिक परीक्षण के दौरान, पक्ष या उसका वकील, जिससे प्रश्न पूछा गया है, या तो उत्तर देने से इनकार कर देता है या उत्तर देने में असमर्थ है, तो अदालत कार्यवाही को स्थगित कर सकती है और मामले को 7 दिनों से अधिक नहीं के लिए स्थगित कर सकती है ताकि पक्षों को प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अदालत के समक्ष “व्यक्तिगत रूप से” उपस्थित होने के लिए कहा जा सके। हालाँकि, यदि पक्ष या वकील निर्धारित तिथि पर अदालत के समक्ष उपस्थित होने में विफल रहता है, तो अदालत उस पक्ष के खिलाफ फैसला सुना सकती है। 

पक्षों के परीक्षण की प्रक्रिया

पक्षों के परीक्षण के लिए कोई विशेष प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती है। हालाँकि, यह एक सामान्य प्रथा है कि सम्मन जारी होने और लिखित कथन दाखिल करने के बाद, पक्ष अपनी दलीलें रखने के लिए अदालत के समक्ष उपस्थित होते हैं।  इससे पहले कि पक्ष अदालत के समक्ष अपनी दलीलें रखें, तथ्यों और साक्ष्यों की जांच की जाती है ताकि मुकदमे की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाया जा सके और अदालत को मुद्दे तय करने में सक्षम बनाया जा सके। पक्षों के कथनों से प्राप्त ये खोजें रिकॉर्ड का हिस्सा बनती हैं।

पक्षों के परीक्षण के पीछे उद्देश्य

पक्षों का परीक्षण करने का उद्देश्य मुख्य रूप से पक्षों के अस्वीकृत और स्वीकृत आरोपों का पता लगाना है। पक्षों के परीक्षण की प्रक्रिया के द्वारा, न्यायालय पक्षों से विवाद के मूल में निहित मुद्दों को जानने का प्रयास करता है। इससे मुद्दों का स्पष्टीकरण होता है और साक्ष्य एकत्रित होते हैं। यह न्यायालय को विवाद के निपटारे को आगे बढ़ाने के लिए विवाद को एडीआर के उपयुक्त मंच पर भेजने के संबंध में राय बनाने में भी सक्षम बनाता है। न्यायालय द्वारा पक्षों के परीक्षण का चरण किसी मुकदमे में आगे की कार्रवाई के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। पक्षों के परीक्षण के बाद, न्यायालय अंतिम मुद्दे तय करने की स्थिति में होता है।

सीपीसी की धारा 89 और आदेश 10 के बीच परस्पर क्रिया

सी.पी.सी. की धारा 89 का उद्देश्य ए.डी.आर. के किसी भी तरीके जैसे मध्यस्थता, सुलह, बिचवई या लोक अदालत के माध्यम से न्यायिक समाधान द्वारा अदालत के बाहर विवादों का निपटारा करना है। इस प्रावधान के अनुसार, यदि न्यायालय की यह राय है कि पक्षों के बीच सुलह या न्यायिक समाधान के आवश्यक तत्व मौजूद हैं, तो वह या तो स्वप्रेरणा से या पक्षों के आवेदन पर मामले को उपर्युक्त एडीआर के किसी भी तरीके से निपटाने के लिए संदर्भित कर सकता है। न्यायालय कार्यवाही के किसी भी चरण में, लेकिन मुद्दों के निपटारे से पहले, विवाद को किसी भी एडीआर मंच को संदर्भित कर सकता है। 

सिविल प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम, 1999, जो 1 जुलाई, 2002 को लागू हुआ, ने आदेश 10 में नियम 1A को शामिल किया है। यह नियम सी.पी.सी. की धारा 89 के अंतर्गत प्रावधान के उद्देश्य को पूरा करने के लिए जोड़ा गया था। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, आदेश 10 के नियम 1A का सार धारा 89 के मूल तत्वों से मेल खाता है। दोनों प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विवाद को एडीआर के किसी भी तरीके से सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाया जा सके तथा लंबित मुकदमों की संख्या को कम किया जा सके। जबकि धारा 89 के परिणामस्वरूप विवादों का शीघ्र निपटारा हो जाता है, नियम 1A मामले को उपयुक्त एडीआर मंच को संदर्भित करके उस प्रावधान के उद्देश्य को पूरा करता है। इन प्रावधानों के माध्यम से न्यायालय पक्षों को अपने विवादों को अदालत के बाहर निपटाने के लिए एक तरीका चुनने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास करते हैं, जिससे न केवल उनकी लागत प्रबंधन में मदद मिलेगी, बल्कि विवाद का कुशलतापूर्वक समाधान भी हो सकेगा। 

एफकॉन्स इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम चेरियन वर्की कंस्ट्रक्शन कंपनी (प्राइवेट) लिमिटेड (2010) के ऐतिहासिक फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय  ने सीपीसी के आदेश 10 के नियम 1A के साथ धारा 89 का सहारा लेते समय पालन किए जाने वाले दिशानिर्देशों का एक विस्तृत समूह दिया। न्यायालय द्वारा जारी दिशा-निर्देश संक्षेप में नीचे दिए गए हैं:

  • यदि संदर्भ मध्यस्थता या सुलह का है, तो न्यायालय को यह दर्ज करना होगा कि संदर्भ आपसी सहमति से है। आदेश फलक (ऑर्डर शीट) में आगे कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है। 
  • यदि संदर्भ किसी अन्य एडीआर. प्रक्रिया का है, तो न्यायालय को संक्षेप में यह दर्ज करना चाहिए कि विवाद की प्रकृति को देखते हुए, मामला लोक अदालत, या बिचवई या न्यायिक समाधान, जैसा भी मामला हो, के लिए भेजा जाना चाहिए। संदर्भ देने के लिए किसी विस्तृत आदेश की आवश्यकता नहीं है। 
  • धारा 89(1) में यह अपेक्षा कि न्यायालय को समझौते की शर्तों को तैयार या पुनः तैयार करना चाहिए, इसका अर्थ केवल यह होगा कि न्यायालय को विवाद की प्रकृति का संक्षेप में उल्लेख करना होगा और उचित एडीआर प्रक्रिया पर निर्णय लेना होगा। 
  • यदि मामले का प्रभारी न्यायाधीश पक्षों की सहायता करता है और यदि समझौता वार्ता विफल हो जाती है, तो पक्षपात और पूर्वाग्रह की आशंकाओं से बचने के लिए उसे मामले के निर्णय से नहीं निपटना चाहिए। इसलिए यह उचित है कि न्यायिक निपटारे के लिए प्रस्तावित मामलों को किसी अन्य न्यायाधीश को भेजा जाए। 

इन दिशानिर्देशों को जारी करने के पीछे न्यायालय का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि एडीआर तंत्र से सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रावधानों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया जाए। 

महत्वपूर्ण मामले 

मेसर्स कपिल कोरपैक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम हरबंस लाल (2010)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सीपीसी के आदेश 10 के नियम 2 के उद्देश्य और लक्ष्य को सुनिश्चित किया है। न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्नों में आदेश 10 के नियम 2 की सीमा और दायरा, जांचे जाने वाले दस्तावेज के एक बड़े हिस्से को लेकर न्यायालय का प्रतिवादी के सामने आना और यह पता लगाना शामिल था कि क्या नियम 2 के तहत प्रतिवादी से पूछे गए प्रश्न के विरुद्ध दिया गया उत्तर उसे दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 340 (धारा 195 के तहत उल्लिखित मामलों में प्रक्रिया) (अब भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 379 के रूप में) के तहत मुकदमा चला सकता है।  

न्यायालय ने आदेश 10 के नियम 2 के दायरे और सीमा का निर्धारण करते हुए कहा कि जहां एक ओर नियम 1 पक्षों द्वारा स्वीकृति और खंडन का पता लगाने में सक्षम बनाता है, वहीं नियम 2 अन्य पक्षों द्वारा लगाए गए आरोपों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विवाद के किसी भी मामले को स्पष्ट करने में सहायक है। फैसले के शब्दों में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “नियम 2 अदालत को न केवल किसी भी पक्ष, बल्कि किसी भी पक्ष या उसके वकील के साथ आने वाले किसी भी व्यक्ति से पूछताछ करने में सक्षम बनाता है, ताकि मुकदमे से संबंधित किसी भी महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया जा सके, या तो पहली सुनवाई में या बाद की सुनवाई में। आदेश 10 के नियम 2 के तहत मौखिक परीक्षण का उद्देश्य मुकदमे में विवादित मामलों का पता लगाना है, न कि साक्ष्य दर्ज करना या स्वीकृति सुनिश्चित करना है। 

अन्य मुद्दों पर निर्णय करते हुए न्यायालय ने कहा कि पक्षों के अधिकारों और दायित्वों पर निर्णय करने के लिए नियम 2 का सहारा नहीं लिया जाएगा। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि जो दस्तावेज प्रदर्शित नहीं किया गया है, उसका सामना करना आदेश 10 के नियम 2 के दायरे से बाहर है। अंतिम मुद्दे पर निर्णय करते हुए, पीठ ने कहा कि किसी भी पक्ष पर आदेश 10 नियम 2 के तहत पूछे गए प्रश्नों के विरुद्ध दिए गए उत्तरों के आधार पर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 340 के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। 

डॉ. विमला मेनन और अन्य बनाम गोपीनाथ मेनन (2022)

इस मामले में, एक सिविल मुकदमा शामिल था जिसमें वादी द्वारा सी.पी.सी. के आदेश 10 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था जिसमें प्रतिवादी द्वारा प्रदान की गई जानकारी और जवाबों को चुनौती दी गई थी और दावा किया गया था कि ये जवाब टालमटोल वाले और अपर्याप्त थे। वादी ने सभी मुद्दों को स्पष्ट करने के लिए आदेश 10 नियम 1 के तहत प्रतिवादी से शपथ पर पूछताछ करने का आदेश भी मांगा था। 

इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या आदेश 10 के तहत शपथ पर पक्षों का परीक्षण न्यायोचित था और क्या सत्र न्यायाधीश को ऐसा आदेश देने का विवेकाधिकार था। 

इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायाधीश के निर्णय को बरकरार रखा तथा कहा कि सत्र न्यायाधीश को सीपीसी के आदेश 10 के तहत शपथ पर पक्षों के मौखिक परीक्षण का आदेश देने का विवेकाधिकार प्राप्त था। यह भी माना गया कि आदेश 10 न्यायालय को यह अधिकार देता है कि यदि आवश्यक समझा जाए तो वह पक्षों का परीक्षण कर सकता है। अदालत ने इस तथ्य पर भी जोर दिया कि पक्षों के मौखिक परीक्षण से उठने वाले सटीक प्रश्नों की भविष्यवाणी करना उसके दायरे में नहीं था। 

निष्कर्ष

आदेश 10 के अंतर्गत पक्षों के परीक्षण की प्रक्रिया के माध्यम से, न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि सभी प्रासंगिक जानकारी का खुलासा किया जाए और पक्षों के माध्यम से उसे निकाला जाए तथा मुकदमे के रिकॉर्ड का हिस्सा बनाने के लिए उसे प्रभावी ढंग से दस्तावेजित किया जाए। यह सिविल मुकदमे का एक बहुत ही महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि यह न केवल मुद्दों के स्पष्टीकरण में मदद करता है बल्कि साक्ष्य जुटाने में भी सहायक होता है। मुद्दों का निष्पक्ष और पारदर्शी समाधान सुनिश्चित करने के लिए, पक्षों के लिए आदेश 10 के प्रावधानों का अनुपालन करना बहुत महत्वपूर्ण है। धारा 89 के परस्पर प्रभाव से, आदेश 10 मामले को किसी भी उपयुक्त एडीआर मंच को संदर्भित करके विवादों के शीघ्र और कुशल समाधान में सहायता करता है। इसलिए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि न्यायालय द्वारा पक्षों के परीक्षण के लिए आदेश 10, सिविल मुकदमेबाजी की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कदम है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

सिविल मुकदमे में आदेश 10 की प्रासंगिकता क्या है?

आदेश 10 सिविल मुकदमे के निर्णय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह न्यायालय द्वारा पक्षों के परीक्षण को संदर्भित करता है जो न्यायालय को पक्षों के बीच अंतर्निहित मुद्दों का पता लगाने में सक्षम बनाता है। इससे तथ्यों की खोज, मुद्दों का स्पष्टीकरण और साक्ष्य जुटाने में मदद मिलती है। किसी विवाद पर अधिकार-क्षेत्र रखने वाला न्यायालय, पक्षों के परीक्षण के माध्यम से, विवाद के विषय-वस्तु पर कानून और तथ्यों के छिपे हुए मुद्दों का पता लगाने का प्रयास करता है। 

क्या कोई पक्ष आदेश 10 के अंतर्गत न्यायालय द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देने से इंकार कर सकता है?

सामान्यतः कोई भी पक्ष न्यायालय द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देने से इंकार नहीं कर सकता है। हालाँकि, आदेश 10 के नियम 4 के अनुसार, यदि कोई पक्ष या उसका वकील किसी प्रश्न का उत्तर देने से इनकार करता है या वे उत्तर देने में असमर्थ हैं, तो अदालत उन्हें प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अदालत के समक्ष “व्यक्तिगत रूप से” उपस्थित होने के लिए 7 दिन का समय दे सकती है। 

आदेश 10 में नियम 1A को सम्मिलित करने के पीछे क्या उद्देश्य है?

आदेश 10 में नियम 1A को शामिल करने का उद्देश्य विवादों का शीघ्र और सौहार्दपूर्ण समाधान सुनिश्चित करना था। यह सी.पी.सी. की धारा 89 के अंतर्गत प्रावधान के उद्देश्य को पूरा करता है और यदि न्यायालय को लगता है कि विवाद को ए.डी.आर. के किसी भी तरीके से सुलझाया जा सकता है, तो उसे मामले को किसी भी ए.डी.आर. मंच को संदर्भित करने का अधिकार है। 

न्यायालय के निर्देश पर ए.डी.आर. के किन मंचों को संदर्भित किया जा सकता है?

न्यायालय पक्षों को धारा 89 में उल्लिखित किसी भी ए.डी.आर. मंच के पास भेज सकता है, अर्थात् मध्यस्थता के मामले में मध्यस्थ न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल), न्यायालय के बाहर न्यायिक समाधान के मामले में लोक अदालत, सुलह के मामले में सुलहकर्ता तथा बिचवई के मामले में बीच-बचावकर्ता (मेडिएटर) के पास भेज सकता है।

क्या आदेश 10 नियम 2 के तहत विवादित मामलों की पहचान करने की शक्ति भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत न्यायालय द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति से भिन्न है?

जैसा कि कपिल कोरपैक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम हरबंस लाल (2010) में कहा गया है, आदेश 10 नियम 2 के तहत पूर्व परीक्षण चरण में पक्षों का परीक्षण करके विवादित मामलों की पहचान करने की शक्ति साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 165 के तहत न्यायालय द्वारा प्रासंगिक तथ्यों की खोज या उचित सबूत प्राप्त करने के लिए किसी भी रूप में किसी गवाह या पक्ष से कोई प्रश्न पूछने की शक्ति से पूरी तरह से अलग है। 

संदर्भ

  • Civil Procedure by C.K. Takwani.

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here