संपत कुमार बनाम प्रवर्तन अधिकारी मद्रास

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निम्नलिखित लेख Adv. Ishani Samajpati द्वारा लिखा गया है। यह लेख 1 अगस्त 1997 के संपत कुमार बनाम प्रवर्तन अधिकारी मद्रास के मामले से विस्तृत रूप से संबंधित है। इसमें मामले के तथ्यों, दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तर्कों, प्रासंगिक कानूनों, उदाहरणों के विश्लेषण और अंत में मद्रास उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ द्वारा पारित आदेश पर चर्चा की गई है। यह मामला मुख्य रूप से विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम (फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट), 1973 की धारा 56 के अनुप्रयोग से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Vanshika Gupta द्वारा किया गया है।

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परिचय

एक महत्वपूर्ण समय में, जब भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अब तक के सबसे निचले स्तर पर था, विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 (इसके बाद “फेरा” या “अधिनियम” के रूप में संदर्भित) अधिनियमित किया गया था। यह अधिनियम 19 सितंबर 1973 को लागू हुआ। इस अधिनियम का उद्देश्य कुछ प्रकार के भुगतानों, विदेशी मुद्रा और प्रतिभूतियों (सिक्योरिटीज) के लेन-देन तथा ऐसे लेन-देनों को विनियमित करना था जो अप्रत्यक्ष रूप से विदेशी मुद्रा और सोने-चांदी के आयात और निर्यात को प्रभावित करते हैं। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत के आर्थिक विकास के लिए विदेशी मुद्रा संसाधनों का संरक्षण तथा उचित उपयोग करना भी था।

अधिनियम ने सक्षम अधिकारियों को जांच करने की शक्ति भी प्रदान की। इसलिए, इसमें धारा 40 के तहत प्रावधान शामिल हैं, जिसमें एक राजपत्रित (गैज़ेटेड) प्रवर्तन अधिकारी के पास किसी भी व्यक्ति को बुलाने की शक्ति है, जिसकी उपस्थिति वह आवश्यक समझता है, या तो साक्ष्य देने या जांच के दौरान या फेरा के तहत किसी भी कार्यवाही के दौरान कोई दस्तावेज पेश करने के लिए।

हालांकि, क्या होगा यदि सम्मन प्राप्त करने वाला व्यक्ति साक्ष्य देने या दस्तावेज पेश करने के लिए उपस्थित नहीं होता है? क्या यह इस अधिनियम के तहत अपराध का गठन करता है? क्या फेरा में कोई प्रावधान है जिसके तहत यह दंडनीय है?

संपत कुमार बनाम प्रवर्तन अधिकारी मद्रास 1 अगस्त 1997 का मामला इन सवालों के जवाब देता है। हालांकि यह एकल पीठ का आदेश था, लेकिन विभिन्न संबंधित निर्णयों में इसका कई बार हवाला दिया गया है, जो इसके महत्व को दर्शाता है। आइए जानने के लिए पढ़ते हैं।

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: संपत कुमार बनाम प्रवर्तन अधिकारी मद्रास
  • याचिकाकर्ता: संपत कुमार
  • प्रत्यर्थी: प्रवर्तन अधिकारी मद्रास
  • न्यायालय: मद्रास उच्च न्यायालय
  • मामले की प्रकृति: आपराधिक मूल याचिकाएँ 
  • याचिकाकर्ता की ओर से वकील: श्री एन. जोथी
  • प्रत्यर्थी की ओर से वकील: श्री वी. टी. गोपालन
  • फैसले की तारीख: 1 अगस्त, 1997

मामले के तथ्य 

मामले के तथ्य इस प्रकार हैं:

  • याचिकाकर्ता को फेरा के तहत जांच के लिए सम्मन जारी किया गया था, जिसमें उन्हें सम्मन में उल्लिखित निर्देशों का पालन करने का निर्देश दिया था। सम्मन में विशेष रूप से उल्लेख किया गया था कि सम्मन का पालन न करना फेरा की धारा 50 और 56 के तहत अपराध है। 12.02.1996 को सम्मन जारी किए गए थे, जिसमें याचिकाकर्ता को 16.02.1996 को उपस्थित होने का निर्देश दिया गया था, जो वह ऐसा करने में विफल रहा।
  • दिनांक 19-02-1996 को प्रवर्तन अधिकारी ने उनके आवासों की तलाशी ली और कतिपय दस्तावेज (सर्टेन डाक्यूमेंट्स) जब्त किए। तलाशी के दौरान भी याचिकाकर्ता अनुपस्थित था। इसलिए, फिर से, 19.02.1996 को उसी तारीख को दोपहर 3 बजे याचिकाकर्ता की उपस्थिति के लिए सम्मन जारी किए गए। फिर से, याचिकाकर्ता उपस्थित नहीं हुए और विदेशी मुद्रा विनियमन नियम, 1974 के नियम 3 (c) के तहत उनकी उपस्थिति के लिए एक और सम्मन दिया गया। याचिकाकर्ता ने मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष रिट आवेदन और अग्रिम (ऐंटीसीपेट्री) जमानत याचिकाएं दायर कीं।
  • याचिकाकर्ता को कई सम्मन जारी किए गए, लेकिन वह जवाब देने और प्रत्यर्थी के सामने पेश होने में विफल रहा। इसके बाद, सम्मन का पालन नहीं करने के लिए सक्षम न्यायालय के समक्ष फेरा की धारा 56 के तहत शिकायतें दर्ज की गईं। अंत में, याचिकाकर्ता अपना बयान देने के लिए प्रत्यर्थी के सामने पेश हुआ।
  • आयकर विभाग से फेरा की धारा 33 (2) (सूचना मांगने की शक्ति) के तहत विभिन्न आपत्तिजनक दस्तावेज जब्त किए गए थे। इसके अलावा, विदेशी मुद्रा की जब्ती भी याचिकाकर्ता के खिलाफ उपलब्ध सामग्री का हिस्सा थी, जबकि उसे सम्मन भेजा गया था। 
  • याचिकाकर्ता सम्मन में उल्लिखित निर्देशों का पालन करने में विफल रहा और इस प्रकार, उसने फेरा के एकमात्र उद्देश्य और दायरे को पराजित किया। उन्होंने फेरा की धारा 56 (1) (ii) के साथ पठित धारा 40 (3) का उल्लंघन किया था।
  • याचिकाकर्ता के खिलाफ अभियोजन का मामला शुरू किया गया था, क्योंकि वह सम्मन का पालन करने में विफल रहा था, और इस तरह प्रवर्तन अधिकारी के निर्देशों का पालन करने में विफल रहा।
  • प्रत्यर्थी, मद्रास के प्रवर्तन अधिकारी ने याचिकाकर्ता के खिलाफ फेरा की धारा 56 (1) (ii) के साथ पठित धारा 40 (3) के तहत अपराध करने के लिए शिकायत दर्ज की। 
  • याचिकाकर्ता, संपत कुमार के खिलाफ अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (ई.ओ.-I), एग्मोर और अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (ई.ओ.-II), एग्मोर, मद्रास की फाइलों पर सी.सी. संख्या 60/1996 और सी.सी. संख्या 61/1996 में दो कार्यवाहियां चल रही थीं। याचिकाकर्ता ने दो आपराधिक मूल याचिकाएं दायर करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 (उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों) के तहत मद्रास उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इसलिए, वर्तमान मामला हुआ है।

मामले में शामिल मुद्दे

इस मामले में शामिल मुख्य मुद्दे इस प्रकार हैं:

  • क्या अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (ई.ओ.-I), एग्मोर और अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (ई.ओ.-II), एग्मोर, मद्रास की फाइलों में याचिकाकर्ता के खिलाफ लंबित कार्यवाही स्वीकार्य है या नहीं?
  • याचिकाकर्ता के खिलाफ शेष आपराधिक मामले सुनवाई योग्य हैं या नहीं?
  • क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत याचिकाकर्ता द्वारा दायर आपराधिक मूल याचिकाओं की अनुमति दी जा सकती है या नहीं?
  • क्या धारा 40(3) का उल्लंघन फेरा की धारा 56(1)(ii) के तहत दंडनीय है या नहीं?

संपत कुमार बनाम प्रवर्तन अधिकारी मद्रास में शामिल कानून

विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 की धारा 40

फेरा की धारा 40 साक्ष्य देने और आवश्यक दस्तावेज पेश करने के लिए व्यक्तियों को बुलाने की शक्ति से संबंधित है।

अधिनियम की धारा 40 (1) में कहा गया है कि प्रवर्तन के किसी भी राजपत्रित अधिकारी के पास किसी भी व्यक्ति जिसकी उपस्थिति वह समझता है कि साक्ष्य देने या इस अधिनियम के तहत किसी भी जांच या चल रही कार्यवाही के लिए कोई आवश्यक दस्तावेज पेश करने के लिए आवश्यक है, को बुलाने की शक्ति है।

धारा 40 (2) में कहा गया है कि एक विशिष्ट दस्तावेज पेश करने या कुछ श्रेणियों के दस्तावेजों जो उस व्यक्ति के कब्जे में हैं या उसके नियंत्रण में हैं, जिसे सम्मन दिया गया है को पेश करने के लिए सम्मन दिया जाएगा।

अधिनियम की धारा 40 (3) के अनुसार, जिस व्यक्ति को सम्मन किया गया है, उसे प्रवर्तन अधिकारी के निर्देशानुसार या तो व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना होगा या किसी अधिकृत व्यक्ति द्वारा प्रतिनिधित्व करना होगा। इसके अतिरिक्त, सम्मन किया गया व्यक्ति उस विषय के संबंध में सच्चाई बताने के लिए बाध्य होगा जिस पर उनकी जांच की गई है या बयान दिए गए हैं या आवश्यक दस्तावेज पेश किए गए हैं। इसके अलावा, यह धारा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 132 के तहत छूट की अनुमति देती है। इसमें कहा गया है कि जो महिलाएं अपने रीति-रिवाजों और शिष्टाचार के कारण सार्वजनिक रूप से पेश नहीं होती हैं, उन्हें सार्वजनिक रूप से न्यायालय में पेश होने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। इसलिए, न्यायालय में उनकी व्यक्तिगत उपस्थिति को छूट दी गई है।

धारा 40 (4) में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 193 (झूठे साक्ष्य के लिए सजा) और 228 (न्यायिक कार्यवाही में बैठे लोक सेवक का जानबूझकर अपमान या रुकावट) के दायरे के तहत, इस अधिनियम के तहत ऐसी जांच या कार्यवाही को न्यायिक कार्यवाही माना जाएगा।

विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 की धारा 56

फेरा की धारा 56, इस अधिनियम की एकमात्र धारा है जो अपराधों और उनके अभियोजन से संबंधित है। 

यह धारा इस अधिनियम के तहत न्यायनिर्णयन (एडजुडिकेशन) अधिकारियों द्वारा दंड दिए जाने के बिना उल्लंघन के लिए सजा प्रदान करती है। धारा 56 कई अपवाद भी प्रदान करती है जिसमें इसके दंड लागू नहीं होंगे, जैसे कि धारा 13 (कुछ मुद्रा और बुलियन के आयात और निर्यात पर प्रतिबंध), धारा 18 (1) (a) (निर्यात किए गए माल के लिए भुगतान), धारा 18A (रिज़र्व बैंक की सामान्य या विशेष अनुमति के बिना किसी भी माल को लेने या भेजने पर प्रतिबंध), धारा 19 (1) (a) (रिज़र्व बैंक की अनुमति के बिना कोई प्रतिभूति लेना या भेजना), धारा 44 (2) (सद्भाव में कर्तव्य निर्वहन के लिए सजा), धारा 57 (न्यायनिर्णयन अधिकारी, अपीलीय बोर्ड और उच्च न्यायालय द्वारा किए गए आदेश के उल्लंघन के लिए जुर्माना) और धारा 58 (प्रवर्तन अधिकारी द्वारा कष्टप्रद खोज आदि)। इन धाराओं के अलावा, यदि कोई व्यक्ति न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि के बाद इस अधिनियम के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है, तो वह धारा 56 के तहत दंडनीय होगा।

धारा 56 (1)(i) में ऐसे अपराध के लिए सजा का प्रावधान है जो प्रकृति में आर्थिक है और एक लाख रुपये से अधिक है। ऐसे मामले में, व्यक्ति को कम से कम छह महीने की कैद की सजा दी जाएगी, जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है, और जुर्माना लगाया जाएगा। यदि न्यायालय उचित समझे तो वह छह महीने से कम की सजा का प्रावधान कर सकता है।

अन्य मामलों में धारा 56 (1) (ii) में तीन साल तक के कारावास या जुर्माना या जुर्माना और कारावास दोनों की सजा का प्रावधान है।

धारा 56(2) के अनुसार, इस अधिनियम के अंतर्गत दूसरे और प्रत्येक पश्चातवर्ती (सब्सीक्युएन्ट) अपराध के लिए, व्यक्ति को न्यूनतम छह महीने की कैद, जो सात महीने तक बढ़ाई जा सकेगी, और जुर्माना लगाया जाएगा। यदि न्यायालय उचित समझे तो वह छह महीने से कम की सजा का प्रावधान कर सकता है।

धारा 56(3) के तहत, लगाई गई सजा के अलावा, इस अधिनियम के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने वाली न्यायालय तीन साल से अधिक की अवधि के लिए एक निर्दिष्ट व्यवसाय नहीं करने का आदेश पारित कर सकती है, यदि यह पाया गया है कि व्यवसाय इस तरह के अपराध को अंजाम देने में सक्षम हो सकता है।

धारा 56 (4) उन कारणों को निर्धारित करती है जिन्हें न्यायालय छह महीने से कम की सजा प्रदान करने के लिए आधार के रूप में उपयोग नहीं कर सकती है-

  • अभियुक्त को पहली बार इस अधिनियम के तहत अपराध का दोषी ठहराया गया है।
  • अभियुक्त, इस अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में (एक अभियोजन के अलावा), जुर्माना देने का आदेश दिया गया है, या यदि इस तरह की कार्यवाही से संबंधित सामान को जब्त करने का आदेश दिया गया है, या यदि उसी अपराध के लिए, उसके खिलाफ कोई अन्य दंडात्मक कार्रवाई शुरू की गई है।
  • अभियुक्त प्राथमिक अपराधी नहीं था और केवल माल का वाहक या द्वितीयक पक्ष था।
  • अभियुक्त की उम्र।

इसके अलावा, धारा 56 (5) में कहा गया है कि यह तथ्य कि अपराध आम जनता या किसी व्यक्ति के लिए हानिकारक नहीं है, न्यायालय के लिए छह महीने से कम की सजा प्रदान करने का वैध आधार नहीं है।

याचिकाकर्ता की दलीलें

माननीय न्यायालय के समक्ष याचिकाकर्ता द्वारा निम्नलिखित तर्क दिए गए थे।

प्रत्यर्थी का न्यायालय में जाना न्यायोचित नहीं था

याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि चूंकि याचिकाकर्ता सक्षम न्यायालय में अपने कानूनी उपायों का अनुसरण कर रहा है, इसलिए प्रत्यर्थी द्वारा फेरा की धारा 40(3) के तहत अपराध के लिए धारा 56(1)(ii) के तहत शिकायत दर्ज कराना उचित नहीं था। वकील ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था और फेरा की धारा 40 के तहत सम्मन जारी करने को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिकाएं दायर की थीं। वे अभी भी विद्वान सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित थे और इसलिए, प्रत्यर्थी को उपरोक्त शिकायत दर्ज करने में न्यायसंगत नहीं था। वकील ने गरिकापति बनाम सुब्बैया चौधरी (1957) पर भरोसा किया, जिसमें निम्नलिखित सिद्धांत उभरे:

  • किसी भी उपाय, मुकदमा, अपील और दूसरी अपील की कानूनी खोज, कार्यवाही की एक श्रृंखला में कदम हैं। वे सभी एक आंतरिक एकता से जुड़े हुए हैं और उन्हें एकल कानूनी कार्यवाही के रूप में माना जाना चाहिए।
  • अपील करने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और केवल प्रक्रियात्मक मामला नहीं है।
  • किसी मुकदमे के आरंभ होने का तात्पर्य यह है कि उस समय मौजूद अपील का अधिकार, मुकदमे के अंत तक पक्षों के पास बना रहता है।
  • अपील करने का अधिकार निहित अधिकार है।
  • अपील का निहित अधिकार केवल बाद के अधिनियमन द्वारा ही वापिस लिया जा सकता है।

याचिकाकर्ता ने आगे प्रस्तुत किया कि उसने पहला सम्मन प्राप्त करने के बाद एक रिट याचिका दायर करके संवैधानिक उपायों का आह्वान किया था। उक्त रिट याचिका का निपटान कर दिया गया था और याचिकाकर्ता ने मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष रिट अपील दायर की थी। इसके बाद, रिट अपील भी खारिज कर दी गई थी। तब याचिकाकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 133 (सिविल मामलों के संबंध में उच्च न्यायालयों से सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र) के तहत एक विशेष अनुमति याचिका दायर की, जो उक्त न्यायालय के समक्ष लंबित थी। ऐसी परिस्थितियों में, प्रत्यर्थी को फेरा की धारा 40 (3) के प्रावधानों का पालन नहीं करने के लिए शिकायत दर्ज करना उचित नहीं था। उपर्युक्त कानूनी कार्यवाही की शुरुआत का अर्थ है कि याचिकाकर्ता के अधिकारों की रक्षा तब तक की जाती है जब तक कि कार्यवाही अंतिम रूप से प्राप्त नहीं हो जाती। 

याचिकाकर्ताओं ने यह भी प्रस्तुत किया कि अपील का अधिकार एक निहित अधिकार है, जिसका प्रयोग किसी भी प्रतिकूल आदेश पर किया जा सकता है, जबकि ऊपरी न्यायालय में प्रवेश करने का अधिकार किसी व्यक्ति के लिए उपलब्ध एक मौलिक अधिकार है। 

धारा 40(3) के तहत गैर-अनुपालन फेरा की धारा 56 (1) (ii) के तहत अपराध नहीं बनता है

याचिकाकर्ता के वकील द्वारा प्रस्तुत अगला तर्क यह था कि धारा 40 (3) का अनुपालन न करना, फेरा की धारा 56 के तहत अपराध नहीं है। इसलिए, न तो प्रत्यर्थी को शिकायतें दर्ज करने में न्यायसंगत है, न ही न्यायालय को उन पर विचार करने और याचिकाकर्ता को सम्मन जारी करने में न्यायसंगत है। 

याचिकाकर्ता की ओर से पहला निवेदन यह था कि धारा 40(3) के प्रावधान को स्पष्ट रूप से पढ़ने पर पता चलता है कि जिस व्यक्ति को बुलाया गया है, उसे उपस्थित होना होगा और जिस विषय पर उससे पूछताछ की जा रही है, उसके बारे में सच बताना होगा तथा आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत करने होंगे। कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि इससे फेरा की धारा 56 (1) (ii) के तहत मुकदमा चलाया जाएगा। धारा 40 (3) में केवल यह कहा गया है कि सम्मन किया गया व्यक्ति बयान देने और दस्तावेजों को पेश करने के लिए उपस्थित होगा। इसमें यह उल्लेख नहीं किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करता है तो परिणाम क्या होंगे। धारा 56 (1) (ii) में तीन साल के कारावास या जुर्माना या दोनों की सजा का प्रावधान है। धारा को आगे पढ़ने पर, यह देखा गया है कि अपराध को उल्लंघन में शामिल धन की राशि के आधार पर मापा जाता है। यह धारा आर्थिक भागीदारी के आधार पर सजा की मात्रा तय करती है और फेरा की धारा 40 (3) का उल्लंघन करने और अनुपालन न करने के लिए किसी दंड का उल्लेख नहीं है। इसे ध्यान में रखते हुए, धारा 40(3) के तहत गैर-अनुपालन, धारा 56 के तहत अपराध नहीं माना जाएगा।

राजपत्रित अधिकारी द्वारा जारी सम्मन का पालन न करना अपराध नहीं है

याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि प्रवर्तन के राजपत्रित अधिकारी द्वारा जारी किए गए सम्मन के मामले में, व्यक्तिगत रूप से या अधिकृत एजेंट द्वारा उपस्थित नहीं होना, धारा 56 के तहत अपराध नहीं है। फेरा की यह धारा उन अपराधों से संबंधित है जो प्रकृति में आर्थिक हैं। दूसरी ओर, फेरा की धारा 40 (3) के तहत मौद्रिक मूल्य का कोई उल्लेख नहीं है। इसलिए, न्यायालय का संज्ञान लेना और बाद में याचिकाकर्ता को सम्मन जारी करना न्यायसंगत नहीं है।

याचिकाकर्ता के वकील ने इट्टी बनाम सहायक निदेशक (1990) के मामले में केरल उच्च न्यायालय में एकल न्यायाधीश की पीठ द्वारा पारित फैसले पर भरोसा किया। इस मामले में न्यायालय ने “उल्लंघन” शब्द के अर्थ की जांच की। ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार, जब किसी व्यक्ति को सक्षम प्राधिकारी के सामने पेश होने के लिए बुलाया जाता है, तो इसका मतलब है कि उस व्यक्ति को उसके सामने पेश होने का निर्देश दिया गया है। सम्मन का पालन किया जाना चाहिए, लेकिन सम्मन की अवज्ञा उल्लंघन नहीं है। बल्कि, यह एक ऐसा मामला है जो भारतीय दंड संहिता की धारा 174 के अंतर्गत आता है, जो एक लोक सेवक के आदेश की आज्ञा का पालन करने में गैर-उपस्थिति से संबंधित है। एकल न्यायाधीश की पीठ ने माना कि यह कहना कानूनी भूल है कि धारा 40 (1) के तहत सम्मन का पालन न करना इस अधिनियम के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन है। इसलिए धारा 56 को आकर्षित करने के लिए, मौद्रिक मूल्य के संदर्भ में अपराध की गणना करना संभव नहीं हो सकता है। इसलिए, ऐसे मामले में, धारा 40 के तहत अपराध पर धारा 56 लागू नहीं होती है, क्योंकि यदि इसे अन्यथा आयोजित किया जाता है, तो परिणाम गंभीर हो सकते हैं और निर्दोष व्यक्तियों को प्रतिशोधी अधिकारियों द्वारा परेशान किया जा सकता है।

अपराध की परिभाषा 

याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि सामान्य खंड अधिनियम, 1897 की धारा 3 (38) के अनुसार, “अपराध” किसी भी कानून द्वारा दंडनीय किसी भी कार्य या चूक को संदर्भित करता है। उन्होंने आगे इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक निर्णय, राज नारायण सिंह बनाम आत्माराम गोविंद और अन्य (1953) को प्रस्तुत किया, जिसमें सामान्य खंड अधिनियम, 1897 में दी गई “अपराध” की परिभाषा को दोहराया गया।

अस्पष्ट शब्दों की व्याख्या

याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि प्रावधानों की व्याख्या करते समय उत्पन्न होने वाली किसी भी अस्पष्टता का समाधान दंड के लिए उत्तरदायी व्यक्ति के पक्ष में किया जाना चाहिए। अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, उन्होंने ईशर दास बनाम पंजाब राज्य (1972) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया, जहां यह माना गया था कि दंड कानून की व्याख्या करते समय यदि कोई अस्पष्टता या संदेह उत्पन्न होता है, तो इसे मैक्सवेल द्वारा विधियों की व्याख्या के आधार पर दंड के लिए उत्तरदायी व्यक्ति के पक्ष में हल किया जाना चाहिए।

इसके अलावा, नसीरुद्दीन बनाम राज्य परिवहन अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) (1975) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि शब्दों की व्याख्या उनके सामान्य अर्थों में की जानी चाहिए यदि वे सादे और स्पष्ट हैं। एक न्यायालय किसी क़ानून को प्रभावी करने से इनकार नहीं कर सकता है, केवल इसलिए कि इसकी व्याख्या अन्यायपूर्ण है। इसके अलावा, एक अधिनियम में, यदि किसी शब्द की व्याख्या दो तरीकों से की जा सकती है, तो न्यायालय को ऐसी व्याख्या अपनानी चाहिए जो न्यायसंगत, उचित और समझदारीपूर्ण हो।

ए. आर. अंतुले बनाम आर.एस. नायक और अन्य (1988) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक धारा की व्याख्या करते समय, न्यायालय को इसे वैसे ही पढ़ना चाहिए जैसा कि यह है। इसके पास न तो किसी धारा को अपनी इच्छानुसार पुनः लिखने का अधिकार है, न ही यह धारा की किसी भी प्रकार से व्याख्या कर सकता है, जिससे वह बेतुकी हो जाए।

फेरा एक स्व-निहित अधिनियम नहीं है

याचिकाकर्ता के वकील ने न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया कि फेरा एक स्व-निहित अधिनियम नहीं है, क्योंकि इसमें नोटिस जारी करने, जमानत देने के लिए आवेदन और साक्ष्य दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है। उन्होंने एन. एस. आर. कृष्ण प्रसाद बनाम प्रवर्तन निदेशालय (1991) में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया, जहां न्यायालय ने फैसला किया कि किसी व्यक्ति के बयान दर्ज करते समय, प्रवर्तन अधिकारियों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 (स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) और बयानों की रिकॉर्डिंग) के तहत प्रक्रिया का पालन करना चाहिए, ताकि यह दिखाया जा सके कि अधिनियम एक स्व-निहित अधिनियम नहीं है। 

उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दीपक महाजन बनाम प्रवर्तन निदेशक (डायरेक्टरेट )और अन्य (1990) पर भी भरोसा किया, जहां यह देखा गया था कि सीमा शुल्क अधिनियम, 1962, इसमें सीमा शुल्क या प्रवर्तन अधिकारियों के लिए किसी गिरफ्तार व्यक्ति को हिरासत में लेने के लिए मजिस्ट्रेट से आदेश प्राप्त करने हेतु कोई विशिष्ट प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई है। जबकि ये अधिकारी मजिस्ट्रेट जैसी अपराधों की जांच करने की शक्ति रखते हैं, उनके पास सीमित अधिकार होते हैं, जैसे कि पुलिस थाने के प्रभारी पुलिस अधिकारी, विशेष रूप से जमानत से इनकार करने या देने की शक्ति। गिरफ्तारी और हिरासत की उनकी शक्तियां केवल सीमा शुल्क अधिनियम या फेरा के तहत जांच को सक्षम बनाने के लिए हैं। इसके साथ ही, भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रवर्तन निदेशालय बनाम दीपक महाजन (1994) के मामले को भी संदर्भित किया गया था, ताकि यह दिखाया जा सके कि फेरा एक स्व-निहित अधिनियम नहीं है।

मिसालों का बाध्यकारी प्रभाव

याचिकाकर्ता के वकील ने बताया कि मामले का फैसला न्यायालय ने निपटान के समय नहीं, बल्कि स्वीकृति के स्तर में किया था, दूसरे पक्ष को नोटिस जारी किए बिना। इसलिए, यह इस न्यायालय के लिए बाध्यकारी नहीं है। अपनी दलील को साबित करने के लिए उन्होंने अब्दुल मलिक बनाम धर्मपुरी और अन्य (1968) मामले में मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें एकल न्यायाधीश की पीठ ने मिसालो की बाध्यकारी शक्ति की जांच की थी। इस मामले में, मुकदमे के दौरान, राजस्व बोर्ड ने दो निर्णयों की टिप्पणियों पर भरोसा किया, जिनके बारे में इस न्यायालय ने कहा कि वे मिसाल के तौर पर बाध्यकारी नहीं हैं, क्योंकि वे दोनों पक्षों को सुनने के बाद नहीं सुनाए गए थे। एकल न्यायाधीश की पीठ ने आगे विस्तार से बताया कि नोटिस के बिना या किसी प्रत्यर्थी पक्ष को सुने बिना या उसकी अनुपस्थिति में दिए गए निर्णय को मिसाल नहीं माना जाएगा। ऐसे मामलों में जहां स्वीकृति के स्तर में याचिकाएं खारिज कर दी जाती हैं, प्रत्यर्थी अनुपस्थित रहता है और स्वाभाविक रूप से उसे अपना मामला पेश करने का कोई अवसर नहीं मिलता है। इसलिए की गई टिप्पणियां, प्रत्यर्थी पर बाध्यकारी नहीं होंगी और उक्त निर्णय को एक मिसाल के रूप में नहीं माना जा सकता है, क्योंकि यह केवल एक पक्ष को सुनने के बाद पारित किया गया था। पारित किया गया निर्णय पर इंकुरियम निर्णय होगा।

प्रत्यर्थी द्वारा तर्क

प्रत्यर्थी ने एक जवाबी हलफनामा (काउंटर) दायर किया और याचिकाकर्ता के हलफनामों में उल्लिखित सभी आरोपों से इनकार किया, सिवाय उन आरोपों के जिन्हें प्रत्यर्थी ने विशेष रूप से स्वीकार किया था। प्रत्यर्थी द्वारा दिए गए तर्क इस प्रकार थे:

जब किसी पक्ष को किसी कानूनी उपाय का लाभ उठाने से रोका जा सकता हो

प्रत्यर्थी के वकील ने न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया कि केवल एक मामले की लंबितता किसी पक्ष को कानूनी उपाय प्राप्त करने से नहीं रोकती है। एक पक्ष को केवल उपलब्ध कानूनी उपाय के साथ आगे बढ़ने से रोका जा सकता है, यदि स्थगन का आदेश हो या सक्षम न्यायालय से कोई आदेश हो, जिसमें उन्हें रोकने का निर्देश दिया गया हो। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय, अर्थात् एन. रथिनासाबापथी बनाम के. एस. पलनियप्पा कंदर (1995) पर भरोसा किया। इस मामले में, प्रत्यर्थी को तीन सप्ताह के लिए निषेधाज्ञा (इन्जंक्शन) दी गई थी। निषेधाज्ञा आदेश की सूचना मिलते ही अपीलकर्ताओं ने निर्माण कार्य रोक दिया। तीन सप्ताह समाप्त होने के बाद, अपीलकर्ताओं को निषेधाज्ञा के विस्तार का कोई आदेश नहीं मिला और इसलिए, वे निर्माण के साथ आगे बढ़े। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ताओं ने निषेधाज्ञा आदेश प्राप्त होते ही निर्माण को रोक दिया और अवधि समाप्त होते ही निर्माण के साथ आगे बढ़कर आदेश का सम्मान किया।

फेरा एक स्व-निहित अधिनियम है 

प्रत्यर्थी के वकील ने प्रस्तुत किया कि फेरा एक स्व-निहित अधिनियम है। इसे किसी भी उद्देश्य के लिए किसी अन्य अधिनियम को संदर्भित करने की आवश्यकता नहीं है, जैसे कि व्याख्या या प्रक्रियात्मक विवरण। इसलिए, याचिकाकर्ता द्वारा धारा 40 (3) का गैर-अनुपालन फेरा की धारा 56 के तहत दंडनीय है। 

वकील ने आगे प्रस्तुत किया कि फेरा की धारा 40 अधिनियम की एक महत्वपूर्ण धारा है और यदि कोई व्यक्ति इस धारा के प्रावधानों का पालन नहीं करता है, तो जांच की कार्यवाही प्रारंभिक स्तर में रुक जाती है और अधिनियम के प्रावधान शून्य हो जाते हैं। धारा के दायरे और दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए, धारा 40 के तहत कोई भी उल्लंघन फेरा की धारा 56 (1) (ii) के तहत दंडनीय हो जाता है। वकील ने केंद्रीय जांच ब्यूरो बनाम राजस्थान राज्य और अन्य (1996) के फैसले पर भरोसा किया।

धारा 40(3) का अनुपालन न करना फेरा की धारा 56(1)(ii) के तहत अपराध है

प्रत्यर्थी के वकील ने प्रस्तुत किया कि धारा 40 (3) का अनुपालन न करना धारा 56 (1) (ii) के तहत एक अपराध है और इसलिए, प्रत्यर्थी शिकायत दर्ज करने में उचित था और न्यायालय दायर की गई शिकायतों पर विचार करने में उचित थी। उन्होंने बताया कि केरल उच्च न्यायालय द्वारा इट्टी बनाम सहायक निदेशक (1990) के फैसले में, जिस पर याचिकाकर्ता के वकील ने भरोसा किया था, न्यायालय ने धारा 56 (1) (ii) के प्रावधानों पर विचार नहीं किया। 

उनकी प्रस्तुतियों के अनुसार, हालांकि मद्रास उच्च न्यायालय के 1992 के सीआरएल. ओ. पी. नंबर 312 में एक असूचित मामले एम. पी.जैन बनाम सहायक निदेशक में निर्णय स्वीकृति के स्तर में दिया गया था, तथ्य पूरी तरह से वर्तमान मामले को आवरण करते हैं। धारा 56 (1) (ii) को धारा 40 के प्रावधानों के साथ-साथ इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों के तहत मामलों का उल्लेख करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति इस अधिनियम के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है, तो वह सजा के लिए उत्तरदायी होगा।

वकील ने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता के वकील द्वारा संदर्भित केरल उच्च न्यायालय के फैसले के बजाय, न्यायालय को इस न्यायालय के फैसले का पालन करना चाहिए। वकील ने यह भी प्रस्तुत किया कि केरल उच्च न्यायालय का निर्णय इस न्यायालय पर बाध्यकारी नहीं है, लेकिन इस न्यायालय का निर्णय स्वयं बाध्यकारी है।

न्यायालय का आदेश

अंतिम आदेश

नीचे चर्चा किए गए तर्कों के आधार पर, माननीय न्यायालय ने निम्नलिखित आदेश दिए:

  • आपराधिक मूल याचिकाओं की अनुमति दी जाएगी। 
  • अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (ई.ओ.-I) एग्मोर और अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (ई.ओ.-II), एग्मोर, मद्रास-8 की फाइल पर 1996 की सीसी संख्या 60 और 1996 की 61 में लंबित कार्यवाही रद्द कर दी जाएगी।

आदेश के पीछे तर्क

कार्यवाही बनाए रखने योग्य है या नहीं

न्यायालय ने यह भी जांच की कि क्या याचिकाकर्ता अपने रुख का समर्थन करने के लिए एक आधार के रूप में उसके द्वारा प्राप्त कानूनी उपायों (रिट, रिट अपील, विशेष अनुमति याचिका आदि) का उपयोग कर सकता है। इसके अलावा, उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत निहित अधिकार क्षेत्र का भी आह्वान किया था। न्यायालय ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता द्वारा प्राप्त कानूनी उपाय, स्व-सेवारत कारक हैं और वे प्रमाण के अधीन हैं। उन्हें ट्रायल के समय साक्ष्य के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता सम्मन का पालन न करने के अपने रुख का समर्थन करने के लिए आधार के रूप में इसका उपयोग नहीं कर सकता है।

न्यायालय ने इस संबंध में प्रत्यर्थी की दलील को भी स्वीकार कर लिया है। प्रत्यर्थी के अनुसार, न्यायालयें अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग केवल दुर्लभतम मामलों में ही कर सकती हैं। न्यायालय इस मामले में अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकता है, क्योंकि शिकायतें आर्थिक अपराध न्यायालय के समक्ष दायर की गई हैं और इनमें उक्त न्यायालय के समक्ष साक्ष्य और परीक्षण शामिल हैं। 

माननीय न्यायालय ने निर्णय दिया कि सर्वोच्च न्यायालय में दायर विशेष अनुमति याचिकाओं पर रोक लगाने का कोई आदेश नहीं था और वे केवल लंबित हैं। इसलिए, याचिकाकर्ता के वकील की पहली दलील का कोई आधार नहीं है। माननीय न्यायालय ने याचिकाकर्ता के वकील के पहले तर्क को खारिज कर दिया।

फेरा की धारा 40 और धारा 56 के प्रावधानों का विश्लेषण

पक्षों द्वारा दिए गए प्रतिद्वंद्वी तर्कों का विश्लेषण करने के लिए, न्यायालय ने पहले फेरा की धारा 40 और 56 के प्रावधानों की जांच की।

न्यायालय ने विश्लेषण किया कि फेरा की धारा 40 किसी भी राजपत्रित प्रवर्तन अधिकारी की शक्ति से संबंधित है कि वह साक्ष्य देने और आवश्यक दस्तावेज पेश करने के लिए व्यक्तियों को बुला सके। हालांकि, धारा में यह उल्लेख नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति सम्मन का पालन नहीं करता है तो परिणाम क्या होगा। दूसरी ओर, अधिनियम की धारा 56 अपराधों और उनके अभियोजन से संबंधित है। धारा 56 (1) (i) में कहा गया है कि एक न्यायिक अधिकारी द्वारा दिए गए दंड को पूर्वनिर्धारित किए बिना, इस अधिनियम के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति, न्यूनतम छह महीने से अधिकतम सात साल तक कारावास की अवधि के साथ दंडनीय होगा, यदि अपराध में एक लाख रुपये से अधिक की राशि शामिल है। धारा 56 (1) (i) के प्रावधानों से, यह स्पष्ट हो जाता है कि यह धारा एक विशेष मौद्रिक मूल्य के संदर्भ में अपराधों का उल्लेख करती है। न्यायालय ने तर्क दिया कि फेरा की धारा 56 (1) (ii) को आकर्षित करने के लिए, याचिकाकर्ता द्वारा मौद्रिक मूल्य या राशि के संबंध में किए गए अपराधों की गणना करना संभव नहीं हो सकता है।

न्यायालय ने तब प्रत्यर्थी के रुख के दृष्टिकोण से प्रावधानों का विश्लेषण किया। धारा 56 (1) (ii) में कहा गया है कि किसी अन्य मामले में, न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए जाने पर अभियुक्त को तीन साल तक की कैद या जुर्माना या कारावास और जुर्माना दोनों के साथ दंडनीय होगा। एकल न्यायाधीश की पीठ ने तर्क दिया कि वाक्यांश “किसी अन्य मामले में” को फेरा की धारा 56 (1) (आई) के प्रावधान के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए। धारा 56 (1) (i) एक लाख रुपये से अधिक के अपराध के अभियोजन से संबंधित है। इसलिए, धारा 56 (1) (ii) में वाक्यांश “किसी अन्य मामले में” उन अपराधों को संदर्भित करता है जिनमें शामिल मूल्य एक लाख से कम है। इसलिए, दोनों प्रावधान मौद्रिक मूल्य के संबंध में अपराधों की गणना करते हैं।

उपरोक्त तर्क के आधार पर, विद्वान न्यायाधीश ने माना कि फेरा की संपूर्ण धारा 56 की पहचान की जाती है और मौद्रिक मूल्य या अपराध में शामिल राशि के संबंध में पुष्टि की जाती है। इसलिए, न्यायालय ने प्रत्यर्थी के वकील की दलील को खारिज कर दिया, जिन्होंने प्रस्तुत किया कि “किसी अन्य मामले में” उन मामलों को संदर्भित करता है जो इस अधिनियम के दायरे में आते हैं, भले ही इसमें शामिल राशि कितनी भी हो। न्यायालय ने प्रत्यर्थी के वकील की दलील को भी खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि अधिनियम की धारा 40 (3) के तहत किए गए अपराध फेरा की धारा 56 (1) (ii) के दायरे में आएंगे।

क्या धारा 40(3) के तहत अपराध फेरा की धारा 56(1)(ii) के तहत अपराध है या नहीं 

यह देखा गया कि याचिकाकर्ता द्वारा सम्मन का पालन न करना, अधिनियम के अर्थ के तहत एक उल्लंघन है और एकमात्र धारा जो इसकी सजा का उल्लेख करती है, वह धारा 56 है।

फेरा की धारा 56 विशेष रूप से सजा से संबंधित है। फेरा की अन्य धाराएं प्रवर्तन अधिकारियों के अपराधों और शक्तियों से संबंधित हैं। इसलिए, अधिनियम के किसी भी प्रावधान के उल्लंघन के लिए, फेरा की धारा 56 को लागू किया जाना चाहिए।

भेजे गए सम्मन का पालन न करने का अर्थ है फेरा की धारा 40 के तहत किसी भी निर्देश / आदेश / नियम / शर्त का पालन न करना, लेकिन जहां तक धारा 56 का संबंध है, गैर-अनुपालन को आर्थिक सीमा के संबंध में नहीं मापा जाना चाहिए।

जबकि फेरा कई प्रावधानों में अधिनियम के तहत उल्लंघन के प्रभाव का प्रावधान करता है, अधिनियम प्रत्येक धारा में दंड प्रदान नहीं करता है। इसलिए, केवल धारा 56 फेरा के तहत दंड प्रदान करती है।

न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता का यह तर्क कि धारा 56 को केवल तभी लागू किया जा सकता है जब कोई मौद्रिक उल्लंघन हो, सही नहीं है। न्यायालय द्वारा आगे यह माना गया कि याचिकाकर्ता अपनी सुविधा के अनुसार धारा की व्याख्या नहीं कर सकता है।

न्यायालय इट्टी बनाम सहायक निदेशक (1990) में केरल उच्च न्यायालय के फैसले से पूरी तरह सहमत था, जहां यह माना गया था कि अधिनियम की धारा 40 के तहत किया गया अपराध धारा 56 को आकर्षित नहीं करता है, क्योंकि धारा 56 मौद्रिक मूल्य के संबंध में अपराधों के अभियोजन की गणना करती है। याचिकाकर्ता के वकील द्वारा प्रस्तुत प्रस्तुतिकरण को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने माना कि मद्रास उच्च न्यायालय के 1992 के सीआरएल ओपी नंबर 312 में एम. पी. जैन बनाम सहायक निदेशक के असूचित निर्णय, प्रत्यर्थी के वकील द्वारा उद्धृत, इस न्यायालय पर कोई बाध्यकारी बल नहीं है क्योंकि अब्दुल मलिक बनाम धर्मपुरी और अन्य (1968) के निर्णय द्वारा आयोजित किया गया था, यह निर्णय प्रवेश के स्तर में विरोधी पक्ष को नोटिस जारी किए बिना दिया गया था।

अंत में, न्यायालय ने माना कि फेरा की धारा 40 के प्रावधानों का उल्लंघन करना अपराध नहीं है जो उक्त अधिनियम की धारा 56 को आकर्षित करता है।

संपत कुमार बनाम प्रवर्तन अधिकारी मद्रास का आलोचनात्मक विश्लेषण 

1 अगस्त, 1997 को संपत कुमार बनाम प्रवर्तन अधिकारी, मद्रास मामले में धारा 56 की प्रकृति और विशेषताओं पर विचार करते हुए इस मुद्दे पर विचार किया गया कि क्या धारा 40(3) का उल्लंघन विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 की धारा 56(1)(ii) के अंतर्गत अपराध है। इस मामले को तय करने में सहायता करने वाला मुख्य अवलोकन यह था कि फेरा की धारा 56 मौद्रिक मूल्य या राशि के संबंध में अपराधों की पहचान करती है। यदि किसी अपराध की गणना मौद्रिक मूल्य में नहीं की जा सकती है, तो अपराध धारा 56 के दायरे में नहीं आएगा। धारा 56(1)(ii) में उल्लिखित वाक्यांश “किसी अन्य मामले में” को अधिनियम की धारा 56(1)(i) के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए, इस धारा के तहत विचारणीय एकमात्र अपराध वित्तीय अपराध होने चाहिए न कि कोई अन्य अपराध। इसलिए, किसी भी अन्य धारा का उल्लंघन धारा 56 को आकर्षित नहीं करेगा यदि कोई मौद्रिक राशि या मूल्य शामिल नहीं है।

इस मामले ने फेरा के तहत जारी सम्मन के अनुपालन के महत्व पर प्रकाश डाला। हालांकि, मद्रास उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 40 (3) का अनुपालन न करना, धारा 56 (1) (ii) के तहत अपराध नहीं बनता है। न्यायालय की टिप्पणियों और इस मामले में पारित आदेश, प्रवर्तन अधिकारी के अधिकार को फिर से स्थापित करता है, जबकि यह सुनिश्चित करता है कि जांच की प्रक्रिया से समझौता या बाधा नहीं है, और इसलिए, आर्थिक विकास और देश में विदेशी मुद्रा के विनियमन को प्रोत्साहित किया जाता है।

मामले का प्रभाव

हालांकि एकल न्यायाधीश की पीठ के आदेश के बावजूद, इस मामले को कई फैसलों में उद्धृत किया गया है, यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय में भी। प्रवर्तन निदेशालय और अन्य बनाम एम सांबा शिव राव और अन्य (2000) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने इस फैसले का हवाला देते हुए अपने फैसले में इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या धारा 40 के तहत सम्मन का कोई उल्लंघन या फेरा की धारा 56 के तहत उल्लंघन दंडनीय होना चाहिए। प्रवर्तन अधिकारी बनाम मोहम्मद अकरम (2017) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश नागेश्वर राव ने इसी कारण से इस मामले का हवाला दिया।

निष्कर्ष

1 अगस्त, 1997 को संपत कुमार बनाम प्रवर्तन अधिकारी मद्रास का मामला विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 के तहत कानून के एक विशिष्ट प्रश्न के संबंध में एक महत्वपूर्ण मामला है। यह मुख्य प्रश्न से संबंधित है कि क्या धारा 40 (3) के तहत सम्मन का उल्लंघन फेरा की धारा 56 (1) (ii) के तहत अपराध होगा। इस मामले में दिए गए निर्णय ने इस अधिनियम के बुनियादी पहलुओं के संबंध में बहुत स्पष्टता लाई है, जो भारत में विदेशी मुद्रा के सुचारू विनियमन को सक्षम बनाता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) क्या है?

एक विशेष अनुमति याचिका अपील के एक विशेष संप्रदाय को संदर्भित करती है, जो निर्धारित न्यायालय के सामान्य पदानुक्रम को छोड़ सकती है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय किसी भी न्यायालय या सैन्य न्यायालय से संबंधित न्यायाधिकरणों को छोड़कर, भारत में किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी भी निर्णय या आदेश के खिलाफ अपील करने के लिए एक पीड़ित पक्ष को एक विशेष अनुमति देता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 136 सर्वोच्च न्यायालय को विशेष अनुमति याचिका मंजूर करने के लिए विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है।

उच्च न्यायालय के निर्णय के संबंध में, निर्णय पारित होने की तारीख से 90 दिनों के भीतर उसके विरुद्ध एक विशेष अनुमति याचिका दायर की जानी चाहिए। यदि उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने के लिए फिटनेस का प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया है, तो 60 दिनों के भीतर एक विशेष अनुमति याचिका दायर की जानी चाहिए।

विशेष अनुमति याचिकाओं की विस्तृत समझ हासिल करने के लिए, यहां क्लिक करें

निहित अधिकार क्या हैं?

निहित अधिकार बिना शर्त और स्वतंत्र अधिकार हैं। किसी व्यक्ति से उसकी अनुमति के बिना निहित अधिकार नहीं छीने जा सकते।

उदाहरण के लिए, अपील करने का अधिकार एक निहित अधिकार है। इसे केवल उस क़ानून जो अपील करने का अधिकार देता है में पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) संशोधन करके ही छीना जा सकता है। यह गणेश सिंह और अन्य बनाम बिश्राम सिंह और अन्य (2003) के मामले में माना गया था।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 क्या है?

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 उच्च न्यायालय की अंतनहित शक्तियों से संबंधित है। इस धारा के तहत, उच्च न्यायालय, न्यायालय द्वारा प्रक्रियात्मक दुरुपयोग को रोकने के साथ-साथ न्याय को सुरक्षित करने के लिए किसी भी आदेश को प्रभावी कर सकता है।

एक स्व-निहित अधिनियम क्या है?

स्व-निहित अधिनियम वे अधिनियम हैं जो अपने आप में पूर्ण हैं। उन्हें किसी प्रक्रियात्मक उद्देश्य के लिए या उनकी व्याख्या के लिए अन्य अधिनियमों के प्रावधानों की मदद की आवश्यकता नहीं है।

विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 के तहत “विदेशी मुद्रा” को कैसे परिभाषित किया गया है?

विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 की धारा 2 (h) में कहा गया है कि विदेशी विनिमय का अर्थ विदेशी मुद्रा है। धारा 2 (h) (i) में विदेशी मुद्रा में देय सभी जमा, क्रेडिट और शेष शामिल हैं। इसके अलावा, इस अधिनियम के तहत, विदेशी मुद्रा में ड्राफ्ट, यात्री चेक, क्रेडिट पत्र और विनिमय बिल भी शामिल हैं, जो भारतीय मुद्रा में तैयार किए गए हैं, लेकिन किसी भी विदेशी मुद्रा में देय हैं। अधिनियम की धारा 2(h)(ii) में अदाकर्ता (ड्रॉई) और धारक के बीच देय कोई भी लिखत (इंस्ट्रूमेंट) शामिल है, चाहे वह भारतीय मुद्रा में हो या किसी विदेशी मुद्रा में या आंशिक रूप से दोनों में।

संदर्भ

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