यह लेख Rupsa Chattopadhyay द्वारा लिखा गया है। यह एक व्यापक लेख है जो बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन के मामले से संबंधित है। यह उन प्रावधानों की भी व्याख्या करता है जिन पर मामले में चर्चा किया गया है। यह मामले के विवरण, पृष्ठभूमि, तथ्य, मुद्दों को उजागर करता है। इसमें उन अन्य निर्णयों का उल्लेख है जिनमें इस ऐतिहासिक मामले का उल्लेख किया गया है। यह मामला भरण-पोषण से संबंधित व्यक्तिगत कानून और सीआरपीसी प्रावधानों के अंतर्संबंध के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर प्रकाश डालता है और उन्हें दोहराता है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh ने किया था।
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परिचय
“जहाँ भी इंसान है, वहाँ दया का अवसर है” —- सेनेका
बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन फिसल्ली चोथिया (1978) यह एक ऐतिहासिक मामला है जो तलाक पर मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले भरण-पोषण के अधिकार से संबंधित है। इसकी चर्चा कई निर्णयों में की गई है जहां मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार का मामला मुद्दा था। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी), के तहत स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ परिवार के किसी आश्रित सदस्य को सहारा देने की कानूनी आवश्यकता को संदर्भित करता है। संहिता का धारा 125-128 भरण-पोषण के प्रावधानों से संबंधित है। सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण के प्रावधान धर्मनिरपेक्ष माना जाता है। किसी भी धर्म के लोगों को गुजारा भत्ता दिया जा सकता है यदि उनके पास अपने व्यक्तिगत कानूनों के बावजूद खुद को बनाए रखने के लिए साधन नहीं हैं। इसका उद्देश्य निराश्रितों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना और समाज में अपराधों को रोकना है।
यह लेख मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण पर अदालत की टिप्पणियों और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून ( पर्सनल लॉ ) के ऊपर सीआरपीसी लागू होने की स्थितियों के साथ-साथ ऐतिहासिक फैसले पर गहराई से चर्चा करता है। यह अन्य ऐतिहासिक मामलों पर भी चर्चा करता है जिसमें इस मामले का हवाला दिया गया है और चर्चा की गई है। आइए हम मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकारों की जटिलताओं पर गौर करें!
मामले का विवरण
- मामले का नाम: बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन
- उद्धरण: एआईआर 1979 एससी 362
- समतुल्य उद्धरण: 979 एआईआर 362, 1979 एससीआर (2) 75
- मामले का विषय: पति द्वारा मामूली राशि का भुगतान करने के बाद पत्नी के लिए भरण-पोषण
- मामले का प्रकार: आपराधिक अपील
- याचिकाकर्ता: बाई ताहिरा
- प्रतिवादी: अली हुसैन और अन्य
- अदालत: सर्वोच्च न्यायालय
- पीठ: वी.आर. कृष्णैयार, वी.डी. तुलजापुरकर, आर.एस. पाठक
- फैसले की तारीख: 6 अक्टूबर, 1978
- मुख्य निष्कर्ष: तलाकशुदा प्रत्येक व्यक्ति को भरण-पोषण का अधिकार है। विवाह विच्छेद(डीसोल्यूसन ) से यह कानूनी अधिकार विघटित नहीं होता।
मामले की पृष्ठभूमि
भरण-पोषण एक सामाजिक कल्याण प्रावधान है जो तलाकशुदा पत्नियों सहित उन आश्रितों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए है जिनके पास खुद को पर्याप्त रूप से समर्थन देने के लिए संसाधनों की कमी है। भरण-पोषण एक कल्याणकारी कानून है। ऐसे कानून विधायिका के नेक उद्देश्य को पूरा करने के उद्देश्य से हैं। जब कल्याणकारी कानून असहाय महिलाओं के लिए निर्देशित होते हैं, तो भारत के संविधान का अनुच्छेद 15(3) ऐसे कानूनों को अर्थ प्रदान करता है। उल्लिखित धारा महिलाओं के उत्थान के लिए विशेष रूप से आरक्षण के रूप में विशेष प्रावधान प्रदान करती है। भरण-पोषण का उद्देश्य उसी उद्देश्य को पूरा करना है। कल्याणकारी कानून राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की भावना की पूर्ति करते हैं, जिसे भारत के संविधान के भाग IV के (अनुच्छेद 36-51) के तहत प्रदान किया गया।
भारत का संविधान पूरी तरह से समाज के वंचित वर्गों के अधिकारों को लागू करता है। सी.आर.पी.सी. की. धारा 125-128 स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ व्यक्तियों को भरण-पोषण का अधिकार देकर उनके पक्ष में संविधान के मूल्यों को प्रतिबिंबित और विस्तारित करता है।
मामले के तथ्य
इस मामले में, प्रतिवादी पति ने पत्नी (याचिकाकर्ता) से अपनी दूसरी पत्नी के रूप में शादी की। उनका एक बेटा भी था। कुछ वर्षों के बाद, समस्याएं सामने आईं और पति ने पत्नी को तलाक दे दिया।
पत्नी द्वारा एक मुकदमा दायर किया गया था जिसमें पति ने सहमति डिक्री के माध्यम से उसे वह फ्लैट जिसमें वह रह रही थी, साथ ही मेहर राशि (5,000/- रुपये) और इद्दत राशि (180/- रुपये) हस्तांतरित कर दी।
समझौते में कहा गया कि आवेदक ने घोषणा की थी कि प्रतिवादी के खिलाफ उसका कोई दावा या अधिकार नहीं रह गया है। बाद में वे साथ रहे और फिर अलग हो गए। अपीलकर्ता (पत्नी) ने अपने और अपने बेटे के लिए मासिक भुगतान के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत दिए गए प्रावधान के तहत भरण-पोषण के लिए मजिस्ट्रेट की अदालत में याचिका दायर की। यह दावा मंजूर कर लिया गया।
इस दावे की मंजूरी को चुनौती देने के लिए पति द्वारा सत्र अदालत में अपील की गई थी। दावे को इस विचित्र व्याख्या पर अनुमति दी गई कि अदालत के पास धारा 125 के तहत यह निर्धारित करने का अधिकार क्षेत्र नहीं है कि आवेदक एक पत्नी थी या नहीं।
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने मामले पर कोई विशेष ध्यान दिए बिना पुनरीक्षण (रिवीजन) याचिका को सरसरी तौर पर खारिज कर दिया। इसके बाद शीर्ष अदालत में एक और अपील की गई।
मामले में उठाए गए मुद्दे
इस मामले में निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए:-
- क्या संहिता की धारा 127(3) के प्रयोजन के लिए, “राशि” शब्द में मुस्लिम महिलाओं द्वारा उनके व्यक्तिगत कानून के तहत प्राप्त मेहर शामिल है।
- क्या मेहर का भुगतान होने पर धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लिए दावा किया जा सकता है।
- क्या पति द्वारा नाममात्र राशि का भुगतान करने के बाद पत्नी आगे भरण-पोषण का दावा कर सकती है।
बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन फिसल्ली चोथिया और अन्य (1978) में शामिल कानून
यह मामला सीआरपीसी की धारा 125 के अध्याय IX के तहत दिए गए भरण-पोषण के प्रावधानों पर चर्चा करता है। नव पारित भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 के तहत भरण-पोषण अध्याय X, धारा 144-147 के तहत दिया जाता है।
सीआरपीसी की धारा 125 या बीएनएसएस की धारा 144
सीआरपीसी की धारा 125 के अनुसार निम्नलिखित लोग भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं:-
- पत्नी:
जिस पत्नी के पास अपना भरण-पोषण करने के साधन नहीं हैं, उसे अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने का अधिकार है। धारा 125 के प्रयोजन के लिए, “पत्नी” में वह महिला शामिल है जिसने अपने पति से तलाक ले लिया है और अभी तक पुनर्विवाह नहीं किया है।
2. बच्चे:
वे बच्चे, वैध और नाजायज दोनों, जो अपना भरण-पोषण नहीं कर सकते, अपने माता-पिता से भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं।
3. अभिभावक:
जो माता-पिता अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, वे प्रावधान के तहत अपने बच्चों से भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं। इस मामले में, बच्चों में विवाहित बेटियाँ भी शामिल हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 नये कानून के धारा 144 से संबंधित है। भरण-पोषण को दंड प्रक्रिया संहिता या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) में परिभाषित नहीं किया गया है। भरण-पोषण स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के निर्वाह के लिए एक मूल कानून सामाजिक कल्याण प्रावधान का एक रूप है। यह प्रावधान उन्हें सशक्त बनाने, उनकी बुनियादी ज़रूरतें प्रदान करने और हताशा के कारण होने वाले अपराधों को रोकने का काम करता है।
एक पत्नी को भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण नहीं मिलेगा यदि वह या तो व्यभिचार में रह रही है या अलग रहने के लिए किसी पर्याप्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है। यदि पति किसी अन्य महिला से विवाह करता है या रखैल रखता है तो यह पत्नी द्वारा अपने पति को न छोड़ने का उचित आधार माना जाएगा।
सीआरपीसी की धारा 127 या बीएनएसएस की धारा 146
धारा 127 भरण-पोषण भत्ते में परिवर्तन का प्रावधान है। इसमें कहा गया है कि अदालत के आदेश के अनुसार किसी आश्रित को भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण प्राप्त करने वाले व्यक्ति की परिस्थितियों में बदलाव के मामले में, मजिस्ट्रेट के पास भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण में परिवर्तन करने की शक्ति है, जैसा भी मामला हो।
धारा 127(3) में कहा गया है कि तलाकशुदा पत्नियों के मामले में, भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण का आदेश निम्नलिखित मामलों में रद्द किया जा सकता है: –
- महिला ने दूसरी शादी कर ली है, पुनर्विवाह के मामले में, विवाह की तारीख से आदेश रद्द किया जा सकता है।
- महिला को तलाक पर अपने पति से प्रथागत या व्यक्तिगत कानून के तहत काफी रकम मिली है।
- महिला ने स्वेच्छा से भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण के अपने अधिकारों को छोड़ दिया है।
यह मामला सीआरपीसी, 1973 के धारा 127(3)(b) से संबंधित है । उक्त प्रावधान पत्नी को भरण-पोषण प्रदान करता है और भत्ते के समायोजन की संभावना प्रदान करता है। इसका संबंध भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 के धारा 146(3)(b) से है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 15(3)
भारत के संविधान का अनुच्छेद 15(3) महिलाओं के उत्थान के लिए प्रावधान है। यह प्रावधान एक सकारात्मक उपाय और सुरक्षात्मक भेदभाव का एक रूप है। इस निर्णय में इसका उल्लेख किया गया है और यह इसकी भावना को दर्शाता है। संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। अनुच्छेद 15(3) में कहा गया है कि अनुच्छेद 15 राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि महिलाओं और बच्चों को समाज का पिछड़ा वर्ग माना जाता है।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता (अपीलकर्ता) और प्रतिवादी द्वारा निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए गए: –
याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करते हुए श्री भंडारे ने कहा कि अदालतें यह भूल गई हैं कि सीआरपीसी के धारा 125(1)(b) मे स्पष्ट रूप से क्या दिया गया है। जो पत्नी को उस महिला को शामिल करने के लिए परिभाषित करता है जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया है या तलाक ले लिया है और अभी तक दोबारा शादी नहीं की है।
याचिकाकर्ता के वकील ने स्वीकार किया कि यद्यपि उनकी मुवक्किल तलाकशुदा थी, फिर भी वह धारा 125 के तहत भरण-पोषण की हकदार थी। तलाकशुदा पत्नियों के अधिकारों को बनाए रखने के उद्देश्य से दिए गए इस सरल प्रावधान को निचली अदालतों द्वारा अजीब तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है। उन्होंने कहा कि प्रत्येक पात्र तलाकशुदा गुजारा भत्ता पाने का हकदार है और शादी टूटने से संहिता के तहत दिए गए अधिकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। सामान्य मामलों में, भरण-पोषण के आदेश में परीक्षण स्तर पर मजिस्ट्रेट द्वारा तय की गई मात्रा का पालन करना होता है।
प्रतिवादी
श्री सांघी ने प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व किया और अपने मुवक्किल(क्लाइंट) के लिए निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए: –
- धारा 125(4) तभी लागू होता है जब यह साबित हो जाए कि महिला आपसी सहमति के तहत अलग नहीं रह रही है।
- इस बात का सबूत होना चाहिए कि पत्नी के भरण-पोषण में कोताही बरती गई।
- सहमति डिक्री पारित होने और मेहर तथा इद्दत राशि के भुगतान के कारण भरण-पोषण का दावा समाप्त हो जाता है। इस प्रकार, चूंकि मेहर और इद्दत का पैसा चुका दिया गया है, इसलिए भरण-पोषण की कोई आवश्यकता नहीं है।
मामले का फैसला
शीर्ष न्यायालय ने कहा कि:-
- तलाक का तात्पर्य यह है कि पति पत्नी को अपना वैवाहिक घर छोड़ने का आदेश देता है। इसलिए, यह तर्क कि अलग-अलग रहने के लिए आपसी सहमति के बिना भरण-पोषण का दावा अमान्य है, त्रुटिपूर्ण है।
- इस मामले में भरण-पोषण में लापरवाही बरती गई है।
- पति द्वारा दी जाने वाली मेहर की रकम बेहद कम है और वह जिस शहर में रहती थी, वहां गुजारा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि भरण-पोषण की आनुपातिक राशि दी जाएगी। मेहर धारा 127(3)(b) के अंतर्गत आता है। मेहर दुल्हन के धन दायित्व का एक रूप है। दूल्हे का यह दायित्व है कि वह शादी के समय दुल्हन को किसी भी रूप में कुछ राशि जैसे धन, फर्नीचर, घरेलू सामान, आभूषण आदि का भुगतान करे। मेहर आमतौर पर विवाह पर हस्ताक्षरित विवाह अनुबंध में निर्दिष्ट किया जाता है। मेहर शादी पर सहमत हो सकती है लेकिन भुगतान बाद की तारीख में किया जा सकता है। मेहर दिए जाने के बाद भी पत्नी को संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण दिया जा सकता है।
न्यायालय ने कहा कि मेहर का भुगतान भरण-पोषण का स्थान नहीं ले सकता जब तक कि यह पर्याप्त राशि न हो। भरण-पोषण सामाजिक कल्याण में निहित है न कि रीति-रिवाज में। एक पति धारा 125 के तहत भरण-पोषण से छूट का दावा नहीं कर सकता जब तक कि उसे व्यक्तिगत कानून के तहत ऐसी राशि का भुगतान नहीं किया गया हो जो भरण-पोषण के तहत देय राशि के बराबर या उससे अधिक हो।
मामले पर विचार करने के बाद, अदालत ने अपील की अनुमति दी और सत्र न्यायालय द्वारा पारित फैसले को बहाल कर दिया।
प्रासंगिक निर्णय जो बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन (1979) से संबंधित हैं
डेनियल लतीफ़ी और अन्य बनाम भारत संघ (2001)
तथ्य
डेनियल लतीफ़ी और अन्य बनाम भारत संघ (2001) मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 से सम्बन्धित है। उक्त कानून की संवैधानिक वैधता को अदालत में चुनौती दी गई थी। पति ने मेहर के तौर अपनी पत्नी को 300/- रुपये तलाक पर दिए और दावा किया कि उस पर उसे भुगतान करने का कोई और दायित्व नहीं है। मो. अहमद बनाम शाह बानो (1985) मामले में, अदालत ने माना कि पत्नी के खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ होने की स्थिति में, पति पर इद्दत अवधि के बाद भी भरण-पोषण का भुगतान करने का दायित्व है। इसके बाद, संसद ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया। अधिनियम इद्दत अवधि तक भरण-पोषण के भुगतान को सीमित करता है। याचिकाकर्ता ने अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी।
मामले में उठाए गये मुद्दे
मामले में निपटाए गए मुख्य मुद्दे निम्नलिखित थे: –
- मुस्लिम महिलाओं (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण), 1986 की संवैधानिक वैधता।
- क्या मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत मुस्लिम महिलाओं को इद्दत अवधि के बाद गुजारा भत्ता पाने से प्रतिबंधित किया गया है।
- क्या इस तरह का प्रतिबंध मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव करता है जबकि अन्य धर्मों की महिलाओं को सीआरपीसी के तहत गुजारा भत्ता मिल सकता है।
निर्णय
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इद्दत अवधि के बाद भी गुजारा भत्ता देना पति का दायित्व है। मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 अंतर्गत धारा 3(1)(a) के तहत यह दायित्व इद्दत अवधि से आगे तक बढ़ सकता है। एक तलाकशुदा महिला जिसने दोबारा शादी नहीं की है वह अपने रिश्तेदारों से भरण-पोषण का दावा कर सकती है। शीर्ष अदालत ने अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। यह कहा गया कि यह अधिनियम भारत के संविधान के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है। इससे अन्य महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों में कोई कमी नहीं आई।
फ़ुज़लुनबी बनाम के. खादर वली और अन्य (1980)
तथ्य
बाई ताहिरा बनाम हुसैन अली का मामला फ़ुज़लुनबी बनाम के खादर वली और अन्य (1980) में भी चर्चा की गई। अपीलकर्ता फ़ुज़लुनबी, प्रतिवादी कादर बाशा की पत्नी थी। उनके वैवाहिक बंधन से एक बेटा था। पति एक प्रतिष्ठित पद पर थे और उन्हें अच्छी खासी 1,000/- प्रतिमाह तनख्वाह मिलती थी। उन्होंने अपनी पत्नी को तलाक दे दिया और अपने बेटे के साथ उन्हें भी छोड़ दिया। गरीबी के कारण, अपीलकर्ता को भरण-पोषण की मांग करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सीआरपीसी की धारा 125 के तहत, उसे मासिक भुगतान दिया गया। मजिस्ट्रेट ने आवेदक को 250/- रुपये की और उनके बच्चे के लिए 150/- रु. की मासिक राशि देने की अनुमति दी। पति ने अनुदान को उच्च न्यायालय में चुनौती दी और अनुदान घटाकर रु. 100/- प्रति माह, कर दिया गया हालांकि उनकी उपेक्षा को स्वीकार किया गया था।
प्रतिवादी ने राशि को और कम करने के लिए तलाक प्रक्रिया का उपयोग किया। 500/- मेहर के माध्यम से और मासिक भरण-पोषण की बाध्यता से बचने के लिए इद्दत तक 150/- रु. देना होगा, जिसकी कुल लागत अधिक होगी।
अतिरिक्त प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट ने भरण-पोषण और इद्दत देय सहित तलाक के लिए भरण-पोषण की मंजूरी रद्द कर दी। अपीलकर्ता ने इसे सत्र न्यायालय में चुनौती देने की कोशिश की लेकिन असफल रहा। आवेदक ने अत्यंत हताशा के कारण उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का सहारा लिया। सीआरपीसी की धारा 482 अंतर्गत खंडपीठ ने याचिका खारिज कर दी। इसलिए, अपीलकर्ता-पत्नी को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
उठाए गए मुद्दे
निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए हैं:-
- धारा 127(3) का आशय क्या है?
- क्या सीआरपीसी की धारा 127(3) के तहत पर्याप्त राहत प्रदान की गई थी।
निर्णय
इस मामले में, यह निर्णय लिया गया कि धारा 125-127 के तहत, तलाक के समय भुगतान की गई राशि उचित होनी चाहिए। पति को गुजारा भत्ता देने की बाध्यता से मुक्त करने के लिए यह मामूली रकम नहीं हो सकती। भुगतान की गई राशि तलाकशुदा पत्नी के भरण-पोषण और उसे गरीबी की बैसाखी से बचाने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए।
इसलिए, शीर्ष अदालत ने अपील की अनुमति दे दी।
मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य (23.04.1985 – एससी)
तथ्य
मो.अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य (1985), में आवेदक (पति) एक वकील है जिसका प्रतिवादी (पत्नी) से विवाह हुआ है। उनकी तीन बेटियाँ थीं। 1975 में शादी के चालीस से अधिक वर्षों के बाद, प्रतिवादी को उनके वैवाहिक घर से बाहर कर दिया गया।
अप्रैल 1978 में, प्रतिवादी ने आवेदक के खिलाफ रुपये 500/-. के भरण-पोषण की मांग करते हुए एक याचिका दायर की। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अपीलकर्ता की मासिक आय रु। 60,000/- और इसलिए वह आसानी से मांगा गया भरण-पोषण प्रदान कर सकता है।
नवंबर 1978 में, पति ने प्रतिवादी-पत्नी को एक अपरिवर्तनीय तलाक के साथ तलाक दे दिया और इसे भरण-पोषण का भुगतान न करने के बचाव के रूप में इस्तेमाल किया। उन्होंने आगे कहा कि उन्होंने इद्दत अवधि के दौरान मेहर के रूप में 3,000/- रुपये जमा किए थे।
अगस्त 1979 में, मजिस्ट्रेट ने पति को मात्र 25/- प्रति माह रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया।
प्रतिवादी ने राशि को रुपये 179/- प्रति माह में बदलने के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर की और न्यायालय ने तदनुसार राशि बढ़ा दी।
आवेदक ने याचिका को विशेष अनुमति याचिका के रूप में सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी।
उठाए गए मुद्दे
इस मामले में निम्नलिखित मुद्दों पर विचार किया गया:-
- क्या सीआरपीसी की धारा 125 के तहत “पत्नी” में तलाकशुदा पत्नी भी शामिल है।
- क्या धारा 125 व्यक्तिगत कानून पर हावी है?
- धारा 127(3)(b) के तहत तलाक पर देय राशि क्या है? क्या राशि में मेहर या इद्दत शामिल है?
निर्णय
न्यायालय द्वारा निम्नलिखित बातें कही गईं:-
- इस प्रावधान के तहत तलाकशुदा पत्नी भरण-पोषण के लिए आवेदन करने की हकदार है।
- सीआरपीसी की धारा 125(1)(b) “पत्नी” को परिभाषित करती है और इसमें तलाकशुदा पत्नी भी शामिल है। इस प्रावधान के दायरे में मुस्लिम महिलाएं भी आती हैं। एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला पुनर्विवाह होने तक सीआरपीसी की धारा 125 धारा के दायरे में रहेगी। किसी भी धर्म की महिलाओं को भरण-पोषण का त्वरित उपाय प्रदान करने के लिए अधिनियमित किया गया है। यह वास्तव में धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है।
- यह तर्क कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत, अपनी तलाकशुदा पत्नी का भरण-पोषण करने का पति का दायित्व केवल इद्दत की अवधि तक ही, मान्य नहीं है। मेहर महज एक पति का अपनी पत्नी के प्रति सम्मान का प्रतीक है। यदि पत्नी इद्दत अवधि के बाद अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह सीआरपीसी की धारा 125 का सहारा ले सकती है।
- मुस्लिम कानून के प्रावधानों और पत्नी के भरण-पोषण के पति के दायित्व के बीच कोई विरोधाभास नहीं है।
शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2002)
तथ्य
शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2002), में बाई ताहिरा बनाम हुसैन अली के फैसले का हवाला दिया गया। यहां, आवेदक जो पत्नी है और प्रतिवादी (पति) का विवाह मुस्लिम शरिया कानून के तहत हुआ था। उनके वैवाहिक बंधन से चार पुत्र पैदा हुए। 1979 में, आवेदक ने परित्याग और उपेक्षा का आरोप लगाते हुए अपने और अपने दो नाबालिग बेटों के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की अपील दायर की। इस तरह के दावे को परिवार न्यायालय ने यह तर्क देते हुए खारिज कर दिया कि चूंकि अपील दायर करने के समय से पहले ही तलाक हो चुका था, इसलिए वह भरण-पोषण की हकदार नहीं थी।
हालांकि न्यायालय ने एक बेटे को गुजारा भत्ता दे दिया जो नाबालिग था। कार्यवाही के दौरान दूसरा बेटा बालिग हो गया। सितंबर 1990 में, प्रतिवादी ने एक लिखित बयान के माध्यम से अपीलकर्ता के सभी आरोपों का खंडन किया और कहा कि चूंकि उसने अपनी पत्नी को तलाक दे दिया है, इसलिए वह अब उससे गुजारा भत्ता पाने की हकदार नहीं है। पति ने दावा किया कि उसने मुस्लिम महिला (तलाक के तहत अधिकारों का संरक्षण), 1986 की धारा 3 का दावा करते हुए कहा कि उसने अपनी पत्नी को मेहर के रूप में एक घर दिया था। इसलिए वह अब उसे भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं था।
इसके अलावा प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वह 1988 से उसे कोई गुजारा भत्ता नहीं दे रहा है। सबूतों के माध्यम से तर्कों और साक्ष्यों और गवाही के माध्यम से गवाहों की गवाही के औचित्य का पूर्ण अभाव था। इलाहाबाद परिवार न्यायालय ने प्रतिवादी द्वारा दायर हलफनामे के आधार पर उसकी दलीलों को स्वीकार कर लिया और पत्नी द्वारा भरण-पोषण के लिए दायर मुकदमे को खारिज कर दिया। इसलिए बाद वाले ने परिवार न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय ने माना कि तलाक 1990 में पूरा हो गया था जब पति ने अपील के खिलाफ एक लिखित बयान दायर किया था। पत्नी को 1988 से 1990 तक गुजारा भत्ता मिल सकता था। इस फैसले के खिलाफ शीर्ष अदालत में एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर की गई ।
उठाए गए मुद्दे
इस मामले में निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए:-
- क्या केवल लिखित बयान दाखिल करना वैध तलाक माना जाता है।
- यदि ऐसा तलाक वैध है तो क्या ऐसा तलाक लिखित बयान दाखिल करने की तारीख से प्रभावी होगा।
निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि किसी भी धर्मग्रंथ में तलाक के लिए ऐसे दस्तावेज का प्रावधान नहीं किया गया है जो तलाक लेने वाले व्यक्ति को संचार के अभाव में भी प्रभावी हो जाता है। एक लिखित बयान को तलाक का वैध प्रमाण नहीं माना जा सकता। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि 1990 में पति और पत्नी के बीच कोई तलाक नहीं हुआ था। गुजारा भत्ता देने की बाध्यता 1990 में समाप्त नहीं होती है और पत्नी कानूनी प्रावधानों के अनुसार दायित्व समाप्त होने तक तलाक लेने की हकदार है।
बाई ताहिरा फैसले का विश्लेषण
सीआरपीसी के अध्याय IX के तहत दिए गए भरण-पोषण का उद्देश्य सामाजिक प्रकृति का है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि तलाकशुदा पत्नियों के साथ-साथ अन्य आश्रित भी गरीबी में न रहें। भरण-पोषण की पर्याप्तता अदालत द्वारा विचार किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण मामला है, विशेष रूप से उस स्थान के खर्च और उस समय की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में जहां आश्रित रहता है।
इस मामले में, मेहर के भुगतान को ध्यान में रखा गया लेकिन कम राशि के कारण, यह पत्नी को दिए गए गुजारा भत्ते की जगह नहीं ले सका। कानून द्वारा दिए गए भरण-पोषण के प्रावधान में इस बात को ध्यान में रखा गया है कि किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत कानून के साथ-साथ अदालत के तहत दिए गए भरण-पोषण प्रावधान के माध्यम से दोहरा लाभ नहीं मिलता है। यदि सीमा शुल्क के तहत दी गई राशि पर्याप्त राशि है, तो धारा 125 के तहत भरण-पोषण देने की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्तिगत कानून के तहत भुगतान की गई राशि गरीबी को दूर रखती है और आश्रित को आसानी से अपना भरण-पोषण करने में सक्षम बनाती है।
धारा 127(3)(b) के तहत भरण-पोषण का उद्देश्य आश्रित को उतनी ही राशि का भरण-पोषण प्रदान करना है जितनी धारा 125 के तहत दी जा सकती है। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि इसका भरण-पोषण जीविका के लिए पर्याप्त हो।
निष्कर्ष
यह मामला एक महत्वपूर्ण कानूनी मामला है जो भरण-पोषण के उद्देश्य और भावना पर चर्चा करता है। यह भरण-पोषण की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालता है कि किन मामलों में इसे समायोजित किया जा सकता है। इस मामले को मुस्लिम महिलाओं के लिए भरण-पोषण के क्षेत्र में कई ऐतिहासिक निर्णयों में भी संदर्भित किया गया है, जो भरण-पोषण में जो कुछ भी ज्ञात है उसका आधार बनता है।
इस प्रकार बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन (1978), में यह देखा गया है कि भरण-पोषण प्रावधान का उद्देश्य यह देखना है कि दी गई राशि जीविका के लिए पर्याप्त है, भले ही वह व्यक्तिगत कानून के तहत दी गई हो। यदि अदालत मानती है कि राशि अपर्याप्त है, तो अदालत सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण देगी।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न(एफएक्यू)
बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन फिसल्ली चोथिया का मुख्य मुद्दा क्या है?
बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन फिसल्ली चोथिया (1979) का मामला सीआरपीसी की धारा 125-128 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम पत्नियों को भरण-पोषण देने से संबंधित था।
भरण-पोषण इतना बहस का मुद्दा क्यों है?
भरण-पोषण के जिन कानूनों का उद्देश्य निष्पक्षता और न्याय प्रदान करना था, उनका अक्सर दुरुपयोग किया जाता है। आश्रितों और जिस व्यक्ति पर वे आश्रित हैं, उनके अधिकारों के बीच सही संतुलन बनाना एक नाजुक मुद्दा है। यह अनुमान लगाना कठिन है कि भरण-पोषण की आवश्यकता है या नहीं और कितना भरण-पोषण है।
क्या सीआरपीसी और व्यक्तिगत कानून के तहत एक साथ भरण-पोषण का दावा किया जा सकता है?
डेनियल लतीफी और अन्य बनाम भारत संघ (2001)) के ऐतिहासिक मामले में, यह माना गया कि यदि व्यक्तिगत कानून के तहत प्रदान किया गया भरण-पोषण अपर्याप्त है, तो वे धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत भरण-पोषण के लिए दावा कर सकते हैं। एक व्यक्ति दोनों स्रोतों के तहत भरण-पोषण के लिए आवेदन नहीं कर सकता, क्योंकि इससे ओवरलैप हो जाएगा।
संदर्भ
- https://www.studocu.com/in/document/cmr-university/family-law-ii/bai-tahira-v-ali-hussain/58705484
- https://blog.ipleaders.in/danial-latifi-v-union-of-india-a-critical-analyse/