बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010) 

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यह लेख Gargi Lad द्वारा लिखा गया है। लेख बीपी सिंघल बनाम भारत संघ (2010) के ऐतिहासिक मामले का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। लेख आगे मामले के तथ्यों, मुद्दों के साथ-साथ दोनों पक्षों द्वारा दिए गए तर्कों पर विस्तार से बताता है। यह विभिन्न समिति रिपोर्टों का उल्लेख करता है और मामले का एक महत्वपूर्ण विश्लेषण प्रदान करता है। लेख फैसले के पीछे के तर्क और मामले के भविष्य के निहितार्थों पर भी गौर करता है। यह राष्ट्रपति को सौंपे गए अधिकारों और राज्यपाल को हटाने के संबंध में उसी का प्रयोग कैसे किया जाना चाहिए, इस पर गहराई से विचार करता है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh ने किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

राज्यपाल, जिन्हें आमतौर पर राज्य के नाममात्र प्रमुख कहा जाता है, ऐसे व्यक्ति होते हैं जो केंद्र सरकार के समक्ष राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। राज्यपाल द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका राज्यों और केंद्र के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, लेकिन वह केंद्र का सेवक नहीं होता है। वह राज्य के लिए काम करता है। हालांकि, उनके कार्य इस तरह के होते हैं कि वे केंद्र और राज्य दोनों के लिए काम करते हैं। राष्ट्रपति और राज्यपाल के बीच कोई मालिक-सेवक संबंध नहीं है, भले ही राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की गई हो।

बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010) का मामला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 155 (राज्यपाल की नियुक्ति) और 156 (राज्यपाल के कार्यकाल) की व्यापक व्याख्या करके, प्रसादपर्यंत (प्लेजर) का सिद्धांत क्या है, इसके लिए बाध्यकारी सिद्धांतों की एक सूची और ढ़ाचा निर्धारित करता है। मामला संवैधानिक सिद्धांतों को बरकरार रखता है और संविधान द्वारा ही प्रदान की गई राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित करता है। चूंकि वाक्यांश “राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत ” की व्याख्या राष्ट्रपति के पक्ष में की गई थी,  न्यायालय ने इस मामले के माध्यम से एक ढांचा निर्धारित किया, कि कब राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा हटाया जाएगा और अन्यथा शब्द क्या होगा। यहां प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत की व्याख्या अदालतों द्वारा दुरुपयोग और मनमानी से बचने के लिए सीमित कर दी गई थी।

मामले का विवरण

मामले का नाम

बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ 

पक्ष

याचिकाकर्ता: बी.पी. सिंघल

प्रतिवादी: भारत संघ

अदालत

भारत का सर्वोच्च न्यायालय

मामले का प्रकार

सिविल मूल अधिकार क्षेत्र

संवैधानिक पीठ

मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन, न्यायमूर्ति पी सदाशिवम, न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी, न्यायमूर्ति आर वी रवीन्द्रन और न्यायमूर्ति एस एच कपाड़िया। 

फैसले की तारीख

7 मई 2010

उद्धरण

2010 6 एससीसी 331

मामले की पृष्ठभूमि

राज्यपाल

राज्यपाल, राज्य के नाममात्र प्रमुख होते हैं, जिनकी भूमिका राज्य और उसके अंगों के कामकाज की देखरेख करना होती है। वह मंत्रियों के परिषद की सलाह के अनुसार काम करता है। राज्यपाल राज्य और केंद्र के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी है, क्योंकि वह सीधे केंद्र सरकार को रिपोर्ट करता है, केंद्र के साथ राज्य की कोई भी चिंता को उठाता है और उस राज्य का चेहरा होता है। अनुच्छेद 153 के अनुसार, प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होना चाहिए। हालांकि, कुछ अपवाद मौजूद हैं जहां दो राज्यों में एक सामान्य राज्यपाल होता है, जैसे श्री देवानंद कोन्वार, जिन्होंने बिहार और पश्चिम बंगाल दोनों के लिए राज्यपाल के रूप में कार्य किया।

राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और उस सार्वजनिक पद को धारण करने का उनका कार्यकाल अनुच्छेद 156 के तहत बताया गया है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 155 और 156 के अनुसार, राष्ट्रपति राज्यपाल की नियुक्ति पांच वर्ष की अवधि के लिए करता है और राज्यपाल केवल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत   पर ही पद धारण करता है। प्रत्येक राज्य के लिए राज्यपाल को नामित करने का उत्तरदायित्व केंद्र सरकार को दिया गया है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि राज्यपाल का कार्यालय एक स्वतंत्र संवैधानिक कार्यालय है और राज्यपाल केंद्र सरकार के अधीन काम नहीं करता है।

राज्यपाल की योग्यताएँ- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 157 के अनुसार, केवल वह व्यक्ति जो भारतीय नागरिक है और कम से कम 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका है, राज्यपाल बनने के लिए पात्र है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि राज्यपाल संसद के सदन या विधानमंडल के सदन का सदस्य नहीं होना चाहिए और लाभ के किसी अन्य पद पर भी नहीं होना चाहिए।

राज्यपाल द्वारा इस्तीफा- संविधान यह भी निर्धारित करता है कि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत  पर पद धारण करता है। अनुच्छेद 156(2) के अनुसार, राज्यपाल भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर अपने पद से इस्तीफा भी दे सकता है।

समिति की रिपोर्ट

सरकारिया आयोग

इस आयोग को केंद्र-राज्य संबंध आयोग के नाम से भी जाना जाता था। यह राज्य और केंद्र के बीच शक्तियों और जिम्मेदारियों को वितरित करने और उनके बीच विवाद उत्पन्न करने वाले किसी भी हस्तक्षेप से बचने के लिए स्थापित की गई थी। भारत सरकार ने इस आयोग को 1983 में स्थापित किया था, जिसका उद्देश्य केंद्र और राज्य सरकारों दोनों के सुचारू कार्य के लिए आवश्यक परिवर्तनों की देखरेख करना और सिफारिश करना और उनकी शक्तियों को प्रभावी ढंग से वितरित करके उनकी दक्षता बढ़ाना था। इस आयोग के अध्यक्ष आरएस सरकारी थे, साथ ही दो अन्य सदस्य, श्री बी. शिवरामन और डॉ. एसआर सेन थे।

आयोग ने देखा कि जिन मामलों में अस्थिर राज्य सरकार होती है, वहां राज्य आपातकाल घोषित किया जाता है। यहां, राज्यपाल एक उच्च महत्व और प्रभाव की भूमिका निभाता है। इन परिदृश्यों ने प्रकाश डाला कि राज्यपाल ने केंद्र-राज्य संबंधों को बनाए रखने और उसे दिए गए अधिकारों का पर्याप्त रूप से प्रयोग करने में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। इसके अलावा, आयोग ने रिपोर्ट के अध्याय 4 के तहत राज्यपालों को अलग से बताया, जिसमें राज्यपाल की नियुक्ति, हटाने, महत्व और भूमिका का विस्तार से अध्ययन किया गया। आयोग ने केंद्र के प्रति राज्यपाल के कार्यों में पक्षपात के एक पहलू को दूर करने और राज्य और केंद्र के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए निम्नलिखित सिफारिश की:

  • राज्यपाल राज्य के बाहर का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति होगा।
  • वह किसी भी प्रकार की स्थानीय राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल नहीं होंगे।
  • वह किसी भी हालिया राजनीतिक कार्य का सक्रिय हिस्सा नहीं रहा होगा।

इसके साथ ही आयोग को प्रत्येक राज्य के राज्यपालों को हटाने की प्रक्रिया क्या हो सकती है, इसके संबंध में सुझावों की एक सूची भी प्राप्त हुई:

  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच
  • राज्य समिति द्वारा उनके आचरण की जांच
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान प्रक्रिया
  • महाभियोग  

राज्यपाल को हटाया जाना ऊपर बताए गए तरीके से नहीं किया जा सकता, क्योंकि राज्यपाल कार्यपालिका का सदस्य होता है और बहुमुखी कार्य करता है। उनकी शक्तियां विविध हैं और वह संघ और राज्य दोनों के लिए काम करते हैं। समिति ने ऊपर दी गई सूची पर अपनी सिफारिश देते हुए कहा:

  • राज्यपाल को हटाने के फैसले के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कोई जांच नहीं की जा सकती, क्योंकि इसमें कार्यपालिका के कामकाज में न्यायपालिका का हस्तक्षेप शामिल है। यदि जांच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जाती है, तो निर्णय इस प्रकार का हो सकता है जो न्यायपालिका के पक्ष में हो।
  • यदि यह मान लिया जाए कि राज्यपाल संघ और राज्य दोनों के लिए कार्य करता है तो राज्य समितियों का राज्यपाल के प्रति नकारात्मक पूर्वाग्रह हो सकता है। राज्य समिति राज्यपाल को पक्षपाती मान सकती है और बदले में उन्हें पद से हटा सकती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान हटाने की प्रक्रिया का पालन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश और राज्यपाल के कार्य, भूमिका और शक्तियां पूरी तरह से अलग हैं और इस प्रकार दोनों को हटाने की प्रक्रिया समान नहीं हो सकती है।

आयोग ने आगे के पैराग्राफ में यह भी उल्लेख किया कि राज्यपाल को कोई पर्याप्त कारण या आधार बताए बिना नहीं हटाया जाएगा। उन्हें निष्पक्ष रूप से देश की सेवा करने के लिए भारत के संविधान में परिभाषित अवधि यानी 5 साल तक सेवा करने की गारंटी दी जाएगी। रिपोर्ट के पैराग्राफ 4.7.08 के तहत, आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक कोई दुर्लभ और बाध्यकारी कारण मौजूद न हो तब तक राज्यपाल के कार्यकाल में किसी के द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। एक बार जब उन्हें विश्वास हो जाता है कि ऐसे कारण मौजूद हैं, तो संघ संसद के दोनों सदनों के समक्ष एक बयान देगा, और राज्यपाल को अपनी बात सुनाने और उन्हें हटाने के खिलाफ कारण बताने का मौका दिया जाएगा।

वेंकटचलैया आयोग

आयोग की स्थापना वर्ष 2000 में की गई थी। इसे संविधान के कार्य की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग के रूप में भी जाना जाता था और इसका नेतृत्व भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया ने किया था। सोली सोराबजी और बीपी जीवन रेड्डी इस समिति के कुछ सदस्य थे। इसका उद्देश्य राज्यपालों के लिए एक उचित नियुक्ति प्रक्रिया स्थापित करना और उनकी भूमिका का सही ढंग से निर्धारण करना था।

किसी भी राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, गृह मंत्री और उस राज्य के मुख्यमंत्री से बनी समिति द्वारा की जाएगी जहां राज्यपाल की नियुक्ति की जा रही है। राज्यपालों को 5 साल का कार्यकाल पूरा करने की अनुमति दी जानी चाहिए। यदि किसी को हटाना है, तो केंद्र सरकार मुख्यमंत्री की सलाह से ऐसा करेगी। राज्यपाल की भूमिका राज्य सरकार का मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक बनना है और केवल दुर्लभ मामलों में ही उस पर दिए गए विवेकाधिकार का प्रयोग करना है। वह राज्य के दैनिक प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।

पूंछि आयोग

यह आयोग, 2007 में स्थापित की गई थी, जिसमें न्यायमूर्ति मदन मोहन पुंछी (भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश) अध्यक्ष थे। कुछ उल्लेखनीय सदस्य श्री धीरेंद्र सिंह (भारत सरकार के पूर्व सचिव) और श्री विजय शंकर (केंद्रीय जांच ब्यूरो के पूर्व निदेशक) सदस्य सचिव थे। आयोग ने 2010 में प्रस्तुत रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि वाक्यांश “राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत  के दौरान” को पूरी तरह से प्रावधान से हटा दिया जाए, क्योंकि इसे राज्यपाल के पद धारण करने के अधिकार का उल्लंघन माना गया था और साथ ही उसे अपने कर्तव्यों का ठीक से प्रयोग करने से भी रोकता है। इसका मतलब है कि राज्यपाल को किसी भी समय केंद्र सरकार की इच्छा से हटाया जा सकता है, और इससे उसके निर्णय लेने की शक्ति प्रभावित हो सकती है, क्योंकि वह केंद्र सरकार के विचारों के अनुसार निर्णय लेने के लिए पक्षपाती हो सकता है। आयोग ने इसके लिए एक समाधान प्रस्तुत किया, अपनी आगे की सिफारिशों में- इसने सुझाव दिया कि राज्यपाल को हटाना इसके बजाय राज्य विधानमंडल में एक प्रस्ताव के माध्यम से हो सकता है, क्योंकि यह राज्यपाल के रूप में उनके कार्यकाल में स्थिरता सुनिश्चित करेगा और मनमानी की बजाय उचित भी होगा। उसके निर्णय लेने की शक्ति प्रभावित नहीं होगी।

प्रसादपर्यंत  का सिद्धांत

दायरा 

शेंटन बनाम स्मिथ (1895) के मामले में प्रिवी काउंसिल ने प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के महत्व पर प्रकाश डाला। परिषद ने कहा कि इस सिद्धांत का बहुत महत्व है क्योंकि इसके अभाव में, राज्य पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले सिविल सेवक को हटाना मुश्किल हो जाएगा।

यह सिद्धांत डन बनाम क्वीन (1896) के मामले में भी बरकरार रहा। न्यायालय का मानना ​​था कि सिविल सेवकों का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं होता है और क्राउन अपने विवेक के आधार पर उनका कार्यकाल तय कर सकता है। क्राउन के पास कार्यकाल के संबंध में अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करने का अधिकार है, क्योंकि सेवक इसके अधीन काम करते हैं और इसलिए इसके नियमों के अनुसार काम करेंगे। यदि ऐसा नहीं है, तो सिविल सेवक को पद से हटा दिया जा सकता है, और उसका कार्यकाल वहीं समाप्त हो जाएगा।  न्यायालय ने सामान्य नियम का भी उल्लेख किया और यह माना ​​था कि चूंकि ऐसे सार्वजनिक सेवक सार्वजनिक भलाई के लिए नियोजित हैं, इसलिए इस तरह के रोजगार को स्वयं क्राउन द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए। हालांकि, कुछ विशेष परिस्थितियों में, लोगों के कल्याण के लिए, क्राउन को दी गई शक्तियों पर कुछ प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

 

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का इतिहास

भारत में

राष्ट्रपति को कार्यकारी संघ का प्रमुख माना जाता है और उसका पद क्राउन के समान ही होता है। इसलिए, राष्ट्रपति को प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के तहत एक सिविल सेवक को हटाने की शक्ति दी गई है। इसी प्रकार, राज्य का एक सिविल सेवक राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पर कार्य करने वाला माना जाता है। यह ध्यान रखना उचित है कि भले ही इस सिद्धांत का पालन भारत में किया जाता है, लेकिन इसे इंग्लैंड में पेश की गई मूल अवधारणा में कुछ संशोधन करने के बाद ही स्वीकार किया गया था। 

इंग्लैंड में

जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में प्रवेश की, तो वे अपने साथ प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत की अवधारणा लेकर आए। यह लैटिन वाक्यांशों, डुरंटे बेने प्लेसिटो एंड डुरंटे बेने प्लेसिटो रेजिस से लिया गया है, जिसका अर्थ क्रमशः “प्रसादपर्यंत  के दौरान” और “राजा के प्रसादपर्यंत  के दौरान” होता है। राजा द्वारा किया गया कोई भी निर्णय प्रश्न नहीं किया जा सकता था क्योंकि उसे भगवान का प्रतिनिधि माना जाता था। स्वतंत्रता के बाद भी, इस सिद्धांत को महत्वपूर्ण माना जाता था, क्योंकि अंग्रेजी कानून का अभी भी भारतीय कानूनी प्रणाली पर एक प्रमुख प्रभाव है। यह बताता है कि सरकार के कर्मचारी क्राउन के सिविल सेवकों के समान हैं। उसी का अनुप्रयोग सरकार के पदों की नियुक्ति और हटाने के दौरान देखा जा सकता है जिसमें सदस्यों को केंद्र सरकार के विवेक के अनुसार चुना जाता है और राष्ट्रपति की इच्छा के अनुसार हटाया जाता है।

बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010) के तथ्य

बीपी सिंघल, संसद के पूर्व सदस्य ने अनुच्छेद 32 (इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपचार) के तहत एक जनहित याचिका दायर की, जिसने भारत के संविधान के अनुच्छेद 156 जो राज्यपाल के कार्यकाल से संबंधित है की व्याख्या की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। केंद्र मंत्रियों की संघ परिषद की सलाह पर, भारत के राष्ट्रपति ने 2 जुलाई, 2004 को चार राज्यों- उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गोवा और गुजरात के राज्यपालों को हटा दिया। याचिकाकर्ता ने भारत के राष्ट्रपति द्वारा चार राज्यपालों को हटाने को रद्द करने के लिए उत्प्रेषण (सर्टियोरारी) की मांग की और साथ ही राज्यपालों को उनके शेष कार्यकाल पूरा करने की अनुमति देने के लिए परमादेश (मैंडमस)  की भी मांग की।

उठाए गये मुद्दे 

  1. क्या याचिका सुनवाई योग्य है?
  2. प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का दायरा क्या है?
  3. संविधान के अनुसार राज्यपाल का पद क्या है?
  4. क्या संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत दी गई शक्ति पर कोई व्यक्त या निहित सीमाएँ/प्रतिबंध हैं?
  5. क्या प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का पालन करते हुए राज्यपालों को हटाया जाना न्यायिक समीक्षा के अधीन है?

मामले में शामिल कानून

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 156

इस मामले में अनुच्छेद 156 पर व्यापक रूप से चर्चा और व्याख्या की गई। जैसा कि इस प्रावधान के तहत कहा गया है। प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत की व्याख्या न्यायालय द्वारा इस तरह की गई थी, जिसमें राष्ट्रपति को असीमित शक्ति प्रदान करना शामिल नहीं है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 156(1)

खंड (1) अपने आप को इस बात से संबंधित करता है कि राज्यपाल का कार्यकाल “राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पर” कैसे संचालित होगा। जब प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का उल्लेख किया जाता है, तो यह देखा जा सकता है कि यह प्रावधान राष्ट्रपति को बिना किसी कारण के, केवल अपनी इच्छा के आधार पर राज्यपाल को उसके पद से हटाने की असीमित शक्ति देता है। यह राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल के सार्वजनिक पद पर शक्ति का पूर्ण उपयोग दिखाता है और केंद्र राज्य सरकार को कैसे नियंत्रित करता है। प्रावधान में “उचित आधारों पर” या “उचित तर्क के साथ” जैसे शब्दों का अभाव है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 156(2)

यह प्रावधान कहता है कि राज्यपाल भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर अपने पद से इस्तीफा दे सकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 156(3) 

अनुच्छेद 156(3) के अनुसार, राज्यपाल का कार्यकाल पांच वर्ष का होगा, जो राष्ट्रपति के कार्यकाल के बराबर है। यह प्रावधान प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का भी एक निहित प्रावधान है, क्योंकि राज्यपाल तब तक पद धारण करेगा जब तक राष्ट्रपति का कार्यकाल लागू रहेगा।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32

डॉ बीआर अंबेडकर द्वारा इस अनुच्छेद को संविधान का हृदय और आत्मा भी कहा जाता है, क्योंकि अनुच्छेद 32 राज्य के कार्यों से सुरक्षा प्रदान करता है, जो लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। अनुच्छेद 32 के तहत गारंटीकृत संवैधानिक उपचारों का अधिकार ही एक अधिकार है, और इसलिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उल्लंघन से उत्पन्न याचिका को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 32 के तहत, जिसका मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है, वह सर्वोच्च न्यायालय से संपर्क कर सकता है और उल्लंघन के लिए उपचार मांग सकता है। उपचार याचिका के माध्यम से मांगा जा सकता है, और जैसा कि अनुच्छेद कहता है, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पांच प्रकार की याचिकाएं दायर की जा सकती हैं:

  • परमादेश
  • बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस)   
  • उत्प्रेषण
  • अधिकार पृच्छा (क्यो वॉरंटो)
  • निषेध (प्रोहिबिशन) 

आमतौर पर एक पीड़ित व्यक्ति ही सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करता है, लेकिन यह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा भी किया जा सकता है बंदी प्रत्यक्षीकरण की स्थितियों में जो मामले में पूर्ण अजनबी नहीं है, जैसे कि एक रिश्तेदार या पीड़ित का दोस्त। याचिकाएं भी सार्वजनिक हित में दायर की जा सकती हैं और उन्हें सार्वजनिक हित याचिकाएं कहा जाता है। वे एक ही कारण या विषय वस्तु के लिए दायर याचिकाओं का एक संग्रह हैं। इस मामले में, चार राज्यों, हरियाणा, गोवा, गुजरात और उत्तर प्रदेश के राज्यपालों को हटाने के लिए केंद्र सरकार के खिलाफ परमादेश और उत्प्रेषण की रिट दायर की गई थी।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 74

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 74 मंत्रिपरिषद के कर्तव्य के बारे में विस्तार से बताता है। राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना आवश्यक है और सरकार के कामकाज के लिए किए गए आवश्यक निर्णयों के समय उनकी सहायता लेनी चाहिए। मंत्रिपरिषद सभी मामलों के बारे में राष्ट्रपति को सलाह देगी और राष्ट्रपति प्राप्त सलाह के अनुसार अपनी शक्तियों का प्रयोग करेगा। सरकारी पदों से हटाने और सार्वजनिक कार्यालयों से हटाने के संबंध में मामलों में, मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को इस बारे में सलाह देगी और फिर वह संविधान के तहत दिए गए अधिकार का प्रयोग करके आगे की कार्रवाई कर सकता है।

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

याचिका का औचित्य

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981), के फैसले पर भरोसा करते हुए याचिका कायम रखी जा सकती है,  न्यायालय ने इस मामले में यह प्रश्न का उत्तर दिया कि क्या सार्वजनिक हानि के खिलाफ कोई याचिका मौजूद है और कौन इसे दायर कर सकता है।  न्यायालय ने माना कि जब राज्य या कोई सार्वजनिक प्राधिकरण संवैधानिक दायित्व का उल्लंघन करता है तो सार्वजनिक हित (जिसे सार्वजनिक हानि भी कहा जाता है) में चोट हो सकती है। सार्वजनिक हित के लाभ के लिए ईमानदारी से कार्य करने वाला और मामले में हित रखने वाला कोई भी सदस्य याचिका दायर कर सकता है और निवारण के लिए कार्रवाई बनाए रख सकता है। 

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का दायरा

राज्यपाल के कार्यकाल के संबंध में, याचिकाकर्ता अपरिवर्तनीय कार्यकाल पर नहीं अड़ा था, लेकिन उसने तर्क दिया कि राज्यपाल को अपने कर्तव्यों का कुशलतापूर्वक निर्वहन करने के लिए कार्यकाल में निश्चितता होनी चाहिए। राज्यपाल को लगातार इस खतरे में रखना कि राष्ट्रपति उसे उसके पद से हटा देगा, उसे केंद्र सरकार का नौकर बना सकता है, क्योंकि वह अपने निष्कासन से बचने के लिए लगातार राष्ट्रपति की अच्छी किताबों में रहने की कोशिश करेगा। राज्यपाल को हटाने के संबंध में कुछ निश्चित नियम होने चाहिए। 

राज्यपाल का पद

राज्यपाल को किसी राज्य की विधायिका का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। राज्यपाल, जिसे राज्य का मुखिया भी कहा जाता है, उच्च संवैधानिक मूल्यों और कर्तव्यों का पालन करता है। सरकार द्वारा की जाने वाली प्रत्येक कार्रवाई राज्यपाल के नाम पर की जाती है। विधानमंडल के सदन द्वारा पारित सभी विधेयक कानून बनने से पहले राज्यपाल द्वारा पारित किये जाते हैं। राज्यपाल आमतौर पर महत्वपूर्ण संवैधानिक कार्यों को पूरा करने के लिए जाने जाते हैं। राज्यपाल का एक प्रमुख कार्य केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करना है। आवश्यकता पड़ने पर, वह एक अंपायर के रूप में भी कार्य करता है जो निष्पक्ष होता है और राज्य की ओर से निर्णय लेता है।

यह तथ्य कि वह राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और अपना कार्यकाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत के अनुसार रखता है, उसे संघ का सेवक नहीं बनाता है और इस कार्यकाल के दौरान उसके द्वारा किए गए किसी भी कार्य के लिए वह संघ के प्रति जवाबदेह नहीं है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि उनका पद संघ के अधीन नहीं है और राज्यपाल के रूप में उनका कार्यालय स्वतंत्र है। उन्होंने कहा कि राज्यपाल को हटाने के लिए कुछ नियम हैं जिनका पालन किया जाना चाहिए। मानदंड इस प्रकार हैं:

  • नियम 1- राज्यपाल को अयोग्य घोषित किये जाने पर ही पद से हटाया जा सकता है।
  • मानक 2- हटाने के संबंध में राज्यपाल को सूचित करना होगा।
  • मानक 3- निष्कासन की न्यायिक समीक्षा हो सकती है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत दी गई शक्ति पर व्यक्त या निहित सीमाएँ/प्रतिबंध 

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के तहत कुछ प्रतिबंध हैं। अनुच्छेद 75(2), अनुच्छेद 76(4) और अनुच्छेद 156(1) में स्पष्ट अंतर है। अनुच्छेद 75 और 76 प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत पर कोई प्रतिबंध प्रदान नहीं करते हैं और अनुच्छेद 156 उसी पर कुछ प्रतिबंध निर्धारित करता है। याचिकाकर्ता ने संविधान के दो प्रावधानों की भी व्याख्या की और माना कि हालांकि राज्यपाल पांच वर्षों के लिए पद धारण करता है, लेकिन अवधि खत्म होने से पहले, वह स्वेच्छा से इस्तीफा दे सकता है या राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण प्रतिबंध यह है कि किसी भी कर्मचारी को तब तक बर्खास्त नहीं किया जाएगा जब तक कि जांच नहीं की गई हो और कर्मचारी को आरोपों के बारे में सूचित नहीं किया गया हो। याचिकाकर्ता ने अपने तर्कों का समर्थन करने के लिए केंद्र-राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग की रिपोर्ट पर भरोसा किया कि हटाने का कारण बताए जाने के बाद ही किया जा सकता है।

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के अभ्यास में राज्यपालों को हटाना न्यायिक समीक्षा के अधीन है

यह तर्क दिया गया कि लोकतंत्र में जहां कानून का शासन कायम है और संविधान से परे कोई सर्वोच्च प्राधिकारी नहीं है, किसी के पास असीमित शक्तियां नहीं हैं, और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद को हटाना न्यायिक समीक्षा के अधीन है। कानून के नियम के अनुसार, संविधान द्वारा अधिकारियों को प्रदत्त सभी शक्तियों का उपयोग केवल सार्वजनिक हित के लिए किया जाना चाहिए। राज्यपाल को कार्यकाल समाप्त होने से पहले हटाने का कोई भी आदेश समीक्षा के अधीन होगा।

संक्षेप में, याचिकाकर्ता ने न्यायालय से तीन राहतें मांगीं। सबसे पहले, उन्होंने केंद्र सरकार को उन दस्तावेजों और फाइलों को पेश करने का निर्देश देने की मांग की, जो 2 जुलाई, 2004 को राष्ट्रपति द्वारा पारित आदेश का आधार बनते हैं। उन्होंने चार राज्यपालों को हटाने को रद्द करने के लिए उत्प्रेषण रिट की भी मांग की, और अंत में, उक्त चार राज्यपालों को अपना कार्यकाल पूरा करने की अनुमति देने के लिए एक परमादेश रिट भी मांगी।

प्रतिवादी

याचिका का औचित्य

प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि याचिका को कायम ना रखने योग्य माना जाना चाहिए, क्योंकि पीड़ित पक्ष ने राहत के लिए  न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाया। उन्होंने उसी के लिए एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ (1981) फैसले पर भरोसा किया, यह उद्धृत करते हुए कि सार्वजनिक हानि की शिकायत, एक सार्वजनिक हानि के लिए, तभी बनी रह सकती है जब प्राथमिक रूप से घायल व्यक्तियों का विशिष्ट समूह कोई राहत का दावा नहीं करता है। इसलिए उन्होंने तर्क दिया कि श्री बीपी सिंघल के पास कार्यालय से हटाए गए संबंधित राज्यपालों की ओर से यह याचिका कायम रखने के लिए कोई स्थान नहीं था। राज्यपाल समाज के एक सम्मानजनक और ज्ञात भाग से संबंधित हैं और वे राहत लेने की क्षमता से वंचित व्यक्ति नहीं हैं और इसलिए, उनके पक्ष में कोई याचिका कायम नहीं मानी जाएगी। 

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का दायरा

प्रतिवादी का स्पष्ट मत था कि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पर पद धारण करेगा और उसका निष्कासन किसी कारण से नहीं होगा, जैसे, राज्यपाल पद धारण करने के लिए अयोग्य है या उसमें भ्रष्टाचार है, आदि। राष्ट्रपति के विवेक के अनुसार राज्यपाल को किसी भी समय उनके पद से हटाया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है और उसे राज्यों की भलाई और देश के समुचित कामकाज के लिए अपनी पसंद का राज्यपाल चुनने और नियुक्त करने का अधिकार होता है। यह प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत की अवधारणा को कायम रखता है, यह कहते हुए कि यदि और जब विश्वास की हानि या विश्वास की कमी की स्थिति उत्पन्न होती है, तो राष्ट्रपति के पास राज्यपाल को उनके पद से हटाने और उनके कार्यालय को तत्काल प्रभाव से समाप्त करने की स्वतंत्र इच्छा होती है। ऐसा करने का कार्य अंग्रेजी कानून के सिद्धांतों को बरकरार रखता है। वहां राजशाही का शासन चलता है और यहां राष्ट्रपति की इच्छा चलती है।

राज्यपाल का पद

प्रतिवादी ने सख्त राय रखी कि देश और राज्य में राज्यपाल की स्थिति केंद्र सरकार के एक कर्मचारी की है और वह कोई भी व्यक्तिगत पद नहीं रखता है जो सरकार से स्वतंत्र हो। उन्होंने कहा कि राज्यपाल को केंद्र सरकार के विचारों और विचारधाराओं के साथ तालमेल बिठाना चाहिए और इसलिए, यदि उनके विचार केंद्र सरकार से मेल नहीं खाते हैं तो उन्हें हटा दिया जाएगा। राज्यपाल वह व्यक्ति होता है जो कल्पना करता है कि राज्य कैसा होना चाहिए, और इस तरह से कार्य करता है जिससे राज्य सरकार को लाभ हो। हालांकि, राज्यपाल भी राष्ट्रपति के अधीन कार्य करता है, क्योंकि राज्य और केंद्र सरकार को सहानुभूतिपूर्वक काम करना चाहिए। इसलिए, उनके विचार राष्ट्रपति के विचारों के अनुरूप होंगे। यदि राष्ट्रपति को उनके विचारों में कोई विसंगति मिलती है या पता चलता है कि उनके विचारों का संघ के विचारों से कोई तालमेल नहीं है, तो वह उन्हें राज्यपाल के पद से बर्खास्त कर सकते हैं। राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा उस पर जताए गए विश्वास पर भरोसा करता है। यदि राज्यपाल पर विश्वास खो जाता है, तो राष्ट्रपति उसे उसके पद से हटा सकता है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत दी गई शक्ति पर व्यक्त या निहित सीमाएँ/प्रतिबंध

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि यदि राज्यपाल में विश्वास की कमी हो या राज्यपाल और केंद्र सरकार की विचारधारा मेल नहीं खाती हो तो राज्यपाल को हटाया भी जा सकता है। जैसा कि अनुच्छेद 156 में स्पष्ट रूप से कहा गया है, वह राष्ट्रपति की इच्छा पर पद धारण करेगा। उस शक्ति पर कोई सीमा नहीं है। उन्होंने कहा कि मंत्री भी राष्ट्रपति की इच्छा और विवेक के अनुसार पद धारण करते हैं और जनता के हित में राज्यपाल के पद पर भी यही बात लागू होगी।

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के अभ्यास में राज्यपालों को हटाना न्यायिक समीक्षा के अधीन है

प्रतिवादी द्वारा यह कहा गया कि राज्यपाल को हटाया जाना राष्ट्रपति के आदेश से होता है। आदेश राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर करता है, जो मंत्रियों द्वारा दी गई सलाह के आधार पर अपनी राय बनाता है। भारत के संविधान के प्रावधानों के अनुसार, मंत्रियों द्वारा दी गई सहायता और सलाह की किसी भी न्यायालय द्वारा जांच नहीं की जा सकती है। यहीं पर शक्तियों के पृथक्करण (सेपरेशन) का सिद्धांत चलन में आता है, और इसलिए, राष्ट्रपति की कार्रवाई की न्यायिक समीक्षा नहीं होगी।

बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010) में फैसला 

फैसले के पीछे तर्क

याचिका का औचित्य

न्यायालय ने रणजी थॉमस बनाम भारत संघ (1990) के मामले पर भरोसा किया, जिसमें भारत के राष्ट्रपति को विभिन्न राज्यपालों का इस्तीफा निकालने से रोकने के लिए हस्तक्षेप करने के लिए एक जनहित याचिका दायर की गई थी। इस मामले में  न्यायालय ने माना था कि जिन राज्यपालों को इस्तीफा देने के लिए कहा गया था, उन्होंने इसका विरोध नहीं किया था। इसलिए, याचिकाकर्ता राष्ट्रपति के निर्णय को चुनौती या विरोध नहीं कर सकता क्योंकि प्रभावित पक्ष का पहले उदाहरण में उसी को चुनौती देने का कोई इरादा नहीं था।  न्यायालय ने दोनों पक्षों के तर्कों को बारीकी से देखा और सुना और मामले का फैसला किया। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि भले ही पीड़ित राज्यपालों ने अपने हटाने को चुनौती देने के लिए  न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाया था, याचिका अभी भी इस आधार पर कायम थी कि इससे सार्वजनिक हानि हुई या सार्वजनिक हित को नुकसान पहुंचा है। न्यायालय इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता है कि जनता का हित दांव पर लगा था और केवल इसलिए कि पीड़ित ने अपने हटाने को चुनौती नहीं दी थी, याचिका को दरकिनार नहीं किया जा सकता था। 

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का दायरा

न्यायालय ने वर्तमान समय में लागू होने वाले इस सिद्धांत के दायरे पर निर्णय लेने के लिए प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत की आवश्यकता, दायरे और महत्व की व्याख्या करने वाले विभिन्न मामलों पर भरोसा किया। 

न्यायालय ने बिहार राज्य बनाम अब्दुल माजिद (1954) के मामले का हवाला दिया, जिसमें प्रसादपर्यंत   के सिद्धांत को बरकरार रखा गया था। यह मामला 1954 का है और अंग्रेजी सिद्धांत से निपटा था कि सिविल सेवक क्राउन के प्रसादपर्यंत  के अनुसार एक अवधि के लिए बाध्य हैं और वे किसी विशेष अनुबंध को लागू नहीं कर सकते जो विपरीत बताता है। हालांकि, वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी देखा कि क्या कोई सिविल सेवक राज्य या क्राउन के खिलाफ अपने सही वेतन के बकाया की वसूली के लिए मुकदमा दायर कर सकता है, क्योंकि वह क्राउन/राज्य के प्रसादपर्यंत  पर पद धारण करता था। न्यायालय इस सिद्धांत के खिलाफ था और कहा कि यह भारत पर लागू नहीं होगा।

न्यायालय ने प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत की व्याख्या तीन सेट के सार्वजनिक पदों के बीच राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत  का उपयोग कैसे किया जाता है और सिद्धांत को प्रतिबंधों के साथ या बिना कैसे लागू किया जाता है, में अंतर करके की। इसके अलावा, संवैधानिक बहसों को देखते हुए, यह देखा जा सकता है कि सेवकों को हटाने के खिलाफ सुरक्षा के विभिन्न स्तर अपनाए गए थे।

  • राष्ट्रपति की इच्छा पर (प्रतिबंधों के बिना पूर्ण शक्ति) – मंत्रियों, राज्यपालों, महान्यायवादी (अटॉर्नी जनरल) और महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) पर लागू होती है।
  • राष्ट्रपति की इच्छा पर (कुछ प्रतिबंधों के साथ) – रक्षा और सिविल सेवाओं के सदस्यों, संघ के नागरिक या रक्षा से जुड़े पदों के धारकों पर लागू होता है।
  • प्रसादपर्यंत  का कोई भी सिद्धांत राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर लागू नहीं होता है।

राज्यपाल का पद

राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ (1977) के मामले में राज्यपाल की स्थिति को विशेष रूप से वर्णित किया गया था। राज्यपाल को राज्य का संवैधानिक प्रमुख माना जाता है और वह केंद्र और राज्य के बीच संचार का माध्यम भी है। इसके अलावा, राज्यपाल मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह से बाध्य होता है। हालांकि, राज्यपाल को कुछ विवेकाधिकार भी दिए गए हैं, जो उसे स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अनुमति देते हैं। केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजना उन स्वतंत्र कार्यों में से एक है जो वह करता है। उसे राज्य में सरकार के प्रत्येक अंग के कामकाज का निरीक्षण करना भी आवश्यक है।

हरगोविंद पंत बनाम डॉ. रघुकुल तिलक (1979) के मामले में भी राज्यपाल की स्थिति पर चर्चा की गई थी। यह माना गया था कि राज्यपाल सरकार का कर्मचारी या सेवक नहीं है, भले ही उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की गई हो। यह आवश्यक नहीं है कि राष्ट्रपति द्वारा नियोजित प्रत्येक व्यक्ति सरकार का कर्मचारी हो। उपरोक्त कारणों से, राज्यपाल भी अपने कार्यों को करने के तरीके के लिए जवाबदेह नहीं है। राज्यपाल का कार्यालय भारत सरकार के अधीनस्थ (सबॉर्डिनेट) नहीं है। राज्यपाल, राज्य का प्रमुख होने के नाते, राज्य विधान को मंजूरी देने का अधिकार रखता है और कार्यपालिका से संबंधित शक्तियां भी रखता है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत दी गई शक्ति पर व्यक्त या निहित सीमाएँ/प्रतिबंध

न्यायालय ने राज्यपाल के हटाने के संबंध में याचिकाकर्ता के तर्क पर भरोसा किया, जो संविधान के कार्य की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट और केंद्र-राज्य संबंधों पर सरकारी आयोग की रिपोर्ट पर आधारित था।  न्यायालय ने देखा कि राज्यपाल और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के कार्यकाल की सुरक्षा पद और कार्य के दायरे में अंतर के कारण भिन्न है। आयोग ने सिफारिश की थी कि राज्यपाल को बिना कारण दिखाए नहीं हटाया जा सकता। आयोग ने यह भी कहा कि हटाने के आधार राज्यपाल को उसके पद से हटाने से पहले सूचित किए जाने चाहिए।  न्यायालय ने इस मामले पर फैसला करने के लिए उपरोक्त उल्लिखित आयोग के निष्कर्षों पर भरोसा किया। 

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के अभ्यास में राज्यपालों को हटाना न्यायिक समीक्षा के अधीन है 

न्यायालय ने आर. बैनकोल्ट बनाम विदेश सचिव (2008) के मामले का उल्लेख किया। यह मामला ब्रिटिश भारतीय महासागर क्षेत्र के धारा 9 को अमान्य करार देने वाले निर्णय के खिलाफ एक अपील से संबंधित था। यह निर्णय एक खंडपीठ न्यायालय द्वारा दिया गया था और बाद में अपील  न्यायालय  द्वारा भी बरकरार रखा गया था। अपील में,  न्यायालय ने यह माना कि तर्कसंगतता और वैधता के सिद्धांतों के आधार पर, विशेषाधिकार शक्ति के प्रयोग की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।

आगे न्यायालय ने ईपुरु सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश सरकार (2006) की ओर रुख किया। संक्षेप में, एक व्यक्ति पर एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की हत्या का आरोप लगाया गया था और इसलिए, उसे मौत की सजा दी गई थी। राज्यपाल ने उन्हें माफी दे दी थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस माफ़ी को रद्द कर दिया और कहा कि राज्यपाल की किसी भी माफ़ी की शक्ति को रद्द किया जा सकता है अगर ऐसा निर्णय जाति या धर्म के आधार पर किया गया हो। वर्तमान मामले पर निर्णय लेते समय न्यायालय की राय थी कि विषय वस्तु मुख्य कारक है जो यह निर्धारित करती है कि विशेषाधिकार शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है या नहीं। प्रत्येक निर्णय के मूल्यांकन का मूल कारक कानून का शासन है और प्रत्येक विशेषाधिकार शक्ति को इसके अधीन होना चाहिए। विशेषाधिकार शक्ति का प्रयोग केवल ऐसे तरीके से किया जाना चाहिए जो निष्पक्ष और निश्चित हो। 

न्यायालय ने राज्य बनाम भारत संघ (1977) और किहोता होलोहोन बनाम ज़चिल्हु (1992) के मामलों का उल्लेख किया। भारतीय संविधान के दसवीं अनुसूची की वैधता के बारे में प्रश्न उठाए गए थे।  न्यायालय ने अंततः यह माना कि दल बदल विरोधी कानून किसी भी स्वतंत्र भाषण अधिकार का उल्लंघन नहीं करते हैं। यह देखा गया कि किसी भी अंतिमता खंड के बावजूद, अदालतों के पास यह निर्धारित करने का अधिकार है कि प्राधिकरण के कार्य उन शक्तियों से परे हैं या नहीं जो उनमें निहित हैं। कोई भी कार्य जो दुर्भावनापूर्ण हो या किसी भी अनिवार्य प्रावधान का उल्लंघन करता हो, अधिकारातीत (अल्ट्रा वायर्स) माना जा सकता है।

मुद्दे के अनुसार निर्णय

याचिका का औचित्य

याचिकाकर्ता के पास  न्यायालय से राहत मांगने का कोई अधिकार नहीं था। हालांकि, उनके पास अनुच्छेद 156(1) के दायरे और प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के संबंध में अपनी रिट याचिका को बनाए रखने का पर्याप्त अधिकार था। 

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का दायरा

वर्तमान परिदृश्य में, इस सिद्धांत का उपयोग पहले के समय में प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के उपयोग से भिन्न है, और दोनों के बीच अंतर होना चाहिए। इस सिद्धांत का उपयोग भारत जैसे देश में लोकतांत्रिक स्थितियों में किया जाता है, जहां कानून का शासन हर चीज पर हावी है और सरकार को अपनी इच्छा अनुसार या मनमाने तरीके से कार्य करने का कोई अधिकार नहीं है।

यह सिद्धांत सरकार को अपनी मनमानी के अनुसार कार्य करने के लिए दिया गया लाइसेंस नहीं है। यह सिद्धांत केवल जनहित में प्रयोग किया जाएगा, क्योंकि यह एक स्वैच्छिक शक्ति है। न्यायालय का मत था कि भारत में इस सिद्धांत का प्रयोग करने की शक्ति पूर्ण और असीमित नहीं है, बल्कि संविधान में मौजूद प्रावधानों द्वारा मध्यम रूप से प्रतिबंधित है। अनुच्छेद 310(2), अनुच्छेद 311(1) और अनुच्छेद 311(2) में इस शक्ति पर प्रतिबंध लगाए गए हैं, ताकि किसी भी मनमानी से बचा जा सके।

न्यायालय द्वारा “प्रसादपर्यंत  पर” शब्द वाले प्रावधान के संबंध में दिए गए निर्देश में इस पर कोई स्पष्ट सीमाएं नहीं हैं और इसे संवैधानिकता के मूल सिद्धांतों के अनुसार पढ़ा जाएगा। शक्ति का प्रयोग करने के लिए एक वैध कारण होना चाहिए, जैसे कि जनहित में और सरकार की केवल इच्छा के अनुसार नहीं। इसके साथ ही,  न्यायालय ने स्थापित किया कि हटाने का कारण देने की आवश्यकता की डिग्री मामले की परिस्थितियों के आधार पर भिन्न हो सकती है, लेकिन कारण देने की आवश्यकता हमेशा मौजूद रहती है।

राज्यपाल का पद 

संविधान की स्थापना के प्रारंभिक चरणों से, राज्य और केंद्र में समान राजनीतिक दल सत्ता में थे। हालांकि, समय के साथ यह बदल गया है। गठबंधन राजनीति की उभरती अवधारणा ने इस दृष्टिकोण को बदल दिया है, जिसमें क्षेत्रीय दल केंद्र के साथ सत्ता साझा करते हैं। अतः न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि राज्यपाल की भूमिका द्वैत प्रकृति की है। राज्यपाल, प्रथमतः, राज्य का संवैधानिक प्रमुख है, जब वह मंत्रिपरिषद द्वारा दिए गए परामर्श के अनुसार कार्य करता है। द्वितीयः, वह केंद्र और राज्य के बीच एक कड़ी के रूप में भी कार्य करता है। कुछ स्थितियों में जहां परिस्थितियां ऐसी हो कि राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वह एक ऐसा कार्य करे जो वह हमेशा नहीं करता है, वह केंद्र सरकार के एक विशेष प्रतिनिधि के रूप में कदम रख सकता है। हालांकि, यह उसे केंद्र का सेवक या बहुमत रखने वाले दल की ओर से कार्य करने वाला एजेंट नहीं बनाता है।

संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत दी गई शक्ति पर व्यक्त या निहित सीमाएँ/प्रतिबंध

ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जो दर्शाता हो कि अनुच्छेद 156 के खंड (1) को किसी भी स्पष्ट सीमा या प्रतिबंध के साथ माना जाता है, और यह स्वीकार नहीं किया जाता है कि खंड (1) खंड (3) द्वारा लगाए गए किसी भी स्पष्ट प्रतिबंध के अधीन है। मंत्रियों या भारत के महान्यायवादी के पदों को बिना किसी प्रतिबंध के हटाने की अनुमति है, क्योंकि उनके कार्यालय का उद्देश्य समाज की सेवा करना है, और जब वे पद ग्रहण करते हैं, तो उन्हें अवगत कराया जाता है कि उनका पद राष्ट्रपति की प्रसादपर्यंत   के अधीन है। यह संभव है क्योंकि राष्ट्रपति और मंत्री के बीच का संबंध विशुद्ध रूप से राजनीतिक है और राष्ट्रपति और राज्यपाल के बीच के संबंध से भिन्न है। राज्यपाल के प्रति विश्वास खो जाना या उनके विचारों का केंद्र के विचारों का समर्थन नहीं करना, राज्यपाल के पद से हटाने के कारणों के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि राज्यपाल एक स्वतंत्र व्यक्ति है और केंद्र का सेवक नहीं है। जिन मंत्रियों का केंद्र से अलग दृष्टिकोण या विचार है, वे हानिकारक हो सकते हैं, क्योंकि उनके नियुक्ति का प्राथमिक उद्देश्य केंद्र की सेवा करना और उनके विचारों के अनुरूप होना है।

प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के अभ्यास में राज्यपालों को हटाना न्यायिक समीक्षा के अधीन है 

किसी कारण की आवश्यकता और उस कारण के प्रकटीकरण की आवश्यकता के बीच बहुत बड़ा अंतर है। ऐसे मामलों में अदालतों की न्यायिक समीक्षा की शक्ति सीमित होती है।  न्यायालय ने विस्तार से उन स्थितियों की पहचान की है जिनमें वे राज्यपालों को हटाने में हस्तक्षेप कर सकते हैं और जब वे नहीं कर सकते हैं। जिन मामलों में राष्ट्रपति ने राज्यपाल को हटाने के कारण बताए हैं,  न्यायालय हस्तक्षेप कर सकती है यदि राष्ट्रपति द्वारा दिया गया कारण तर्कहीन या अप्रासंगिक है। जिन मामलों में राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल को उसके पद से हटाने के लिए कोई कारण नहीं दिया गया है,  न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की शक्ति सीमित है। शक्ति का प्रयोग तब किया जा सकता है जब हटाने का निर्णय मनमानी, भेदभावपूर्ण या दुर्भावनापूर्ण माना जाता है। न्यायिक समीक्षा से छूट देने की शक्ति का विस्तार मामले पर निर्भर करता है। राज्यपाल में विश्वास खो जाना जैसे आधारों को वैध आधार नहीं माना जा सकता है, इसलिए, न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता होगी।

बी.पी.सिंघल बनाम भारत संघ (2010) का विश्लेषण 

बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010) का मामला इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि राष्ट्रपति, बिना कोई कारण या औचित्य बताए, राज्यपाल को उनके पद से हटा सकते हैं। दूसरी ओर, यह मामला यह भी बताता है कि राज्यपाल को हटाना अनुचित नहीं होना चाहिए। यह एक खामी पैदा करता है, क्योंकि राष्ट्रपति ऐसे किसी भी राज्यपाल को हटाने के लिए कोई भी कारण बता सकता है और उसके कार्य उचित थे या नहीं यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है। यह खामी ऐसी स्थिति भी पैदा करती है जिसमें राष्ट्रपति इस तरह के निष्कासन के लिए किए गए निर्णय से बच सकते हैं, भले ही यह उचित न हो।

यह मामला के प्रमाण के बोझ के संबंध में स्पष्टता प्रदान करने में विफल रहा है। आदर्श रूप से, राष्ट्रपति को यह साबित करना चाहिए कि उसका निर्णय उचित था और किसी राजनीतिक दल के प्रति पक्षपाती नहीं था। इसके बजाय, राज्यपाल को यह साबित करने के लिए कहा गया है कि हटाना दुर्भावनापूर्ण था। सुनवाई का अधिकार, जो प्राकृतिक न्याय का एक महत्वपूर्ण पहलू है, का भी उल्लंघन होता है यदि राष्ट्रपति बिना किसी औचित्य के राज्यपाल को हटा देता है। इसके अलावा, जब राष्ट्रपति राज्यपाल को हटाता है, तो यह न्यायिक समीक्षा की न्यायालय की शक्ति को भी सीमित कर देता है, क्योंकि राष्ट्रपति हटाने के लिए कोई कारण देने के लिए बाध्य नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसा कार्य राज्यपाल को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय राष्ट्रपति को खुश करने के लिए मजबूर करता है।

भारत में कानून अंग्रेज़ी में पहले से मौजूद कानूनों से काफी प्रभावित हैं। हालांकि, प्रसादपर्यंत   के सिद्धांत का कब और कैसे उपयोग किया जाए, इसके बारे में अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है। यहाँ मुख्य अंतर यह है कि भारत एक लोकतांत्रिक व्यवस्था पर चलता है, जबकि इंग्लैंड नहीं। लोकतंत्र अपने आप में सार्वजनिक भलाई और हित के लिए कार्य करने का उत्तरदायित्व पैदा करता है और इसलिए, प्रसादपर्यंत   के सिद्धांत का निरंतर उपयोग भारत के लिए वास्तव में उपयुक्त नहीं हो सकता है।

मामले के और निहितार्थ 

राजेंद्र प्रसाद बौद्ध बनाम उत्तर प्रदेश राज्य आवास सचिव (2016)

न्यायालय राजेंद्र प्रसाद बौद्ध बनाम स्टेट ऑफ यूपी  सेक्रेटरी आवास और शहरी नियोजन (2016), के मामले में बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010),में निर्धारित सिद्धांतों को भी लागू किया। जिसमें माना गया कि नामांकन की अपनी शक्ति का प्रयोग करते समय, सरकार के पास अपने विवेक का प्रयोग करने की भी शक्ति है, लेकिन ऐसा विवेक निरंकुश नहीं है। न्यायालय ने माना कि वे सिर्फ इसलिए हस्तक्षेप नहीं करेंगे क्योंकि की गई कार्रवाई का एक अलग दृष्टिकोण संभव है। सरकार द्वारा कोई भी हस्तक्षेप तभी किया जाएगा जब की गई कार्रवाई दुर्भावनापूर्ण या मनमानी प्रकृति की हो और इसमें हस्तक्षेप की बिल्कुल आवश्यकता हो।

सनी के. जॉर्ज बनाम केरल राज्य (2016)

सनी के. जॉर्ज बनाम केरल राज्य (2016), के मामले में  न्यायालय ने बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010), मामले का हवाला दिया। जिसमें पहले ही चर्चा हो चुकी है कि सरकार को क्या पसंद है और क्या नहीं। याचिकाकर्ता ने इस फैसले का भी हवाला दिया, जहां यह निर्धारित किया गया था कि प्रसादपर्यंत  का सिद्धांत जो कुछ साल पहले अस्तित्व में था, और जो सिद्धांत कानून के शासन की अवधारणा के साथ मौजूद है, वे बहुत अलग हैं। यह भी माना गया कि यह सिद्धांत किसी भी प्राधिकारी को मनमाने ढंग से कार्य करने की अनुमति नहीं देता है। हालाँकि,  न्यायालय की राय थी कि एक सिंडिकेट के सदस्य का नामांकन और एक राज्यपाल की नियुक्ति, जैसा कि बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010)  में चर्चा की गई है, समान नहीं है।

भारतीय संघ एवं अन्य बनाम मेजर एस.पी. शर्मा एवं अन्य (2014)

बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010) का संदर्भ पुनःभारत संघ और अन्य बनाम मेजर एस.पी. शर्मा और अन्य (2014) के मामले में दिया गया था, जिसमें  न्यायालय ने चर्चा की कि जहां कानून का शासन मौजूद है, वहां गैर-जिम्मेदार कार्यों की अवधारणा मौजूद नहीं है। इस मामले में चर्चा की गई और यह माना गया कि प्रसादपर्यंत   का सिद्धांत किसी व्यक्ति को बिना किसी वैध कारण के किसी व्यक्ति को उसके पद से हटाने की शक्ति नहीं देता है। इसने यह भी पुष्टि की कि न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह से हटाया नहीं जा सकता है, लेकिन विभिन्न मामलों में जांच की डिग्री भिन्न हो सकती है।

निष्कर्ष

बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010), के इस ऐतिहासिक मामले में, राष्ट्रपति को दी गई शक्ति विवेकाधीन है और दुर्लभ और विशेष परिस्थितियों में ही प्रयोग की जानी चाहिए, जहां कार्यालय की निरंतरता से जनहित को हानि हो सकती है।  न्यायालय ने स्पष्ट रूप से बताया कि राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है और किसी राजनीतिक दल के लाभ के लिए कार्य नहीं करना चाहिए। यह मामला इस तथ्य पर भी स्पष्टता प्रदान करता है कि राष्ट्रपति के पास किसी भी समय राज्यपाल को हटाने की शक्ति है, लेकिन ऐसा हटाना अवैध या अनुचित नहीं होना चाहिए। ऐसा हटाना केवल असाधारण परिस्थितियों में ही हो सकता है। इसके अलावा, क्योंकि राज्यपाल का पद गैर-राजनीतिक है, इसलिए उसे केवल इसलिए नहीं हटाया जा सकता क्योंकि मंत्रिमंडल को राज्यपाल में विश्वास नहीं है या केंद्र सरकार में परिवर्तन हुआ है। यह मामला यह भी बताता है कि यह साबित करने का बोझ कि उसका हटाना मनमाना और दुर्भावनापूर्ण था, यह राज्यपाल पर है। इस मामले ने राष्ट्रपति को दी गई शक्ति के प्रयोग के साथ-साथ प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत के प्रयोग के संबंध में विभिन्न संशयों (ट्रेवेस्टी) को स्पष्ट किया।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

जनहित याचिका (पीआईएल) क्या है?

यह व्यापक रूप से जनता के हितों की सुरक्षा के लिए दायर किया गया मामला है, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों के हित दांव पर हैं। ऐसे हित आर्थिक या संवैधानिक हो सकते हैं। जनहित याचिकाएँ रिट क्षेत्राधिकार का विस्तार हैं और इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय या किसी भी उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की जा सकती हैं।

परमादेश की रिट क्या है?

परमादेश का अर्थ है “हम आदेश देते हैं” यह रिट एक उच्च न्यायालय द्वारा एक निचली न्यायालय या किसी सार्वजनिक पद पर बैठे व्यक्ति को अपने आधिकारिक कर्तव्यों का पालन करने या किसी ऐसे कार्य को सही करने के लिए एक आदेश के रूप में जारी की जाती है जो उन्हें दी गई विवेकाधीन शक्ति का दुरुपयोग था।

उत्प्रेषण लेख की रिट क्या है?

उत्प्रेषण लेख का अर्थ है “अधिक निश्चित किया जाना चाहिए” उत्प्रेषण लेख की रिट का उपयोग उच्च या श्रेष्ठ न्यायालय द्वारा निचली अदालतों में सुनवाई किए गए मामलों की समीक्षा के लिए किया जाता है। उच्च न्यायालय ऐसे मामलों की जांच करता है और आगे उन पर अपनी राय देता है। यह निचली  न्यायालय द्वारा पारित किसी भी आदेश को रद्द कर सकता है या इसे विचार के लिए किसी अन्य न्यायिक प्राधिकरण को स्थानांतरित भी कर सकता है।

प्रसादपर्यंत  का सिद्धांत क्या है?

इस सिद्धांत के अनुसार, किसी भी समय, क्राउन के पास किसी सिविल सेवक की सेवाओं को समाप्ति की उचित सूचना के बिना समाप्त करने की शक्ति है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सिविल सेवक क्राउन की इच्छा पर काम करते हैं। यदि क्राउन को लगता है कि किसी सिविल सेवक को रखना सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है, तो क्राउन के पास उन्हें हटाने की शक्ति है।

राज्यपाल कौन है?

राज्यपाल राज्य का नाममात्र प्रमुख होता है जिसकी भूमिका राज्य और उसके अंगों के कामकाज की देखरेख करने की होती है। वह राज्य और केंद्र के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी है, क्योंकि वह सीधे केंद्र सरकार को रिपोर्ट करता है, केंद्र के साथ राज्य की किसी भी चिंता को उठाता है, और वह उस राज्य का चेहरा है।

राज्यपाल की भूमिकाएँ और कार्य क्या है?

राज्यपाल की भूमिका राज्य सरकार के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना और केवल दुर्लभ मामलों में, उसे दी गई विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग करना है। राज्यपाल राज्य के लिए निर्णय लेता है और राज्य के लिए प्रतिनिधि क्षमता में कार्य करता है।

क्या राज्यपाल के पास अपना प्रसादपर्यंत प्रयोग करने की शक्ति है?

किसी राज्य के राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 310 के तहत शक्तियां प्रदान की जाती हैं, जिसमें वह राज्य के तहत सिविल सेवा या राज्य में किसी भी नागरिक पद पर बैठे व्यक्ति को हटा सकता है, यदि वह उस व्यक्ति को पद के लिए अयोग्य मानता है। यह तब होता है जब वह यह निर्धारित करने में अपना प्रसादपर्यंत का प्रयोग कर सकता है कि कौन पद संभालने में सक्षम है और कौन नहीं। इस तरह से अपनी शक्ति का प्रयोग करना, उसे दी गई शक्ति का प्रयोग करने का सही तरीका है और प्रसादपर्यंत  के सिद्धांत का सही उपयोग है। उसे उस व्यक्ति को हटाने का कारण बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि किसी व्यक्ति को उस पद पर रखना या न रखना उसका विवेक है।

संदर्भ

 

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