पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां और अन्य (2022)

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यह लेख Akanksha Singh द्वारा लिखा गया है। यह लेख ‘पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य (2022)’ के ऐतिहासिक मामले के विस्तृत अध्ययन और विश्लेषण पर आधारित है। यह लेख पाठकों के लिए एक व्यापक शिक्षण अनुभव प्रदान करता है क्योंकि इसमें भारतीय न्यायशास्त्र में सेवा कानून के तहत अन्य प्रासंगिक मामले कानूनों के साथ-साथ ‘पेंशन के अधिकार’ के प्रावधानों की विस्तृत व्याख्या भी शामिल है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

‘पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य (2022)’ मामला सेवारत कर्मचारियों को पेंशन संबंधी कानून का नवीनतम और ऐतिहासिक मामला है। जहां तक सहकारी समितियों और सहकारी बैंकों का प्रश्न है, सेवा कानून में नियुक्ति, पदोन्नति (प्रमोशन),अनुशासनात्मक कार्रवाई, सेवा समाप्ति और पेंशन जैसे विविध विषय शामिल हैं। ‘पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य (2022)’ मामले ने सेवानिवृत्त कर्मचारियों और सेवारत कर्मचारियों की ‘पेंशन योजना की पात्रता’ के संबंध में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय, चंडीगढ़ और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष महत्वपूर्ण प्रश्न रखे। इस मामले ने कर्मचारियों के कानूनी अधिकारों और संगठन के नियमों में संशोधन के अधिकार के बीच संतुलन की आवश्यकता को प्रकाश में लाया। इस मामले ने कर्मचारियों को पेंशन के अधिकार के संबंध में रोजगार की अनुचित या अनुचित स्थितियों से सेवारत और सेवानिवृत्त कर्मचारियों को बचाने के लिए सुरक्षा प्रदान करने के संदर्भ में एक मिसाल कायम की। अपने फैसले के साथ, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक दिशानिर्देश निर्धारित करने का प्रयास किया कि सहकारी बैंक जैसा संगठन किस प्रकार निष्पक्षता, उचित और प्राकृतिक न्याय के सामान्य सिद्धांतों का सख्ती से पालन करते हुए, ऐसे रोजगार की शर्तों और लाभों के संबंध में अपने नियमों में संशोधन कर सकता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय सहकारी बैंकों को नियंत्रित करने वाले नियमों और उनके कर्मचारियों के अधिकारों के बीच मौजूद जटिल संबंधों को उजागर करता है। 

इस मामले ने ऐसे प्रश्न भी उठाए जो देश के सेवा कानून और संवैधानिक कानून दोनों को प्रभावित करते थे। अदालत ने इस बात की जांच की कि क्या ‘पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड’ के कुछ निर्णय भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 16 का उल्लंघन करते हैं। यह सेवा कानून में ‘वैध अपेक्षा’ की अवधारणा पर प्रकाश डालता है। इसमें सेवा की शर्तों और नियमों के अनुसार किसी विशेष सेवा में प्रदत्त अधिकारों के संबंध में कर्मचारियों के निहित या उपार्जित अधिकारों के बारे में भी बताया गया है। एक सहकारी संस्था की स्थापना में पेंशन योजनाओं के संबंध में सेवा कानून की अवधारणाओं के अनुप्रयोग और व्याख्या को इस मामले के विवरणों की गहराई से जांच करके बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां और अन्य
  • मामला संख्या: 2022 का 297-298
  • समतुल्य उद्धरण: (2022) 4 एससीसी 363
  • शामिल अधिनियम: कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952
  • न्यायालय का नाम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय

  • पीठ: न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति अभय एस. ओका।
  • याचिकाकर्ता/अपीलकर्ता का नाम: पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड
  • प्रतिवादी का नाम: रजिस्ट्रार सहकारी समितियां
  • मामले का विषय: पेंशन योजना की वापसी
  • निर्णय की तिथि: 11 जनवरी, 2022

मामले के तथ्य

इस मामले में, विवाद के एक ही मुद्दे पर कई अपीलें दायर की गईं। अपीलों के इस समूह में अपीलकर्ता पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड है, जबकि मूल रिट याचिका पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड के सेवानिवृत्त कर्मचारियों द्वारा दायर की गई थी। 

29 जुलाई 2019: विशेष अनुमति याचिका दायर की गई

वहीं, पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड के सेवारत कर्मचारियों ने चंडीगढ़ स्थित पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा 29 जुलाई 2019 और 4 अक्टूबर 2019 को पारित समान निर्णय के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका दायर की है। पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड एक पंजीकृत सहकारी समिति है। पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड के तहत कर्मचारियों की सेवा शर्तें पंजाब राज्य सहकारी कृषि भूमि बंधक बैंक सेवा (सामान्य संवर्ग) नियम, 1978 द्वारा शासित होती हैं। 

व्यथित सेवानिवृत्त कर्मचारी बैंक पेंशन योजना के सदस्य बन गए, जो 1 अप्रैल 1989 से लागू की गई थी। वर्तमान मामले में अपीलकर्ता का बैंक एक पंजीकृत सहकारी समिति है जिसे पहले “पंजाब राज्य सहकारी भूमि बंधक बैंक लिमिटेड” के नाम से जाना जाता था। बैंक की स्थापना मुख्य रूप से किसानों और उनके समुदायों को दीर्घकालिक ऋण उपलब्ध कराने तथा उन्हें साहूकारों के शिकंजे से बचाने के उद्देश्य से की गई है। अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु, अपीलकर्ता बैंक अपने संचालन के लिए निर्धारित मानदंडों के अनुसार राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) से ऋण के माध्यम से धन प्राप्त करता है। पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड में दो स्तरीय संरचना शामिल है, जिसमें शीर्ष स्तर पर “पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड” (एसएडीबी) और निचले स्तर पर “प्राथमिक कृषि विकास बैंक लिमिटेड” (पीएडीबी) शामिल है। इन दोनों बैंकों का कार्य किसानों को समय पर ऋण उपलब्ध कराना है, जो इसके सदस्य हैं और विभिन्न योजनाओं के प्रत्यक्ष लाभार्थी हैं, जिनके तहत किसानों को दीर्घकालिक और अल्पकालिक ऋण उपलब्ध कराया जाता है। 

वर्ष 1989 से पहले के बैंकों पर लागू योजना

1989 से पहले, अपीलकर्ता बैंक के कर्मचारी कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952 (जिसे आगे “अधिनियम, 1952” कहा जाएगा) के अंतर्गत आते थे। अपीलकर्ता बैंक ने योजना के प्रावधानों का विधिवत पालन किया तथा पेंशन योजना के लिए नियोक्ता और कर्मचारी दोनों द्वारा नियमित अंशदान का भुगतान किया जा रहा था। 22 सितम्बर, 1988 को लिखे एक पत्र में, पंजाब सरकार के वित्त विभाग ने विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र की उपयोगिताओं और राज्य-सहायता प्राप्त संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों को राज्य पेंशन नियमों के अंतर्गत लाने के लिए पंजाब वेतन आयोग की सिफारिशों का पालन करने पर अपनी सहमति व्यक्त की। जांच का उद्देश्य, अन्य बातों के अलावा, प्रत्येक मामले से जुड़े अतिरिक्त वित्तीय बोझ के संबंध में संबंधित संगठनों से जानकारी प्राप्त करना था, तथा यह भी जानना था कि क्या संगठन या संस्था अपने संसाधनों (रिसोर्सेस) से अतिरिक्त दायित्व वहन कर सकते हैं। ये सिफारिशें बैंक प्रशासक के समक्ष प्रस्तुत की गईं, जिन्होंने 22 जून, 1989 के प्रस्ताव द्वारा राज्य सरकार की सिफारिशों को लागू करने का निर्णय लिया। 

वर्ष 1989 से बैंक पर लागू योजना

परिणामस्वरूप, 1 अप्रैल 1989 को समान संवर्ग (कैडर) के कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए पेंशन योजना शुरू की गई। इस मामले को आगे बढ़ाने के लिए, अपीलकर्ता बैंक ने 27 जून 1989 को पंजाब के सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार को पत्र लिखकर पंजाब राज्य सहकारी कृषि भूमि बंधक बैंक सेवा (सामान्य संवर्ग) नियम, 1978 के अंतर्गत आने वाले अपने कर्मचारियों के लिए पेंशन योजना लागू करने की अनुमति मांगी। सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार, पंजाब ने 7 फरवरी 1990 को एक आधिकारिक संचार द्वारा अपीलकर्ता बैंक के कर्मचारियों के लिए प्रस्तावित पेंशन योजना के शुभारंभ को मंजूरी दी। इसके अनुसार, पंजाब राज्य सहकारी कृषि भूमि बंधक बैंक सेवा (सामान्य संवर्ग) नियम, 1978 में संशोधन किया गया तथा नियम 15(ii) जोड़ा गया, जिससे निदेशक मंडल को रजिस्ट्रार सहकारी समितियां के अनुमोदन से पेंशन योजना बनाने में सक्षम बनाया गया। इसके अतिरिक्त संशोधित नियम 15 (ii) 1 अप्रैल 1989 से लागू हुआ। संदर्भ के प्रयोजन हेतु नियम 15 (ii) नीचे दिया गया है: 

“भविष्य निधि: कर्मचारी, कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम, 1952 और उसके अंतर्गत बनाई गई योजना के अनुसार सामान्य भविष्य निधि के लाभ के हकदार होंगे।” 

संशोधित पेंशन योजना के कार्यान्वयन (एक्जिक्यूशन) की शुरूआत के बाद, अपीलकर्ता बैंक और कर्मचारियों द्वारा पेंशन योजना के लिए किए गए अंशदान को पेंशन कॉर्पस निधि (समग्र निधि) की स्थापना के लिए स्थानांतरित कर दिया गया, जिससे योजना को कार्य करने की अनुमति मिल गई। योजना की देखरेख और सफलतापूर्वक कार्यान्वयन के लिए 24 मार्च 1993 को एक न्यास विलेख (ट्रस्ट डीड) द्वारा एक न्यास (ट्रस्ट) की स्थापना की गई। 

नई योजना के लागू होने के बाद हुए परिवर्तन

इस मामले में प्रस्तुत साक्ष्य के अनुसार, जिन अपीलकर्ता बैंक कर्मचारियों ने पेंशन लेने का विकल्प चुना, वे पेंशन योजना के सदस्य बन गए तथा पेंशन योजना का विकल्प चुनने के बाद भी 2010 तक लाभ प्राप्त करते रहे। हालांकि, बाद में पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड को इस योजना के तहत पेंशन प्रदान करने में कठिनाई महसूस होने लगी और उक्त बैंक ने वित्तीय बाधाओं के कारण पेंशन योजना को अव्यवहारिक पाया। अपीलकर्ता बैंक के निदेशक मंडल ने एजेंडा संख्या 15 के संदर्भ में 29 मई 2010 को बैठक की तथा बैंक के कर्मचारियों को पेंशन देने के मामले पर पुनर्विचार करने का निर्णय लिया। अपीलकर्ता बैंक ने पेंशन योजना पर पुनर्विचार के लिए रजिस्ट्रार, सहकारी समितियां, पंजाब से अनुमोदन प्राप्त करने का निर्णय लिया। 

रजिस्ट्रार, सहकारी समितियां, पंजाब ने 3 सितम्बर 2010 को एक पत्र के माध्यम से पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड को अपने प्रस्ताव की समीक्षा करने के निर्देश जारी किए। 30 मार्च 2011 को अपीलकर्ता बैंक ने संबंधित पेंशन योजना के संबंध में संशोधित प्रस्ताव रजिस्ट्रार, सहकारी समितियां, पंजाब को भेजा। यद्यपि, सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार द्वारा प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया था, फिर भी निदेशक मंडल ने 17 अगस्त 2012 के संकल्प के संदर्भ में पेंशन योजना को बंद करने और एकमुश्त निपटान के प्रस्ताव के साथ पेंशन योजना को अंशदायी भविष्य निधि में संशोधित करने का निर्णय लिया। इसके अतिरिक्त, निदेशक मंडल ने पंजाब सहकारी समिति अधिनियम, 1961 की धारा 84A(2) के तहत निहित अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए रजिस्ट्रार, सहकारी समितियों की पूर्व स्वीकृति से पंजाब राज्य सहकारी कृषि भूमि बंधक बैंक सेवा (सामान्य संवर्ग) नियम, 1978 के नियम 15 में संशोधन किया तथा 11 मार्च, 2014 को नियम 15 (ii) को हटा दिया गया। 

पंजाब राज्य सहकारी कृषि भूमि बंधक बैंक सेवा (सामान्य संवर्ग) नियम, 1978 के नियम 15 (ii) को हटाने के संशोधन से बहुत पहले अपीलकर्ता बैंक द्वारा पेंशन का भुगतान न करने के कारण कई कर्मचारियों ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। इस मामले में समय-समय पर अनेक अंतरिम आदेश जारी किए गए तथा एक समय ऐसा आया जब एकमुश्त निपटान प्रस्ताव प्रस्तुत करने का निर्णय लिया गया, जिसे अपीलकर्ता बैंक ने उच्च न्यायालय में लंबित कार्यवाही के दौरान 16 अक्टूबर, 2012 को प्रस्तुत किया। 

हालांकि, वास्तव में, बहुत कम संख्या में कर्मचारियों ने एकमुश्त निपटान के तहत अपने दावों का निपटारा किया है, लेकिन इस तथ्य पर यह ध्यान देना उचित है कि, जिस समय कार्यवाही चंडीगढ़ में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष लंबित थी, 24 जनवरी, 2014 के एक आदेश में यह स्पष्ट किया गया था कि उपयुक्त प्राधिकारी से अनुमोदन प्राप्त करने के बाद लागू किया गया एकमुश्त समझौता आवेदक या प्रत्यर्थी कर्मचारी के अन्य उपायों के संबंध में कानूनी अधिकारों को कम नहीं करेगा। इस तथ्य को इस प्रकार भी देखा जा सकता है कि नियम 15 (ii) को अपीलकर्ता बैंक द्वारा 11 मार्च, 2014 के आदेश द्वारा हटा दिया गया था, जबकि उच्च न्यायालय के समक्ष लेटर पेटेंट अपील में कार्यवाही लंबित थी। उच्च न्यायालय के विद्वान एकल न्यायाधीश ने माना कि अपीलकर्ता बैंक के कर्मचारी, बैंक में सेवारत होने के कारण, उस योजना के अंतर्गत आते थे जो उस समय “कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952” (1989 से पहले) के तहत लागू थी। 

जब मामला उच्च न्यायालय की खंडपीठ के पास पहुंचा, तब तक नियम 15(ii) को हटा दिया गया था और 11 मार्च 2014 के आदेश द्वारा समायोजन कर दिया गया था। चंडीगढ़ स्थित पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने इस तथ्य पर विचार किया कि अपीलकर्ता बैंक ने नियम 15(ii) को लागू करने का निर्णय पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद लिया था और ऐसी परिस्थिति में यह अपीलकर्ता बैंक का सचेत निर्णय था। 

उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कुछ टिप्पणियां कीं और कहा कि अपीलकर्ता बैंक के निर्णय के अनुसार नियम 15(ii) पेश किया गया था। यह नया नियम 1 अप्रैल 1989 को लागू किया गया था। हालाँकि, अपीलकर्ता बैंक द्वारा सामना की गई कुछ वित्तीय बाधाओं के कारण, उपर्युक्त नियम, अर्थात नियम 15 (ii) को 11 मार्च 2014 को हटा दिया गया था। कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा पहले ही उक्त पेंशन योजना का हिस्सा बन चुका है। परिणामस्वरूप, नये नियम के हटाए जाने तक पेंशन का अधिकार एक निहित या उपार्जित अधिकार बन चुका था। ऐसे नियम को हटाना सेवानिवृत्त कर्मचारियों की पेंशन के अधिकार के संबंध में कर्मचारियों के हित के विरुद्ध था। 

यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त ने विभिन्न समय पर उच्च न्यायालय के समक्ष विभिन्न जवाबी हलफनामे दायर किए, जिनमें 1995 की कर्मचारी पेंशन योजना के 1952 के अधिनियम का भाग बन जाने के बाद छूट अनुदान (ग्रांट) का उल्लेख किया गया था। क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त द्वारा पेंशन योजना से छूट देने के संबंध में किए गए उल्लेख के लिए बिना शर्त माफी मांगी गई, क्योंकि ऐसा उल्लेख तथ्यात्मक रूप से गलत था। 

29 जुलाई 2019 को उच्च न्यायालय की खंडपीठ के फैसले को अपीलकर्ता बैंक और सेवारत कर्मचारियों द्वारा चुनौती दी गई थी। अपीलकर्ता बैंक और सेवारत कर्मचारी ने उच्च न्यायालय की खंडपीठ के निर्णय को इस आधार पर चुनौती दी कि इस तरह के निर्णय से भविष्य में उनके पेंशन अधिकारों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इस मामले की कार्यवाही के दौरान बैंक के कर्मचारियों ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह चिंता व्यक्त की थी। 

मामले में उठाए गए मुद्दे

चूंकि यह मामला लंबे समय से चल रहा था, इसलिए इसमें कई मुद्दे थे। वे नीचे सूचीबद्ध हैं:

  • मामले में प्राथमिक मुद्दा यह था कि क्या अपीलकर्ता बैंक (पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड) पेंशन योजना को बीच में ही वापस ले सकता है या बंद कर सकता है, जिसे मूल रूप से 2010 तक प्रभावी रखने की योजना बनाई गई थी।
  • अदालत के समक्ष दूसरा प्रश्न यह था कि क्या पेंशन योजना के संबंध में अपीलकर्ता बैंक की ओर से की गई ऐसी कार्रवाई भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 16 का उल्लंघन है। 

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता द्वारा तर्क

ईपीएफसी के अनुसार, कर्मचारी भविष्य निधि योजना 1952 और कर्मचारी पेंशन योजना 1995, दोनों का उद्देश्य वृद्धावस्था/मृत्यु सामाजिक सुरक्षा का बुनियादी स्तर प्रदान करना है। ये दोनों योजनाएं किसी कर्मचारी के सामाजिक सुरक्षा लाभ पाने के अधिकार को पूरी तरह समाप्त नहीं करती हैं। ईपीएफसी के अनुसार ईपीएफ के बाहर अतिरिक्त पेंशन प्रदान करने के बैंक के आश्वासन का आकलन करना आवश्यक है। 

पेंशन योजना के तहत लाभ को केवल अतिरिक्त लाभ के रूप में समझा जा सकता है, प्रतिस्थापन लाभ के रूप में नहीं, क्योंकि बैंक की पेंशन प्रणाली में निकासी लाभ, आश्रितों के लाभ, नामांकित व्यक्ति के लाभ या बच्चों के लाभ का प्रावधान नहीं है। इस अर्थ में, पेंशन योजना अपने आवेदन में कहीं अधिक सीमित है। अधिनियम, 1952 की धारा 17(1C) में इसकी पेंशन योजना को बाहर रखने की अनुमति नहीं दी गई है। 

इसके अतिरिक्त, अपीलकर्ता बैंक के विद्वान वकील ने कहा कि उच्च न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि बैंक द्वारा तैयार की गई पेंशन योजना उपयुक्त प्राधिकारी से अनुमोदन पर निर्भर थी। यद्यपि अपीलकर्ता बैंक ने प्राधिकरण से अनुमोदन या छूट के लिए आवेदन नहीं किया, फिर भी तथ्य यह है कि सेवानिवृत्त कर्मचारी योजना की समाप्ति तिथि 31 अक्टूबर 2013 तक पेंशन भुगतान के हकदार थे, बशर्ते कि उपयुक्त प्राधिकारी ने उनके अनुरोध को स्वीकार न किया हो। 

विद्वान अधिवक्ता ने आगे तर्क दिया कि यदि कर्मचारियों को अधिनियम 1952 के तहत क्षेत्रीय प्रांत निधि आयुक्त से वैधानिक पेंशन प्राप्त करने के अलावा 31 अक्टूबर 2013 के बाद बैंक की योजना के तहत पेंशन प्राप्त करने की अनुमति दी जाती है, तो दोहरी पेंशन का भुगतान होगा, जो किसी भी मामले में अवैध है। 

वकील ने आगे तर्क दिया कि कर्मचारी पेंशन पाने का हकदार है, लेकिन उस पेंशन की गणना कैसे की जाए, इस पर विद्वान वकील ने आगे कहा कि कोई भी व्यक्ति किसी निहित या संचित अधिकार का दावा नहीं कर सकता है। प्रत्यर्थियों का यह दावा नहीं है कि उन्हें पेंशन भुगतान नहीं मिल रहा है। पहले इसका भुगतान बैंक की पेंशन योजना के तहत किया जाता था, जिसकी स्थापना 1989 में हुई थी और यह 31 अक्टूबर 2013 तक प्रभावी थी। इसके बाद, कर्मचारी कर्मचारी पेंशन योजना 1995 के माध्यम से अधिनियम 1952 की शर्तों के तहत वैधानिक पेंशन प्राप्त करने के पात्र हो जाते हैं। 

इसलिए वकील ने कहा कि निहित अधिकार की दलील पर उच्च न्यायालय का विचार पूरी तरह से अनुचित है। जब तक अपीलकर्ता बैंक अधिनियम 1952 के प्रावधानों के तहत अपनी वैधानिक देयता को पूरा करता है, जिसका अनुपालन करना उसके लिए अपेक्षित है, कर्मचारी बैंक द्वारा शुरू की गई योजना के तहत पेंशन का दावा करने के हकदार नहीं हैं, क्योंकि यह योजना 31 अक्टूबर, 2013 से वापस ले ली गई है। परिणामस्वरूप, कर्मचारी का कोई भी निहित या अर्जित अधिकार किसी भी तरह से पराजित नहीं हुआ है, तथा बैंक पेंशन योजना को समाप्त करने के बाद भी इसे जारी रखने का उच्च न्यायालय का निष्कर्ष कानून की दृष्टि से टिकने योग्य नहीं है तथा इसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किए जाने की आवश्यकता है। 

अपने तर्कों के समर्थन में विद्वान अधिवक्ता ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में मराठवाड़ा ग्रामीण बैंक कर्मचारी संगठन एवं अन्य बनाम मराठवाड़ा ग्रामीण बैंक प्रबंधन एवं अन्य (2011), राजस्थान राज्य बनाम ए.एन. माथुर एवं अन्य (2013), हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम राजेश चंद्र सूद एवं अन्य (2016) के निर्णयों का हवाला दिया था। 

विद्वान वकील ने आगे तर्क दिया कि बैंक द्वारा बाद में शुरू की गई पेंशन योजना वित्तीय रूप से अव्यवहारिक हो गई तथा 1 जनवरी, 2004 के बाद नियुक्त वर्तमान कर्मचारियों की तुलना में सेवानिवृत्त कर्मचारियों की संख्या लगभग तीन गुना है। यदि अपीलकर्ता बैंक को बैंक पेंशन योजना के तहत पेंशन का भुगतान जारी रखने की आवश्यकता होती है, तो बैंक व्यवसाय से बाहर हो जाएगा और निष्क्रिय हो जाएगा और कार्यरत कर्मचारियों का पेंशन योगदान व्यर्थ हो जाएगा, और उन्हें सेवानिवृत्ति पर कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। 

अपीलकर्ता बैंक ने यह भी तर्क दिया कि बैंक ने हाल के वर्षों में कम लाभ कमाया है, अपीलकर्ता बैंक के पास बैंक को बंद करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा और बैंक दीवालिया हो जाएगा। अपीलकर्ता बैंक ने आगे तर्क दिया कि यदि ऐसा निर्णय लागू होता है, तो बैंक विवादित पेंशन योजना के तहत पेंशन के लिए इतनी राशि का भुगतान करने में सक्षम नहीं होगा। विद्वान अधिवक्ता के अनुसार, क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त ने अधिनियम 1952 की धारा 7A के तहत अप्रैल 1989 से मार्च 2015 तथा अप्रैल 2015 से जून 2017 के लिए अलग-अलग कार्यवाही शुरू की है। ये कार्यवाहियां क्रमशः 31 अगस्त, 2017 और 14 सितम्बर, 2015 के आदेशों के माध्यम से बैंक पर दायित्व आरोपित करती हैं। 

इसके अलावा, विद्वान वकील ने आगे दलील दी कि क्षतिपूर्ति के लिए धारा 14B और ब्याज के लिए धारा 7Q के तहत एक साथ कई मामले दायर किए गए थे। ये मांगें अपीलकर्ता के प्राधिकारी द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार उठाई गई थीं। निर्दिष्ट शर्तों के अनुसार, अप्रैल 1989 और अगस्त 2017 के महीनों के लिए पेंशन फंड योगदान, क्षति और ब्याज के लिए क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त को मुआवजा दिया गया है। इसके अतिरिक्त, अपीलकर्ता को विवादित निर्णय के अनुसार, बैंक पेंशन कार्यक्रम के अंतर्गत सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन का भुगतान करने का निर्देश दिया गया है, जो पूर्व में इस कार्यक्रम के अंतर्गत आते थे। 

विद्वान अधिवक्ता ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह भी प्रस्तुत किया कि उपरोक्त सभी मुद्दों के अतिरिक्त, कुछ कर्मचारियों ने सरकार द्वारा अनुमोदित एकमुश्त निपटान के तहत अपने खातों का निपटान कर लिया है। वकील ने कहा कि यदि निर्णय को यथावत लागू किया जाता है, तो बैंक को न केवल भारी वित्तीय कठिनाई का सामना करना पड़ेगा, जो अन्यथा अवैध है, बल्कि यह कर्मचारियों को व्यावहारिक रूप से दोहरा भुगतान भी होगा, जो कि अधिनियम 1952 के तहत वैधानिक पेंशन योजना 1995 के तहत कर्मचारियों को मिलने वाले भुगतान से कहीं अधिक है। 

प्रत्यर्थी द्वारा तर्क

दूसरी ओर, प्रत्यर्थियो के विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.एस. पटवालिया ने तर्क दिया कि यह निर्विवाद है कि वर्तमान प्रत्यर्थी, जो उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिकाकर्ता थे, सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं। कर्मचारी 1978 के नियमों के अंतर्गत पेंशन योजना का हिस्सा बन गए। इसके अलावा, उन्हें 1 अप्रैल 1989 से इस योजना के अंतर्गत पेंशन मिलनी शुरू हो गई। वर्ष 2010 में बिना कोई औचित्य बताए प्रत्यर्थी पेंशनभोगियों को पेंशन देना एकतरफा बंद कर दिया गया। परिणामस्वरूप सेवानिवृत्त कर्मचारियों को उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर करनी पड़ी। उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि ये पेंशनभोगी योजना के तहत पेंशन के हकदार हैं। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के विद्वान एकल न्यायाधीश के 31 अगस्त, 2013 के फैसले को पलटने के लिए, 11 मार्च, 2014 के आदेश द्वारा नियम 15(ii) को हटा दिया गया। इस नियम को हटाने से सेवानिवृत्त कर्मचारियों के निहित अधिकार छीन लिए गए हैं, तथा उनकी सेवा शर्तों को पूर्वव्यापी प्रभाव से उनके लिए अहितकर बदल दिया गया है, जो संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के विरुद्ध है। 

अधिनियम 1952 योजना के संबंध में, प्रत्यर्थी के विद्वान वकील ने आगे तर्क दिया कि यह अपीलकर्ता द्वारा 22 जून, 1989 के संकल्प संख्या 24 के तहत शुरू की गई पेंशन योजना से संबंधित नहीं थी, जो 1 अप्रैल, 1989 को प्रभावी हुई थी, और अपीलकर्ता बैंक को अधिनियम 1952 की धारा 17 (1C) के तहत कोई छूट लेने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उसने 1989 में पेंशन योजना शुरू की थी। खंडपीठ ने कहा कि पेंशन का अधिकार सेवानिवृत्त कर्मचारियों का निहित या उपार्जित अधिकार है और इसे पूर्वव्यापी प्रभाव से इस प्रकार नहीं छीना जा सकता जो उन लाभार्थियों के हितों के लिए हानिकारक हो। 

इस मामले में इस न्यायालय के संविधान पीठ के फैसले पर भरोसा किया गया है, जो अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड एवं अन्य बनाम सी.आर. रंगधामैया एवं अन्य (1997) तथा उसके बाद यू.पी. राघवेंद्र आचार्य एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2006) और बैंक ऑफ बड़ौदा एवं अन्य बनाम जी. पलानी एवं अन्य (2022) में दिया गया है। 

इसके अतिरिक्त, प्रत्यर्थियो के विद्वान वकील ने तर्क दिया कि मामला लंबित रहने के दौरान ही एक तिहाई सेवानिवृत्त लोगों की मृत्यु हो चुकी है तथा आधे से अधिक प्रत्यर्थी 73 से 80 वर्ष की आयु के बीच के हैं। 

इसके अलावा, जब मुकदमा लंबित था, तब एक तिहाई पेंशनभोगियों की मृत्यु हो चुकी थी, तथा अपीलकर्ता बैंक ने ही स्वेच्छा से पेंशन योजना शुरू की थी, तथा प्रत्यर्थी के कर्मचारियों ने उसके द्वारा नियंत्रित होना चुना है। उन्होंने अंशदायी भविष्य निधि में भाग न लेने का भी विकल्प चुना है। दी गई स्थिति में, किसी भी परिस्थिति में अपीलकर्ता संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में प्रत्यर्थी श्रमिकों को दिए गए और निहित अधिकारों को मनमाने ढंग से नहीं छीन सकता है। जहां तक एकमुश्त निपटान योजना का सवाल है, विद्वान वकील का तर्क है कि इसे उच्च न्यायालय द्वारा जारी अंतरिम उपायों के अनुसार पेंशन योजना को वापस लेने से उत्पन्न समस्या के समाधान के लिए एक अस्थायी समाधान के रूप में लागू किया गया था। 

इसके अलावा, कई कर्मचारियों ने एकमुश्त निपटान योजना को स्वीकार कर लिया है, क्योंकि उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था और वे वेतन से वेतन तक ही जीवन यापन कर रहे थे।हालांकि, खण्डपीठ द्वारा पारित अंतरिम आदेश में, खण्डपीठ ने यह स्पष्ट कर दिया कि पेंशन योजना को स्वीकार करने से कर्मचारियों के कानूनी अधिकार प्रभावित नहीं होंगे और विशिष्ट परिस्थितियों में, एकमुश्त निपटान योजना के तहत कुछ कर्मचारियों को भुगतान की गई धनराशि हमेशा उस योजना के तहत वापसी योग्य होती है, जिसके वे कानूनी रूप से हकदार हैं। अपीलकर्ता बैंक की यह विशेष प्रणाली पिछले बीस वर्षों से एक स्थापित प्रथा थी और कर्मचारी का निहित अधिकार बन गई थी, और इस प्रकार, अपीलकर्ता बैंक के लिए मनमाने ढंग से उनके अधिकारों को छीनना और उन्हें पेंशन का लाभ देने से इनकार करना स्वीकार्य नहीं है, जो सेवानिवृत्त लोगों के संबंध में 1989 से मौजूद है। 

क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त, श्री सिद्धार्थ के विद्वान वकील के अनुसार, अपीलकर्ता बैंक अधिनियम 1952 के प्रावधानों के अंतर्गत आता है। संबंधित पेंशन योजना जिस अधिनियम के अंतर्गत आती है, उसमें कुल तीन योजनाएं शामिल हैं। पेंशन योजनाओं की अन्य दो श्रेणियां इस प्रकार हैं:

  • पहला है “कर्मचारी भविष्य निधि योजना 1952 (ईपीएफएस)”, जो अधिनियम की धारा 5 और धारा 6 के तहत अंशदायी भविष्य निधि की स्थापना करता है। इस योजना के अंतर्गत नियोक्ता और कर्मचारी दोनों को एक निश्चित दर पर भविष्य निधि में समान अंशदान करना होता है। निर्दिष्ट दरें समय-समय पर उपयुक्त प्राधिकारियों द्वारा घोषित की जाती हैं। फिर भी, कर्मचारियों के लिए वर्तमान मासिक वेतन 12% है। 
  • दूसरी योजना “कर्मचारी पेंशन योजना, 1995 (ईपीएस)” है, जो “कर्मचारी परिवार पेंशन योजना, 1971 (एफपीएस)” का स्थान लेती है और अधिनियम, 1952 की धारा 6A के तहत तैयार की गई है। पारिवारिक पेंशन योजना के तहत काम के दौरान मरने वाले श्रमिकों के आश्रितों को पेंशन दी जाती थी। 

क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त के विद्वान वकील ने यह भी तर्क दिया कि “कर्मचारी पेंशन योजना 1995 (ईपीएस)” के तहत पेंशन योजना एक व्यापक और सामान्य पेंशन योजना है क्योंकि इसमें प्रारंभिक सेवानिवृत्ति, आश्रितों की पेंशन और सेवानिवृत्ति पेंशन शामिल हैं। इसका वित्तपोषण (फंडिंग) नियोक्ता द्वारा ईपीएफएस में दिए जाने वाले 8.33% मासिक वेतन अंशदान के एक हिस्से को पेंशन फंड में स्थानांतरित करने से होता है। ईपीएस के तहत, कर्मचारी अंशदान नहीं करते हैं। 1976 कर्मचारी जमा लिंक्ड बीमा योजना तीसरा कार्यक्रम है। बैंक ने धारा 17(2A) के तहत ईडीएलआई और धारा 17(1)(b) के तहत ईपीएफ से छूट का अनुरोध किया था। यह भी ध्यान दिया गया कि अपीलकर्ता बैंक ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि उसने 16 नवंबर 1995 के बाद कर्मचारी पेंशन योजना के संचालन से छूट का अनुरोध नहीं किया था। 

इसके अतिरिक्त, विद्वान वकील ने आगे कहा कि अपीलकर्ता बैंक ने 1 अप्रैल 1989 से 31 मार्च 2015 की अवधि के लिए कर्मचारी पेंशन योजना के अंतर्गत समय पर अंशदान नहीं किया। इसके अलावा, अपीलकर्ता बैंक पारिवारिक पेंशन योजना के तहत 1 अप्रैल 2015 से 6 जून 2017 की अवधि के लिए समय पर जमा करने में भी विफल रहा। अपीलकर्ता बैंक द्वारा समय पर अंशदान न करने के संबंध में धारा 7A के तहत अलग से कार्यवाही शुरू की गई, जिसके बाद धारा 14B के तहत क्षतिपूर्ति तथा धारा 7Q के तहत ब्याज का भुगतान किया गया। अपीलकर्ता बैंक को एक मौका देने के बाद अंतिम मूल्यांकन के प्रावधान पर भी विचार किया गया। 

सेवारत कर्मचारियों की चिंताओं के संबंध में, कर्मचारियों के विद्वान वरिष्ठ वकील श्री गुरमिंदर सिंह ने तर्क दिया कि नई पेंशन योजना के तहत, सेवारत कर्मचारियों को अपना अंशदान स्वयं करना आवश्यक है। इससे सेवारत कर्मचारियों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि सेवारत कर्मचारियों द्वारा दिया गया अंशदान सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन के भुगतान में उपयोग किया जा रहा है। इसके अलावा, अपीलकर्ता बैंक द्वारा सेवारत कर्मचारियों को लगातार कम धनराशि दी जा रही है। अपीलकर्ता बैंक की कार्यवाही से यह संकेत मिलता है कि सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारी रोजगार के दौरान अपनी प्रतिबद्धता पूरी होने के बाद भी अपनी पेंशन प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो पाएंगे। सेवारत कर्मचारियों के विद्वान वकील ने इस तथ्य पर बल दिया कि सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन का भुगतान सेवारत कर्मचारियों की कीमत पर किया जा रहा है और अपीलकर्ता बैंक की ओर से ऐसी कार्रवाई सेवारत कर्मचारियों के हित के खिलाफ है। 

विद्वान अधिवक्ता ने यह तर्क भी दिया कि पेंशन के संबंध में सेवारत और सेवानिवृत्त कर्मचारियों पर लागू नियम और विनियम एक समान होंगे तथा इन्हें बिना किसी अनुचित भेदभाव के सभी कर्मचारियों पर लागू किया जाना चाहिए। सेवारत कर्मचारियों की कीमत पर बैंक पेंशन योजना को जारी रखने की अनुमति देना अनुचित होगा, क्योंकि इससे उन्हें बैंक द्वारा शुरू की गई पेंशन के कानूनी रूप से अनिवार्य अधिकार से वंचित किया जाएगा। 

मामले का फैसला

भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विद्वान अधिवक्ता की सहायता से रिकॉर्ड पर उपलब्ध सभी सामग्री को दर्ज किया। यह निर्धारित किया गया कि बैंक द्वारा नियम 15(ii) को पूर्वव्यापी प्रभाव से हटाने के लिए किया गया एकतरफा संशोधन, जिसने सेवानिवृत्त कर्मचारियों की पेंशन की पात्रता को अनिवार्यतः रद्द कर दिया था, अमान्य और असंवैधानिक था। इस निर्णय में इस बात की पुनः पुष्टि की गई कि एक बार किसी स्थापित विनियमन के तहत निहित अधिकार प्राप्त कर लिए जाने पर, संविधान में शामिल समानता और जीवन के अधिकार की गारंटी के विरुद्ध जाए बिना उन्हें रद्द नहीं किया जा सकता। 

क्या निहित या अर्जित अधिकारों को नियम बनाने वाले प्राधिकारी द्वारा किसी भी समय पूर्वव्यापी प्रभाव से वापस लिया जा सकता है?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि प्रत्यर्थी पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड, चंडीगढ़ के सदस्य हैं। अदालत ने कहा कि यह निर्विवाद तथ्य है कि वे अपनी सेवानिवृत्ति से पहले अधिनियम 1952 के तहत कर्मचारी भविष्य निधि योजना के सदस्य भी थे। कर्मचारी और नियोक्ता बैंक कार्यक्रम का उचित ढंग से पालन कर रहे थे और उचित योगदान दे रहे थे। तत्पश्चात्, अपीलार्थी बैंक के प्रशासक ने 22 जून, 1989 के संकल्प द्वारा पंजाब वेतन आयोग की सिफारिशों के प्रत्युत्तर में पेंशन योजना शुरू करने के संबंध में राज्य सरकार की सिफारिशों को लागू करने का निर्णय लिया। परिणामस्वरूप, कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए पेंशन योजना नियम 1978 को 1 अप्रैल, 1989 से लागू किया गया। 

परिणामस्वरूप, 1978 के नियमों को संशोधित कर नियम 15(ii) जोड़ा गया। यह कार्रवाई निदेशक मंडल द्वारा रजिस्ट्रार सहकारी समितियां, पंजाब की पूर्व स्वीकृति से की गई। इसके अनुसार, संशोधन में एक विकल्प शामिल किया गया ताकि जो श्रमिक नियमों का पालन करना चाहते हैं, उन्हें ‘पेंशन योजना’ का लाभ दिया जाएगा। जो कर्मचारी उस समय इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं करेंगे, उन पर 1952 के अधिनियम के तहत कार्रवाई की जाएगी। सभी प्रत्यर्थीयों को, बिना किसी विवाद के, नौकरी छोड़ने पर पेंशन योजना में शामिल होने का विकल्प दिया गया। उन्होंने 2010 तक लगातार ऐसा किया, जिसके बाद मुकदमा तब शुरू हुआ जब अपीलकर्ता बैंक ने बैंक पेंशन योजना की शर्तों के तहत पेंशन का भुगतान करना बंद कर दिया। हालांकि कुछ परिस्थितियों में बैंक पेंशन योजना 1 जनवरी 2004 को या उसके बाद नियुक्त श्रमिकों पर लागू नहीं होगी। बाद में, बैंक ने 11 मार्च 2014 को पेंशन योजना के नियम 15(ii) को हटाने का निर्णय लिया। इस निर्णय ने श्रमिकों की शिकायतों को आधार प्रदान किया, जिसका उपयोग उन्होंने बैंक के आचरण को चुनौती देने तथा अपना मामला अदालत में ले जाने के लिए किया। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह अपीलकर्ता बैंक है जिसने राज्य सरकार की सिफारिशों को स्वीकार किया और दो विकल्प सामने रखे तथा कर्मचारियों से पूछा कि क्या वे पेंशन योजना का विकल्प चुनना चाहते हैं जो नियम 1978 के तहत संशोधन के बाद लागू हुई। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि नियम 15(ii) को लागू करने का निर्णय एक सचेत निर्णय था, जिस पर काफी चर्चा और विचार-विमर्श किया गया था। इस प्रकार, संशोधित नियम के प्रभाव को निष्प्रभावी करना तथा ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करना न्यायोचित नहीं हो सकता, जिससे 1 अप्रैल 1989 से लागू नियमों के तहत पेंशन प्राप्त करने के लिए कर्मचारी को प्रदत्त अधिकार पराजित हो जाएं। अंत में, चंडीगढ़ स्थित पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना कि वे सभी कर्मचारी जो नियम 1978 के अंतर्गत पेंशन योजना के सदस्य बन गए हैं, वे महंगाई भत्ते की संशोधित दरों की संशोधित योजना के अंतर्गत पेंशन सहित नियमित पेंशन के हकदार हैं। 

अदालत ने आगे कहा कि विचारणीय प्रश्न यह है कि किसी कर्मचारी के निहित या उपार्जित अधिकारों की अवधारणा क्या है और क्या ऐसे निहित या उपार्जित अधिकारों को नियम बनाने वाले प्राधिकारी द्वारा किसी निश्चित समय पर पूर्वव्यापी प्रभाव से समाप्त किया जा सकता है। 

इन प्रश्नों पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणी की। सेवा न्यायशास्त्र में निहित/उपार्जित अधिकार की अवधारणा और विशेष रूप से पेंशन के संबंध में, इस न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड एवं अन्य (1997) के मामले में जांच की गई है। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायाधिकरण की पूर्ण पीठ तथा अन्य पीठों द्वारा लिए गए निर्णय ही इन अपीलों तथा विशेष अनुमति के अनुरोधों का विषय हैं। 

इस न्यायालय के तीन विद्वान न्यायाधीशों की पीठ ने 28 मार्च, 1995 को इनमें से कुछ मामलों की सुनवाई की और निम्नलिखित निर्णय जारी किया। वर्तमान मामले में दो प्रश्न उठते हैं: 

  • जहां तक सरकारी कर्मचारी का संबंध है, निहित या उपार्जित अधिकारों की अवधारणा क्या है और;
  • दोनों में से क्या, और किस हद तक, अनुच्छेद 309 के प्रावधान के तहत लगाए गए नियम या उस अनुच्छेद के तहत पारित अधिनियम, निहित या उपार्जित अधिकारों को पूर्वव्यापी रूप से छीन सकता है।

न्यायालय ने कहा कि के.सी. अरोड़ा बनाम हरियाणा राज्य (1984) और के. नागराज बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1985) में तीन न्यायाधीशों की पीठ के फैसलों को रोशन लाल टंडन बनाम भारत संघ (1968), बी.एस. वडेरा बनाम भारत संघ (1968) और गुजरात राज्य बनाम रमन लाल केशव लाल सोनी (1983) में संविधान पीठ के फैसलों के औचित्य के रूप में उद्धृत किया गया है, इसके अलावा के. नारायणन बनाम कर्नाटक राज्य (1994) और पी.डी. अग्रवाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1987) में दो न्यायाधीशों की पीठ के फैसलों का भी हवाला दिया गया है। इन औचित्यों का उपर्युक्त संविधान पीठ के निर्णयों के अनुपात द्वारा खंडन किया गया। पीठ के तीनों न्यायाधीशों ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि उन्हें उक्त विवाद को निपटाने में कठिनाई हो रही है। ऐसे में, इस मामले को अधिक वरिष्ठ न्यायपीठ सदस्य के पास भेजना अनिवार्य हो गया है। परिणामस्वरूप, इन अपीलों को पांच जानकार न्यायाधीशों के एक पैनल को सौंप दिया गया है। इस न्यायालय ने अध्यक्ष रेलवे बोर्ड एवं अन्य (1997) मामले में आगे कहा कि इस मामले पर पहले ही विचार किया जा चुका है। 

क्या पेंशन योजना के संबंध में अपीलकर्ता बैंक की ओर से की गई कार्रवाई भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है? 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि इसलिए, यह कहा जा सकता है कि पहले से ही नियोजित लोगों के भविष्य के अधिकारों को नियंत्रित करने वाले नियम को संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन करने के आधार पर पूर्वव्यापी प्रभाव के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि किसी विशेष नियम में संशोधन, जिसके परिणामस्वरूप पहले से प्राप्त लाभ को समाप्त कर दिया जाता है, को संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 16 के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी जा सकती है, बशर्ते कि वह पूर्वव्यापी रूप से लागू हो। इनमें से अनेक निर्णयों में “निहित अधिकार” और “उपार्जित अधिकार” शब्दों का प्रयोग किया गया है। उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग उस लागू नियम के अंतर्गत उत्पन्न होने वाले अधिकार के संबंध में किया गया है, जिसे पहले की तिथि से बदलने का अनुरोध किया गया था। परिणामस्वरूप, इस संशोधन से उस समय लागू नियम द्वारा दिए गए लाभ समाप्त हो गए। निर्णय के अनुसार, कोई भी संशोधन जो पूर्वव्यापी रूप से लागू होता है तथा किसी ऐसे लाभ को समाप्त करता है जिसके लिए कर्मचारी वर्तमान विनियमन के तहत पहले से पात्र था, उसे अनुचित और पक्षपातपूर्ण माना जाता है। इसे संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 16 के तहत प्रदत्त अधिकारों का समान रूप से उल्लंघन माना जाता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि पीठ के न्यायाधीश यह मानने में असमर्थ हैं कि ये निर्णय रोशन लाल टंडन (1968), बी.एस. वेदेरा (1968) और रमन लाल केशव लाल सोनी (1983) के निर्णयों के अनुरूप नहीं हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इन स्थितियों में न्यायालय को कर्मचारियों की पेंशन की चिंता है जो उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मिलेगी। उक्त अधिसूचना जारी होने की तिथि को ये कर्मचारी सेवा में नहीं थे। इसका अर्थ यह था कि जिस दिन आपत्तिजनक नोटिस भेजे गए, उस दिन प्रतिवादी अपने रुख से अलग हो गए थे। इसके बाद भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी। इसने माना कि किसी विनियमन में उसके भविष्य की प्रयोज्यता के संबंध में संशोधन अप्रतिबंधित है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जो कर्मचारी सेवा से बाहर थे और जिस दिन विवादित नोटिस भेजे गए थे, उस दिन वे सेवानिवृत्त हो चुके थे, वे भी संशोधनों के दायरे में आएंगे। 

संदर्भित पूर्ववर्ती निर्णय 

यू.पी. राघवेंद्र आचार्य एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (2006)

बाद में यू.पी. राघवेन्द्र आचार्य एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (2006) में जो विचारार्थ (कंसीडरेशन) का मुद्दा आया, वह यह था कि क्या अपीलकर्ताओं, जिन्हें 1 जनवरी, 1996 को लागू संशोधित वेतनमान का लाभ मिला था, से पेंशन गणना के प्रयोजनार्थ उसी प्रभाव से परिकलित सेवानिवृत्ति लाभ वापस लिए जा सकते थे। इस संबंध में, इस न्यायालय ने नियमों की संरचना की समीक्षा करते समय और अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड एवं अन्य बनाम सी.आर. रंगधामैया (1997) में संविधान पीठ के निर्णय पर निर्भर करते हुए निम्नलिखित बातें नोट कीं। 

उपर्युक्त मामले में, पेंशन योजनाओं से संबंधित नियमों में से एक नियम इस प्रकार है; 

“किसी रेलवे कर्मचारी द्वारा पेंशन का दावा उस समय लागू नियमों द्वारा विनियमित होता है, जब वह सरकार की सेवा से त्यागपत्र देता है या उसे सेवामुक्त किया जाता है।” 

इन मामलों में प्रत्यर्थी वे कर्मचारी हैं जो 1 जनवरी, 1973 के बाद, लेकिन 5 दिसंबर, 1988 से पहले सेवानिवृत्त हुए थे। भारतीय रेलवे स्थापना संहिता के नियम 2301 में कहा गया है कि कर्मचारियों को नियम 2544 का उपयोग करके अपनी पेंशन की गणना करने का अधिकार है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी सेवानिवृत्ति के समय उपर्युक्त नियम लागू था। उस समय, उपर्युक्त नियम के अनुसार गणना में कहा गया था कि पेंशन और अन्य सेवानिवृत्ति लाभों की राशि निर्धारित करने के उद्देश्य से औसत परिलब्धियों की गणना करते समय, अन्य परिलब्धियों के अधिकतम 75% तक रनिंग भत्ते पर विचार किया जाना था। दिनांक 5 दिसम्बर 1988 की अधिसूचना द्वारा संशोधित नियम 2544, कर्मचारियों से उनकी औसत परिलब्धियों के आधार पर उनकी पेंशन की गणना करने के उपरोक्त अधिकार को छीन लेता है। विशेष रूप से, अधिकतम सीमा अब 1 अप्रैल 1979 से केवल 55% है, जो 1 जनवरी 1973 से 31 मार्च 1979 तक 75% तथा 1 जनवरी 1973 से 31 मार्च 1979 तक 45% थी। परिणामस्वरूप, प्रत्यर्थीयो को उनकी सेवानिवृत्ति के समय लागू नियमों के अनुसार कम पेंशन राशि प्राप्त हो रही थी। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय का उल्लेख करते हुए कहा कि सेवानिवृत्त कर्मचारियों के विभिन्न समूह, जो अलग-अलग नियमों के अधीन थे, को नई योजना को लागू करते समय इसके तहत पेंशन लाभ देने से इनकार किया जा सकता है। कर्मचारियों के किसी वर्ग को पेंशन संबंधी लाभ देने से भी इनकार किया जा सकता है, यदि यह किसी कानून के विरुद्ध न हो। 

दूसरी ओर, अपीलकर्ताओं के तर्क भिन्न प्रकृति के थे।उन्होंने कहा कि अद्यतन वेतनमान से उन्हें मदद मिली है और अब यह उनके लिए कोई समस्या नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और केन्द्र सरकार ने सिफारिश की है कि कर्नाटक राज्य वेतन संशोधन समिति के लाभ उनके पक्ष में बढ़ाए। 

इस न्यायालय की संविधान पीठ ने अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड बनाम सी.आर. रंगधामैया (1997) निम्नलिखित राय दी थी। अनुच्छेद 31(1) और 19(1)(f) के तहत उपलब्ध अधिकारों का उल्लंघन करने के अलावा, आरोपित संशोधन, जिस सीमा तक उन्हें पूर्वव्यापी प्रभाव दिया गया है, संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत गारंटीकृत अधिकारों का भी उल्लंघन करते हैं, इस आधार पर कि वे अनुचित और मनमाने हैं, क्योंकि नियम 2544 में उक्त संशोधनों का प्रभाव पेंशन की राशि को कम करने का है, जो कि आरोपित अधिसूचनाओं के जारी होने की तिथि को सेवा से पहले ही सेवानिवृत्त हो चुके कर्मचारियों को नियम 2544 में निहित प्रावधानों के अनुसार देय हो गई थी, जो उनकी सेवानिवृत्ति के समय लागू थे। अपीलकर्ता अब सक्रिय ड्यूटी पर नहीं थे। इस वजह से, राज्य वैधानिक नियमों को पूर्वव्यापी रूप से बदलने में असमर्थ था, जिससे उनकी पेंशन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

बैंक ऑफ बड़ौदा और अन्य बनाम जी. पलानी (2022)

बैंक ऑफ बड़ौदा एवं अन्य बनाम जी. पलानी (2022) के मामले का उल्लेख करते हुए, न्यायालय ने उल्लेख किया कि इस मामले में मुद्दा यह निर्धारित करना था कि 1 अप्रैल 1998 और 31 अक्टूबर 2022 के बीच नौकरी छोड़ने वाले या नौकरी में रहते हुए मृत हो जाने वाले कर्मचारियों का पेंशन योजना और बाद में पेंशन के लाभों पर निहित या उपार्जित अधिकार है या नहीं। इस संबंध में, इस न्यायालय ने चेयरमैन, रेलवे बोर्ड एवं अन्य (1997) के मामले में अपनाए गए दृष्टिकोण को स्वीकार करते हुए निम्नलिखित टिप्पणियां कीं है। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि 2003 तक जो नियम लागू थे, वे अब भी लागू रहेंगे। उनकी राय में, उपर्युक्त विनियमन में विनियमन 2(s) में स्पष्टीकरण (c) को जोड़ने से पेंशन से संबंधित विनियमों में परिवर्तन का प्रभाव नहीं पड़ा, जो विनियमन 38 में निहित थे, जिन्हें 1995 के विनियमन 2(d) और 35 के साथ पढ़ा गया। अन्यथा, यह पूर्वव्यापी रूप से कार्य नहीं कर सकता था और निहित अधिकारों को नहीं छीन सकता था, भले ही इसका वेतन और लाभ “औसत परिलब्धियों” को बदलने का प्रभाव हो, जैसा कि विनियमन 2(d) में कहा गया है। यदि ऐसा नहीं होता, तो यह भी बल का मनमाना प्रयोग माना जाता। इसके अलावा, अधिकारी संघ के तथाकथित संयुक्त नोट का कोई वैधानिक बल नहीं था, क्योंकि, जैसा कि अधिकारी संघ ने स्वीकार किया था, औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधान उस पर लागू नहीं होते थे, और संयुक्त नोट में वैधानिक समर्थन का अभाव था। 1.4.1998 से दिसंबर 1999 और उसके बाद सेवानिवृत्त हुए अधिकारियों को विनियमों के लाभों से वंचित करना या उन लाभों को छोड़ना भी स्वीकार्य नहीं था। इसलिए, जिस संयुक्त नोट पर भरोसा किया गया है, उसके आधार पर कोई रोक नहीं लगाई गई मानी जाएगी। विधायी आवश्यकताओं के आवेदन के विरोध में कोई रोक मौजूद नहीं है। संयुक्त नोट में कानूनी प्रभाव का अभाव था और यह 1970 के अधिनियम के विनियमों की भावना या उन विनियमों में उल्लिखित रोजगार की मौलिक शर्तों का उल्लंघन नहीं कर सकता था। जैसा कि इस न्यायालय द्वारा केन्द्रीय अन्तर्देशीय जल परिवहन निगम लिमिटेड एवं अन्य बनाम ब्रोजो नाथ गांगुली एवं अन्य (1986) तथा दिल्ली परिवहन निगम बनाम डी.टी.सी. मजदूर कांग्रेस (1991) में स्थापित किया गया है, इनमें मनमाने ढंग से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती थी। 

मराठवाड़ा ग्रामीण बैंक कर्मचारी संगठन और अन्य मामला (2011)

इसके बाद अदालत ने मराठवाड़ा ग्रामीण बैंक कर्मचारी संगठन और अन्य (2011) का हवाला दिया, जिसका उल्लेख अपीलकर्ता बैंक ने अपनी दलीलें पेश करते समय किया था। अदालत ने कहा कि मराठवाड़ा ग्रामीण बैंक कर्मचारी संगठन और अन्य मामले (2011) में विचाराधीन विषय भविष्य निधि से संबंधित था। मराठवाड़ा ग्रामीण बैंक ने एक भविष्य निधि प्रणाली शुरू की जो कर्मचारी भविष्य निधि कार्यक्रम के तहत आवश्यक अंशदान दरों से अधिक थी। इसके अलावा, धारा 17(1) ने भविष्य निधि को वैधानिक मान्यता प्रदान की, जिसकी अंशदान दर अधिक है। हालाँकि, कुछ समय बाद, मराठवाड़ा ग्रामीण बैंक ने वित्तीय अस्थिरता के कारण अपनी भविष्य निधि प्रणाली को बंद कर दिया और ईपीएफएस परिच्छेद 26 द्वारा अपेक्षित दरों पर वापस आ गया। 

हिमाचल प्रदेश राज्य और अन्य बनाम राजेश चंद्र सूद (2016)

अपीलकर्ता बैंक ने हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम राजेश चंद्र सूद (2016) मामले का भी संदर्भ दिया। हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम राजेश चंद्र सूद (2016) के मामले में दिए गए निर्णय के संबंध में, यह एक ऐसा मामला था जिसमें हिमाचल प्रदेश राज्य ने अधिनियम 1952 की शर्तों के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश कॉर्पोरेट क्षेत्र कर्मचारी पेंशन (पारिवारिक पेंशन, पेंशन का संराशन और आनुतोषिक (ग्रेच्युटी) योजना, 1999 के लिए एक अलग योजना तैयार की थी। यह पेंशन योजना 1 अप्रैल 1999 को अस्तित्व में आई थी। हालाँकि, कर्मचारियों को ऐसी पेंशन योजना का कोई लाभ मिलने से पहले ही 2 दिसंबर 2004 को इसे हटा दिया गया। इससे कर्मचारियों के निहित या अर्जित अधिकार छीन लिये गये। विवाद इस बात पर उत्पन्न हुआ कि क्या 2 दिसम्बर 2004 की अधिसूचना द्वारा निरस्त किये जाने के बाद भी, 1999 की प्रणाली के तहत कर्मचारी को उनके प्रारंभिक चयन पर प्रदान किया गया आकस्मिक अधिकार बाध्यकारी था या अपरिवर्तनीय था। 

राजस्थान राज्य बनाम ए.एन. माथुर (2014)

राजस्थान राज्य बनाम ए.एन. माथुर (2014) के मामले में, विश्वविद्यालय, जो अधिनियम के प्रावधानों के तहत स्थापित एक स्वायत्त निकाय है, ने एक प्रस्ताव के माध्यम से पेंशन योजना शुरू की। यह पेंशन योजना विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 39 और संकल्प 39 के अनुसार कुलाधिपति या राज्य के राज्यपाल की पूर्व स्वीकृति के बिना शुरू की गई थी। इस परिस्थिति में चांसलर ने कभी भी अपनी स्वीकृति नहीं दी थी। तदनुसार, संबंधित प्राधिकारियों की पूर्व सहमति के बिना ऐसी पेंशन योजना शुरू करना अनधिकृत और अवैध माना गया। ऐसी पेंशन योजना के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी गई थी।

अपीलकर्ता के निवेदन के संबंध में, जिसमें चुनौती दिए गए संशोधन के औचित्य के रूप में बैंक की वित्तीय कठिनाइयों का हवाला दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि भविष्य में पेंशन अनुदान जारी रखना संभव नहीं हो सकता है, यह कहना पर्याप्त है कि नियम बनाने वाली संस्था को अधीनस्थ कानून के विशिष्ट भाग के परिणामों के बारे में पता था और एक बार जब बैंक ने पंजाब सरकार और सहकारी रजिस्ट्रार से अनुमोदन प्राप्त करने के बाद 1 अप्रैल, 1989 से पेंशन योजना शुरू करने का जानबूझकर निर्णय लिया, तो यह माना जा सकता है कि संबंधित अधिकारी उन 40 संसाधनों से अवगत थे जिनसे अपने सेवानिवृत्त कर्मचारियों को भुगतान करने के लिए धन बनाया जाना है। इसके अलावा, सिर्फ इसलिए कि बैंक बाद में अपने सेवानिवृत्त कर्मचारियों के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने में असमर्थ रहा, इस योजना को पूर्वव्यापी प्रभाव से वापस लेने का औचित्य नहीं बनता, जो उन कर्मचारियों के हितों के लिए हानिकारक होगा, जो न केवल इस योजना के सदस्य बने, बल्कि कम से कम 2010 तक नियमित रूप से अपनी पेंशन भी प्राप्त करते रहे, जब तक कि पक्षों के बीच असहमति उत्पन्न नहीं हो गई और मुकदमा नहीं हो गया। 

आलोचनात्मक विश्लेषण

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस लम्बे समय से लंबित मामले में निर्णय सुनाते समय प्रयुक्त तर्क का विस्तृत विवरण दिया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि अपीलकर्ता बैंक वित्तीय संसाधनों की कमी का उपयोग कर्मचारियों को उनके द्वारा अर्जित अधिकारों से वंचित करने के औचित्य के रूप में नहीं कर सकेगा, क्योंकि यह उनकी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का एक प्रमुख हिस्सा है। पेंशन योजना सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का आश्वासन है। ऐसे पेंशन लाभ कोई वरदान नहीं हैं और इन्हें बिना किसी वैध आधार के अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता बैंक को निर्देश दिया कि वह पिछली पेंशन योजना के तहत सेवानिवृत्त हुए अपने कर्मचारियों को पेंशन का भुगतान करके अपने दायित्वों को पूरा करे। 

जहां तक सेवारत कर्मचारियों का सवाल है, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि इस मामले में उनका कोई अधिकार नहीं है। अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि कार्यरत कर्मचारियों द्वारा व्यक्त की गई चिंताएं पूरी तरह से निराधार हैं, क्योंकि नियोक्ता और कर्मचारी का योगदान अधिनियम 1952 की कर्मचारी पेंशन योजना (ईपीएस) के तहत किया जाता है, जो वर्तमान में कार्यरत सभी कर्मचारियों पर लागू होता है। इसके अतिरिक्त, वे 1952 अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार पेंशन लाभ के लिए भी पात्र हैं। 

उनके अंशदान के भुगतान से संबंधित चिंताओं के संबंध में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादियों या सेवानिवृत्त लोगों को पेंशन का भुगतान करने के उद्देश्य से इसमें किसी भी तरह से संशोधन नहीं किया जाएगा, जो उस पेंशन योजना की शर्तों के तहत अपनी पेंशन प्राप्त करने के हकदार हैं जिससे वे संबंधित हैं। अपीलकर्ता बैंक उन सेवानिवृत्त कर्मचारियों को धनराशि अलग रखने तथा भुगतान करने के लिए जिम्मेदार होगा, जो उस योजना के तहत पेंशन प्राप्त करना चाहते हैं, जो उस समय प्रभावी थी, जब उन्होंने इसमें शामिल हुए थे तथा इसके तहत लाभ प्राप्त करना शुरू किया था। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी विवाद का एक अनिवार्य तत्व बताते हुए निम्नलिखित बातें कही; 

इससे पहले कि हम निर्णय सुनाएं, हम इस स्थिति से अनभिज्ञ नहीं हो सकते हैं कि कर्मचारियों की शिकायत है कि उन्हें 2013 से उनकी पेंशन का भुगतान नहीं किया जा रहा है, दिए गए समय में कुछ कर्मचारियों को बैंक द्वारा अंतरिम उपाय के रूप में शुरू किए गए एकमुश्त निपटान का लाभ दिया गया है, जो उनके अधिकारों के संरक्षण के अधीन था, लंबित मुकदमे में, किसी भी पक्ष की शिकायत को ध्यान में रखते हुए, बैंक की वित्तीय बाधाओं और कर्मचारियों के अधिकार जो बैंक पेंशन योजना के तहत पेंशन पाने के हकदार हैं, हम यह देखना उचित समझते हैं कि जहां तक पेंशन के उस तत्व के बकाया का सवाल है जिसके लिए सेवानिवृत्त कर्मचारी हकदार हैं, अपीलकर्ता बैंक अगले एक वर्ष में दिसंबर, 2022 के अंत तक 12 मासिक किस्तों में 31 दिसंबर, 2021 तक पेंशन के बकाया का भुगतान करने के लिए स्वतंत्र है और जिन कर्मचारियों ने किसी निश्चित समय पर एकमुश्त निपटान के तहत भुगतान स्वीकार कर लिया है, उन्हें जो भुगतान किया जा रहा है वह उनकी देय पेंशन के बकाया के खिलाफ समायोजन के लिए हमेशा खुला है।”

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि पीठ ने यह नोट करना उचित समझा कि जहां तक सेवानिवृत्त कर्मचारी के पेंशन बकाया का संबंध है, अपीलकर्ता बैंक 31 दिसंबर, 2021 तक किसी भी बकाया राशि का निपटान अगले वर्ष के दौरान बारह मासिक किस्तों में करने के लिए स्वतंत्र है, जो 31 दिसंबर, 2022 को समाप्त होगी। इसके अतिरिक्त, जिन कर्मचारियों ने किसी भी समय एकमुश्त निपटान के तहत भुगतान स्वीकार कर लिया है, वे हमेशा अपने लाभ को अपनी देय पेंशन के बकाया के विरुद्ध समायोजित करने के पात्र होते हैं। यदि अभी भी बकाया ऋण है तो उसे बारह मासिक किश्तों में चुकाया जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता बैंक की पेंशन योजना का हिस्सा बनने वाले सभी कर्मचारियों को एक ही समय में यानी जनवरी 2022 से पेंशन का भुगतान किया जाना है। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि अधिनियम 1955 की धारा 7A, 14B और 7Q के अनुसार किए गए आदेशों के विरुद्ध अपीलकर्ता बैंक की शिकायत के संबंध में अपील वर्तमान कार्यवाही में विवाद का विषय नहीं है। यदि अपीलकर्ता को लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है तो वह उचित कानूनी कार्रवाई की मांग कर सकता है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्वोक्त टिप्पणियों के साथ अपीलों को खारिज कर दिया। अदालत ने सभी लंबित आवेदनों को, यदि कोई हो, खारिज कर दिया। 

इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पूरे भारत में सहकारी बैंकों और उनमें काम करने वाले कर्मचारियों पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। यह मौजूदा योजनाओं या नियमों में किसी भी मनमाने संशोधन या संशोधन के खिलाफ नियोक्ताओं के लिए एक चेतावनी के रूप में कार्य करता है और एक संस्था के लिए निष्पक्षता, तर्कसंगतता और पूर्वव्यापीकरण के बुनियादी सिद्धांतों का पालन करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है। सहकारी बैंकों को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके कर्मचारियों की किसी भी लाभ योजना में कोई भी परिवर्तन भावी दृष्टि से हो तथा कर्मचारियों को पहले से दिए गए या निहित किसी भी अधिकार को समाप्त न किया जाए। 

मामले से संबंधित कानून

तर्कसंगतता और निष्पक्षता का सिद्धांत

प्राकृतिक न्याय के नियमों के एक प्रसिद्ध विद्वान, एबट बनाम सुलिवन (1952) ने एक बार कहा था;

“प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की घोषणा करना आसान है, लेकिन उनकी सटीक सीमा को परिभाषित करना बहुत आसान नहीं है” 

भारतीय संविधान तर्कसंगतता के सिद्धांत के दायरे के आधार के रूप में कार्य करता है। इसमें कहा गया है कि भेदभाव का आधार वैध होना चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 14 समाज के विभिन्न व्यक्तियों या समूहों के बीच स्वीकार्य वर्गीकरण बनाने के लिए आधार प्रदान करता है। इससे यह विचार प्रकट होता है कि सभी लोग एक दूसरे से अद्वितीय हैं। इस प्रकार किसी भी तुलनीय उपचार को अनुचित और अनुचित माना जाता है। इसके अनुसरण में, राज्य के लिए ऐसे अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करना आवश्यक हो जाता है। इसलिए, ‘समझदारीपूर्ण विभेद’ की अवधारणा विधायिका को ऐसे वर्गीकृत कानून पारित करने में सक्षम बनाती है जो उचित तरीके से कुछ वर्गीकृत समूहों की सुरक्षा को सक्षम बनाता है। 

उचित वर्गीकरण का आधार बोधगम्य विभेद की अवधारणा में पाया जाता है। इसमें ऐसे लोगों के समूह की पहचान करना शामिल है जिनकी विशेषताएं समान हों। दूसरे शब्दों में, यह अंतर इस तथ्य के आधार पर किया जा सकता है कि एक वर्गीकृत समूह के लोग अन्य समूहों से बाहर के लोगों से भिन्न होते हैं। इसके अलावा, उचित वर्गीकरण और ऐसे वर्गीकृत समूह के पक्ष में किसी नीति को अपनाने के पीछे के तर्क के बीच एक कारण संबंध स्थापित करने की आवश्यकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 के अनुसार, किसी वर्ग विशेष के आधार पर कोई कानून बनाने की अनुमति नहीं है। हालाँकि, यह संसद को कुछ लक्ष्यों को पूरा करने के लिए लोगों, चीजों और लेनदेन को वैध तरीके से वर्गीकृत करने से नहीं रोकता है। ऐसा वर्गीकरण महत्वपूर्ण, वास्तविक अंतरों पर आधारित होना चाहिए तथा यह बनावटी, मनमाना या टालमटोल वाला नहीं होना चाहिए। कानून का उद्देश्य जो है, उसके साथ निष्पक्ष और न्यायपूर्ण संबंध होना चाहिए। सौरभ चौधरी बनाम भारत संघ (2004) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तर्कसंगतता के वर्गीकरण के बारे में निम्नलिखित उल्लेख किया। इसमें कहा गया है कि तर्कसंगतता के वर्गीकरण में दो आवश्यकताएं शामिल हैं: 

  • वर्गीकरण बुद्धिमानीपूर्ण भिन्नता पर आधारित होना चाहिए जो समूहीकृत व्यक्तियों या वस्तुओं को उनसे अलग करता है जिन्हें समूह से बाहर रखा गया है। 
  • कार्रवाई के वांछित परिणाम के संबंध में असमानता उचित होनी चाहिए। वर्गीकरण और अधिनियम के उद्देश्य के आधार पर विभेदीकरण दो अलग-अलग बातें हैं। 
  • यह आवश्यक है कि अधिनियम के उद्देश्य और वर्गीकरण के आधार के बीच संबंध मौजूद हो। जब विधायिका द्वारा किए गए वर्गीकरण के लिए वैध आधार नहीं पाया जा सकता है, तो ऐसे भेदभाव को भेदभावपूर्ण और अनुचित घोषित किया जाएगा। 

अब भारत के संविधान के तहत निष्पक्षता की अवधारणा उससे कहीं अधिक व्यापक हो गई है जो पहले दिखती थी। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का संपूर्ण सार निष्पक्षता और समानता की अवधारणा पर आधारित है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत किसी भी विधायी, प्रशासनिक या न्यायिक आचरण में निष्पक्षता के सिद्धांत को स्थापित करने का एक साधन हैं। नीचे प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत दिया गया है जिसमें निष्पक्षता के सिद्धांत का सार समाहित है; 

‘नेमो जूडेक्स इन कॉसा सुआ, या पक्षपात के विरुद्ध नियम’ का सिद्धांत निष्पक्षता और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की अवधारणा के केंद्रीय स्तंभों में से एक है। पक्षपात को किसी पक्ष या विषय के विरुद्ध, चाहे सचेत हो या अचेतन, एक क्रियाशील पूर्वाग्रह के रूप में परिभाषित किया जाता है। परिणामस्वरूप, पूर्वाग्रह-विरोधी नियम ऐसे किसी भी कारक को हटा देता है जो किसी विशेष मामले में न्यायाधीश के फैसले को अनुचित रूप से प्रभावित कर सकता है। इस नियम के अनुसार, न्यायाधीश को निष्पक्ष होना चाहिए तथा केवल उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही निर्णय लेना चाहिए। मानव मनोविज्ञान के अनुसार, लोग शायद ही कभी ऐसे विकल्प चुनते हैं जो उनके सर्वोत्तम हित में न हों; परिणामस्वरूप, ऐसी परिस्थितियों में जहां उनका हित होता है, लोग निष्पक्ष निर्णय पर पहुंचने में असमर्थ होते हैं। इस प्रकार, कहावत बन जाती है: “कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का न्याय करने के योग्य नहीं है।” 

इसमें एक अन्य केंद्रीय सिद्धांत ऑडी अल्टरम पार्टम (निष्पक्ष सुनवाई का नियम) का सिद्धांत है।

संक्षेप में, इसमें कहा गया है कि किसी को भी सुनवाई का उचित अवसर दिए बिना न्यायालय द्वारा दंडित या दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसमें तीन लैटिन शब्द हैं। अधिकांश न्यायक्षेत्रों में, अधिकांश मामले निष्पक्ष सुनवाई के बिना ही अनसुलझे रह जाते हैं। इसमें यह संकेत दिया गया है कि मुकदमा निष्पक्ष तरीके से चलाया जाना चाहिए। इसके अलावा, किसी मुकदमे की कार्यवाही के दौरान, सभी पक्षों को सुनवाई का तथा अपने प्रासंगिक साक्ष्य प्रस्तुत करने का समान अवसर मिलना चाहिए। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि किसी को भी मनमाने ढंग से दंडित नहीं किया जाना चाहिए। यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। इसमें यह भी कहा गया है कि आरोपी को लगाए गए आरोपों के संबंध में पहले ही जानकारी उपलब्ध करा दी जानी चाहिए। इससे अभियुक्तों को उचित समय पर अपना बचाव तैयार करने में मदद मिलेगी। 

निष्पक्षता के सिद्धांत का आधार ‘समानता’ है। यह नैतिक विवेक और प्राकृतिक कानून के अनुसार सभी के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने के विचार पर आधारित है। संविधान का अनुच्छेद 14 समानता की गारंटी देता है, और मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि अनुच्छेद 14 समानता की धारणा को कायम रखता है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को प्रतिबिंबित करता है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने सूरज मॉल मोहता एंड कंपनी बनाम ए बनाम विश्वनाथ शास्त्री (1958) में निर्णय दिया कि आयकर अधिकारी की मूल्यांकन प्रक्रिया न्यायिक कार्यवाही के रूप में योग्य है। किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले, इन कानूनी कार्रवाइयों के लिए सभी पूर्वापेक्षाएं समानता और निष्पक्षता के सिद्धांत के अनुसार पूरी होनी चाहिए। आयकर अधिकारियों को यह अधिकार है कि वे किसी भी ऐसे रिकार्ड या दस्तावेज का निरीक्षण और समीक्षा कर सकते हैं जो करदाता के पास हो, तथा उसके बाद ही वे खंडन में कोई साक्ष्य मांग सकते हैं। आयकर अधिनियम में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है जो इस अधिकार को समाप्त करता हो। मनोहर लाल शर्मा बनाम प्रिंसिपल सेक्रेटरी एवं अन्य (2014) के मामले में यह माना गया कि जब कोई आरोप किसी अज्ञात शिकायत के माध्यम से लगाया जाता है, तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। ऐसी स्थितियों में, अभियुक्त को सुनवाई का उचित अवसर दिया जाना चाहिए। 

वैध अपेक्षा का सिद्धांत

“वैध अपेक्षा” सिद्धांत शब्द से तात्पर्य किसी भी ऐसी चीज से है जिसे कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से उचित या वैध रूप से अपेक्षा कर सकता है, जबकि उस व्यक्ति का उससे कोई कानूनी अधिकार जुड़ा नहीं है। किसी भी क़ानून के अनुसार “वैध अपेक्षा” शब्द की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है। किसी व्यक्ति की अनुकूल आदेश पाने की आशा या इच्छा, जो पूर्व उदाहरण से प्रेरित हो या वकील द्वारा प्रोत्साहित हो, वैध अपेक्षा के रूप में जानी जाती है। एक वैध अपेक्षा याचिकाकर्ता को न्यायिक समीक्षा का अनुरोध करने का आधार प्रदान करती है। 

इस सिद्धांत के व्यापक निहितार्थ हैं क्योंकि यह इस अवधारणा पर आधारित है कि एक वादा जो उचित है, उसे बाद में उस समय पूरा करने से इनकार नहीं किया जा सकता जब वादा पूरा किया जाना अपेक्षित हो। दूसरे शब्दों में, यह इस अवधारणा पर आधारित है कि वादा अवश्य निभाया जाना चाहिए। वैध अपेक्षा का सिद्धांत प्राकृतिक न्याय, सामाजिक न्याय, तर्कसंगतता, निष्पक्षता, गैर-मनमानी और प्रत्ययी कर्तव्य के सिद्धांतों में भी अपना आधार पाता है। वैध अपेक्षा के सिद्धांत के अनुसार, जब किसी व्यक्ति के पास कोई निश्चित उपचार प्राप्त करने का निजी कानूनी अधिकार नहीं होता है, तब भी उसे किसी प्रशासनिक निकाय से अधिकार प्राप्त करने की वैध अपेक्षा हो सकती है। वह उन परिस्थितियों में भी लाभ या विशेषाधिकार प्राप्त करने की आशा कर सकता है जिनमें उसके पास आवश्यक कानूनी अधिकार नहीं हैं। एक वादा या स्थापित प्रथा जिसके बारे में आवेदक को उचित अपेक्षा है, ऐसी अपेक्षा का आधार होगी, साथ ही यह अपेक्षा भी कि यह उस पर लागू होगी। यदि किसी व्यक्ति की वैध अपेक्षा पूरी नहीं होती है तो न्यायालय या न्यायाधिकरण ऐसे व्यक्ति का बचाव कर सकता है, तथा ऐसे नियमों को लागू कर सकता है जो प्राकृतिक न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों के समतुल्य हों। 

भारत में, इस सिद्धांत को ‘मद्रास शहर वाइन मर्चेंट्स बनाम तमिलनाडु (1994)’ के मामले में और विकसित किया गया, जिसमें इस सिद्धांत को लागू करने के लिए आवश्यक तत्व दिए गए। ये आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं: 

  • यदि प्रशासनिक निकाय द्वारा कोई स्पष्ट वादा या प्रतिनिधित्व किया गया हो। 
  • ऐसा स्पष्ट वादा या प्रतिनिधित्व स्पष्ट एवं अस्पष्ट था।
  • अतीत में एक ऐसी सुसंगति प्रथा अस्तित्व में थी जिस पर व्यक्ति को भरोसा था कि वह एक ही तरीके से कार्य करने की उचित उम्मीद रखता है। 

हालाँकि, ‘भारतीय खाद्य निगम बनाम कामधेनु मवेशी चारा उद्योग (1992)’ के मामले में, भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने वैध अपेक्षा के सिद्धांत के कथित उल्लंघन के मामलों में न्यायिक समीक्षा के लिए न्यायालय की शक्ति के बीच एक सावधानीपूर्ण दृष्टिकोण और संतुलन दृष्टिकोण के रूप में निम्नलिखित को देखा है:

“सार्वजनिक कानून में कोई अनियंत्रित विवेकाधिकार नहीं है। एक सार्वजनिक प्राधिकरण के पास शक्तियां केवल सार्वजनिक भलाई के लिए उपयोग करने के लिए होती हैं। इससे निष्पक्ष रूप से कार्य करने तथा ऐसी प्रक्रिया अपनाने का कर्तव्य निर्धारित होता है जो ‘कार्रवाई में निष्पक्षता’ हो। अच्छे प्रशासन के एक भाग के रूप में इस दायित्व का समुचित पालन करने से प्रत्येक नागरिक में यह उचित या वैध अपेक्षा उत्पन्न होती है कि राज्य और उसके साधनों के साथ उसके अंतःक्रिया में उसके साथ निष्पक्ष व्यवहार किया जाएगा, तथा यह तत्व राज्य की सभी कार्रवाइयों में निर्णय लेने की प्रक्रिया का एक आवश्यक घटक बन जाता है। गैर-मनमानी की इस आवश्यकता को पूरा करना एक राज्य कार्रवाई है, इसलिए, निर्णय से प्रभावित होने वाले व्यक्तियों की उचित या वैध अपेक्षाओं पर विचार करना और उन्हें उचित महत्व देना आवश्यक है अन्यथा शक्ति के प्रयोग में अनुचितता किसी दिए गए मामले में निर्णय की सद्भावना को प्रभावित करने के अलावा शक्ति का दुरुपयोग या अधिकता हो सकती है। इस प्रकार लिया गया निर्णय मनमानेपन के आधार पर चुनौती के लिए खुला रहेगा। कानून का शासन सत्ता के प्रयोग में विवेकाधिकार को पूरी तरह से समाप्त नहीं करता है, क्योंकि यह अवास्तविक है, लेकिन न्यायिक समीक्षा द्वारा इसके प्रयोग पर नियंत्रण का प्रावधान करता है।” 

मामले के मुद्दों के संबंध में संवैधानिक अधिकार

अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 21

भारत का सर्वोच्च न्यायालय प्राकृतिक न्याय के सामान्य सिद्धांतों पर जोर देता है। इसमें उल्लेख किया गया है कि पूर्वव्यापी प्रभाव वाला कोई भी संशोधन ऐसा नहीं होगा जो किसी व्यक्ति के निहित या उपार्जित अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले। ऐसा कोई भी पूर्वव्यापी संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 द्वारा संरक्षित अधिकारों का उल्लंघन माना जाएगा। वर्तमान मामले में, अपीलार्थी बैंक की पेंशन योजना 1 अप्रैल, 1989 को स्थापित की गई थी। कर्मचारियों को अपनी इच्छानुसार पेंशन योजना में शामिल होने का विकल्प दिया गया। कई कर्मचारियों ने उपर्युक्त पेंशन योजना का विकल्प चुना। इसके अनुसार, प्रतिवादी कर्मचारियों को 2010 तक बिना किसी रुकावट के पेंशन भुगतान किया गया। 2010 के बाद बैंक को पेंशन भुगतान करने में वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ा। इस कारण पीड़ित कर्मचारियों ने उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे इस तथ्य पर भी गौर किया कि बैंक ने बाद में 11 मार्च 2014 को संशोधन के माध्यम से नियम 15(ii) को हटाकर पेंशन योजना को वापस ले लिया। यह संशोधन 1 अप्रैल 1989 को लागू किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि पीड़ित कर्मचारियों को पेंशन पाने का अधिकार है। अदालत ने आगे कहा कि मौजूदा पेंशन योजना में कोई भी संशोधन जो पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू हो, जिससे कर्मचारियों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े, निस्संदेह संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 दोनों का उल्लंघन है। 

अपनी टिप्पणी को स्पष्ट करने के लिए, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि इस प्रकार का पूर्वव्यापी आवेदन कर्मचारियों की ‘वैध अपेक्षा’ के विरुद्ध है। अदालत ने कहा कि जब कोई व्यक्ति किसी सेवा या रोजगार में शामिल होता है, तो सेवा की शर्तों के अनुसार रोजगार से मिलने वाले लाभों के संबंध में कर्मचारियों में एक निश्चित स्तर की अपेक्षाएं पैदा हो जाती हैं। अदालत ने एक उदाहरण देते हुए कहा कि किसी संगठन का वरिष्ठ कर्मचारी अपने अनुभव और योग्यता के आधार पर उच्च पद पर पदोन्नति की उम्मीद कर सकता है। इसी प्रकार, कोई कर्मचारी जो पेंशन लाभ के लिए किसी विशेष योजना के तहत सेवा में प्रवेश करता है, वह उचित समय पर ऐसे लाभ प्राप्त होने की उम्मीद कर सकता है। हालांकि, यदि पेंशन लाभ, पदोन्नति या सेवानिवृत्ति की आयु के संबंध में ऐसी अपेक्षा में कोई परिवर्तन होता है, तो ऐसा परिवर्तन कर्मचारियों के हित के विरुद्ध नहीं होना चाहिए, चाहे वे कार्यरत हों या सेवानिवृत्त हों। 

साथ ही, यदि किसी कर्मचारी को उसके पूरे कार्यकाल के दौरान पहले से ही कोई लाभ मिल रहा हो, तो उसे पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू करने के लिए किसी नियम में संशोधन करके उसे वापस ले लिया जाता है, जो निस्संदेह उन कर्मचारियों के अधिकारों का उल्लंघन है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। 

निष्कर्ष

सेवा कानून के क्षेत्र में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय एक उल्लेखनीय मिसाल कायम करता है, विशेष रूप से सहकारी बैंक के कर्मचारियों के लिए पेंशन योजनाओं के संबंध में है। यह निर्णय कर्मचारियों के निहित या अर्जित अधिकारों को कायम रखने तथा यह सुनिश्चित करने में न्यायपालिका के समर्पण को दर्शाता है कि पूर्वव्यापी संशोधनों के कारण अर्जित लाभों से अनुचित रूप से वंचित न किया जाए। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत को रेखांकित किया कि ऐसे संशोधन जो पूर्वव्यापी प्रभाव रखते हैं और कर्मचारियों को पहले प्राप्त लाभों को समाप्त करते हैं, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निहित अधिकारों और उचित अपेक्षाओं के बीच सरल तरीके से अंतर स्पष्ट किया। रोजगार के समय प्रभावी विनियमों के अनुसार, कर्मचारी उचित रूप से उन लाभों की अपेक्षा कर सकते हैं, जिनकी अपेक्षा उन्होंने रोजगार की शर्तों और नियमों के अनुसार की थी, ऐसी स्थिति में, ऐसी उचित अपेक्षा का भी सम्मान किया जाना चाहिए। ऐसे लाभों को पूर्वव्यापी रूप से हटाना उन कर्मचारियों के लिए अनुचित और मनमाना है, जिन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति की योजना इन उचित अपेक्षाओं के अनुरूप बनाई थी। यह मामला न्यायपालिका की जिम्मेदारी का एक उदाहरण है कि वह विधायी और प्रशासनिक उपायों की बारीकी से जांच करे जो कर्मचारियों के लिए नुकसानदेह रोजगार की स्थितियों में पूर्वव्यापी परिवर्तन करते हैं। 

यह निर्णय एक मिसाल कायम करता है जिसके लिए ऐसे कृत्यों की संवैधानिकता का गहन विश्लेषण आवश्यक है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नियम 15(ii) में पूर्वव्यापी संशोधन को गैरकानूनी घोषित करते हुए इस धारणा की पुनः पुष्टि की है कि संचित लाभों को प्रभावित करने वाले कानून या संशोधनों को तर्कसंगतता और निष्पक्षता की कसौटी पर खरा उतरना होगा। यह निर्णय पूरे भारत में सहकारी बैंकों और उनके लिए काम करने वाले लोगों को प्रभावित करेगा। यह संगठनों के लिए समानता और गैर-पूर्वव्यापी मूल्यों को बनाए रखने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है और कर्मचारी भत्तों में जानबूझकर परिवर्तन के खिलाफ चेतावनी के रूप में कार्य करता है। सर्वोच्च न्यायालय, अर्थात देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियम 15 (ii) के पूर्वव्यापी संशोधन की संवैधानिक वैधता को अमान्य करार देने के निर्णय में उचित अपेक्षा और निष्पक्षता के सिद्धांतों को कायम रखते हुए कहा गया है कि ऐसे कानून या संशोधन जिनका प्रभाव उपार्जित लाभ के लिए हानिकारक है, उन्हें तर्कसंगतता और निष्पक्षता की कसौटी पर खरा उतरना होगा। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिसंबर 2021 तक की पेंशन की बकाया राशि का भुगतान किश्तों में करने के आदेश से प्रभावित सेवानिवृत्त कर्मचारियों को तत्काल राहत मिली है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के इस व्यापक दृष्टिकोण ने न केवल बैंक की वित्तीय बाधाओं के मुद्दे को संबोधित किया है, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया है कि सेवानिवृत्त कर्मचारियों के अधिकार सुरक्षित रहें। 

इसलिए, ‘पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां और अन्य (2022)’ सेवा कानून और कर्मचारियों के अधिकारों के संदर्भ में एक ऐतिहासिक निर्णय है। इससे यह स्पष्ट संदेश जाता है कि न्यायपालिका कर्मचारियों के अधिकारों और लाभों को कमजोर करने के किसी भी प्रयास को बर्दाश्त नहीं करेगी, जो उन्होंने रोजगार की शर्तों के तहत अपने अधिकारों के माध्यम से वैध रूप से अर्जित किए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले पूर्वव्यापी संशोधन को रद्द करके और यह मानते हुए कि बैंक पर वित्तीय बोझ को बैंक के कर्मचारियों के साथ पहले से निहित या अर्जित अधिकारों को छीनने वाले फैसले को संशोधित करने के लिए एक वैध आधार के रूप में नहीं लिया जा सकता है, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर लोगों के संवैधानिक अधिकार के संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका की पुष्टि की है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या किसी कानून या नियम का पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होना भारत के संविधान के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अनुसार संवैधानिक है?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने “पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य, (2022)” के मामले में माना कि पहले से दिए गए अधिकार में कोई भी संशोधन या दूसरे शब्दों में, निहित या उपार्जित अधिकार को ऐसे निहित या उपार्जित अधिकारों को छीनने के तरीके से संशोधित नहीं किया जा सकता है। मौजूदा नियमों में ऐसा कोई भी संशोधन असंवैधानिक होगा तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 19 का उल्लंघन होगा। 

पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य (2022) मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक के सेवानिवृत्त कर्मचारियों पर क्या प्रभाव पड़ा?

राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक के सेवानिवृत्त कर्मचारियों के संबंध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से उनकी पेंशन भुगतान बहाल हो गया। न्यायालय ने बैंक को आदेश दिया कि वह प्रभावित सेवानिवृत्त कर्मचारियों को दिसंबर 2021 तक पेंशन बकाया का भुगतान चरणों में करे, जिससे उन्हें तत्काल वित्तीय राहत मिल सके। इस फैसले से कर्मचारियों को उनके पेंशन भुगतान का हक बरकरार रखा गया। 

“पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य (2022)” मामले में मुख्य विवाद क्या था?

इस मामले में मुख्य प्रश्न पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक द्वारा अपनी पेंशन योजना में किए गए पूर्वव्यापी संशोधन की संवैधानिकता से संबंधित था, जिसने सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन के भुगतान को अनिवार्य रूप से समाप्त कर दिया था। न्यायालय ने इस बात पर विचार किया कि क्या यह परिवर्तन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में प्रदत्त कर्मचारियों के अधिकारों का उल्लंघन करता है। 

“पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य (2022)” मामले में अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संदर्भित संवैधानिक सिद्धांत क्या हैं?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत समानता और जीवन के अधिकार के मूल सिद्धांतों का उल्लेख किया है। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि एक बार प्राप्त हो जाने के बाद, इन संवैधानिक गारंटियों का उल्लंघन किए बिना इन्हें मनमाने ढंग से नहीं छीना जा सकता है। निर्णय में निष्पक्षता के सिद्धांत, गैर-पूर्वव्यापीकरण (नॉन रेट्रोस्पेक्टिविटी) के सिद्धांत और वैध अपेक्षाओं के संरक्षण पर महत्वपूर्ण जोर दिया गया है।

भारत में सहकारी बैंकों के लिए इस फैसले के क्या बड़े निहितार्थ हैं?

इस निर्णय के भारतीय सहकारी बैंकों पर व्यापक प्रभाव होंगे, जैसे कि अपने कर्मचारियों के निहित अधिकारों को बनाए रखने का स्पष्ट कर्तव्य तथा ऐसे पूर्वव्यापी संशोधनों से बचना, जो ऐसे अधिकारों को प्रभावित कर सकते हों। सहकारी बैंकों के अनुसार, कर्मचारी लाभ या पेंशन योजनाओं में कोई भी संशोधन भावी और संवैधानिक आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। यह निर्णय एक मिसाल कायम करता है जो अनुचित प्रशासनिक कृत्यों से कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करने की न्यायपालिका की जिम्मेदारी पर बल देता है। 

निहित अधिकार वाक्यांश का क्या अर्थ है, तथा इस विशेष मामले में वे कितने महत्वपूर्ण हैं?

निहित अधिकार वे हैं जो प्रदान किये जा चुके हैं और अब अपरिवर्तनीय हैं। इस मामले में, निहित अधिकार पेंशन लाभों से संबंधित हैं, जो वर्तमान नियमों के अनुसार, कर्मचारी सेवानिवृत्ति पर पाने के हकदार थे। क्योंकि एक बार दिए जाने के बाद, इन अधिकारों को रद्द नहीं किया जा सकता या इस तरह से नहीं बदला जा सकता कि यह कर्मचारियों के लिए हानिकारक हो, जो उन्हें बेहद महत्वपूर्ण बनाता है। कर्मचारियों के लिए न्याय और कानूनी स्पष्टता सुनिश्चित करने के लिए इन अधिकारों की रक्षा करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने निर्धारित किया था कि इन निहित अधिकारों को हटाने वाला पूर्वव्यापी संशोधन असंवैधानिक था। 

क्या “पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां और अन्य (2022)” मामले में दिया गया फैसला कर्मचारियों को मिलने वाली पेंशन के अलावा अन्य लाभों पर भी लागू होगा?

हां, इस निर्णय में निर्धारित नियम न केवल पेंशन पर बल्कि रोजगार संबंधी विभिन्न लाभों पर भी लागू होते हैं। रोजगार कानून से जुड़े विभिन्न मुद्दों को प्रक्रियागत निष्पक्षता बनाए रखने, वैध अपेक्षाओं की सुरक्षा करने तथा निहित अधिकारों को संरक्षित करने पर सर्वोच्च न्यायालय के जोर से लाभ मिल सकता है। नियोक्ताओं को एक निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए तथा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके द्वारा किया गया कोई भी परिवर्तन उनके कर्मचारियों के निहित अधिकारों को पूर्वव्यापी रूप से प्रभावित न करे, चाहे वह ग्रेच्युटी, भविष्य निधि, पदोन्नति या अन्य अधिकारों से संबंधित हो। 

“पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य (2022)” के मामले में परिलक्षित प्रक्रियात्मक निष्पक्षता का क्या महत्व है?

“पंजाब राज्य सहकारी कृषि विकास बैंक लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार सहकारी समितियां एवं अन्य (2022)” मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में प्रक्रियात्मक निष्पक्षता एक प्रमुख कारक थी। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सेवा की शर्तों और नियमों में सभी संशोधन, विशेषकर वे जो निहित अधिकारों को प्रभावित करते हैं, उचित प्रक्रिया का पालन किए जाने चाहिए। ऐसे संशोधन करने से पहले पर्याप्त सूचना देना, प्रतिनिधित्व का अवसर देना तथा निष्पक्ष सुनवाई करना आवश्यक है। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि बैंक द्वारा पेंशन योजना में पूर्वव्यापी संशोधन मनमाना और गैरकानूनी था, क्योंकि बैंक ने इन प्रक्रियागत सुरक्षाओं की अवहेलना की थी। 

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने “वैध अपेक्षा” के अर्थ की व्याख्या कैसे की?

इस उदाहरण में, “वैध अपेक्षा” शब्द से तात्पर्य उन अपेक्षाओं से है जो श्रमिकों को उनकी भर्ती के समय लागू विनियमों के आधार पर उनके पेंशन लाभों के बारे में थीं। सर्वोच्च न्यायालय ने उन श्रमिकों के लिए इन वादा किए गए पुरस्कारों को पूरा करने की उचित उम्मीदों को मान्यता दी, जिन्होंने इनके आसपास अपनी सेवानिवृत्ति की योजना बनाई थी। सेवा कानून के तहत उचित अपेक्षाओं की सुरक्षा को पूर्वव्यापी परिवर्तन द्वारा मजबूत किया गया, जिसमें इन अपेक्षाओं की अनदेखी की गई, जिसे प्रशासनिक शिष्टाचार और न्याय का उल्लंघन माना गया है। 

संदर्भ

 

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