अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ एवं अन्य (2011)

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यह लेख Gauri Gupta द्वारा लिखा गया है। लेख का उद्देश्य अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ (2011) के ऐतिहासिक फैसले का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करना है। यह मामले के तथ्यों, न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत मुद्दों, अपीलकर्ता और प्रतिवादी के तर्क, मामले में निर्धारित कानूनों और मिसालों और भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले पर प्रकाश डालता है और विस्तार से बताता है। ऐतिहासिक निर्णय कानून के इस महत्वपूर्ण प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल है। दूसरे शब्दों में, यह इस सवाल के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या किसी व्यक्ति को अपना जीवन समाप्त करने की स्वायत्तता है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh के द्वारा किया गया है। 

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परिचय

मौत बहुत खूबसूरत होगी। नरम भूरी धरती पर लेटना, सिर के ऊपर घास लहराते हुए, और शांति को सुनना। न तो कल हो और न ही आने वाला कल समय को भूल जाना, जीवन को माफ कर देना, शांति से रहना– ऑस्कर वाइल्ड

भारत का संविधान, अनुच्छेद 21 के तहत सभी नागरिकों को “जीवन के अधिकार” की गारंटी देता है। इस बात पर हमेशा से बहस होती रही है कि क्या “मरने के अधिकार” को संविधान के अनुच्छेद 21 के प्रावधानों में पढ़ा जा सकता है या नहीं।

जीवन का अधिकार एक पवित्र मौलिक अधिकार है और इसमें कई अन्य मौलिक अधिकार शामिल हैं, जैसे आजीविका का अधिकार, स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण का अधिकार, गोपनीयता का अधिकार, सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल का अधिकार, आदि। महत्वपूर्ण चिकित्सा विज्ञान में प्रगति ने इस बात पर सवाल उठाया है कि क्या किसी व्यक्ति को सम्मान और गरिमा के साथ मरने का अधिकार है। इसके अलावा, इसने रोगी के परिवार के सदस्यों द्वारा ऐसे अधिकारों के दुरुपयोग के बारे में भी चिंता जताई है। भारत में अदालतों ने 2018 तक किसी व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने के अधिकार को मान्यता नहीं दी थी।

एक रिट याचिका भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में सुश्री पिंकी विरानी द्वारा दायर की गई थी, जो अरुणा रामचंद्र शानबाग की दोस्त थीं, जो एक लगातार वर्धी  (वेजिटेटिव) अवस्था में थी, जब उनका यौन उत्पीड़न किया गया था और उनका गला घोंटा गया था और वे अंधी, बहरी और लकवाग्रस्त (पैरालाइज) हो गई थी।

अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ एवं अन्य (2011), के ऐतिहासिक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु (यूथेनेशिया) को वैध कर दिया और मरने के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का व्युत्पन्न (डेरिवेटिव) माना। भारत में पहली बार इस अधिकार को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई। इस निर्णय ने भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु की नींव रखी, इसे सक्रिय इच्छामृत्यु से अलग किया और नियम और दिशानिर्देश निर्धारित किए जिनके तहत निष्क्रिय इच्छामृत्यु प्रदान की जा सकती है।

यह निर्णय भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के दायरे में गरिमा के साथ मरने के मौलिक अधिकार को निर्धारित करने के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल के रूप में कार्य करता है और भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है।

मरने और इच्छामृत्यु का अधिकार

इच्छामृत्यु को अंग्रेजी में यूथेनेशिया कहते है जिसे ग्रीक शब्दों “यू” और “थैनाटोस” से उत्पन्न किया गया है, जिसका अर्थ क्रमशः “अच्छा” और “मृत्यु” होता है। इस प्रकार, जब अंग्रेजी में अनुवाद किया जाता है तो इच्छामृत्यु का अर्थ “अच्छी मृत्यु” या “दया हत्या” होता है। इच्छामृत्यु दो प्रकार की होती है: सक्रिय इच्छामृत्यु और निष्क्रिय इच्छामृत्यु।

सक्रिय या स्वैच्छिक इच्छामृत्यु वह है जहां रोगी की मृत्यु से पहले उससे सहमति ली जाती है। दूसरी ओर, निष्क्रिय या अनैच्छिक इच्छामृत्यु के मामले में, रोगी के खराब स्वास्थ्य और पीड़ा के कारण सहमति उपलब्ध नहीं है या प्राप्त नहीं की जा सकती है। 

समय-काल से, भारत अपने धार्मिक विश्वासों और नैतिकता के लिए जाना जाता है। किसी व्यक्ति के जीवन को जानबूझकर समाप्त करना हमेशा हमारी संस्कृति और धर्म के नैतिकता के खिलाफ एक कार्य के रूप में देखा गया है।

समकालीन समय में, तकनीकी प्रगति ने स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में महत्वपूर्ण विकास किया है, जिससे जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि हुई है और औसत जीवन प्रत्याशा बढ़ गई है। हालांकि, इन विकासों ने उनके दुखों को भी बढ़ा दिया है और इस प्रकार, एक वरदान के बजाय एक अभिशाप के रूप में माना जाता है।

इच्छामृत्यु पर दो परस्पर विरोधी विचारधाराएँ है। पहली विचारधारा सुझाव देती है कि निष्क्रिय इच्छामृत्यु जीवन की पवित्रता को कमजोर करती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस संप्रदाय के समर्थकों का मानना ​​है कि मानव जीवन को हर कीमत पर संरक्षित और सम्मानित किया जाना चाहिए। यह ईश्वर का उपहार है और केवल ईश्वर को ही इसे किसी व्यक्ति से छीनने का अधिकार है। दूसरी ओर, कुछ व्यक्ति दृढ़ता से मानते हैं कि जैसा कि संविधान प्रत्येक नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, उसे गरिमा और सम्मान के साथ मरने का भी अधिकार देना चाहिए ताकि उनके दर्द और पीड़ा का अंत हो सके।

सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में ऐतिहासिक मामले कॉमन कॉज़ बनाम भारत संघ (2018) में, निष्क्रिय इच्छामृत्यु की वैधता पर चर्चा की और कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में गरिमा के साथ मरने का अधिकार शामिल है। इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि असाध्य रूप से बीमार मरीजों से जीवन समर्थन वापस लेना यह सुनिश्चित करने के लिए प्रासंगिक है कि वे गरिमा के साथ मरें।  अदालत ने ‘जीवित इच्छा’ (लिविंग विल) की अवधारणा पर भी चर्चा की। जीवित इच्छा  एक ऐसा दस्तावेज है जो भविष्य में अंतिम बीमारी के मामले में रोगी की सहमति प्रदान करता है, विशेष रूप से उन परिदृश्यों में जहां रोगी जीवन बदलने वाले निर्णयों के लिए सहमति देने की स्थिति में नहीं है। इस दस्तावेज को रोगी की जीवित सहमति माना जाता है।

बंबई उच्च न्यायालय ने मारुति श्रीपति दुबल बनाम महाराष्ट्र राज्य (1986) के मामले में देखा कि मरने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे में आता है। न्यायालय ने आगे यह भी कहा की भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 309 की प्रकृति इस हद तक असंवैधानिक है कि यह अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का उल्लंघन है क्योंकि यह आत्महत्या के प्रयास का प्रावधान करता है। वही प्रकृति के विरुद्ध मृत्यु करना है। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जीवन का अधिकार प्रकृति में सीमित नहीं है और इसके दायरे में विभिन्न अन्य अधिकारों को भी शामिल किया गया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई व्यक्ति मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सके। माननीय न्यायालय ने दोहराया कि किसी के जीवन को समाप्त करना प्रकृति के विरुद्ध किसी व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने के बराबर नहीं हो सकता है, भले ही व्यक्ति दर्द से पीड़ित हो। 

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 309 को रद्द कर दिया, जिससे आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया। इसके पीछे तर्क यह है कि जीवन का अधिकार एक प्राकृतिक अधिकार है, लेकिन आत्महत्या प्रकृति के विपरीत किसी व्यक्ति के जीवन को समाप्त करना है, जिससे जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है। परिणामस्वरूप, आत्महत्या करके जीवन समाप्त करना या खत्म कर देना जीवन की सुरक्षा और स्वतंत्रता के अधिकार के साथ नहीं पढ़ा जा सकता है।

इसके अलावा,सर्वोच्च न्यायालय, ने पी. रथिनम बनाम भारत संघ (1994), के मामले में न जीने के अधिकार को मान्यता दी और इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे में शामिल किया। 

हालाँकि, ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य (1996) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पी. रथिनम मामले के फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है। हालांकि, इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार और गरिमा और सम्मान के साथ मरने का अधिकार शामिल है। 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मरने के अधिकार और गरिमा के साथ मरने के अधिकार के बीच एक बुनियादी अंतर है। पहले का तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति का प्राकृतिक जीवनकाल छीन लिया जाता है, जिससे अप्राकृतिक मृत्यु हो जाती है। दूसरी ओर, गरिमा के साथ मरने का अधिकार उन मामलों में मृत्यु की प्रक्रिया को तेज करने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है जहां मरीज स्थायी वर्धी अवस्था या कोमा में हैं या जहां उनकी स्थिति में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। इस प्रकार, असाध्य रोगों से पीड़ित रोगियों के आजीवन कष्ट और दर्द को समाप्त करने के लिए निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति देकर सम्मान के साथ मरने का अधिकार दिया जा सकता है। 

अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ (2011) का ऐतिहासिक फैसला निष्क्रिय इच्छामृत्यु के इर्द-गिर्द घूमता है और उसी के संबंध में दिशा निर्देश देता है। जबकि सक्रिय इच्छामृत्यु भारत में अवैध है,निष्क्रिय इच्छामृत्यु को भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर और इस मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों का पालन करके प्रशासित किया जा सकता है।

मामले का विवरण

मामले का शीर्षक

अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ एवं अन्य

फैसले की तारीख

7 मार्च 2011

मामले के पक्ष

अपीलकर्ता 

अरुणा रामचन्द्र शानबाग

प्रतिवादी

भारत संघ, महाराष्ट्र राज्य, डीन – किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल मुंबई

अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता

विद्वान वरिष्ठ वकील श्री शेखर नफाडे,

न्यायमित्र

विद्वान वरिष्ठ वकील श्री टी. आर. अंध्यारुजिना

प्रतिवादियों की ओर से वकील

श्री वाहनवती, भारत के महाधिवक्ता (अटॉर्नी जनरल ) 

डीन, केईएम अस्पताल, मुंबई के लिए विद्वान वरिष्ठ वकील श्री पल्लव सिसौदिया, 

महाराष्ट्र राज्य के लिए विद्वान वकील श्री चिन्मय खलदकर, 

उद्धरण

2011 का डब्ल्यूपी  (आपराधिक क्रमांक) 115

समतुल्य उद्धरण

एआईआर 2011 सर्वोच्च न्यायालय 1290

मामले का प्रकार

भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत आपराधिक मूल अधिकार क्षेत्र

अदालत

भारत का सर्वोच्च न्यायालय

शामिल प्रावधान और क़ानून

भारत का संविधान, 1950 की अनुच्छेद 14 

भारत के संविधान 1950 की अनुच्छेद 21,

भारत के संविधान, 1950 की अनुच्छेद 32

भारतीय दंड संहिता, 1860 की  धारा 306

भारतीय दंड संहिता, 1860 की  धारा 309 

पीठ

न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्र और न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू

फैसले के लेखक 

न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू

मामले के तथ्य

ऐतिहासिक निर्णय के तथ्यात्मक मैट्रिक्स को निम्नलिखित बिंदुओं में संक्षेपित किया जा सकता है। 

  1. याचिकाकर्ता, अरुण रामचंद्र शानबाग, किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल, परेल, मुंबई में स्टाफ नर्स थी। 27 नवंबर 1973 को याचिकाकर्ता पर अस्पताल में एक सफाई कर्मचारी ने हमला किया था। उसने उसके गले में चेन लपेट दी और उसके साथ यौन उत्पीड़न करने की कोशिश की। हालांकि, जब उसे पता चला कि उसे मासिक धर्म हो रहा है तो वे रुक गये। उसने उसके साथ दुष्कर्म किया और उसके गले में कुत्ते की चेन घुमा दी, जिससे वह बेहोश हो गई।
  2. अगले दिन, अस्पताल के एक अन्य स्टाफ सदस्य, एक सफाईकर्मी, ने उसे अस्पताल के फर्श पर खून से लथपथ पाया। 
  3. यह आरोप लगाया गया कि जब उसका गला घोंटा गया तो उसके मस्तिष्क में ऑक्सीजन की आपूर्ति बंद हो गई, जिससे उसका मस्तिष्क क्षतिग्रस्त हो गया। अस्पताल के डॉक्टरों ने यह भी संकेत दिया कि कॉर्टेक्स और मस्तिष्क के अन्य हिस्सों को काफी नुकसान हुआ है। इसके अलावा, उसे सर्वाइकल कॉर्ड की चोट के साथ ब्रेन स्टेम संलयन चोट भी थी।
  4. घटना के 36 साल बाद, उनकी दोस्त, सुश्री पिंकी विरानी ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर की। याचिका में सुश्री अरुणा शानबाग को उनकी अपाहिज स्थिति के कारण इच्छामृत्यु की अनुमति देने का अनुरोध किया गया था। याचिका में आगे बताया गया कि वह स्थायी रूप से निष्क्रिय अवस्था में थी। उसे अपने परिवेश का कोई एहसास नहीं था और वह वस्तुतः एक मृत व्यक्ति थी। 
  5. याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि सुश्री अरुणा शानबाग को उनके जीवन-सहायक उपचारों को समाप्त करके और उन्हें जीवित रखने वाली आवश्यक दवा और अन्य आवश्यक चीजें वापस लेकर शांतिपूर्वक जाने की अनुमति दी जाए। याचिका में उसके दर्द और पीड़ा को खत्म करने की प्रार्थना की गई।
  6. इसके बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी गहन जांच करने और अरुणा की स्थिति की एक विस्तृत रिपोर्ट अदालत को सौंपने के लिए तीन प्रतिष्ठित डॉक्टरों की एक टीम नियुक्त की।

मामले का मुद्दा

निम्नलिखित मुद्दे एक रिट याचिका के माध्यम से उठाए गए थे, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर की गई थी:

  1. क्या स्थायी वर्धी अवस्था में रहने वाले व्यक्ति से जीवन समर्थन वापस लेना वैध और स्वीकार्य है?
  2. क्या ऐसे मामलों में ऐसे रोगी की जीवित इच्छा का सम्मान किया जाएगा?
  3. क्या रोगी के परिवार या निकटतम रिश्तेदार को जीवन-सहायक प्रणालियों को वापस लेने का अनुरोध करने का अधिकार है, यदि रोगी स्वयं यह निर्णय नहीं ले सकता है?

तर्क

याचिकाकर्ता का तर्क

सुश्री अरुणा रामचन्द्र शानबाग की ओर से सुश्री पिंकी विरानी द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर की गई थी। याचिका में गरिमा के साथ मरने के अधिकार के संबंध में एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अंतर्निहित है। 

याचिकाकर्ता के वकील ने अपने तर्कों के समर्थन में निम्नलिखित मामले सामने रखे। उन्होंने विक्रम देव सिंह तोमर बनाम बिहार राज्य (1988), के फैसले पर भरोसा किया जिसमें अदालत ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन की गुणवत्ता का हकदार है जो उसके मानवीय व्यक्तित्व के अनुरूप हो। इसका तात्पर्य यह है कि जीवन के अधिकार में सम्मानजनक और गुणवत्तापूर्ण जीवन का अधिकार शामिल है। दूसरे शब्दों में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक नागरिक को न केवल जीवन का अधिकार है बल्कि ऐसे जीवन का भी अधिकार है जिसमें गुणवत्ता हो और जो मानव व्यक्तित्व के अनुरूप हो। किसी व्यक्ति को ऐसा जीवन नहीं जीना चाहिए जहां उसकी स्थिति ऐसी हो जाए कि उसका खुद पर कोई नियंत्रण न हो और उसे अपने परिवेश का कोई एहसास न हो।

इसके अलावा, वकील ने मामले में ऐतिहासिक फैसले ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य (1996) पर भरोसा किया। जिसमें अदालत ने स्थापित किया कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार भी शामिल है। वकील ने उन मामलों में सम्मान के साथ मरने के अधिकार के केंद्रीय मुद्दे को संबोधित करने के महत्व को रेखांकित किया, जहां व्यक्ति स्थायी रूप से निष्क्रिय अवस्था में हैं।

वकील ने गरिमा के साथ मरने के अधिकार के मुद्दे को संबोधित करने के महत्व पर प्रकाश डाला, खासकर उन मामलों में जहां व्यक्ति स्थायी रूप से कमजोर अवस्था में हैं। उन्होंने तर्क दिया कि व्यक्तियों को उन मामलों में अपनी लंबी पीड़ा को समाप्त करने के लिए सम्मानपूर्वक अपने जीवन को समाप्त करने का अधिकार होना चाहिए जहां वे असाध्य रूप से बीमार हैं और सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। 

वकील ने सुश्री अरुणा शानबाग की पीड़ा और दुख का उदाहरण लेते हुए स्थिति को समझाया। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे वह 35 वर्षों से अधिक समय से बिस्तर पर पड़ी है और खाने, खुद को अभिव्यक्त करने और किसी भी मानवीय कार्य को करने की क्षमता से रहित है। डॉक्टरों को विश्वास था कि उसकी स्वास्थ्य स्थिति में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है, और उन्होंने उसे लगभग मृत घोषित कर दिया था। इस प्रकार, जीवन समर्थन और जीवन-रक्षक उपचार वापस लेकर, प्रतिवादी उसे मार नहीं रहे होंगे, बल्कि उसे सम्मान के साथ मरने की अनुमति देंगे। 

प्रतिवादी के तर्क

केईएम अस्पताल और बॉम्बे नगर निगम के वकील ने सुश्री अरुणा शानबाग के लिए इच्छामृत्यु के अनुरोध का विरोध करते हुए एक जवाबी याचिका दायर की। उन्होंने इच्छामृत्यु के खिलाफ उसकी स्थिति का समर्थन करने के लिए निम्नलिखित तर्क दिए। 

वकील ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी 35 वर्षों से अधिक समय से सुश्री अरुणा शानबाग को भोजन और देखभाल कर रहे थे। उसकी हालत के बावजूद, वे उसकी भलाई सुनिश्चित करने के लिए उसे सर्वोत्तम देखभाल प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 

इसके अलावा, वकील ने तर्क दिया कि सुश्री अरुणा शानबाग की उम्र 60 वर्ष से अधिक थी, और इस प्रकार, बिना किसी हस्तक्षेप के उनकी मृत्यु हो जाने की संभावना थी। वकील ने इस बात पर जोर दिया कि नर्सें और अस्पताल के अन्य कर्मचारी उसके जीवन के शेष दिनों में किसी भी चुनौती की परवाह किए बिना उसकी देखभाल करने के लिए खुशी-खुशी तैयार थे। इसलिए, वे इच्छामृत्यु के विचार के विरोधी थे। इसके अलावा, प्रतिवादियों के विद्वान वकील ने तर्क दिया कि यदि इच्छामृत्यु की अनुमति दी गई, तो यह सुश्री अरुणा शानबाग को 30 वर्षों से अधिक समय तक जीवित रखने के लिए नर्सों और अन्य अस्पताल कर्मचारियों द्वारा किए गए लगातार प्रयासों, विशेषज्ञता और कड़ी मेहनत को कमजोर कर देगा। 

इसके अलावा, प्रतिवादी के वकील ने भारतीय समाज में इच्छामृत्यु की अनुमति के निहितार्थ के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की। समाज गहराई से देखभाल-उन्मुख है और व्यक्तियों की जरूरतों का समर्थन करने पर जोर देता है। वकील ने तर्क दिया कि इच्छामृत्यु की अनुमति देने से दुरुपयोग के दरवाजे खुल जाएंगे और भारतीय समाज देखभाल पर आधारित सामाजिक मूल्यों को कमजोर कर देगा।  

अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ एवं अन्य (2011) मामले में चर्चा किये गये कानून

भारत के संविधान 1950 का अनुच्छेद 14

समानता का अधिकार भारत के संविधान का भाग III के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है और असमान व्यवहार पर रोक लगाता है। प्रावधान यह प्रदान करता है कि भारत में प्रत्येक नागरिक कानून की नजर में समान है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी व्यक्ति के साथ उसकी नस्ल, जाति, पंथ, धर्म, जन्म स्थान, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। 

अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता का प्रावधान करता है, जिसमें कहा गया है कि कानून सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करता है। इसमें निम्नलिखित कुछ अपवाद भी शामिल हैं:

  1. राष्ट्रपति को कार्यालय में संचालित गतिविधियों और कर्तव्यों के लिए जवाब देने से इंकार करने का अधिकार है।
  2. राष्ट्रपति पर उसके कार्यकाल के दौरान आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
  3. भारत के राष्ट्रपति या राज्यपाल को गिरफ्तार या कैद नहीं किया जा सकता।
  4. ऐसे मामलों में जहां राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी आधिकारिक क्षमता में कार्य कर रहे हों, उनके खिलाफ कोई सिविल कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती है।
  5. यदि कोई व्यक्ति संसद की कार्यवाही की कोई सच्ची रिपोर्ट प्रकाशित करता है तो वह सिविल या आपराधिक कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता है।

इसके अलावा, अनुच्छेद 14 कानून के समान संरक्षण का प्रावधान करता है, जिसमें कहा गया है कि कानून समान परिस्थितियों में सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में, समानता का अधिकार समान परिस्थितियों में समान व्यवहार का प्रावधान करता है। यह अवधारणा अमेरिकी संविधान से ली गई है।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2016), मामले में भारतीय दंड संहिता, 1860, की धारा 377 को रद्द कर दिया, जो समान-लिंग वाले वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंध को अपराधी बनती है। इसके पीछे तर्क यह था कि यह प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है। 

शायरा बानो बनाम भारत संघ (2016) के ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायमूर्ति की पीठ ने तीन तलाक को खारिज कर दिया और इस आधार पर इस प्रथा को असंवैधानिक घोषित कर दिया कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निहित समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। 

इसके अलावा, जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018), के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 497 को रद्द कर दिया। अदालत का दृढ़ मत था कि यह प्रावधान महिलाओं की गरिमा और स्वायत्तता का उल्लंघन करता है और इस प्रकार, भारत के संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत उनके समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।

भारत के संविधान 1950 का अनुच्छेद 21

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रावधान है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है। यह अधिकार विदेशी नागरिकों को भी दिया गया है। भारतीय संविधान के सबसे प्रगतिशील प्रावधान माने जाने वाले अनुच्छेद 21 का दायरा प्रकृति में लगातार विकसित हो रहा है। यह प्रावधान दो अधिकारों का प्रावधान करता है: जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार। संविधान का अनुच्छेद 21 कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर इन अधिकारों से वंचित करने पर रोक लगाता है। 

सर्वोच्च न्यायालय जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को मौलिक अधिकारों का ‘हृदय’ बताता है। अधिकार केवल राज्य के विरुद्ध प्रदान किया जाता है। ‘राज्य’ शब्द में सरकार, स्थानीय निकाय, विधायिका आदि शामिल हैं। 

जीवन के अधिकार में निजता, आश्रय, सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा, प्रदूषण मुक्त वातावरण, सुरक्षित पेयजल, शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण और कई अन्य अधिकार शामिल हैं।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 को नए आयाम दिए। जीवन के अधिकार में न केवल जीवन का भौतिक अधिकार बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है। मामला इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूमता रहा कि क्या पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 10(3) जो सरकार को किसी व्यक्ति का पासपोर्ट जब्त करने की अनुमति देता है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने इस प्रावधान को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना क्योंकि यह अधिकारियों को अस्पष्ट और अपरिभाषित शक्तियों से सशक्त बनाता है। यह मामला एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसने भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के क्षितिज (होरिजन) का विस्तार किया। 

इसके अलावा, पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ (1982) के मामले में शीर्ष अदालत ने कहा कि श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करने में विफलता बुनियादी मानवता के साथ जीवन के उनके अधिकार से इनकार है, इस प्रकार यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।

सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक मामले विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997), में देखा कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है, जो समानता का अधिकार और जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। 

भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 32

भारतीय संविधान के भाग III के अंतर्गत अनुच्छेद 32 भारतीय संविधान के तहत निहित मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी उपचार प्रदान करता है। यह भारत के नागरिकों को इन अधिकारों को लागू करने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है। ये कानूनी उपचार रिट हैं, जो लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी लिखित आदेश हैं।

ये रिट इस प्रकार हैं:

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस):

“हैबिअस कॉर्पस” शब्द एक लैटिन वाक्यांश है जिसका अर्थ है ‘शरीर प्रस्तुत करना’। इस रिट का उपयोग व्यक्ति के स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को लागू करने के लिए किया जाता है, जब उसे अवैध रूप से हिरासत में रखा जाता है। जब रिट जारी की जाती है, तो हिरासत में लिए गए व्यक्ति को 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है। रिट सार्वजनिक और निजी दोनों संस्थाओं के खिलाफ जारी की जा सकती है। हालांकि, यह तब जारी नहीं की जा सकती है जब हिरासत कानूनी हो, अदालत की अवमानना ​​की कार्यवाही चल रही हो, व्यक्ति को किसी सक्षम अदालत द्वारा हिरासत में लिया गया हो, और इस तरह की हिरासत अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो।

2. परमादेश (मैंडामस):

लैटिन शब्द मैंडामस का अर्थ है ‘हम आदेश देते हैं।’ परमादेश की रिट अदालत द्वारा एक सार्वजनिक अधिकारी को उन मामलों में जारी की जाती है जहां वह अपना कर्तव्य निभाने में विफल रहता है या अपना कर्तव्य निभाने से इनकार करता है। रिट सार्वजनिक अधिकारी को अपने कार्यों का निर्वहन करने का आदेश देती है। परमादेश की रिट किसी भी सार्वजनिक निकाय, निगम, अवर न्यायालय, न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) या सरकार के विरुद्ध जारी की जा सकती है और उन्हें अपने सार्वजनिक कर्तव्यों का निर्वहन करने का निर्देश दिया जा सकता है। निम्नलिखित को लागू करने के लिए परमादेश की रिट जारी नहीं की जा सकती:

  • वैधानिक बल के बिना एक विभागीय निर्देश, 
  • एक संविदात्मक दायित्व,
  • इसे भारत के राष्ट्रपति या राज्य के राज्यपालों के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है,
  • यह उन मामलों में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है जहां वह अपनी न्यायिक क्षमता में कार्य कर रहे हैं।

3. निषेध:

निषेधाज्ञा की रिट उच्च न्यायालय द्वारा निचली अदालत के विरुद्ध जारी की जाती है, जो उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़ने या ऐसे अधिकार क्षेत्र में अपनी शक्तियों का प्रयोग करने से रोकती है जिस पर उनका कोई अधिकार नहीं है। “निषेध” शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘प्रतिबंधित करना’। इसे न्यायिक या अर्ध-न्यायिक प्राधिकारियों, प्रशासनिक प्राधिकारियों, विधायी प्राधिकारियों और निजी व्यक्तियों या निकायों के विरुद्ध जारी नहीं की जा सकती है।

4. उत्प्रेषण (सर्टियोरारी):

उत्प्रेषण शब्द का अर्थ प्रमाणित करना या सूचित करना है। रिट एक उच्च न्यायालय द्वारा निचली अदालत या न्यायाधिकरण को जारी की जाती है, जिसमें उन्हें आदेश दिया जाता है कि या तो उसके समक्ष लंबित मामले को उक्त प्राधिकारी को स्थानांतरित कर दिया जाए या किसी विशेष मामले में उनके द्वारा पारित आदेशों को रद्द कर दिया जाए। यह रिट उन मामलों में जारी की जाती है जहां अदालत ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम किया है, उसके अधिकार क्षेत्र का अभाव है या कानून में कोई त्रुटि की है। 

5. अधिकार पृक्षा (क्यो वारंटो) :

अधिकार पृक्षा शब्द का अर्थ किसी वारंट या प्राधिकार से है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को आवश्यक अधिकार के बिना किसी सार्वजनिक कार्यालय में बैठने से रोकने के लिए रिट जारी की जाती है। रिट केवल उन मामलों में जारी की जा सकती है जहां सार्वजनिक कार्यालय भारत के संविधान या किसी अन्य कानून द्वारा स्थापित किया गया हो। इसे निजी कार्यालयों के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक मामले स्किल लोट्टो सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ (2020), में देखा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 32 भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक अभिन्न अंग है। यह भारतीय संविधान का हृदय और आत्मा है और भारत के संविधान के भाग III के तहत निहित भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए महत्वपूर्ण है। 

बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले के नाम से मशहूर मामले एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) के ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत में आपातकाल घोषित होने पर भी बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट को निलंबित नहीं किया जा सकता है। 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत संवैधानिक उपचारों का अधिकार प्रकृति में पूर्ण नहीं है। इस पर कुछ सीमाएँ हैं। ये इस प्रकार हैं:

  • संसद, भारत के संविधान के अनुच्छेद 33 के अंतर्गत सार्वजनिक कर्तव्यों के निष्पक्ष और उचित निर्वहन को सुनिश्चित करने के लिए सशस्त्र बलों और पुलिस अधिकारियों को मौलिक अधिकारों के अनुप्रयोग को संशोधित करने का अधिकार दिया गया है। 
  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत यदि आपातकाल की घोषणा की जाती है, तो नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित हो जाते हैं।
  • आगे, भारत के संविधान का अनुच्छेद 359 के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति को युद्ध, बाहरी आक्रमण, वित्तीय संकट और सशस्त्र विद्रोह के दौरान अनुच्छेद 32 को निलंबित करने का अधिकार देता है।

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 306

भारतीय दंड संहिता, 1860, की धारा 306 आत्महत्या के लिए उकसाने के दंड से संबंधित है। यह प्रदान करती है कि जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या करने में सहायता करता है या उकसाता है, तो उसे दस वर्ष तक के कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माना भी देना होगा। प्रावधान को लागू करने के पीछे का उद्देश्य व्यक्तियों को दूसरों को अपना जीवन लेने में सहायता या प्रोत्साहित करने से रोकना था। आत्महत्या के लिए उकसाना एक गैर-जमानती और संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध है।

श्रीमती ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य (1996) के ऐतिहासिक फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 306 संवैधानिक रूप से वैध है। अदालत ने दृढ़ता से देखा कि जो कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या करने में सहायता करता है और उसे उकसाता है, उसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा और कठोरता से दंडित किया जाएगा।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अमलेंदु पाल @ झंटू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2009) के मामले में देखा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराना केवल एक आरोप के आधार पर नहीं होता है। किसी व्यक्ति को किसी अन्य को आत्महत्या करने के लिए उकसाने या मजबूर करने के सकारात्मक कार्य के अभाव में दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस प्रावधान के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए, आत्महत्या का अपराध होना चाहिए, जिसे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा समर्थित और प्रोत्साहित किया गया हो।

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 309

यह प्रावधान भारत में आत्महत्या करने के प्रयास को दंडित करता है। यह प्रदान करता है कि कोई भी व्यक्ति जो आत्महत्या करने का प्रयास करता है और आत्महत्या करने की दिशा में कोई कार्य करता है, उसे दंडित किया जाएगा। इस दंड में एक वर्ष तक का कारावास या जुर्माना या दोनों शामिल होगा। इस प्रावधान को लागू करने के पीछे का तर्क व्यक्तियों को अपना जीवन लेने से रोकना और यदि वे ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो कठोर परिणाम सुनिश्चित करना था।

मारुति श्रीपति दुबल बनाम महाराष्ट्र राज्य (1986), के मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय भारतीय दंड संहिता की धारा 309 की संवैधानिक वैधता से संबंधित मुद्दे से निपटा। अदालत ने देखा कि प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत निहित मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है और इसे निरस्त कर दिया। इसके अलावा, अदालत का दृढ़ मत था कि यदि इस तरह के प्रावधानों के पीछे का तर्क दंड द्वारा आत्महत्या को रोकना है, तो इसे उन लोगों को दंडित करके प्राप्त नहीं किया जा सकता है जो खुद को मारने की कोशिश करते हैं। अदालत ने माना कि जो लोग अपने खराब मानसिक स्वास्थ्य के कारण खुद को मारने का प्रयास करते हैं, उन्हें तत्काल उपचार दिया जाना चाहिए। उन्हें जेल में बंद नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि कैद से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर कठोर प्रभाव पड़ेगा।

इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने पी. रथिनम बनाम भारत संघ (1994) के मामले में देखा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 309 भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 जो भारत के प्रत्येक नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, का उल्लंघन करती है।

अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ एवं अन्य (2011) में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ, जिसमें न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा शामिल थे, ने 7 मार्च, 2011 को अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। माननीय पीठ ने देखा कि भारत में कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है जो किसी व्यक्ति से जीवन सहायता वापस लेने का प्रावधान करता है जो स्थायी वर्धी  अवस्था में है या जो उसी के संबंध में निर्णय लेने के लिए अक्षम है। सर्वोच्च न्यायालय प्रतिवादियों द्वारा प्रस्तुत तर्कों से सहमत नहीं था। वे याचिकाकर्ता से सहमत थे और माना कि कुछ परिस्थितियों में निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी जानी चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे देखा कि जीवन सहायता बंद करने के बारे में निर्णय या तो रोगी के माता-पिता, पति या अन्य करीबी रिश्तेदारों द्वारा लिया जाएगा। उनके अनुपस्थिति में, रोगी के मित्र के रूप में कार्य कर रहे व्यक्ति द्वारा उसी के संबंध में निर्णय लिया जा सकता है। इसके अलावा, अदालत ने यह भी देखा कि रोगी के डॉक्टर जीवन सहायता वापस लेने के लिए सशक्त हैं, और ऐसे निर्णय रोगी के सर्वोत्तम हित में लिए जाने चाहिए।

वर्तमान मामले से निपटते हुए, अदालत ने देखा कि सुश्री अरुणा रामचंद्र शानबाग के माता-पिता का निधन हो गया है और उनके करीबी रिश्तेदारों ने उनसे तब से मुलाकात नहीं की है जब से उन पर हमला हुआ था। इसके अलावा, रोगी केईएम अस्पताल के नर्सों और अन्य अस्पताल कर्मचारियों की असाधारण देखभाल में थी। अदालत ने आगे माना कि यदि जीवन सहायता वापस लेने के संबंध में कोई निर्णय लिया जाता है, तो उसे संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित होना है। इसके पीछे का तर्क यह सुनिश्चित करना था कि इसका दुरुपयोग उन बेईमान व्यक्तियों द्वारा न किया जाए जो रोगी की संपत्ति का उत्तराधिकारी बनना चाहते थे।

अदालत ने पैरेंस पेट्रिया के सिद्धांत का पालन किया, जिसका अर्थ है कि राजा देश का पिता है। वह उन सभी व्यक्तियों के हितों को देखने के लिए बाध्य है जो स्वयं की देखभाल की स्थिति में नहीं हैं। हालांकि, वही अदालत की जांच के अधीन है।

अदालत ने केईएम अस्पताल के डॉक्टरों की रिपोर्ट के साथ-साथ मानव अंग प्रत्यारोपण (ट्रांसप्लांट) अधिनियम, 1994 के तहत मस्तिष्क मृत्यु की परिभाषा पर भी प्रकाश डाला। उसी का आकलन करते हुए, रोगी, सुश्री अरुणा शानबाग, मस्तिष्क मृत नहीं थीं। वह बिना जीवन सहायता तंत्र के सांस ले रही थी और आवश्यक उत्तेजना प्रदर्शित कर रही थी। डॉक्टरों को विश्वास था कि वह स्थिर थीं, हालांकि वह स्थायी वर्धी  अवस्था में थीं। इसलिए, उनका जीवन समाप्त करना उनके जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा और अनुचित होगा।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस ऐतिहासिक मामले में कुछ विशेष परिस्थितियों में निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी। उसी के संबंध में निर्णय संबंधित अधिकार क्षेत्र के उच्च न्यायालय के अनुमोदन के अधीन था। अदालत ने समझाया कि आवश्यक पक्ष भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट अधिकार क्षेत्र के तहत उच्च न्यायालय से संपर्क कर सकते हैं, जिसके बाद उच्च न्यायालय जीवन सहायता वापस लेने के लिए अपनी स्वीकृति देगा।

अदालत ने आगे देखा कि जब संबंधित उच्च न्यायालय के समक्ष निष्क्रिय इच्छामृत्यु के लिए आवेदन दिया जाता है, तो उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को कम से कम दो न्यायाधीशों की पीठ का गठन करना चाहिए जिसे परिस्थितियों के आधार पर निष्क्रिय इच्छामृत्यु को अनुमोदित करना है या नहीं, इस पर निर्णय लेना चाहिए। अपनी स्वीकृति देने से पहले, उच्च न्यायालय की पीठ को एक समिति की राय लेनी होगी। इस समिति में उसी पीठ द्वारा नामित तीन विशेषज्ञ और प्रतिष्ठित डॉक्टर शामिल होंगे और वे अपनी विशेषज्ञ चिकित्सा राय प्रदान करने के लिए जिम्मेदार होंगे जैसा कि वे उचित समझते हैं।

उच्च न्यायालय राज्य और रोगी के करीबी रिश्तेदारों, जिनमें माता-पिता, पति/पत्नी, भाई/बहन आदि शामिल हैं, को नोटिस जारी करने के लिए भी जिम्मेदार है। इन रिश्तेदारों के अभाव में, डॉक्टर की रिपोर्ट की एक प्रति और ऐसा नोटिस रोगी के मित्र को जारी करना होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि इस संबंध में संसद द्वारा कानून बनाए जाने तक यही प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए।

अदालत ने सुश्री अरुणा रामचंद्र शानबाग को इच्छामृत्यु देने से इनकार कर दिया क्योंकि यह मामला जीवन सहायता वापस लेने की अनुमति देने के लिए उपयुक्त नहीं था। अदालत ने यह भी देखा कि यदि केईएम अस्पताल के नर्सों या अस्पताल के कर्मचारियों ने उनकी स्थिति के कारण इच्छामृत्यु की अनुमति देने की आवश्यकता महसूस की, तो वे निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार उच्च न्यायालय से संपर्क कर सकते हैं।

निर्णय लेने का कारण

अदालत का दृढ़ मत था कि चूंकि सुश्री अरुणा शानबाग स्थायी वर्धी  अवस्था में थीं, इसलिए उनके अपने भले के लिए निर्णय लेने में असमर्थ होने के कारण किसी को एक सरोगेट सौंपा जाना चाहिए। अदालत ने केईएम अस्पताल के कर्मचारियों को उनका उपयुक्त सरोगेट नियुक्त किया, उन्हें उनकी ओर से निर्णय लेने का अधिकार दिया।

अदालत ने माना कि भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु अवैध है और भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध है। इसके अलावा, अदालत ने मृत्यु की विकसित समझ को स्वीकार किया और कार्डियोपुलमोनरी कार्य से परे इसकी परिभाषा का विस्तार किया। इसमें मृत्यु के अर्थ के भीतर मस्तिष्क कार्य शामिल था। अदालत ने पैरेंस पेट्रिया की अवधारणा पर भी चर्चा की, जिसमें राज्य को अपनी विकलांग नागरिकों की रक्षा करने की भूमिका निभाने का अधिकार दिया गया है।

ओबिटर डिक्टा

माननीय सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने इच्छा मृत्यु के बारे में सामाजिक समझ के संबंध में अपनी आशंका व्यक्त की और इसके संभावित दुरुपयोग के बारे में अपनी चिंताएँ सामने रखीं। पीठ ने एक सहानुभूतिपूर्ण समाज की वकालत की जो अपने स्थायी विकलांग नागरिकों के कल्याण को प्राथमिकता देने पर ध्यान केंद्रित करता है।

पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 309 को निरस्त करने की भी वकालत की, जो यह प्रदान करती है कि आत्महत्या का प्रयास एक अपराध है। इसके अलावा, उन्होंने मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से जूझ रहे और आत्महत्या की प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों को समर्थन और सहायता प्रदान करने की दिशा में बदलाव का सुझाव दिया।

पीठ ने विकलांग व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए राज्य के कर्तव्य पर जोर दिया। इसने पैरेंस पेट्रिया के सिद्धांत को रेखांकित किया जो विकलांग और कमजोर व्यक्तियों की रक्षा करने और समकालीन युग में उनके अधिकारों को बनाए रखने के लिए राज्य के दायित्वों पर प्रकाश डालता है।

चिकित्सा नैतिकता

इस ऐतिहासिक फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सूचित सहमति की अवधारणा और रोगी के शारीरिक अखंडता के अधिकार से निपटा। सूचित सहमति का अर्थ है कि रोगी अपने उपचार के सभी पहलुओं से पूरी तरह अवगत है जिसमें इसके परिणाम, स्वास्थ्य लाभ का दायरा और इसके दुष्प्रभाव शामिल हैं। अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि डॉक्टर, रोगी की सूचित सहमति प्रदान करने की क्षमता के बावजूद, उससे ऐसा करने के लिए नहीं कहता है, तो उस पर बैटरी, हमला या गैर-इरादतन हत्या (कल्पेबल होमीसाइड) का आरोप लगाया जा सकता है। सूचित सहमति की अवधारणा केवल उन परिस्थितियों में प्रासंगिक है जहां रोगी अपने उपचार के परिणाम को समझ सकता है।

इस मामले में, सुश्री अरुणा शानबाग की सहमति उनकी स्थायी वर्धी  अवस्था के कारण प्राप्त नहीं की जा सकती थी, जिससे इस बारे में सवाल उठे कि उनके लिए निर्णय कौन लेना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने जनहित और राज्य के हितों और कर्तव्यों पर विचार किया। इसने प्रदान किया कि राज्य अपने कमजोर नागरिकों के कल्याण को देखने के लिए जिम्मेदार है। हालांकि, शीर्ष अदालत ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु को वैध कर दिया, यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय सुनिश्चित किए कि इसका दुरुपयोग न किया जाए।

अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

दुनिया भर में ऐसे कई देश हैं जहां सक्रिय इच्छामृत्यु को अवैध माना जाता है। हालांकि, दुनिया भर के विभिन्न देशों में निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी गई है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह कई शर्तों के अधीन है, जिन्हें नीचे समझाया गया है:

नीदरलैंड

नीदरलैंड में, अनुरोध पर जीवन समाप्ति और सहायक आत्महत्या अधिनियम, 2002 इच्छा मृत्यु को नियंत्रित करता है। यह प्रदान करता है कि इच्छामृत्यु और चिकित्सक-सहायक आत्महत्या कोई दंडनीय अपराध नहीं हैं यदि चिकित्सक रोगी की उचित देखभाल सुनिश्चित करने के लिए निर्धारित मानदंडों के अनुसार कार्य करता है। हालांकि, निष्क्रिय इच्छामृत्यु को कुछ शर्तों के अधीन अनुमति दी जाती है, जिसमें समय अवधि, रोगी की मानसिक स्थिति और जीवित रहने की संभावना शामिल है। इसके अलावा, कानून रोगी की इच्छा के लिखित घोषणा की वैधता के स्पष्ट मान्यता के लिए प्रदान करता है। ये इच्छाएँ उन मामलों में महत्वपूर्ण है, जहां रोगी कोमा में है या अंतिम चरण में है और अपने सर्वोत्तम हित क्या है, यह तय करने की स्थिति में नहीं है।

स्विट्जरलैंड

स्विट्जरलैंड में सहायक आत्महत्या पर एक असामान्य स्थिति है। देश गैर-चिकित्सकों द्वारा भी सहायक आत्महत्या की अनुमति देता है। हालांकि, स्विट्जरलैंड में इच्छामृत्यु अवैध है। सहायक आत्महत्या और इच्छामृत्यु की अवधारणा में महत्वपूर्ण अंतर है। जबकि सहायक आत्महत्या रोगी को स्वयं घातक इंजेक्शन लगाने की अनुमति देता है, इच्छामृत्यु डॉक्टर या किसी अन्य चिकित्सा पेशेवर द्वारा आवश्यक दवा का प्रशासन प्रदान करता है। स्विस दंड संहिता के अनुच्छेद 115 के तहत यह प्रावधान है कि यदि सहायक आत्महत्या के पीछे का मकसद स्वार्थी प्रकृति का है तो यह एक अपराध है। स्विट्जरलैंड में सहायक आत्महत्या के बारे में जो अत्यंत अद्वितीय है वह यह है कि प्राप्तकर्ता का स्विस राष्ट्रीय होना आवश्यक नहीं है, और कोई पूर्व-आवश्यकता नहीं है जो चिकित्सक की भागीदारी की आवश्यकता होती है।

बेल्जियम

यूरोप में नीदरलैंड के बाद बेल्जियम इच्छामृत्यु को वैध बनाने वाला दूसरा देश था। इच्छामृत्यु पर बेल्जियम अधिनियम, 2002, उन शर्तों का प्रावधान करता है जिनके तहत डॉक्टरों को ऐसा करने का अधिकार दिए बिना इच्छामृत्यु का अभ्यास किया जा सकता है। बेल्जियम के कानून में यह प्रावधान है कि जो मरीज़ अपने जीवन को समाप्त करना चाहते हैं, उन्हें इसकी मांग करते समय सचेत रहना चाहिए और इच्छामृत्यु के लिए अपना अनुरोध दोहराना चाहिए।

संयुक्त राज्य अमेरिका

संयुक्त राज्य अमेरिका सभी राज्य मे सभी प्रकार से सक्रिय इच्छामृत्यु पर प्रतिबंध लगाता है। हालांकि, ओरेगॉन, वाशिंगटन और मोंटाना में चिकित्सक-सहायता प्राप्त आत्महत्या की कानूनी रूप से अनुमति है। 

इच्छामृत्यु पर विधि आयोग की रिपोर्ट

भारत के विधि आयोग ने अपनी 196वीं रिपोर्ट जो 2006 में प्रकाशित हुई थी, में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 से अंत चरण के रोगियों की रक्षा के लिए कानून बनाने की सिफारिश की, जब वे चिकित्सा देखभाल, कृत्रिम भोजन या पानी से इनकार करते हैं। इसके अलावा, रिपोर्ट ने प्रदान किया कि चिकित्सक जो रोगियों के निर्णयों का पालन करते हैं या उन लोगों की ओर से निर्णय लेते हैं जो अंत चरण के रोगी हैं और यह तय नहीं कर सकते कि उनके लिए सबसे अच्छा क्या है, उन्हें भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 306 और धारा 299 के तहत कानूनी कार्रवाई से संरक्षित किया जाना चाहिए।

विधि आयोग द्वारा अनुशंसित कानून अंत चरण के रोगियों का चिकित्सीय उपचार (रोगियों, चिकित्सकों का संरक्षण) विधेयक, 2016 था। इसके अलावा, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि विधि आयोग की रिपोर्ट ने विशेष रूप से प्रदान किया कि निम्नलिखित आवश्यक है:

  1. मरीज को लाइलाज बीमारी होनी चाहिए। 
  2. रोग पुराना होना चाहिए, और रोगी स्थायी वर्धी  अवस्था में होना चाहिए।
  3. भले ही मरीज के परिवार ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु के लिए सहमति दे दी हो, डॉक्टर की चिकित्सा विशेषज्ञता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उसका निर्णय अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
  4. डॉक्टर को चिकित्सा उपचार बंद करने से पहले एक लिखित दस्तावेज जारी करके रोगी के साथ-साथ उसके माता-पिता या करीबी रिश्तेदारों को इच्छामृत्यु के बारे में सूचित करना चाहिए।

अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ एवं अन्य का विश्लेषण (2011)

वह व्यक्ति अमरत्व तक पहुंच गया है जो किसी भी भौतिक चीज़ से परेशान नहीं है।

  • न्यायमूर्ति  दीपक मिश्रा

न्यायमूर्ति मिश्रा ने एक बार कहा था, ”“हर किसी को जीवन का अधिकार है, लेकिन साथ ही, उसे गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। यदि वह लंबी बीमारी के कारण गरिमा के साथ जीने में असमर्थ है, जिससे वह उबर नहीं पाएगा, तो ऐसे मामलों में उसे गरिमा के साथ मरने का अधिकार है। यही अधिकारों का संतुलन है। समायोजन, स्वीकृति, समझौता अधिकारों के संतुलन और अधिकारों के सह-अस्तित्व के लिए आता है। मानव जाति के कल्याण के लिए हमें उन्हें संतुलित करना होगा”।

सर्वोच्च न्यायालय ने ज्ञान कौर मामले में भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे में मरने के अधिकार की मान्यता को अस्वीकार कर दिया, जो जीवन के अधिकार का प्रावधान करता है। अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम भारत संघ एवं अन्य का ऐतिहासिक फैसला है जो भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु के निष्पादन के लिए कुछ दिशानिर्देश प्रदान करता है। इस फैसले ने जीवन के अधिकार के लिए प्रदान करने वाले अनुच्छेद 21 के दायरे के बारे में एक नया मार्ग प्रशस्त किया है, जिसमें अब गरिमा के साथ मरने का अधिकार शामिल है।

हालांकि ऐतिहासिक मामला दिशानिर्देश और परिस्थितियों के साथ-साथ निष्क्रिय इच्छामृत्यु को मंजूरी देने के लिए आवश्यक चरणों का प्रावधान करता है, अदालत ने यह स्पष्ट नहीं किया कि गरिमा के साथ मरने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मौलिक अधिकार के दायरे में आता है या नहीं। इसके अलावा, इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है कि क्या वह व्यक्ति जो अंत चरण का रोगी है लेकिन अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने के लिए पर्याप्त स्थिर है, असहनीय दर्द के कारण अपना जीवन समाप्त कर सकता है या नहीं।

यह फैसला भारत के इतिहास में जीवन के अंत की देखभाल के संबंध में महत्वपूर्ण है। इस मामले ने भारत में इच्छामृत्यु पर एक व्यापक कानून की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। इसने समाज पर निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति देने के प्रभाव और सुश्री अरुणा शानबाग जैसी स्थितियों में लोगों के लिए जागरूकता और सहानुभूति फैलाने की आवश्यकता पर चर्चा शुरू की।

यह मामला एक महत्वपूर्ण उदाहरण है कि कैसे समाज उन्नत प्रौद्योगिकियों द्वारा उत्पन्न चुनौतियों से जूझता है, जिसके लिए रोगियों की जरूरतों के प्रति उत्तरदायी होने के लिए तत्काल कानूनी और नैतिक ढांचे की आवश्यकता होती है। 

निष्कर्ष

ऐतिहासिक फैसले ने जीवन की पवित्रता को दोहराया और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मौलिक अधिकार के आधारशिला के रूप में इसके महत्व को रेखांकित किया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार और निष्क्रिय इच्छामृत्यु से जुड़े कानूनी, चिकित्सा और नैतिक प्रश्नों की पेचीदगियों में गहराई से अध्ययन किया। अदालत ने चिकित्सा विशेषज्ञों के साथ अपने स्वास्थ्य की स्थिति पर विचार करने के बाद सुश्री अरुणा शानबाग की चिकित्सीय स्थिति का आकलन किया। उनकी स्थिति की जटिलताओं का विश्लेषण करने के बाद, उनके मामले में निष्क्रिय इच्छामृत्यु से इनकार कर दिया। हालांकि, अदालत ने रोगी के गरिमा और इच्छाओं का सम्मान करने के महत्व को रेखांकित किया जो अपने लिए निर्णय लेने में असमर्थ है।

अरुणा शानबाग मामले में ऐतिहासिक फैसला भारत में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को वैध बनाने का आधार बनता है। यह फैसला पैरेंस पेट्रिया के महत्वपूर्ण सिद्धांत को छूता है जो राज्य के अपने कमजोर नागरिकों के हितों की रक्षा करने के लिए जिम्मेदारी प्रदान करता है।

ऐतिहासिक मामला भारत में किसी व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने से जुड़े जटिल नैतिक विचारों पर प्रकाश डालता है, इस प्रकार यह स्पष्ट करता है कि निकट भविष्य में ऐसे मामलों से कैसे निपटा जाना चाहिए। जबकि ऐतिहासिक फैसला भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु के लिए विस्तृत प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करता है और कुछ दिशा निर्देश प्रस्तुत करता है कि इसे कैसे प्रयोग किया जा सकता है, ये निर्णय लेना बेहद कठिन है। गरिमा के साथ मरने के अधिकार की वास्तविकता बहुत कठिन है और लागू करना कठिन है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

इच्छा मृत्यु और चिकित्सक-सहायता प्राप्त आत्महत्या के बीच क्या अंतर है?

इच्छामृत्यु की अवधारणा अक्सर चिकित्सक-सहायक आत्महत्या के साथ भ्रमित होती है। ये दोनों घटनाएं पूरी तरह से अलग हैं। इच्छामृत्यु के मामले में, एक चिकित्सक या कोई तीसरा पक्ष रोगी को घातक इंजेक्शन प्रशासित करता है। हालांकि, चिकित्सक-सहायक आत्महत्या के मामले में, रोगी स्वयं चिकित्सा पेशेवर की सलाह पर घातक इंजेक्शन प्रशासित करता है। इच्छामृत्यु और चिकित्सक-सहायक आत्महत्या ‘सहायक मृत्यु’ शब्द के अंतर्गत आते हैं।

सक्रिय और निष्क्रिय इच्छामृत्यु में क्या अंतर है?

सक्रिय इच्छामृत्यु तब होती है जब कोई व्यक्ति पूरे इरादे से घातक पदार्थों के उपयोग से किसी और के जीवन को समाप्त करने के लिए हस्तक्षेप करता है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने के लिए घातक इंजेक्शन लगाना।

दूसरी ओर, निष्क्रिय इच्छामृत्यु का अर्थ उपचार जो जीवन को बनाए रखने के लिए आवश्यक है को रोककर या वापस लेकर किसी व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनना है। उदाहरण के लिए, किसी मरीज के जीवन को जारी रखने के लिए आवश्यक एंटीबायोटिक दवाओं को वापस लेना या वेंटिलेटर समर्थित तंत्र को वापस लेना।

क्या भारत में मरने का अधिकार मौलिक अधिकार है?

भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक भारतीय नागरिक को जीवन का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। यह कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर किसी व्यक्ति के जीवन से वंचित करने पर रोक लगाता है। कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2018), के ऐतिहासिक मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के दायरे में गरिमा के साथ मरने के अधिकार को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी। इस मामले ने गरिमा के साथ मरने के अधिकार को सुविधाजनक बनाने के लिए जीवित इच्छा और चिकित्सा विशेषज्ञ के प्राधिकरण को भी प्रभावी बनाया। 

क्या भारत में इच्छामृत्यु वैध है?

अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ और अन्य (2011) के ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु अवैध है, लेकिन कुछ शर्तों के अधीन निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति है। निष्क्रिय इच्छामृत्यु दी जा सकती है या नहीं, इसके बारे में अंतिम मंजूरी संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय पर निर्भर करती है, जहां किसी व्यक्ति को इच्छा मृत्यु देने की याचिका दायर की गई है।

पैरेंस पेट्रिया का सिद्धांत क्या है?

पैरेंस पेट्रिया का सिद्धांत 13वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटेन में उत्पन्न हुआ था। सिद्धांत का अर्थ है कि राज्य का राजा अपने क्षेत्र का पिता है और इस प्रकार, उन सभी व्यक्तियों के हितों को देखने के लिए बाध्य है जो अपने सर्वोत्तम हितों के लिए निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। सिद्धांत के पीछे तर्क यह है कि यदि किसी राज्य का नागरिक किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो उसके माता-पिता या अभिभावक के रूप में कार्य कर सके और उसके लिए निर्णय ले सके, तो राज्य उस व्यक्ति के सर्वोत्तम हित का निर्णय लेने के लिए सबसे अच्छा माता-पिता है।

भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु का प्रयोग कैसे किया जा सकता है?

अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु का प्रयोग केवल उन व्यक्तियों पर किया जा सकता है जो स्थायी वर्धी  अवस्था में हैं। ऐसे मामले में, रोगी के माता-पिता या करीबी रिश्तेदार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत व्यक्ति की पीड़ा को समाप्त करने के लिए इच्छामृत्यु की अनुमति प्राप्त करने के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं। 

स्थायी वर्धी  अवस्था क्या है?

स्थायी वर्धी  अवस्था एक दीर्घकालिक विकार (डिसॉर्डर) को संदर्भित करती है जिसमें रोगी के मस्तिष्क को गंभीर क्षति होती है। हालाँकि रोगी जागता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन वह अपने परिवेश से पूरी तरह अनजान होता है। एक व्यक्ति जो स्थायी वर्धी अवस्था में है, वह अपनी आँखें खोल सकता है, नियमित नींद-जागने के चक्र का अनुभव कर सकता है, और तेज़ आवाज़ के जवाब में पलकें झपकाने जैसी बुनियादी प्रतिक्रियाएँ प्रदर्शित कर सकता है। 

एक जीवित इच्छा क्या है?

जीवित इच्छा एक दस्तावेज है जो मरीज को उसके इलाज के दौरान निर्देश जारी करने का अधिकार देता है। इसे अग्रिम (एडवांस) चिकित्सा आदेश के रूप में भी जाना जाता है, जीवित इच्छा पर दो प्रमाणित गवाहों की उपस्थिति में हस्ताक्षर किए जाने चाहिए और न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा इसकी पुष्टि की जानी चाहिए। 

क्या जीवित इच्छा रद्द की जा सकती है?

कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा या अग्रिम निर्देश किसी भी समय वापस ले सकता है। ऐसी वापसी या निरसन लिखित रूप में होना चाहिए। यदि यह अस्पष्ट है और लिखित में नहीं है, तो चिकित्सा बोर्ड ऐसी वापसी या निरस्तीकरण को प्रभावी नहीं करेगा। इसलिए, जीवित इच्छा की वापसी स्पष्ट रूप से लिखित रूप में की जानी चाहिए।

संदर्भ

 

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