उत्तम बनाम सौभाग सिंह एवं अन्य (2016)

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यह लेख Jyotika Saroha द्वारा लिखा गया है। प्रस्तुत लेख में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2016 में सुनाए गए उत्तम बनाम सौभाग सिंह एवं अन्य के निर्णय का विस्तृत अवलोकन प्रस्तुत किया गया है। इसमें मामले की तथ्यात्मक पृष्ठभूमि, मुद्दों, पक्षों के तर्क, निर्णय और विश्लेषण पर प्रकाश डाला गया है। यह मूलतः हिंदू संयुक्त परिवारों में मिताक्षरा सहदायिक (कोपार्सनरी) प्रणाली की अवधारणा पर केंद्रित है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

एक हिंदू संयुक्त परिवार या अविभाजित परिवार जिसमें परिवार के मामलों या परिवार के व्यवसाय का स्वामित्व और नियंत्रण उक्त परिवार के सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। ‘कर्ता’ को हिंदू संयुक्त परिवार का प्रतिनिधि कहा जाता है। संयुक्त हिंदू परिवार की उक्त व्यवस्था हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 द्वारा शासित होती है। यह कानून विशेष रूप से हिंदू संयुक्त परिवार के व्यक्तियों को विरासत में मिली संपत्ति के हस्तांतरण और स्वामित्व पर चर्चा करता है। सहदायिक संपत्ति से तात्पर्य उस संपत्ति से है जो पैतृक संपत्ति के बंटवारे के बाद सहदायिकों के बीच बांटी गई है। उत्तम बनाम सौभाग सिंह एवं अन्य (2016) के वर्तमान मामले में मिताक्षरा कानून के संबंध में लंबी चर्चा की गई है, जिसमें एक हिंदू जन्म से संपत्ति का अधिकार प्राप्त करता है, विशेष रूप से वसीयतनामा और बिना वसीयत के उत्तराधिकार पर ध्यान केंद्रित किया गया है। वर्तमान मामले में दादा की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति में पोते के अधिकारों का वर्णन किया गया है। यह मामला मुख्यतः निचली अदालत में दायर किया गया, फिर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंचा और अंततः सिविल अपील के रूप में सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: उत्तम बनाम सौभाग सिंह एवं अन्य
  • मामला संख्या: सिविल अपील संख्या 2360/2016
  • समतुल्य उद्धरण: एआईआर 2016 एससी 1169
  • चर्चा किए गए कानून: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • पीठ: माननीय न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ
  • निर्णय के लेखक: न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन
  • मामले के पक्ष – अपीलकर्ता/वादी: उत्तम, प्रतिवादी: सौभाग सिंह एवं अन्य
  • निर्णय की तिथि: 2 मार्च, 2016

मामले की तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

वर्तमान मामले में, वादी द्वारा द्वितीय सिविल न्यायाधीश, वर्ग II देवास, मध्य प्रदेश की अदालत में 28 दिसंबर, 1988 को चार प्रतिवादियों के खिलाफ विभाजन के लिए एक मुकदमा दायर किया गया था, जिसका नाम मुकदमा संख्या 5A/ 1999 है। वर्तमान मामले में, प्रतिवादी संख्या 3 वादी के पिता हैं, जबकि प्रतिवादी संख्या 1, 2 और 4 उसके चाचा, यानी उसके पिता के भाई हैं। वादी के दादा जगन्नाथ सिंह की 1973 में मृत्यु हो गई थी, तथा वे अपने पीछे पत्नी मैनाबाई और चार बच्चों को छोड़ गए थे, जिनमें वादी के पिता भी शामिल थे। विभाजन के मुकदमे में वादी ने दावा किया कि विवादित संपत्ति में 1/8 हिस्सा उसे दिया जाना चाहिए। उन्होंने दावा किया कि वाद संपत्ति पैतृक संपत्ति है तथा जन्म के आधार पर सहदायिक होने के नाते मिताक्षरा कानून के अनुसार उक्त संपत्ति पर उनका अधिकार है। दूसरी ओर, चारों प्रतिवादियों ने संयुक्त रूप से बयान दर्ज कराया और दावा किया कि विवादित संपत्ति पैतृक नहीं है और इसका बंटवारा हो चुका है, जिसमें वादी के पिता अलग हो गए हैं। 

मामले की कार्यवाही

वादी द्वारा विचारण न्यायालय में विभाजन के लिए वाद दायर किया गया था

वादी द्वारा द्वितीय सिविल न्यायाधीश, वर्ग-2 देवास, मध्य प्रदेश की अदालत में बंटवारे के लिए वाद दायर किया गया था। द्वितीय सिविल न्यायाधीश ने 20 दिसम्बर 2000 को अपने आदेश में माना कि यह संपत्ति पैतृक संपत्ति है, क्योंकि प्रतिवादी संख्या 1 अर्थात् वादी के चाचा मांगीलाल ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है। इसके अलावा, चारों प्रतिवादियों द्वारा दावा किए गए विभाजन के संबंध में कोई साक्ष्य नहीं मिला। 

प्रतिवादियों द्वारा मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष प्रथम अपील दायर की गई

विचारण न्यायालय के आदेश के खिलाफ चार प्रतिवादियों द्वारा पहली अपील दायर की गई थी। प्रथम अपीलीय न्यायालय ने 12 जनवरी 2005 को अपना फैसला सुनाया। यह माना गया कि पैतृक संपत्ति के संबंध में विचारण न्यायालय द्वारा दी गई टिप्पणी सही थी। इसी आधार पर यह कहा गया कि वाद संपत्ति पैतृक थी तथा चारों प्रतिवादियों के बीच हुए विभाजन के संबंध में कोई साक्ष्य नहीं मिला। हालांकि, यदि विभाजन के अधिकार पर विचार किया जाए, तो अदालत ने कहा कि जगन्नाथ सिंह और उनकी विधवा मैनाबाई की मृत्यु के बाद, संपत्ति का हिस्सा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के प्रावधानों के अनुसार वितरित किया जाना था। अदालत ने कहा कि यदि अपीलकर्ता के दादा जगन्नाथ सिंह की बिना वसीयत के मृत्यु हो गई थी, तो उस स्थिति में संपत्ति का विभाजन उत्तरजीविता उत्तराधिकार के बजाय बिना वसीयत के उत्तराधिकार के अनुसार किया जाना चाहिए। वर्तमान परिदृश्य में, वादी के पिता जीवित हैं, और प्रथम श्रेणी के उत्तराधिकारी होने के नाते, वादी विभाजन के अधिकार के लिए मुकदमा दायर करने के लिए अयोग्य है। इसलिए, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने वादी द्वारा दायर मुकदमे को खारिज कर दिया और प्रथम अपील को स्वीकार कर लिया। 

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष द्वितीय अपील

प्रथम अपील में दिए गए निर्णय से व्यथित होकर वादी ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष द्वितीय अपील दायर की। दूसरी अपील में, निर्णय वादी के विरुद्ध सुनाया गया तथा कहा गया कि प्रथम अपीलीय न्यायालय ने अपीलकर्ता/वादी द्वारा दायर विभाजन के मुकदमे को सही तरीके से खारिज कर दिया। दूसरी अपील में उच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 4, 6 और 8 का हवाला देते हुए कहा कि जब पिता जीवित हों तो पोते को जन्म से कोई अधिकार नहीं होता है और पिता के जीवनकाल में वह संपत्ति में बंटवारे का दावा नहीं कर सकता है। वर्तमान मामले में अपीलकर्ता, जिसके दादा जगन्नाथ सिंह की मृत्यु 1973 में हो गई थी, उस अवधि के दौरान संपत्ति के विभाजन का दावा करने का हकदार नहीं है, जब उसके पिता मोहन सिंह जीवित थे और वह वर्ग-I के उत्तराधिकारी हैं। 

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सिविल अपील

निचली अदालत और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले से व्यथित होकर, अपीलकर्ता ने मुकदमे की संपत्ति में विभाजन का दावा करने के उद्देश्य से सिविल अपील दायर करके माननीय सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उठाए गए मुद्दे

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए:

  1. क्या विवादित संपत्ति संयुक्त हिंदू संपत्ति के रूप में अपना स्वरूप बनाए रखती है?
  2. क्या अपीलकर्ता को सहदायिक के रूप में वाद संपत्ति पर अधिकार है?
  3. क्या अपीलकर्ता को विभाजन के लिए मुकदमा दायर करने का अधिकार है, जबकि उसके पिता मोहन सिंह, जो वर्ग-I के उत्तराधिकारी हैं, जीवित हैं?

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता की ओर से विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सुशील कुमार जैन द्वारा तर्क प्रस्तुत किए गए, जबकि प्रतिवादियों की ओर से विद्वान वकील श्री नीरज शर्मा द्वारा तर्क प्रस्तुत किए गए। अपीलकर्ता और प्रतिवादियों की ओर से निम्नलिखित तर्क दिए गए: 

अपीलकर्ता/वादी

  1. अपीलकर्ता की ओर से पहला तर्क यह था कि वर्तमान स्थिति हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 के प्रावधान के अनुसार शासित होगी, क्योंकि जगन्नाथ सिंह की विधवा मैनाबाई 1973 में अपने पति की मृत्यु के समय जीवित थीं। जगन्नाथ सिंह, जिनकी मृत्यु बिना वसीयत के हुई थी, की संपत्ति में उनका हिस्सा उक्त अधिनियम की धारा 8 के अनुसार, उत्तरजीविता उत्तराधिकार के माध्यम से नहीं बल्कि बिना वसीयत के उत्तराधिकार के माध्यम से वर्ग I के उत्तराधिकारियों को न्यागत (डिवॉल्वड) या हस्तांतरित किया जाएगा। 
  2. अपीलकर्ता के वकील द्वारा दिया गया दूसरा तर्क यह था कि सहदायिक संपत्ति में मृतक का हित है जो बिना वसीयत के हस्तांतरित किया जाएगा, और यह संयुक्त परिवार की संपत्ति को अन्यथा प्रभावित नहीं करेगा। 
  3. तीसरा तर्क अपीलकर्ता के ‘विभाजन के लिए मुकदमा दायर करने के अधिकार’ के संबंध में दिया गया था। इसमें कहा गया कि संयुक्त परिवार की संपत्ति में विभाजन का अधिकार उसके दादा की मृत्यु के बाद भी जारी रहेगा और सहदायिक होने के नाते उसे विभाजन के लिए मुकदमा दायर करने का अधिकार है और इसे छीना नहीं जा सकता है। 
  4. अपीलकर्ता द्वारा आगे तर्क दिया गया कि मुकदमा वर्जित नहीं होगा क्योंकि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 केवल अपीलकर्ता के दादा जगन्नाथ सिंह की मृत्यु के समय ही लागू होगी, उनकी मृत्यु के बाद नहीं लागू होगी।
  5. अपीलकर्ता संयुक्त परिवार की संपत्ति में किसी अन्य की मृत्यु होने से पहले जीवित सहदायिक के रूप में विभाजन का हकदार है।
  6. अंत में, यह कहा गया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, केवल हिंदू कानून को रद्द करता है और उक्त अधिनियम की धारा 6 और 8 को सामंजस्यपूर्ण तरीके से पढ़ा जाना चाहिए। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 के तहत संयुक्त परिवार की संपत्ति को दिया गया दर्जा, अपीलकर्ता के दादा जगन्नाथ सिंह की मृत्यु पर धारा 8 के लागू होने मात्र के कारण नहीं छीना जा सकता 

प्रतिवादी

  1. प्रतिवादियों ने दावा किया कि एक बार जब धारा 6 के प्रावधान के कारण धारा 8 लागू हो जाती है, तो संयुक्त परिवार की संपत्ति संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रह जाती।
  2. यह तर्क दिया गया कि अब संपत्ति को प्राप्त करने के लिए धारा 30 या धारा 8 के तहत आवेदन किया जाएगा। धारा 30 उस स्थिति में लागू होगी जब वसीयत बनाई गई हो, तथा धारा 8 उस स्थिति में लागू होगी जब संयुक्त परिवार की संपत्ति का कोई सदस्य वसीयत बनाए बिना, अर्थात् बिना वसीयत किए मर जाता है। 
  3. उपरोक्त तर्कों के समर्थन में, प्रतिवादियों के विद्वान वकील ने कमिश्नर वेल्थ टैक्स, कानपुर एवं अन्य बनाम चंद्र सेन एवं अन्य (1986), और भंवर सिंह बनाम पूरन (2008) के मामलों का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि एक बार मामले के तथ्यों पर धारा 8 लागू हो जाने पर संयुक्त परिवार की संपत्ति संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रह जाती है। आगे कहा गया कि जब संयुक्त परिवार की संपत्ति अस्तित्व में नहीं रहती, तो सहदायिक के रूप में संपत्ति में विभाजन का कोई अधिकार नहीं होगा। 

उत्तम बनाम सौभाग सिंह एवं अन्य (2016) में शामिल कानून/अवधारणाएँ

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 4

यह धारा अधिनियम के अध्यारोही (ओवरराइडिंग) प्रभाव से संबंधित है, जिसमें अधिनियम के प्रारंभ होने से पूर्व मौजूद निम्नलिखित बातें किसी ऐसे विषय पर प्रभावी नहीं रहेंगी जिसके लिए इस अधिनियम में प्रावधान किया गया है:

  • कोई भी पाठ,
  • हिंदू कानून की व्याख्या का नियम, और
  • कोई भी रीती रिवाज या प्रथा

इसमें आगे यह भी प्रावधान किया गया कि अधिनियम के लागू होने से पहले लागू कोई भी अन्य कानून हिन्दुओं पर लागू नहीं होगा, यदि वह इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6

यह धारा सहदायिक संपत्ति में हित के हस्तांतरण से संबंधित है।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6(1)

धारा 6(1) में सहदायिक की पुत्री के संबंध में प्रावधान है, जो संयुक्त हिंदू परिवार का सदस्य है और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के प्रारंभ से मिताक्षरा कानून के अंतर्गत आता है।

  • वह जन्म से ही सहदायिक हो जाएगी, पुत्र के समान।
  • सहदायिक संपत्ति में उसके पुत्र के समान अधिकार और दायित्व होंगे।

और, जहां हिंदू मिताक्षरा सहदायिक के संबंध में कोई संदर्भ किया गया है, वहां यह समझा जाएगा कि इसमें सहदायिक की पुत्री का संदर्भ भी सम्मिलित है।

धारा 6 की उपधारा (1) के परंतुक में यह प्रावधान है कि 20 दिसंबर, 2004 से पहले हुए किसी भी निपटान या अलगाव को प्रभावित या अमान्य नहीं करेगा, जिसमें विभाजन या वसीयती निपटान शामिल है। 2005 के संशोधन से पहले, सहदायिक संपत्ति उत्तराधिकार के बजाय उत्तरजीविता के आधार पर हस्तांतरित की जाती थी। इससे पहले बेटियों को सहदायिक संपत्ति में शामिल नहीं किया जाता था, लेकिन 2005 में किए गए संशोधन के बाद बेटियों को भी जन्म से सहदायिक माना गया है और संपत्ति में उन्हें बेटों के समान अधिकार और दायित्व प्राप्त हैं। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6(3)

धारा 6(3) मिताक्षरा कानून द्वारा निपटाए गए संयुक्त परिवार की संपत्ति में एक हिंदू के हित के संबंध में प्रावधान से संबंधित है। यदि व्यक्ति की मृत्यु हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने से पहले हो जाती है, तो सहदायिक संपत्ति में उसका हित उत्तरजीविता के बजाय वसीयतनामा या निर्वसीयत उत्तराधिकार द्वारा हस्तांतरित किया जाएगा। सहदायिक संपत्ति का विभाजन इस प्रकार किया जाएगा मानो विभाजन पहले ही हो चुका हो।

इसके अलावा, बेटी को भी बेटे के समान ही हिस्सा आवंटित किया जाएगा। पूर्व मृत पुत्री या पुत्र का हिस्सा पूर्व मृत पुत्री या पुत्र की जीवित संतान को उसी प्रकार आवंटित किया जाएगा जैसे कि वे विभाजन के समय जीवित थे। पूर्व मृत पुत्री या पुत्र की पूर्व मृत संतान के हिस्से के मामले में, ऐसा हिस्सा पूर्व मृत पुत्री या पुत्र की पूर्व मृत संतान के बच्चे को आवंटित किया जाएगा। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6(4)

धारा 6(4) न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को निम्नलिखित व्यक्तियों अर्थात् पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध उसके पिता, दादा या परदादा से बकाया ऋण वसूलने के प्रयोजनार्थ इस आधार पर कार्यवाही करने के किसी अधिकार को मान्यता देने से रोकती है कि हिंदू कानून के तहत एक सच्चा दायित्व मौजूद है। 

हालाँकि, धारा 6 की उपधारा (4) के प्रावधान में एक अपवाद दिया गया है। इसमें प्रावधान है कि यदि संशोधन के लागू होने से पहले कोई ऋण बकाया है, तो उस स्थिति में ऋणदाता के अधिकार प्रभावित नहीं होंगे। उक्त स्थिति में, ऋणदाता अपने बकाया ऋण की वसूली के लिए पुत्र, पौत्र या परपोते के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6(5)

धारा 6(5) में केवल यह कहा गया है कि यह धारा 20 दिसंबर 2004 से पहले हुए विभाजन पर लागू नहीं होगी।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8

धारा 8 पुरुषों के मामले में उत्तराधिकार के सामान्य नियम से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि कोई हिंदू पुरुष बिना वसीयत किए मर जाता है तो उस संयुक्त परिवार की संपत्ति इन प्रावधानों के अनुसार हस्तांतरित की जाएगी: 

  • अनुसूची में निर्दिष्ट वर्ग I के उत्तराधिकारियों पर,
  • वर्ग I में उत्तराधिकारियों की अनुपस्थिति में, अनुसूची के वर्ग II में निर्दिष्ट रिश्तेदारों पर। 
  • उपर्युक्त दोनों वर्गों में उत्तराधिकारियों की अनुपस्थिति की स्थिति में, मृतक के सगे-सम्बन्धी द्वारा, 
  • अंत में, सगोत्रीय (एग्नेट्स) व्यक्तियों की अनुपस्थिति में, मृतक के सजातीय (कॉग्नेट्स) व्यक्तियों पर।

तथापि, ऐसे मामलों में जहां मृतक के बाद कोई भी सजातीय जीवित नहीं रहता है, तो ऐसे मामलों में राज-हस्तांतरण (एस्चीट) लागू होता है। हिंदू कानून के अंतर्गत, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 29 में संपत्ति अधिग्रहण का सिद्धांत प्रदान किया गया है। धारा 29 उत्तराधिकारियों की विफलता से संबंधित है, इसमें प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति बिना वसीयत के मर जाता है और उसकी संपत्ति की देखभाल करने के लिए कोई योग्य उत्तराधिकारी नहीं रह जाता है, तो उस स्थिति में संपत्ति सरकार को उसी प्रकार हस्तांतरित की जाएगी जिस प्रकार वह समान अधिकारों और दायित्वों वाले उत्तराधिकारी को हस्तांतरित की गई थी। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 19

धारा 19 दो या अधिक उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकार की पद्धति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि दो या अधिक उत्तराधिकारी एक साथ किसी निर्वसीयत व्यक्ति की संपत्ति पर उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं, तो उन्हें संपत्ति प्रति व्यक्ति के आधार पर लेनी होगी, न कि वर्गों के आधार पर तथा उन्हें संयुक्त किरायेदारों के रूप में नहीं, बल्कि सामान्य किरायेदारों के रूप में लेनी होगी। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 30

यह धारा विशेष रूप से वसीयती उत्तराधिकार से संबंधित है और इसमें कहा गया है कि कोई भी हिंदू, वसीयत या संपत्ति के अन्य वसीयती निपटान के माध्यम से, किसी भी संपत्ति का निपटान कर सकता है, जिसे वह भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के प्रावधानों के अनुसार या हिंदुओं पर लागू किसी अन्य कानून के अनुसार प्रवृत्त (डिस्पोज) करने में सक्षम है। 

उत्तम बनाम सौभाग सिंह एवं अन्य (2016) में शामिल पूर्ववर्ती मामले 

कमिश्नर वेल्थ टैक्स, कानपुर एवं अन्य बनाम चंदर सेन एवं अन्य (1986)

इस मामले में, प्रतिवादी के पिता रंगी लाल के पास अचल संपत्ति और पारिवारिक व्यवसाय था। रंगी लाल की मृत्यु के बाद, वे अपने पीछे पुत्र चंद्र सेन और दो पौत्रों को छोड़ गए। उनकी मृत्यु के समय उनके खातों में कुल 1,85,043 रुपए की राशि थी। वर्ष 1966-67 में संपत्ति कर निर्धारण के दौरान, प्रतिवादी चंदर सेन ने अपने दो बेटों के साथ एक संयुक्त परिवार बनाया और अपने कुल धन का कर रिटर्न दाखिल किया, जिसमें पारिवारिक संपत्ति भी शामिल थी, जो व्यवसाय की परिसंपत्तियों सहित उत्तरजीविता के माध्यम से उन्हें हस्तांतरित हुई थी। हालाँकि, करदाता द्वारा 1,85,013 रुपये की राशि को उक्त रिटर्न में शामिल नहीं किया गया था। अगले कर निर्धारण वर्ष में भी 1,82,742 रुपये की राशि शामिल नहीं की गई। 

प्रतिवादी ने आयकर अधिकारी के समक्ष दावा किया कि दावा की गई राशि उसकी व्यक्तिगत हैसियत में थी तथा उसे पारिवारिक संपत्ति से बाहर रखा गया था। आयकर अधिकारी ने प्रतिवादी-करदाता द्वारा उठाए गए सभी तर्कों को अस्वीकार कर दिया। आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) ने राजस्व अधिकारियों द्वारा दायर अपीलों को खारिज कर दिया, तथा आयकर के अपीलीय सहायक आयुक्त ने प्रतिवादी-करदाता की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि चंद्र सेन की पूंजी उनकी व्यक्तिगत हैसियत में है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा सुनाए गए आदेश की पुष्टि की। विभाजन के बाद पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त पुत्र की आय या परिसंपत्तियों को हिंदू अविभाजित परिवार की आय के रूप में या पुत्र की व्यक्तिगत आय के रूप में मूल्यांकित किया जा सकता है, इस विषय पर विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में मामला उठाया गया। न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय से सहमति जताते हुए कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अनुसार, कानूनी स्थिति यह है कि जब किसी पुत्र को बिना वसीयत के उत्तराधिकार के माध्यम से संपत्ति हस्तांतरित की जाती है, तो उसका मूल्यांकन व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में किया जाना चाहिए, न कि हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति के रूप में किया जाना चाहिए। 

भंवर सिंह बनाम पूरन (2008)

इस मामले में भीमा नामक व्यक्ति की 1972 में मृत्यु हो गई थी और वह अपनी संपत्ति अपने बेटे संत राम और तीन बेटियों के पास छोड़ गया था। वर्तमान मामले में अपीलकर्ता भंवर सिंह पुत्र संत राम ने भीम के बच्चों के बीच अलगाव को खत्म करने के लिए विभाजन का मुकदमा दायर किया। विचारण न्यायालय ने अपीलकर्ता के पक्ष में अपना फैसला दिया लेकिन प्रथम अपीलीय न्यायालय ने इसे पलट दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कमिश्नर वेल्थ टैक्स, कानपुर एवं अन्य बनाम चंद्र सेन एवं अन्य (1986) में दिए गए निर्णय पर भरोसा किया और माना कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अनुसार, यदि पुत्र को बिना वसीयत के उत्तराधिकार प्राप्त हो जाता है तो संपत्ति संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रह जाती। 

युधिष्ठिर बनाम अशोक कुमार (1986)

इस मामले में, मकान मालिक-प्रतिवादी ने व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर अपीलकर्ता को बेदखल करने के लिए किराया न्यायाधिकरण के समक्ष याचिका दायर की। हालाँकि, किराया न्यायाधिकरण ने उक्त आधार पर उनकी याचिका खारिज कर दी। उन्होंने किराया अपीलीय न्यायाधिकरण का दरवाजा खटखटाया, जिसमें कहा गया कि जिस मकान में प्रतिवादी अपने परिवार के साथ रह रहा है, वह उसके दादा का है। इसलिए वह मकान का मालिक नहीं बल्कि अनुज्ञप्तिधारी (लाइसेंसी) है। प्रतिवादी द्वारा अतिरिक्त साक्ष्य भी प्रस्तुत किये गये, जिसे अपीलीय प्राधिकारी ने स्वीकार कर लिया। 

बाद में, अपीलकर्ता ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 151 के तहत पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। अंततः अपीलकर्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय की पुष्टि करते हुए कहा कि प्रतिवादी ने बेदखली की कार्रवाई जारी रखने के लिए सभी आवश्यकताएं पूरी की हैं। न्यायालय ने जन्म के बाद पुत्र के अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार के प्रश्न का भी उल्लेख किया। यह देखा गया कि जब पिता को अपने पिता से उत्तराधिकार के रूप में संपत्ति मिलती है, तो उसके बेटे को भी उसमें हिस्सा मिलना चाहिए, भले ही संपत्ति बंटवारे से अलग हुई हो या संयुक्त परिवार की संपत्ति हो। 

गुरुपद खंडप्पा मगदुम बनाम हीराबाई खंडप्पा मगदुम और अन्य (1978)

इस मामले में, खंडप्पा संगप्पा मगदुम की मृत्यु 27 जून 1960 को हुई और वे अपने पीछे पत्नी हीराबाई, दो पुत्रों गुरुपद और शिवपद तथा तीन पुत्रियों को छोड़ गए। मृतक की पत्नी ने सिविल शिकायत दायर कर संयुक्त परिवार की संपत्ति में 7/24 हिस्सा मांगा। यदि मृतक के जीवनकाल में ही हिस्सेदारी मांगी जाती तो हीराबाई को उक्त संयुक्त परिवार की संपत्ति का 1/4 हिस्सा मिलता है। विचारण न्यायालय ने कहा कि चूंकि विवादित संपत्ति संयुक्त परिवार की संपत्ति थी, इसलिए इसका कोई बंटवारा नहीं हुआ। धारा 6 और 8 के संबंध में मुद्दा उठा कि संपत्ति का कितना हिस्सा मृतक की पत्नी हीराबाई को दिया जाएगा। विचारण न्यायालय ने प्रतिवादी द्वारा मांगे गए दावे को खारिज कर दिया और हिस्सेदारी को 1/24 तक सीमित कर दिया। मृतक की पत्नी, प्रतिवादी ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें रंगूबाई लालजी बनाम लक्ष्मण लालजी के मामले पर भरोसा करने के बाद हिस्सेदारी को 7/24 तक बढ़ा दिया गया क्योंकि पहले कोई विभाजन नहीं हुआ था और संपत्ति एक संयुक्त परिवार की थी। अब, बम्बई उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका प्रस्तुत की गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने बंबई उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा और कहा कि उच्च न्यायालय का निर्णय अच्छी तरह से स्थापित और सही है। 

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में अपीलकर्ता द्वारा दायर सिविल अपील को खारिज कर दिया और कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अनुसार जगन्नाथ सिंह की मृत्यु के बाद पैतृक संपत्ति उत्तराधिकार द्वारा हस्तांतरित की गई थी। 1973 में जगन्नाथ सिंह की मृत्यु के बाद, पैतृक संपत्ति संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रही और मृतक (जगन्नाथ) की पत्नी मैनाबाई और सहदायिक (इस मामले में प्रतिवादी) उस संपत्ति में संयुक्त किरायेदार के रूप में नहीं बल्कि आम किरायेदार के रूप में किरायेदार थे। अपीलकर्ता का जन्म 1977 में हुआ था और उसने कहा कि पैतृक संपत्ति अब संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रह गई है; इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्ता द्वारा दायर मुकदमा कोई मूल्य नहीं रखता है और यह स्वीकार्य नहीं है। 

इस निर्णय के पीछे तर्क

सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य रूप से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की प्रस्तावना पर ध्यान केंद्रित किया, जिसमें कहा गया है, “हिंदुओं में बिना वसीयत के उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध करने के लिए एक अधिनियम।” गुरुपद खंडप्पा मगदुम बनाम हीराभाई खंडप्पा मगदुम (1978) और श्यामा देवी एवं अन्य बनाम मंजू शुक्ला एवं अन्य (1994) के निर्णयों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संदर्भित किया गया था, जिसमें यह देखा गया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 के प्रावधान द्वारा कवर किए गए मामलों में, संयुक्त परिवार की संपत्ति में मृतक के हिस्से या हिस्से को निर्धारित करने के उद्देश्य से मृतक की मृत्यु से पहले एक काल्पनिक विभाजन करना महत्वपूर्ण है। 

न्यायालय ने इसके अलावा, संपत्ति कर आयुक्त, कानपुर एवं अन्य बनाम चंद्र सेन (1986), युधिष्ठिर बनाम अशोक कुमार (1987) और भंवर सिंह बनाम पूरन (2008) में सुनाए गए अपने पहले के निर्णयों का हवाला दिया, जहां न्यायालय ने धारा 4, 6, 8 और 19 का संयुक्त वाचन किया था, और कहा गया था कि जब उत्तराधिकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के इन प्रावधानों के अनुसार होता है, तो पूरा संयुक्त परिवार संयुक्त परिवार नहीं रह जाता है और ऐसे मृत व्यक्ति के उत्तराधिकारी संयुक्त रूप से नहीं बल्कि आम तौर पर किरायेदार बन जाएंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तम बनाम सौभाग सिंह (2016) के मामले में वादी द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए कहा कि वादी के दादा जगन्नाथ सिंह की मृत्यु 1973 में हो गई थी और उनकी मृत्यु के बाद संयुक्त परिवार की संपत्ति संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रह गई और उनके बेटों के बीच व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में विभाजित हो गई है।

उत्तम बनाम सौभाग सिंह एवं अन्य (2016) का विश्लेषण

उत्तम बनाम सौभाग सिंह का मामला अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने हिंदू कानून के तहत संयुक्त परिवार की संपत्ति के उत्तराधिकार के संबंध में आगे के न्यायिक निर्णयों का मार्ग प्रशस्त किया है। इस मामले ने पिता की संपत्ति पर पुत्र की स्थिति और दादा की संपत्ति पर उसके अधिकार के संबंध में एक अनूठा परिप्रेक्ष्य दिया है। इस निर्णय का मुख्य केंद्र हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6, 8 और 19 की व्याख्या पर है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले के निर्णयों पर भरोसा करते हुए दोहराया कि धारा 8 को लागू करने पर, यदि उत्तराधिकार उक्त प्रावधान के अनुसार हो रहा है, तो संयुक्त परिवार की संपत्ति संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रह जाती है, और जब वह संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रह जाती है, तो उस संपत्ति को धारण करने वाले व्यक्ति संयुक्त किरायेदार के बजाय सामान्य किरायेदार होंगे। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि यह मामला एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बिना वसीयत के मृत्यु के मामले में हिंदू कानून के तहत संयुक्त परिवार की संपत्ति में उत्तराधिकारियों की स्थिति स्पष्ट की गई है। 

आलोचना

उपर्युक्त मामलों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय पर अधिक भरोसा नहीं किया गया है। यदि हम चंद्रसेन के फैसले पर गौर करें तो पाएंगे कि विषय-वस्तु समान नहीं थी, तथा यह माना गया था कि पिता की मृत्यु के बाद, पुत्र अपनी व्यक्तिगत हैसियत से विरासत में मिली संपत्ति प्राप्त कर लेता है। युधिष्ठिर बनाम अशोक कुमार (1986) मामले में यही मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आया था, जो पैतृक संपत्ति के संबंध में नहीं बल्कि स्व-अर्जित संपत्ति के संबंध में था। गुरुपद के फैसले में यह माना गया कि कोई पूर्व विभाजन नहीं हुआ था और इस मामले में धारा 8 और 6 प्रावधान लागू होंगे। इसका अर्थ यह लगाया गया कि काल्पनिक विभाजन के बाद, संयुक्त परिवार की संपत्ति व्यक्तिगत संपत्तियों में परिवर्तित हो जाएगी, हालांकि, दूसरी ओर, मुल्ला ने हिंदू कानून पर, इस मामले का अवलोकन करते हुए कहा कि संयुक्त परिवार की संपत्ति को व्यक्तिगत संपत्तियों में विभाजित करने से, सर्वोच्च न्यायालय का मतलब संयुक्त परिवार का पूर्ण विघटन नहीं है और इसके परिणामस्वरूप सहदायिकता समाप्त नहीं होगी। उत्तम बनाम सौभाग सिंह (2016) के मामले में न्यायालय ने मृतक के हिस्से का वितरण करने और सहदायिकता को समाप्त न करने के लिए काल्पनिक विभाजन का कानूनी कल्पित मामला चलाया है। 

निष्कर्ष

संक्षेप में, इसी मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 या धारा 6 के प्रावधान के लागू होने के बाद, हिंदू पुरुष की मृत्यु के कारण, संपत्ति उत्तराधिकार के बजाय निर्वसीयत उत्तराधिकार के माध्यम से हस्तांतरित होगी, जिसके परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार की संपत्ति समाप्त हो जाएगी। इसके अलावा, न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में भी इसे दोहराया है। उदाहरण के लिए, चंदर सेन के मामले में, एक हिंदू पुरुष की मृत्यु के मामले में, जिसे मिताक्षरा कानून द्वारा निपटाया जाता है, मृतक की स्व-अर्जित संपत्ति, वर्ग-I के कानूनी उत्तराधिकारियों को उनकी व्यक्तिगत क्षमता में उनकी व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में हस्तांतरित हो जाएगी। यदि मृतक के पास कोई पैतृक संपत्ति है, तो उसका काल्पनिक विभाजन होगा, और हिस्से का निर्धारण मृतक की मृत्यु से ठीक पहले किया जाएगा। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

बिना वसीयत उत्तराधिकार क्या है?

बिना वसीयत के उत्तराधिकार एक ऐसी स्थिति है, जिसमें कोई व्यक्ति वसीयत या वसीयतनामा बनाये बिना मर जाता है। उसकी मृत्यु के बाद, मृतक की संपत्ति को उत्तराधिकार कानून के अनुसार विभाजित किया जाता है। 

हिंदू कानून के तहत मिताक्षरा प्रणाली की अवधारणा क्या है?

मिताक्षरा कानून जन्म से स्वामित्व की अवधारणा पर आधारित था और इसका तात्पर्य यह है कि पुत्र अपने पिता के जीवित रहते हुए संपत्ति पर अधिकार का दावा कर सकता है। यह मूलतः उत्तराधिकार के कानूनों से संबंधित है, जिसमें पैतृक संपत्ति में पुत्रों का जन्मसिद्ध अधिकार भी शामिल है। बंगाल और असम को छोड़कर, मिताक्षरा कानून पूरे भारत में लागू होता है। 

संदर्भ

 

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