पुष्पलता एन.वी. बनाम वी. पद्मा (2010)

0
200

यह लेख Shenbaga Seeralan S द्वारा लिखा गया है। यह लेख पुष्पलता एन.वी. बनाम वी. पद्मा (2010) के मामले पर विस्तार से चर्चा करता है जो एक निर्वसीयत (इंटेस्टेट) संपत्ति के विभाजन के विवाद से संबंधित है। इस मामले का निर्णय सहदायिक (कोपार्सनेरी) संपत्ति में हित से संबंधित एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देता है। यह लेख तथ्यात्मक आधार और कानूनी दृष्टिकोण के साथ-साथ परिस्थिति की आलोचनात्मक जांच का गहन विश्लेषण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

सामुदायिक अधिकारों से व्यक्तिगत अधिकारों के विघटन के बाद संपत्ति के स्वामित्व का दावा धीरे-धीरे शुरू हुआ। अधिक सटीक रूप से जब परिवार की संरचना को वैध बनाने की आवश्यकता सामने आई, तो संपत्ति का महत्व कई गुना बढ़ गया। अमेरिकी कानूनी विद्वान और दार्शनिक नाथन रोस्को पाउंड ने सामाजिक इंजीनियरिंग के अपने सिद्धांत में संपत्ति की प्रकृति और लोगों के एक समूह के साथ इसके लगाव का उल्लेख किया है। उन्होंने बताया कि किसी संपत्ति से जुड़ा सबसे पहला दावा लोगों के एक समूह द्वारा किया गया था, न कि किसी व्यक्ति द्वारा। राजा के शासन की स्थापना के बाद भूमि पर नियंत्रण का रूप सांप्रदायिक स्वामित्व से व्यक्तिगत अधिकार में बदल गया। अंग्रेज न्यायविद एडवर्ड जेन्क्स, जो संपत्ति के सामाजिक पहलू को बढ़ावा देने में अग्रणी थे, ने कहा कि संपत्ति व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों दोनों से जुड़ी है। उन्होंने इस तथ्य पर जोर दिया कि किसी को भी संपत्ति पर असमान अधिकार लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, बल्कि उन्होंने कहा कि उपयोग भूमि के शासन और समुदाय के कल्याण तक ही सीमित होना चाहिए।

संपत्ति को विभिन्न प्रकारों में श्रेणीीकृत किया जा सकता है जैसे मूर्त और अमूर्त, वास्तविक और व्यक्तिगत, भौतिक और अभौतिक, चल और अचल। भारतीय कानूनी तंत्र ने विभिन्न अधिनियमों और नीतियों के माध्यम से किसी व्यक्ति के संपत्ति के अधिकारों को निर्धारित करने के लिए एक अर्ध लचीला तंत्र स्थापित किया है। एक व्यक्ति को दिए गए अधिकार संपत्ति की विरासत की प्रकृति और संपत्ति के अन्य दावेदारों के अधिकारों के साथ भी जुड़े हुए हैं। यह लेख मुख्य रूप से पुष्पलता एन.वी बनाम वी. पद्मा और अन्य (2010) के मामले से संबंधित है जो एक परिवार से जुड़ी अचल वंशानुगत संपत्तियों पर अधिकारों से संबंधित है। संपत्ति पर लैंगिक अधिकारों के प्रश्न, विरासत की विधि और सहदायिक के बीच संपत्ति के हिस्से के बारे में इस लेख के माध्यम से विस्तार से जांच की जानी है। 

मामले का विवरण

मामले का नाम : पुष्पलता एन.वी. बनाम वी. पद्मा एवं अन्य (2010), (इसके बाद इसे ‘मामला’ कहा जाएगा)

अपीलकर्ता/वादी : पुष्पलता एन.वी.

प्रतिवादी/अभियुक्त : वी. पद्मा एवं अन्य

प्रकरण संख्या : नियमित प्रथम अपील संख्या 326/2004

समतुल्य उद्धरण : ए आई आर 2010 कांट 124

पीठ : न्यायमूर्ति एन. कुमार और न्यायमूर्ति ए.एन. वेणुगोपाल गौड़ा

न्यायालय : कर्नाटक उच्च न्यायालय

इसमें शामिल महत्वपूर्ण क़ानून और प्रासंगिक प्रावधान:

मामले के तथ्य

मुकदमे का मुख्य मुद्दा A, B, C, D और E के रूप में निर्धारित पाँच संपत्तियों के इर्द-गिर्द घूमता था। वादी के पिता श्री डी.एन वसंत कुमार मुकदमे की संपत्ति के मालिक थे। उन्होंने यह संपत्ति अपने पिता, स्श्रेणीीय श्री डी.के नाभिराजैया से हासिल की थी। पैतृक संपत्ति श्री डी.एन वसंत कुमार को 29 मार्च, 1967 को विभाजन के पंजीकृत विलेख (डीड) के साक्ष्य के माध्यम से दी गई थी। इस तरह, वादी के पिता ने उक्त संपत्ति हिंदू अविभाजित परिवार की अपनी शाखा को प्राप्त कर ली थी। 

परिणामस्वरूप, श्री डी.एन वसंत कुमार मुकदमे की संपत्ति के कर्ता बन गए और उनके दो बेटे सहदायिक बन गए। समय के साथ वादी के पिता की 31 दिसंबर, 1984 को बिना वसीयत के मृत्यु हो गई और वे अपनी पत्नी वी. पद्मा को पीछे छोड़ गए, जो पहली प्रतिवादी हैं; और दो बेटियां (पुष्पलता एन.वी, वादी और दूसरी बेटी, दूसरी प्रतिवादी) और दो बेटे जो प्रतिवादी 3 और 4 हैं। अनुसूचित संपत्तियां C और D कर्नाटक भूमि सुधार अधिनियम, 1961 के तहत जमीन को जोतने वालों को हस्तांतरित कर दी गईं। हिंदू परिवार कानून के अनुसार, प्रतिवादी 3 और 4 जो पैतृक संपत्ति के सहदायिक भी हैं, को 2/3 हिस्सा मिला, बाकी 1/3 हिस्सा वादी और प्रतिवादी 1 से 4 के बीच बांटा गया। इस आधार पर वादी को 1/20 हिस्सा मिला। 

इस निर्णय से व्यथित होकर स्श्रेणीीय श्री डी.एन. वसंत कुमार की पहली बेटी ने विचारण न्यायालय में घोषणा के लिए मुकदमा दायर किया। उसने दलील दी कि उसके पिता की मृत्यु के बाद, सभी बच्चों को उसकी संपत्ति विरासत में मिली थी। उसने दावा किया कि वह संपत्ति में 1/5वें हिस्से की हकदार है, जो माँ और चार बच्चों के बीच समान रूप से विभाजित है। उसने अपनी दलीलों में यह भी उल्लेख किया कि अनुसूचित संपत्ति ‘A’ से एक हजार रुपये का किराया मिल रहा था और इसे उसकी माँ द्वारा वसूला जाता था, जो पहली प्रतिवादी है। उसने अनुसूचित संपत्ति ‘A’ की आय से होने वाले लाभ में अपना हिस्सा मांगा। प्रतिवादियों को सम्मन भेजा गया, जिन्होंने अपने दावों और अधिकारों को गिनाते हुए एक विस्तृत लिखित बयान दिया। वादी ने खुद को गवाह के रूप में पेश किया और अपने दावे के समर्थन में सबूत के तौर पर तीन दस्तावेज पेश किए। इसी तरह, प्रतिवादियों ने तीसरे प्रतिवादी श्री एन.वी. तेज कुमार को गवाह के रूप में पेश किया और उनके द्वारा कोई दस्तावेज पेश नहीं किया गया। 

विचारण न्यायालय ने इस मामले से संबंधित मुद्दों को तैयार किया और प्रत्येक मुद्दे को अलग से संबोधित करने का प्रयास किया। निम्नलिखित मुद्दे तैयार किए गए हैं।

  • क्या वादी ने यह साबित किया कि डी.वी. वसंत कुमार बिना वसीयत के ही संपत्ति छोड़कर मर गए?
  • क्या वादी ने अनुसूचित संपत्तियों के 1/5वें हिस्से का अपना दावा साबित किया?
  • क्या वादी ने यह साबित कर दिया कि वह अनुसूचित सम्पत्ति ‘A’ से अन्तः लाभ की हकदार है?
  • क्या वादी किसी अन्य राहत का हकदार है?

मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य की जांच और गहन निरीक्षण के बाद विचारण न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। 

विचारण न्यायालय का फैसला

विचारण न्यायालय ने उपरोक्त मुकदमे का फैसला सुनाते हुए आश्वासन दिया कि हिंदू अविभाजित परिवार के कर्ता की मृत्यु बिना वसीयत के हुई है। गवाहों और दस्तावेजों की जांच करने पर, न्यायाधीश ने पुष्टि की कि संपत्ति पैतृक संपत्ति थी, इसलिए पुरुष वंश संपत्ति का प्रत्यक्ष सहदायिक बन जाएगा। इसलिए, एच.एस अधिनियम, 1956 की धारा 6 के अनुसार अनुसूचित पैतृक संपत्ति में स्श्रेणीीय श्री डी.एन वसंत कुमार को 1/4 हिस्सा मिला। वादी के पिता ने अपनी पत्नी, दो बेटियों और दो बेटों को पीछे छोड़ दिया। इसलिए, प्रत्येक शेयरधारक को स्श्रेणीीय श्री डी.एन वसंत कुमार के 1/4 हिस्से का 1/5 हिस्सा मिलेगा। इस प्रकार, वादी पैतृक संपत्ति में 1/20 हिस्से का हकदार था। जबकि, कर्ता के दो बेटे पहले से ही पैतृक संपत्ति के सहदायिक थे, उन्हें संपत्ति का 1/4 हिस्सा मिलेगा, इसके अलावा उनके पिता श्री डी.एन वसंत कुमार के 1/4 हिस्से में 1/5 हिस्सा मिलेगा। इस प्रकार, विचारण न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संपत्ति A, B और E में 1/20 हिस्सा न्यायोचित था। 

अनुसूचित संपत्ति A के किराए से होने वाले मध्यवर्ती लाभ (मीन प्रॉफिट)  में हिस्सेदारी के सवाल पर विचार करते हुए, न्यायालय ने संपत्ति की स्थिति की जांच की। प्रतिवादियों ने यह तर्क दिया कि उक्त संपत्ति के दो हिस्से किराए पर दिए गए थे और बेदखली की कार्यवाही की गई थी। प्रथम प्रतिवादी द्वारा उन हिस्सों से किराए के रूप में कुल 1,147 रुपये वसूले गए। न्यायालय ने माना कि वादी मध्यवर्ती लाभ में हिस्सेदारी का हकदार था, हालांकि, शेयरों की मात्रा का निर्धारण एक अलग जांच द्वारा किया जाना था। इस प्रकार विचारण न्यायालय ने 17 जनवरी, 2004 को वादी के पक्ष में आंशिक रूप से मुकदमा चलाया। 

समय के साथ, वर्ष 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में एक संशोधन पारित किया गया जिसे हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 नाम दिया गया, जिसके तहत सहदायिक संपत्ति पर अधिकार सहदायिक की बेटी को प्रदान किया गया, जो पुरुष उत्तराधिकारी के बराबर है। विचारण न्यायालय के आदेश से व्यथित और नवीनतम संशोधन से प्रभावित होकर, वादी ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष अपील का विकल्प चुना।

मामले में उठाए गए मुद्दे

विचारण न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश के खिलाफ वादी द्वारा की गई अपील में उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत मुद्दे थे:- 

  • मिताक्षरा कानून द्वारा शासित संयुक्त हिंदू परिवार में सहदायिक की पुत्री को क्या अधिकार प्राप्त हैं?
  • सहदायिक संपत्ति पर विवाहित पुत्री के क्या अधिकार हैं?
  • क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 की धारा 6 पहले से किए गए विभाजन पर लागू होती है?
  • क्या संशोधन का पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव होगा?
  • एच.एस अधिनियम की धारा 6 जिसे निरस्त कर दिया गया, के अंतर्गत अधिकारों का क्या प्रभाव होगा?

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता और प्रतिवादी दोनों के वकीलों ने कर्नाटक उच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष अपनी दलीलें रखीं। 

अपीलकर्ताओं द्वारा दिए गए तर्क

अपीलकर्ता की ओर से उपस्थित विद्वान वकील श्री एल. गोविंदराज ने वर्ष 2005 में एच.एस अधिनियम में किए गए हाल के संशोधन का हवाला दिया। संशोधन से पहले, केवल पोते को ही दादा की संपत्ति में सहदायिक माना जाता था। यह एक लिंग-प्रतिबंधक प्रावधान था जो हिंदू अविभाजित परिवार की महिला सदस्यों की भलाई के लिए एक बड़ा खतरा था। एच.एस अधिनियम की धारा 6 में संशोधन करके, संसद ने पैतृक संपत्ति में वंशावली के संबंध में अधिक संतुलित और लिंग-तटस्थ (जेंडर-न्यूट्रल) दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त किया। संशोधन ने पैतृक संपत्ति को साझा करते समय पोतों के समान पोतियों को समान अधिकार प्रदान किए। यह अधिकार एक महिला को जन्म से प्रदान किया गया था। यह संशोधन भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के अनुरूप था।

अनुसूचित संपत्ति ‘A’ से प्राप्त मध्यवर्ती लाभ के संबंध में, किराया राशि प्रतिवादी 1 (अपीलकर्ता की मां) द्वारा प्राप्त की गई थी। वकील द्वारा यह दलील दी गई कि अपीलकर्ता को किसी भी पैतृक संपत्ति से प्राप्त किराया राशि से, राशि पर विचार किए बिना या उसके बिना, उचित हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार था। इसलिए, यह दलील दी गई कि किराया राशि का 1/5वाँ हिस्सा अनुसूचित संपत्ति ‘A’ से प्राप्त किराया राशि में भी लागू होता है। विद्वान वकील ने यह भी तर्क दिया कि वाद संपत्तियों का विभाजन 20 दिसंबर, 2004 से पहले नहीं किया गया था और इसलिए किए गए संशोधन की दृष्टि को परिकल्पित करने के लिए, नए जोड़े गए प्रावधानों का किए गए विभाजन पर पूर्वव्यापी प्रभाव होना चाहिए। इस प्रकार, यह दलील दी गई कि विचारण न्यायालय के फैसले को सही किया जाना चाहिए ताकि वादी को पैतृक संपत्ति में उसका उचित हिस्सा मिल सके। 

प्रतिवादियों द्वारा दिए गए तर्क

प्रतिवादियों की ओर से विद्वान वकील श्री आर.बी. सदाशिवप्पा उपस्थित हुए। अपीलकर्ता वकील के तर्क का प्रतिवाद करते हुए, विद्वान वकील ने संशोधित प्रावधान के शब्दों को उद्धृत किया। संशोधन में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के बाद से ही सहदायिक की बेटियों को सहदायिक माना जाना चाहिए। वकील ने तर्क दिया कि उत्तराधिकार कर्ता श्री डी.एन. वसंत कुमार की मृत्यु के बाद शुरू हुआ, जो 2005 के संशोधन से पहले हुईं थी। इसलिए, परिवार के प्रत्येक सदस्य को मिलने वाला हिस्सा उस संदर्भ तिथि के आधार पर निर्धारित किया गया था। यह आगे रखा गया कि संशोधन के इस शब्द से यह स्पष्ट था कि सहदायिक के बेटों को पैतृक संपत्ति के 2/4 हिस्से के साथ-साथ उनके पिता की संपत्ति में हिस्सा भी मिला था। पैतृक संपत्ति सह-उत्तराधिकारियों के बीच बांटी गई थी, जिसमें श्री आर.बी. सदाशिवप्पा के पुत्र भी शामिल थे, इसलिए संपत्ति को श्री सदाशिवप्पा, उनके दो पुत्रों और उनके भाई के बीच बांट दिया गया।

वकील ने इस विचार का विरोध किया कि नए संशोधित धारा का पूर्वव्यापी प्रभाव होना चाहिए। पूर्वव्यापी प्रभाव के माध्यम से निहित अधिकार को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए, विद्वान वकील ने तर्क दिया कि उत्तराधिकार की तिथि पर प्रावधान को ही ध्यान में रखा जाना चाहिए और नया कानून लंबित अपील पर लागू नहीं होता है।

अनुसूचित संपत्ति ‘A’ से होने वाले मध्यवर्ती लाभ के मामले में यह तर्क दिया गया कि प्रतिवादी 1 बेदखली की कार्यवाही में होने वाले अपने चिकित्सा और कानूनी खर्चों के लिए किराये की राशि का उपयोग कर रही है। इसके अलावा यह भी उल्लेख किया गया कि वादी को प्रतिवादी 1 से व्यक्तिगत और पारिवारिक जरूरतों के लिए पैसे मिलते थे, जिसका कभी हिसाब नहीं दिया गया। इसलिए, इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह भी तर्क दिया गया कि वादी को मध्यवर्ती लाभ का हिस्सा नहीं दिया जाना चाहिए। विद्वान वकील ने अंततः अपील को खारिज करने और अनुसूचित संपत्तियों में हिस्सेदारी के संबंध में विचारण न्यायालय के फैसले का पता लगाने की प्रार्थना की। 

पुष्पलता एन.वी. बनाम वी. पद्मा (2010) में चर्चित कानून

इस मामले में एच.एस अधिनियम और भारतीय संविधान के प्रावधान शामिल हैं, जो विवाद का मूल आधार हैं।

एच.एस अधिनियम की धारा 6

यह प्रावधान परिवार के पुरुष वंश को सहदायिक संपत्तियों में हित के हस्तांतरण को सक्षम बनाता है। इस वंश में लगातार तीन पीढ़ियाँ शामिल हैं, यह अधिकार जन्म से पुरुष सदस्यों को दिया गया था और यह मिताक्षर कानून का पर्याय था। यह जन्म के समय सहदायिक को दिया गया अधिकार है। यह प्रावधान न केवल अधिकारों की गारंटी देता है बल्कि सहदायिको को संपत्ति से जुड़ी देनदारियों के अधीन भी करता है। संशोधन अधिनियम की धारा 6 की उप-धारा (1) संशोधन अधिनियम के प्रारंभ पर और उसके बाद से मिताक्षर कानून द्वारा शासित हिंदू अविभाजित परिवार में सहदायिक की बेटी को सहदायिक होने का अधिकार प्रदान करती है। यह अधिकार प्रदान किया जाता है बशर्ते कि बेटी सहदायिक की जैविक बेटी हो। उसे सह-संपत्ति पर अधिकार दिए जाते जैसे कि वह एक पुत्र होती तो उसे होता। यह प्रावधान बेटी को सह-आंशिक संपत्ति के संबंध में कुछ देनदारियां भी देता है। हालांकि, यह प्रावधान अधिकार को सक्षम नहीं करता है यदि कोई वैध वसीयत थी जो 20 दिसंबर, 2004 से पहले बनी थी।

संशोधन अधिनियम की धारा 6 की उप-धारा (2) एच.एस अधिनियम की धारा 6 की उप-धारा (1) के अनुसार परिवार की महिला हिंदू सदस्य को पैतृक संपत्ति का सह-मालिक होने का अधिकार देती है। हिंदू अविभाजित परिवार की महिला सदस्य द्वारा अर्जित संपत्ति का निपटान उसके द्वारा वसीयतनामा के माध्यम से किया जा सकता है।

संशोधन अधिनियम की धारा 6 की उप-धारा (3) सहदायिक संपत्ति को वसीयती या निर्वसीयत उत्तराधिकार की विधि पर विभाजित करने में सक्षम बनाती है, न कि उत्तरजीविता आदर्शों के माध्यम से। यह हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के बाद कर्ता की मृत्यु की स्थिति में होता है। यह प्रावधान यह भी अनिवार्य करता है कि एक पुरुष और एक महिला संतान को मिलने वाला हिस्सा समान होना चाहिए। यदि बेटी या बेटे की मृत्यु हो जाती है तो उनका संबंधित हिस्सा उनके जीवित बच्चों को दिया जाएगा। पूर्व-मृत बेटे या बेटी के पूर्व-मृत बच्चे का हिस्सा पूर्व-मृत बेटे या बेटी के जीवित बच्चे को दिया जाएगा। उदाहरण के लिए, छह लोगों का परिवार है, जिसमें एक पिता (कर्ता), एक बेटा, एक बेटी, एक दामाद, एक बहू और एक पोती शामिल हैं। यदि कर्ता एक वसीयत के बिना मर जाता है तो उससे संबंधित संपत्ति श्रेणी  के उत्तराधिकारियों, यानि., बेटे, बेटी और पोती को निर्वसीयत उत्तराधिकार के माध्यम से हस्तांतरित कर देगी।

संशोधन अधिनियम की धारा 6 की उपधारा (5) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि एच. एस. अधिनियम की धारा 6 में निहित कुछ भी 20 दिसंबर, 2004 से पहले किए गए विभाजन को प्रभावित नहीं करेगा। यह भी ध्यान देने योग्य है कि विभाजन का अर्थ है पंजीकरण अधिनियम, 1908 के तहत विधिवत पंजीकृत विलेख का कोई निष्पादन या अदालत की डिक्री के माध्यम से।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 245

यह अनुच्छेद संसद को पूरे भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार देता है और राज्य विधानसभा पूरे राज्य के लिए कानून बना सकती है। हालाँकि, संसद द्वारा बनाए गए कानून राज्य विधानसभा द्वारा अमान्य नहीं माने जाएँगे। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 254

यह प्रावधान संसद द्वारा बनाए गए कानूनों और राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानूनों में असंगति से निपटता है। यह एक सक्षम करने वाला प्रावधान है। अनुच्छेद 254(1) भारतीय संविधान की मजबूत संघीय प्रकृति को कायम रखता है। जब संसद द्वारा पारित कानून राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानून के विरोधाभासी होता है, तो संसद द्वारा पारित कानून लागू होगा, बशर्ते कि मामला समवर्ती सूची (कंकरेंट लिस्ट) में हो। अनुच्छेद 254(2) राज्य विधानसभा को अपनी यथास्थिति बनाए रखने के लिए एक तंत्र प्रदान करता है। जब राज्य विधानसभा समवर्ती सूची के किसी विषय पर कानून बनाती है और यह संसद द्वारा बनाए गए कानून के विरोधाभासी होता है, तो राज्य राष्ट्रपति के विचार के लिए कानून को आरक्षित कर सकता है और जब राष्ट्रपति द्वारा सहमति दी जाती है तो ऐसा कानून राज्य के क्षेत्र में लागू होगा। 

पुष्पलता एन.वी. बनाम वी. पद्मा (2010) में निर्णय

कर्नाटक उच्च न्यायालय की पीठ ने मामले पर निर्णय देते समय कुछ प्रमुख कारकों की पहचान की थी जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं 

  • उत्तराधिकार के मामले में पैतृक संपत्ति के विभाजन के बारे में हिंदू पारंपरिक कानून क्या कहता है?
  • हिंदू अविभाजित परिवार की महिला सदस्य को पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार के संबंध में संशोधन से पहले क्या स्थिति थी?
  • पिछले कानून में क्या खामी थी?
  • संसद ने संशोधन के माध्यम से क्या उपाय चाहा और उस संशोधन का कारण क्या था?

इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य पीठ ने सभी दस्तावेजी साक्ष्यों, लिखित अभिवचनों (प्लीडिंग्स) और दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाले विद्वान वकीलों की दलीलों का बारीकी से संज्ञान लिया। पीठ ने फैसला देने से पहले विभिन्न उदाहरणों पर ध्यान दिया। दो-न्यायाधीशों की पीठ ने वादी द्वारा मांगी गई अपील को स्वीकार कर लिया। गंभीर निरीक्षण पर पीठ ने विचारण न्यायालय के फैसले और डिक्री को रद्द कर दिया। वादी को अनुसूचित संपत्ति A, B और E का 6/25 वां हिस्सा प्रदान करके राहत प्रदान की गई थी।

न्यायालय ने घोषणा की कि बेटी की वैवाहिक स्थिति उस सहदायिक अधिकार को नहीं छीनती है जो उसे उसके जन्म से प्रदान किया गया था। न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निष्कर्षों को स्वीकार कर लिया कि अनुसूचित संपत्तियां C और D टिलरों को हस्तांतरित की जाती हैं और पक्षों द्वारा विवादित नहीं हैं। न्यायालय ने यह भी माना कि वादी अनुसूचित संपत्ति ‘A’ से किराए के रूप में मध्यवर्ती लाभ का हकदार था, हालांकि, अंतिम डिक्री कार्यवाही में हिस्सा निर्धारित किया जाना था। न्यायालय ने इस तरह मामले का फैसला सुनाया और पक्ष को लागत वहन करने के लिए बाध्य किया।

निर्णय के पीछे तर्क

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विभिन्न मुद्दों पर बारीकी से विचार किया और निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हर सवाल का जवाब देने की पूरी कोशिश की। इस मामले को न केवल एक सिविल मुकदमे की अपील के रूप में देखा जा रहा है, बल्कि मौलिक अधिकारों और लैंगिक असमानता के मुद्दे को संबोधित करने के अवसर के रूप में भी देखा जा रहा है।

प्रथागत कानून के संप्रदायों के माध्यम से विचार

परिवार के सदस्यों के बीच पैतृक संपत्ति का स्तरीकरण (स्ट्रेटिफिकेशन) विभिन्न कारकों द्वारा निर्धारित होता है। इसे परिवार के कर्ता द्वारा पहले से पंजीकृत वसीयतनामा या भूमि के नियम के आधार पर उत्तराधिकार या वैधानिक आदेश के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है। हालाँकि उत्तराधिकार को एच.एस अधिनियम द्वारा विनियमित किया जाता है, लेकिन अधिनियम से पहले उत्तराधिकार की प्रकृति पारिवारिक कानून के विभिन्न संप्रदायों द्वारा शासित थी। इन्हें प्रथागत कानून भी कहा जाता है और ये एक क्षेत्रीय सीमा पर अलग-अलग होते हैं।

बंगाल के इलाकों में दयाभाग संप्रदाय का बोलबाला था। मयूखा संप्रदाय बॉम्बे, कोंकण और गुजरात के इलाकों को प्रभावित कर रहा था। केरल और महाराष्ट्र के इलाकों में नंबूदरी संप्रदाय का दबदबा था। उपमहाद्वीप के दूसरे इलाकों में मिताक्षरा संप्रदाय लोकप्रिय था। यह विविधता उस खास इलाके पर राज करने वाले राजवंश और उसके बाद अपनाई गई परंपराओं पर आधारित है। हिंदुओं को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले दो संप्रदाय थे दयाभाग संप्रदाय, जो धार्मिक वर्चस्व का पालन करता था और दूसरा और सबसे प्रमुख संप्रदाय था मिताक्षरा संप्रदाय, जो एक ही पूर्वजों के सिद्धांत का पालन करता था। 

मिताक्षरा संप्रदाय ने देश के प्रथागत पारिवारिक कानून पर प्रभुत्व बनाए रखा, सिवाय उन राज्यों के जहाँ दयाभाग विचारधारा प्रचलित थी क्योंकि यह परिवार के विभिन्न पहलुओं को छूती थी। उनमें से एक संपत्ति का हस्तांतरण था। इस संप्रदाय ने दो तरीके प्रस्तावित किए जिनके द्वारा हिंदू परिवार की संपत्ति हस्तांतरित की जाती है। एक उत्तरजीविता के माध्यम से और दूसरा उत्तराधिकार के माध्यम से। मिताक्षरा संप्रदाय ने वंश के बेटों को पारिवारिक संपत्ति हासिल करने का अधिकार देकर समाज के पुरुष वर्चस्व को बरकरार रखा। संप्रदाय महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं देता है। सहदायिक अधिकार बेटे, पोते और परपोते को दिया जाता है। 

यह भी ध्यान देने योग्य है कि परिवार में नए बेटे के जन्म पर प्रत्येक पुरुष सदस्य का हिस्सा कम हो जाता है क्योंकि मिताक्षरा कानून में उत्तरजीविता का सिद्धांत है। जबकि मयूखा संप्रदाय की अवधारणा अलग है। परिवार में बेटी को पारिवारिक संपत्ति पर पूर्ण अधिकार होता है। इस प्रथा के कारण, जब मयूखा कानून का पालन करने वाले हिंदू पिता की मृत्यु हो जाती है, तो बेटी संपत्ति का अधिकार ले लेती है और इसे स्त्रीधन के रूप में अपने उत्तराधिकारियों को सौंप देती है।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 से पहले के कानून

पहला उत्तराधिकार कानून ब्रिटिश काल में पारित किया गया था, यह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1929 था। इस कानून ने परिवार की संपत्ति पर बेटे की बेटी, बेटी की बेटी और बहन सहित महिला उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार प्रदान किया। इस संबंध में अगला कानून हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 था। इस कानून का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम विधवा को उत्तराधिकार का अधिकार देना था। विधवा को दिया जाने वाला हिस्सा बेटे के हिस्से के बराबर है। हालाँकि, विधवा को मृतक पति की संपत्ति में केवल सीमित अधिकार ही मिलते हैं और विधवा पारिवारिक संपत्ति की सहदायिक नहीं बन सकती। उसे विभाजन का दावा करने का अधिकार दिया गया। कानून ने बेटी को न तो विरासत और न ही उत्तराधिकार का दावा करने की अनुमति दी।

भारतीय संविधान में भी महिलाओं के अधिकारों पर जोर दिया गया है। संविधान निर्माताओं ने महिलाओं के प्रति हो रहे अन्याय को दूर करने में कड़ी मेहनत की। विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से विधायकों ने समाज में महिलाओं की समान स्थिति सुनिश्चित की। संविधान के अनुच्छेद 14 ने सुनिश्चित किया कि देश का कानून महिलाओं के साथ समान सिविल करे और उन्हें कानून के समक्ष समान सुरक्षा प्रदान करे। हालांकि संविधान का अनुच्छेद 15(2) राज्य को सार्वजनिक और सरकारी सहायता प्राप्त सुविधाओं में लिंग के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 15(3) के तहत महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाकर समानता के अधिकार को पार किया जा सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि अनुच्छेद 39(A) राज्य को पुरुषों और महिलाओं दोनों को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने के समान अवसर सुनिश्चित करने का निर्देश देता है। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में अपनाए गए सिद्धांत

हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के बीच उत्तराधिकार को नियमित करने के लिए 17 जून, 1956 में एच एस अधिनियम पारित किया गया था। इस अधिनियम ने धारा 6 में कानून के मिताक्षरा संप्रदाय के सिद्धांतों को अपनाया। इस अधिनियम ने परिवार की महिलाओं को सीमित स्वामित्व अधिकार प्रदान किए। एच एस अधिनियम की धारा 14 में प्रावधान किया गया है कि हिंदू महिला द्वारा रखी गई कोई भी संपत्ति उसकी पूर्ण संपत्ति होगी और वह अपनी संपत्ति को किसी दस्तावेज के माध्यम से या उपहार के रूप में देने की हकदार है। इसी तरह, जब किसी हिंदू पुरुष की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है, तो संपत्ति पुरुष और महिला उत्तराधिकारियों के बीच समान रूप से साझा की जाती है, क्योंकि महिला उत्तराधिकारियों को भी एच एस अधिनियम की धारा 10 के तहत श्रेणी 1 उत्तराधिकारियों के रूप में श्रेणीीकृत किया गया है। बशर्ते कि महिला उत्तराधिकारियों को संपत्ति में सहदायिकता क्षमता प्रदान नहीं की गई है। इसलिए, एच एस अधिनियम ने मिताक्षरा कानून द्वारा स्थापित स्थिति को बनाए रखा। 

श्रेणी 1 के अलगाव ने महिलाओं की वैवाहिक स्थिति के आधार पर संपत्ति के हस्तांतरण को भी प्रभावित किया। सहदायिक अधिकारों से वंचित करने के अलावा, विवाहित बेटी और अविवाहित बेटी के बीच और विवाहित बेटी और विवाहित बेटे के बीच भी पक्षपात मौजूद था। यह गंभीर असमानता के साथ-साथ मौलिक अधिकारों के हनन का मामला है, जिस पर दशकों तक ध्यान नहीं दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 13 में कहा गया है कि कोई भी कानून जो संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के साथ असंगत है, उसे शून्य घोषित किया जाएगा। संशोधन का मुख्य कारण इस असमानता को कम करना है जो लंबे समय से प्रचलित थी और हिंदू परिवार की महिलाओं को सहदायिक दर्जा देकर पैतृक संपत्ति में न्यायसंगत और समान अधिकार प्रदान करना है। 

संशोधन के माध्यम से महिलाओं के सहदायिक अधिकार

एच. एस. अधिनियम में संशोधन 9 सितंबर, 2005 को पारित किया गया था और इसका उद्देश्य पैतृक संपत्ति पर महिलाओं को समान सहदायिक का दर्जा प्रदान करना था। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 की धारा 6 सहदायिक संपत्ति में हित के हस्तांतरण से संबंधित है। यह प्रावधान दृढ़ता से गारंटी देता है कि सहदायिक की बेटी को सहदायिक संपत्ति पर बेटे के जैसे जन्म से समान अधिकार दिए जाएंगे। यह ध्यान देने योग्य है कि संशोधन ने सहदायिक की बेटी को सहदायिक अधिकार प्रदान किए थे न कि हिंदू अविभाजित परिवार की किसी अन्य महिला सदस्य को। अन्य महिला सदस्य जिन्हें श्रेणी 1 या श्रेणी 2 के उत्तराधिकारी के रूप में श्रेणीीकृत किया गया है, उन्हें वसीयतनामा या उत्तराधिकार के माध्यम से हिस्सा मिलता है, लेकिन यह केवल सहदायिक की बेटी है जो सहदायिक होने की हकदार है।

संशोधन के माध्यम से सहदायिक की बेटी को दो अधिकार दिए गए हैं। एक सहदायिक के पुत्र के साथ स्थिति में समानता है और दूसरा सहदायिक की संपत्ति में पुत्र के समान अधिकार है। बेटी को जन्म से सहदायिक बनने का अधिकार प्रदान किया गया है, जो न केवल सामाजिक स्थिति की गारंटी देता है बल्कि उसकी आर्थिक संभावनाओं की भी गारंटी देता है। अधिकारों के साथ-साथ सहदायिक की बेटी को सहदायिक संपत्ति से जुड़ी देनदारियों के साथ निहित किया जाता है। संशोधन अधिनियम के प्रारंभ पर और उसके बाद से बेटी को प्रदान किए जाने वाले अधिकारों को ध्यानपूर्वक प्रदर्शित करते हुए संशोधन किया गया था। यदि इस वाक्यांश को उजागर नहीं किया गया होता तो एच. एस. अधिनियम अप्रचलित हो जाता। सहदायिक की बेटी को प्रदान किए गए सीमित अधिकारों को संशोधन के माध्यम से पूर्ण अधिकार में बढ़ा दिया गया था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि संशोधन में कहा गया है कि बेटी का जन्म 17 जून, 1956 के बाद हुआ था, जो एच. एस. अधिनियम के अधिनियमन की तारीख है।

इस प्रकार, संशोधन अधिनियम ने संशोधन अधिनियम के प्रारंभ से सहदायिक की बेटी को उसके जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में पैतृक संपत्ति पर सहदायिक अधिकार प्रदान किया और साथ ही यह सुनिश्चित किया कि उसे एच. एस. अधिनियम द्वारा उत्तराधिकार का अधिकार प्रदान किया जाए। हालाँकि, संसद ने संशोधन करते समय इस तथ्य को नजरंदाज नहीं किया कि संशोधन का पूर्वव्यापी प्रभाव पिछले कुछ दशकों में किए गए लेन-देन को प्रभावित करेगा। इस विरोधाभास को सुनिश्चित करने के लिए हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 की धारा 6 की उप-धारा (1) में एक परंतुक (प्रोविजो) जोड़ा गया था। परंतुक में कहा गया है कि 20 दिसंबर, 2004 से पहले किए गए विभाजन या वसीयती कार्रवाई सहित कोई भी प्रबंध संशोधन अधिनियम की धारा 6 की सामग्री से प्रभावित नहीं होगी। प्रबंध के तरीकों में वसीयती प्रबंध एच. एस. अधिनियम की धारा 30 के तहत किया जाता है। 

एच.एस अधिनियम के तहत विभाजन का नियम

एच.एस. अधिनियम ने विभाजन शब्द की बहुत ही संकीर्ण परिभाषा दी है। यह भारतीय पंजीकरण अधिनियम, 1908 के तहत विलेख के माध्यम से निष्पादित किसी भी निपटान या न्यायालय कि डिक्री के माध्यम से विनियोजित किए जाने को संदर्भित करता है। इस परिभाषा से, यह स्पष्ट है कि मौखिक विभाजन, ज्ञापन या समझौता सहदायिक के रूप में बेटी के अधिकार को प्रभावित नहीं करता है। जबकि, जब न्यायालय द्वारा जारी की गई डिक्री की बात आती है तो डिक्री की अंतिमता पर सवाल उठता है। प्रारंभिक डिक्री वह होती है जो पक्षों के अधिकारों का सीमांकन करती है और जिसके खिलाफ अपीलीय न्यायालय में अपील की जा सकती है। अपीलीय न्यायालय मुकदमा जारी रखता है और अंतिम डिक्री प्रदान करता है, जो प्रारंभिक डिक्री की निरंतरता या उलट हो सकता है। अंतिम डिक्री को एक विभाजन के रूप में माना जाता है जो एच.एस. अधिनियम के अनुसार होगा, जो सहदायिक की बेटी को सहदायिक अधिकार प्रदान करेगा। 

फूलचंद और अन्य बनाम गोपाल लाल (1967) के मामले में, यह माना गया कि विचारण न्यायालय द्वारा कई प्रारंभिक डिक्री पारित की जा सकती हैं और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 दूसरी प्रारंभिक डिक्री के पारित होने पर प्रतिबंध नहीं लगाती है। डिक्री की अंतिम आवश्यकता वर्तमान मूल्य के आधार पर पक्षों के हिस्से को अंतिम रूप देना था। इसलिए, जब तक अंतिम डिक्री पारित नहीं की जाती है, तब तक पहले पारित की गई डिक्री के अद्यतन पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इसलिए, इस निर्णय के माध्यम से, यह देखा जा सकता है कि प्रारंभिक डिक्री को पूर्ण विभाजन नहीं माना जा सकता है। 

एस. नारायण रेड्डी और अन्य बनाम एस. साई रेड्डी (1990) के मामले में, आंध्र उच्च न्यायालय ने माना कि हिंदू अविभाजित परिवार में, विभाजन पक्षों द्वारा लिखित या मौखिक समझौते के माध्यम से या न्यायालय के हस्तक्षेप के माध्यम से किया जाता है। न्यायालय द्वारा पारित प्रारंभिक डिक्री पक्षों के अधिकारों पर प्रकाश डालती है जबकि अंतिम डिक्री सभी अचल संपत्तियों के शेयरों को निर्धारित करती है और व्यक्तिगत पक्षों को विशिष्ट शेयर आवंटित करती है। इसलिए, अंतिम डिक्री को पूर्ण माना जाता है और अंतिम डिक्री के बिना सहदायिक के रूप में बेटी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।

इस मामले में, 20 दिसंबर, 2004 को विचारण न्यायालय द्वारा पारित डिक्री द्वारा विभाजन प्रभावित हुआ था, जिसे अंतिम डिक्री नहीं माना जा सकता है। इसलिए, इसे अंतिम और पूर्ण विभाजन नहीं माना जा सकता है। सहदायिक की बेटी के सहदायिक अधिकारों को केवल तभी वंचित किया जा सकता है जब पूर्ण विभाजन किया जाता है। विचारण न्यायालय द्वारा पारित डिक्री का प्रभाव एच.एस अधिनियम की धारा 6 के संशोधित प्रावधानों को रद्द नहीं कर सकता है। 

विवाहित पुत्री के अधिकार

कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु राज्यों ने 2005 के संशोधन से पहले एच.एस अधिनियम में संशोधन किया था, जिसने अविवाहित बेटी को बेटे के बराबर संपत्ति पर सहदायिक अधिकार प्रदान किए थे। हालांकि, इसने विवाहित बेटियों को उन अधिकारों का लाभ उठाने से प्रतिबंधित कर दिया क्योंकि विधायक प्रथागत कानूनों को सही नहीं करना चाहते थे। प्रथागत कानूनों ने विवाहित बेटियों को परिवार की संपत्ति को हस्तांतरित होने से बचाने के लिए संपत्ति के अधिकार से रोका। जब सहदायिक का बेटा विवाहित होता है, तब भी वह सहदायिक स्थिति का आनंद लेने का हकदार होता है, जबकि बेटी शादी के बाद अपना अधिकार खो देती है। यह लिंग के आधार पर असमानता का कार्य था। एच.एस अधिनियम में संशोधन करते समय, संसद ने जानबूझकर किसी भी प्रावधान में अविवाहित बेटी शब्द का उपयोग करने से रोक दिया।

संशोधन अधिनियम की धारा 6 में जानबूझकर सहदायिक की बेटी का उल्लेख किया गया है, लेकिन सहदायिक की अविवाहित बेटी का नहीं। यह सुनिश्चित करता है कि शादी के बाद भी बेटी अपने जन्मसिद्ध अधिकार की हकदार है। इस सिद्धांत ने संविधान के अनुच्छेद 14 में उल्लिखित समानता के भागफल को भी बरकरार रखा। सुश्री सविता सामवेदी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1996) के मामले में, यह माना गया कि विवाहित बेटी और विवाहित बेटे दोनों को एक दूसरे के बराबर माना जाना चाहिए। किसी भी बदलाव को लैंगिक भेदभाव और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना जा सकता है। 

यह जानना दिलचस्प था कि कर्नाटक सरकार ने हिंदू उत्तराधिकार (कर्नाटक संशोधन) अधिनियम, 1990 नामक एक संशोधन पारित किया था, जिसमें केवल सहदायिक की अविवाहित बेटियों को सहदायिक अधिकार प्रदान किए गए थे। यह राज्य में एक दशक तक प्रचलित रहा, जब तक कि संसद ने संविधान के अनुच्छेद 245 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करके पहले से मौजूद एच.एस अधिनियम में संशोधन करके अविवाहित बेटियों को समान दर्जा देने का कानून नहीं बना दिया। इसने भारत के संविधान के अनुच्छेद 254(1) के अनुसार राज्य के कानून को खारिज कर दिया। 

टी. बरई बनाम हेनरी आह हो और अन्य (1982) के मामले में भी यह माना गया था कि जब केंद्र और राज्य दोनों द्वारा बनाए गए कानूनों के बीच टकराव होता है, तो संविधान के अनुच्छेद 254(1) के अनुसार, केंद्र का कानून ही मान्य होता है। राज्य का कानून केंद्रीय कानून को तभी खारिज कर सकता है जब असंगति साबित हो जाए और राष्ट्रपति की सहमति मिल जाए। एम. करुणानिधि बनाम भारत संघ (1979) के मामले में यह बात नोट की गई थी, जहां संघ अधिनियम की श्रेष्ठता पर प्रकाश डाला गया था।

पूर्वव्यापी या पूर्वानुमानित प्रभाव

पूर्वावलोकन अतीत की घटनाओं के लिए एक सिद्धांत या कानून को लागू करने की एक अवधारणा है, जबकि पूर्वानुमान इसे केवल भविष्य के लिए लागू कर रहा है। संसद के पास पूर्वव्यापी और संभावित कानून दोनों को लागू करने की शक्तियां निहित हैं। आम तौर पर, अधिनियमित किसी भी कानून को समाज पर इसके प्रभाव का वर्णन करने के लिए अच्छी तरह से परिभाषित किया जाएगा। इसका उल्लेख इन शब्दों में किया जाएगा कि क्या यह पूर्वव्यापी तरीके से काम करता है या संभावित तरीके से। लेकिन कुछ मामलों में, जब समयसीमा के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, तो कानून को संभावित माना जाता है। हालांकि, जब संशोधन किया जाता है, तो इसे आमतौर पर पूर्वव्यापी प्रकृति का माना जाता है, बशर्ते कि वे संविधान के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन न करें। 

बी. प्रभाकर राव और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य (1985) के मामले में, यह माना गया कि न्यायालय कानून की पूर्वव्यापी प्रकृति का अनुमान नहीं लगा सकते। किसी अधिनियम की पूर्वव्यापी या भावी प्रकृति को स्पष्ट करना विधानमंडल का कर्तव्य है। 

वर्तमान मामले में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अधिनियम की प्रकृति का पता लगाने के लिए उसका विश्लेषण करने का प्रयास किया। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 की धारा 3 में उल्लेख किया गया था कि एच.एस अधिनियम की धारा 6 को नए प्रावधानों से प्रतिस्थापित किया जाता है। शामराव वी परुलेकर एवं अन्य बनाम जिला मजिस्ट्रेट थाना, बॉम्बे एवं अन्य (1952) के मामले में माना गया था कि संशोधन का उद्देश्य पहले के अधिनियम में किसी भी विरोधाभास को दूर करना है। यह नोट किया गया था कि यह कलम का उपयोग करके त्रुटि सुधार करने के समान है। इसलिए, पुराने कानून की समयरेखा नए वाक्यांश के साथ मौजूद है। इस बात पर जोर दिया गया कि इंग्लैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका में यह नियम था और यह भारत पर भी लागू होता है। संसद ने धारा को नए प्रावधानों से प्रतिस्थापित करने के माध्यम से यह सुनिश्चित किया

संशोधन के आरंभिक शब्दों से यह भी पता चला कि यह प्रावधान संशोधन अधिनियम के लागू होने की तिथि से ही लागू होता है। सहदायिक की बेटी जन्म से ही सहदायिक बन जाती है, इसलिए इस प्रावधान का प्रभाव पूर्ववर्ती तिथि से होता है, इस प्रकार पूर्वव्यापी प्रकृति की पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त, संशोधन अधिनियम की धारा 6(1) में उल्लेख किया गया है कि इस अधिनियम में 20 दिसंबर, 2004 से पहले किसी विलेख के निष्पादन या अंतिम डिक्री के माध्यम से किए गए किसी भी निपटान को शामिल नहीं किया गया है। संपत्ति के हस्तांतरण का स्पष्ट उल्लेख यह दर्शाता है कि संशोधन का पूर्ववर्ती प्रभाव है और यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संशोधन का पूर्वव्यापी प्रभाव था। 

निर्णय का तथ्यात्मक तर्क

किसी भी मामले को तय करने में तथ्यात्मक साक्ष्य सबसे प्रमुख कारक होते हैं। इस मामले में यह स्पष्ट रूप से देखा गया कि कर्ता श्री डीएन वसंत कुमार के जीवनकाल में वसीयतनामा या उत्तराधिकार विलेख के माध्यम से विभाजन नहीं किया गया था। कर्ता द्वारा छोड़ी गई संपत्तियों के 5 वंशज थे। दो बेटे, दो बेटियाँ और पत्नी, वादी बेटियों में से एक है। मिताक्षरा कानून के अनुसार, हिंदू अविभाजित परिवार में, कर्ता की मृत्यु के बाद, जैविक उत्तराधिकारी और पत्नी में परिवार की संपत्तियों को समान रूप से विभाजित करेंगे। 

प्रतिवादियों ने अपनी लिखित दलील में पुष्टि की कि अनुसूचित संपत्तियां 26 नवंबर, 2004 को होटल श्री वीबा प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक श्री एस नारायण को बेची गई थीं। दलील दी गई कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 की धारा 6 की उपधारा (1) निर्दिष्ट तारीख से पहले पंजीकृत विलेख को अलग नहीं करती है, जो संशोधन के अधिनियमन की तिथि है। हालांकि, विभाजन का मुकदमा 12 सितंबर 2001 को दायर किया गया था और विचारण न्यायालय ने 17 जनवरी 2004 को प्रारंभिक डिक्री दी थी। न्यायालय ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि प्रतिवादियों ने लंबित होने के कारण मुकदमे की संपत्ति को अलग न करने के लिए एक ज्ञापन दायर किया था। उच्च न्यायालय में अपील 10 मार्च 2004 को की गई थी। हालाँकि बिक्री विलेख संशोधित अधिनियम की धारा 6 में उल्लिखित निर्दिष्ट तारीख यानी 20 दिसंबर 2004 से पहले निष्पादित किया गया था, लेकिन यह विलेख लिस पेंडेंस के सिद्धांत जिसका अर्थ है मुकदमे का लंबित होना, से प्रभावित है। इसलिए, इस संबंध में अलगाव बेटी के सहदायिक के रूप में अधिकार को नहीं छीनेगा। न्यायालय ने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि अनुसूचित संपत्तियाँ C और D कर्नाटक भूमि सुधार अधिनियम, 1961 के तहत भूमि को जोतने वालों को हस्तांतरित की गई थीं। 

इसके अनुसार, परिवार के प्रत्येक सदस्य को अनुसूचित संपत्ति का 1/5वां हिस्सा मिलता है। संशोधन अधिनियम के माध्यम से, सहदायिक की बेटी जन्म से सहदायिक बन जाती है। इसलिए कर्ता की मृत्यु से पहले ही, कर्ता के बेटे और बेटियां पैतृक संपत्तियों में सहदायिक बन जाते हैं। कर्ता के साथ, 5 सहदायिक हैं जिनमें दो बेटे और दो बेटियां शामिल हैं। इस प्रकार श्री डी.एन वसंत कुमार की मृत्यु से पहले, सहदायिकों के बीच एक प्रतीकात्मक विभाजन हुआ था, जिसमें प्रत्येक सदस्य सहदायिक संपत्तियों के 1/5वें हिस्से का हकदार था। इसलिए, वादी सहदायिक के रूप में 1/5वां हिस्सा और कर्ता के हिस्से में 1/5वां हिस्सा पाने का हकदार है, जो कि 1/25वां हिस्सा है। कुल मिलाकर वादी अनुसूचित संपत्ति में 6/25वां हिस्सा पाने का हकदार है। इसी प्रकार, प्रतिवादी 2 से 4 को 6/25वां हिस्सा मिलेगा और प्रतिवादी 1 को 1/25वां हिस्सा मिलेगा। 

पुष्पलता एन.वी. बनाम वी. पद्मा (2010) में उल्लिखित उदाहरण

पक्षों के विद्वान वकीलों और पीठ द्वारा विस्तृत निर्णय पर पहुंचने के लिए विभिन्न उदाहरणों को प्रस्तुत किया गया। 

थिरुमुरुगा किरुपानंद वरियार थवाथिरु सुंदर स्वामीगल चिकित्सा शैक्षिक और धर्मार्थ न्यास बनाम तमिलनाडु राज्य (1996)

इस मामले में, थिरुमुरुगा किरुपानंद वरियार थवथिरु स्वामीगल चिकित्सा शैक्षिक और धर्मार्थ न्यास (ट्रस्ट) ने तमिलनाडु के सलेम में एक चिकित्सा कॉलेज की स्थापना से संबंधित अपील दायर की थी। तमिलनाडु सरकार ने तमिलनाडु चिकित्सा विश्वविद्यालय अधिनियम, 1987 बनाया जिसका नाम बदलकर तमिलनाडु डॉ. एमजीआर चिकित्सा विश्वविद्यालय  (चेन्नई) अधिनियम, 1987 कर दिया गया। अधिनियम की धारा 5 की उपधारा (5) के अनुसार, अन्य चिकित्सा कॉलेजों को एमजीआर चिकित्सा विश्वविद्यालय के तहत संबद्ध (एफिलिएटेड) होने की अनुमति है। न्यास ने एक नए चिकित्सा कॉलेज के लिए संबद्धता की मांग करते हुए विश्वविद्यालय को एक आवेदन प्रस्तुत किया। 

विश्वविद्यालय ने संबद्धता के लिए सरकार से अनापत्ति प्रमाण पत्र मांगा। न्यास ने मद्रास उच्च न्यायालय में परमादेश (मैंडेमस) की मांग करते हुए एक रिट याचिका दायर की, जिस पर उच्च न्यायालय ने आदेश दिया। न्यास ने संबद्धता के लिए फिर से आवेदन किया जिसे विश्वविद्यालय ने अंतिम तिथि बीत जाने का कारण बताते हुए खारिज कर दिया। न्यास ने फिर से उच्च न्यायालय से हस्तक्षेप की मांग की। इस बीच, तमिलनाडु सरकार ने डॉ. एमजीआर चिकित्सा विश्वविद्यालय तमिलनाडु (संशोधन और मान्यता) अधिनियम, 1989 नामक एक संशोधन पारित किया। चिकित्सा विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 4 की उपधारा (5) में एक प्रावधान जोड़ा गया कि संबद्धता के लिए राज्य सरकार से अनुमोदन अनिवार्य है। 

अपील के लंबित रहने के दौरान, केंद्र सरकार ने भारतीय चिकित्सा परिषद (संशोधन) अधिनियम, 1993 पारित किया, जिसके अनुसार चिकित्सा कॉलेजों को खोलने से पहले पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य था। संविधान के अनुच्छेद 245 और अनुच्छेद 254(1) के तहत यह माना गया कि राज्य के कानून से कोई असंगति न रखने वाला केंद्रीय कानून प्रमुख माना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 254(2) के तहत संसद को किसी भी राज्य के कानून में संशोधन, परिवर्तन या निरसन करने का अधिकार है। न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया और केंद्र सरकार को भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 की  धारा 10A के तहत न्यास के आवेदन पर विचार करने का आदेश दिया।

भगत राम शर्मा बनाम भारत संघ और अन्य (1987)

इस मामले में, अपीलकर्ता पंजाब विधानसभा का सदस्य था। परिणामस्वरूप, अपने कार्यकाल के बाद उन्हें पंजाब राज्य लोक सेवा आयोग का सदस्य नियुक्त किया गया। राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के माध्यम से कांगड़ा जिले को हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थानांतरित कर दिया गया था। अब, अपीलकर्ता ने पंजाब राज्य और हिमाचल प्रदेश राज्य के दोनों मुख्यमंत्रियों से अनुरोध किया कि उन्हें क्रमशः पंजाब लोक सेवा आयोग के सदस्य या राज्य विधायिका के सदस्य के रूप में पेंशन प्रदान की जाए। दोनों सरकारों ने दावे को खारिज कर दिया। अपीलकर्ता ने राहत की मांग करते हुए संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत पंजाब उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने पंजाब सरकार को पंजाब लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में उनकी सेवा के लिए पेंशन के रूप में चार सौ रुपये का भुगतान करने का आदेश देकर आंशिक राहत प्रदान की।

उच्च न्यायालय द्वारा दी गई आंशिक राहत के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई थी। न्यायालय ने कहा कि विधायी प्रक्रिया में निरसन और संशोधन के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं है। जब किसी प्रावधान को हटा दिया जाता है और उसके स्थान पर नया प्रावधान रखा जाता है तो निरसन किया जाता है। इसलिए, राज्य विधानसभा के सदस्य के रूप में पेंशन देने के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और इस प्रकार अपील को खारिज कर दिया।

यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, कलकत्ता बनाम अभिजीत टी कंपनी प्राइवेट लिमिटेड और अन्य (2000)

इस मामले में, बैंक कलकत्ता उच्च न्यायालय में लंबित मुकदमे में अपीलकर्ता था। प्रतिवादी पर बैंक का 31.13 करोड़ रुपए बकाया था। शुरू में न्यायालय ने समझौता डिक्री पारित की थी। हालांकि, इसे खण्ड पीठ (डिवीजन बेंच) ने अलग रखा और अपील की अनुमति दी। इसके अनुरूप, बैंकों और वित्तीय संस्थानों को बकाया ऋण वसूली अधिनियम, 1993 को पश्चिम बंगाल राज्य सरकार ने पारित किया था। वसूली अधिनियम की धारा 31 में लंबित मामलों के हस्तांतरण का विवरण दिया गया है। प्रतिवादी ने एक आवेदन दायर किया कि मुकदमा उच्च न्यायालय के समक्ष रहना चाहिए और न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) को स्थानांतरित नहीं किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि धारा 31 में यह अनिवार्य है कि अधिनियम के प्रारंभ से पहले किसी भी न्यायालय के समक्ष लंबित अपील, जो अधिकार क्षेत्र में आती है, न्यायाधिकरण को स्थानांतरित कर दी जाएगी। 

न्यायालय ने कहा कि जब कानून में बदलाव होता है, तो न्यायालय को उसका पालन करना चाहिए, चाहे वह मूल कार्यवाही हो या अपील। जब अधिनियम न्यायालय को अपने मूल अधिकार क्षेत्र का प्रयोग न करने का आदेश देता है, तो न्यायालय को बिना किसी हिचकिचाहट के उसका पालन करना चाहिए। इस कारण से, अपील को स्वीकार कर लिया गया और एकल न्यायाधीश के आदेश को रद्द कर दिया गया। अधिनियम के अनुसार मामले को न्यायाधिकरण को स्थानांतरित कर दिया गया। न्यायालय ने प्रतिवादी को एक महीने की अवधि के भीतर अपना लिखित बयान दाखिल करने का भी निर्देश दिया और न्यायालय ने न्यायाधिकरण को आदेश प्राप्त होने की तिथि से छह महीने की अवधि के भीतर मामले का निपटारा करने का निर्देश दिया। 

एम. पृथ्वीराज एवं अन्य बनाम श्रीमती लीलाम्मा एन. एवं अन्य (2007)

इस मामले में, विभाजन के लिए एक मुकदमे में मैसूर के प्रधान सिविल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के खिलाफ अपील की गई थी। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि अनुसूचित संपत्ति के. दोड्डाननजुंदैया की थी। उनकी मृत्यु के बाद, संपत्ति का अधिकार उनके उत्तराधिकारियों एन. पार्वथम्मा, वादी की मां; एन. लीलाम्मा (प्रतिवादी 1); के. कामलम्मा (प्रतिवादी 2) को मिला। उत्तराधिकारियों में से एन. पार्वथम्मा की 1998 में मृत्यु हो गई और वे वादी और प्रतिवादी 6 को कानूनी प्रतिनिधि के रूप में छोड़ गए। प्रतिवादी 4 कर्ता का दत्तक पुत्र है। प्रतिवादी 3 एक बिक्री विलेख निष्पादित करके अनुसूचित संपत्ति का खरीदार है। वादी ने दावा किया कि प्रतिवादी 1 से 6 ने उसकी सहमति के बिना विलेख निष्पादित करने के लिए मिलीभगत की विचारण न्यायालय ने वादी को अनुसूचित संपत्ति में 1/10वाँ हिस्सा देने की प्रारंभिक डिक्री पारित की। इस आदेश से व्यथित होकर, उन्होंने उच्च न्यायालय में अपील करने का विकल्प चुना। 

उच्च न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि एच.एस अधिनियम में एक संशोधन किया गया था, जिसके तहत सहदायिक की बेटियों को सहदायिक अधिकार प्रदान किए गए थे। हालांकि, वादी ने घटनाओं के कालक्रम पर भरोसा किया और दावा किया कि संशोधन समय सीमा यानी 20 दिसंबर, 2004 से पहले किए गए विभाजन पर लागू नहीं होगा। न्यायालय ने माना कि एच.एस अधिनियम के संशोधित प्रावधान मामले के तथ्यों पर लागू नहीं होते हैं क्योंकि विभाजन वर्ष 1969 में किया गया था। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि बिक्री विलेख केवल अनुसूचित संपत्तियों पर प्रतिवादी 1, 2 और 4 के हिस्से पर लागू होगा। अपील को खारिज कर दिया गया और विचारण न्यायालय के आदेश की पुष्टि की गई। 

भंवर सिंह बनाम पूरन एवं अन्य (2008)

इस मामले में, विभाजन के मुकदमे में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ अपील की गई थी। संपत्ति के मालिक श्री भीमा की 1972 में मृत्यु हो गई और वे अपने पीछे अनुसूचित संपत्तियां अपने बेटे श्री सांता राम और तीन बेटियों को छोड़ गए। अनुसूचित संपत्तियों में बेटे का 1/4 हिस्सा था। सहदायिक के रूप में अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए, श्री भीमा के बेटे ने अपनी संपत्ति के हिस्से को बंधक (मॉर्टगेज) रख दिया और उस पर बिक्री समझौता भी किया। इस मामले में अपीलकर्ता श्री सांता राम का बेटा है। 

विचारण न्यायालय में दायर मुकदमे में न्यायाधीश ने कहा कि चूंकि संपत्ति संयुक्त परिवार की थी और श्री सांता राम कर्ता होने के नाते कानूनी तौर पर विलेख निष्पादित करने के हकदार हैं। प्रथम अपीलीय न्यायालय में यह माना गया कि श्री सांता राम अपनी बहनों की तरह ही सहदायिक हैं और उन्हें एच.एस अधिनियम की धारा 8 के अनुसार पैतृक संपत्ति में समान हिस्सा विरासत में मिला था। प्रथम अपीलीय न्यायालय ने बिक्री विलेख को उलट नहीं दिया और इस बात पर जोर दिया कि संपत्ति संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं रह गई है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एच.एस अधिनियम की धारा 8 और धारा 19 के प्रभाव को देखते हुए, संपत्ति को संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं मानी जा सकती। सभी उत्तराधिकारियों को संयुक्त किरायेदार के रूप में नहीं बल्कि सामान्य किरायेदार के रूप में उत्तराधिकारी माना जाता है। इसलिए, संयुक्त सहदायिक स्थिति का प्रभाव नकारा जाता है। न्यायालय ने पुष्टि की कि एच.एस अधिनियम की धारा 6 सहदायिक की बेटियों को संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार प्रदान करती है और धारा 19 के माध्यम से यह भी उल्लेख किया गया कि प्रत्येक सहदायिक को अपने संबंधित शेयरों को अलग करने का हकदार था। इसलिए, न्यायालय ने प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय को न्यायसंगत माना और अपील को खारिज कर दिया। 

अन्य मामले जिनके लिए पुष्पलता एन.वी. मामले का हवाला दिया गया

क्र.सं. मामला न्यायालय अवलोकन
1 श्रीमती सरस्वती गोपीनाथ बनाम सुश्री उमा राम (2012) कर्नाटक उच्च न्यायालय न्यायालय ने माना कि अनुसूचित संपत्ति संयुक्त परिवार की है और सभी सहदायिकों का पैतृक संपत्ति में बराबर हिस्सा है। वादी को हकदार सहदायिक के रूप में विभाजन की मांग करने के लिए प्रतिबंधित नहीं किया गया था। 
2 मल्लनगौड़ा पुत्र. चन्नबासनगौड़ा बनाम वीरानागौड़ा पुत्र चनाबासनगौड़ा (2017) कर्नाटक उच्च न्यायालय न्यायालय ने संयुक्त परिवार के सदस्यों के पैतृक संपत्ति में हिस्से के मुद्दे में इस मामले को एक मिसाल के रूप में लिया। संशोधित एच.एस अधिनियम की धारा 6 में सहदायिक की बेटियों को सहदायिक दर्जा दिया गया है। न्यायालय ने बेटियों के सहदायिक अधिकारों के निर्धारण में नए संशोधन की अंतिमता का आश्वासन दिया।
3 मल्हार हनुमंतराव कुलकर्णी बनाम श्रीमती गीता पत्नी शिवपुत्रप्पा सुदी (2012) कर्नाटक उच्च न्यायालय संयुक्त परिवार में संपत्ति विवाद के संबंध में उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया था। मूल मुकदमे के दूसरे प्रतिवादी द्वारा अपील पेश की गई थी। पुष्पलता मामले को इधर इस तथ्य को उजागर करने के लिए एक मिसाल के रूप में इस्तेमाल किया गया था कि सहदायिक की बेटियाँ जन्म से सहदायिक स्थिति की हकदार होती हैं।
4 श्रीमती रूपा बनाम श्री शिवानंद रेड्डी पुत्र स्श्रेणीीय केवी नागप्पा रेड्डी (2019) बैंगलोर जिला न्यायालय न्यायालय ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि मिताक्षरा कानून पितृसत्तात्मक प्रकृति का था, जो परिवार के पुरुष उत्तराधिकारियों को सहदायिक अधिकार प्रदान करता था। ये अधिकार लगातार तीन पीढ़ियों को प्रदान किए गए थे। जैसे ही परिवार में बेटा पैदा होता है, वह जन्म से ही सहदायिक बन जाता है, जिससे उसे पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलता है।
5 श्रीमती एस. शांतम्मा बनाम एस. नारायणस्वामी (2015) बैंगलोर जिला न्यायालय वादी ने प्रतिवादियों के खिलाफ़ विभाजन की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया और अनुसूचित संपत्तियों के 1/48वें हिस्से का दावा किया। न्यायालय ने माना कि महिला उत्तराधिकारी भी संशोधन अधिनियम के लागू होने से सहदायिक बन जाती हैं।
6 श्री लक्ष्मीपति बनाम श्री आरएस नरसेगौड़ा (2020) बैंगलोर जिला न्यायालय पुष्पलता का मामला न्यायालय के समक्ष स्थायी निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) की मांग के लिए रखा गया था, ताकि प्रतिवादियों को अनुसूचित संपत्ति को अलग करने से रोका जा सके। न्यायालय ने फैसले का संज्ञान लिया और बेटियों के सहदायिक अधिकारों को स्वीकार किया, हालांकि, यह कहा कि वर्तमान मामले की परिस्थितियां मिसाल से मेल नहीं खातीं। 
7 जनार्थनन बनाम विजया (2015) मद्रास उच्च न्यायालय न्यायालय ने संशोधन की पूर्वव्यापी प्रकृति की पुष्टि करने के लिए पुष्पलता मामले पर भरोसा किया। संशोधित एच.एस अधिनियम की धारा 6 की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) पर चर्चा करते हुए, न्यायालय ने कहा कि अधिनियम में दी गई समय सीमा से पहले किए गए लेन-देन नए प्रावधान से प्रभावित नहीं थे। 
8 मुनि रेड्डी बनाम चिन्नम्मा (2011) कर्नाटक उच्च न्यायालय इस मामले में, प्रतिवादियों की ओर से पेश विद्वान वकील ने पुष्पलता मामले पर भरोसा करते हुए तर्क दिया कि प्रतिस्थापित वादी को सहदायिक नहीं माना जा सकता। न्यायालय ने यह भी माना कि संशोधित एच.एस अधिनियम की धारा 6 का पूर्वव्यापी प्रभाव था। 
9 डोड्डामुनी अक्कयम्मा बनाम मोटाम्मा (2012) कर्नाटक उच्च न्यायालय यह मामला प्रधान सिविल न्यायाधीश, बैंगलोर द्वारा पारित डिक्री के खिलाफ अपील का था। न्यायालय ने पुष्पलता मामले पर प्रकाश डालते हुए कहा कि संशोधित एच.एस अधिनियम की धारा 6 के लाभ इस मामले में लागू नहीं किए जा सकते क्योंकि वादी का जन्म 1956 से पहले हुआ था। न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि उक्त संपत्ति वादी द्वारा स्वयं अर्जित की गई थी इसलिए इसे पैतृक संपत्ति नहीं माना जा सकता, इसलिए अपील को खारिज कर दिया।
10 डी. वसंती बनाम एम. सरलावती (2015) मद्रास उच्च न्यायालय न्यायालय ने संशोधन की पूर्वव्यापी प्रकृति पर जोर देने के लिए पुष्पलता मामले पर प्रकाश डाला। उच्च न्यायालय ने कहा कि बेटियों को बेटों के समान ही सहदायिक संपत्ति में बराबर अधिकार दिए गए हैं। हालांकि, न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि हिंदू उत्तराधिकार (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम, 1989 का भावी प्रभाव 25 मार्च, 1989 से प्रभावी था। अपील को स्वीकार कर लिया गया और विवादित आदेश को रद्द कर दिया गया। 

अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देना एक वैश्विक आवश्यकता है जैसा कि विभिन्न कानूनविदों और समाजशास्त्रियों ने सामने रखा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभिन्न देशों ने महिलाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं दिया है। वैश्विक स्तर पर, विभिन्न एजेंसियों की लगातार सक्रियता, विभिन्न कानूनी संस्थाओं के वैधानिक सिद्धांतों और वैश्विक सम्मेलनों (कन्वेंशन) के अनुसमर्थन के माध्यम से महिलाओं को समान अधिकार देने की आवश्यकता बढ़ रही है। विश्व बैंक की एक शाखा सामाजिक शहरी ग्रामीण और तन्यकता (रेजिलिएंस) वैश्विक अभ्यास के निदेशक ने टिप्पणी की कि महिलाओं को वित्तीय स्थिरता की सुविधा के लिए प्रमुख पहलों में से एक भूमि अधिकारों को सुरक्षित करना है, जो बदले में महिलाओं के विकास को सशक्त और संस्थागत करेगा। यह ध्यान देने योग्य है कि महिलाओं के संपत्ति अधिकारों के लिए महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक देश के पतित सामाजिक मानदंड हैं। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का उद्देश्य निरंतर सक्रियता और दूरदर्शी परियोजनाओं की परिकल्पना के माध्यम से महिलाओं के संपत्ति अधिकारों के महत्व पर जोर देना है।

महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर सम्मेलन (सीडॉ) को   1979 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा महिलाओं के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपनाया गया था। समानता के सिद्धांत को शामिल करने के लिए, सम्मेलन ने अनिवार्य किया कि अनुसमर्थित राष्ट्र महिलाओं के खिलाफ सभी भेदभावपूर्ण कानूनों और प्रावधानों को समाप्त कर दें। सम्मेलन का अनुच्छेद 13 सदस्य देशों को पारिवारिक लाभों के अधिकारों को सुनिश्चित करके महिलाओं के खिलाफ आर्थिक भेदभाव को खत्म करने के लिए उचित कदम उठाने का निर्देश देता है। अनुच्छेद 15 राज्यों को नागरिक मामलों में महिलाओं के साथ समान सिविल करने और उन्हें संपत्ति के प्रशासन में समान अधिकार प्रदान करने का निर्देश देता है। अनुच्छेद 16(1)(h) राज्यों को पारिवारिक संपत्ति के समान स्वामित्व, प्रशासन और निपटान की गारंटी देने के लिए बाध्य करता है। 

लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र इकाई ने 1995 में बीजिंग में महिलाओं पर अपना चौथा विश्व सम्मेलन आयोजित किया। इसे समानता, विकास और शांति पर केंद्रित कार्रवाई के लिए मंच कहा गया। कार्य योजना ने संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की प्रस्तावना में उल्लिखित सभी आर्थिक पहलुओं में पुरुषों और महिलाओं के समान सिविल  सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कानून पारित करने का आदेश दिया कि संपत्ति में समान अधिकार महिलाओं को मिलें। इसने महिलाओं को उनके अधिकार प्राप्त कराने के लिए शिक्षित करने और सक्षम बनाने के लिए एक व्यापक कार्यक्रम विकसित करने के निर्देश भी दिए। महिलाओं को दिए गए अधिकारों की कठोरता सुनिश्चित करने के लिए कार्य योजना ने संपत्ति के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए एक संवैधानिक गारंटी अनिवार्य कर दी। 

संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2000 में न्यूयॉर्क, यूएसए में अपने दूरदर्शी सहस्राब्दि (मिलेनियम) विकास लक्ष्यों की घोषणा की थी, जिसमें 8 प्राथमिक लक्ष्य थे। अब, यह 17 लक्ष्यों पर पहुंच गया है, जिसका लक्ष्य 2030 निर्धारित किया गया है। सभी प्रमुख लक्ष्यों में से, लैंगिक समानता सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है। लक्ष्य 5 का उद्देश्य लैंगिक समानता प्राप्त करना और सभी महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाना है। यह लक्ष्य राज्यों को ऐसे सुधार करने का अधिकार देता है जो महिलाओं को समान आर्थिक संसाधन, भूमि का स्वामित्व और नियंत्रण और पारिवारिक संपत्ति में उत्तराधिकार की गारंटी देते हैं। वर्ष 2019 में, विश्व बैंक ने कानून और सिविल के बीच अंतर को कम करने के लिए ‘स्टैंड फॉर हर लैंड’ नामक एक पहल शुरू की, जिससे महिलाओं को समान भूमि अधिकार सुनिश्चित हो सके। 

महिलाओं के अधिकारों की गारंटी देने में कानूनी अधिनियम और न्यायिक मिसालें महत्वपूर्ण हैं। ब्रिटिश संसद ने विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम, 1882 के माध्यम से महिलाओं को संपत्ति के अधिकार प्रदान किए। यह अधिनियम ब्रिटिश उपनिवेशों (कॉलोनीयल) के लिए बनाया गया था, उनमें से एक भारत था। इस कानून के पारित होने से पहले, महिलाओं के साथ व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) ढंग से किया जाता था और वास्तविक विरासत का अधिकार पुरुषों के पास रहता था। बेटियाँ केवल कपड़े और आभूषण जैसी चल संपत्ति ही विरासत में पा सकती थीं। पुरुष उत्तराधिकारियों की अनुपस्थिति में ही भूमि के अधिकार महिलाओं की देखरेख में निहित थे। हालाँकि इस अधिनियम ने महिलाओं को संपत्ति के अधिकार प्रदान किए, लेकिन उत्तराधिकार का सिद्धांत वही रहा। संपत्ति अधिनियम, 1922 के कानून ने महिलाओं को पुरुषों के समान संपत्ति विरासत में देने का अधिकार दिया। महिलाओं को पुरुषों के समान संपत्तियों के स्वामित्व और निपटान की भी अनुमति दी गई। आर बनाम सेक्रेटरी ऑफ द स्टेट फॉर वर्क्स एंड पेंशन (2015) के मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका में, औपनिवेशिक युग के किसी भी अन्य देश की तरह, न्यूयॉर्क विवाहित महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1884 के पारित होने तक महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को मान्यता नहीं दी गई थी। कोल बनाम वैन रिपर (1867) के मामले में, यह माना गया कि विवाहित महिलाएं किसी भी संपत्ति का स्वामित्व, नियंत्रण या उत्तराधिकार की हकदार नहीं हैं। यह उस पितृसत्तात्मक युग में प्रचलित पतित प्रथा थी। अमेरिकी सामान्य कानून के अनुसार, उत्तराधिकार वसीयतनामा या बिना वसीयत के उत्तराधिकार द्वारा शासित होता है। वसीयत के माध्यम से माता-पिता की संपत्ति जैविक या दत्तक बच्चों को मिलती है। उत्तराधिकार के माध्यम से एकाधिक उत्तराधिकार के मामले में, संपत्ति पुरुष और महिला दोनों उत्तराधिकारियों के बीच समान रूप से विभाजित की जाती है।

वर्तमान विश्व में, देशों में महिलाओं को उत्तराधिकार के अधिकार की गारंटी दे रहे हैं। महिलाओं पर अनुसंधान के लिए अंतराष्ट्रीय केन्द्र द्वारा लैंगिक समानता और शांति निर्माण पर किए गए अध्ययन के अनुसार, जिन देशों में आंतरिक और बाहरी विवाद हुए हैं, उन्होंने महिलाओं को अधिक सुरक्षा प्रदान की है। वैश्विक स्कैन में, एशिया, अफ्रीका, प्रशांत, लैटिन अमेरिका और कैरिबियन के 102 देश जो विवाद के बाद के चरण में हैं, उन्होंने महिलाओं को प्रगतिशील उत्तराधिकार कानून की पेशकश की है। कुछ उप-सहारा देशों में उनके उत्तराधिकार कानूनों में लिंग-विशिष्ट उल्लेख नहीं है, इस प्रकार समान लिंग-आधारित अधिकार बनाए रखे गए हैं। हालाँकि, इस्लामी शरिया कानून उत्तराधिकार में महिलाओं की स्थिति में भेदभाव करता है। अल्जीरिया में, पिता की मृत्यु पर, बेटी को पिता की संपत्ति में 1/3 हिस्सा मिलता है, जबकि बेटे को 2/3 हिस्सा मिलता है। ट्यूनीशिया और मोरक्को जैसे कुछ देश जो शरिया कानून का पालन करते हैं, उन्होंने लिंग की परवाह किए बिना पोते-पोतियों को समान अधिकार देकर प्रगति दिखाई है। डोमिनिकन गणराज्य, मैक्सिको, पैराग्वे सहित अधिकांश लैटिन अमेरिकी देश बेटों और बेटियों को समान उत्तराधिकार अधिकार देते हैं। 

पुष्पलता एन.वी. बनाम वी. पद्मा (2010) का आलोचनात्मक विश्लेषण

लैंगिक समानता दुनिया में एक आम बात होनी चाहिए थी। हालाँकि, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी भी कई कार्यकर्ताओं और एजेंसियों द्वारा जीवन के सभी क्षेत्रों में लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए केवल प्राथमिकता दी जाती है। महिलाओं को स्वतंत्रता और अधिकार सुनिश्चित करने के लिए संपत्ति के अधिकारों में समानता अन्य अधिकारों के बीच प्रमुख है। भारतीय स्वतंत्रता के बाद, नई भारतीय जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) को पूरा करने के लिए लंबे समय से मौजूद औपनिवेशिक कानून के साथ-साथ पारंपरिक कानून में सुधार की सख्त जरूरत थी। हिंदू उत्तराधिकार विधेयक का प्रावधान मसौदा समिति के सदस्य और कानूनी विशेषज्ञ श्री बी.एन राव द्वारा तैयार किया गया था और इसे डॉ. बी.आर अंबेडकर द्वारा आगे बढ़ाया गया था।

उत्तराधिकार कानून में सुधार का मुख्य उद्देश्य मिताक्षरा कानून में प्रतिगामी (रिग्रेसिव) खंडों और अन्य पारंपरिक संप्रदायों के अप्रगतिशील सिद्धांतों को समाप्त करना था। समिति के विधि सदस्यों द्वारा यह आवश्यक माना गया कि महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करके ही प्रगतिशील समाज की स्थापना की जा सकती है। महिलाओं के लिए आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए उत्तराधिकार के माध्यम से उत्तराधिकार की अवधारणा को प्रतिस्थापित करके उत्तरजीविता की अवधारणा को प्रतिस्थापित करना आवश्यक था। संयुक्त परिवार की संपत्ति पर महिलाओं को जन्म से समान अधिकार प्रदान करना भी आवश्यक था। 

हालांकि, यह कहना जितना आसान था, करना उतना ही मुश्किल था। रूढ़िवादी क्षेत्र से महिलाओं को समान संपत्ति अधिकार देने के विचार का विरोध किया गया था। इसके बावजूद 1956 में एच.एस अधिनियम पारित किया गया, जिसने महिलाओं के पास मौजूद संपत्ति पर पूर्ण स्वामित्व सुनिश्चित किया। एच.एस अधिनियम की धारा 14(1) ने यह सुनिश्चित किया कि कानून के लागू होने से पहले या बाद में महिलाओं द्वारा अर्जित की गई कोई भी चल या अचल संपत्ति पूर्ण स्वामित्व के साथ उनकी संपत्ति बन जाएगी। इसके अलावा, मरने वाले की बेटी को वर्ग 1 उत्तराधिकारियों के तहत श्रेणीीकृत किया गया था, जिससे उसे बेटे के समान अधिकार प्राप्त हुए। ये सभी अधिकार महिलाओं को दिए गए, चाहे संपत्ति किसी भी तरीके से अर्जित की गई हो। हालांकि, मिताक्षरा कानून की तरह, एच.एस अधिनियम के लागू होने के बाद भी महिलाओं को सहदायिक अधिकार से वंचित रखा गया। महिलाओं की सहदायिक स्थिति के संबंध में असमानता जारी रही। 

सवाल यह उठता है कि महिलाओं को सहदायिक दर्जा देना क्यों जरूरी था। समाज में महिलाओं को समान दर्जा देने से पहले परिवार की सीमाओं के भीतर इसे स्थापित करना जरूरी है। चूंकि महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति तक सीमित पहुंच प्रदान की गई थी और संपत्ति के अधिकार हासिल करने के लिए उन्हें पुरुष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता था, इसलिए उन्हें परिवार के भीतर छद्म हाशिए (मार्जिनलाइजेशन) पर रहना पड़ता था। आज भी उनके अधिकारों और जरूरतों को पुरुष सदस्यों के बाद दूसरे स्थान पर रखा जाता है। इससे महिलाओं को समाज में प्रतिनिधित्व पाने से भी रोका जाता है, जिससे उनका योगदान और क्षमता अनदेखी हो जाती है। महिलाओं को समान सहदायिक अधिकार देना उनके अधिकार प्रदान करने की दिशा में एक बड़ा कदम था। यह सिर्फ परिवार की संपत्ति तक पहुंच नहीं थी, बल्कि परिवार के कल्याण के लिए उनके समान प्रयासों की मान्यता थी। इस कदम ने उनके पास उपलब्ध आर्थिक संसाधनों के माध्यम से समाज का समर्थन करने की क्षमता को प्रदर्शित करके सामाजिक सम्मान भी सुनिश्चित किया। 

2005 में एच.एस. अधिनियम में किया गया संशोधन हालांकि एक विलम्बित उपाय माना जाता है, फिर भी इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। यह ध्यान देने योग्य है कि केंद्रीय अधिनियम में संशोधन से पहले कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और केरल जैसे राज्य महिलाओं को सहदायिक अधिकार देने में अग्रणी रहे हैं। यह संशोधन सदियों से महिलाओं पर हो रहे अन्याय के प्रति एक उपचारात्मक कानून था। इस संशोधन ने एच.एस. अधिनियम की धारा 6 में बदलाव किया और सहदायिक की बेटियों को जन्म से सहदायिक होने का अधिकार दिया। यह जन्म से प्राप्त अधिकार है और इसलिए इसे निहित अधिकार कहा जाता है। संयुक्त हिंदू परिवार में जन्म लेने वाले किसी भी उत्तराधिकारी को पारिवारिक संपत्ति पर यह अधिकार प्राप्त होता है। हालाँकि, पक्षों को केवल सहदायिक होने का अधिकार दिया गया था, लेकिन उन्हें मिलने वाले हिस्से में कोई कठोरता नहीं थी। ऐसा इसलिए है क्योंकि परिवार में एक नया सदस्य जुड़ने से पहले से मौजूद सहदायिकों का हिस्सा कम हो जाएगा। 

राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों ने राज्य और केंद्र सरकार को संविधान के अनुच्छेद 38 के तहत महिलाओं के सामने आने वाली बाधाओं और भेदभाव को खत्म करने के लिए सामाजिक और आर्थिक नीतियों में सुधार करने का निर्देश दिया। संविधान के अनुच्छेद 46 ने सरकार को हाशिए पर पड़े समुदायों के कल्याण को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी। संविधान द्वारा गारंटीकृत समानता के अधिकार के साथ ये प्रावधान महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक संरक्षक के रूप में खड़े हैं। इस प्रकार संविधान के दिशानिर्देशों को पूरा करने के लिए, लंबे समय से चली आ रही त्रुटि को ठीक करने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बराबर खड़े होने के लिए मौजूदा एच.एस अधिनियम में संशोधन को प्राथमिकता दी गई। इस संशोधन को न केवल लिंग आधारित पहल माना जाता है बल्कि समाज में सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की दिशा में पहला कदम भी माना जाता है। 

पुष्पलता मामले में न्यायालय ने न केवल संशोधित अधिनियम के आदर्शों का समर्थन किया, बल्कि कुछ महत्वपूर्ण व्याख्याएँ देने का भी प्रयास किया। इनमें से पहली व्याख्या संशोधन का पूर्वव्यापी प्रभाव है। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि जब मौजूदा प्रावधान में कोई प्रतिस्थापन किया जाता है, तो यह समझा जाना चाहिए कि प्रावधान अधिनियम की शुरुआत से ही प्रभावी था। इसके विपरीत, यदि संशोधन को भावी प्रभाव वाला माना जाता है, तो अतीत में किए गए अन्याय के लिए कोई उपाय नहीं होगा। यह न तो संयुक्त हिंदू परिवार के वरिष्ठ सदस्यों की स्थिति को प्रभावित करेगा और न ही यह चल रही कार्यवाही को न्यायोचित राहत प्रदान करेगा। पूर्वव्यापी प्रभाव लेना संयुक्त हिंदू परिवार में महिलाओं के लिए अपेक्षित आर्थिक संभावनाओं की गारंटी देने की दिशा में एक स्वागत योग्य कदम था। 

हालांकि, अगर बिना किसी समय सीमा के पूर्वव्यापी प्रभाव दिया गया, तो यह प्रशासन के पूरे तंत्र के लिए विनाशकारी हो जाएगा। विधायकों ने जानबूझकर संशोधन के प्रावधानों को अधिनियम के लागू होने की तारीख से प्रभावी बनाया। इस प्रकार, 1956 से पहले शुरू हुआ कोई भी विवाद संशोधन के प्रावधानों द्वारा विनियोजित नहीं किया जाएगा। साथ ही, चल रहे विभाजन के मुकदमे पर संशोधित प्रावधानों की प्रयोज्यता निर्धारित करने के लिए 20 दिसंबर, 2004 की एक सीमा तिथि तय की गई थी। प्रावधान में प्रदान किया गया यह सकारात्मक प्रतिबंध निपटाए गए मुकदमों में अधिनियम के अंधाधुंध उपयोग में बाधा के रूप में कार्य करता है। 

इस मामले के फैसले से निकला अगला बड़ा निष्कर्ष यह है कि सहदायिक अधिकार न केवल सहदायिक की अविवाहित बेटियों को बल्कि विवाहित बेटियों को भी हस्तांतरित किए जाते हैं। इससे संयुक्त हिंदू परिवार की महिला सदस्यों को अपनी वैवाहिक स्थिति के बावजूद पारिवारिक संपत्ति के अपने हिस्से पर पूर्ण अधिकार रखने की सुविधा मिलती है। इससे न केवल महिलाओं को उनके पैतृक घर में अधिकार सुनिश्चित होता है बल्कि उनके वैवाहिक घर में भी स्वतंत्रता और स्वायत्तता मिलती है। हालाँकि सहदायिक की विवाहित बेटियाँ हिंदू अविभाजित परिवार की सदस्य नहीं रहती हैं, लेकिन पैतृक संपत्ति पर उनके अधिकार समाप्त नहीं होते हैं। 

अंत में, संशोधन ने सहदायिकों की बेटियों को अधिकार प्रदान करते हुए, संयुक्त हिंदू परिवार की अन्य महिला सदस्यों के अधिकारों को छीनने का प्रयास नहीं किया। हिंदू अविभाजित परिवार के श्रेणी 1 के उत्तराधिकारियों को वह हिस्सा प्रदान किया जाता है जिसके वे एच.एस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार हकदार हैं। हालाँकि, चूँकि परिवार की संपत्ति में नए सहदायिक जुड़ते हैं, इसलिए हर दूसरे सदस्य का हिस्सा कम हो जाएगा। इस मामले में, कर्ता की पत्नी जो सहदायिक नहीं है, शुरू में पारिवारिक संपत्ति में 1/15वें हिस्से की हकदार थी, लेकिन संशोधन के बाद वह संपत्ति में 1/25वें हिस्से की हकदार हो गई। 

आगे का रास्ता

लैंगिक समानता प्राप्त करने के लिए केवल सहदायिक अधिकार प्रदान करना पर्याप्त नहीं है। राज्य को समतामूलक (इक्विटेबल) समाज की कल्पना करने की दिशा में अपने वीरतापूर्ण प्रयास जारी रखने चाहिए। यह जरूरी है कि महिलाओं को उनके अधिकारों का आनंद लेने के लिए कानूनी जागरूकता और सहायता प्रदान की जाए। महिलाओं को उनके दावे दायर करने और तदनुसार विवाद को हल करने में मार्गदर्शन करना सरकार की जिम्मेदारी है। इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए दाखिल करने के साथ-साथ दस्तावेज़ीकरण प्रक्रियाओं में प्रौद्योगिकी का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए। 

कानूनी विवादों के निपटारे के क्षेत्र में महिलाओं की जागरूकता और ज्ञान को बेहतर बनाने के लिए सामुदायिक आउटरीच कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए। नीति निर्माताओं द्वारा एक समर्पित हेल्पलाइन और महिला संपत्ति अधिकार केंद्र के विचार की सिफारिश की जानी चाहिए। ऐसी संभावना है कि कानूनी ज्ञान की कमी और इसमें शामिल बोझिल प्रक्रिया के डर के कारण संपत्ति विवादों का सामना करने वाली महिलाएं निपटान के लिए गैर-संस्थागत तरीके को प्राथमिकता देंती है। संपत्ति विवादों के लिए एक समर्पित हेल्पलाइन प्रभावित महिलाओं को उनके घरों में आराम से मुफ्त कानूनी सहायता और जागरूकता प्रदान करेगी। यह पहल पूरे भारत में बार काउंसिल की महिला अधिवक्ता संघों द्वारा की जा सकती है। महिला समकक्षों को उद्यमशीलता (एंटरप्रेनियल) के अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए ताकि वे अपने पास उपलब्ध आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता को समझ सकें। कर प्रोत्साहन और वित्तीय सहायता जैसी नीतियां जो महिलाओं को उनके संपत्ति अधिकार हासिल करने में मदद करती हैं, उन्हें सामान्यीकृत किया जाना चाहिए और आसानी से उपलब्ध कराया जाना चाहिए। 

विधवाओं और दत्तक पुत्रियों को भी सहदायिक दर्जा दिया जाना चाहिए। सहदायिक दर्जा देने का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को आर्थिक स्वायत्तता प्रदान करना है। फिर विधवाओं और दत्तक पुत्रियों के लिए भी इसे प्रदान करना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि उनके हाशिए पर जाने का जोखिम अधिक होता है। संपत्ति के व्यापक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, राजसी सत्ता के हस्तांतरण सहित बौद्धिक संपदा (इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी) पर अधिकार प्रदान करना भी उचित होगा। वसीयत के माध्यम से विरासत से वंचित होने पर भी उचित और कानूनी प्रतिबंध होने चाहिए। उत्तराधिकार के अलावा, संयुक्त हिंदू परिवार की सभी महिलाओं के लिए निवास का अधिकार मौलिक होना चाहिए। 

निष्कर्ष

महिलाओं की सहदायिक स्थिति समाज में लैंगिक समानता प्राप्त करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। राज्य को कानूनी जागरूकता को बढ़ावा देने, बुनियादी ढाँचागत सहायता प्रदान करने और पतनशील नीतियों में सुधार के माध्यम से महिला अधिकारों के क्षेत्र में व्यापक उपायों को कुशलतापूर्वक लागू करना जारी रखना चाहिए। सच्ची लैंगिक समानता तभी प्राप्त की जा सकती है जब समाज के सभी स्तरों में बिना किसी भेदभाव के महिलाओं की सक्रिय भागीदारी हो। इन प्रगतिशील उपायों की वकालत करने से न केवल महिलाओं को बल्कि परिवार, उनकी संतानों और पूरे समुदाय को भी लाभ होता है। 

इस मामले ने कई तरह की व्याख्याएँ दी हैं और क़ानूनों के गहन निरीक्षण के ज़रिए कुछ गंभीर सवालों के जवाब दिए हैं। इस प्रकार, इस फ़ैसले का मिसाली मूल्य अपरिहार्य (इंडेस्पेंसिबल) है। विधायिका के प्रयासों के अलावा, यह ज़रूरी है कि न्यायपालिका इस तरह के फ़ैसलों के ज़रिए लैंगिक समानता की दिशा में आगे बढ़े। लैंगिक समानता के लिए यह निरंतर प्रतिबद्धता सभी के लिए एक न्यायपूर्ण, सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील समाज का निर्माण करेगी। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

हिंदू अविभाजित परिवार क्या है?

हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) या हिंदू संयुक्त परिवार एक कानूनी इकाई है जो एक परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। मिताक्षरा कानून के अनुसार, एक बार जब कोई व्यक्ति वैवाहिक संबंध में आ जाता है, तो वह एचयूएफ बनाने में सक्षम होता है। आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 2(31) एचयूएफ को एक कानूनी व्यक्ति के रूप में श्रेणीीकृत करती है। मिताक्षरा कानून के अनुसार, एक एचयूएफ एक परिवार के सदस्यों द्वारा बनाया जाता है जो सभी एक ही पूर्वज के वंशज होते हैं। गोद लेने के माध्यम से भी एक सदस्य को एचयूएफ में जोड़ा जा सकता है। एचयूएफ के सदस्यों में पिता, माता, बेटे, अविवाहित बेटियाँ, दादा-दादी और पोते-पोतियाँ शामिल हैं। एक विधवा, विवाहित बेटियाँ जो अपने पिता के घर लौट आई हैं, और बहू भी एचयूएफ का हिस्सा बनती हैं। जब एक बेटी की शादी हो जाती है तो वह एचयूएफ की सदस्य नहीं रहती है।

सुरजीत लाल छाबड़ा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1975) के मामले में यह माना गया कि हिंदू अविभाजित परिवार और संयुक्त हिंदू परिवार दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। प्रत्येक एचयूएफ का मुखिया कर्ता होता है जो परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होता है। एचयूएफ के कर्ता को एचयूएफ के मामलों का प्रबंधन करने के लिए प्रशासनिक और आर्थिक शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं। 

सहदायिक के अधिकार क्या हैं? 

एच.एस अधिनियम के अनुसार, सहदायिक वह व्यक्ति होता है जो एचयूएफ में जन्मा होता है, जिसके पास पैतृक संपत्ति पर कानूनी अधिकार होते हैं। चार पीढ़ियों तक के वंशजों वाला व्यक्ति सहदायिक माना जाता है। एचयूएफ में, सभी विवाहित बेटे और बेटियाँ, अविवाहित बेटे और बेटियाँ, पुरुष सदस्यों की पत्नियाँ और कर्ता को सहदायिक माना जाता है। प्रत्येक सहदायिक के पास निम्नलिखित अधिकार निहित होते हैं।

  • पारिवारिक सम्पत्तियों पर साझा अधिकार
  • संपत्तियों के संयुक्त कब्जे का अधिकार
  • संपत्तियों के रखरखाव और प्रशासन का अधिकार
  • संपत्तियों के दुरुपयोग को रोकने का अधिकार
  • विभाजन की मांग करने का अधिकार
  • संपत्तियों को हस्तांतरित करने या बेचने का अधिकार

प्रकाश बनाम फुलवती (2015) के मामले में, यह माना गया कि विवाहित बेटियों को भी सहदायिक माना जाता है, भले ही वे एचयूएफ का हिस्सा न हों। वसीयत न होने की स्थिति में विवाहित बेटियाँ पारिवारिक संपत्ति में बराबर का हिस्सा मांग सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि संशोधित एच.एस अधिनियम के लागू होने से सहदायिक होने का अधिकार जीवित सहदायिकों की जीवित बेटियों को प्राप्त हो गया है। 

मध्‍यवर्ती लाभ क्या है?

मध्‍यवर्ती लाभ को उस मुआवजे के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे एक वैध मालिक अपनी संपत्ति के गलत कब्जे या उपभोग के मामले में दावा करता है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2(12) मध्‍यवर्ती लाभ को किसी संपत्ति के गलत कब्जे से प्राप्त लाभ के रूप में परिभाषित करती है। मध्‍यवर्ती लाभ एक कंपेंसेटरी तंत्र के रूप में कार्य करता है जो किसी संपत्ति के गलत कब्जे के कारण हुए नुकसान के लिए वैध मालिक को चुकाता है। मध्‍यवर्ती लाभ को वसूलने के लिए स्वामित्व का दावा करने वाले व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष यह साबित करना चाहिए कि वह सही मालिक है और संपत्ति पर अवैध रूप से कब्ज़ा किया गया है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश XX का नियम 12 मध्‍यवर्ती लाभ को वसूलने के लिए डिक्री पारित करने के लिए एक तंत्र प्रदान करता है। 

मेसर्स हिंदुस्तान मोटर्स लिमिटेड बनाम मेसर्स सेवन सीज लीजिंग लिमिटेड (2018) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता ने किरायेदारी की अवधि समाप्त होने के बाद प्रतिवादी की संपत्ति पर गलत तरीके से कब्जा कर लिया। न्यायालय ने किरायेदारी की अवधि समाप्त होने की तिथि से लेकर संपत्ति पर कब्ज़ा वापस करने की तिथि तक के मध्‍यवर्ती लाभ की गणना करने और प्रतिवादी को न्यायालयी खर्च के साथ गणना की गई राशि का भुगतान करने का आदेश दिया। 

उत्तराधिकार में उत्तराधिकारियों की श्रेणियाँ क्या हैं?

संपत्ति का वितरण उस पक्ष के कानूनी हिस्से पर आधारित होता है जो उस पर दावा करने वाले पक्ष को मिलता है। यह कानूनी प्रावधान उस श्रेणी द्वारा निर्धारित किया जाता है जिससे वह पक्ष संबंधित है। श्रेणी हिंदू अविभाजित परिवार के सदस्यों का एक सामान्य समूह है, जिन पर पारिवारिक संपत्ति हस्तांतरित होती है। सामान्य तौर पर, दो श्रेणी होती हैं, श्रेणी I और श्रेणी II एच.एस अधिनियम की धारा 10 और 11 क्रमशः श्रेणी I और श्रेणी II के उत्तराधिकारियों के बीच संपत्ति के वितरण को तैयार करती है। प्रत्येक श्रेणी के उत्तराधिकारियों की सूची एच.एस अधिनियम की अनुसूची में सारणीबद्ध है। श्रेणी I के उत्तराधिकारियों में शामिल हैं 

  • बेटा
  • बेटी
  • माँ
  • विधवा
  • बेटे या बेटी का पूर्व मृत बेटा या बेटी
  • पूर्व मृत बेटे या बेटी की दूसरी पीढ़ी
  • पूर्व मृत बेटे की विधवा
  • पूर्व मृत बेटे की दूसरी पीढ़ी की विधवा

श्रेणी II के उत्तराधिकारियों में शामिल हैं

  • पिता
  • भाई
  • बहन
  • बेटे या बेटी की तीसरी पीढ़ी
  • भाई या बहन की दूसरी पीढ़ी
  • पैतृक या मातृ दादा
  • पैतृक या मातृ दादी
  • पिता का भाई या बहन
  • माँ का भाई या बहन       

लिस पेंडेंस का सिद्धांत क्या है?

लिस पेंडेंस का सिद्धांत एक कानूनी सिद्धांत है जो मुकदमे के लंबित रहने के दौरान अचल संपत्तियों के हस्तांतरण को प्रतिबंधित करता है। लिस पेंडेंस एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है कानूनी कार्रवाई का लंबित होना। इस सिद्धांत का उद्देश्य मुकदमे के निपटारे से पहले अलग की गई संपत्ति पर पक्षों के अधिकारों को रोकना है। यह सिद्धांत संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम 1882 की धारा 52 में परिकल्पित है । यह धारा यह अनिवार्य करती है कि किसी भी सक्षम न्यायालय में मुकदमा दायर करने पर, ऐसी कार्यवाही मुकदमे से संबंधित संपत्ति के हस्तांतरण को प्रतिबंधित करती है। 

नागुबाई अम्मल और अन्य बनाम बी. शमा राव और अन्य (1956) के मामले में, मुकदमे के लंबित रहने के कारण संपत्ति के हस्तांतरण पर प्रतिबंध की अवधि पर चर्चा की गई थी। यह माना गया कि अंतिम डिक्री पारित होने तक संपत्ति को बिक्री के प्रतिबंध के तहत माना जाता है। इसका मतलब यह है कि अपील की कार्यवाही और निष्पादन कार्यवाही को भी मुकदमे के लंबित रहने के रूप में माना जाता है। 

संदर्भ

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here