मोहम्मद आरिफ उर्फ अशफाक बनाम पंजीयक भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2014)

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यह लेख Harshita Agrawal द्वारा लिखा गया है। यह मोहम्मद आरिफ  उर्फ अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2014) के ऐतिहासिक फैसले का गहन विश्लेषण प्रदान करता है। लेख में मामले में उठाए गए मुद्दों, इसमें शामिल न्यायिक प्रक्रियाओं और नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर प्रकाश डाला गया है। चर्चा में मृत्युदंड के मामलों में न्यायिक प्रक्रिया के निहितार्थों की जांच की गई है, जिसमें अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों के साथ न्यायिक दक्षता को संतुलित किया गया है। निर्णय का विश्लेषण किया गया है और कई पूर्व मामलों के संदर्भों के साथ इसे पुष्ट किया गया है, जिससे न्यायालय के तर्क और निर्णय की पूरी समझ मिलती है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

मोहम्मद आरिफ  उर्फ अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2014) के ऐतिहासिक मामले में, मोहम्मद आरिफ को विचारण (ट्रॉयल) न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (आई.पी.सी.) की धारा 121 और धारा 320 के तहत मृत्युदंड की सजा सुनाई थी। इस फैसले को उच्च न्यायालय ने अपील को बरकरार रखा था, क्योंकि न्यायालय का मानना ​​था कि मृत्युदंड के मामलों में समीक्षा (रिव्यू) याचिकाओं को कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुना जाना चाहिए। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय की राय में एक बड़ी पीठ की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन उन्होंने मौखिक सुनवाई पर जोर दिया क्योंकि मृत्युदंड अंतिम होता है और इसमें जीवन का मौलिक अधिकार शामिल होता है। सर्वोच्च न्यायालय के नियम, 2013 (आदेश XL नियम 3) में बदलाव पर भी न्यायालय द्वारा चर्चा की गई, जिसमें समीक्षा याचिकाओं में मौखिक अदालती सुनवाई की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया, ये चर्चाएं इस बात पर केंद्रित थीं कि अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के साथ कुशल अदालती प्रक्रियाओं की आवश्यकता को कैसे संतुलित किया जाए।

मामले का विवरण 

  • मामले का नाम: मोहम्मद आरिफ उर्फ ​​अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय एवं अन्य
  • न्यायालय का नाम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • फैसले की तिथि: 2 सितंबर, 2014
  • उद्धरण: 2014 (9) एस.सी.सी. 737
  • क्षेत्राधिकार: आपराधिक मूल क्षेत्राधिकार
  • पीठ: न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी, न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर और न्यायमूर्ति आर.एम. लोढ़ा
  • याचिकाकर्ता: मोहम्मद आरिफ उर्फअशफाक
  • प्रतिवादी: पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय

मामले की पृष्ठभूमि 

हमारी न्यायिक प्रणाली उन सिद्धांतों पर बनी है, जो दोषी साबित होने तक निर्दोष माने जाने वाले व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए हैं। यह गारंटी देता है कि प्रत्येक आरोपी व्यक्ति को अपना बचाव प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त अवसर दिए जाते हैं, जिससे निष्पक्ष सुनवाई की प्रक्रिया सुनिश्चित होती है। किसी व्यक्ति को केवल तभी दोषी ठहराया जा सकता है जब उसका अपराध किसी भी उचित संदेह से परे साबित हो जाए। यह मामला इस बात का एक प्रमुख उदाहरण है कि कैसे हमारी न्याय व्यवस्था आरोपी लोगों को उचित प्रक्रिया और कानूनी प्रक्रियाओं के माध्यम से अपनी बेगुनाही साबित करने की अनुमति देती है। मोहम्मद आरिफ  उर्फ अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2014) के मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा और आई.पी.सी. की धारा 120B के साथ धारा 121 और 320 के तहत गैरकानूनी कृत्यों से संबंधित साजिश जैसे गंभीर आरोप शामिल थे। इस मामले में निचली अदालतों द्वारा मृत्युदंड से संबंधित सजा को चुनौती देने के लिए अपील और समीक्षा याचिकाएँ शामिल थीं। यह न्यायिक कार्यवाही में निष्पक्ष और परीक्षण मानकों की आवश्यकता और ऐसे कानूनी रास्तों से निपटने में सख्त कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करने पर प्रकाश डालता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का विशेष रूप से मृत्युदंड और आपराधिक कार्यवाही में संवैधानिक अधिकारों से संबंधित मामलों में बड़ा प्रभाव पड़ेगा, तथा यह भी कि भविष्य में मामलों को कैसे संभाला जाएगा, और देश की न्यायिक प्रणाली के ढांचे के भीतर न्याय सुनिश्चित करने के लिए कानूनी नियमों और निष्पक्षता पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

मोहम्मद आरिफ उर्फ ​​अशफाक बनाम पंजीयक, (2014) के तथ्य 

22 दिसंबर, 2000 की शाम को लाल किले, जिसे आम तौर पर रेड फोर्ट के नाम से जाना जाता है, के अंदर गोलीबारी हुई। भारतीय सेना की 7वीं राजपुताना राइफल्स की टुकड़ी वहां तैनात थी, और घुसपैठियों के द्वारा अंदर घुसकर तीन सेना के जवानों को ए.के.-56 राइफलों से निशाना लगाया गया, जिससे उनकी दुखद मृत्यु हो गई थी। सेना की त्वरित (रैपिड) प्रतिक्रिया टीम द्वारा जवाबी फायरिंग के बाद हमलावर लाल किले की पिछली दीवार से होते हुए रिंग रोड की ओर भाग निकले।

हमले के तुरंत बाद, दो बीबीसी पत्रकारों को फ़ोन किया गया, एक श्रीनगर में और दूसरा दिल्ली में। हमले की ज़िम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा ने ली थी, जो एक प्रतिबंधित आतंकवादी समूह है जो भारत में आतंकवादी गतिविधियों के लिए जाना जाता है।

घटना के बाद कई आग्नेयास्त्र (फायरआर्म्स) और गोला-बारूद बरामद किए गए। विजय घाट के पास रिंग रोड पर एक ए.के.-56 राइफल बरामद की गई, और घटनास्थल से कारतूस के खोखे बरामद किए गए। लाल किला की चारदीवारी के पास एक मोबाइल नंबर लिखा हुआ कागज़ का टुकड़ा मिला, जिसके बारे में दावा किया गया कि यह वही मोबाइल नंबर है जिसका इस्तेमाल बीबीसी संवाददाताओं को कॉल करने के लिए किया गया था। पुलिस को यह फ़ोन नंबर मोहम्मद आरिफ़, जिसे अशफ़ाक के नाम से भी जाना जाता है, के नाम पर उसके फ़्लैट नंबर 308-A, गाज़ीपुर, नई दिल्ली में पंजीकृत मिला, जिसके आधार पर पुलिस उस तक पहुँची।

उसे गोलीबारी में संदिग्ध होने के कारण गिरफ्तार किया गया था। पुलिस को उसके पास से एक पिस्तौल और जिंदा गोला-बारूद मिला, और उसके पास इन आग्नेयास्त्रों का लाइसेंस भी नहीं था। उसने ओखला से अपने कंप्यूटर सेंटर के नीचे तीन हथगोले (हैंड ग्रेनेड) सहित अतिरिक्त हथियारों और गोला-बारूद के स्थान का भी खुलासा किया। अपराध स्थल पर इस्तेमाल की गई ए.के.-56 राइफल का खुलासा उसने किया, साथ ही लाल किले के पीछे एक और ए.के.-56 राइफल और गोला-बारूद भी था।

जांच के दौरान पाया गया कि मोहम्मद आरिफ ने जम्मू के शॉल व्यापारी के रूप में अपनी झूठी पहचान बनाई हुई थी। उसके पास राशन कार्ड और सीखने की अनुमति (लर्निंग परमिट) जैसे जाली दस्तावेज भी थे। उसने अपने धन का स्पष्ट स्रोत या पैसा कहां से आया, इसका कोई वैध स्पष्टीकरण दिए बिना संदिग्ध वित्तीय लेनदेन किए थे।

उन पर आई.पी.सी. की कई धाराओं के तहत आरोप लगाए गए, क्योंकि साजिश को पूरी तरह से भारत सरकार के खिलाफ युद्ध की कार्यवाही माना गया था। विचारण न्यायालय ने उन्हें आई.पी.सी. की धारा 121 और 320 के साथ धारा 120B के तहत मृत्युदंड की सजा सुनाई थी। अपील पर उच्च न्यायालय ने इस फैसले को बरकरार रखा। इस मामले में कानूनी मुद्दों को संबोधित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के समक्ष एक समूह याचिका प्रस्तुत की गई थी।

उठाए गए मुद्दे 

  • क्या मृत्युदंड से संबंधित मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय के यदि पांच नहीं, तो कम से कम तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा विचार किया जाना चाहिए?
  • क्या मृत्युदंड की सजा पाए व्यक्तियों को मौखिक सुनवाई से वंचित किए जाने पर उनके अधिकारों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, यदि सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 का आदेश XL नियम 3 असंवैधानिक है?
  • क्या मृत्युदंड के मामलों में याचिकाओं की समीक्षा परिचालन के बजाय केवल खुली अदालत में की जानी चाहिए?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ता के विद्वान वकील ने यह तथ्य प्रस्तुत किया कि मृत्युदंड के मामले कानूनी व्यवस्था में एक अलग श्रेणी बनाते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 134 के अनुसार, मृत्युदंड सहित मामलों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का स्वत: अधिकार प्रदान किया जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 354(3) के तहत, मृत्युदंड के मामलों में विशेष कारणों को दर्ज किया जाना चाहिए, और इस तरह की सजा को केवल दुर्लभतम (रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर) परिस्थितियों में ही लागू किया जाना चाहिए। मृत्युदंड की सजा की संवैधानिकता को आई.पी.सी की धारा 302 और सी.आर.पी.सी की धारा 354(3) के तहत बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1980 के मामले में बरकरार रखा गया था। इस मामले में, दुर्लभतम परिस्थितियों का सिद्धांत पेश किया गया था, जहां केवल उन अपराधियों को मृत्युदंड से दंडित किया जा सकता है जो बेहद भयानक और असामान्य अपराध करते हैं। यह नियम यह सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया था था कि मृत्युदंड का उपयोग केवल सबसे चरम (एक्सट्रीम) मामलों में ही किया जाना चाहिए। यह तर्क दिया गया था कि मृत्युदंड भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करता है। हालांकि, न्यायालय ने इन दलीलों को खारिज कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी सुनवाई में अन्य मामलों की तुलना में मृत्युदंड को प्राथमिकता दी। यह तर्क दिया गया कि न्यायमूर्ति भगवती द्वारा विभिन्न लेखों में उजागर किए गए एक बिंदु पर जोर दिया गया है कि मृत्युदंड का प्रावधान अक्सर व्यक्तिगत न्यायाधीशों की व्यक्तिपरक व्याख्याओं पर निर्भर करता है। मृत्युदंड का अनुप्रयोग उद्देश्यों पर आधारित होने के बजाय, व्यक्तिगत न्यायाधीश की मान्यताओं, मूल्यों और कानून की समझ के आधार पर काफी भिन्न हो सकता है। 187वीं विधि आयोग रिपोर्ट (2003) ने सिफारिश की थी कि मृत्युदंड के आदेश से संबंधित मामलों की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ को करनी चाहिए। 

यह तर्क दिया गया कि भले ही मौत की सज़ा के मामलों की सुनवाई शुरू में तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जाती हो, लेकिन समीक्षा के चरण में दो अतिरिक्त न्यायाधीशों को जोड़ा जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि समीक्षा पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जाए। याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि चूंकि याचिकाकर्ता पहले ही 13 साल से ज़्यादा जेल में बिता चुका है, इसलिए इस चरण में मौत की सज़ा देना कठोर होगा। 

प्रतिवादी

प्रतिवादी ने सी.आर.पी.सी. की धारा 362 का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि शुरू में आपराधिक मामलों के लिए कोई समीक्षा याचिका की अनुमति नहीं है। हालांकि, उन्होंने इस तथ्य के बारे में कोई चुनौती नहीं दी या कोई आरोप नहीं लगाया। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि न्यायालय अपने भारी कार्यभार के कारण अत्यधिक दबाव में है और न्यायिक प्रणाली पर पहले से ही बोझ डाल रहे मामलों को दोहराने वाली समीक्षा याचिकाओं पर ध्यान नहीं दे सकता है।

मोहम्मद आरिफ उर्फ ​​अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2014) में चर्चित कानून

सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 के आदेश XL नियम 3

सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 का आदेश XL नियम 3, सर्वोच्च न्यायालय में सर्वोच्च न्यायालय के स्वयं के फैसले पर पुनर्विचार के लिए दायर की गई समीक्षा याचिकाओं से संबंधित है। यदि फैसले में कोई लिपिकीय (क्लेरिकल) त्रुटि पाई जाती है या सबूतों की कमी के कारण आदेश पारित किया जा रहा है, और फैसले की घोषणा के बाद नए सबूतों की खोज की गई है, तो न्यायालय द्वारा इन याचिकाओं को स्वीकार किया जाता है। इस नियम के तहत प्रक्रिया यह है कि किसी और से पहले निर्णय पारित करने वाला न्यायाधीश सबसे पहले मामले को देखेगा, और यदि उसकी यह राय है कि याचिका की समीक्षा करने का कोई वैध कारण नहीं है, तो वह बिना सुनवाई के याचिका को खारिज कर सकता है। हालांकि, गंभीर अपराधों और भयानक कृत्यों के लिए, जिसके कारण मृत्युदंड दिया गया है, मामले में निष्पक्ष और पारदर्शी निर्णय सुनिश्चित करने के लिए न्यायाधीशों के एक बड़े समूह की आवश्यकता होती है।

मोहम्मद आरिफ बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय  (2014) के मामले में, समीक्षा याचिकाओं पर निर्णय के लिए पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनवाई की जानी थी। हालाँकि, समीक्षा चरण में मौखिक सुनवाई की अनुमति देने वाले नियम, विशेष रूप से मृत्युदंड के मामलों में, जीवन के मौलिक अधिकारों को बनाए रखने और सावधानीपूर्वक न्यायिक समीक्षा सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय को अपनी गलतियों यदि कोई हो तो उनको सुधारने, या किसी भी सबूत या किसी भी नए सबूत पर पुनर्विचार करने के लिए एक अतिरिक्त तरीका प्रदान करते हैं, जिससे निर्णय की निष्पक्षता सुनिश्चित होती है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21

अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इसमें कहा गया है कि “किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा।” जीवन के अधिकार में वे चीजें शामिल हैं जो जीवन को सार्थक बनाती हैं। अनुच्छेद 21 में निहित जीवन का अधिकार मानवीय गरिमा के साथ जीने के अधिकार की गारंटी देता है।

मोहम्मद आरिफ का मामला मृत्युदंड की सज़ा के मामलों में समीक्षा याचिकाओं से निष्पक्षता और न्याय के साथ निपटने में मानक प्रक्रियाओं की आवश्यकता पर चर्चा करता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 महत्वपूर्ण है क्योंकि यह निष्पक्ष और न्यायपूर्ण कानूनी प्रक्रिया सुनिश्चित करता है, खासकर जब मृत्युदंड की सज़ा का मामला हो।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 134

अनुच्छेद 134 में आपराधिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार के बारे में बताया है। भारत में किसी उच्च न्यायालय के आपराधिक कार्यवाही में किसी भी निर्णय, अंतिम आदेश या सजा के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है यदि उच्च न्यायालय ने:

  • अपील पर बरी करने के आदेश को उलट दिया है और अभियुक्त को मौत की सजा सुनाई है या,
  • एक अधीनस्थ न्यायालय से मामला अपने हाथ में ले लिया है जिसने आरोपियों को दोषी ठहराया था और उन्हें मौत की सजा सुनाई थी। 

अनुच्छेद 134A यह प्रमाणित करता है कि मामला सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए उपयुक्त है, बशर्ते कि उप-खंड (c) के तहत अपील भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 के खंड 1 के प्रावधानों के अधीन होगी, जैसा कि उच्च न्यायालय स्थापित या अपेक्षित कर सकता है।

संसद भारत में किसी उच्च न्यायालय के आपराधिक कार्यवाही में निर्णय, अंतिम आदेश या सजा के विरुद्ध अपील सुनने और विचार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को अतिरिक्त शक्तियां प्रदान कर सकती है, जो कि निर्दिष्ट शर्तों और सीमाओं के अधीन है।

के.एम नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य (1962) का मामला एक उच्च दर्जे और संवेदनशील हत्या का मुकदमा था और इसने भारत में जूरी प्रणाली के उन्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शुरू में इसे जूरी के समक्ष चलाया गया था, जिसके फैसले को बाद में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। इसके बाद इस मामले की अपील अनुच्छेद 134 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में की गई।

इस मामले में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 134 महत्वपूर्ण है, ताकि मृत्युदंड की सजा पाए लोगों के साथ उचित व्यवहार सुनिश्चित किया जा सके तथा यह सुनिश्चित किया जा सके कि अधिकृत न्यायिक स्तर पर मामलों की गहन समीक्षा की जाए। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 137

अनुच्छेद 137 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णयों या आदेशों की समीक्षा का उल्लेख है। संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून या अनुच्छेद 145 के तहत स्थापित नियमों के अधीन, सर्वोच्च न्यायालय को अपने किसी भी निर्णय या आदेश की समीक्षा करने का अधिकार है।

हरियाणा राज्य बनाम कमल सहकारी किसान समिति (1994) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अभिलेख (रिकॉर्ड) पर स्पष्ट त्रुटि को सुधारने के लिए अनुच्छेद 137 के तहत अपने समीक्षा अधिकार का प्रयोग किया। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि समीक्षा की शक्ति का प्रयोग संयम से और केवल स्पष्ट त्रुटि के मामलों में ही किया जाना चाहिए।

मोहम्मद आरिफ का मामला मृत्युदंड के मामलों में समीक्षा याचिका प्रक्रिया पर केंद्रित है, जहां न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि न्याय सुनिश्चित करने और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को बरकरार रखने के लिए सीमित मौखिक सुनवाई की आवश्यकता है।

आई.पी.सी. की धारा 121

भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अंतर्गत, जो भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के अपराध को साबित करने के लिए अपराधों के आवश्यक पहलुओं से संबंधित है, भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने, युद्ध छेड़ने का प्रयास करने या युद्ध छेड़ने के लिए उकसाने के कृत्य में दोषी पाए जाने वालों को मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी और साथ ही जुर्माना भी देना होगा। 

मोहम्मद आरिफ  उर्फ अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2014) के मामले में सिद्धांतों ने ‘दुर्लभतम मामलों’ के सिद्धांत पर चर्चा की, जिसने मृत्युदंड के दायरे को सीमित कर दिया क्योंकि इसका उपयोग केवल चरम और भयानक अपराधों के लिए किया जाना चाहिए। मुंबई आतंकी हमले के मामले में, जिसे 26/11 हमलों के रूप में भी जाना जाता है, प्राथमिक अपराध भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना था। यह हमला विदेशी नागरिकों द्वारा किया गया था और इसका उद्देश्य भारतीयों और भारत को नुकसान पहुंचाना था। उद्देश्यों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाना, देश की वित्तीय स्थिति को प्रभावित करना और भारत पर कश्मीर को आत्मसमर्पण करने का दबाव बनाना शामिल था। ‘दुर्लभतम’ नियम यहाँ लागू किया गया था क्योंकि अपराध की प्रकृति असाधारण रूप से भयानक थी, जो स्पष्ट करता है कि मृत्युदंड को सबसे बुरे अपराधों के लिए सही माना जाना चाहिए।

आई.पी.सी. की धारा 302

आई.पी.सी. की धारा 302 हत्या के लिए सजा का प्रावधान करती है। धारा 302 के तहत, यदि कोई व्यक्ति हत्या का दोषी पाया जाता है, तो उसे आजीवन कारावास या मृत्युदंड के साथ-साथ जुर्माना भी लगाया जा सकता है। आरोपी पर मुकदमा चलाया जाता है और कानून के अनुसार उसे सजा सुनाई जाती है। सही सजा निर्धारित करने में आरोपी का प्राथमिक कारण और मकसद महत्वपूर्ण होते हैं। हत्या का अपराध गैर-जमानती, संज्ञेय और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है।

मुकेश एवं अन्य बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य (2012) के मामले में, जिसे निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले के रूप में भी जाना जाता है, न्यायालय ने चार आरोपियों को आठ साल बाद मृत्यदंड की सजा सुनाई थी। धारा 302 के तहत, उन मामलों में मृत्युदंड दिया जा सकता है जहां बलात्कार के अपराध के परिणामस्वरूप पीड़ित की मृत्यु हो जाती है। किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम (2015) ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम (2000) का स्थान लिया। संशोधन के अनुसार, अब 16 से 18 वर्ष की आयु के लोगों को बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के लिए दंडित किया जा सकता है। यह बदलाव निर्भया बलात्कार मामले के बाद किया गया था, जहां एक आरोपी को केवल तीन साल की कैद मिली थी क्योंकि अपराध के समय वह 17 वर्ष का था।

मामले का फैसला

मोहम्मद आरिफ उर्फ ​​अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय  (2014) का मामला मृत्युदंड की सजा से संबंधित दंडों से संबंधित था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि समीक्षा याचिकाओं की सुनवाई कम से कम तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जानी चाहिए ताकि मृत्युदंड की सजा के तथ्य और गंभीरता को अधिक निष्पक्ष तरीके से निपटाया जा सके। न्यायालय ने कहा कि मौखिक सुनवाई केवल खुली अदालत में ही होनी चाहिए, न कि तब जब निर्णय लिखित दस्तावेजों पर आधारित हों। अभियुक्तों के अधिकारों पर जोर दिया गया और प्रक्रियात्मक नियमों की संवैधानिकता सुनिश्चित करने के लिए बड़ी पीठ की सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिए।

इस निर्णय के पीछे तर्क

मामले की व्यक्तिगत सुनवाई के दौरान संवैधानिक पीठ द्वारा मौखिक सुनवाई के महत्व को मान्यता दी गई थी, और यह निष्कर्ष निकाला गया था कि मामले में अदालत की समीक्षा मानक के अनुरूप नहीं थी। यह माना गया कि तर्कसंगत निर्णय लेने से पहले ऑडी अल्टरम पार्टम (दूसरे पक्ष को सुनना) के सिद्धांत के मानदंडों का बुद्धिमानी से पालन किया जाना चाहिए। माननीय न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि प्रचलन द्वारा समीक्षा याचिका पर निर्णय लेने का मतलब खुली अदालत की सुनवाई नहीं है, बल्कि न्यायिक सम्मेलन के दौरान बैठक, विचार-विमर्श और सामूहिक निर्णय पर पहुंचने की प्रक्रिया को न्यायाधीशों द्वारा सामूहिक रूप से पूरा किया जाना चाहिए। सभी न्यायिक कार्यवाहियों को सार्वजनिक रूप से दिखाने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन निष्पक्ष न्यायाधीशों द्वारा विचार किए गए निष्पक्ष और परीक्षण निर्णयों की आवश्यकता और किसी के मामले को प्रस्तुत करने के लिए निष्पक्ष रूप से सुने जाने के अधिकार को निर्णय लेने से पहले अनिवार्य किया जाना चाहिए।

दलीलें किसी भी तरीके से अदालत के सामने पेश की जा सकती हैं, चाहे वह मौखिक हो, लिखित हो या परिस्थिति के अनुसार हो। मौखिक प्रस्तुतियों को बाहर करना पूरी तरह से अनुचित है जब वे अवलोकन के लिए आवश्यक हों, लेकिन यह पूरी तरह से स्वीकार्य है जब वे आवश्यक न हों। न्यायालय ने पाया कि कई अन्य न्यायालयों में, साधारण मामलों के लिए सार्वजनिक सुनवाई नहीं की जाती है, इस प्रकार नियम की आवश्यकता को उचित ठहराया जाता है क्योंकि मामलों की संख्या अधिक होती है और बहुत अधिक समीक्षा याचिकाएँ अनावश्यक रूप से दायर की जाती हैं। अनुच्छेद 137 के तहत, समीक्षा करने की शक्ति प्रदान की गई है और यह इस नियम के लिए किसी भी सीमा के बिना इस शक्ति के प्रयोग को निर्देशित करने वाली सभी प्रकार की कार्यवाही में समान रूप से व्यापक है। अनुच्छेद 137 में मौलिक शक्ति प्राप्त होती है और यह सिविल और आपराधिक दोनों कार्यवाही को शामिल करने के लिए पर्याप्त है।

मुद्दावार निर्णय

क्या मृत्युदंड से संबंधित मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय के यदि पांच नहीं, तो कम से कम तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा विचार किया जाना चाहिए?

सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 के आदेश 6 नियम 3 में संशोधन के मद्देनजर 4:1 बहुमत से यह प्रावधान पेश करके निष्कर्ष निकाला कि मृत्युदंड से जुड़े मामले की समीक्षा कम से कम तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जानी चाहिए। यह नियम जोड़ा गया था, और मामले पर एक साथ विचार करने के लिए के लिए कम से कम तीन न्यायाधीशों की आवश्यकता यह सुनिश्चित करने के लिए थी कि निर्णय सही और पारदर्शी हो और इसमें कोई गलती न हो। बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1980 जैसे मामलों में, जिनमें मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा दिया जाता है और उन मामलों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जाती है, न्यायालय ने स्पष्ट रूप से इस तथ्य को संबोधित किया कि तीन न्यायाधीशों की उपस्थिति अनिवार्य है।

क्या मृत्युदंड की सजा पाए व्यक्तियों को मौखिक सुनवाई से वंचित किए जाने पर उनके अधिकारों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, यदि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश XL नियम 3 को असंवैधानिक माना जाए?

न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड के मामलों में बोले गए शब्दों का पूरी तरह से अलग प्रभाव और शक्ति होती है, भले ही सफलता की संभावना कम हो। यह निर्णय लिया गया कि समीक्षा याचिका की मौखिक सुनवाई का अधिकार केवल लंबित याचिकाओं और भविष्य की याचिकाओं तक ही सीमित नहीं है। यह अधिकार वहां भी लागू होता है जहां मृत्युदंड पर फैसला होना बाकी है। हालांकि, जो लोग पहले से ही मौत की सजा का सामना कर रहे हैं और जिन्हें मौखिक सुनवाई की अनुमति नहीं है, उनके अधिकारों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, जब तक कि इसे असंवैधानिक न पाया जाए। जब ​​किसी व्यक्ति को मृत्युदंड की सजा सुनाई जाती है, तो यह सुनिश्चित करना बहुत महत्वपूर्ण है कि उन्हें मामले की पूरी तरह से निष्पक्ष समीक्षा मिले। इन विशिष्ट मामलों के लिए, याचिकाकर्ताओं को निर्णय सुनाए जाने की तारीख से एक महीने के भीतर अपनी समीक्षा याचिकाओं को फिर से खोलने के लिए आवेदन करने की स्वतंत्रता दी गई थी। हालांकि, जिन मामलों में एक सुधारात्मक याचिका भी खारिज कर दी गई थी, उन्हें उस सीमित सुनवाई की राहत के अवसर से विशेष रूप से वंचित कर दिया गया था। आरिफ बनाम पंजीयक, भारत के सर्वोच्च न्यायालय (2014) में निर्दिष्ट किया गया कि समीक्षा चरण के दौरान न्यायालय द्वारा मौखिक सुनवाई के नियमों की अनुमति, विशेष रूप से मृत्युदंड के मामलों में, जीवन के अधिकार की सुरक्षा और निष्पक्ष समीक्षा सुनिश्चित करती है, और न्यायालय को किसी भी गलती को सुधारने या किसी भी नए साक्ष्य पर विचार करने का एक और मौका भी प्रदान करती है, जो यह सुनिश्चित करने के लिए सामने आया हो कि अंतिम निर्णय निष्पक्ष और सही था।

क्या मौत की सजा के मामलों में याचिकाओं की समीक्षा केवल खुली अदालत में की जानी चाहिए, न कि प्रसारित करके?

सर्वोच्च न्यायालय ने मोहम्मद आरिफ  उर्फ अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2014) के मामले में जीवन के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए याचिकाओं की समीक्षा में मौखिक सुनवाई के महत्व को बताया, खासकर मृत्युदंड की सजा से संबंधित मामलों में। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि इन याचिकाओं की सुनवाई केवल खुली अदालत में की जानी चाहिए, ताकि किसी भी तरह के पक्षपात से बचने के लिए सार्वजनिक सुनवाई की जानी चाहिए और केवल लिखित प्रस्तुतियों के प्रसार (सर्कुलेशन) से नहीं। नागरिक के मौलिक अधिकारों की सावधानीपूर्वक न्यायिक समीक्षा और सुरक्षा की आवश्यकता यह सुनिश्चित करने के लिए कि मृत्युदंड की सजा जारी करने से पहले सभी बिंदुओं को अच्छी तरह से शामिल किया गया है और उन पर विचार किया गया है, इस निर्णय का मुख्य घटक था। यह भी उल्लेख किया गया कि निष्पक्षता और पारदर्शिता का स्तर तब प्रदान नहीं किया जा सकता है जब मृत्युदंड के मामलों की जांच केवल लिखित दस्तावेजों के माध्यम से और उचित अदालती सुनवाई के बिना की जाती है। मृत्युदंड के मामलों में गंभीर अपराध शामिल हैं, यह सुनिश्चित करने के लिए सावधानीपूर्वक जांच और पारदर्शी सुनवाई करना आवश्यक है कि प्रक्रिया निष्पक्ष और न्यायपूर्ण बनी रहे।

मोहम्मद आरिफ उर्फ ​​अशफाक बनाम पंजीयक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय  (2014) का विश्लेषण 

मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया न्यायसंगत, निष्पक्ष, उचित और मनमानी नहीं होनी चाहिए। इससे पहले, ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) में, छह न्यायाधीशों की पीठ ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की शाब्दिक व्याख्या की थी। न्यायमूर्ति कनिया ने निष्कर्ष निकाला कि अनुच्छेद 21 में “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” शब्द अमेरिकी संविधान के तहत इसकी व्यापक व्याख्या की तुलना में अधिक सीमित है, जहाँ इसमें संपत्ति के अधिकार शामिल हैं।

इसने मेनका गांधी मामले के लिए आधार तैयार किया, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 21 की व्याख्या अन्य मौलिक अधिकारों के साथ की जानी चाहिए। परिणामस्वरूप, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया और कानून दोनों ही न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होने चाहिए, जिसमें अनुच्छेद 14 और 19 को अनुच्छेद 21 की व्याख्या में एकीकृत किया जाना चाहिए।

सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन, (1979) के मामले में, मुद्दा यह था कि क्या मृत्युदंड की प्रतीक्षा कर रहे व्यक्ति को एकांत कारावास में रखा जा सकता है। न्यायमूर्ति कृष्णन अय्यर ने कहा कि हालांकि भारतीय संविधान में अमेरिकी संविधान की तरह “उचित प्रक्रिया” खंड का अभाव है, लेकिन मेनका गांधी मामले और बैंक राष्ट्रीयकरण मामले (केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973) के फैसलों के माध्यम से समान परिणाम प्राप्त हुए थे, जहां यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांत संविधान का सबसे अभिन्न अंग थे। यह मामला दर्शाता है कि भारतीय संविधान की मूल संरचना को बदला या हटाया नहीं जा सकता था। भारतीय लोकतंत्र के प्रमुख पहलुओं और स्तंभों के साथ-साथ इसकी अविभाजित शक्ति का पालन कानून के शासन द्वारा किया जाना चाहिए।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978), ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950), और सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1979) जैसे ऐतिहासिक मामलों से प्रेरणा लेते हुए, न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कानून और न्यायिक प्रक्रिया दोनों ही न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होनी चाहिए, क्योंकि यह निर्णय न केवल मृत्युदंड के मामलों में समीक्षा याचिकाओं के निहितार्थों को संभालता है, बल्कि भारतीय न्यायिक प्रणाली में व्यापक मिसाल के रूप में मौलिक अधिकारों की व्याख्या भी करता है।

मामले के बाद 

इस मामले ने मृत्यु दंड की समीक्षा सुनवाई में सुधार किया। यह मामला मृत्युदंड जैसे कठोर दंडों के लिए खुली अदालत की सुनवाई को अनिवार्य करता है, जिनका उचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए। इससे न्यायिक पारदर्शिता और जनता का विश्वास बढ़ता है। इस मामले ने भविष्य के मामलों के लिए एक मिसाल कायम की, यह सुनिश्चित करते हुए कि उन सभी को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है। हालाँकि यह सीधे तौर पर नहीं कहा गया है, मौत की सजा के मामलों पर सुर्खियों ने जनता और न्यायाधीशों को यह निर्धारित करने में जानबूझकर राय देने के लिए प्रेरित किया होगा कि मौत की सजा के मामलों को कब लागू किया जाए।

दया याचिका, 2024

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मोहम्मद आरिफ उर्फ ​​अशफाक की दया याचिका खारिज कर दी है। वह एक पाकिस्तानी नागरिक है और लश्कर-ए-तैयबा समूह का सदस्य है, जिसे दिसंबर 2000 में लाल किला हमले में मौत की सजा सुनाई गई थी, जिसमें तीन सैन्यकर्मी मारे गए थे। उसे 2005 में सुनाई गई मौत की सजा के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय से राहत नहीं मिली। वह अभी भी कार्यवाही को आगे बढ़ाने के राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती दे सकता है।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 72 राष्ट्रपति को क्षमादान देने की शक्ति देता है। इसका मतलब है कि राष्ट्रपति अपराधों के लिए दोषी ठहराए गए लोगों की सज़ा को माफ़ कर सकते हैं या बदल सकते हैं, खासकर मौत की सज़ा या कोर्ट मार्शल द्वारा तय किए गए मामलों के लिए। राष्ट्रपति सज़ा में देरी, रोक या कमी भी कर सकते हैं। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 161 में कहा गया है कि राज्य स्तर के मामलों के लिए राज्यपाल के पास समान शक्तियाँ हैं। राज्यपाल अपने राज्य में अपराध के लिए दोषी ठहराए गए लोगों की सज़ा को माफ़ कर सकते हैं, विलंबित कर सकते हैं या बदल सकते हैं।

1980 में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मृत्युदंड केवल “दुर्लभतम” मामलों में ही दिया जाना चाहिए। 2015 की विधि आयोग की रिपोर्ट ने आतंकवाद और युद्ध को छोड़कर सभी अपराधों के लिए मृत्युदंड को समाप्त करने की सिफारिश की। क्षमादान देने की राष्ट्रपति की शक्ति के बारे में, विधि आयोग की रिपोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि ये ‘दया शक्तियाँ’ न्याय की संभावित विफलताओं के खिलाफ अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करती हैं। इसलिए, दया के अयोग्य समझे जाने वाले मामलों को मृत्युदंड के योग्य माना जाता है।

2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने आरिफ की मौत की सज़ा की पुष्टि की। 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी अपील को खारिज करते हुए कहा कि यह हमला “विदेशी आतंकवादियों द्वारा अघोषित युद्ध” था।

वह मृत्यदंड के ख़िलाफ़ याचिकाएँ दायर करता रहा। 2012 में समीक्षा याचिका खारिज कर दी गई और 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने सुधारात्मक याचिका भी खारिज कर दी।

राष्ट्रपति मुर्मू को 15 मई 2024 को आरिफ की दया याचिका प्राप्त हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति को इस तरह के निर्णय लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह का उपयोग करना चाहिए। इस तर्क को अनुचित माना जा सकता है क्योंकि एक महत्वपूर्ण निर्णय की अनदेखी की गई थी और राष्ट्रपति ने मामले पर पूरी तरह से विचार नहीं किया था।

सर्वोच्च न्यायालय के पास उन मामलों में मृत्युदंड को बदलने की शक्ति है जहां दया याचिकाओं को संभालने में अत्यधिक देरी हुई थी।

2014 में, न्यायालय ने विलंब के कारण शत्रुघ्न चौहान की सजा को कम कर दिया। गुरमीत सिंह की मौत की सजा को भी न्यायालय ने 27 साल जेल में बिताने के बाद बदल दिया था, जिसमें से 21 साल उसके मृत्यूदंड के भी शामिल थे क्योंकि उसकी दया याचिका में देरी सात साल से अधिक थी। अप्रैल 2023 में, सर्वोच्च न्यायालय बॉम्बे उच्च न्यायालय के एक महिला और उसकी बहन की दया याचिकाओं में लंबी देरी के कारण मौत की सजा को कम करने के फैसले से सहमत हो गया।

आरिफ कुल 23 साल से अधिक समय से हिरासत में है जिसमें से लगभग 19 साल हो गए है उसे मौत की सजा दिए हुए। 

निष्कर्ष 

उपर्युक्त मामले में न्यायालय के निर्णय ने सच्चे और निष्पक्ष परीक्षण मानकों और जीवन के मूल अधिकार की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता को रेखांकित किया, चाहे वह किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के लिए हो या किसी सामान्य व्यक्ति के लिए, विशेष रूप से मृत्युदंड से संबंधित मामलों में। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यह निर्णय और आदेश सभी मामलों पर लागू होता है, चाहे वे लंबित हों या भविष्य की समीक्षा याचिकाएँ हों। जिन मामलों में समीक्षा याचिका पहले ही खारिज हो चुकी है, लेकिन मृत्युदंड अभी तक निष्पादित नहीं हुआ है, उन्हें भी निर्णय में शामिल किया गया है, लेकिन सुधारात्मक याचिका खारिज होने के मामलों को बाहर रखा गया है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

इस मामले में प्राथमिक चिंता क्या थी?

उपर्युक्त मामले में मुख्य मुद्दा मृत्युदंड के निर्णयों की समीक्षा करना था, तथा सही प्रक्रियाओं के साथ, विशेष रूप से इस मामले के लिए, यह देखना था कि क्या तीन न्यायाधीशों वाली पीठ की मानक आवश्यकता पूरी हुई थी।

मृत्युदंड के मामलों में प्रक्रियागत निष्पक्षता क्यों आवश्यक है?

न्यायिक प्रणाली की अखंडता को बनाए रखने के लिए मृत्युदंड के मामलों में प्रक्रियात्मक निष्पक्षता बहुत ज़रूरी है। किसी व्यक्ति के जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप को उचित ठहराने वाला कानून होना चाहिए। दूसरा, कानून वैध होना चाहिए; तीसरा, कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। प्रक्रिया निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित होनी चाहिए। यह मनमानी, काल्पनिक या दमनकारी नहीं होनी चाहिए।

संदर्भ

 

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