श्रीमती हुसैनबी बनाम हुसैनसब हसन सब (1989)

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यह लेख Harshita Agrawal द्वारा लिखा गया है। श्रीमती हुसैनबी बनाम हुसैनसब हसन सब, 1989 का मामला कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक महत्वपूर्ण कानूनी निर्णय है जो इस्लामी कानून के तहत उत्तराधिकार और उपहारों की वैधता से संबंधित मुद्दों की विस्तृत रूप से व्याख्या करता है। संपत्ति वितरण में इस्लामी कानूनी सिद्धांतों को किस प्रकार लागू किया जाना चाहिए, इस पर एक मिसाल कायम करने के साथ-साथ यह मामला एक ऐतिहासिक निर्णय है, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है कि कौन सी बातें उपहार को कानूनी रूप से वैध बनाती हैं तथा यह सुनिश्चित करती हैं कि सभी को उनका उचित हिस्सा मिले। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

श्रीमती हुसैनबी बनाम हुसैनसब हसन सब एवं अन्य (1989) का मामला उपहार और उत्तराधिकार के संबंध में इस्लामी कानूनी सिद्धांतों के प्रमुख पहलुओं को संबोधित करता है। यह मामला इस्लामी कानून के तहत उपहार देने और उसे उचित रूप से स्वीकार करने में अभिभावक की भूमिका की जांच करता है, विशेष रूप से नाबालिगों की ओर से, तथा यह सुनिश्चित करता है कि उपहार को वैध बनाने के लिए शामिल कानूनी सिद्धांतों का उचित तरीके से पालन किया जाए। 

नाबालिग पोते-पोतियों को दिए गए उपहार विलेख (डीड) की वैधता के साथ-साथ, न्यायालय ने इस मामले में यह भी समीक्षा की कि शेष संपत्ति को इस्लामी उत्तराधिकार कानूनों के अनुसार कैसे विभाजित किया जाना चाहिए। इस निर्णय में इन सिद्धांतों का उचित रूप से पालन करने तथा यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित हिस्सा मिले तथा उपहार कानूनी रूप से वैध हो। यह मामला दर्शाता है कि उपहार देने और संपत्ति को साझा करने के लिए इस्लामी कानूनी सिद्धांतों का पालन करना कितना महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हुए कि अभिभावकों को नाबालिगों के लिए उपहारों को कैसे संभालना चाहिए और उपहारों की वैध स्वीकृति के लिए क्या आवश्यकताएं हैं। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: श्रीमती हुसैनबी बनाम हुसैनसब हसन सब और अन्य
  • न्यायालय का नाम: कर्नाटक उच्च न्यायालय
  • निर्णय की तिथि: 1 मार्च, 1988
  • समतुल्य उद्धरण: एआईआर 1989 कर्नाटक 218
  • पीठ: न्यायमूर्ति एम.पी. चंद्रकांत राज
  • निर्णय और डिक्री पारित: मुंसिफ नवलगुंड
  • याचिकाकर्ता: हुसैनबी
  • प्रतिवादी: हुसैनसब हसन सब और अन्य।

मुस्लिम कानून में हिबा की अवधारणा

हिबा या उपहार देने की अवधारणा 600 ई. से मुस्लिम कानून का एक अभिन्न अंग रही है। हिबा शब्द अरबी से उत्पन्न हुआ है और इसका शाब्दिक अर्थ है “उपहार।” यह संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 द्वारा शासित नहीं है, इसके बजाय, यह शरीयत अधिनियम, 1937 द्वारा विनियमित है और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसमें बिना किसी प्रतिफल (कंसीडरेशन) के एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को स्वामित्व का स्वैच्छिक हस्तांतरण शामिल है। यह हस्तांतरण वास्तविक हो सकता है, जिसमें संपत्ति भौतिक रूप से प्राप्तकर्ता को सौंपी जाती है, या रचनात्मक हो सकता है, जिसमें प्रतीकात्मक हस्तांतरण शामिल होता है। कुछ ऐसे उदाहरण हैं जहां मुस्लिम कानून के विशिष्ट नियमों के अनुसार संपत्ति का कब्जा सौंपना आवश्यक नहीं है। मुशा, जो एक अविभाजित संपत्ति है, की अवधारणा में हिबा के अंतर्गत विशिष्ट नियम हैं। न्यायालय द्वारा विभिन्न पूर्ववर्ती निर्णयों में हिबा के सिद्धांतों को अपनाया गया है। 

उपहार की अवधारणा और उनके कानूनी निहितार्थों का एक लंबा इतिहास है, जो संपत्ति कानून के अंतर्गत एक विशिष्ट क्षेत्र के रूप में विकसित हुआ है। मुस्लिम कानून के तहत कुछ संस्थाओं को मान्यता प्राप्त है, जैसे सदका (उपहार), आरियत (संपत्ति का ऋण) और हिबा-बिल-इवाज़ (प्रतिफल सहित उपहार), जो हालांकि अलग हैं, लेकिन हिबा के साथ कुछ विशेषताओं को साझा करते हैं। दानकर्त्ता (डोनर) द्वारा बाद में किसी अन्य धर्म मे परिवर्तन करने से उपहार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि उपहार उसी क्षण अंतिम हो जाता है, जब वह दिया गया हो। मुस्लिम कानून के तहत किसी उपहार को वैध मानने के लिए, संपत्ति का तत्काल हस्तांतरण होना चाहिए और उपहार में देरी करने का कोई भी इरादा उसे शून्य कर देता है। 

हिबा की अनिवार्यताएं

मुस्लिम कानून के तहत किसी संपत्ति के सफल हस्तांतरण या उपहार देने के लिए मुख्य रूप से तीन शर्तें पूरी होनी आवश्यक हैं:

दानकर्त्ता द्वारा उपहार की घोषणा

मुस्लिम कानून के अनुसार, कोई उपहार तभी वैध होता है जब तीन शर्तें पूरी हों। दानकर्त्ता का उपहार देने का इरादा स्पष्ट होना चाहिए, चाहे वह मौखिक रूप से हो या भौतिक रूप से हों। इलाही समसुद्दीन बनाम जैतुनबी मकबूल (1994) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि उपहार की घोषणा और स्वीकृति मौखिक रूप से की जा सकती है, चाहे संपत्ति की प्रकृति कुछ भी हो। हिबानामा लिखित घोषणा के रूप में जाना जाता है, जो अक्सर एक दस्तावेज़ के माध्यम से किया जाता है और इसे पंजीकृत करने की आवश्यकता नहीं होती है। उपहार प्राप्तकर्ता (डोनी) की स्वीकृति मौखिक अथवा लिखित रूप में हो सकती है। संपत्ति का कब्ज़ा दानकर्त्ता द्वारा उपहार प्राप्तकर्ता को हस्तांतरित किया जाना चाहिए। मोहम्मद हेसाबुद्दीन बनाम मोहम्मद हेसरुद्दीन (1983) के मामले में, पंजीकृत नहीं किए गए उपहार विलेख की वैधता को गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था। उपहार की घोषणा आवश्यक है और इसे स्पष्ट तरीके से किया जाना चाहिए; अन्यथा इसे वैध नहीं माना जाएगा। 

उपहार प्राप्तकर्ता द्वारा स्वीकार करना

उपहार को वैध मानने के लिए उपहार प्राप्तकर्ता को उपहार प्राप्त करना आवश्यक है, तथा यदि एक से अधिक प्राप्तकर्ता हैं, तो उन्हें उपहार अलग-अलग स्वीकार करना चाहिए। मुस्लिम कानून में हिबा को एक द्विपक्षीय लेनदेन माना जाता है और इसमें दानकर्त्ता और उपहार प्राप्तकर्ता दोनों को समान रूप से शामिल होना चाहिए, क्योंकि हस्तांतरण दानकर्त्ता द्वारा किया जाना चाहिए और उपहार प्राप्तकर्ता द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। मां के गर्भ में पल रहा बच्चा उपहार प्राप्त कर सकता है, यदि वह घोषणा के छह महीने के भीतर जीवित पैदा हो जाए। नाबालिग या किसी असमर्थ व्यक्ति के मामले में, उपहार कानूनी अभिभावक द्वारा स्वीकार किया जा सकता है, जिसमें पिता, दादा और उनके संबंधित निष्पादक शामिल हैं। 

दानकर्त्ता द्वारा कब्जे का हस्तांतरण और उपहार प्राप्तकर्ता द्वारा उसकी स्वीकृति

मुस्लिम कानून के अनुसार, उपहार तभी वैध होता है जब दानकर्त्ता ने उपहार देने का अपना इरादा स्पष्ट कर दिया हो और प्राप्तकर्ता ने उसे स्वीकार कर लिया हो। इस प्रक्रिया के बाद, अगला महत्वपूर्ण चरण दानकर्त्ता द्वारा उपहार प्राप्तकर्ता को कब्जे का हस्तांतरण करना है, ताकि उपहार पूर्ण हो सके। संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 123 के तहत कई औपचारिकताओं को पूरा करने की आवश्यकता होती है और इस धारा के तहत हिबा लागू नहीं होती है, क्योंकि हिबा में हस्तांतरण, उपहार प्राप्तकर्ता को कब्जा दिए जाने के तुरंत बाद प्रभावी हो जाता है। उपहार का कब्जा तब माना जाता था जब उसे हस्तांतरित या स्वीकार किया जाता था, न कि तब जब उसकी घोषणा की जाती थी। 

नूरजहाँ बेगम बनाम मुफ़्तख़ार दाद खान एवं अन्य (1969) के मामले में न्यायालय ने माना कि उपहार को तब अवैध माना जाएगा, जब दानकर्त्ता ने लाभ की घोषणा करने और प्राप्त करने के बाद मृत्यु तक उसका उपयोग किया हो, क्योंकि वास्तव में उस पर कभी कब्ज़ा नहीं हुआ था। मुस्लिम कानून के तहत संपत्ति के हस्तांतरण को पंजीकृत कराना आवश्यक नहीं है, लेकिन मुस्लिम कानून के नियमों का पालन करना आवश्यक है। हिबानामा को वैध माने जाने के लिए पंजीकृत कराने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उपहार मौखिक या लिखित रूप में दिया जा सकता है। 

श्रीमती हुसैनबी बनाम हुसैनसब हसन सब और अन्य (1989) के तथ्य 

वादी द्वारा एक मुकदमा दायर किया गया था, जिसमें दावा किया गया था कि 29 मई, 1972 की उपहार विलेख और 8 अगस्त, 1952 की महर विलेख उसके हिस्से के विरुद्ध झूठे, धोखाधड़ीपूर्ण और अमान्य हैं। 8 अक्टूबर, 1955 को हुआ विक्रय लेनदेन एक बेनामी लेनदेन था और विभाजन तथा वास्तविक कब्जे के लिए वादी ने संपत्ति का 9/32 हिस्सा विभाजित करके उसे दिए जाने की मांग की थी। उन्होंने यह भी अनुरोध किया कि यदि संपत्ति का बंटवारा नहीं किया जा सकता तो उन्हें 9/32 हिस्से का कब्जा तथा न्यायालय की लागत दी जाए। 

वादी को मद (c) से (g) तक में सूचीबद्ध संपत्तियों का 4/27वां हिस्सा बांटने और अलग-अलग रखने का अधिकार दिया गया। तदनुसार इसे विभाजित कर वादी को सौंप दिया जाएगा। प्रतिवादियों को आवश्यक न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के बाद निर्णय में उल्लिखित अपने शेयर प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। यदि संपत्ति को भौतिक रूप से विभाजित करना संभव न हो, तो शेयरों को या तो समान विभाजन द्वारा आवंटित किया जाना चाहिए या संपत्तियों को बेचकर प्राप्त राशि को शेयरों के अनुसार वितरित किया जाना चाहिए। 

शामिल मुद्दे

  • क्या वादी ने यह साबित किया कि इमाम साहब द्वारा दिनांक 29/5/1972 को किया गया उपहार विलेख नकली और धोखाधड़ी वाला था?
  • क्या वादी ने यह साबित किया कि प्रतिवादी 2 के पक्ष में इमाम साहब द्वारा दिनांक 8/8/1952 को किया गया महर विलेख धोखाधड़ीपूर्ण था?
  • क्या वादी ने यह साबित किया कि प्रतिवादी 1 के पक्ष में दिनांक 8/10/1955 को किया गया विक्रय लेनदेन बेनामी लेनदेन था और बाध्यकारी नहीं था?
  • क्या वादी ने यह साबित किया कि विवादित संपत्तियों में उसका 9/32 हिस्सा था?
  • क्या वादी ने यह साबित किया कि वह बंटवारे और हिस्से के पृथक (सेपरेट) कब्जे का हकदार था?
  • क्या प्रतिवादियों ने यह साबित कर दिया कि मुकदमा समय-सीमा द्वारा वर्जित था?
  • क्या प्रतिवादियों ने यह साबित किया कि इस न्यायालय को इस मुकदमे की सुनवाई करने का कोई अधिकार नहीं है?
  • क्या प्रतिवादियों ने यह साबित किया कि अदा की गई न्यायालय शुल्क पर्याप्त नहीं थी? 

पक्षों द्वारा तर्क

अपीलकर्ताओं द्वारा तर्क

अपीलकर्ता के विद्वान वकील ने कहा कि इमामसाब तीन नाबालिग पोते-पोतियों के अभिभावक थे, जो उपहार विलेख में उनकी बेटी के बच्चे भी थे। उपहार विलेख समीक्षा के लिए उपलब्ध था और इसे उचित तरीके से लिखा और पंजीकृत भी किया गया था। इमामसाहब ने मद (c) से (g) में सूचीबद्ध संपत्तियां अपने चार पोते-पोतियों को उपहार में दीं, जो उनके साथ रह रहे थे, जिनमें से एक 19 वर्ष का था और बाकी नाबालिग थे। 

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि हालांकि उपहार विलेख में प्रस्ताव शामिल था, लेकिन तीन नाबालिग पोते-पोतियों के लिए स्वीकृति स्वयं दानकर्त्ता द्वारा की गई थी, जो कि प्रत्यक्ष रूप से नहीं बल्कि निहित रूप से कहा गया था। वयस्क पोते के लिए, विलेख में कोई स्वीकृति दर्ज नहीं की गई थी और चूंकि यह मुस्लिम कानून के तहत वैध उपहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए उपहार को अपूर्ण माना गया। यह भी रेखांकित किया गया कि तीन नाबालिग पोते-पोतियां उपहार दिए जाने से पहले ही दानकर्त्ता के साथ रह रहे थे और उनके नाम भी संपत्ति के अभिलेखों में दर्ज थे, जिससे पता चलता है कि उपहार दिया गया था। 

अपने कथन के समर्थन में याचिकाकर्ता ने अजेशाबी बनाम सप्रकारा कथूनबी (1964) मामले का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि यदि दानकर्त्ता और प्राप्तकर्ता एक साथ रहते हैं, तो कब्जे के औपचारिक हस्तांतरण की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सिद्धांत यहां भी लागू होना चाहिए, भले ही उपहार प्राप्तकर्ता नाबालिग हों। 

प्रतिवादी द्वारा तर्क

प्रतिवादी ने अपने खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों से इनकार किया और कहा कि वादी का मुकदमा अवैध है क्योंकि वादी का संपत्तियों पर कोई स्वामित्व नहीं है। 

श्रीमती हुसैनबी बनाम हुसैनसब हसन सब (1989) में निर्णय 

मुख्य न्यायाधीश मजिस्ट्रेट धारवाड़ ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया और यह कहते हुए डिक्री पारित की कि वादी विवादित संपत्तियों (c) से (g) में 4/27वें हिस्से के विभाजन और पृथक कब्जे का हकदार है। इन संपत्तियों को तदनुसार विभाजित किया जाना चाहिए और वादी को दिया जाना चाहिए। प्रतिवादियों को आवश्यक न्यायालय शुल्क के भुगतान के बाद निर्णय में वर्णित अनुसार अपने शेयर प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि संपत्ति का विभाजन संभव न हो तो या तो पूरी संपत्ति को एक हिस्से में बांटकर या संपत्ति को बेचकर या धनराशि को विभाजित करके शेयरों का आवंटन किया जाना चाहिए। 

निर्णय के पीछे तर्क

न्यायालय ने अपने तर्क में सबसे पहले हसन सब गणगनूर के वंश वृक्ष को स्पष्ट किया, जिन्हें मुजावर के नाम से भी जाना जाता था। उनके चार बेटे थे: इमामसाब, दादासाब (प्रतिवादी 8), फकरुसाब (प्रतिवादी 7) और हुसैनसाब (वादी)। इमामसाब सबसे बड़े बेटे थे और 25 जुलाई, 1973 को उनकी मृत्यु हो गई और वे अपनी पत्नी (प्रतिवादी 1) और बेटी खातुनबी (प्रतिवादी 2) को पीछे छोड़ गए। मुस्लिम कानून के अनुसार, उसकी पत्नी को संपत्ति का 1/8 हिस्सा मिलेगा और उसकी बेटी को शेष संपत्ति का आधा हिस्सा मिलेगा। खातुनबी के चार बच्चे थे – राजेशा (प्रतिवादी 3), बावाशा (प्रतिवादी 4), हुसेनशा (प्रतिवादी 5) और महबुब्शा (प्रतिवादी 6)। शेष संपत्ति को शेष बचे लोगों में बांटा जाना था, जो इमाम साहब के भाई थे। चूंकि सबसे करीबी रिश्तेदार, यानी इमाम साहब के भाई पहले से ही जीवित थे, इसलिए पोते-पोतियों को कोई संपत्ति विरासत में नहीं मिली। इसलिए, संपत्ति दादा साहब, फकरूसाब और हुसैन साब के बीच बराबर-बराबर बांटी जाएगी। अनुसूची के मद (c) से (g) में सूचीबद्ध संपत्तियों के लिए, पहले वैध उपहार की कटौती की जाएगी और फिर शेष संपत्ति भाइयों के बीच विभाजित की जाएगी। संपत्ति (a) और (b) के लिए विचारण न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की जाएगी, जबकि संपत्ति (c) से (g) के लिए निर्णय को आदेश द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस्ड) किया जाएगा और इसे तदनुसार विभाजित किया जाएगा। 

श्रीमती हुसैनबी बनाम हुसैनसब हसन सब (1989) का विश्लेषण

दादा, जो बच्चों के दानकर्त्ता भी थे, नाबालिग बच्चों के अभिभावक भी थे। चूंकि दानकर्त्ता ने उपहार की पेशकश की थी, इसलिए यह माना गया कि उपहार स्वीकार कर लिया गया है, तथा संपत्ति के रिकॉर्ड में नाबालिग बच्चों के नाम भी दर्शाए गए हैं। याचिकाकर्ता का तर्क वैध प्रतीत होता है, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि उपहार विलेख नाबालिग बच्चों के लिए वैध था। हालाँकि, वयस्क पुत्र राजेश को दिया गया उपहार अवैध था तथा तीन अन्य नाबालिग बच्चों के पक्ष में उपहार विलेख के संबंध में दिए गए निष्कर्षों को बरकरार रखा गया था। न्यायालय ने मामले के कानून में माना कि कुछ मामलों में निहित स्वीकृति स्वीकार्य हो सकती है, लेकिन तथ्यों में स्वीकृति स्पष्ट रूप से दर्शाई जानी चाहिए, क्योंकि निहित स्वीकृति किसी वयस्क पोते के लिए मान्य नहीं होनी चाहिए। यह मामला उपहारों को विस्तृत रूप से बेहतर तरीके से समझने और उपहारों से संबंधित किसी भी प्रकार के विवाद को रोकने के लिए मुस्लिम कानून की दृष्टि से भी उतना ही महत्वपूर्ण है। 

निष्कर्ष

इस मामले में लिए गए निर्णय से बेहतर स्पष्टता और कानूनी निश्चितता प्राप्त हुई, साथ ही संपत्ति के हस्तांतरण पर उपहार प्राप्तकर्ता के हितों की रक्षा भी हुई। मुंसिफ, नवलगुंड द्वारा पारित न्यायालय के निर्णय को (a) और (b) के रूप में सूचीबद्ध संपत्तियों के लिए बरकरार रखा गया। हालाँकि, न्यायालय के तर्क में ऊपर उल्लिखित गुण (c) से (g) के लिए निर्णय बदल दिया गया है। परिणामस्वरूप, अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

दानकर्त्ता की क्या आवश्यकताएं हैं?

दानकर्त्ता की आवश्यकताएं इस प्रकार हैं:

  • दानकर्त्ता मुसलमान होना चाहिए, क्योंकि हिबा केवल मुसलमान ही कर सकता है। वह वयस्क होना चाहिए। उपहार को स्वेच्छा से दिया जाना चाहिए, किसी प्रकार के दबाव में नहीं दिया जाना चाहिए। दानकर्त्ता को स्वस्थ दिमाग का होना चाहिए तथा उसे मानसिक रूप से अस्थिर नहीं होना चाहिए, तभी उपहार को वैध माना जाएगा। संपत्ति को उपहार माना जाने के लिए उसका स्वामित्व दानकर्त्ता के पास होना चाहिए। 

उपहार प्राप्तकर्ता की क्या आवश्यकताएं हैं?

उपहार पाने वाले के लिए मुसलमान होना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति, चाहे उसका धर्म कुछ भी हो, उपहार स्वीकार कर सकता है। उपहार प्राप्तकर्ता किसी भी आयु का हो सकता है, चाहे वह नाबालिग हो या वयस्क। एक अजन्मे बच्चे को भी उपहार दिया जा सकता है, भले ही वह अजन्मा बच्चा अपनी माँ के गर्भ में ही क्यों न हो। संपत्ति किसी भी धार्मिक संस्था को भी हस्तांतरित की जा सकती है। 

मुस्लिम उपहार के संदर्भ में नाबालिग कौन है?

मुस्लिम कानून के तहत, 15 वर्ष से कम आयु वाले व्यक्ति को सामान्यतः नाबालिग माना जाता है। हालाँकि, इस्लामी कानून के अनुसार, यौवन आमतौर पर 15 वर्ष की उम्र के आसपास होता है, लेकिन यह व्यक्ति दर व्यक्ति अलग-अलग हो सकता है। 

इस्लामी कानून में महर से आप क्या समझते हैं?

महर शब्द अरबी शब्द से निकला है जिसका अर्थ है महर। यह विवाह के समय पति द्वारा पत्नी को देय धनराशि है। महर का निर्णय आपसी सहमति से या कानून द्वारा किया जा सकता है। बाल विवाह पद्धति में, महर एक उपहार या मुआवजा था जो पत्नी के माता-पिता या अभिभावक को दिया जाता था। 

हिबा की विषयवस्तु को समझने के लिए किन नियमों का पालन किया जा सकता है?

हिबा के विषय के अंतर्गत तीन नियमों का स्पष्ट रूप से पालन किया जा सकता है: 

  • अधिकार और नियंत्रण पर किसी भी प्रकार का प्रयोग किया जा सकता है। 
  • कोई भी चीज़ जिस पर कब्ज़ा किया जा सके।
  • कोई भी वस्तु जो या तो विशिष्ट इकाई हो या जिसके पास प्रवर्तनीय अधिकार हों। 

संदर्भ

 

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