भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14

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यह लेख Aniket Tiwari द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत के नागरिक के मौलिक अधिकारों में से एक, यानी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के बारे में है। कृपया ध्यान दें कि लेख को Upasana Sarkar और Syed Owais Khadri द्वारा आगे अद्यतन (अपडेट) किया गया है। यह लेख समानता के अधिकार की अवधारणा, विशेषताओं और महत्व की विस्तृत समझ भी प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, यह अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का विस्तृत विश्लेषण देता है। यह अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के इतिहास, अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव और समावेश पर भी गौर करता है। इस लेख को अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

सामान्य अर्थों में, यहाँ हर कोई भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, यानी “समानता के अधिकार” को समझने में सक्षम है। आज़ादी के 76 साल बाद भी, हमारा देश वास्तविक आज़ादी हासिल नहीं कर पाया है। हमारे देश में भेदभाव जैसी बुराइयाँ अभी भी व्याप्त हैं। यहाँ तक कि हमारे संविधान के निर्माता को भी इस अभिशाप का सामना करना पड़ा। आज भी कुछ जगहें ऐसी हैं जहाँ लोगों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जाता है और उनके साथ धर्म, नस्ल, लिंग, जाति, मूल स्थान आदि जैसे विभिन्न आधारों पर भेदभाव किया जाता है।

इसलिए, भारतीय समाज की सामाजिक वास्तविकताओं और परिस्थितियों पर विचार करते हुए, हमारे संविधान निर्माताओं ने नागरिकों के साथ-साथ उन लोगों के लिए भी मौलिक अधिकार के रूप में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 को जोड़ा है, जो हमारे क्षेत्र के नागरिक नहीं हैं।

इस लेख का प्राथमिक उद्देश्य संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार को स्पष्ट करना है। पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार (मिसट्रीट), पारिवारिक दबाव के कारण लड़की द्वारा अपनी शिक्षा पूरी न कर पाना या निम्न (लोवर) जाति के व्यक्ति को उच्च जाति के लोगों से कमतर समझना भेदभाव के स्पष्ट उदाहरण हैं। ये परिदृश्य अपने नागरिकों के बीच समानता बनाए रखने में राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करते हैं।

अनुच्छेद 14 मूल रूप से कहता है कि “राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र में कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।” सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करना उदारवाद की मूल अवधारणा है, और अनुच्छेद 14 हमारे नागरिकों के लिए भी यही सुनिश्चित करता है। किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता सीधे तौर पर समाज में उसे मिलने वाली समानता से जुड़ी होती है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 की उत्पत्ति

अनुच्छेद 14 की अवधारणा का उत्पन्न अंग्रेजी कॉमन लॉ और मैग्ना कार्टा से हुआ है। अनुच्छेद 14 पहला और सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद है, जो समाज के सदस्यों के बीच भेदभाव को प्रतिबंधित करता है और राज्य के सभी लोगों के बीच समानता को बढ़ावा देता है। इसे यूनाईटेड किंग्डम के और यूनाईटेड स्टेटस के संविधान से उधार लिया गया है, या बल्कि प्रेरित किया गया है। प्रोफेसर ए. वी. डाइसी ने इस अनुच्छेद में दो महत्वपूर्ण सिद्धांत निर्धारित किए हैं। पहला है ‘कानून का शासन’, जो यूनाइटेड किंगडम के संविधान में पाया जा सकता है। दूसरा है ‘कानून का समान संरक्षण’ जिसका अस्तित्व अमेरिकी संविधान में देखा जा सकता है, जिसने राज्य के लाखों लोगों के बीच समानता सुनिश्चित की। कानून के समान संरक्षण का आधार अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन खंड में है। इसलिए, अनुच्छेद 14 के ये महत्वपूर्ण सिद्धांत ब्रिटिश और अमेरिकी संविधान से लिए गए हैं। 

यदि पाठक अनुच्छेद 14 के ऐतिहासिक संदर्भ के बारे में अधिक जानना चाहते हैं, तो कृपया आगे पढ़ें। यदि नहीं, तो कृपया दायरे (स्कोप) पर जाएँ।

अनुच्छेद 14 का ऐतिहासिक संदर्भ

प्राचीन काल से ही विभिन्न आधारों पर भेदभाव मानव सभ्यता का अभिन्न अंग रहा है। पश्चिम में यह नस्ल या रंग के आधार पर था, जर्मनी जैसे देशों में धर्म या जाति के आधार पर था, और पूरी दुनिया में वर्ग के आधार पर था। गुलामी की सामाजिक बुराई भी ऐसे ही भेदभाव का परिणाम थी। इसी तरह, कुछ लोगों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार भी बाकी दुनिया की तरह भारतीय समाज का हिस्सा था। इसलिए, संविधान सभा ने भारतीय समाज में सदियों से प्रचलित भेदभाव का मुकाबला करने और उसे रोकने के लिए संविधान में सभी नागरिकों को समानता का आश्वासन देने वाले मौलिक अधिकार को शामिल करने की अत्यंत आवश्यकता महसूस की। वास्तव में, संविधान सभा की अध्यक्षता करने वाले डॉ. बी. आर. आंबेडकर सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे, खासकर इसलिए क्योंकि वे दलितों के अधिकारों को सुरक्षित करने के अपने प्रयासों के लिए जाने जाते थे।

ब्रिटिश-पूर्व युग

जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव सदियों से भारतीय समाज का हिस्सा रहा है। भारतीय समाज मुख्यतः चार जातियों या वर्णों में विभाजित था: 

  1. ब्राह्मण, 
  2. क्षत्रिय, 
  3. वैश्य, और 
  4. शूद्र।

ब्राह्मणों को सबसे श्रेष्ठ जाति माना जाता था, जबकि शूद्रों को सबसे निचली जाति का माना जाता था। वर्गीकरण मुख्य रूप से प्रत्येक जाति के लोगों द्वारा किए जाने वाले व्यवसायों पर आधारित था, और वास्तव में, ये जातियाँ लोगों के वर्ग का निर्धारण भी करती थीं। ब्राह्मण ज़्यादातर पुरोहिती के व्यवसायों में लगे हुए थे, पूजा-पाठ करते थे। क्षत्रिय ऐसे लोगों के वर्ग से संबंधित थे जो ज़्यादातर शासक, प्रशासक या योद्धा थे। वैश्यों में व्यापारी, व्यवसाय में लगे लोग, कारीगर आदि शामिल थे। शूद्र मज़दूर वर्ग के लोग थे जो सफ़ाई आदि जैसे काम करते थे। शूद्रों के साथ भेदभाव किया जाता था और इसलिए उनका शोषण किया जाता था, क्योंकि उन्हें सबसे निचले वर्ग या जाति का माना जाता था। भेदभाव इस हद तक था कि शूद्रों को उच्च वर्ग या जाति के लोगों के घरों के सामने चलने की भी अनुमति नहीं थी।

ब्रिटिश शासन के दौरान

ब्रिटिश काल में भारतीय समाज ने कई बदलाव देखे। यह एक ऐसा दौर था जिसमें भेदभाव को बढ़ाने और उसका मुकाबला करने के प्रयास किए गए। एक तरफ ऐसी कार्रवाइयां और कानूनी ढांचे थे जो भेदभाव को बढ़ाते थे या भेदभावपूर्ण प्रकृति के थे, वहीं दूसरी तरफ समाज में भेदभाव के मुद्दे को संबोधित करने के लिए कुछ कानून बनाए गए।

अंग्रेज़ खुद को श्रेष्ठ जाति या वर्ग के मानते थे जो हर क्षेत्र में माहिर, शासक (एडमिनीस्ट्रेटर) या विजेता थे। नस्ली श्रेष्ठता का दावा करते हुए अंग्रेज़ भारतीयों के साथ भेदभाव करते थे; यूरोपीय लोगों के लिए अलग-अलग क्लब, पार्क, आवासीय क्षेत्र, रेलवे डिब्बे आदि थे, जहाँ भारतीयों को जाने की अनुमति नहीं थी। अंग्रेजों ने पहले से ही विशेषाधिकार (प्रीविलेज्ड) प्राप्त वर्ग के लोगों के विशेष समूहों का पक्ष लेते हुए और शिक्षा, नौकरियों आदि में आरक्षण प्रदान करके भारतीयों के बीच भेदभाव के लिए उत्प्रेरक (कॅटलिस्ट) के रूप में काम किया, जिससे लोगों के विभिन्न वर्गों के बीच अंतर बढ़ गया और इस तरह भेदभाव बढ़ गया, जो पहले से ही समाज में व्याप्त था। उपर्युक्त भेदभावों के अलावा, अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति, जिसे 1905 में बंगाल के विभाजन से ही एक प्रभावी उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया था, उस नीति ने विभिन्न समुदायों और धर्मों के बीच मौजूदा मतभेदों या भेदभाव को काफी हद तक बढ़ा दिया। 

भेदभाव बढ़ाने वाले कानून या भेदभावपूर्ण कानून

ब्रिटिश शासन के दौरान ऐसे कई कानून थे जो या तो अपने आप में भेदभावपूर्ण थे या फिर समुदायों के बीच आर्थिक असमानताओं या सामाजिक मतभेदों को बढ़ाकर भारतीय समाज में शोषण और भेदभाव के अस्तित्व को बढ़ावा दे रहे थे। ऐसे ही कुछ कानूनों पर नीचे चर्चा की गई है।

  1. आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871: आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 (क्रिमिनल ट्राइब्ज एक्ट) ब्रिटिश काल के सबसे निंदनीय अधिनियमों में से एक था, जो डकैती को रोकने के इरादे से किए गए अधिनियम के भेष में प्रकृति में भेदभावपूर्ण था। इस अधिनियम का सबसे बुरा पहलू यह है कि इसने न केवल भेदभाव को बढ़ाया बल्कि एक निश्चित समुदाय या लोगों के समूह को समाज में कलंक के रूप में भी चिह्नित किया। इस अधिनियम ने कुछ समुदायों को आपराधिक जनजातियों के रूप में लेबल किया, जिसमें कहा गया कि कुछ समुदाय या लोग आपराधिक प्रवृत्ति के साथ पैदा होते हैं, जिससे उन्हें भेदभाव, लगातार निशाना बनाया जाता है और कठोर दंड दिया जाता है।
  2. स्थायी बंदोबस्त अधिनियम, 1793: स्थायी बंदोबस्त अधिनियम, 1793 (परमानेंट सेटलमेंट एक्ट) मूल रूप से अंग्रेजों और जमींदारों (भूमि स्वामियों) के बीच एक समझौता था। इसने उन्हें भूमि का स्वामित्व प्रदान किया, और समाज में किसानों से केवल भूमि की देखभाल करने की अपेक्षा की गई। इसने जमींदारों द्वारा किसानों के शोषण को सुविधाजनक बनाया। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप श्रमिक वर्ग, यानी किसानों और जमींदारों के बीच आर्थिक असमानताएँ बढ़ गईं, क्योंकि जमींदारों के पास विशेष रूप से भूमि का स्वामित्व था। 1885 का बंगाल काश्तकारी (टेनंसी) अधिनियम भी इसी तरह का भूमि राजस्व कानून था जिसने समाज में आर्थिक असमानताओं को बढ़ाया।
  3. डाकघर अधिनियम, 1854: यह अधिनियम भारतीयों के प्रति भेदभावपूर्ण था, क्योंकि इसमें अंग्रेजी समाचार पत्रों की तुलना में स्वदेशी पत्रों पर दोगुना डाक शुल्क लगाया गया था।
  4. सांप्रदायिक पुरस्कार, 1932: सांप्रदायिक पुरस्कार 1932 मूल रूप से जाति, धर्म आदि के आधार पर अलग-अलग निर्वाचक मंडलों (इलेक्टोरेट्स) के गठन के लिए अंग्रेजों द्वारा किया गया एक प्रस्ताव था। इसने राजनीति के भीतर विभाजन को बढ़ा दिया, जिससे अंततः विभिन्न जातियों और धर्मों के लोगों के बीच मतभेद और भेदभाव में वृद्धि हुई।

भेदभाव को रोकने वाले कानून

ब्रिटिश काल के दौरान कुछ कानून बनाए गए थे, खास तौर पर समाज में मौजूद भेदभावपूर्ण प्रथाओं को रोकने के लिए। समाज में भेदभाव को खत्म करने के उद्देश्य से बनाए गए कुछ महत्वपूर्ण अधिनियमों की चर्चा नीचे की गई है।

  1. इल्बर्ट बिल, 1883: वायसराय रिपन द्वारा प्रस्तावित इल्बर्ट बिल, 1883 यूरोपीय और गैर-यूरोपीय लोगों के बीच भेदभाव को समाप्त करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास था। इस बिल ने यूरोपीय लोगों के मुकदमे को भारतीय न्यायाधीश द्वारा चलाने की अनुमति दी, जो इस बिल से पहले नहीं था।
  2. जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1850: जाति निर्योग्यता निवारण (कास्ट डिसएबिलीटीज रिमूवल एक्ट) अधिनियम, 1850 को निम्न जातियों के लोगों के अधिकारों की रक्षा करने तथा ऐसे लोगों की निर्योग्यता को दूर करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया था। इसने मुख्य रूप से निम्न जातियों के लोगों के संपत्ति के अधिकार की रक्षा की। 
  3. पंजाब भूमि हस्तांतरण अधिनियम, 1900: पंजाब भूमि हस्तांतरण अधिनियम, 1900 पंजाब प्रांत में किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य भूमि के हस्तांतरण को नियंत्रित या विनियमित (रेग्युलेट) करके भूस्वामियों द्वारा किसानों के शोषण को रोकना था। 
  4. मद्रास प्रेसीडेंसी अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1924: मद्रास प्रेसीडेंसी अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1924, कुछ विशेष जातियों, यानी अनुसूचित जातियों और जनजातियों से संबंधित लोगों के अधिकारों की रक्षा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इसका उद्देश्य अस्पृश्यता की प्रथा और कृत्यों को अपराध बनाना था, जैसे कि आम जल संसाधनों, सार्वजनिक या धार्मिक स्थानों आदि तक पहुँच से वंचित करना, जो भारतीय समाज में बहुत प्रचलित (प्रीवेलंट) थे।

उपर्युक्त अधिनियमों के अतिरिक्त, बंगाल सती विनियमन अधिनियम, 1829 और कन्या भ्रूण हत्या निवारण अधिनियम, 1870 आदि ऐसे कानून भी थे, जिन्हें लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने या रोकने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया था।

भारत ने जो ऐतिहासिक उदाहरण देखे हैं, उनमें जाति, लिंग, नस्ल, धर्म आदि से परे देश के हर व्यक्ति के लिए समानता का आश्वासन देने वाला अधिकार स्वतंत्रता के बाद बेहद जरूरी महसूस किया गया। इसलिए, अनुच्छेद 14, जो समानता के अधिकार का आश्वासन देता है, को भारतीय संविधान में शामिल किया गया।

अनुच्छेद 14 भारतीय संविधान में शामिल किया जाना

क्या आप जानते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 14 को संविधान के मसौदे में एक अलग मौलिक अधिकार के रूप में पेश नहीं किया गया था ? यह वास्तव में मसौदे के अनुच्छेद 15 का एक हिस्सा था, जो अब संविधान का अनुच्छेद 21 है।

संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 15 में कहा गया है, “कानून के समक्ष जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा और समानता – कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही किसी व्यक्ति को उसके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, न ही भारत के क्षेत्र में किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानून के समान संरक्षण से वंचित किया जाएगा। “लेकिन तत्काल अनुच्छेद पर बहस के दौरान, केवल जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा के संबंध में चर्चा हुई और प्रावधान का उत्तरार्द्ध, जो कानून के समक्ष समानता की बात करता है, इस पर प्रारंभिक संविधान सभा की बहस के दौरान चर्चा नहीं की गई थी। बाद में मसौदा समिति (ड्राफ्टिंग कमिटी) ने सिफारिश की कि प्रस्तावित अनुच्छेद को दो अनुच्छेदों में विभाजित किया जा सकता है जिसमें एक जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा का आश्वासन देता है और दूसरा कानून के समक्ष समानता का आश्वासन देता है। इसलिए, प्रस्तावित मसौदे के अनुच्छेद 15 को बाद में भारत के संविधान में दो अलग-अलग अनुच्छेदों के रूप में शामिल किया गया, यानी अनुच्छेद 14, जो कानून के समक्ष समानता और कानून की समान सुरक्षा का आश्वासन देता है, और अनुच्छेद 21, जो जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा का आश्वासन देता है।

अनुच्छेद 14 के समावेश पर अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव

यद्यपि भारत की स्वतंत्रता से पहले के इतिहास और दुर्घटनाओं ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन यह विचार करना महत्वपूर्ण है कि समानता के अधिकार को लागू करने का कार्य विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद किया गया था।

भारतीय संविधान का मसौदा विभिन्न देशों के संविधानों और अन्य महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद तैयार किया गया था। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रेंच, कॅनडियन और आयरिश कुछ ऐसे संविधान हैं जिन्होंने भारतीय संविधान के मसौदे को प्रभावित किया है। भारतीय संविधान ने उपर्युक्त संविधानों से कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ उधार ली हैं। मौलिक अधिकार, न्यायिक समीक्षा, प्रस्तावना आदि जैसी विशेषताएँ अमेरिकी संविधान से उधार ली गई हैं। इसी तरह, भारतीय संविधान में स्वतंत्रता, बंधुत्व और समानता की विशेषताएँ फ्रांसीसी संविधान से प्रभावित हैं। 

इस कारण, राष्ट्र में भेदभाव के ऐतिहासिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार को शामिल करने पर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों का प्रभाव पड़ा है, जिनका भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करते समय अध्ययन किया गया था। भारतीय निगम (कॉरपोरेशन) में गुणवत्ता के अधिकार को शामिल करने को प्रभावित करने वाले कुछ महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज इस प्रकार हैं:

  1. मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (युनिवर्सल डीक्लेरेशन ऑफ ह्युमन राईट्स) (यूडीएचआर) ,
  2. अमेरिकी संविधान,
  3. मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की घोषणा

मानव अधिकारों का सार्वजनिक घोषणापत्र

मानवाधिकारों के संबंध में पहला और सबसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़, मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूडीएचआर) 1948 में अस्तित्व में आई, जब भारत में संविधान के मसौदे के बारे में प्रक्रिया और चर्चाएँ हो रही थीं। परिणामस्वरूप, यूडीएचआर का भारतीय संविधान के मसौदे पर गहरा प्रभाव पड़ा, खासकर संविधान में मौलिक अधिकारों को शामिल करने के संबंध में। 

यूडीएचआर के अनुच्छेद 7 में कहा गया है कि हर किसी को कानून के समक्ष समानता का अधिकार है और साथ ही किसी भी तरह के भेदभाव के बिना कानून के समक्ष समान संरक्षण का भी अधिकार है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14, जो समानता के अधिकार का आश्वासन देता है, वह भी इसी तरह से तैयार किया गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। इसलिए, यह स्पष्ट है कि यूडीएचआर ने संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार को शामिल करने को प्रभावित किया।

अमेरिकी संविधान

अमेरिकी क्रांति, अमेरिकी अधिकार विधेयक (अमेरिकन बिल ऑफ राईट्स) और संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान का न केवल अनुच्छेद 14 को शामिल करने पर बल्कि भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की विशेषता पर भी बहुत प्रभाव पड़ा है। संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में अधिकार विधेयक में चौदहवें संशोधन के साथ समानता का अधिकार जोड़ा गया था। इसमें कहा गया है कि कोई भी राज्य कानूनों के समान संरक्षण से इनकार नहीं करेगा, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के समान है।

मनुष्य और नागरिकों के अधिकारों का घोषणापत्र  

फ्रांसीसी क्रांति, जो विश्व इतिहास में एक उल्लेखनीय घटना थी, मुख्य रूप से समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के विचारों के बारे में थी। मनुष्य और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो फ्रांसीसी क्रांति के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया। यह घोषणापत्र मानव स्वतंत्रता के मूलभूत साधनों (फंडामेंटल इंस्ट्रूमेंट) में से एक का प्रतिनिधित्व करती है; इसने मानव सभ्यताओं के मूल मूल्यों में से एक को पेश किया, जो यह है कि सभी व्यक्ति स्वतंत्र पैदा होते हैं और सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं। फ्रांसीसी क्रांति के इन विचारों और घोषणापत्र के प्रावधानों का भारतीय संविधान के मसौदे पर, खासकर संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार को शामिल करने पर बड़े पैमाने पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का दायरा

अनुच्छेद 14 का दायरा बहुत व्यापक है। इस अनुच्छेद के तहत समानता के अधिकार का लाभ नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों को मिलता है। यह अधिकार न केवल प्राकृतिक व्यक्तियों पर बल्कि राज्य के क्षेत्र के भीतर न्यायिक व्यक्तियों पर भी लागू होता है। इस अधिकार का उपयोग आम तौर पर व्यक्तियों द्वारा राज्य के कार्यों के विरुद्ध किया जाता है, न कि निजी कार्यों के विरुद्ध। यह उस समय लागू होता है जब राज्य द्वारा या कार्यपालिका (एग्जीक्यूटीव) की किसी मनमानी कार्रवाई द्वारा व्यक्तियों के समानता के अधिकार का उल्लंघन किया जाता है। अनुचित भेदभाव को दूर करने और राज्य कार्यों में निष्पक्ष और गैर-मनमाना उपचार प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 14 को संविधान में शामिल किया गया था। अनुच्छेद 14 के सिद्धांत समाज के सभी सदस्यों के लिए निष्पक्षता, तर्कसंगतता (रैशनलीटी) और गैर-मनमानी को बढ़ावा देते हैं।

अनुच्छेद 14 की विशेषताएं 

अनुच्छेद 14 की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं:

  • अनुच्छेद 14 संविधान द्वारा संरक्षित है क्योंकि यह लोगों के सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों में से एक है: मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं जो संविधान द्वारा प्रदान किए गए हैं और साथ ही आश्वासित भी हैं। अनुच्छेद 14, जो राज्य के सभी लोगों को समानता के अधिकार का आश्वासन देता है, यह संविधान द्वारा संरक्षित है, और जो कोई भी दूसरों के इस अधिकार का उल्लंघन करता है, उसे कानून द्वारा दंडित किया जाएगा।
  • अनुच्छेद 14 एक पूर्ण अधिकार नहीं है, बल्कि एक योग्य अधिकार है: मौलिक अधिकार पूर्ण प्रकृति के नहीं हैं। राज्य द्वारा अनुच्छेद 14 पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, यदि वह ऐसा करना उचित समझता है। लेकिन इस पर लगाए जाने वाले प्रतिबंध की मात्रा आम तौर पर अदालतों द्वारा तय की जाती है।
  • अनुच्छेद 14 न्यायोचित (जस्टीशिएबल) है: इसका मतलब है कि अगर किसी व्यक्ति के अधिकार का किसी अन्य व्यक्ति या राज्य द्वारा उल्लंघन किया जाता है, तो वह अपने अधिकार की सुरक्षा के लिए न्यायालय जा सकता है। अनुच्छेद 14 को लागू करने के लिए उसे न्यायालय जाने की अनुमति है। भारतीय न्यायपालिका राज्य के लोगों को यह अधिकार देती है कि अगर किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो वे सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकते हैं।
  • चूंकि अनुच्छेद 14 स्थायी या उचित नहीं है, इसलिए इसे राज्य द्वारा निलंबित (सस्पेंड) किया जा सकता है: अनुच्छेद 14 उन मौलिक अधिकारों में से एक है जिसे राज्य द्वारा किसी भी समय आपातकाल के दौरान निलंबित किया जा सकता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार

अनुच्छेद 14 संविधान का पहला अनुच्छेद है जो समानता के अधिकार से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसका धर्म, जाति, लिंग, नस्ल या जन्म स्थान कुछ भी हो, कानून के समक्ष समान है और उसे भारतीय क्षेत्र में कानूनों का समान संरक्षण मिलना चाहिए। इस अनुच्छेद का उद्देश्य समान परिस्थितियों या स्थितियों में बिना किसी भेदभाव के सभी के साथ समान व्यवहार करना है। दूसरे शब्दों में, समान विशेषताओं वाले समूह के लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाएगा, लेकिन ऐसा सभी के साथ नहीं होगा। इसका मतलब है कि बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। इसे उचित वर्गीकरण के रूप में जाना जाता है, जो इस अनुच्छेद के तहत एक अपवाद है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस अपवाद का कोई भी व्यक्ति मनमाने तरीके से दुरुपयोग कर सकता है। 

पिछले कुछ वर्षों में अनुच्छेद 14 की व्याख्या

अनुच्छेद 14 की कई बार व्याख्या की गई है। न्यायालयों ने नई अवधारणाएँ पेश करके और मनमाने या भेदभावपूर्ण प्रकृति के विभिन्न कानूनों और नीतियों को रद्द करके इसकी कई व्याख्याएँ की हैं। इसकी व्याख्या प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के रूप में की गई थी कि उसे बिना किसी अनुचित भेदभाव के समान परिस्थितियों और अवस्थाओ में समान विशेषाधिकार और ज़िम्मेदारियाँ प्राप्त हो। इस अनुच्छेद का उपयोग न केवल राज्य की कार्रवाइयों और नीतियों के लिए किया गया है, बल्कि निजी व्यक्तियों द्वारा की गई किसी भी अनुचित कार्रवाई के लिए भी किया गया है जो अन्य व्यक्तियों के अधिकारों और स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकती है। 

राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014) के ऐतिहासिक निर्णय में अनुच्छेद 14 के तहत अधिकार की व्याख्या विभिन्न अधिकारों को शामिल करने और लिंग, यौन अभिविन्यास (सेक्शुअल ओरीएन्टेशन) और अन्य व्यक्तिगत विशेषताओं पर आधारित भेदभावपूर्ण नीतियों को खत्म करने के लिए की गई है। इसलिए, अनुच्छेद 14 का उपयोग राज्य की नीतियों के साथ-साथ राज्य की किसी भी अन्य कार्रवाई के खिलाफ व्यक्तियों के समानता के अधिकार की रक्षा के लिए किया जाता है।

कानून के समक्ष समानता

जैसा कि हम सभी जानते हैं, हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है और वास्तव में, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहाँ सभी लोग राज्य द्वारा लगाए गए उचित प्रतिबंधों के अधीन कुछ भी सोचने और कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। तदनुसार, कानून के आवेदन में या कानून के समक्ष समान व्यवहार किया जाना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है।

कानून के समक्ष समानता का अर्थ अनिवार्य रूप से यह है कि सभी को समान व्यवहार मिलना चाहिए, चाहे उनकी आर्थिक स्थिति, लिंग या जाति कुछ भी हो। राज्य को देश में किसी को भी विशेष विशेषाधिकार देने का अधिकार नहीं है।

कानून के समक्ष समानता की परिभाषा

कानून के समक्ष समानता को डॉ. जेनिंग्स ने परिभाषित किया है। उनके अनुसार, कानून के समक्ष समानता का अर्थ है

  • कानून समानों के लिए समान होना चाहिए, अर्थात इसे इस प्रकार बनाया जाना चाहिए कि समाज के सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार हो।
  • कानून को समानता वाले लोगो के साथ समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि एक जैसे लोगो के साथ एक समान व्यवहार किया जाना चाहिए, न कि सभी के साथ। अगर सभी के साथ समान व्यवहार किया जाएगा, तो इससे असमानता पैदा होगी। अलग-अलग परिस्थितियों और अलग-अलग विशेषताओं वाले लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। समान समूहों के लोगों के साथ बिना किसी भेदभाव के समान व्यवहार किया जाना चाहिए।

इसलिए, इसका मतलब यह है कि हर व्यक्ति को एक ही तरह की गतिविधियों और कार्यों के लिए मुकदमा चलाने और मुकदमा करने का अधिकार होना चाहिए। एक ही अपराध के लिए अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) और दंड भी जाति, नस्ल, धर्म, राजनीतिक प्रभाव या सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी भी तरह के अनुचित भेदभाव के बिना सभी के लिए समान होना चाहिए।

कानून के समक्ष समानता और पूर्ण समानता

एक तरफ़, क़ानून के सामने समानता किसी भी समुदाय या लोगों को कोई विशेष विशेषाधिकार देने से मना करती है। यह समान परिस्थितियों में समान व्यवहार की बात नहीं करती। इसके अनुसार, एक बहुत ही आदर्श स्थिति होनी चाहिए, और राज्य को समाज में अतिरिक्त विशेषाधिकार प्रदान करके समाज में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है।

दूसरी ओर, समानता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है और इसके कई अपवाद हैं। तदनुसार, समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। कानून के समक्ष समानता के कई अपवाद हैं, उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति और राज्यपाल को दी गई छूट (इम्युनिटी टू गवर्नर)। आरक्षण भी एक विशिष्ट उदाहरण है जो परिभाषित करता है कि समानता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है और समाज की जरूरतों के अनुसार इसे प्रतिबंधित (या बल्कि उचित रूप से उपयोग) किया जा सकता है।

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के बहुत प्रसिद्ध मामले में, यह सवाल उठाया गया था कि समानता का अधिकार पूर्ण है या नहीं। यहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि समानता का अधिकार पूर्ण नहीं है। इस मामले में, बंगाल राज्य ने किसी भी मामले को विशेष न्यायालय को संदर्भित करने के लिए अपनी शक्ति का मनमाना उपयोग किया, जिसे उनके द्वारा बनाया गया था। इस प्रकार यह माना गया कि बंगाल राज्य का अधिनियम समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।

कानून के समक्ष समानता और कानून का शासन

कानून के समक्ष समानता का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि कानून के समक्ष समानता और कानून के शासन के बीच सीधा संबंध है। दरअसल, प्रोफेसर डाइसी द्वारा दिया गया कानून का शासन कहता है कि यहां कोई भी व्यक्ति कानून से परे या उससे ऊपर नहीं है और कानून के सामने सभी समान हैं, जो कानून के समक्ष हर व्यक्ति की समानता की अवधारणा की प्रेरणा या यों कहें कि इसकी शुरुआत का प्रतीक है, क्योंकि यह उन प्रमुख अवधारणाओं में से एक थी जिसने कानून के समक्ष आश्वासित समानता को मान्यता दी।

कानून का नियम कहता है कि किसी देश में सभी के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए, और चूंकि कोई राज्य धर्म नहीं है, इसलिए उसे (राज्य को) किसी भी धर्म के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए। यहाँ एकरूपता (यूनिफोर्मिटी) की अवधारणा लागू होनी चाहिए। मूल रूप से, यह मैग्ना कार्टा (यूनाईटेड किंगडम) में हस्ताक्षरित अधिकारों का एक चार्टर) से लिया गया है, जो राज्य की मनमानी शक्ति को प्रतिबंधित करता है।

कानूनों का समान संरक्षण

यह समानता की सकारात्मक अवधारणाओं में से एक है। अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन अधिनियम की धारा 1 से कानून का समान संरक्षण प्राप्त होता है। इस सिद्धांत के अनुसार, भारत में रहने वाले सभी लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए और उन्हें इस द्वारा कानून का समान संरक्षण प्राप्त होगा। यह आश्वासन देता है कि भारत के क्षेत्र के अंदर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए, और राज्य इससे इनकार नहीं कर सकता (कानून के समान संरक्षण के लिए)। यह अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए राज्य पर एक सकारात्मक दायित्व डालता है। यह सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाकर किया जा सकता है।

सेंट स्टीफंस कॉलेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय (1991) में भी इसी अवधारणा पर चर्चा की गई है। इस मामले में कॉलेज की प्रवेश प्रक्रिया की जाँच की गई और मुख्य मुद्दा प्रवेश प्रक्रिया में ईसाई छात्रों को दी जाने वाली वरीयता (प्रायरिटी) की वैधता का था। यहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राज्य निधि से सहायता प्राप्त करने वाला अल्पसंख्यक संस्थान अपने समुदाय के छात्रों को वरीयता देने या उनके लिए जघ आरक्षित करने का हकदार है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रवेश कार्यक्रम में अभ्यर्थियों (कॅन्डीडेट्स) के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है, तथा अल्पसंख्यक वर्ग के लिए यह आवश्यक है।

कानूनों के समान संरक्षण की परिभाषा

कानूनों के समान संरक्षण का अर्थ है कि समान परिस्थितियों में लोगों की समान रूप से रक्षा के लिए कानूनों का उपयोग किया जाना चाहिए। यह समान स्थिति में सभी पर लागू होना चाहिए। समाज के सदस्यों के बीच कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। इस अनुच्छेद के तहत ‘कोई भी व्यक्ति’ शब्द में व्यक्तियों, संगठन (कंपनी) और व्यक्तियों के संघों (असोसिएशन) का समूह शामिल है, जिसका अर्थ है कि प्राकृतिक और साथ ही कानूनी या न्यायिक ऐसे दोनों व्यक्ति इसमे शामिल हैं।

मनमानी/ऐच्छीकता (आर्बिट्रारिनेस) के विरुद्ध संरक्षण

मनमाने और गैर-मनमाने कार्यों के बीच एक पतली रेखा का अंतर होता है। समानता का अधिकार राज्य की मनमानी कार्रवाई को रोकता है। यह अनुच्छेद कानून के समान संरक्षण की बात करता है, और यह मनमानी के सिद्धांत के खिलाफ है। मनमानी से सुरक्षा के लिए राज्य के हर भाग पर कई प्रतिबंध लगाए गए हैं। यह राज्य के भागो को कोई भी मनमाना निर्णय लेने से रोकने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

अनुच्छेद 14 के तहत गैर-ऐच्छीकता (नॉन आर्बिट्रारिनेस) का सिद्धांत

संविधान का अनुच्छेद 14 स्पष्ट रूप से कहता है कि किसी के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए और यह साथ ही राज्य को कोई भी ऐच्छिक कानून बनाने से रोकता है। यह राज्य को निष्पक्ष, उचित और गैर-ऐच्छिक कानून बनाने में मदद करता है ताकि किसी विशेष वर्ग या लोगों के समूह को उनकी आर्थिक स्थिति या जातीयता में अंतर के कारण भेदभाव का सामना न करना पड़े। समानता के अधिकार का यह सिद्धांत राज्य या कार्यकारी निकायों द्वारा ऐच्छिक कार्रवाई के पूरी तरह खिलाफ है। यह समाज के सदस्यों को सरकार की ऐच्छिक और अनुचित नीतियों से बचाता है। 

इसलिए, ई.पी. रोयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1973) के ऐतिहासिक मामले में बिना किसी अनुचित भेदभाव के न्यायसंगत (इक्विटेबल) व्यवहार के आश्वासन के लिए गैर-ऐच्छीकता का सिद्धांत स्थापित किया गया था। इस मामले में, उचित वर्गीकरण के सिद्धांत को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी, जहाँ न्यायालय ने कहा कि समानता की अवधारणा प्रकृति में गतिशील है और इसे कुछ सीमाओं तक सीमित या प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है। विभिन्न वर्गों और समूहों के सभी लोगों को भेदभाव से बचाने के लिए इस मामले से गैर-ऐच्छीकता का सिद्धांत विकसित हुआ। 

वैध अपेक्षा (लेजिटिमेट एक्स्पेक्टेशन) का सिद्धांत

वैध अपेक्षा का सिद्धांत मूल रूप से कोई कानूनी अधिकार नहीं है, बल्कि प्रशासन की ओर से एक नैतिक दायित्व है कि वह किसी क्षेत्र में सभी लोगों को समानता प्रदान करने वाले कानूनों को देखे और बनाए। यह प्रशासनिक कानून में न्यायिक समीक्षा का अधिकार देता है ताकि लोगों के हितों की रक्षा की जा सके जब सार्वजनिक प्राधिकरण (अथॉरिटी) ऐसा करने में विफल रहता है (या जब सार्वजनिक प्राधिकरण किसी व्यक्ति को दिए गए प्रतिनिधित्व को रद्द कर देता है)। 

यह व्यक्तियों की अपेक्षाओं और प्राधिकरण के किसी भी कार्य के बीच एक पुल का काम करता है। हालाँकि, इन अपेक्षाओं का उचित और तार्किक (रेशनल) होना ज़रूरी है। इसीलिए इन्हें वैध अपेक्षाएँ कहा जाता है।

आधिकारिक कानून के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए न्यायालय द्वारा कई साधन प्रदान किए जाते हैं (यहाँ उद्देश्य वैध अपेक्षा को पूरा करना है)। ये साधन राज्य के भागो द्वारा शक्ति के दुरुपयोग के खिलाफ सभी को बचाने के लिए प्रदान किए जाते हैं। यह राज्य पर अपनी शक्ति का ऐच्छिक ढंग से उपयोग करने के लिए एक प्रकार का प्रतिबंध (हालाँकि यह एक नैतिक प्रतिबंध है) लगाता है।

बोधगम्य भिन्नता (इंटेलीजिबल डीफरेंशिया)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत बोधगम्य भिन्नता एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जिसका अर्थ है मतभेदों को समझना। इसे ऐसे व्यक्तियों के समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिनकी सामान्य विशेषताएँ अन्य समूहों के व्यक्तियों से भिन्न होती हैं। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि एक कानून को सभी पर समान रूप से लागू नहीं किया जाना चाहिए। इसे इस तरह से लागू किया जाना चाहिए कि कुछ समानताओं वाले एक विशिष्ट समूह से संबंधित व्यक्तियों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, और ऐसा व्यवहार उस विशिष्ट समूह को छोड़कर इतर लोगों के साथ नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, इसका मतलब है कि कानून को इस तरह से लागू किया जाना चाहिए कि समाज के प्रत्येक सदस्य को जाति, नस्ल, धर्म, धन, आर्थिक स्थिति और अन्य के आधार पर किसी भी तरह के अनुचित भेदभाव के बिना समान व्यवहार मिले। 

बोधगम्य भिन्नता को यह सुनिश्चित करने के लिए अधिनियमित किया गया था कि समाज के कुछ समूहों या वर्गों को उचित वर्गीकरण की अनुमति दी जाए। एक ओर, जब अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि उपरोक्त किसी भी आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव के बिना सभी के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए, तो समाज के एक विशेष समूह की बेहतरी और विकास के लिए कुछ उचित भेदभाव की अनुमति देते हुए भेदभाव से बचने के लिए बोधगम्य भिन्नता को लागू किया जाता है। बोधगम्य भिन्नता सिद्धांत को लागू करते समय इसका तर्कसंगत उपयोग किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि उचित वर्गीकरण के लिए एक क़ानून पर विचार करते समय वर्गीकरण के उद्देश्य और आधार के बीच उचित संबंध होना चाहिए। उदाहरण के लिए, महिलाओं, अनुसूचित जातियों (शेड्युल्ड कास्ट), अनुसूचित जनजातियों (शेड्युल्ड ट्राईब्ज), आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) और समाज के अन्य पिछडे वर्ग (अदर बैकवर्ड क्लास) के लिए जगह के आरक्षण के प्रावधान हैं।

वर्ग विधान (क्लास लेजीस्लेशन) और उचित वर्गीकरण (रिजनेबल क्लासिफिकेशन) की अवधारणा

वर्ग विधान और उचित वर्गीकरण की अवधारणाओं और उनके बीच के अंतर को समझना महत्वपूर्ण है। जबकि इनमें से एक अवधारणा को अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के अपवाद के रूप में अनुमति दी गई है, और दूसरी को संवैधानिक प्रावधान द्वारा प्रतिबंधित किया गया है।

संविधान का अनुच्छेद 14 वर्ग-विधान पर प्रतिबंध लगाता है और इसे समानता के अधिकार का उल्लंघन मानता है, जबकि यह समानता के अधिकार के अपवाद के रूप में उचित वर्गीकरण की अवधारणा को अनुमति देता है। 

वर्ग विधान से तात्पर्य एक निश्चित वर्ग के लोगों के लाभ के लिए बड़ी संख्या में लोगों में से उस वर्ग के अनुचित या मनमाने चयन (इर्रेशनल डिफरन्सिएशन) के आधार पर लोगों के बीच अनुचित या तर्कहीन विभेदीकरण (रीजनेबल क्लासिफिकेशन) या भेदभाव से है।

दूसरी ओर, उचित वर्गीकरण से तात्पर्य कुछ ऐसे समूहों के वर्गीकरण से है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, ताकि बाद में ऐसे समूहों को उनके सामाजिक या आर्थिक रूप से पिछ्डे हुए लोगो के लिए कुछ लाभ और विशेषाधिकार प्रदान किए जा सकें। इस तरह के वर्गीकरण का औचित्य इस तथ्य के कारण है कि भारत एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का पालन करता है, जहाँ राज्य को देश के प्रत्येक व्यक्ति को पर्याप्त और समान लाभ प्रदान करना चाहिए। इसलिए, उक्त उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उक्त उद्देश्य के लिए उचित वर्गीकरण आवश्यक है। उचित वर्गीकरण की अवधारणा को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी मान्यता दी है।

उचित वर्गीकरण का परीक्षण

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के मामले में दो अनिवार्यताएँ या शर्तें निर्धारित कीं, जिन्हें उचित वर्गीकरण की कसौटी पर खरा उतरने के लिए पूरा किया जाना आवश्यक है। ये दो अनिवार्यताएँ इस प्रकार हैं :

  • वर्गीकरण एक बोधगम्य भिन्नता पर आधारित होना चाहिए जो एक साथ समूहीकृत वस्तुओं को अन्य वस्तुओं से अलग करता हो।
  • प्रस्तावित विधान या कानून द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य के साथ भिन्नता का तर्कसंगत संबंध होना चाहिए।

राम कृष्ण डालमिया बनाम न्यायमूर्ति तेंडोलकर (1958) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 14 वर्ग विधान पर प्रतिबंध लगाता है, न कि उचित वर्गीकरण पर, जो विधायी उद्देश्यों के लिए किया जाता है।

बोधगम्य भिन्नता पर प्रासंगिक केस कानून

श्री श्रीनिवास थिएटर बनाम तमिलनाडु सरकार (1992)

इस मामले में, यह देखा गया कि ‘कानून’ शब्द जो ‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून का समान संरक्षण’ वाक्यांशों में मौजूद है, एक ही अर्थ को इंगित नहीं करता है। दोनों अभिव्यक्तियों में उनके बीच एक मौलिक अंतर है। एक ओर, ‘कानून’ शब्द का उपयोग सामान्य अर्थ में किया जाता है, जबकि दूसरी ओर, यह ‘कानून के समान संरक्षण’ अभिव्यक्ति में विशिष्ट कानूनों को दर्शाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि ‘कानून के समक्ष समानता’ को एक गतिशील अवधारणा माना जाता है जिसमें दो पहलू शामिल हैं। पहला यह स्वीकार करता है कि हर कोई समान है, कि किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग या व्यक्ति की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए, और किसी को भी कानून से ऊपर नहीं माना जाना चाहिए। दूसरा हमारे कानूनी तंत्र के माध्यम से एक अधिक समान समाज सुनिश्चित करने के लिए राज्य के कर्तव्य को दर्शाता है, जिसका उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना और भाग IV द्वारा किया गया है। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून का समान संरक्षण’ दोनों अभिव्यक्तियों (एक्सप्रेशन) का उद्देश्य राज्य के सभी लोगों को बिना किसी अनुचित भेदभाव के, समान न्याय प्रदान करना है। दोनों अवधारणाएं एक दूसरे की पूरक हैं तथा एक दूसरे के बिना कोई भी अस्तित्व में नहीं रह सकती।

प्रमोद पांडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020)

इस मामले में याचिकाकर्ता ने उस शर्त को चुनौती दी थी , जिसमें कहा गया था कि 65 वर्ष से अधिक आयु के किसी भी अभिनेता को छायांकन के समय छायांकन (शूटिंग) स्थल पर मौजूद नहीं होना चाहिए। उन्हें चल–चित्र (फिल्म) या सिरीज या ओवर द टॉप मीडिया (ओटीटी) के छायांकन के दौरान वहां रहने की अनुमति नहीं थी। यह प्रतिबंध उन पर महाराष्ट्र सरकार द्वारा लगाया गया था। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह शर्त ऐच्छिक और भेदभावपूर्ण प्रकृति की है क्योंकि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करती है। ऐसा इसलिए था क्योंकि उस अवधि के दौरान, केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने पहले ही उनकी आवाजाही (मूवमेंट) पर उस प्रतिबंध को हटा दिया था और 65 वर्ष से अधिक उम्र के अभिनेताओं पर लगाए गए सामान्य निषेध (प्रोहिबिशन) में ढील दी थी। यह मामला कोविड चरण के दौरान हुआ था। मुंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि हालांकि राज्य का उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों को कोविड-19 विषाणू से बचाना है, लेकिन इसे एक समझदारी भरा अंतर नहीं माना जा सकता है। यह भेदभावपूर्ण और ऐच्छिक प्रतीत होता है। न्यायालय ने कहा कि यदि 65 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्तियों को अन्य क्षेत्रों में काम करने और व्यापार करने की अनुमति दी जाती है, तो केवल चल–चित्र उद्योग में आयु-आधारित प्रतिबंध अनुचित भेदभाव प्रतीत होता है। इसलिए न्यायालय ने राज्य सरकार की उस शर्त को खारिज कर दिया। 

मदन मिली बनाम भारत संघ (2021)

इस मामले में, कोविड-19 के लिए गैर-टीकाकरण (नॉन वैक्सीनेटेड) वाले व्यक्तियों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार और उन्हें सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में विकास कार्यों के लिए राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देने के खिलाफ याचिका दायर की गई थी। गुवाहाटी उच्च न्यायालय का मानना था कि यह स्पष्ट नहीं है कि जो लोग पहले से ही टीका लगा चुके हैं वे संक्रमित (इन्फेक्टेड) नहीं हो सकते हैं या इसके वाहक (कैरियर्स) बनकर कोविड-19 विषाणू नहीं फैला सकते हैं। टीका लगाए गए और बिना टीकाकरण वाले दोनों व्यक्तियों के साथ बिना किसी भेदभाव के समान व्यवहार किया जाना चाहिए। दोनों ही इस विषाणू को ले जा सकते हैं और फैला सकते हैं। इस वर्गीकरण को अनुचित माना गया क्योंकि किया गया भेद वास्तविक और पर्याप्त नहीं है। न्यायालय ने देखा कि यह वर्गीकरण समझदारीपूर्ण अंतर के सिद्धांत के आधार पर नहीं किया गया है क्योंकि इसका कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19(1)(d) और अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। 

एलिफेंट जी. राजेंद्रन बनाम रजिस्ट्रार जनरल (2023)

इस मामले में, रिट याचिका दायर करने वाला याचिकाकर्ता एक कनिष्ठ (जूनियर) वकील का पिता था। मद्रास बार एसोसिएशन परिसर के अंदर रहने के दौरान उसके बेटे को पानी पीने की अनुमति नहीं थी। इसलिए वरिष्ठ अधिवक्ता, उनके पिता ने कनिष्ठ वकीलों पर लगाए गए सभी अनावश्यक और अप्रासंगिक प्रतिबंधों के खिलाफ मुकदमा दायर किया। मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी भी अन्य मौलिक अधिकार की तरह, पीने के पानी तक पहुँचने का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार है। इसलिए अदालत ने देखा कि कोई भी व्यक्ति जो किसी विशेष बार एसोसिएशन का सदस्य है, उसे पीने के पानी तक पहुँचने के उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। अदालत ने यह भी कहा कि एक वकील की जिम्मेदारी कनिष्ठ वकिलो को प्रोत्साहित करना और उन्हें शिक्षित करना है, न कि उनके मौलिक अधिकारों तक पहुँच से वंचित करना। उन्हें बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा निर्धारित पेशेवर आचरण और शिष्टाचार (कंडक्ट एन्ड इटीक्वेट) के मानकों का पालन करना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि समुदाय, जाति या आर्थिक स्थिति के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव की अनुमति नहीं है। इस तरह के भेदभाव को अवैध और असंवैधानिक घोषित किया गया है। यह माना गया कि इस तरह के अनुचित भेदभाव को परिसर के अंदर अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और अनावश्यक समस्याएँ पैदा करता है। न्यायालय ने यह कहते हुए निष्कर्ष निकाला कि वकीलों के वर्ग के भीतर एक वर्ग बनाना एक समझदारीपूर्ण भिन्नता नहीं मानी जाती है। वकीलों का एक निश्चित वर्ग यह अनुचित वर्गीकरण कर रहा है, जो प्रकृति में ऐच्छिक लगता है।

प्रशासनिक विवेक (एडमिनिस्ट्रेटिव डिस्क्रीशन)

यह प्रशासन की स्वतंत्रता है कि वह परिस्थितियों के अनुसार किसी भी स्थिति पर प्रतिक्रिया करे या निर्णय ले। यहाँ सबसे पहले विवेक शब्द को समझना महत्वपूर्ण हो जाता है। विवेक मूल रूप से किसी भी व्यक्ति की यह समझ है कि वह क्या गलत है और क्या सही है, क्या सच है और क्या झूठ है, इत्यादि का निर्णय करे और इन परिस्थितियों के अनुसार प्रतिक्रिया करे। इसके बाद, हम प्रशासनिक विवेक की आवश्यकता के बारे में बताना चाहेंगे। 

विधायिका कई मान्यताओं के आधार पर कोई भी कानून बनाती है, और वह उस कानून के कारण होने वाली हर चीज का ठीक-ठीक पूर्वानुमान नहीं लगा सकती। प्रशासनिक विवेक का मुख्य उद्देश्य समाज के सभी वर्गों में समानता बनाए रखना है। हालाँकि, इस प्रशासनिक विवेक को सीमा से आगे नहीं जाना चाहिए और इसका उचित सावधानी से उपयोग किया जाना चाहिए। यहां विवेक का मतलब मनमानी/ऐच्छीक व्यवहार हो सकता है।

उचित विवेक का परीक्षण

ओरेगेनो केमिकल इंडस्ट्रीज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1979) के बहुत प्रसिद्ध मामले में, याचिकाकर्ता (ओरेगेनो केमिकल इंडस्ट्रीज) ने क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त (रिजनल प्रोविडेंट फंड कमिशनर) के आदेश के खिलाफ संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर की, जिसमें कर्मचारियों के भविष्य निधि और पारिवारिक पेंशन के विलंबित भुगतान के लिए कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952 की धारा 14 (b) के तहत उच्च जुर्माना लगाया गया था। यहां कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952 की धारा 14 (b) और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है। यहां सरकार को निधि को आवंटित उपाय प्रदान करने का निर्देश दिया गया था ताकि नुकसान की भरपाई की जा सके। 

धारा 14(b) में केन्द्रीय भविष्य निधि आयुक्त या ऐसे अन्य अधिकारी को, जिसे केन्द्र सरकार द्वारा प्राधिकृत किया गया हो, उस नियोक्ता से क्षतिपूर्ति (डैमेजेस) वसूलने का अधिकार दिया गया है, जिसने अंशदान (कंट्रीब्युशन) देने में चूक की है, बशर्ते कि ऐसे नियोक्ता ने क्षतिपूर्ति वसूलने से पहले सुनवाई का पर्याप्त अवसर दिया हो। 

इस धारा में यह भी प्रावधान है कि यदि कोई रुग्ण/सिक औद्योगिक कंपनी है तो केंद्रीय मंडल द्वारा उसका हर्जाना माफ किया जा सकता है। इस मामले में न्यायालय ने माना कि सरकार ने ऐच्छिक ढंग से इस धारा का प्रयोग किया है, जो सरकार के विवेक से परे है और यह हमारे संविधान के अनुच्छेद 14 का एक प्रकार का उल्लंघन है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अपवाद

जैसा कि ऊपर बताया गया है, अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है, बल्कि एक योग्य अधिकार है। इसलिए, यह कुछ अपवादों के अधीन है।

कुछ सामान्य अपवाद हैं, जबकि कुछ विशिष्ट अपवाद भी हैं, जैसे विधायकों और कार्यकारी प्रमुखों के विशेषाधिकार। ऐसे मामलों में भी कुछ अपवाद लागू होते हैं जहाँ विशेष कानून बनाए गए हैं या लोगों के एक निश्चित समूह को विशेषाधिकार दिए गए हैं, जैसे कि रक्षा कर्मियों के बच्चे आदि को दिए गए अधिकार। आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के अपवादों का सबसे अच्छा उदाहरण है। 

सामान्य अपवाद

समानता के अधिकार के कुछ सामान्य अपवाद इस प्रकार हैं:

  1. अपवादों में से एक यह है कि निजी व्यक्तियों के अधिकार सार्वजनिक अधिकारियों से भिन्न होते हैं। सार्वजनिक अधिकारियों में निहित शक्तियों का उपयोग केवल वे ही कर सकते हैं। कोई भी निजी व्यक्ति उन शक्तियों का उपयोग नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, एक पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार करने की शक्ति दी गई है यदि वह सोचता है कि ऐसा करना उचित है, और इस शक्ति का प्रयोग निजी व्यक्तियों द्वारा नहीं किया जा सकता है, हालाँकि, किसी कानून द्वारा विशेष रूप से निर्दिष्ट किए जाने पर इसकी अनुमति दी जा सकती है।
  2. एक और अपवाद आरक्षण का है, जिसकी चर्चा उचित वर्गीकरण के नियम के रूप में भी की जाती है। राज्य को कुछ समूहों या लोगों की श्रेणियों के लिए विशेष कानून बनाने की अनुमति है। कानून का नियम राज्य को किसी विशेष वर्ग के लिए ऐसे कानून बनाने से नहीं रोकता है। उदाहरण के लिए, सशस्त्र बलों के सदस्यों के लिए अलग-अलग कानून हैं। वे सैन्य कानूनों द्वारा शासित होते हैं जो विशेष रूप से सैन्य लोगों के मार्गदर्शन के लिए बनाए जाते हैं।
  3. कानून ने राज्य के कार्यकारी निकायों और मंत्रियों को कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान की हैं। मंत्री जब भी उचित समझें या संतुष्ट हों, उन शक्तियों का इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्हें उन शक्तियों का इस्तेमाल केवल उचित आधार पर ही करने की अनुमति है।
  4. अलग-अलग व्यवसायों के लोगों पर अलग-अलग कानून लागू होते हैं। डॉक्टर, नर्स, वकील, पुलिस और सशस्त्र बलों के सदस्यों जैसे कुछ व्यवसायों के लोगों के मार्गदर्शन के लिए विशेष नियम बनाए गए हैं। 

राष्ट्रपति और राज्यपाल को मिलने वाले लाभ

जैसा कि हमने पहले पढ़ा है, अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि सभी के साथ बिना किसी भेदभाव के समान व्यवहार किया जाना चाहिए। इस अनुच्छेद के तहत केवल उचित वर्गीकरण की अनुमति है। लेकिन राष्ट्रपति और राज्य के राज्यपाल को कुछ लाभ मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं:

  1. अपने कार्यालयों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय उनके द्वारा की गई किसी भी गतिविधि के बारे में उनसे पूछताछ नहीं की जा सकती।
  2. अपने कार्यकाल के दौरान उन पर किसी भी प्रकार की आपराधिक कार्यवाही नहीं की जाती। (अनुच्छेद 361)
  3. अपने कार्यकाल के दौरान उन्हें गिरफ्तार या कैद नहीं किया जा सकता।
  4. अपने कार्यकाल के दौरान उन पर कोई सिविल कार्यवाही नहीं की जाती, भले ही उन्होंने कोई कार्य व्यक्तिगत हैसियत में किया हो।

संसद और विधानमंडल के सदस्यों को मिलने वाले लाभ

संसद और विधानमंडल के सदस्यों को मिलने वाले कुछ लाभ इस प्रकार हैं:

  1. यदि कोई संसद सदस्य कोई ऐसी बात कहता है जो किसी अन्य सदस्य को नापसंद हो या उसके खिलाफ मत देता है तो संसद सदस्य पर कोई सिविल या आपराधिक कार्यवाही नहीं की जाती है।
  2. यदि संसद का कोई सदस्य कोई ऐसी बात कहता है जो किसी अन्य सदस्य को नापसंद हो या उसके खिलाफ मत देता है तो राज्य विधानमंडल के सदस्यों पर कोई सिविल या आपराधिक कार्यवाही नहीं की जाती है।
  3. किसी समाचार पत्र या लेख में संसद की कार्यवाही का कोई सच्चा प्रतिवेदन (रिपोर्ट) प्रकाशित होने पर किसी व्यक्ति पर सिविल या आपराधिक कार्यवाही नहीं की जाएगी। 
  4. संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य सत्र चलने के दौरान किसी आपराधिक या सिविल मामले में न्यायालय की कार्यवाही में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं हैं। (अनुच्छेद 361-A)
  5. संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्यों से सत्र के दौरान उनके द्वारा दिए गए मत, किए गए भाषण या उनके विचारों के बारे में कोई भी न्यायालय पूछताछ नहीं कर सकता। (अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 )

विशेष न्यायालयों की स्थापना

विशेष न्यायालय विधेयक, 1978 को मंजूरी मिलने के बाद विशेष न्यायालयों की स्थापना की गई। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इस पहलू को उचित वर्गीकरण के सिद्धांत से जोड़कर समझाया और विस्तृत किया, जो कि अनुच्छेद 14 का अपवाद है। यह माना गया कि कानून के समक्ष समानता निरपेक्ष नहीं है। इस अनुच्छेद के कई अपवाद हैं जो समाज के सभी क्षेत्रों में समान व्यवहार के उद्देश्य से बनाए गए हैं। ऐसा ही एक अपवाद अनुच्छेद 246(2) है, जहां कहा गया है कि राज्य विधानमंडल को इस अनुच्छेद के खंड (3) पर ध्यान दिए बिना, और अनुच्छेद के खंड (1) के अधीन, सातवीं अनुसूची की सूची III में शामिल किसी भी मामले को संबोधित करने का अधिकार है। इन रे: द स्पेशल कोर्ट्स बिल बनाम अननोन (1979) के ऐतिहासिक मामले में, यह निर्धारित करने के लिए प्रश्न उठाया गया था कि क्या विशेष न्यायालयों का गठन किसी भी तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन कर रहा है। इसे कानूनी और संवैधानिक रूप से वैध माना गया।

उचित वर्गीकरण का अपवाद 

उचित वर्गीकरण की अवधारणा या नियम संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का अपवाद है। उचित वर्गीकरण से तात्पर्य ऐसे लोगों के एक निश्चित समूह को वर्गीकृत करना है जो सामाजिक या आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और उन्हें उनके सामाजिक या आर्थिक उत्थान (इकोनॉमिकली बैकवर्ड) के लिए कुछ विशेषाधिकार या लाभ प्रदान करना है। इस तरह का वर्गीकरण, जो वैध आधार पर किया जाता है, इसे समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाता है।

इस अपवाद को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राम कृष्ण डालमिया बनाम न्यायमूर्ति तेंडोलकर (1958) के मामले में न्यायिक रूप से मान्यता दी है। इस मामले में न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 14 वर्ग विधान पर प्रतिबंध लगाता है, न कि उचित वर्गीकरण पर, जो विधायी उद्देश्यों के लिए किया जाता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्य अपवाद

ऊपर उल्लिखित या चर्चा किए गए अपवादों के अतिरिक्त, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के कुछ अन्य अपवाद इस प्रकार हैं:

  1. अगर अनुच्छेद 39 के तहत कोई ऐसा कानून बनाया जाता है जो अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता हुआ प्रतीत होता है तो उस कानून को असंवैधानिक नहीं माना जाएगा। इसे अनुच्छेद 31(c) के प्रावधानों के अनुसार वैध माना जाएगा, जिसे अनुच्छेद 14 के अपवाद के रूप में 42वें संशोधन में शामिल किया गया था। इसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 39(b) या अनुच्छेद 39(c) में निहित निर्देशक सिद्धांतों के क्रियान्वयन (इम्प्लिमेंटेशन) के लिए राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
  2. विदेशी संप्रभु (फॉरेन सॉवरिन), राजनयिक और राजदूतों (डिप्लोमेट्स एंड एंबेसडर) पर किसी अपराध के लिए दीवानी या आपराधिक कार्यवाही नहीं की जाती है। राज्य समान कार्यवाही का उपयोग करके कार्रवाई नहीं करेगा। उनके मुक़दमे के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानून या विश्व स्तर पर स्वीकृत कानूनों का उपयोग किया जाता है।
  3. संयुक्त राष्ट्र संगठन (युनाईटेड नेशन्स ऑर्गनाईजेशन) और इसकी एजेंसियों पर भी दीवानी या आपराधिक कार्यवाही नहीं की जाती है। उन्हें राजनयिक छूट/प्रतिरक्षा प्राप्त है।
  4. अनुच्छेद 14 के अपवाद के रूप में कार्य करने वाली एक अन्य शक्ति राष्ट्रपति की शक्ति है जो आपातकाल की घोषणा के समय कुछ अधिकारों के निलंबन के खिलाफ किसी भी मुकदमे को दायर करने से रोकती है। आपातकालीन स्थिति में न्यायालय जाने का अधिकार लागू नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के मामलों में इस अधिकार को लागू किया जा सकता है।
  5. इसके अलावा, जो व्यक्ति गलत काम करता है, उसके लिए कानून के सामने समानता नहीं हो सकती। कोई व्यक्ति जो अवैध काम करता है, वह न्यायालय या न्यायिक व्यवस्था के सामने समानता का अधिकार नहीं मांग सकता। पटना उच्च न्यायालय के बलिराम प्रसाद सिंह बनाम बिहार राज्य (1992) के मामले में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि अवैध कामों के लिए समानता नहीं हो सकती क्योंकि याचिकाकर्ता स्वयं दोषी था; इसलिए उसे अपने अवैध काम के लिए क्षतिपूर्ति करनी होगी।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के मामले में उपलब्ध उपाय

राज्य या किसी अन्य संगठन द्वारा अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के मामले में व्यक्तियों के लिए विभिन्न उपाय उपलब्ध हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है, तो वह भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर करके उपाय की मांग कर सकता है। अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों के किसी भी उल्लंघन के मामले में मौलिक अधिकारों को लागू करके संवैधानिक उपचार प्रदान करता है, जिसमें अनुच्छेद 14 भी शामिल है। इसलिए किसी भी मौलिक अधिकार के उल्लंघन के मामले में, व्यक्ति अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में या अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत कर सकता है।
  • दूसरा उपाय राज्य की किसी भी मनमानी कार्रवाई या नीति के खिलाफ जनहित याचिका (पीआईएल) दायर करना है। जनहित याचिका का मतलब है कि जनहितैषी (पब्लिक स्पिरिटेड) व्यक्ति या संगठन अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के मामलों में उपाय पाने के लिए राज्य की कार्रवाई के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकते हैं। वे राज्य के अनुचित निर्णयों को चुनौती देने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
  • यदि राज्य द्वारा अनुच्छेद 14 का कोई उल्लंघन किया जाता है, तो व्यक्ति ऐसे राज्य कार्यों या नीतियों के खिलाफ याचिका भी प्रस्तुत कर सकता है जो उसके समानता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। इसके बाद न्यायालय यह तय करता है कि नुकसान के लिए मुआवज़ा दिया जाना चाहिए या व्यक्ति को निषेधाज्ञा राहत (इनजंक्टिव रिलीफ) दी जानी चाहिए। दिए जाने वाले उपाय पूरी तरह से उल्लंघन की प्रकृति पर निर्भर करते हैं।

इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यदि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के उनके अधिकार का कोई उल्लंघन होता है, तो व्यक्ति रिट याचिकाओं, जनहित याचिकाओं, नियमित मुकदमों और अन्य कानूनी साधनों के माध्यम से राहत मांग सकता है। न्यायपालिका मौलिक अधिकारों को लागू करने और राज्य या किसी अन्य संगठन द्वारा मौलिक अधिकारों के किसी भी उल्लंघन के मामले में उनकी रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 पर ऐतिहासिक निर्णय

एयर इंडिया बनाम नरगेश मिर्ज़ा (1978)

इस मामले में, याचिकाकर्ताओं ने एयर इंडिया कर्मचारी सेवा विनियमन के विनियमन 46 और विनियमन 47 को चुनौती देते हुए एक मुकदमा दायर किया क्योंकि यह संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहा था। विमान-परिचारिका (एयर होस्टेस) की नौकरी समाप्त करने की शर्तें प्रकृति में भेदभावपूर्ण थीं, क्योंकि इसमें कहा गया था कि एक विमान-परिचारिका 35 वर्ष की आयु में, अपनी सेवा के चार साल के भीतर शादी करने पर या गर्भवती होने पर सेवानिवृत्त हो जाएगी। इंडियन एयरलाइंस के इन नियमों को प्रकृति में अल्ट्रा वायर्स माना जाता था क्योंकि उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को मुंबई उच्च न्यायालय से स्थानांतरित कर दिया और इसे रिट याचिका के रूप में सुना। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह नियम असंवैधानिक हैं क्योंकि वे समानता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। इसलिए इसने नियमों को रद्द कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने विमान-परिचारिका की शादी और गर्भावस्था पर समाप्ति खंड (टर्मिनेशन क्लॉज) में संशोधन करने का निर्देश दिया। यह भी पाया गया कि प्रबंध निदेशक को बहुत अधिक शक्ति सौंपी गई थी। इस प्रकार, शक्ति का यह अत्यधिक प्रतिनिधिमंडल भेदभावपूर्ण व्यवहार की ओर ले जाता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने एयरलाइन्स के नियमों को अनुचित माना और उनमें संशोधन करने का आदेश दिया। इसलिए, उपरोक्त आधार पर किसी भी विमान-परिचारिका की बर्खास्तगी वैध नहीं मानी जाएगी। यह अनुचित भेदभाव के खिलाफ महिलाओं के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए किया गया था।

इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2006)

इस मामले में, दस से पचास वर्ष की आयु वाली महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। इसलिए मंदिर की इस नीति को पांच महिला वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि यह महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। न्यायालय ने पाया कि यह गैरकानूनी है क्योंकि यह महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचा रहा है। इसलिए न्यायालय ने इसे रद्द करने का आदेश दिया। इसने माना कि मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर महिलाओं का सामाजिक बहिष्कार अनुच्छेद 17 के तहत निषिद्ध है। यह कहा गया कि अनुच्छेद 14 के तहत उल्लिखित समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 में निहित मौलिक अधिकारों को खत्म नहीं कर सकता। यह भी देखा गया कि अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, नस्ल, जन्म स्थान या लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार के विवेक का निषेध करता है। इसलिए, अनुच्छेद 25(1) के तहत सौंपे गए अधिकार सभी को, बिना किसी भेदभाव के, प्रदान किए जाते हैं और इसलिए सभी को अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार होना चाहिए।

तमिलनाडु विद्युत बोर्ड बनाम आर. वीरस्वामी (1999)

इस मामले में यह सवाल उठाया गया था कि क्या पेंशन देने के लिए बनाई गई योजना उन लोगों पर भी लागू होगी जो इस योजना के शुरू होने से पहले ही सेवानिवृत्त हो चुके थे। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पहले से सेवानिवृत्त पेंशनभोगियों को नई योजना का लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि उन्हें सेवानिवृत्त होने के दौरान ही सेवानिवृत्ती के लाभ दिए गए थे। न्यायालय ने कहा कि यदि पिछले सेवानिवृत्त लोगों को उस योजना के तहत लाभ दिया जाता है तो नियोक्ता पर लगभग 200 करोड़ रुपये का वित्तीय भार पड़ेगा, जो बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं है। यह योजना वित्तीय बाधाओं को कम करने के लिए शुरू की गई थी, जो न्यायालय को एक वैध आधार लगा। न्यायालय का मानना ​​था कि योजना शुरू होने से पहले और बाद में सेवानिवृत्त लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। उन्हें एक ही वर्ग का व्यक्ति नहीं माना जा सकता। इसलिए इस मामले में अनुच्छेद 14 का उपयोग नहीं किया जाएगा; इसके बजाय, उचित वर्गीकरण के इसके अपवाद को अनुमति दी जाती है क्योंकि वे एक अलग वर्ग बनाते हैं। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए निष्कर्ष निकाला कि पेंशन योजना की शुरुआत का पूर्वव्यापी प्रभाव (रेट्रोस्पेक्टिव इफेक्ट) नहीं होना अवैध नहीं है। 

शायरा बानो बनाम भारत संघ (2016)

इस मामले में, शायरा बानो नामक एक मुस्लिम महिला ने ‘ट्रिपल तलाक’ की संवैधानिकता को चुनौती दी थी, जब उसके पति ने उस मामले में कोई कानूनी कार्यवाही किए बिना तुरंत तीन बार ‘तलाक’ कहकर उसे तलाक दे दिया था। उसने ‘ट्रिपल तलाक’ की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट याचिका प्रस्तुत की। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह अवैध और असंवैधानिक प्रकृति का है क्योंकि यह मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। ‘ट्रिपल तलाक’ के द्वारा, एक मुस्लिम पुरुष राज्य या अदालत के किसी भी हस्तक्षेप के बिना तीन बार ‘तलाक’ कहकर एक मुस्लिम महिला को तुरंत तलाक दे सकता है। यह लिखित, मौखिक या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किया जा सकता है। उसने तर्क दिया कि इससे उस महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। उसका जीवन एक पल में बदल गया जब उसके पति ने उसे सिर्फ एक पत्र लिखकर तलाक दे दिया, जिसमें उसने तीन बार ‘तलाक’ लिखा था कहा गया कि ‘ट्रिपल तलाक’ की प्रकृति ऐच्छिक प्रकार की है, जो महिला की गरिमा के खिलाफ है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि तलाक की यह ‘तीन तलाक’ प्रणाली भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 25 का उल्लंघन करती है। अगर मुस्लिम पुरुषों को तत्काल तलाक का यह अधिकार दिया जाता है, तो महिलाओं के समानता के अधिकार, सम्मान के साथ जीने के अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन (डीनाइ) होता है। न्यायालय ने इस ‘ट्रिपल तलाक’ तलाक प्रणाली को एक ऐसा कानून माना जो लैंगिक असमानता को बढ़ावा देता है और मुस्लिम महिलाओं के लिए अन्यायपूर्ण और अनुचित है। यह भी कहा गया कि किसी धर्म के व्यक्तिगत कानून संविधान में शामिल समानता और मौलिक अधिकारों के सिद्धांतों को खत्म नहीं कर सकते। इसने ‘ट्रिपल तलाक’ की प्रथा को भेदभावपूर्ण घोषित किया। सर्वोच्च न्यायालय ने यह घोषित करते हुए निष्कर्ष निकाला कि ‘ट्रिपल तलाक” असंवैधानिक है क्योंकि यह मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और गरिमा के खिलाफ है। उनके साथ पुरुषों के बराबर व्यवहार किया जाना चाहिए। इसलिए न्यायालय ने विधानमंडल को धार्मिक रीति-रिवाजों के आधार पर अनावश्यक भेदभाव किए बिना दोनों लिंगों के लिए समान कानून बनाने का आदेश दिया।

नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2016)

इस मामले में, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी, जिसमें कहा गया था कि सहमति से समलैंगिक (होमोसेक्शुअल) कृत्य जो पहले के समय में अपराध थे, उन्हें अपराध से मुक्त किया जाना चाहिए क्योंकि वे समानता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। यह मामला एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के सभी सदस्यों के लिए समानता के अधिकार को सुरक्षित करने के बारे में था। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के सदस्यों को कई वर्षों से धारा 377 के तहत बहुत उत्पीड़न, यातना और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा है। इस ऐतिहासिक मामले में, यह तर्क दिया गया था कि वर्षों से उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया था। वे समानता और निजता के अपने अधिकार से वंचित हैं, जो समाज के प्रत्येक सदस्य को बिना किसी भेदभाव के प्रदान किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि यौन अभिविन्यास (सेक्शुअल ओरिएंटेशन) के आधार पर किया जाने वाला कोई भी भेदभाव मौलिक अधिकारों के साथ-साथ भारतीय संविधान में शामिल समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने माना कि वयस्क होने के नाते व्यक्तियों को अपने अंतरंग (इंटिमेट) संबंधों के लिए किसी को भी चुनने का अधिकार है और राज्य को उस मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। समलैंगिक संबंधों या विवाह को अपराध बनाना असमानता को दर्शाता है। इससे मनोवैज्ञानिक नुकसान और भावनात्मक शर्मिंदगी होती है। तदनुसार, धारा 377 को असंवैधानिक माना गया क्योंकि यह एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से संबंधित व्यक्तियों की गरिमा का उल्लंघन करती थी। इस ऐतिहासिक फैसले ने सामाजिक विचारों और कलंक को बदल दिया और उस समुदाय के सदस्यों के प्रति करुणा की भावना को बढ़ावा दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि समानता, सम्मान और निजता (प्राईवसी) का अधिकार सभी को दिया जाता है, चाहे किसी भी व्यक्ति का यौन अभिविन्यास कुछ भी हो। इसलिए, इसने समलैंगिक संबंधों को स्वीकार करके और उनके अधिकारों की रक्षा करके धारा 377 को अपराध से मुक्त कर दिया।

जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018)

इस मामले में, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 497 की संवैधानिकता को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी। जोसेफ शाइन, एक वकील ने भारत में व्यभिचार (एडलट्री) को अपराध से मुक्त करने के लिए धारा 497 के खिलाफ याचिका दायर की। वह एक अनिवासी थे जो लैंगिक असमानता से निपटने वाले कानूनों को फिर से तैयार करने के लिए दृढ़ थे। ब्रिटिश काल में व्यभिचार को अपराध माना जाता था, जहाँ एक पुरुष को किसी विवाहित महिला के साथ उसके पति की सहमति के बिना संभोग करने के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता था। इस कानून का तात्पर्य है कि विवाहित महिलाएं अपने पति की संपत्ति हैं। यह धारा एक महिला के स्वायत्तता (ऑटोनोमी) के अधिकार का उल्लंघन करती है। इसलिए जोसेफ शाइन ने धारा 497 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका प्रस्तुत की क्योंकि यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन कर रही थी। न्यायालय ने कहा कि राज्य को व्यक्तियों की व्यक्तिगत पसंद में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। व्यक्तियों को उस व्यक्ति को चुनने का अधिकार है जिसके साथ वे अंतरंग संबंध बनाना चाहते हैं। राज्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता तब तक नहीं है जब तक कि यह विवाह की पवित्रता या सामाजिक मानदंडों को प्रभावित न करे। इसलिए न्यायालय ने पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया, यह कहते हुए कि व्यभिचार तलाक का आधार हो सकता है। इस निर्णय ने दर्शाया कि पुरुषों और महिलाओं दोनों के साथ अनावश्यक विशेषाधिकार प्राप्त किए बिना समान व्यवहार किया जाता है। इसने व्यभिचार के लिए दोनों को समान रूप से उत्तरदायी ठहराते हुए वैवाहिक समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गैर-भेदभाव के सिद्धांतों को बरकरार रखा।

निष्कर्ष

संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता के अधिकार का विकास इसके समावेश से लेकर इसके वर्तमान व्यापक दायरे तक उल्लेखनीय है। संविधान के व्याख्याताओं, यानी भारतीय न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा घोषित किया, ताकि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा इन अधिकारों का उल्लंघन किए जाने के डर के बिना न्यायपूर्ण और समतापूर्ण समाज सुनिश्चित किया जा सके। कोई भी कानून जो समानता के अधिकार और अन्य मौलिक अधिकारों का खंडन करता है, वह मूल ढांचे का उल्लंघन करता है और इसलिए संविधान के विरुद्ध है।

लेकिन हकीकत में, आम जनता में जागरूकता की कमी के कारण लोग असमान व्यवहार का शिकार बन रहे हैं और इस तरह के व्यवहार का विरोध भी नहीं कर रहे हैं। जब तक लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होगी, तब तक असमानता का उन्मूलन (इरेडीकेशन) असंभव है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को उसके अधिकारों और इन अधिकारों के विभिन्न पहलुओं के बारे में जानकारी हो। समानता के अधिकार के बारे में केवल जानकारी ही बहुत काम की नहीं है, अगर किसी व्यक्ति को इसके विभिन्न पहलुओं के बारे में जानकारी नहीं है, जिसके उल्लंघन के मामले में ऐसा व्यक्ति उपाय के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटा सकता है। भारतीय न्यायपालिका ने समानता के अधिकार की अवधारणा में विभिन्न तरीकों से और विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से इसकी व्याख्या करके एक क्रांतिकारी बदलाव लाया है और हमेशा मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए काम किया है। हालांकि, लोगों को जागरूक होना और उचित उपायों की तलाश में अदालतों का दरवाजा खटखटाना आवश्यक है। कानूनी सहायता जैसे विकल्पों के बारे में जागरूकता भी इस उद्देश्य की पूर्ति में उतनी ही महत्वपूर्ण है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या अनुच्छेद 14 एक बुनियादी (बेसिक) मानव अधिकार है?

समानता के अधिकार से संबंधित अनुच्छेद 14 को भारत के संविधान में सभी के मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून में भी बुनियादी मानवाधिकार के रूप में शामिल किया गया है। बिना किसी तरह के अनावश्यक भेदभाव के सभी को इस सिद्धांत के अधीन होना चाहिए।

क्या आरक्षण नीति अनुच्छेद 14 का अपवाद है?

अनुच्छेद 14 का तात्पर्य है कि किसी भी व्यक्ति को जाति, पंथ, लिंग, जन्म स्थान, स्थिति, धर्म या लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार का विशेष व्यवहार नहीं दिया जाना चाहिए। आरक्षण नीति अनुच्छेद 14 का अपवाद है। इसे उचित वर्गीकरण के सिद्धांत के आधार पर उचित माना जाता है। आरक्षण की यह नीति ऐच्छिक ढंग से नहीं बनाई गई है, बल्कि सभी के लिए समान व्यवहार के सिद्धांत पर आधारित है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह उचित भेदभाव भारतीय संविधान के किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।

अनुच्छेद 14 का उद्देश्य क्या है?

अनुच्छेद 14 का उद्देश्य समाज के सभी सदस्यों को समान अवसर प्रदान करना है, जिसमें नागरिक और गैर-नागरिक दोनों शामिल हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि समानता के अधिकार का सिद्धांत एक बुनियादी मौलिक अधिकार है जिसे बिना किसी अनावश्यक भेदभाव के सभी लोगों को आश्वासन दिया जाना चाहिए। यह सभी लोगों को समान स्तर पर रखने में मदद करता है। इसके पीछे सभी को समान दर्जा और अवसर प्रदान किया जाना चाहिए यह उद्देश है।

अनुच्छेद 14 का क्या महत्व है?

अनुच्छेद 14 ने राज्य की किसी भी ऐच्छिक या भेदभावपूर्ण कार्रवाई के खिलाफ राज्य के लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यदि किसी व्यक्ति के समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है, तो वह उस राज्य की नीति को अदालत में चुनौती दे सकता है, जो उसका उल्लंघन कर रही है। यह अनुच्छेद राज्य की किसी भी तरह की अनावश्यक भेदभावपूर्ण नीति से लोगों को सुरक्षित रखते हुए कानून के समक्ष समानता और कानूनों की समान सुरक्षा प्रदान करता है और सभी व्यक्तियों को समान स्तर पर रखता है। 

संदर्भ 

  • Essay on the Racial Discrimination in Colonial India
  • UNIT 30 SOCIAL DISCRIMINATION 

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