यह लेख Khyati Basant के द्वारा लिखा गया है और Pujari Dharani के द्वारा इसका अद्यतन (अपडेट) किया गया है। यह लेख कानूनी संरक्षकता (गार्जियनशिप) से व्यपहरण (किडनैपिंग) के अपराध, उसके आवश्यक तत्वों, प्रकृति और ऐतिहासिक निर्णयों के बारे में विस्तार से बात करता है। यह लेख अभियुक्तों के लिए उपलब्ध प्रभावी और अप्रभावी बचाव भी प्रदान करता है। इस लेख में भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) और भारतीय न्याय संहिता (बी.एन.एस.) दोनों के तहत व्यपहरण से संबंधित प्रावधानों पर व्यापक रूप से चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
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परिचय
बच्चे किसी भी माता-पिता के लिए सबसे प्यारी चीज होते हैं। अपने बच्चों को होने वाली छोटी सी हानि की कल्पना भी माता-पिता नहीं कर सकते। अपने बच्चे के गायब होने पर, चाहे कुछ समय के लिए ही क्यों न हो, माता-पिता को बहुत पीड़ा होती है, ठीक वैसे ही जैसे बच्चों का व्यपहरण करके उन्हें सुरक्षित घरों से अंधेरे में ले जाया जाता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) की वर्ष 2022 के लिए “भारत में अपराध” शीर्षक वाली वार्षिक रिपोर्ट से पता चलता है कि 2022 में 83,350 बच्चे लापता हुए और पिछले पांच वर्षों में यह संख्या बढ़ी है।
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए दंड संहिता के निर्माताओं ने व्यपहरण के अपराध की प्रकृति को गंभीर और संगीन अपराध माना है। अपराधियों को अधिक सजा दी जाएगी। इस लेख में इस अपराध पर विस्तार से चर्चा की गई है; आइए इस पर नजर डालते हैं।
भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत व्यपहरण
भारतीय दंड संहिता, 1860 (जिसे आगे “आई.पी.सी.” के रूप में उल्लेख किया गया है) में प्रावधान है कि व्यपहरण का कार्य संहिता के तहत एक दंडनीय अपराध है। अध्याय XVI (मानव शरीर को प्रभावित करने वाले अपराध) के भाग 5 के प्रावधान, अर्थात्, आई.पी.सी. की धारा 359, 360, 361 और 363 व्यपहरण के अपराध से निपटते हैं और व्यपहरण के गंभीर रूपों को धारा 363A से 374 के तहत निपटाया जाता है। इन प्रावधानों को बी.एन.एस. के अध्याय VI के भाग 4 से बदल दिया जाएगा, जो 1 जुलाई, 2024 से प्रभावी होगा।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अंतर्गत व्यपहरण
भारतीय न्याय संहिता, 2023 (जिसे आगे “बी.एन.एस.” के रूप में उल्लेख किया गया है) की धारा 137 व्यपहरण के अपराध से संबंधित है। व्यपहरण के अपराध पर आई.पी.सी. और बी.एन.एस. के प्रावधानों की तुलना के लिए नीचे दी गई तालिका देखें।
अपराध | भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत धारा | भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अंतर्गत धारा |
व्यपहरण | 359 | 137(1) |
भारत से व्यपहरण | 360 | 137(1)(a) |
वैध संरक्षकता से व्यपहरण | 361 | 137(1)(b) |
व्यपहरण की सज़ा | 363 | 137(2) |
“व्यपहरण” शब्द को न तो आई.पी.सी.” में परिभाषित किया गया है और न ही बी.एन.एस. में। व्यपहरण का शाब्दिक अर्थ है “बच्चे को चुराना”, लेकिन यह अपराध केवल बच्चों को ले जाने तक ही सीमित नहीं था। यह अनुचित कारावास का एक गंभीर रूप है। आम बोलचाल में, व्यपहरण किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध गैरकानूनी तरीके से हटाना या स्थानांतरित करना और उसे अनुचित तरीके से बंधक बनाना है। हालाँकि बी.एन.एस. में “व्यपहरण” शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन यह आवश्यक तत्व प्रदान करता है जिसके द्वारा कोई कार्य विभिन्न रूपों के “व्यपहरण” के अपराध का गठन करेगा।
व्यपहरण के प्रकार (बी.एन.एस. की धारा 137)
बी.एन.एस. की धारा 137 का खंड (1) (आई.पी.सी. की धारा 359) व्यपहरण के प्रकारों से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि व्यपहरण का अपराध दो प्रकार का होता है, अर्थात्,
- भारत से व्यपहरण, और
- वैध संरक्षकता से व्यपहरण।
भारत से व्यपहरण
बी.एन.एस की धारा 137(1) (आई.पी.सी. की धारा 360) के उप-खंड (a) के अनुसार, कोई कार्य भारत से व्यपहरण का अपराध तब बनता है जब वह निम्नलिखित अनिवार्यताओं को पूरा करता है:
- यदि किसी व्यक्ति को भारत से प्रविष्ट (ट्रांसमिट) किया जाएगा। वह व्यक्ति वयस्क या नाबालिग हो सकता है।
- ऐसी प्रविष्टी भारत की सीमाओं से परे होगी;
- ऐसी प्रविष्टी उस व्यक्ति या ऐसी प्रविष्टी के लिए कानूनी रूप से अधिकृत किसी व्यक्ति की सहमति के बिना होगा।
बी.एन.एस. की धारा 137 के खंड (2) (आई.पी.सी. की धारा 363) में भारत से व्यपहरण के लिए सजा का प्रावधान है। यह सजा वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध के समान है।
वैध संरक्षकता से व्यपहरण
भारतीय दंड संहिता की धारा 137 के उप-खण्ड (b) (आई.पी.सी. की धारा 361) के अनुसार, वैध संरक्षकता से व्यपहरण का अपराध तब किया गया माना जाता है जब निम्नलिखित अनिवार्यताएं पूरी हो जाती हैं।
- किसी व्यक्ति को ले जाना या बहला-फुसलाकर ले जाना;
- ऐसा व्यक्ति बालक या अस्वस्थ व्यक्ति हो सकता है;
- इस प्रकार से ले जाना या बहलाना उस व्यक्ति के वैध संरक्षक के अधिकार क्षेत्र से बाहर होगा; तथा
- इस तरह से ले जाना या बहलाना संरक्षक की सहमति के बिना होगा।
इस धारा का उद्देश्य नाबालिगों और मानसिक रूप से विकृत व्यक्तियों को शोषण से बचाना तथा संरक्षकों को अपने बच्चों की वैध देखभाल या अभिरक्षा (कस्टडी) के अधिकार की रक्षा करना है।
बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) का उद्देश्य
1965 में, सर्वोच्च न्यायालय ने एस. वरदराजन बनाम मद्रास राज्य (1965) (जिसे आगे “वरदराजन” के रूप में उल्लेख किया गया है) के मामले में आई.पी.सी. की धारा 361 (बी.एन.एस. की धारा 137 (1) (b)) के उद्देश्य और लक्ष्य के बारे में अपनी टिप्पणियाँ दीं । इस मामले में, अभियुक्त और व्यपहरण किया गया व्यक्ति एक दूसरे से प्यार करते थे। यह जानते हुए, पिता ने उसे दूर, यानी उसके रिश्तेदार के घर भेज दिया। हालाँकि, वह फिर भी अभियुक्त के साथ भागने और विभिन्न स्थानों पर जाने में सफल रही। अदालत के सामने सवाल यह था कि क्या अभियुक्त वैध संरक्षकता से व्यपहरण का दोषी था। इस मामले के बारे में अधिक जानने के लिए, यहाँ क्लिक करें।
उपर्युक्त मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने नोट किया कि वाक्यांश “ले जाना या बहलाना” आई.पी.सी. के एक अन्य प्रावधान यानी धारा 498 में भी पाया जाता है, जो विवाहित महिला को आपराधिक इरादे से बहलाने, ले जाने या अभिरक्षा में ले जाने के अपराध से संबंधित है। इस संबंध में न्यायालय ने कहा कि कोई व्यक्ति आँख मूंदकर और यंत्रवत रूप से आई.पी.सी. की धारा 498 के तहत “ले जाना या बहलाना” वाक्यांश का अर्थ नहीं ले सकता है, जबकि उसी वाक्यांश की व्याख्या आई.पी.सी. की धारा 361 के तहत की जा सकती है, क्योंकि उनके उद्देश्यों के संबंध में इसके अंतर हैं। इस तरह न्यायालय ने उक्त दो प्रावधानों के पीछे के उद्देश्यों को यह कहते हुए अलग किया कि आई.पी.सी. की धारा 498 का उद्देश्य पति के अधिकारों की रक्षा करना है। इसके विपरीत, धारा 361 संरक्षकों के अधिकारों की सुरक्षा के बजाय नाबालिग या विकृत दिमाग वाले व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा के लिए अधिनियमित की गई है
हालांकि, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा राज्य बनाम राजाराम (1973) (जिसे आगे “राजाराम” के रूप में उल्लेख किया गया है) के मामले में आई.पी.सी. की धारा 361 के उद्देश्य के बारे में एक अलग रुख अपनाया है। न्यायालय ने माना कि आई.पी.सी. की धारा 361 का उद्देश्य न केवल नाबालिग व्यक्ति या अस्वस्थ दिमाग वाले व्यक्ति को अनैतिक और अवैध उद्देश्यों के लिए बहकाए जाने से बचाना है, बल्कि संरक्षकों के अपने बच्चों की अभिरक्षा या उन पर नियंत्रण रखने के अधिकारों की रक्षा करना भी है।
बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के तहत वैध संरक्षकता से व्यपहरण के लिए आवश्यक बातें
वैध संरक्षकता से व्यपहरण का अपराध गठित करने के लिए निम्नलिखित कुछ अनिवार्यताओं को पूरा किया जाना चाहिए:
किसी व्यक्ति को ले जाना या फुसलाकर ले जाना
किसी व्यक्ति को अभियुक्त द्वारा ले जाना या बहला-फुसलाकर ले जाना वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध को गठित करने के लिए आवश्यक तत्वों में से एक है। उक्त शब्दों का कानूनी अर्थ शाब्दिक अर्थ से अलग है। उन शब्दों को समझना और न्यायपालिका द्वारा उक्त शब्दों पर दी गई व्याख्या को देखना आवश्यक है।
शब्द “ले जाना” की व्याख्या
हालाँकि वैध संरक्षकता से व्यपहरण का अपराध बनाने के लिए “ले जाने” का कार्य आवश्यक है, लेकिन दंड संहिता में इस शब्द को परिभाषित या स्पष्ट नहीं किया गया है। “ले जाने” शब्द का अर्थ है, बल प्रयोग के साथ या बिना बल प्रयोग के, किसी को ले जाना, अनुरक्षण (एस्कॉर्ट) करना या कब्ज़ा करना। ले जाने के लिए एक ही कार्य की आवश्यकता नहीं होती है। कई सारे कार्य मिलकर ले जाने का कार्य बन सकते हैं।
इसके अलावा, नाबालिग उम्र के या मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति को वास्तविक रूप से शारीरिक रूप से हटाना आवश्यक नहीं है; यह पर्याप्त है कि अपराधी नाबालिग या मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति को इस तरह से मना ले कि वह अपना घर छोड़ने के लिए तैयार हो जाए, जहाँ वह संरक्षक की अभिरक्षा में था। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य (2004) और राजाराम मामलों में यह निर्णय लिया था, जहाँ यह कहा गया था कि जब कोई व्यक्ति किसी को ले जाने या बहलाने का कार्य कर रहा हो, तो बल या धोखाधड़ी के तत्व आवश्यक नहीं हैं, और बहलाने का कार्य व्यपहरण के अपराध के रूप में माना जाने के लिए पर्याप्त है।
अभियोजन पक्ष द्वारा इसे स्थापित करने के लिए, वरदराजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि उचित साक्ष्य, जो साबित करता है कि अभियुक्त ने विवादित घटना से पहले किसी बिंदु पर व्यक्ति को ले जाने के लिए राजी किया, अदालत के समक्ष पेश किया जाना चाहिए, भले ही अभियुक्त ने उक्त घटना से तुरंत पहले कुछ भी न किया हो। इस प्रकार, अभियुक्त को उसके कार्य का दोषी बनाने के लिए, जो कानून में, “ले जाने” के बराबर होना चाहिए। वीके राजप्पन बनाम केरल राज्य (1960) में, यह नोट किया गया था कि अभियुक्त को एक ऐसा कार्य करना चाहिए जिसे व्यक्ति के संरक्षक को छोड़ने का निकटतम कारण माना जा सके जैसा उसने किया। कानून के इस नियम पर टिप्पणी करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने वरदराजन मामले में माना कि महज एक परिस्थिति कि अभियुक्त का कार्य लड़की के अपने पिता की अभिरक्षा से निकलने का तत्काल कारण नहीं था, उसे दोषमुक्त नहीं करेगी
दूसरी ओर, यदि अभियोजन पक्ष ने अपने आरोपों को साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया कि अभियुक्त ने कोई सक्रिय भूमिका निभाई, जिसे नाबालिग या अस्वस्थ व्यक्ति को उसके घर से निकलने के लिए राजी करने का तत्व कहा जा सकता है, तो अदालत यह अनुमान नहीं लगा सकती कि अभियुक्त ने केवल इस आधार पर व्यपहरण का अपराध किया है कि ऐसा नाबालिग या अस्वस्थ व्यक्ति अपने संरक्षक के संरक्षण से बाहर आने के तुरंत बाद अभियुक्त से मिला था या सिर्फ इसलिए कि अभियुक्त ने उस व्यक्ति को उसके घर से निकलने की प्रक्रिया में मदद की थी। इस बचाव की पेचीदगियों को इस लेख के बाद के भाग में विस्तार से बताया जाएगा।
शब्द “बहलाने” की व्याख्या
“बहलाना” शब्द में किसी व्यक्ति को उत्तेजित करने वाली आशाओं या इच्छाओं के माध्यम से किसी दूसरे व्यक्ति को बहलाने या आकर्षित करने का विचार शामिल है। इसका मतलब है कि बच्चे को अपराधी का अनुसरण करने या उसके साथ जाने के लिए बहकाया या आकर्षित किया जाता है। नाबालिग का मानसिक रवैया प्रलोभन के लिए प्रासंगिक है। ऐसा कोई निश्चित सूत्र नहीं है जिसका पालन किया जाए ताकि यह माना जा सके कि अभियुक्त ने किसी व्यक्ति को लुभाया है। प्रलोभन कई तरह के हो सकते हैं और क्या अभियुक्त का कार्य ‘बहलाने’ के बराबर है, इसका फैसला अदालत द्वारा उस मामले के विशेष तथ्यों पर विचार करके किया जाना चाहिए।
जब अभियुक्त ने एक नाबालिग लड़की से वादा किया कि वह उससे शादी करेगा ताकि वह अपना घर छोड़ दे, तो सर्वोच्च न्यायालय ने मोनीराम हजारिका बनाम असम राज्य (2004) के मामले में इस वादे को “बहलाने” का कार्य माना, और इस प्रकार, उसे आई.पी.सी. की धारा 361 के तहत दोषी ठहराया।
“ले जाना” और “बहलाने” के बीच अंतर
ले जाने के कार्य में कुछ शारीरिक क्रिया शामिल होती है, हालांकि इसके लिए बल का होना अनिवार्य नहीं है। जबकि, बहलाने का कार्य, लिए गए व्यक्ति के मन को प्रभावित या हेरफेर करना है। “ले जाने” के लिए, नाबालिग के मानसिक दृष्टिकोण पर विचार नहीं किया जाता है। यानी, नाबालिग चाहे इच्छुक हो या न हो, ले जाने का शारीरिक कार्य पूरा हो जाएगा। “बहलाने” के लिए, नाबालिग को अपराधी के उकसावे के कारण कुछ कार्य करना चाहिए; यदि प्रेरित न किया जाए, तो नाबालिग ऐसा कार्य नहीं करेगा।
ले जाने का कार्य कब पूरा होता है?
यह कार्य तभी पूरा होता है जब नाबालिग अपने संरक्षकों के कानूनी कब्जे से बाहर आ जाता है। जब अभियुक्त नाबालिग को अपने साथ ले जाता है, तो उसे ले जाने का कार्य पूरा हो जाता है, चाहे वह ऐसा करने के लिए तैयार हो या नहीं। इसके अलावा, जब तक नाबालिग अपने संरक्षकों के कब्जे से बाहर नहीं आ जाता, तब तक यह निरंतर अपराध नहीं है।
नाबालिग को कितनी दूरी तक ले जाया जा रहा है, यह भी मायने नहीं रखता। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने छज्जू राम मारू राम और अन्य बनाम पंजाब राज्य (1968) के मामले में कहा कि यह तय करते समय कि क्या अभियुक्त ने नाबालिग को संरक्षक की देखभाल से दूर ले जाया है, अदालतों द्वारा इस बात पर विचार करना आवश्यक नहीं है कि नाबालिग को कितनी दूरी तक ले जाया गया था।
इसके अलावा, अभियुक्त के खिलाफ सजा का आदेश पारित करने में दूरी, यहां तक कि वह समय अवधि भी, जिस दौरान बच्ची संरक्षक की अभिरक्षा से बाहर थी, पर विचार करना अप्रासंगिक है। राजस्थान राज्य बनाम बाबूलाल (1965) में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि “चाहे नाबालिग को वैध संरक्षकता से हटाने की अवधि कितनी भी हो, लड़की को कुछ समय के लिए भी ले जाना व्यपहरण ही है।”
देब प्रोसाद बनाम किंग (1950) में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि बच्चे को ले जाने का कार्य तब पूरा माना जाता है जब ऐसे बच्चे को वैध संरक्षकता से बाहर ले लिया जाता है और उक्त कार्य एक सतत कार्य नहीं है।
किसे “ले जाना” या “बहलाना” नहीं माना जाता
व्यक्ति की योजना में मदद करने के लिए मात्र सहायता
यदि कोई अभियुक्त किसी ऐसे व्यक्ति, जो नाबालिग या मानसिक रूप से अस्वस्थ है, को अपने संरक्षक के संरक्षण से बाहर जाने और कभी वापस घर न आने की उस व्यक्ति की योजना को पूरा करने में सहायता करने की अनुमति देता है या उसकी सहायता भी करता है, जिसे उस नाबालिग या मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति ने अपनी स्वतंत्र इच्छा से तैयार किया था, और जब अभियुक्त द्वारा इसे पूरा करने के लिए अनुनय (पर्सुएशन) या प्रोत्साहन का कोई कार्य नहीं किया जाता है, तो अभियुक्त को बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के तहत वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा।
अभियुक्त की ओर से मदद, सहायता या सुविधा के ऐसे कार्यों को प्रलोभन या अनुनय नहीं माना जा सकता है और इसलिए, इसे वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध का गठन करने के लिए आवश्यक तत्व “ले जाना या बहलाना” नहीं कहा जा सकता है जैसा कि वरदराजन के मामले में तय किया गया है। इस प्रकार, “ले जाना” और अभियुक्त द्वारा नाबालिग को उसके साथ जाने की “अनुमति” देने के बीच अंतर है, जैसा कि बिस्वनाथ मल्लिक बनाम उड़ीसा राज्य (1995) (जिसे आगे “बिस्वनाथ” के रूप में उल्लेख किया गया है) में उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा उल्लेख किया गया है।
बिसेस्वर मिश्रा बनाम द किंग (1948) में उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि नाबालिग को आश्रय देने के लिए अभियुक्त की ओर से मात्र निष्क्रिय सहमति नाबालिग को “ले जाने या बहलाने” के कार्य के बराबर नहीं है। लेकिन अगर अभियुक्त ने उसके कमज़ोर और झिझकते दिमाग का फायदा उठाकर उसे घर में रहने के लिए मजबूर किया, तो ऐसा कार्य बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के अर्थ में लड़की को “ले जाने” के बराबर हो सकता है।
जय नारायण बनाम हरियाणा राज्य 71 पुंज एलआर 688 में, अपनी मर्जी से ले जाई गई महिला आधी रात को अपने संरक्षक के घर से चली गई और ऐसा अभियुक्त की वजह से नहीं हुआ; उसने न तो उसे घर से निकलने के लिए बहलाया और न ही उसके घर जाकर उसे वहां से लाया। इस प्रकार, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को आई.पी.सी. की धारा 363 के तहत आरोपों से बरी कर दिया।
इस प्रकार, यदि अभियुक्त ने कोई कदम नहीं उठाया, यहां तक कि अनुनय-विनय भी नहीं की, और यह वह नाबालिग या अस्वस्थ व्यक्ति है, जो अपनी मर्जी से अपने संरक्षक की निगरानी से बाहर आया है, तो वह उत्तरदायी नहीं होगा। उदाहरण के लिए, जब कोई नाबालिग लड़की किसी व्यक्ति द्वारा उसके साथ किए गए किसी दबाव, उकसावे या नरमी के बिना अपने पिता का घर छोड़ती है, जैसे कि वह घर से अपेक्षाकृत दूर चली गई हो और फिर उसके पास जाती है, तो उसे उसके माता-पिता की अभिरक्षा में वापस करना उसका नैतिक दायित्व हो सकता है, लेकिन ऐसा न कर पाना व्यपहरण का अपराध नहीं माना जाएगा। इससे पता चलता है कि अपराध तभी होता है जब अभियुक्त नाबालिग को वैध संरक्षक की अभिरक्षा से “बाहर” ले जाता है। नाबालिग को उसके संरक्षक के पास न भेजने, या यहां तक कि उसे उसके घर वापस जाने की चेतावनी न देने और फिर उसे आश्रय न देने के अपने कार्य के लिए अपराधी की ओर से कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।
इस पहलू को बेहतर ढंग से समझने के लिए बचाव पक्ष और वरदराजन का ऐतिहासिक मामला देखें।
ऐसा व्यक्ति बच्चा या अस्वस्थ दिमाग वाला व्यक्ति होना चाहिए
अपराधी द्वारा व्यपहृत व्यक्ति बच्चा या मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति होना चाहिए। यहाँ, चाहे अभियुक्त को पता हो कि पीड़ित व्यक्ति बच्चा है या मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति है, यह बात मायने नहीं रखती।
इसके अलावा, अगर अभियुक्त किसी ऐसे व्यक्ति को ले जाता है जो वयस्क है और सामान्य रूप से स्वस्थ दिमाग का है, तो वह व्यपहरण के अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं होगा, जो अभियुक्त द्वारा या अन्यथा बेहोशी की स्थिति में हुआ हो। इसके बारे में अधिक जानने के लिए, यहाँ क्लिक करें।
इसलिए, ऐसे व्यक्ति को, जो वयस्क है और जिसकी मानसिक स्थिति ठीक है, संरक्षक की सहमति के बिना संरक्षक की देखरेख से बाहर ले जाना या बहलाना वैध संरक्षकता से व्यपहरण की श्रेणी में नहीं आएगा। हालाँकि यह व्यपहरण का अपराध नहीं है, लेकिन उस मामले के तथ्यों के अनुसार यह व्यपहरण का अपराध हो सकता है। व्यपहरण और अपहरण के अपराधों के बीच अंतर के बारे में अधिक जानने के लिए, यहाँ क्लिक करें ।
बच्चा कौन है?
बी.एन.एस. की धारा 137(2) में “बच्चे” शब्द को 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है।
इससे पहले, 1949 से, आई.पी.सी. की धारा 361 के तहत किसी व्यक्ति को नाबालिग कहने की आयु सीमा निर्धारित की गई थी। इसमें कहा गया है कि अगर ऐसा व्यक्ति लड़का है, तो नाबालिग कहलाने के लिए उसकी उम्र सोलह साल से कम होनी चाहिए; अगर ऐसे व्यक्ति का लिंग लड़की है, तो वह अठारह साल की उम्र तक नाबालिग है। यहाँ, दोनों लिंगों के लिए कोई एक निश्चित आयु सीमा नहीं है। हालाँकि, बी.एन.एस. में, क्योंकि इसमें केवल “बच्चा” का उल्लेख है, हम कह सकते हैं कि लिंगों के बीच कोई अंतर नहीं है।
बिस्वनाथ मामले में अभियुक्त ने एक लड़की को उसके रूप-रंग से बालिग समझ लिया और उसे उसके घर से ले गया। मुकदमे में उसने लड़की की उम्र के बारे में अनभिज्ञता जताई। उड़ीसा उच्च न्यायालय ने उसकी दलील को खारिज करते हुए कहा कि नाबालिग लड़की की उम्र के बारे में न जानना बचाव का विषय नहीं है और उसे व्यपहरण के अपराध में दोषी ठहराया।
कथित रूप से व्यपहृत व्यक्ति की आयु कैसे साबित करें?
यदि अभियोजन पक्ष यह दावा कर रहा है कि कथित रूप से अपहृत व्यक्ति एक बच्चा है, तो इसे ठोस सबूतों से साबित करना आवश्यक है, क्योंकि पीड़ितों की अव्यस्कता इस महत्वपूर्ण प्रश्न को निर्धारित करती है कि क्या अभियुक्त व्यपहरण के अपराध के लिए उत्तरदायी है। उदाहरण के लिए, मोहन बनाम राजस्थान राज्य (2003) में, व्यपहरण का अपराध नहीं बनाया गया क्योंकि अभियोजन पक्ष घटना के समय पीड़ित की अव्यस्कता आयु स्थापित करने में विफल रहा। इसलिए, यह ध्यान रखना उचित है कि, यदि चिकित्सा साक्ष्य और दस्तावेजी साक्ष्य के बीच कोई विरोधाभास है और अदालत यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाती है कि कौन सा सही है, तो संदेह का लाभ अभियुक्त के पक्ष में जाएगा।
किसी व्यक्ति की आयु निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित विधियों का उपयोग किया जाता है। गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने तैमस अली बनाम असम राज्य, 1977 सी.आर.एल.जे. (एन.ओ.सी.) 243 (गौ) में, संबंधित व्यक्ति की आयु निर्धारित करने की विधियों के रूप में निम्नलिखित रिपोर्टों का उल्लेख किया है:
- बोन ऑसिफिकेशन परीक्षण, जिसके द्वारा हड्डी की आयु का पता लगाया जा सकता है;
- दाँतों पर परीक्षण;
- ऊंचाई और वजन पर परीक्षण; और
- विविध संकेत
गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने तब टिप्पणी की थी कि “जब (निम्नलिखित रिपोर्टों पर) अलग-अलग विचार किया जाता है, तो प्रत्येक व्यक्तिगत परीक्षण पर बहुत कम भरोसा किया जाना चाहिए; लेकिन जब इन्हें एक साथ लिया जाता है, तो वे आयु का पता लगाने के लिए काफी विश्वसनीय साधन प्रदान कर सकते हैं। “
अभियोजक को पीड़ित की उम्र निर्धारित करने के लिए अदालत में प्रस्तुत किए जाने वाले दस्तावेजों को चुनने में सावधानी बरतनी चाहिए। साथ ही, हमेशा किसी भी दस्तावेजी साक्ष्य की तलाश करने, न कि केवल मौखिक साक्ष्य पर निर्भर रहने का सुझाव दिया जाता है, जिसका इन मामलों में अधिक साक्ष्य मूल्य है।
यौन अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 और किशोर न्याय (बालकों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 के विपरीत, बी.एन.एस. में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो बताए कि पीड़ित की आयु किस प्रकार निर्धारित की जा सकती है; बेहतर होगा कि विभिन्न मामलों में न्यायिक निर्णयों पर गौर किया जाए।
मामला | न्यायालय का निर्णय |
सिद्धेश्वर गांगुली बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1958) | सर्वोच्च न्यायालय ने नाबालिग लड़की के जन्म प्रमाण पत्र को निर्णायक सबूत माना। हालाँकि, यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हमारे देश में हर किसी के पास नहीं है, इसलिए न्यायालय ने कहा कि इस तरह की सुनवाई करते समय अदालतों या जूरी को उस विशेष मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखने और उस व्यक्ति की शारीरिक बनावट की जाँच करने के बाद निष्कर्ष निकालना चाहिए जिसकी उम्र पर विवाद है और उसके सामने मौजूद सबूतों की भी जाँच करनी चाहिए। |
छत्तीसगढ़ राज्य बनाम लेखराम (2006) | सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्यपि विद्यालय के रिकॉर्ड पीड़िता की आयु साबित करने के लिए स्वीकार्य हैं, लेकिन उन्हें निर्णायक साक्ष्य नहीं माना जा सकता, इसलिए अन्य ठोस साक्ष्यों से उनकी पुष्टि आवश्यक है। |
रमेश चंद्र अग्रवाल बनाम रीजेंसी अस्पताल (2009) | सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि पीड़िता की आयु के बारे में डॉक्टर की गवाही एक चिकित्सीय राय से अधिक कुछ नहीं है, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 39 (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 45) के अंतर्गत एक विशेषज्ञ की राय है और इसलिए यह केवल सलाहकार प्रकृति की है। |
दिलीप बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2013) | यह बलात्कार का मामला है, जिसमें पीड़िता के पिता और उसकी शिक्षिका द्वारा उसकी उम्र के संबंध में दिए गए बयान विद्यालय प्रमाण-पत्रों के विपरीत हैं, और इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने उन प्रमाण-पत्रों को स्वीकार करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे ठोस और भौतिक साक्ष्य नहीं हैं। |
मध्य प्रदेश राज्य बनाम अनूप सिंह (2015) | इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि बोन ऑसोफिकेशन परीक्षण आयु निर्धारण के लिए एकमात्र साक्ष्य नहीं हो सकता। |
वैध संरक्षक की निगरानी से बाहर ले जाना
यहां, हम देख सकते हैं कि दो अभिव्यक्तियाँ हैं, अर्थात्, “रखना” और “वैध संरक्षक”, जिनके अर्थों को प्रावधान के उद्देश्य, यानी बी.एन.एस. की धारा 137, और विधायिका के इरादे के अनुसार सटीक रूप से समझा जाना आवश्यक है ताकि हम वर्तमान उद्देश्य के लिए इन अभिव्यक्तियों का सही अर्थ जान सकें।
“रखना” क्या है?
शब्द “रखना” का अर्थ है संरक्षक की सुरक्षा या देखभाल के अंतर्गत। नाबालिग को संरक्षक की शारीरिक अभिरक्षा में होना जरूरी नहीं है। यह वास्तविक या रचनात्मक, चाहे प्रभार (चार्ज) और सुरक्षा के विचार को दर्शाता है। एक बच्चा हमेशा संरक्षक की वास्तविक अभिरक्षा में नहीं हो सकता है, यानी, प्रत्यक्ष शारीरिक अभिरक्षा; जब तक बच्चे के ठिकाने का पता है और बच्चे की आवाजाही को नियंत्रित किया जाता है, तब तक बच्चे को संरक्षक की देखरेख में कहा जाता है। बाद वाला मामला रचनात्मक रखने का मामला है। बच्चे को तब अपहृत कहा जाता है जब बच्चे को घेरे के बाहर ऐसे क्षेत्र में ले जाया जाता है जहां संरक्षक को अब बच्चे के ठिकाने के बारे में पता नहीं होता है और न ही बच्चे की आवाजाही पर उसका कोई नियंत्रण होता है।
हरियाणा राज्य बनाम राजाराम (1973) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “इस संदर्भ में ‘रखने’ शब्द का उपयोग प्रभार, संरक्षण, भरण-पोषण और नियंत्रण के विचार को दर्शाता है।” साथ ही, न्यायालय ने यह भी कहा कि संरक्षक की अभिरक्षा की अवधारणा इस तरह से प्रतीत होती है जैसे नाबालिग को अपने कार्यों और गतिविधियों पर स्वतंत्रता है; हालाँकि, यदि आवश्यकता पड़ी तो संरक्षक नाबालिग पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, भगबन पाणिग्रही बनाम उड़ीसा राज्य (1989) के मामले में, लड़की, जिसे एक छात्रावास के कमरे से अगवा किया गया था, जहाँ पिता एक बार उससे मिलने गया था, उसके बारे में कहा जाता है कि वह अपने पिता की देखरेख में है, हालाँकि कमरा अन्वेषण (इन्वेस्टिगेशन) के उद्देश्य से किराए पर लिया गया था।
अनाथ किसके संरक्षण में है
दुर्भाग्य से, कुछ बच्चों के पास उनकी देखभाल करने के लिए कोई संरक्षक नहीं है। तकनीकी रूप से, वे किसी की अभिरक्षा या रखवाली के अधीन नहीं हैं। क्या इसका मतलब यह है कि अनाथ बच्चों के व्यपहरण को दंडित नहीं किया जाता है और व्यपहरणकर्ता इस दलील के साथ आज़ाद घूमते हैं कि बच्चे को इस तरह से ले जाना किसी वैध संरक्षक की देखरेख के दायरे से बाहर नहीं था? इसका जवाब बिल्कुल नहीं है। यहाँ, बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के प्रावधान के उद्देश्य और लक्ष्य को दोहराना महत्वपूर्ण है, यानी, न केवल नाबालिग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करना, बल्कि उनके संरक्षकों के अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा करना भी। इसलिए, अनाथ बच्चों का व्यपहरण भी बी.एन.एस. की धारा 137(2) के तहत एक दंडनीय कार्य है।
ठाकोरलाल डी. वडगामा बनाम गुजरात राज्य (1973) में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार किया कि क्या किसी बच्चे की स्वतंत्र गतिविधियाँ “रखने” की अवधारणा पर विचार करते समय संरक्षक के नियंत्रण से असंगत हैं। न्यायालय ने माना कि दोनों एक दूसरे के अनुकूल हैं। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि हमारा देश ऐसा देश है जहाँ कई बच्चों से सेवा या गुलामी के कठोर परिश्रम करवाया हैं और उन्हें उनके माता-पिता द्वारा दूसरे राज्यों में भेज दिया जाता है। इसे ध्यान में रखते हुए, यदि अभियुक्त व्यक्तियों का यह तर्क कि इन बच्चों की गतिविधियाँ संरक्षक के नियंत्रण में नहीं हैं, न्यायालयों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तो अपराधी अपने आपराधिक कार्यों के लिए दंडित किए बिना स्वतंत्र रूप से घूमेंगे, जो उन मासूम बच्चों और उनके वैध संरक्षकों के साथ घोर अन्याय होगा।
अनोप कुंवर बनाम गुजरात राज्य (1984) 1 अपराध 44 में, बड़ौदा में एक अनाथ, जो कैंटीन में काम कर रहा है, को एक किन्नर द्वारा बहलाया जाता है कि उसके साथ रहने पर उसे काम करने का बेहतर अवसर मिलेगा। इस तरह के प्रलोभन में आकर, लड़के ने कैंटीन की नौकरी छोड़ दी और किन्नरों के गिरोह में शामिल हो गया, जहाँ वह उनके द्वारा घायल कर दिया गया। इस मामले में अभियुक्त ने तर्क दिया कि लड़का किसी वैध संरक्षकता के अधीन नहीं है, इसलिए अपराध का एक आवश्यक तत्व मौजूद नहीं है। गुजरात उच्च न्यायालय ने ठाकोरलाल डी. वडगामा बनाम गुजरात राज्य (1973) के मामले में फैसले पर भरोसा किया और माना कि “रखने” की धारणा अनाथों और किसी भी अन्य समान मामलों को शामिल करने के लिए पर्याप्त व्यापक है।
वैध संरक्षक कौन है?
यहाँ, हम देख सकते हैं कि विधायिका ने “कानूनी” के बजाय “वैध” शब्द का इस्तेमाल किया, यह जानते हुए कि “वैध संरक्षक” और “कानूनी संरक्षक” के बीच अंतर है। सभी कानूनी संरक्षक वैध संरक्षक होते हैं, लेकिन सभी वैध संरक्षक कानूनी संरक्षक नहीं होते। “कानूनी संरक्षक” शब्द संहिताबद्ध हिंदू कानूनों जैसे भारतीय कानूनों में प्रचलित है; फिर भी, “कानूनी” के बजाय “वैध” शब्द को प्राथमिकता देने का तात्पर्य है कि विधायिका का इरादा उक्त अभिव्यक्ति को व्यापक अर्थ देना था ताकि व्यपहरण के किसी भी मामले में सजा दी जा सके।
धारा 137(1)(b) की व्याख्या में किसी भी अस्पष्टता से बचने के लिए “वैध संरक्षक” शब्द का अर्थ दिया गया है। यह एक समावेशी परिभाषा है। इसमें कहा गया है कि “वैध संरक्षक” शब्द में ऐसे व्यक्ति भी शामिल हैं जिन्हें ऐसे नाबालिगों या अस्वस्थ व्यक्तियों की देखभाल करने या उन्हें अभिरक्षा में रखने का कर्तव्य विधिपूर्वक सौंपा गया है। इस प्रकार, किसी व्यक्ति को नाबालिग का वैध संरक्षक मानने के लिए निम्नलिखित आवश्यक शर्तें पूरी की जानी चाहिए।
- उक्त व्यक्ति के पास एक नाबालिग या अस्वस्थ व्यक्ति की अभिरक्षा है।
- ऐसी अभिरक्षा उक्त व्यक्ति द्वारा वैधानिक सौंपे जाने के कारण प्राप्त की गई थी। यहाँ, वैधानिक सौंपे जाने का अर्थ है कि व्यक्ति को ऐसी अभिरक्षा कानूनी संरक्षक द्वारा सौंपी गई थी, जो आम तौर पर नाबालिग के माता-पिता या अस्वस्थ दिमाग वाले व्यक्ति या ऐसे व्यक्ति होते हैं जिन्हें सक्षम न्यायालय द्वारा कानूनी संरक्षक घोषित किया जाता है। ऐसा सौंपना स्पष्ट रूप से दिया जा सकता है, चाहे लिखित रूप में हो या मौखिक रूप से; निहित सौंपना भी हो सकता है।
उदाहरण के लिए, यदि किसी लड़की का पिता अपने मित्र या नौकर को लड़की को विद्यालय छोड़ने के लिए कहता है, तो मित्र या नौकर को उक्त अवधि और उक्त प्रयोजन के लिए वैध संरक्षक कहा जाता है, यद्यपि वह कानूनी संरक्षक नहीं है, क्योंकि पिता ने उसे लड़की के संबंध में ऐसा कर्तव्य विधिपूर्वक सौंपा है।
न्यायालय मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखकर तथा पक्षों, विशेषकर उस व्यक्ति, जिसने नाबालिग या अस्वस्थ व्यक्ति की देखभाल और अभिरक्षा ली थी, के सामान्य आचरण को देखकर यह निर्णय करेगा कि ऐसा व्यक्ति कानूनी संरक्षक है या नहीं।
अब, एक संदेह पैदा हो सकता है: क्या होगा यदि अभियुक्त स्वयं वैध या कानूनी संरक्षक है? क्या वह व्यपहरण के अपराध के लिए उत्तरदायी होगा? बी.एन.एस. ने क्या कहा और अदालतों द्वारा न्यायिक निर्णय जानने के लिए, यहाँ क्लिक करें।
“बाहर ले जाना” क्या है
ऊपर दिए गए स्पष्टीकरण से अब यह समझ में आ गया है कि रखने का क्या मतलब है और वैध संरक्षक कौन है। हम जानते हैं कि वैध संरक्षक का अपने बच्चों पर नियंत्रण होता है। अगर कोई बच्चा अभियुक्त के कार्य से ऐसे नियंत्रण या प्रभार से बाहर आ जाता है, तो यह कहा जाता है कि अभियुक्त ने बच्चे को वैध संरक्षक की अभिरक्षा से बाहर निकाल लिया। अराथन सदाशिवन बनाम केरल राज्य (1966) में, केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष को कुछ सबूत देने होंगे जो साबित करें कि अभियुक्त ने कुछ सकारात्मक कार्य किया है जिसके कारण लड़की वैध संरक्षक की अभिरक्षा से बाहर चली गई।
वैध संरक्षक की सहमति के बिना
बच्चे की सहमति पूरी तरह से अप्रासंगिक है और केवल संरक्षक की सहमति को ही ध्यान में रखा जाता है क्योंकि बच्चे को वैध सहमति देने में असमर्थ माना जाता है। हरियाणा राज्य बनाम राजाराम (1973) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया था ।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, यदि संरक्षक द्वारा सहमति धोखाधड़ी या गलत बयानी के तहत दी जाती है, तो यह कहा जाता है कि सहमति स्वतंत्र नहीं है और इसलिए, कानून की नज़र में यह वैध सहमति नहीं है। दोषी पक्ष भी अपराध के लिए जिम्मेदार होगा, भले ही संरक्षक अपराध किए जाने के बाद सहमति दे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गणेश बनाम किंग एम्परर 10 सीआईएलजे 295 में कहा कि “अपराध किए जाने के बाद संरक्षक द्वारा दी गई सहमति इसे किसी भी तरह से कम अपराध नहीं बनाती है।”
न्यायमूर्ति गजेंद्रगडकर ने राज्य बनाम हरबंसिंग किसानसिंग (1953) के मामले में स्पष्ट रूप से कहा है कि नाबालिग का मानसिक रवैया ‘ले जाने’ के मामले में अप्रासंगिक है। अगर नाबालिग लड़की अपने संरक्षक को छोड़ने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाती है, तो इसका मतलब है कि वह अपनी मर्जी या सहमति से ऐसा करती है।
इरादा और मकसद ज़रूरी नहीं है
अपराध करने के लिए अभियुक्त का इरादा और मकसद अभियुक्त द्वारा वैध संरक्षकता से व्यपहरण के मामले को स्थापित करने के लिए आवश्यक तत्व नहीं हैं और अभियोजन पक्ष पर इसे साबित करने का कोई दायित्व नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि, भले ही अभियुक्त ने किसी अच्छे कारण से नाबालिग को संरक्षक की देखरेख से बाहर निकाला हो, फिर भी वह व्यपहरण के अपराध के लिए उत्तरदायी है। इस प्रकार, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि व्यपहरण एक सख्त दायित्व वाला अपराध है, यानी, अभियुक्त का इरादा महत्वहीन है।
फिर भी, यदि अभियोजन पक्ष दण्ड बढ़ाने के लिए अभियुक्त की ओर से व्यपहरण करने के इरादे को साबित करना चाहता है, तो ऐसे इरादे को मामले की परिस्थितियों से साबित किया जा सकता है, चाहे विवादित घटना से पहले या घटना के बाद या घटना के समय हो।
वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध की प्रकृति
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की प्रथम अनुसूची, (दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की प्रथम अनुसूची) की वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध की प्रकृति प्रदान करती है।
संज्ञेय (कॉग्निजेबल)
वैधानिक संरक्षण से व्यपहरण का अपराध एक संज्ञेय अपराध है और पुलिस प्रभारी, जिसने शिकायत प्राप्त की और अभियुक्त द्वारा उक्त अपराध किए जाने का आरोप लगाते हुए प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की, कानून द्वारा मामले का अन्वेषण करने और अदालत से किसी अनुमोदन या वारंट के बिना भी उक्त अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए अधिकृत है। इस प्रकार, विधायिका ने इस अपराध को काफी गंभीर माना और पुलिस अधिकारियों जैसी कानून प्रवर्तन एजेंसियों की ओर से तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता जताई।
जमानती
वैध संरक्षकता से व्यपहरण का अपराध एक जमानतीय अपराध है और उक्त अपराध का अभियुक्त व्यक्ति अधिकार के रूप में न्यायालय में जमानत के लिए आवेदन कर सकता है।
गैर शमनीय (नॉन कंपाउंडेबल)
बी.एन.एस.एस की धारा 359 (सीआरपीसी की धारा 320) निर्दिष्ट करती है कि कौन से अपराध किसके द्वारा शमन योग्य हैं। चूंकि बी.एन.एस.एस की धारा 359 के तहत वैध संरक्षक के व्यपहरण के अपराध का उल्लेख नहीं किया गया है, इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उक्त अपराध एक गैर-शमनीय अपराध है।
प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय
वैध संरक्षकता से व्यपहरण के कथित अपराध की अन्वेषण और पुलिस प्रभारी द्वारा पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद, मामले को उक्त अभियुक्त के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही के लिए विचारण न्यायालय के समक्ष रखा जाएगा। इस विचारण न्यायालय की अध्यक्षता प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा की जाएगी।
अन्वेषण का महत्व
हर अपराध के लिए, अपराधियों को दूरदराज के स्थानों पर भागने से पहले पकड़ने और पीड़ितों की जान बचाने के लिए एक गहन, उचित और त्वरित अन्वेषण महत्वपूर्ण है। फिर भी, व्यपहरण के मामले में, अन्वेषण एजेंसियों की ओर से तत्काल कार्रवाई के साथ बहुत अधिक तत्परता की आवश्यकता होती है क्योंकि ऐसा कोई विशेष अपराध स्थल नहीं होता है जहाँ अपराधियों के डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (डीएनए) के निशान मौजूद हों और वास्तविक अपराधी का पता लगाने के लिए सभी प्रकार के फोरेंसिक विज्ञान का उपयोग किया जा सकता है। व्यपहरण के मामलों में, संबंधित व्यक्तियों द्वारा केवल सुराग और गवाही होती है और अन्वेषण के प्रभारी पुलिस पर अपराधी और उस स्थान को खोजने के लिए अपनी बौद्धिक क्षमताओं का उपयोग करने का भार होता है जहाँ अपहृत व्यक्ति को रखा गया था। साथ ही, जैसे-जैसे समय बीतता है, अपराधी को पकड़ने और बच्चे को बचाने की संभावना कम होती जाती है; यही कारण है कि अन्वेषण अधिकारियों द्वारा त्वरित कार्रवाई बहुत महत्वपूर्ण है।
बचाव की दलील जो बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के तहत आरोप के खिलाफ दी जा सकती है
यदि किसी अभियुक्त के विरुद्ध धारा 137(2) के अंतर्गत शिकायत या प्राथमिकी दर्ज की गई है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि उसने वैध संरक्षक से व्यपहरण का अपराध किया है, तो अभियुक्त मुकदमे के दौरान दोषी या निर्दोष होने का दावा कर सकता है। यदि दोषी न होने का दावा किया जाता है, तो अभियुक्त के मामले में उपस्थित बचाव पक्ष के वकील को सभी उचित संदेहों से परे निम्नलिखित बचावों में से कोई भी साबित करना होगा। हालांकि, किसी को यह ध्यान में रखना चाहिए कि सच्चाई की जीत होगी और इसलिए, उसे इतना गंभीर अपराध करने के बावजूद आपराधिक दायित्व से बचने के लिए गैरकानूनी तरीकों से अदालत को गुमराह नहीं करना चाहिए। इसपर, निम्नलिखित बचाव हैं जो निर्दोष अभियुक्त द्वारा पेश किए जा सकते हैं जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है।
सद्भाव
यदि बी.एन.एस. की धारा 137(2) के अंतर्गत आरोपित अभियुक्त, बच्चे को सद्भावनापूर्वक यह मानकर ले जाता है कि वह ऐसा करने का हकदार है, तो अभियुक्त व्यक्ति को उक्त प्रावधान के अपवाद खंड के अंतर्गत आपराधिक दायित्व से छूट दी जाती है।
उपर्युक्त छूट का लाभ उठाने के लिए, अभियुक्त का प्रतिनिधित्व करने वाले बचाव पक्ष के वकील द्वारा निम्नलिखित तथ्यों को साबित किया जाना होगा।
- अभियुक्त ने सद्भावनापूर्वक कार्य किया।
- अभियुक्त ने निम्नलिखित तथ्यों में से किसी एक पर विश्वास किया।
- वह किसी नाजायज बच्चे का पिता है; या
- कि वह ऐसे बच्चे की वैध अभिरक्षा का हकदार है।
- अभियुक्त ने संरक्षक की सहमति के बिना ऐसे बच्चे को ऐसे उद्देश्य से अपने पास से ले लिया, जो अनैतिक या गैरकानूनी नहीं था। यदि अभियुक्त का कार्य किसी अनैतिक या गैरकानूनी उद्देश्य से किया गया है, तो यह छूट लागू नहीं होगी, तथा अभियुक्त को उसके कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
चूँकि “वैध संरक्षक” की परिभाषा को व्यापक बनाया गया है, इसलिए किसी विशेष बच्चे के लिए एक से अधिक व्यक्तियों को वैध संरक्षक के रूप में रखना संभव है, जब तक कि वह अनाथ न हो। उदाहरण के लिए, व्यक्तिगत कानूनों के अनुसार पिता और माता प्राकृतिक संरक्षक होते हैं। माता-पिता के अलावा अन्य व्यक्ति भी हो सकते हैं, जिन्हें वैध रूप से बच्चे की अभिरक्षा सौंपी जाती है। इसलिए, यहाँ वैध संरक्षक एक से अधिक व्यक्ति हैं। अब, एक प्रश्न उठ सकता है: क्या होगा यदि एक वैध संरक्षक दूसरे की अभिरक्षा से अपने ही बच्चे/वार्ड का व्यपहरण कर ले? क्या यह कार्य व्यपहरण का कार्य माना जाएगा यदि उस विशेष समय पर वैध संरक्षक ने ऐसी ले जाने के लिए सहमति नहीं दी हो? इसका उत्तर है नहीं। इस प्रकार, यदि कोई प्राकृतिक संरक्षक ऐसे वास्तविक संरक्षक की अभिरक्षा से नाबालिग को ले जाता है या ले जाने का प्रयास करता है, तो कोई अपराध नहीं है। इस संबंध में, निम्नलिखित कुछ मिसालें हैं।
- कोर्ट ऑफ इट्स ओन मोशन बनाम राम लुभाया एवं अन्य (1985) में जन्म से ही बच्चे की अभिरक्षा उसके मामा के पास होती है। एक दिन पिता ने, जो प्राकृतिक संरक्षक है, बच्चे को ले जाने का प्रयास किया। ले जाने के इस कार्य को व्यपहरण का अपराध नहीं माना गया।
- ख्याली राम एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (1971) में, माँ को सात वर्ष से कम उम्र के अपने बच्चे की अभिरक्षा का अधिकार था। अभियुक्त, यानी उस बच्चे के पिता ने माँ की सहमति के बिना बच्चे को उसकी अभिरक्षा से छीन लिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को आई.पी.सी. की धारा 363 के तहत आरोपों से बरी कर दिया।
- विजय कुमार शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1991) में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हिंदू अप्राप्तवयता (माइनोरिटी) और संरक्षकता अधिनियम की धारा 6 पर प्रकाश डाला, जो बच्चे के पिता को बच्चे के प्राकृतिक संरक्षक की स्थिति या दर्जा प्रदान करता है। उसी के मद्देनजर, न्यायालय ने माना कि प्राकृतिक संरक्षक वैध संरक्षकता से व्यपहरण का दोषी नहीं होगा।
- भले ही ऐसा व्यपहरण प्राकृतिक संरक्षक के कहने पर तीसरे व्यक्ति द्वारा किया गया हो, लेकिन इसे “ले जाना” नहीं माना जाता है और इसलिए यह व्यपहरण का अपराध नहीं है। यह कोरबन बनाम किंग एम्परर (1904) के मामले में तय किया गया था।
- नागेश्वर झा बनाम बिहार राज्य (1962) में, पटना उच्च न्यायालय ने हिंदू कानून के अनुसार, माना कि केवल पिता और माता को ही ऐसे बच्चे की अभिरक्षा पर पूर्ण अधिकार है। कोई अन्य संबंध, जैसे कि मामा का ऐसे बच्चे पर अधिकार, माता-पिता के पूर्ण अधिकारों के अधीन होगा। यदि ऐसे रिश्तेदार, प्राकृतिक संरक्षकों के अलावा, बच्चे को वैध संरक्षक की अभिरक्षा से हटाते हैं, तो यह रिश्ता कोई बचाव नहीं होगा।
- हालाँकि, अगर माँ ने अदालत के आदेश से तलाक प्राप्त किया और बच्चे के जैविक पिता ने बच्चे को बच्चे की माँ की अभिरक्षा से ले लिया, तो पिता प्राकृतिक संरक्षक का बचाव नहीं कर सकता। राज्य बनाम रामजी विट्ठल चौधरी और अन्य (1957) के मामले में भी ऐसे ही तथ्य हैं, जहाँ बच्चे को जबरन हटाने वाले पिता को वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था।
ऐसे व्यक्ति की योजना में सहायता करने के लिए मात्र सहायता
सर्वोच्च न्यायालय के एक ऐतिहासिक उदाहरण, यानी एस. वरदराजन बनाम मद्रास राज्य (1965) को समझना महत्वपूर्ण है, जहां न्यायालय ने माना कि यह मान लेना या अनुमान लगाना उचित नहीं है कि अभियुक्त ने आई.पी.सी. की धारा 361 के तहत वैध संरक्षकता से व्यपहरण का अपराध किया है, यदि तत्काल मामले के तथ्य और परिस्थितियां निम्नलिखित के समान हैं। (बेहतर समझ के लिए, हम अभियुक्त को A और नाबालिग व्यक्ति को B के रूप में लेते हैं, जिसे कथित तौर पर उस व्यक्ति के संरक्षक की सहमति के बिना उसके संरक्षण से बाहर ले जाया गया था या बहलाया गया था)।
- B, जो कि अवयस्क व्यक्ति है, पहले ही अपने संरक्षक के संरक्षण से बाहर आ चुका है;
- ऐसा नाबालिग द्वारा संरक्षक के घर वापस न लौटने की योजना के तहत किया गया था।
- बाद में, B, अभियुक्त A के साथ शामिल हो गया;
- अभियुक्त ने निम्नलिखित में से कोई एक या दोनों कार्य किये;
- A को अपने साथ जाने या साथ रहने की अनुमति देता है;
- A ने नाबालिग को एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में मदद की।
यहां, यह ध्यान देने योग्य है कि वरदराजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त तथ्यों और परिस्थितियों में अभियुक्त के कार्य को नाबालिग की योजना या इरादे को सफलतापूर्वक पूरा करने में सहायक माना था; हालांकि, उसने अभियुक्त की ओर से ऐसे कार्यों को कभी भी भारतीय दंड संहिता की धारा 361 के तहत व्यपहरण का अपराध नहीं माना।
केवल बेहोशी को मानसिक अस्वस्थता नहीं माना जाता है
यह पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि पीड़ित पक्ष, जिसका व्यपहरण किया गया था, या तो बच्चा होना चाहिए या फिर मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति होना चाहिए, जैसा कि बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के तहत प्रावधान है। हालांकि, किसी व्यक्ति के दिमाग में बेहोशी की स्थिति को कानून की नज़र में मानसिक रूप से अस्वस्थता की स्थिति नहीं माना जा सकता है, खासकर अगर ऐसा व्यक्ति आमतौर पर स्वस्थ दिमाग का हो। उदाहरण के लिए, एक मरीज जिसे डॉक्टरों द्वारा ऑपरेशन करने के उद्देश्य से दिए गए एनेस्थेटिक के तहत बेहोश कर दिया गया था, उसे अदालतों द्वारा सिर्फ इसलिए मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति नहीं माना जाएगा क्योंकि वह बेहोश हो गया था।
दीन मोहम्मद 1939 20 लाह 517 के मामले में, यह माना गया कि लड़की, जिसे अभियुक्त द्वारा धतूरा के जहर के प्रयोग से बेहोश कर दिया गया था, को विकृत मस्तिष्क वाला व्यक्ति नहीं माना जा सकता और अभियुक्त को उस लड़की को उसके संरक्षकों से दूर ले जाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 361 के अंतर्गत वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
संदेह का लाभ
बी.एन.एस. की धारा 137(2) के तहत आरोपित अभियुक्त हमेशा संदेह के लाभ के लिए दलील दे सकता है और, यदि अभियोजन पक्ष सभी उचित संदेह से परे हर आवश्यक पहलू साबित करके अभियुक्त के खिलाफ वैध संरक्षकता से व्यपहरण का मामला साबित नहीं करता है, तो अदालत संदेह का लाभ देगी। इसी कारण से, अभियुक्त की ओर से पेश होने वाले बचाव पक्ष के वकील को अदालत को यह बताना चाहिए कि अभियोजन पक्ष द्वारा अपराध के कौन से आवश्यक पहलू साबित नहीं किए गए हैं।
कृष्ण महाराणा बनाम किंग-एम्परर (1929) आईएलआर 9 पैट. 647 में, अभियोजन पक्ष ने, अभियुक्त द्वारा कथित रूप से अपहृत लड़की की नाबालिगता को साबित करने के लिए, कुंडली जैसे मौजूदा उचित दस्तावेजों के बजाय विद्यालय छोड़ने का प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया, जिससे लड़की की उम्र पर संदेह पैदा हुआ। इसके अलावा, बचाव पक्ष के वकील ने दो डॉक्टरों को भी पेश किया, जिन्होंने मुकदमे में कहा कि लड़की बालिग थी। दोनों पक्षों के साक्ष्य की अन्वेषण करके, पटना उच्च न्यायालय ने अभियुक्त के पक्ष में संदेह का लाभ दिया, क्योंकि लड़की की नाबालिगता अभियोजन पक्ष द्वारा सभी उचित संदेह से परे साबित नहीं की गई थी।
कानूनी आधार से रहित बचाव
अभियुक्त का कोई गलत इरादा नहीं था
बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के प्रावधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध के लिए अभियुक्त के इरादे की आवश्यकता नहीं है और इसे कई मामलों में कई अदालतों द्वारा दोहराया गया है। इस प्रकार, यह दलील देना कि अभियुक्त का व्यपहरण किए गए व्यक्ति का व्यपहरण करने का कोई इरादा नहीं है, व्यर्थ हो जाएगा और दोषसिद्धि अभी भी बरकरार रहेगी, बशर्ते अभियोजन पक्ष द्वारा सभी आवश्यक पहलुओं और अनिवार्यताओं को स्थापित किया जाए।
पीड़िता की उम्र के बारे में कोई जानकारी नहीं
अगर कोई अभियुक्त यह कहकर अपना बचाव करता है कि उसे पीड़ित की उम्र के बारे में कोई जानकारी नहीं है, तो इससे उसे आपराधिक दायित्व से बचने में मदद नहीं मिलेगी। भले ही ऐसी धारणा सद्भावनापूर्ण हो या उसके पीछे कोई उचित कारण हो, जैसे कि अगर पीड़ित ने खुद अपनी उम्र बढ़ा-चढ़ाकर बताई हो, तो भी यह व्यपहरण के अपराध के लिए अभियुक्त को दोषसिद्धि से मुक्त नहीं करेगा; कानून मानता है कि अभियुक्त ने ऐसा कार्य अपने जोखिम पर किया है।
आर बनाम प्रिंस सामान्य कानून में एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें न्यायालय ने अभियुक्त के इस बचाव को अस्वीकार कर दिया कि उसे लड़की के व्यपहरण के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और माना कि व्यपहरण के मामले में यही अज्ञानता महत्वहीन है। चूँकि व्यपहरण के मामलों में अभियुक्त का इरादा महत्वहीन होता है और यह कार्य स्वयं दंडनीय होता है, इसलिए अभियुक्त यह दलील नहीं दे सकता कि उसे पीड़ित यानी व्यपहरण किए गए व्यक्ति की उम्र के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
अराथन सदाशिवन बनाम केरल राज्य (1966) मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना कि, भले ही लड़की ने स्वयं अभियुक्त से झूठ बोला हो कि उसकी उम्र उसकी वास्तविक उम्र से अधिक है, फिर भी अभियुक्त के पास बचाव का कोई आधार नहीं है।
पीड़ित की सहमति
पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि पीड़ित, चाहे वह बच्चा हो या कोई मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति, ने इस तरह के व्यपहरण के लिए सहमति दी है या नहीं, यह बात मायने नहीं रखती और सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में इसकी पुष्टि की है। वरदराजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि भले ही पीड़ित की उम्र अठारह वर्ष से कम हो और वह अभियुक्त के विचाराधीन कार्य, यानी अपने व्यक्ति को वैध संरक्षक की देखरेख से बाहर ले जाने के लिए सहमति देने के लिए पर्याप्त परिपक्व (मैच्योर) हो, ऐसी सहमति न्यायालय द्वारा बी.एन.एस. की धारा 137(2) के तहत दोषसिद्धि तय करने के लिए मायने नहीं रखती।
बच निकलने की संभावना
अगर अभियुक्त यह दलील देता है कि पीड़िता के पास घटना के दौरान या उसके बाद अभियुक्त द्वारा उसे ले जाने से बचने की संभावना, मौका या अवसर है, तो यह एक खराब बचाव होगा। यह केरल उच्च न्यायालय द्वारा धर्मराजन बनाम सरकारी वकील द्वारा प्रस्तुत केरल राज्य (2014) के मामले में में देखा गया था।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अंतर्गत व्यपहरण के गंभीर प्रकार
व्यपहरण के गंभीर रूपों को अलग-अलग प्रावधानों के तहत प्रदान किया जाता है और अलग-अलग सज़ाएँ निर्धारित की जाती हैं क्योंकि वे सिर्फ़ व्यपहरण के मामले नहीं हैं, बल्कि उनमें अनैतिक और गैरकानूनी उद्देश्य भी शामिल हैं। नीचे दी गई तालिका व्यपहरण के गंभीर रूपों, उनके आवश्यक तत्वों और बी.एन.एस. के तहत प्रदान की गई सज़ाओं को दर्शाती है।
बी.एन.एस. के तहत प्रावधान | आवश्यक सामग्री | सज़ा |
बी.एन.एस. की धारा 139 (आई.पी.सी. की धारा 363A) | अभियुक्त किसी नाबालिग का व्यपहरण करता है; अभियुक्त ऐसे नाबालिग का कानूनी संरक्षक नहीं है; तथा ऐसे नाबालिग को भीख मांगने के लिए नियोजित या उपयोग किया जा सकता है। | साधारण या कठोर कारावास, दस साल तक का हो सकता है। इसके साथ ही, दोषी पर जुर्माना भी लगाया जाता है। |
बी.एन.एस. की धारा 140(1)(आई.पी.सी. की धारा 364) | अभियुक्त किसी भी व्यक्ति का व्यपहरण करता है, जिसमें नाबालिग या अस्वस्थ व्यक्ति भी शामिल है; और ऐसा व्यपहरण पीड़ित की हत्या करने या उसे इस तरह से निपटाने के इरादे से किया गया था जिससे उसकी हत्या होने का खतरा हो। | आजीवन कारावास या दस साल तक का कठोर कारावास। इसके साथ ही दोषी पर जुर्माना भी लगाया जाता है। |
बी.एन.एस. की धारा 140(2)(आई.पी.सी. की धारा 364A) | अभियुक्त किसी व्यक्ति का व्यपहरण, अपहरण या अभिरक्षा में लेता है; यह कार्य अभियुक्त द्वारा फिरौती के इरादे से किया गया था; बाद में, अभियुक्त पीड़ित को धमकाता है या उसकी हत्या या चोट पहुँचाता है। इसमें अभियुक्त के आचरण से उक्त नुकसान की उचित आशंका भी शामिल है; और उपर्युक्त कार्य सरकार या किसी विदेशी या किसी अंतरराष्ट्रीय संगठन या किसी अन्य व्यक्ति को कोई कार्य करने या न करने या फिरौती देने के लिए मजबूर करने के लिए किया गया है। | मृत्युदंड या आजीवन कारावास। इसके साथ ही दोषी पर जुर्माना भी लगाया जाता है। |
बी.एन.एस. की धारा 140(3) (आई.पी.सी. की धारा 365) | अभियुक्त किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करता है; और ऐसा कार्य उस व्यक्ति को गुप्त रूप से और गलत तरीके से कैद करने के इरादे से किया गया था | साधारण या कठोर कारावास, सात साल तक। इसके साथ ही, दोषी पर जुर्माना भी लगाया जाता है। |
बी.एन.एस. की धारा 87 (आई.पी.सी. की धारा 366) | अभियुक्त किसी भी महिला का व्यपहरण या अपहरण करता है, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित; ऐसा कार्य इस इरादे से किया जाता है – उसे किसी व्यक्ति से शादी करने के लिए मजबूर करना, या उसे अवैध संभोग के लिए मजबूर या बहकाना। ऐसी महिलाओं की ऐसी शादी या अवैध संभोग के लिए कोई इच्छा नहीं है। | साधारण या कठोर कारावास, दस साल तक का हो सकता है। इसके साथ ही, दोषी पर जुर्माना भी लगाया जाता है। |
बी.एन.एस. की धारा 140(4) (आई.पी.सी. की धारा 366A) | अभियुक्त किसी अवयस्क लड़की को किसी स्थान से बाहर आने या कोई कार्य करने के लिए प्रेरित करता है; और ऐसा प्रलोभन उसे किसी अन्य व्यक्ति के साथ अवैध संभोग करने के लिए मजबूर करने या बहलाने के इरादे से किया जाता है। | साधारण या कठोर कारावास, दस साल तक का हो सकता है। इसके साथ ही, दोषी पर जुर्माना भी लगाया जाता है। |
बी.एन.एस. की धारा 141 (आई.पी.सी. की धारा 367) | अभियुक्त किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करता है; और ऐसा कार्य ऐसे व्यक्ति को गंभीर चोट, गुलामी या अप्राकृतिक वासना के अधीन करने के इरादे से किया जाता है। | साधारण या कठोर कारावास, दस साल तक का हो सकता है। इसके साथ ही, दोषी पर जुर्माना भी लगाया जाता है। |
बी.एन.एस. की धारा 142 (आई.पी.सी की धारा 368) | पीड़ित का व्यपहरण किया गया है या उसे भगा ले जाया गया है; और अभियुक्त इस तथ्य को जानते हुए भी पीड़ित को छुपाता है या बंधक बनाकर रखता है। | सज़ा वैसी ही होगी जैसे कि उसने पीड़ित का व्यपहरण किया हो या उसे बंधक बनाया हो। |
ऐतिहासिक निर्णय
एस. वरदराजन बनाम मद्रास राज्य (1964)
इस मामले में, नाबालिग लड़की सावित्री का घर और अभियुक्त एस वरदराजन का घर, जो इस मामले में अपीलकर्ता है, एक दूसरे से सटे हुए हैं। सावित्री और वरदराजन अक्सर एक दूसरे से बातें किया करते थे। यह बात उसकी बहन रमा ने काफी समय तक देखी, जिसने इस तरह की बातचीत का कारण पूछा, जिस पर नाबालिग लड़की ने उससे शादी करने की इच्छा बताई। उसके पिता एस नटराजन उद्योग और सहकारिता विभाग में मद्रास सरकार के सहायक सचिव थे। इसलिए, अपनी बेटी सावित्री को अपीलकर्ता से जितना संभव हो सके दूर रखने के लिए, उसे 30 सितंबर 1960 को अपने रिश्तेदार के घर में रखा। अगले दिन, 1 अक्टूबर 1960 को, सावित्री घर से बाहर आई और अभियुक्त को बुलाया और उसे एक निश्चित स्थान पर मिलने के लिए कहा। बैठक के बाद, उन दोनों ने रजिस्ट्रार के कार्यालय में शादी करने की योजना बनाई और तदनुसार, अपनी शादी को पंजीकृत कराया। बाद में, युगल विभिन्न स्थानों पर चले गए।
सर्वोच्च न्यायालय में ही वरदराजन की अपील पर कानूनी मुद्दे पर सुनवाई हुई। न्यायालय के समक्ष उठाया गया महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या अभियुक्त अपने कार्य के लिए दोषी है, जिसमें कथित तौर पर अभियुक्त द्वारा व्यपहरण की गई नाबालिग ने सौभाग्य से अपने पिता की सुरक्षा को छोड़ दिया और वह जो कर रही थी उसका पूरा अर्थ समझ गई, जिससे वह स्वेच्छा से अभियुक्त के साथ शामिल हो गई। अभियुक्त की सजा तय करने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय को सबसे पहले “वैध संरक्षक की देखरेख” और “रखवाली से बाहर” वाक्यांशों की व्याख्या से संबंधित मुद्दों को हल करना होगा।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के तर्क का एक महत्वपूर्ण अध्ययन यह दर्शाता है कि यदि कोई व्यक्ति केवल नाबालिग लड़की के अपने संरक्षक के घर या उस घर को छोड़ने के इरादे को पूरा करने में सहायता करता है, जहाँ उसके संरक्षक ने उसे रखा था, तो वह व्यपहरण के अपराध का दोषी नहीं होगा। न्यायालय ने नाबालिग लड़की को “ले जाने” और “उसे केवल अपने साथ जाने की अनुमति देने” के बीच अंतर किया। न्यायालय ने टिप्पणी की कि नाबालिग को वैध संरक्षक से “ले जाना” या बहलाना व्यपहरण अपराध का एक अनिवार्य घटक है। सावित्री की ओर से, ऐसा कोई संकेत नहीं था कि उसने अपने प्रेमी के कहने पर अपने पिता का घर या अपने रिश्तेदार का घर छोड़ा था। साथ ही, न्यायमूर्ति मुधोलकर के अनुसार, एक वरिष्ठ स्नातक, जो एक महानगरीय शहर में रह चुका था, एक अपरिष्कृत (अनसॉफिस्टिकेटेड) व्यक्ति नहीं था और वह अपने लिए सोचने और स्वतंत्र रूप से कार्य करने में एक अशिक्षित ग्रामीण व्यक्ति की तुलना में कहीं अधिक सक्षम था।
न्यायालय ने आगे कहा कि, उसकी इच्छाओं का पालन करके, वरदराजन को किसी भी तरह से उसके वैध संरक्षक की देखभाल से बाहर नहीं निकाला जा सकता। उक्त घटना के बाद, वरदराजन और सावित्री दोनों पति-पत्नी के रूप में रहते थे और विभिन्न स्थानों पर जाते थे; सावित्री के साक्ष्य में ऐसा कोई संकेत नहीं था कि उसे धमकी या प्रलोभन देकर उसके साथ जाने के लिए मजबूर किया गया था। यह तथ्य कि वह हमेशा उसके साथ रही, सावित्री की अपनी पत्नी बनने की इच्छा के साथ पूरी तरह से मेल खाता था, जिसमें, निश्चित रूप से, उसके साथ जाने की इच्छा निहित थी।
इन परिस्थितियों में, न्यायालय को ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि वरदराजन पर सावित्री को उसके पिता की संरक्षता से “ले जाने” का आरोप लगाया गया था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उसने जो भूमिका निभाई, उसे लड़की के इरादे को पूरा करने में मदद करने वाला माना जा सकता है। हालाँकि, वह भूमिका नाबालिग को उसके वैध संरक्षक की अभिरक्षा से भागने के लिए प्रेरित करने से कम है और इस प्रकार, “ले जाने” के बराबर नहीं है।
परिणामस्वरूप, इस निर्णय का वास्तविक आशय यह प्रतीत होता है कि व्यपहरण के अपराध के लिए दंडित किए जाने हेतु नाबालिग के मन में संरक्षक को छोड़ने की मंशा पैदा करने में अभियुक्त का महत्वपूर्ण योगदान होना चाहिए।
हरियाणा राज्य बनाम राजा राम (1973)
इस मामले में मुख्य अभियुक्त ने 14 साल की पीड़िता को बहला-फुसलाकर उसके मायके से बाहर निकाल लिया और अपने साथ ले गया। यह बात जानकर लड़की के पिता ने अभियुक्त को उसके घर में न घुसने और लड़की से कभी बात न करने की चेतावनी दी। लड़की से संपर्क करने का कोई रास्ता न होने के कारण अभियुक्त ने प्रतिवादी राजा राम के माध्यम से लड़की को पत्र भेजना शुरू कर दिया। एक दिन राजा राम उसे अपने घर ले आया और लड़की मुख्य अभियुक्त के साथ चली गई।
तथ्यों से यह समझा जा सकता है कि प्रतिवादी मुख्य अभियुक्त नहीं है जिसने उसे बहकाया। हालाँकि, राजा राम वह माध्यम या साधन है जिसके द्वारा मुख्य अभियुक्त की योजना को पूरा किया गया। इसलिए, अदालतों के सामने यह मुद्दा है कि क्या इस मामले में प्रतिवादी राजा राम को आई.पी.सी. की धारा 361 के तहत दोषी ठहराया जा सकता है। विचारण न्यायालय ने उसे दोषी ठहराया और उच्च न्यायालय ने उसे बरी कर दिया। अपील पर मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आया।
सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट रूप से और विस्तृत तरीके से “ले जाना” और “बहलाना” शब्दों की व्याख्या की और व्यपहरण के मामलों के लिए यह व्याख्या अभी भी महत्वपूर्ण थी। इसके बाद न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विचारण न्यायालय द्वारा दी गई सजा सही थी और उसने उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया।
ठाकोरलाल डी. वडगामा बनाम गुजरात राज्य (1973)
इस मामले में अभियुक्त अक्सर वेश्याओं के पास जाता था। एक दिन उसने सोलह साल की एक लड़की को वेश्या के रूप में देखा। वह उसे बिना यह जाने कि वह शादीशुदा है और उसका पति जीवित है, अपने घर ले गया ताकि वह उसके साथ रह सके। अभियुक्त पर आई.पी.सी. की धारा 361 के तहत आरोप लगाया गया था। मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया, जहां न्यायालय ने माना कि अभियुक्त का आरोप विफल हो गया क्योंकि लड़की, जिसे कथित तौर पर अभियुक्त द्वारा अपहृत किया गया था, अपने पति की अभिरक्षा में नहीं थी, बल्कि वेश्याओं के साथ रह रही थी। इस मामले में, न्यायालय ने कहा कि शब्द “ले जाना” के लिए किसी भी बल की आवश्यकता नहीं है, चाहे वह वास्तविक हो या रचनात्मक।
कुलदीप के. महतो बनाम बिहार राज्य (1998)
इस मामले में, अभियुक्त और पीड़ित, एक बच्ची, दोनों एक ही गांव में रहते थे। अभियुक्त ने कथित तौर पर पीड़िता को बाजार में ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया। भागने के लिए, अभियुक्त ने पहले पीड़िता को एक टेम्पो में बैठने के लिए मजबूर किया और उसे चाकू से चुप रहने के लिए मजबूर किया। अभियुक्त के खिलाफ आई.पी.सी. की धारा 363, 366 और 376 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी। बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि पीड़िता अपनी मर्जी से अभियुक्त के साथ आई थी। हालांकि, अभियोजन पक्ष ने मौखिक साक्ष्य पेश करके साबित किया कि कैसे पीड़िता को टेम्पो में धमकाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आई.पी.सी. की धारा 363 के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
अशोक कुमार सेठ बनाम उड़ीसा राज्य (2003)
इस मामले में पत्नी अपने ससुराल से चली गई और अपने माता-पिता के घर में रहने लगी। बाद में, अभियुक्त पति ने अपने ससुर के घर में घुसकर अपने बेटे को अपनी पत्नी की अभिरक्षा से छुड़ा लिया। पति पर आई.पी.सी. की धारा 363 और 452 के तहत आरोप लगाए गए। उड़ीसा उच्च न्यायालय ने पाया कि पति को किसी भी अदालत द्वारा विशेष रूप से प्रतिबंधित नहीं किया गया था और इस प्रकार, यह माना गया कि अभियुक्त प्रथम दृष्टया वैध संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध का दोषी नहीं है क्योंकि वह हिंदू कानून के अनुसार उस नाबालिग बच्चे का प्राकृतिक संरक्षक था। हालांकि, आई.पी.सी. की धारा 452 के तहत संज्ञान बरकरार रखा गया।
निष्कर्ष
हालांकि बी.एन.एस. ने “व्यपहरण” शब्द को परिभाषित नहीं किया, लेकिन वैध संरक्षकता के अपराध को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया और उचित रूप से सजा निर्धारित की गई। जब भी उक्त परिभाषा में कई वाक्यांशों की व्याख्या का मुद्दा अदालतों के सामने लाया गया, तो न्यायपालिका ने स्पष्ट किया और उचित व्याख्याएँ दीं, जिससे अस्पष्टता मिट गई।
“ले जाना” शब्द की व्याख्या किसी व्यक्ति द्वारा नाबालिग के संरक्षक के स्थान को छोड़ने के इरादे को प्रभावित करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करने के सभी मामलों को शामिल करने के लिए की जा सकती है। साथ ही, यह प्रदान करके कि “ले जाने के मामले में नाबालिग का मानसिक रवैया अप्रासंगिक है,” यह मान्यता देता है कि नाबालिग अपने कार्यों के संबंध में स्वतंत्र निर्णय ले जाने में असमर्थ हैं। इस तरह, अदालतों ने बच्चों और संरक्षकों के अधिकारों की रक्षा करने और अपराधियों को उनके आपराधिक कार्यों के लिए दंडित करने के लिए वाक्यांशों की व्याख्या की।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या सामान्य कानून में व्यपहरण के अपराध के लिए इरादे के तत्व की आवश्यकता होती है?
अंग्रेजी कानून के तहत, व्यपहरण का अपराध व्यक्ति के विरुद्ध अपराध अधिनियम, 1861 की धारा 55 के तहत प्रदान किया गया था। हालाँकि, सामान्य कानून के तहत, इस अपराध को “बच्चा चोरी” कहा जाता है और इसे दुष्कर्म के लिए उत्तरदायी माना जाएगा। धारा 55 के तहत दिए गए अपराध के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं:
- अभियुक्त ने एक अविवाहित लड़की को अवैध तरीके से अगवा कर लिया।
- ऐसी लड़की की आयु सोलह वर्ष से कम होगी।
- इस प्रकार का अधिकार लड़की के पिता और माता के अधिकार से बाहर होगा।
- लड़की के पिता और माता ने इस तरह की हरकत के लिए सहमति नहीं दी।
यदि उपरोक्त सभी बातें सिद्ध हो जाती हैं तो अभियुक्त को उक्त प्रावधान के अनुसार दुष्कर्म का दोषी माना जाएगा।
इसके अलावा, उपर्युक्त आवश्यक बातों में अभियुक्त की मंशा के बारे में कोई तत्व नहीं है। इस प्रकार, यह समझा जा सकता है कि इस गलत काम के लिए दंडित किया जा सकता है, भले ही अभियुक्त का ऐसा अपराध करने का कोई इरादा न हो। यह आर बनाम प्रिंस (1875) के मामले में माना गया था, जहां एक लड़की, जो वास्तव में सोलह वर्ष से कम उम्र की थी, को उसके माता-पिता की सहमति के बिना अभियुक्त द्वारा ले जाया गया था। अभियुक्त ने तर्क दिया कि वह वास्तव में मानता है कि वह अठारह वर्ष की थी, जैसा कि लड़की ने उसे बताया था और उसने दलील दी कि उसका यह गलत काम करने का कोई इरादा नहीं था। अदालत ने उसकी दलील को खारिज कर दिया और माना कि एक व्यक्ति को उसके दुष्कर्म के लिए दंडित किया जाएगा, भले ही वह मानता हो, या उसके पास यह मानने के आधार हों, कि ले जाई गई लड़की सोलह वर्ष से अधिक उम्र की थी।
इसलिए, व्यपहरण का अपराध ऐसा अपराध है जिसके लिए मेन्स रीया की आवश्यकता नहीं होती है और गलत कार्य को ही दंडित किया जाएगा, हालांकि मेन्स रीया का तत्व किसी भी अपराध के आवश्यक तत्वों में से एक है। ऐसा इस अपराध की गंभीरता के कारण है।
क्या प्रथा द्वारा मान्यता प्राप्त जबरन व्यपहरण बी.एन.एस. की धारा 137(2) के अंतर्गत दंडनीय होगा?
कंधा जनजाति के रीति-रिवाजों के अनुसार, किसी पुरुष द्वारा लड़की का जबरन व्यपहरण करना और फिर दोनों पक्षों के परिवारों की पूरी सहमति प्राप्त करने के बाद उससे शादी करना विवाह के मान्यता प्राप्त रूपों में से एक है। दत्ता प्रधान एवं अन्य बनाम उड़ीसा राज्य (1985) के मामले में अभियुक्त इसी कंधा जनजाति से संबंधित है; उसने एक विवाहित लड़की को उसके वैध संरक्षक की सहमति के बिना जबरन अगवा किया और फिर उसके साथ विवाह किया जिसके लिए वर और वधू दोनों के परिवार सहमत थे। उड़ीसा उच्च न्यायालय ने कहा कि, यदि उसने ऐसी प्रथा की अनुमति दी है, तो व्यपहरण का गंभीर अपराध वैध माना जाता है और इस प्रकार, दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया।
क्या कोई भी व्यक्ति जिसके पास बच्चे की अभिरक्षा है, बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के प्रयोजन के लिए वैध संरक्षक हो सकता है?
बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के तहत दिए गए स्पष्टीकरण के अनुसार, एक व्यक्ति, जिसके पास किसी नाबालिग व्यक्ति की देखभाल और अभिरक्षा है, उसे बच्चे का वैध संरक्षक कहा जाता है, बशर्ते उसे ऐसी अभिरक्षा विधि द्वारा स्वीकृत वैध सौंपे गए तरीके से प्राप्त करनी चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि उस व्यक्ति के पास उस बच्चे की देखभाल करने का कोई कर्तव्य या दायित्व हो, लेकिन, यदि ऐसी अभिरक्षा किसी गैरकानूनी या अवैध तरीके से प्राप्त की गई थी, तो ऐसा व्यक्ति बी.एन.एस. की धारा 137(1)(b) के उद्देश्य के लिए वैध संरक्षक की श्रेणी में नहीं आ सकता है।
बी.एन.एस. की धारा 87 और 84 के अंतर्गत अपराधों में क्या अंतर है?
बी.एन.एस. की धारा 87 किसी महिला को जबरन शादी के लिए मजबूर करने, अवैध संबंध बनाने आदि के अपराध से संबंधित है; जबकि बी.एन.एस. की धारा 84 किसी विवाहित महिला को ले जाने या बहलाने के अपराध से संबंधित है। हालाँकि धारा 87 और 84 के अंतर्गत आने वाले तत्व समान प्रतीत होते हैं, लेकिन दोनों अलग-अलग अपराध हैं और धारा 84 में कुछ और तत्व हैं जो धारा 87 में अनुपस्थित हैं। अतिरिक्त तत्व, जो धारा 87 में नहीं पाए जाते हैं, वे इस प्रकार हैं:
- जिस महिला को अभियुक्त द्वारा बहला-फुसलाकर ले जाया गया था, वह विवाहित महिला थी; तथा
- व्यपहरण का अपराध करते समय आरोपियों को इस तथ्य की जानकारी थी।
बी.एन.एस. की धारा 87 के तहत दोषी पाए जाने पर, दोषी को दस साल तक की अवधि के लिए साधारण या कठोर कारावास की सज़ा दी जाएगी, साथ ही जुर्माना भी लगाया जाएगा। जबकि, बी.एन.एस. की धारा 84 के तहत अपराध के लिए, दो साल तक की अवधि के लिए कारावास या जुर्माना या कारावास और जुर्माना दोनों की सज़ा दी जा सकती है।
संदर्भ
- “The Indian Penal Code” authored by Ratanlal and Dhirajlal.
- “Indian Penal Code” authored by R.N. Saxena