देवी दास गोपाल कृष्णन बनाम पंजाब राज्य (1967)

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यह लेख Janani Parvathy J द्वारा लिखा गया है। इसमें देवी दास गोपाल कृष्णन बनाम पंजाब राज्य (1967) मामले के तथ्यों, कानून के सवालों, पक्षों की दलीलों और अदालत द्वारा दिए गए फैसले का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। यह लेख आगे राज्य द्वारा लगाए गए खरीद करों की वैधता का विश्लेषण करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

देवी दास गोपाल कृष्णन और अन्य बनाम पंजाब राज्य (1967), बिक्री और खरीद कर से संबंधित एक ऐतिहासिक सिविल मामला है। 1960 के दशक में स्थापित, यह मामला खरीद करों की वैधता को मंजूरी देने के लिए महत्वपूर्ण है। परंपरागत रूप से, वस्तुओं और सेवाओं पर कई चरणों यानी कच्चे माल से लेकर अंतिम उत्पाद चरण तक, में कर लगाया जाता था। पंजाब सरकार ने, 1958 में, पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1948 में संशोधन किया, जिससे वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री पर खरीद कर लगाया गया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लोहा, कपास और तिलहन (ऑयल सीड्स) पर खरीद कर की वैधता पर सवाल उठाया गया था। 

संविधान की राज्य सूची की प्रविष्टि 54 राज्य को वस्तुओं की खरीद और बिक्री पर कर लगाने का अधिकार देती है। राज्यों के कर लगाने का अधिकार अनुच्छेद 286 द्वारा प्रतिबंधित है। अनुच्छेद 286 राज्य को वस्तुओं और सेवाओं के अंतर-राज्य व्यापार पर कर लगाने से प्रतिबंधित करता है और आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के कराधान के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी को अनिवार्य बनाता है। पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1948 भारत के सबसे पुराने राज्य कर कानूनों में से एक के रूप में मद्रास बिक्री कर अधिनियम, 1939 का अनुसरण करता है। पंजाब सरकार से प्रेरित होकर, कई अन्य राज्यों ने जल्द ही वस्तुओं और सेवाओं पर खरीद कर लगाना शुरू कर दिया।

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: देवी दास गोपाल कृष्णन और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य
  • समतुल्य उद्धरण: 1967 एआईआर 1895, 1967 एससीआर (3) 557, एआईआर 1967 सर्वोच्च न्यायालय 1895
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • अपीलकर्ता: देवी दास गोपाल कृष्णन और अन्य
  • प्रतिवादी: पंजाब राज्य और अन्य
  • फैसले की तारीख: 10 अप्रैल, 1967

मामले के तथ्य

  • वर्तमान मामले में तीन अपीलकर्ता थे, जिनमें से प्रत्येक ने क्रमशः 1964 की याचिका 526, 527, और 529 के माध्यम से अदालत का दरवाजा खटखटाया था। सभी अपीलकर्ता मोगा, पंजाब में एक तेल मिल के मालिक हैं जहां बीजों से तेल निकाला जाता है और अवशेष (रेसिड्यू) को तेल केक के रूप में बेचा जाता है। पहले से ही लगाए जाने वाले बिक्री कर के अलावा, पंजाब बिक्री कर (संशोधन अधिनियम), 1958 ने तेल पर 2% का खरीद कर लगाया। अपीलकर्ताओं ने तिलहन पर लगाए गए खरीद कर का भुगतान करने से इनकार कर दिया। इसके बाद, फिरोजपुर के आबकारी (एक्साइज) एवं कराधान अधिकारी ने कानूनी कार्यवाही शुरू करने की धमकी दी। अपीलकर्ताओं ने संशोधन की वैधता पर सवाल उठाते हुए एक रिट याचिका के माध्यम से पंजाब उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने तेल विक्रेताओं की अपील को खारिज कर दिया। 
  • इस मामले में, 1965 की सिविल अपील संख्या 39 से 43 गोबिंदगढ़ में एक रोलिंग स्टील व्यवसाय के मालिकों द्वारा दायर की गई थी। अपीलकर्ताओं ने स्टील सिल्लियां और स्टील स्क्रैप खरीदे और उन्हें रोल्ड स्टील में बदल दिया। संशोधन अधिनियम ने स्टील स्क्रैप और स्टील सिल्लियों पर 2% खरीद कर लगाया। अपीलकर्ताओं ने इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी और कर लगाने पर रोक लगाने की मांग की। इसी तरह तेल के मामले में फैसले में उच्च न्यायालय की खंड पीठ ने कर लगाने की मंजूरी दे दी।
  • इसके अलावा, 1965 की अपील संख्या 81 और 540 उच्च न्यायालय के समक्ष की गईं। इस याचिका के अपीलकर्ता बिड़ला शिक्षा न्यास (ट्रस्ट) के न्यासी (ट्रस्टी) और भिवानी में एक कपड़ा मिल के मालिक थे। अपीलकर्ताओं ने कपड़े बनाने के लिए कई व्यापारियों से कपास खरीदा। बाद में, 11 मार्च 1962 को जिला कराधान अधिकारी, हिसार ने अपीलकर्ताओं से खरीद कर का भुगतान करने का अनुरोध किया। प्रतिक्रिया के रूप में, न्यासियो ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने इस मामले में अपने पिछले निर्णयों के अनुरूप फैसला सुनाया। 
  • उपरोक्त तीन मामलों के अपीलकर्ताओं ने क्रमशः तिलहन, लोहा और कपास पर लगाए गए खरीद कर को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। सर्वोच्च न्यायालय ने इन अपीलों को एक साथ जोड़ दिया, क्योंकि उनके मुद्दे समान थे। विशेष रूप से, उन्होंने पंजाब बिक्री कर अधिनियम 1948 की धारा 5 और उसके बाद के संशोधन को चुनौती दी। पंजाब बिक्री कर अधिनियम की धारा 5 ने सरकार को वस्तुओं पर खरीद कर लगाने का अधिकार दिया था, इसके अलावा संशोधन ने कर सीमा को 2% तक सीमित कर दिया था। पंजाब उच्च न्यायालय ने पहले ही माना था कि धारा 5 शून्य थी। 

मामले में उठाए गए मुद्दे

  • क्या पंजाब बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 5 शून्य थी?
  • क्या यह संशोधन धारा को शून्य होने की स्थिति में जीवन प्रदान कर सकता है? 

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता

  • श्री एमसी सीतलवाड ने तेल मिल के मालिकों का प्रतिनिधित्व किया। सर्वोच्च न्यायालय ने श्री एम.सी. सीतलवाड के तर्कों पर प्रकाश डाला और उन्होंने महसूस किया कि इसने अन्य अपीलों के तर्कों को भी पर्याप्त रूप से सारांशित किया है। 
  • वकील ने तर्क दिया कि पूर्वी पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 5 को शून्य पाया गया क्योंकि यह प्रांतीय सरकार को वस्तुओं के कराधान के संबंध में कानून बनाने का अत्यधिक अधिकार देता है। वकील ने बताया कि चूंकि धारा 5 दायित्व डालने वाला कानून था यानी, वह धारा जो कर लगाती थी, और उच्च न्यायालय द्वारा शून्य घोषित कर दी गई थी, इसलिए, पूरा अधिनियम शून्य था। वकील ने आगे तर्क दिया कि 1952 के अधिनियम 19 के माध्यम से किसी शून्य कानून में कोई भी बाद का संशोधन भी शून्य होगा।
  • इसके अलावा, वकील ने तर्क दिया कि 1958 अधिनियम द्वारा शुरू किए गए ‘खरीद’ कर असंवैधानिक थे। उन्होंने तर्क दिया कि यह 7वीं अनुसूची (राज्य सूची) की प्रविष्टि 52 के तहत परिभाषित कर योग्य इकाई यानी ‘बिक्री’ के विपरीत था और खरीद कर के तहत लगाए गए ‘उत्पाद शुल्क’ शुल्क के समान था। इसलिए, वकील ने तर्क दिया कि अधिनियम द्वारा लगाए गए कर वास्तव में खरीद कर के समान नहीं थे और इसलिए अमान्य थे। 
  • इसके अलावा, वकील ने लगाए गए करों की भेदभावपूर्ण प्रकृति पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि जहां निर्माताओं पर खरीद कर लगाया गया था, वहीं व्यापारियों को इससे छूट दी गई थी
  • वकील ने तब तर्क दिया कि संशोधित धारा 2(ff) ने केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम, 1956 की धारा 14 और 15 का उल्लंघन किया है, जो उत्पादन के कई चरणों में कराधान को प्रतिबंधित करता है, लेकिन वर्तमान मामले में, उत्पादन और बिक्री चरणों पर कर लगाया गया था। इसके अतिरिक्त, वकील ने तर्क दिया कि तेल मिल मालिकों ने तिलहन का उत्पादन/निर्माण नहीं किया, बल्कि केवल तेल बनाया।

प्रतिवादी

  • प्रतिवादी के वकील ने कलकत्ता निगम बनाम लिबर्टी सिनेमा (1964) पर भरोसा किया। वकील ने लिबर्टी सिनेमा मामले पर भरोसा करते हुए कहा कि राज्य अपने वैधानिक कर्तव्य के प्रदर्शन के लिए यदि आवश्यक हो तो कर लगा सकता है। वकील ने तर्क दिया कि लिबर्टी सिनेमा मामले के समान, वर्तमान मामले में भी, राज्य को कर लगाने का अधिकार था।
  • राज्य के वकील ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 162 के तहत, कार्यपालिका के पास राज्य विधानमंडल के अधिकार क्षेत्र के तहत सभी मामलों पर शक्ति थी और कराधान उनमें से एक था। वकील ने तर्क दिया कि राज्य विधायिका के पास अपने वैधानिक कर्तव्य के प्रदर्शन के लिए धन जुटाने की शक्ति है। उन्होंने संवैधानिक और वैधानिक जरूरतों के सिद्धांत पर भरोसा करते हुए कहा कि राज्य की कार्यकारी संस्था को कर तय करने और लगाने का अधिकार है। इसलिए, वकील ने तर्क दिया कि उचित आवश्यकता पर, राज्य वर्तमान मामले में भी अतिरिक्त कर लगाने का हकदार है।
  • वकील ने अपने मामले को साबित करने के लिए कई उदाहरणों का भी हवाला दिया। वकील ने मद्रास राज्य बनाम गैनन डंकर्ले एंड कंपनी, (मद्रास) लिमिटेड (1958), का हवाला यह उजागर करने के लिए दिया कि राज्य वैधानिक रूप से कर तय करने के लिए सशक्त था। 
  • इसके अलावा, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि राज्य के पास कर दरें तय करने की भी शक्ति है। उन्होंने तर्क दिया कि यद्यपि प्रथम दृष्टया विधानमंडल ने राज्य को कर की दरें तय करने की शक्ति नहीं सौंपी है, लेकिन संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

देवी दास गोपाल कृष्णन बनाम पंजाब राज्य (1967) में शामिल कानून

पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम के प्रावधान

पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 5

यह धारा राज्य को वस्तुओं और सेवाओं पर लगाए गए करों की दर तय करने का अधिकार देती है। मूल धारा के अनुसार, लगाए जाने वाले करों की दर पर कोई रोक नहीं थी। इसलिए, पहले पंजाब उच्च न्यायालय द्वारा विधायिका को अत्यधिक शक्ति प्रदान करने के लिए इस धारा को शून्य ठहराया गया था। 

संशोधन अधिनियम, 1952 की धारा 5 

इस धारा ने 1948 अधिनियम की धारा 5 में संशोधन किया। इसने उन करों पर एक सीमा लगा दी जो राज्य द्वारा लगाए जा सकते थे। इस संशोधन द्वारा वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री और खरीद पर 2% कर की सीमा लगा दी गई।

पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 4 और 6 

पंजाब बिक्री कर अधिनियम की धारा 4 में बिक्री कर का भुगतान करने के लिए व्यापारियों और खुदरा विक्रेताओं (रिटेलर) की जिम्मेदारी का विवरण दिया गया है। धारा कहती है कि जब व्यापारी का टर्नओवर कर योग्य राशि से अधिक हो तो कर तीस दिनों के भीतर देय होना चाहिए। इसके अलावा, धारा ‘अन्य व्यापारियों’ सहित विभिन्न व्यापारिक व्यापारियों के लिए टर्नओवर की कर योग्य मात्रा निर्दिष्ट करती है, जिसके अंतर्गत इस मामले में अपीलकर्ता आ सकते हैं। पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम 1948 की धारा 6 माल को करों से छूट प्रदान करती है। धारा निर्दिष्ट करती है कि अनुसूची B के तहत वस्तुओं पर कर नहीं लगाया जा सकता है, और यदि राज्य का इरादा है तो उन्हें न्यूनतम 20 दिनों की पूर्व सूचना देनी होगी। 

भारतीय संविधान के प्रावधान

संविधान का अनुच्छेद 14 

अनुच्छेद 14 ‘समानता के अधिकार’ की व्याख्या करता है। अनुच्छेद में दो भाग हैं। पहला भाग यह बताता है कि कानून के समक्ष समानता का अभ्यास किया जाना चाहिए। यह निर्दिष्ट करता है कि राज्य जाति, धर्म या किसी अन्य पैरामीटर के आधार पर नागरिकों के खिलाफ भेदभाव नहीं कर सकता है और कानून के समक्ष सभी नागरिकों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। दूसरा भाग निर्दिष्ट करता है कि सभी नागरिकों को, वर्ग, नस्ल, जाति या अन्य मतभेदों के बावजूद, एक ही कानून का पालन करना चाहिए और उसके द्वारा शासित होना चाहिए। इसके बाद, कुछ उदाहरणों द्वारा, अनुच्छेद 14 का दायरा बढ़ाया गया। अनुच्छेद 14 नागरिकों को राज्य के मनमाने, पक्षपातपूर्ण और हानिकारक निर्णयों से बचाता है। इसके अलावा, सकारात्मक भेदभाव के सिद्धांत को इस अनुच्छेद के तहत एक आवश्यक अपवाद के रूप में निर्धारित और अनुमोदित किया गया था। वर्तमान मामले में, याचिकाकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया था कि अधिनियम के माध्यम से लगाए गए करों से अनुच्छेद 14 का उल्लंघन किया जा रहा है क्योंकि यह चुनिंदा रूप से लागू है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस दलील को खारिज कर दिया।

संविधान का अनुच्छेद 162  

अनुच्छेद 162 राज्य की कार्यकारी शक्ति का दायरा निर्दिष्ट करता है। अनुच्छेद निर्दिष्ट करता है कि राज्य सरकार की कार्यकारी शक्ति संविधान या राज्य विधायिका द्वारा निर्दिष्ट अधिकार क्षेत्र तक सीमित है। राज्य की कार्यकारी शक्ति सातवीं अनुसूची में निर्दिष्ट राज्य सूची की वस्तुओं तक सीमित है। अनुच्छेद 162 केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों के सीमांकन को समझने में महत्वपूर्ण था। सर्वोच्च न्यायालय ने खरीद कर लगाने की वैधता की जांच करने के लिए अनुच्छेद 162 का विश्लेषण किया।

संविधान का अनुच्छेद 286

यह अनुच्छेद राज्य द्वारा कर लगाने पर लगाए गए प्रतिबंधों से संबंधित है। खंड एक राज्य को निर्यातित, आयातित और राज्य के अधिकार क्षेत्र से बाहर की वस्तुओं पर कर लगाने से रोकता है। हालाँकि, अनुच्छेद 286(2) के माध्यम से, राज्य विधायिका खंड एक के तहत निर्दिष्ट वस्तुओं के प्रकार के संबंध में सिद्धांत बना सकती है। इसके अलावा, खंड तीन राज्य को अंतर-व्यापार वस्तुओं पर कर लगाने का भी अधिकार देता है, बशर्ते कर राज्य के लिए महत्वपूर्ण हो। अनुच्छेद 286 कराधान मामलों के संबंध में राज्य की शक्तियों और अधिकार क्षेत्र को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

देवी दास गोपाल कृष्णन बनाम पंजाब राज्य (1967) में निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब बिक्री कर अधिनियम की धारा 5 की वैधता और इसके संशोधन का विश्लेषण किया। अदालत ने वैधानिक आवश्यकता के सिद्धांत, प्रत्यायोजन (डेलिगेशन) के सिद्धांत का विश्लेषण किया कि क्या राज्य के कार्यकारी निकाय के पास कर तय करने की शक्तियां हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दी और राज्य के पक्ष में फैसला सुनाया और उन्हें कर लगाने का अधिकार दे दिया। अदालत ने कहा कि राज्य इसके रखरखाव के लिए उचित कर लगा सकता है।

फैसले के पीछे तर्क 

  • इस मामले के वास्तविक फैसले से पहले, अदालत ने पंजाब बिक्री कर अधिनियम की धारा 5 की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला। सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 5 और उसके संशोधन (1958 का अधिनियम 19) का विश्लेषण किया। पंजाब बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 5 राज्य को किसी भी व्यापारी के माल पर बिक्री और खरीद कर लगाने का अधिकार देती है। बाद में, धारा 5 के 1958 के दूसरे संशोधन में अधिकतम 2% कर लगाने की अनुमति दी गई। 
  • पंजाब उच्च न्यायालय ने माना कि पंजाब बिक्री कर अधिनियम की प्रारंभिक धारा 5 शून्य थी। हालाँकि, अदालत ने यह भी कहा कि धारा में संशोधन ने इसे नया जीवन दिया है। अदालत के समक्ष प्रश्न धारा 5 की वैधता और इसके संशोधन के महत्व के संबंध में थे। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्यपि इस विषय पर कानून पहले से ही अच्छी तरह से तय हो चुका है, फिर भी कुछ स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। अदालत ने कलकत्ता निगम बनाम लिबर्टी सिनेमा (1964) के मामले का विश्लेषण किया। इस मामले में, एक सिनेमा घर पर लगाए गए कर और कर संग्रह को किसी अन्य वैधानिक प्राधिकरण को सौंपने पर विवाद था। अदालत ने लिबर्टी सिनेमा मामले में कहा कि नगर पालिकाएं और राज्य सरकारें अतिरिक्त कर लगाने की हकदार हैं, बशर्ते राज्य को अपने वैधानिक कर्तव्य को पूरा करने के लिए मौद्रिक सहायता की आवश्यकता हो।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि लिबर्टी सिनेमा मामले को एक मिसाल माना जाता है जिसमें कहा गया है कि कर संग्रह को राज्य से किसी अन्य वैधानिक निकाय को सौंपा जा सकता है, तो इसका मतलब यह है कि वैधानिक प्राधिकरण के पास कर तय करने की शक्ति भी है। हालाँकि, अदालत ने इसके विपरीत माना कि जब किसी प्रावधान में वैधानिक उद्देश्यों का उल्लेख किया गया था, तो यह स्वचालित रूप से वैधानिक प्राधिकारी को कर तय करने और लगाने का अधिकार नहीं देता है, बल्कि यह प्रावधान की शर्तों के आधार पर भिन्न होता है। 

पंजाब बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 5 की वैधता

  • इसके अलावा, अदालत ने प्रतिवादियों के अगले तर्क का विश्लेषण किया। प्रतिवादियों ने दावा किया कि अपने संवैधानिक कर्तव्यों के सुचारू कामकाज के लिए, राज्य कर लगाने का हकदार है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस दलील को खारिज कर दिया।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कलकत्ता निगम बनाम लिबर्टी सिनेमा मामले में फैसला कलकत्ता नगरपालिका अधिनियम के प्रावधानों तक सीमित था और इसे पंजाब बिक्री अधिनियम तक नहीं बढ़ाया जा सकता। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि बिक्री कर अधिनियम यह निर्दिष्ट नहीं करता है कि राज्य को कर दरें तय करने का अधिकार है। 
  • इसके अलावा, न्यायालय ने माना कि मद्रास राज्य बनाम गैनन डंकरले एंड कंपनी (1958) ने भी प्रतिवादियों के तर्क को खारिज कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने गैनन डंकर्ले मामले को यह कहते हुए अलग कर दिया कि यह वर्तमान मामले के लिए अप्रासंगिक है क्योंकि यह कर दरों के निर्धारण से संबंधित नहीं है। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने वसंतलाल मगनभाई संजनवाला बनाम बॉम्बे राज्य (1960) और भारत संघ बनाम मेसर्स भाना मल गुलजारी मल (1959) का भी उल्लेख किया।
  • इसके अलावा, अदालत ने कहा कि पंजाब बिक्री अधिनियम, 1948 की धारा 5 राज्य को असाधारण कराधान शक्तियां प्रदान करती है, लेकिन शक्ति के प्रत्यायोजन की अनुमति देने वाला कोई अलग प्रावधान मौजूद नहीं है। इसलिए, अदालत ने राज्य के इस तर्क को खारिज कर दिया कि कराधान की शक्ति प्रत्यायोजित की जा सकती है। इसके अलावा, राज्य को कर निर्धारण का अधिकार प्रदान करने वाला कोई वैधानिक प्रावधान मौजूद नहीं था। इसलिए, अदालत ने पाया कि किसी विशेष क़ानून या दिशानिर्देश के अभाव में, पंजाब बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 5 अमान्य थी। 

दायित्व डालने वाली धारा 

  • इसके अलावा, अदालत ने अपीलकर्ताओं के दूसरे तर्क का जवाब मांगा। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि पंजाब केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 4, 5 और 6 परस्पर संबंधित थीं और यदि धारा 5 शून्य थी, तो धारा 4 और 6 भी शून्य थीं। इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि यदि दायित्व डालने वाली धारा ही शून्य थी तो पूरा अधिनियम भी शून्य था। अदालत ने उत्तर निर्धारित करने के लिए धारा 4 और 6 का विश्लेषण किया। 

  • अदालत ने पाया कि पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 4 एक दायित्व डालने वाली धारा थी, धारा 5 करों के निर्धारण को अधिकृत करती थी और धारा 6 कुछ वस्तुओं को करों से छूट देती थी। धारा 6 में निर्दिष्ट किया गया है कि अनुसूची B के तहत सूचीबद्ध वस्तुओं को करों से छूट दी गई है। अदालत ने कहा कि यह सवाल कि क्या धारा 5 को शून्य घोषित किए जाने पर धारा 4 शून्य हो जाएगी, दो उप-प्रश्नों पर निर्भर करेगा। पहला, क्या धारा 5 एक दायित्व डालने वाली धारा थी और दूसरी, यदि धारा 4 अकेली दायित्व डालने वाली धारा थी और धारा 5 के अंतर्गत थी, तो क्या धारा 4 अब शून्य थी। 
  • अदालत ने केसोराम इंडस्ट्रीज एंड कॉटन मिल्स लिमिटेड बनाम धन-कर आयुक्त, (केंद्रीय), कलकत्ता (1965) का विश्लेषण किया। केसोराम इंडस्ट्रीज मामले में, आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 3 का विश्लेषण किया गया और यह देखा गया कि आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 3 एक दायित्व डालने वाली धारा थी और वित्त अधिनियम करों के निर्धारण के लिए संदर्भ थे।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने आयकर अधिनियम और पंजाब बिक्री कर अधिनियम के बीच कई समानताएं देखीं। अदालत ने कहा कि दोनों अधिनियम करों की मात्रा और परिवर्तनशीलता में उचित रूप से अंतर करते हैं। इन अधिनियमों के बीच एकमात्र अंतर यह था कि जबकि पंजाब बिक्री कर अधिनियम विशेष रूप से धारा 5 के तहत करों के निर्धारण के लिए प्रदान करता था, आयकर ऐसा नहीं करता है। 
  • इसके अलावा, अदालत ने पाया कि आयकर अधिनियम वित्त अधिनियम से स्वतंत्र है और कर की गैर-मात्रा निर्धारण से भुगतान करने का दायित्व समाप्त नहीं होता है। इसके अलावा, अदालत ने धारा 67B की ओर इशारा किया, जिसमें कहा गया है कि जब तक कोई नया अधिनियम पारित नहीं हो जाता, तब तक वित्त अधिनियम के प्रावधान लागू रहेंगे। इसके बाद, अदालत ने एक अन्य मामले, बी शमा राव बनाम केंद्र शासित प्रदेश पांडिचेरी (1967), का विश्लेषण किया जिसने मद्रास सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1989 की कुछ धाराओं की वैधता का विश्लेषण किया। सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामला मद्रास सामान्य बिक्री कर अधिनियम 1959 से अलग था। शमा राव मामले में, विचाराधीन धाराएं शून्य पाई गईं क्योंकि वे दायित्व डालने वाली धारा के बिना अप्रासंगिक थीं।

सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि, मद्रास सामान्य बिक्री कर अधिनियम मामले के विपरीत, वर्तमान मामले में, दायित्व डालने वाली धारा अपरिवर्तित था और केवल कर निर्धारण से संबंधित धारा को बदल दिया गया था। इसलिए, अदालत ने माना कि धारा 4 शून्य नहीं होगी क्योंकि धारा 5 को शून्य ठहराया गया था। 

धारा 5 में संशोधन

  • अदालत के सामने अगला सवाल यह था कि क्या धारा 5 में संशोधन भी शून्य होगा क्योंकि धारा गैर-स्थायी थी (यानी, शुरुआत से ही शून्य थी)। धारा 5 में संशोधन में ‘2% से अधिक नहीं’ वाक्यांश पेश किया गया। अदालत ने पाया कि संशोधन में केवल लगाए गए करों की अधिकतम सीमा जोड़ी गई है, लेकिन उस प्राधिकारी के बारे में कोई चर्चा नहीं की गई है जो कर तय कर सकता है। इसके अलावा, न्यायालय ने पाया कि संशोधन में कर निर्धारण के लिए किसी प्राधिकारी को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट नहीं किया गया है, लेकिन चूंकि यह बिक्री कर से संबंधित है, इसलिए सरकार को विवेकाधिकार दिया जा सकता है। 
  • अदालत ने आगे कहा कि सरकार को मनमाने ढंग से दरें तय करने की शक्ति नहीं दी जा सकती। हालाँकि, यह तर्क दिया गया कि 1-2% का कर महत्वहीन था और इसलिए, न्यायालय ने माना कि ऐसा संशोधन वैध था। 

धारा 2(ff) 

  • वकील का अगला तर्क यह था कि एक संशोधन के माध्यम से डाली गई धारा 2(ff) अमान्य थी। धारा 2(ff) ‘खरीद’ को मूल्यवान प्रतिफल (कंसीडरेशन) के लिए अनुसूची C के तहत निर्दिष्ट वस्तुओं की खरीद के रूप में परिभाषित करती है। अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि इस अधिनियम के तहत खरीद की परिभाषा बिक्री की परिभाषा से अधिक व्यापक थी और इसलिए, विधायिका माल की बिक्री और खरीद दोनों पर कानून नहीं बना सकती है। न्यायालय ने मद्रास राज्य बनाम गैनन डंकरले एंड कंपनी (मद्रास) लिमिटेड, बिक्री-कर अधिकारी बनाम बुद्ध प्रकाश (1964) और जॉर्ज ओक्स बनाम मद्रास राज्य (1961) द्वारा दी गई बिक्री की परिभाषा का विश्लेषण किया। 
  • उपर्युक्त मामलों के निष्कर्षों के साथ, सर्वोच्च न्यायालय ने ‘खरीद’ और ‘बिक्री’ की व्याख्या की। खरीद को किसी प्रतिफल के लिए माल के अधिग्रहण के रूप में परिभाषित किया गया था, बंधक (मॉर्गेज) या ऋण के तहत नहीं। न्यायालय ने कहा कि बिक्री, कुछ प्रतिफल के लिए संपत्ति का हस्तांतरण था। 
  • इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि ‘बिक्री’ और ‘खरीद’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इन दोनों में समान तत्व शामिल हैं। न्यायालय ने आगे कहा कि खरीद बिक्री का केवल एक अलग पहलू थी और लेनदेन भी वही था। न्यायालय ने दो शब्दो ‘अधिग्रहण’ और ‘बिक्री’ पर ध्यान केंद्रित किया और उन्हें अलग-अलग पाया। धारा 2(ff) के विश्लेषण के बाद, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि इसके तहत ‘अधिग्रहण’ या खरीद का मतलब केवल ‘हस्तांतरण’ या बिक्री है। 
  • अगले शब्द ‘कीमत’ की व्याख्या करते समय, न्यायालय ने धारा 2(ff), धारा 2(h) और बिक्री कर अधिनियम का विश्लेषण किया। न्यायालय ने तब निष्कर्ष निकाला कि कीमत आम तौर पर मौद्रिक प्रतिफल को संदर्भित करती है। इसलिए, चूंकि अदालत को धारा 2(ff) के तहत परिभाषा में कोई अनियमितता नहीं मिली, अदालत ने माना कि धारा शून्य नहीं थी। 

अनुच्छेद 14 का उल्लंघन

  • अगला तर्क यह था कि पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम की धारा 2(ff) अनुच्छेद 14 के तहत समानता का उल्लंघन करती है। अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया था कि वही सामान, यदि किसी निर्माता द्वारा खरीदा जाता है, तो कर लगाया जाना चाहिए, और यदि किसी और द्वारा खरीदा जाता है, तो उस पर कर नहीं लगाया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया और पाया कि निर्माता द्वारा लाए गए सामान और अन्य व्यापारियों द्वारा लाए गए सामान के बीच अंतर था। अदालत ने बताया कि निर्माता कच्चा माल खरीदते हैं, जिस पर अलग से कर लगाने की जरूरत है। इसलिए, न्यायालय ने पाया कि विभिन्न कराधान में उचित अंतर मौजूद है।

खरीद कर, उत्पाद शुल्क नहीं

  • अपीलकर्ताओं का अगला तर्क यह था कि धारा 2(ff) के तहत परिभाषा केवल वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण के लिए वस्तुओं की खरीद को संदर्भित करती है। इसलिए, अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि कर एक उत्पाद शुल्क था जो राज्य के अधिकार क्षेत्र से परे था। इस मुद्दे का उत्तर देने के लिए, न्यायालय को यह विश्लेषण करना था कि कर माल की बिक्री या खरीद पर लगाया गया था या नहीं। न्यायालय ने कहा कि वस्तुओं के निर्माण पर उत्पाद शुल्क लगाया जाना चाहिए, जैसा कि शिंदे ब्रदर्स बनाम डिप्टी कमिश्नर (1966) मामले में माना गया था। 
  • इसके अलावा, न्यायालय ने पाया कि जिस उद्देश्य के लिए कर लगाए गए थे वह केवल करों के निर्धारण के लिए प्रासंगिक था, और इससे अधिक कुछ नहीं। इसलिए, अदालत ने माना कि कर एक खरीद कर था न कि उत्पाद शुल्क। 

एकाधिक कर 

  • अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि राज्य सरकार द्वारा लगाया गया 2% कर केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम, 1956 की धारा 15 का उल्लंघन है। केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम, 1956 की धारा 15 राज्य पर कई स्तरों पर कर नहीं लगाने का प्रतिबंध लगाती है। हालाँकि, अदालत ने इस तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि बेचा गया सामान और खरीदा गया सामान अलग-अलग थे, और इसलिए वे दो अलग-अलग कर थे और व्यक्तिगत रूप से मान्य थे। 
  • अपीलकर्ताओं का अगला तर्क यह था कि कर केवल निर्मित वस्तुओं पर लगाया गया था। अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया था कि कर केवल तिलहन पर लगाया जाना चाहिए, तेल पर नहीं, क्योंकि तिलहन का उपयोग तेल पैदा करने के लिए किया जाता था। अदालत ने कहा कि अधिनियम प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) और विनिर्माण के बीच अंतर करता है। अपीलकर्ताओं ने भारत संघ बनाम दिल्ली कपड़ा और सामान्य मिलें (1962) के मामले पर भरोसा किया था। हालाँकि, अदालत ने अपीलकर्ता की दलीलों को खारिज कर दिया और इसके विपरीत फैसला सुनाया। इसलिए, अदालत ने माना कि तेल पर कर वैध थे। 

सिविल अपील संख्या 39 से 43 

  • अपीलकर्ताओं का अगला तर्क यह था कि स्टील को लोहे में बदलने से माल का निर्माण नहीं होता है। हालाँकि, अदालत ने पाया कि स्टील को लोहे में बदलने पर कई बदलाव होते हैं और इसलिए, यह प्रक्रिया विनिर्माण की तरह होती है।

केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम, 1958 की धारा 15

  • इसके बाद अदालत ने केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम की धारा 15 में संशोधन का विश्लेषण किया। अदालत ने देखा कि संशोधन से पहले धारा 15 में केवल उस चरण का वर्णन किया गया था जिस पर कर लगाया गया था, और संशोधन के बाद की धारा केवल उन चरणों को सीमित करती थी जिन पर इसे लगाया जा सकता था। अदालत ने इसके बाद मेसर्स मोदी स्पिनिंग एंड वीविंग मिल्स कंपनी लिमिटेड बनाम आयकर आयुक्त, पंजाब एवं अन्य (1964) का विश्लेषण किया, जहां अनुच्छेद 286(3) के उद्देश्य का विश्लेषण किया गया और यह माना गया कि अनुच्छेद 286 ने संसद के कानून के अनुसार केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम की दायित्व डालने वाली धाराओं को संशोधित किया। अक्टूबर 1958 में केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम में संशोधन से पहले, कर केवल राज्य के भीतर निर्मित वस्तुओं पर लगाया जा सकता था और केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम, 1958 में संशोधन अधिनियम 31 के बाद, राज्य की कराधान शक्ति केवल एक स्तर पर कर लगाने तक ही सीमित थी। न्यायालय ने पाया कि पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1948 केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम से प्रभावित था, और कराधान प्रक्रिया में संशोधन किया। पहले, पंजाब अधिनियम के तहत, कर केवल राज्य के भीतर विनिर्माण के लिए खरीदे गए सामानों पर लगाया जाता था, लेकिन संशोधन के बाद, बिक्री स्तर पर कर लगाया जा सकता है। इसलिए अदालत ने पाया कि पंजाब सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 5 में संशोधन केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम, 1958 की धारा 15 के अनुरूप था और अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि संशोधन असंवैधानिक नहीं था। 

अतिरिक्त तर्कों पर निर्णय लेना

  • अपीलकर्ताओं के वकील ने कुछ अतिरिक्त तर्क उठाए थे। पहला, यह था कि राज्य ने 2% कर लगाकर, संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत दिए गए अधिकार क्षेत्र को पार कर लिया। दूसरा तर्क यह था कि कपास पर कई चरणों में कर लगाया जाता था। तीसरा तर्क यह था कि राज्य ने तिलहन, रेजिन और कपास पर तर्कहीन और मनमाने ढंग से कर लगाया। सर्वोच्च न्यायालय ने तीनों दलीलों को नजरअंदाज कर दिया और कहा कि या तो उन पर पहले ही विचार किया जा चुका है या वे अप्रासंगिक हैं। इसलिए, न्यायालय ने अपीलों को खारिज कर दिया और माना कि संशोधन और 2% कर लगाना वैध था। 

देवी दास गोपाल कृष्णन बनाम पंजाब राज्य (1967) में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कई उदाहरणों का विश्लेषण किया। 

मद्रास राज्य बनाम गैनन डंकर्ले एंड कंपनी, लिमिटेड (1959) 

  • गैनन डंकर्ले मामले ने मद्रास बिक्री अधिनियम, 1939 की धारा 6(2) की वैधता का विश्लेषण किया। मद्रास बिक्री अधिनियम की धारा 6(1) निर्दिष्ट करती है कि मद्रास बिक्री अधिनियम, 1939 की अनुसूची के तहत माल पर कर नहीं लगाया जा सकता है। इसके अलावा, धारा 6(2) ने राज्य को एक अधिसूचना के माध्यम से अनुसूची में संशोधन करने की अनुमति दी। अधिनियम की धारा 6(2) को चुनौती दी गई क्योंकि इसने अनुसूची में संशोधन करके राज्य कर वस्तुओं को अधिभावी (ओवरराइडिंग) शक्ति प्रदान की। मद्रास उच्च न्यायालय ने देखा कि कर संग्रह और कर योग्य व्यक्तियों की शक्तियों को एक वैधानिक प्राधिकरण को हस्तांतरित करना संवैधानिक रूप से वैध था। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि गैनन डंकर्ले मामला वर्तमान मामले के लिए अप्रासंगिक है, क्योंकि यह करों के निर्धारण के प्रत्यायोजन को संबोधित नहीं करता है। इसके अलावा, न्यायालय ने गैनन मामले का विस्तार से विश्लेषण करना अनावश्यक पाया क्योंकि कानून पहले ही लिबर्टी सिनेमा मामले द्वारा स्थापित किया गया था। 

वसंतलाल मगनभाई संजावाला बनाम बॉम्बे राज्य (1960)

  • इस मामले में न्यायालय ने बॉम्बे किरायेदारी और कृषि भूमि अधिनियम, 1948 की धारा 6(2) की वैधता का विश्लेषण कर रहा था, जो राज्य को किरायेदारों द्वारा देय किराया तय करने का अधिकार देता था। न्यायालय ने माना कि यह धारा राज्य की विधायी शक्ति का प्रयोग है। इस मामले में अत्यधिक कानून के दायरे का विश्लेषण किया गया।
  • वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का भी विश्लेषण कर रहा था कि क्या राज्य अतिरिक्त कर लगा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने वसंतलाल मामले का विश्लेषण किया क्योंकि यह वर्तमान मामले के मुद्दे से संबंधित था। 

भारत संघ बनाम मेसर्स भाना मल गुलज़ारी मल (1962)

  • इस मामले में, स्टील के सामानों पर अत्यधिक प्रत्यायोजन पर सवाल उठाया गया था। न्यायालय ने शक्तियों के प्रत्यायोजन को वैध पाया क्योंकि यह केवल राज्य अधिनियम की धारा 3 और 4 का विस्तार था। इस मामले में विश्लेषण किया गया प्रश्न यह था कि क्या राज्य को स्टील की अधिकतम कीमत तय करने का अधिकार है और इसका उत्तर सकारात्मक था। 
  • वर्तमान मामले में मुद्दा यह भी था कि क्या राज्य विधानमंडल को असीमित कराधान शक्ति दी जा सकती है। मुद्दा यह था कि क्या लगाए जाने वाले करों की कोई सीमा प्रश्न में थी। न्यायालय ने उपरोक्त प्रश्न का सकारात्मक उत्तर दिया।

केसोराम इंडस्ट्रीज एंड कॉटन मिल्स लिमिटेड बनाम धन-कर आयुक्त, (केंद्रीय), कलकत्ता (1965)

  • केसोराम इंडस्ट्रीज मामले में न्यायालय आयकर के संबंध में दायित्व डालने वाली धारा का विश्लेषण कर रहा था। अदालत ने इस मामले में माना कि आयकर के लिए दायित्व डालने वाली धारा भारतीय आयकर अधिनियम, 1933 की धारा 3 थी। उस मामले में अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि भुगतान करने का दायित्व इसकी मात्रा निर्धारित करने से पहले कभी नहीं हुआ। हालाँकि, तर्क खारिज कर दिया गया था। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने आयकर अधिनियम और वर्तमान पंजाब बिक्री कर अधिनियम को सहसंबंधित किया और पाया कि कर की मात्रा के बिना निर्धारण से भुगतान करने की देनदारी नष्ट नहीं होगी।

देवी दास गोपाल कृष्णन बनाम पंजाब राज्य (1967) का विश्लेषण 

इस मामले में पंजाब सरकार द्वारा लगाए गए 2% खरीद कर की वैधता को चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने कानून के माध्यम से कर लगाने की राज्य की वैधानिक शक्ति को बरकरार रखा। इस मामले के कुछ अहम पहलू हैं। वे निम्नलिखित हैं:

  • क्रमिक-चरण (सक्सेसिव स्टेज) कराधान: इस मामले में एक प्रमुख मुद्दा यह था कि क्या उत्पादन और बिक्री स्तर पर कर लगाया जा सकता है। न्यायालय ने सकारात्मक उत्तर दिया और माना कि किसी उत्पाद पर खरीद और बिक्री कर दोनों लगाए जा सकते हैं। अदालत ने पाया कि कच्चे माल के स्तर पर उत्पाद की प्रकृति और बिक्री के स्तर पर तैयार माल की प्रकृति अलग-अलग थी और इसलिए, क्रमिक चरण के कराधान को वैध माना गया था। 
  • कराधान शक्ति का प्रत्यायोजन: इस मामले में एक और सवाल सामने आया कि क्या कराधान की शक्ति राज्य या केंद्र द्वारा किसी अन्य वैधानिक प्राधिकरण को सौंपी जा सकती है। अदालत ने स्वीकार किया कि कराधान की शक्ति का प्रत्यायोजन नगरपालिका जैसे किसी अन्य वैधानिक निकाय को किया जा सकता है, लेकिन राज्य द्वारा क़ानून में इसका उल्लेख किया जाना चाहिए। यदि उल्लेख नहीं किया गया है, तो यह माना जा सकता है कि शक्ति राज्य को निर्दिष्ट की गई है।
  • शून्य घोषित धारा में संशोधन: अदालत के समक्ष एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि क्या पहले से ही शून्य घोषित धारा में संशोधन किया जा सकता है। अदालत ने सकारात्मक फैसला सुनाया। यह देखा गया कि, इस मामले में, संशोधन केवल खरीद कर के लिए एक सीमा तय कर रहा था, और इसलिए अप्रासंगिक था। यह मामला-दर-मामला आधार पर भी भिन्न होगा। 
  • पृथक्करणीयता (सेपरेबिलिटी) का सिद्धांत: पृथक्करणीयता का सिद्धांत कहता है कि जब क़ानून की एक विशेष धारा शून्य हो जाती है, तो पूरा अधिनियम शून्य नहीं हो जाता है। उसी तर्क को लागू करते हुए, वर्तमान मामले में अदालत ने कहा कि यदि 1948 अधिनियम की धारा 5 को शून्य घोषित कर दिया गया था, तो इसका मतलब यह नहीं है कि पूरा अधिनियम शून्य था या उसके बाद का संशोधन भी शून्य था।

जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) प्रणाली लागू होने के कारण यह निर्णय वर्तमान समय में लागू नहीं हो सकता है। जीएसटी ने करों की प्रणाली में क्रांति ला दी, इसने क्रमिक और एकाधिक करों को समाप्त कर दिया और कई मौजूदा करों को एक गंतव्य-आधारित कर से बदल दिया, जिसे ‘जीएसटी’ कहा जाता है। हालाँकि, निर्णय करों को तय करने और एकत्र करने के लिए कार्यपालिका की वैधानिक शक्ति पर निर्णयों का मार्गदर्शन करना जारी रखेगा। 

निष्कर्ष

निष्कर्षतः, देवी दास मामला राज्य द्वारा लगाए गए खरीद करों की वैधता को समझने में बेहद महत्वपूर्ण है। यह मामला कर लगाने में राज्य के अधिकार क्षेत्र की सीमा का विश्लेषण करता है। विशेष रूप से, पंजाब बिक्री कर अधिनियम की धारा 5 सवालों के घेरे में है। इसके अलावा, यह मामला एक शून्य कानून में संशोधन के प्रभाव का भी विश्लेषण करता है। यह मामला राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र और शक्तियों के बारे में कई अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। इसमें यह भी निर्धारित किया गया कि यदि राज्य के समुचित कामकाज और रखरखाव के लिए आवश्यक हो तो राज्य द्वारा कर लगाया जा सकता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

कर कौन लगा सकता है?

संविधान के अनुच्छेद 265 में निर्दिष्ट किया गया है कि केवल ‘कानून का प्राधिकारी’ यानी राज्य या केंद्रीय विधायिका ही कर लगा सकती है। इसके अलावा, कोई भी अन्य वैधानिक प्राधिकारी, जिसे विधायिका ने ऐसी जिम्मेदारी सौंपी है, कर लगा सकता है। 

जीएसटी क्या है?

जीएसटी या वस्तु एवं सेवा कर को 101वें संशोधन के माध्यम से 2017 में पेश किया गया था। यह एक गंतव्य-आधारित कर है, जो पूरी तरह से अंतिम उपभोक्ता द्वारा देय है। यह केंद्र और राज्यों द्वारा लगाया जाता है। 

संदर्भ

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