ओमप्रकाश एवं अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य (2009)

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यह लेख Ganesh R द्वारा लिखा गया है। इस लेख में ओमप्रकाश एवं अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य (2009) मामले का विस्तृत विश्लेषण है, जिसमें मामले के तथ्यों, मुद्दों और फैसले की व्याख्या की गई है। इसके अलावा, इस लेख में बिना वसीयत लिखे मर जाने वाली हिंदू महिला के लिए उत्तराधिकार की अवधारणा की विस्तृत व्याख्या पर जोर दिया गया है। इसके अलावा, यह आनुपातिकता के सिद्धांत और क़ानूनों और कानूनी सिद्धांतों की व्याख्या के दौरान शाब्दिक नियम के महत्व पर प्रकाश डालता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने उन हिंदू महिलाओं को दिशा-निर्देश और सहायता प्रदान की, जिनकी मृत्यु बिना वसीयत लिखे हुई थी। सबसे पहले, बिना वसीयत के मर जाने वाली हिंदू महिला की स्व-अर्जित संपत्ति के हस्तांतरण के लिए कोई उचित कानून नहीं था। लेकिन इस मामले ने स्व-अर्जित और विरासत में मिली संपत्ति के बीच अंतर और इसके महत्व के साथ-साथ संपत्ति की प्रकृति के अनुसार हस्तांतरण की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला। ओमप्रकाश एवं अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य (2009) मामले में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में एक महत्वपूर्ण दोष पर चर्चा की गई। इस मामले से पहले, बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिलाओं की स्व-अर्जित संपत्ति के हस्तांतरण के संबंध में कोई प्रावधान या नियम नहीं थे। 

इस मामले में मुख्य मुद्दा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15 के इर्द-गिर्द घूमता है, जो बिना वसीयत के मर जाने वाली हिंदू महिलाओं की संपत्ति के हस्तांतरण से संबंधित है। धारा 15(1) में सामान्य नियमों के बारे में बताया गया है कि बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिला को संपत्ति कैसे हस्तांतरित की जाएगी, लेकिन इसमें यह उल्लेख नहीं किया गया है कि संपत्ति स्व-अर्जित है या विरासत में मिली है। धारा 15(2)(a) इस बारे में बात करती है कि पिता या माता से विरासत में मिली संपत्ति बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिला को कैसे सौंपी जाएगी, और धारा 15(1)(b) इस बारे में बात करती है कि सास-ससुर से विरासत में मिली संपत्ति बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिला को कैसे सौंपी जाएगी। इसलिए, ऐसा कोई कानून नहीं था जिसमें उल्लेख हो या यह बताया गया हो कि बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिलाओं की स्व-अर्जित संपत्ति का हस्तांतरण किस प्रकार किया जाएगा। 

यह मामला हमें विस्तृत जानकारी देता है कि बिना वसीयत के मरने वाली विवाहित हिंदू महिलाओं की स्व-अर्जित संपत्ति हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अनुसार किस प्रकार हस्तांतरित होती है। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: ओमप्रकाश एवं अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य (2009)
  • उद्धरण: एआईआर 2009 एससी (एसयूपीपी) 2060
  • याचिकाकर्ता का नाम: ओमप्रकाश एवं अन्य
  • प्रतिवादी का नाम: राधाचरण एवं अन्य
  • अदालत का नाम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • पीठ: न्यायमूर्ति मुकुंदकम शर्मा, न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा

मामले के तथ्य

श्रीमती नारायणी देवी एक शिक्षित महिला थीं और शिक्षा पूरी करने के तुरंत बाद उन्हें एक कंपनी में नौकरी मिल गई थी। 1955 में श्रीमती नारायणी देवी का विवाह दीनदयाल शर्मा से हुआ, लेकिन विवाह के तुरंत बाद, तीन महीने के भीतर ही दीनदयाल शर्मा की सांप के काटने से मृत्यु हो गई और नारायणी देवी को बोझ समझकर उनके ससुराल वालों ने उन्हें ससुराल से बाहर निकाल दिया। इस घटना के बाद, वह सहायता लेने के लिए अपने माता-पिता के घर वापस चली गयी। कुछ ही महीनों के भीतर, उसने फिर से एक कंपनी में काम करना शुरू कर दिया और अपने ससुराल वालों से किसी भी तरह की मदद प्राप्त किए बिना बहुत सारी संपत्ति अर्जित कर ली।

पति की मृत्यु के बाद जब उनके जीवन में सब कुछ ठीक चल रहा था, तो पिछले वर्ष 11 जुलाई 1966 को उनकी मृत्यु हो गई। मरने से पहले उनके बैंक खातों और भविष्य निधि में अपार धन जमा था। इसके अलावा, उन्होंने अपने नाम पर कुछ संपत्तियां अर्जित कीं, लेकिन नारायणी देवी द्वारा लिखित संपत्ति के हस्तांतरण पर कोई ‘वसीयत’ नहीं थी क्योंकि उनकी मृत्यु इतनी कम उम्र में अचानक हुई थी। ‘वसीयत’ का यह मुद्दा इस मामले की शुरुआत का मुख्य कारण था। उनकी मां और ससुराल वालों ने नारायणी देवी की संपत्ति के लिए उत्तराधिकार प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया; यहीं से विवाद उत्पन्न हुआ। नारायणी देवी की मां और उनके ससुराल वालों के बीच इस विवाद ने कई कानूनी मुद्दे और तर्क उठाए, जिससे हिंदू महिलाओं की स्व-अर्जित संपत्ति के हस्तांतरण में एक महत्वपूर्ण क्रांति आई। 

उठाए गए मुद्दे 

इस मामले में मुख्य मुद्दे नीचे सूचीबद्ध हैं: 

  • क्या नारायणी देवी की संपत्ति उसके माता-पिता या उसके ससुराल वालों को विरासत में मिलेगी?
  • क्या बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिला की स्व-अर्जित संपत्ति हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1) के तहत उल्लिखित ‘संपत्ति’ शब्द के दायरे में आती है?
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 15 की व्याख्या करते समय किस प्रकार की व्याख्या लागू की जानी चाहिए, शाब्दिक नियम या स्वर्णिम नियम? 

पक्षों के तर्क

बहस के दौरान हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के कई प्रावधानों का उल्लेख किया गया और न्याय प्रदान करने के लिए कई व्याख्याएं की गईं। 

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ता का मुख्य तर्क हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(2)(a) पर आधारित था, जिसमें स्पष्ट रूप से संकेत दिया गया था कि बच्चे की अनुपस्थिति में, एक हिंदू महिला की संपत्ति, जो उसने स्वयं अर्जित की थी, उसके पिता की उत्तराधिकारी को हस्तांतरित होनी चाहिए। इसके अलावा, इस तर्क में, यदि हम याचिकाकर्ता की विधायी मंशा को देखें, तो उन्होंने धारा 15(2) पर जोर दिया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि महिला के पैतृक परिवार से विरासत में मिली संपत्ति प्रत्यक्ष वंशजों की अनुपस्थिति में उनके पास वापस आ जानी चाहिए, इस प्रकार परिवार के मूल में संपत्ति की वंशावली की रक्षा की जा सके। इसके अलावा, उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि धारा 15(1) को लागू करना नारायणी के पति के उत्तराधिकारियों के लिए अनुचित रूप से लाभकारी होगा, जिनका संपत्ति के अधिग्रहण से कोई सीधा संबंध नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि यह न्याय और समानता के सिद्धांतों के विपरीत होगा। उन्होंने उन उदाहरणों और कानूनी सिद्धांतों का भी उल्लेख किया जो उनके पक्ष में थे, अर्थात् एम.डी.एच.एस.आई.डी.सी. और अन्य बनाम हरिओम एंटरप्राइजेज और अन्य (2008) और भगत राम (मृत) बनाम तेजा सिंह (1999)। 

प्रतिवादी

प्रतिवादी, जो नारायणी देवी के पति की बहन के बेटे थे, ने तर्क दिया कि इस मुद्दे पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) लागू होनी चाहिए। वे दृढ़ता से इस बात पर जोर दे रहे थे कि नारायणी देवी की संपत्ति धारा 15(1)(b) के अनुसार उनके पति के उत्तराधिकारियों के बीच हस्तांतरित की जानी चाहिए। उनका कहना है कि सामान्य नियमों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए और चूंकि वे नारायणी देवी के पति के उत्तराधिकारी थे, इसलिए संबंधित संपत्ति पर उनका अधिकार था। इसके अलावा, उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि धारा 15(2) में विशेष प्रावधान इस परिस्थिति पर लागू नहीं होना चाहिए; इसके बजाय, धारा 15(1) में सामान्य सिद्धांत स्व-अर्जित संपत्तियों पर लागू होना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि धारा 15(2) को लागू करने से संपत्ति के हस्तांतरण में अनुचित विखंडन और जटिलताएं पैदा होंगी, जिससे पारिवारिक सद्भाव और उत्तराधिकार का इच्छित क्रम बाधित हो सकता है। बहस के दौरान, उन्होंने अपने पक्ष में उदाहरणों का उल्लेख किया, अर्थात् सुभा बी. नायर एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2008) और गंगा देवी बनाम जिला न्यायाधीश, नैनीताल एवं अन्य (2008)। 

इस मामले में शामिल कानून/अवधारणाएँ

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956

महिला हिंदुओं के लिए उत्तराधिकार का सामान्य नियम (हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1)

इस अधिनियम की धारा 15(1) उस हिंदू महिला की संपत्ति के उत्तराधिकार के सामान्य नियमों से संबंधित है, जिसकी मृत्यु बिना वसीयत लिखे हो जाती है। यह खंड उत्तराधिकारियों के पदानुक्रम का क्रम और संपत्ति के हस्तांतरण के लिए वरीयता का क्रम निर्धारित करता है। वे हैं,

  • सबसे पहले, पुत्रों और पुत्रियों पर (पूर्व मृत पुत्र या पुत्री के बच्चों की गिनती करते हुए) और
  • दूसरा, पति के उत्तराधिकारियों पर;
  • तीसरा, माता और पिता पर;
  • चौथा, पिता के उत्तराधिकारियों पर; और
  • अन्त में, माँ के उत्तराधिकारियों पर।

यह नियम यह सुनिश्चित करता है कि बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिला की संपत्ति का वितरण तत्काल परिवार को प्राथमिकता देने के आधार पर किया जाएगा, तथा ऐसा न होने पर विस्तारित परिवार को भी संपत्ति दी जाएगी। यह धारा प्रत्यक्ष वंशजों की अनुपस्थिति में वैध कानूनी उत्तराधिकारियों को संपत्ति के वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस मामले में, इस धारा ने नारायणी देवी की संपत्ति के वास्तविक उत्तराधिकारियों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा, प्रतिवादी ने अपनी दलील के दौरान इस धारा पर जोर दिया और इस बात पर जोर दिया कि न्यायालय को संबंधित संपत्ति के वैध उत्तराधिकारियों का निर्धारण करते समय इस धारा के सामान्य सिद्धांत का पालन करना चाहिए।

सामान्य नियमों के अपवाद (हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(2))

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(2) सामान्य नियमों के अपवाद से संबंधित है, जिनका उल्लेख हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) में किया गया था। यह उपधारा (1) किसी हिन्दू महिला को उसके माता-पिता या पति से विरासत में मिली संपत्ति के वितरण और हस्तांतरण के लिए एक विशेष प्रावधान के रूप में वर्गीकृत की गई है। विशेष रूप से, यदि किसी हिंदू महिला की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है और उसके पास मौजूद संपत्ति उसके माता-पिता से विरासत में मिली है, तो संपत्ति धारा 15(1) के आदेश के उत्तराधिकारियों के बजाय उसके पिता के उत्तराधिकारियों को वापस मिल जाएगी। इसी प्रकार, यदि संपत्ति उसके पति की ओर से विरासत में मिली है, तो संपत्ति उसके पति की ओर के उत्तराधिकारियों को वापस मिल जाएगी। यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि संबंधित संपत्ति उसके वास्तविक स्वामी के वंश में ही रहेगी। यह नियम उन दूर के रिश्तेदारों को संपत्ति के वितरण को सुरक्षित रखने में मदद करता है, जो मूल मालिक से सीधे संबंधित नहीं हो सकते हैं। इसलिए, धारा 15(2) की इस अवधारणा ने कार्यवाही के दौरान याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत तर्कों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि नारायणी देवी की संपत्ति उनके माता-पिता की ओर से विरासत में मिली थी और संपत्ति के उत्तराधिकार में उनके ससुराल वालों से कोई समर्थन नहीं मिला था, इसलिए धारा 15 (2) को लागू करते हुए, संबंधित संपत्ति को उनके पति के पक्ष के उत्तराधिकारियों के बजाय उनके माता-पिता के पक्ष के उत्तराधिकारियों के बीच विभाजित किया जाना चाहिए। 

व्याख्या का शाब्दिक नियम

इस मामले में, न्यायालय ने व्याख्या के शाब्दिक नियम को लागू किया, जिसमें प्रयुक्त भाषा के शाब्दिक अर्थ में प्रावधानों की जांच और व्याख्या करना शामिल है, बिना उनमें कोई अन्य अर्थ या अघोषित आशय जोड़े। कार्यवाही के दौरान, न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) और धारा 15(2) की व्याख्या करते हुए शाब्दिक नियम लागू किया और उत्तराधिकार विवाद को सुलझाने में कामयाब रहा है। इस तरह की व्याख्या करके, न्यायालय क़ानून की अखंडता और स्पष्टता को बरकरार रखता है। धारा 15(1) को हिंदू महिला की संपत्ति के उत्तराधिकार का सामान्य नियम माना गया, जबकि धारा 15(2) को उसके माता-पिता या पति से विरासत में मिली संपत्ति के लिए विशेष नियम माना गया। शाब्दिक नियम के प्रति इस दृष्टिकोण से यह स्पष्ट हो गया कि स्व-अर्जित संपत्ति धारा 15(1) के सामान्य नियमों के दायरे में आती है, और माता-पिता या पति से विरासत में मिली संपत्ति धारा 15(2) के विशेष नियमों के दायरे में आती है। 

स्व-अर्जित और विरासत में मिली संपत्ति के बीच अंतर

इस मामले में, अदालत ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत स्व-अर्जित और विरासत में मिली संपत्ति के बीच अंतर की व्याख्या की है। धारा 15(2) की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि यह धारा विरासत में मिली संपत्ति से संबंधित है और इसमें स्व-अर्जित संपत्ति का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इस मामले में, उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि धारा 15(1), जो महिला हिंदू संपत्ति के हस्तांतरण पर लागू होती है, पूर्ण स्वामित्व की बात आने पर स्व-अर्जित संपत्ति और विरासत में मिली संपत्ति के बीच अंतर नहीं करती है। इसलिए, स्व-अर्जित संपत्ति को मृत महिला की पूर्ण संपत्ति माना जाता है, इसलिए धारा 15(1) के तहत उत्तराधिकार का सामान्य सिद्धांत लागू होगा। स्व-अर्जित संपत्ति और विरासत में मिली संपत्ति के बीच अंतर का निर्धारण, बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिलाओं की संपत्ति के हस्तांतरण के दौरान आवश्यक प्रमुख अवधारणाओं में से एक है। यह सामान्य सिद्धांत इस विचार को कायम रखता है कि स्व-अर्जित संपत्ति पूरी तरह से उस व्यक्ति के नियंत्रण में होती है जिसने उसे अर्जित किया है, और इसे नियमों के मानक के अनुसार वितरित किया जाना चाहिए, जब तक कि इसे किसी अन्य विशिष्ट कानून द्वारा अधिरोहित नहीं किया जाता है। 

गैर-बाधा खंड और विधायी आशय

इस मामले में, न्यायालय ने जांच की और व्याख्या की कि जब कोई महिला बिना वसीयत लिखे मर जाती है तो संबंधित संपत्ति हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत किस प्रकार विरासत में दी जानी चाहिए। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(2) के कानूनी प्रावधान में एक गैर-बाधा खंड शामिल है, जिसका अर्थ है कि यह कानून के अन्य भागों पर वरीयता लेता है। इसमें विशेष रूप से कहा गया है कि यदि संपत्ति उसके माता-पिता या उसके पति से विरासत में मिली है और उसकी मृत्यु के समय उसकी कोई संतान नहीं है, तो संपत्ति उसके माता-पिता या पति के परिवार को वापस मिलनी चाहिए, न कि उत्तराधिकार के सामान्य नियम का पालन करना चाहिए, जिसका उल्लेख हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) में किया गया था। इस अवधारणा को याचिकाकर्ता ने अपनी दलील के दौरान अपनाया था, लेकिन अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 15(2) में गैर-बाधा खंड स्व-अर्जित संपत्ति को प्रभावित नहीं करता है क्योंकि यह केवल विरासत में मिली संपत्ति के लिए है। इस अवधारणा का मुख्य लक्ष्य एक महिला को विरासत में मिलने वाली संपत्ति और उसके द्वारा स्वयं अर्जित की गई संपत्ति के बीच अंतर करना है। यदि संपत्ति विरासत में मिली है, तो इसे असली मालिक की वंशावली के भीतर ही रहना चाहिए, और यदि संपत्ति स्व-अर्जित है, तो इसे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (1) के अनुसार वितरित किया जाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होता है कि पारिवारिक संबंधों और पैतृक संपत्ति पर व्यक्तिगत नियंत्रण के बीच कोई टकराव नहीं होगा। 

आनुपातिकता (प्रॉपोर्शनलिटी) का सिद्धांत

आनुपातिकता का सिद्धांत यह सुनिश्चित करने के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है कि न्यायिक निर्णय निष्पक्ष, उचित हों तथा भावनात्मक या भावुक कारकों के बजाय साक्ष्य और वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव) मानदंडों पर आधारित हों। इस मामले में, यह सिद्धांत पक्षों के बीच उत्तराधिकार विवाद को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह मामला, जिसमें हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) और धारा 15(2) की व्याख्या शामिल है, विवाद को सुलझाने में निष्पक्ष और निष्पक्ष दृष्टिकोण बनाए रखने के लिए आनुपातिकता के सिद्धांत को रेखांकित करता है। सबसे पहले, आनुपातिकता का सिद्धांत केवल सहानुभूति या भावना से प्रेरित होकर लिए गए निर्णयों के विरुद्ध चेतावनी देता है। इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कानूनी निर्णय किसी व्यक्तिगत भावना या भावनात्मक अपील के बजाय कानूनी सिद्धांतों और कानूनी प्रावधानों पर आधारित होना चाहिए। इस प्रकार की कार्रवाइयां यह सुनिश्चित करती हैं कि निर्णय समतामूलक और निष्पक्ष हो, भले ही कार्यवाही में परिस्थितियां या व्यक्तिगत सहानुभूति कुछ भी हो। इस मामले के अनुसार, जहां न्यायालय को एक हिंदू महिला की संपत्ति के हस्तांतरण का निर्धारण करना था, जिसकी मृत्यु बिना वसीयत लिखे हुई थी, आनुपातिकता के सिद्धांत ने वैधानिक ढांचे का सख्ती से पालन करने का मार्ग प्रशस्त किया। इस मामले में, अदालत ने स्व-अर्जित संपत्ति के लिए धारा 15(1) के साथ बने रहने का फैसला किया, भले ही धारा 15(2) के गैर-बाधा खंड को लागू करने वाले तर्कों की परवाह किए बिना, जो इस सिद्धांत का प्रतीक है। इस मामले में, न्यायालय ने आनुपातिकता के सिद्धांत को बरकरार रखा, यह सुनिश्चित करते हुए कि कानूनी व्याख्याएं कानूनी क़ानून के उद्देश्य और उसके वस्तुनिष्ठ मानक के अनुरूप थीं। 

मामले में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय

याचिकाकर्ताओं द्वारा उद्धृत मामले

एम.डी.एच.एस.आई.आई.डी.सी. एवं अन्य बनाम हरिओम एंटरप्राइजेज एवं अन्य (2008)

तथ्य

यह मामला हरियाणा राज्य औद्योगिक एवं अवसंरचना विकास निगम (एचएसआईआईडीसी) द्वारा हरिओम एंटरप्राइजेज को आवंटित भूखंड के पुनर्ग्रहण के विवाद से संबंधित है। यह निरस्तीकरण इस आधार पर किया गया कि यह समझौते के खंड 4 के अनुरूप नहीं है। 

मुद्दा

क्या भूखंड का पुनर्ग्रहण वैध था? 

निर्णय

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आनुपातिकता के सिद्धांत पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्रशासनिक कार्य निष्पक्ष, उचित और स्थिति के अनुरूप होने चाहिए। अदालत ने फैसला सुनाया कि भूखंड को रद्द करना अनुपातहीन था और इसलिए अनुचित था। 

मुख्य मामले से प्रासंगिकता

इस मामले का उल्लेख याचिकाकर्ता की दलील के दौरान आनुपातिकता के सिद्धांत के महत्व को उजागर करने के लिए किया गया था, जिसमें तर्क दिया गया था कि नारायणी देवी की संपत्ति का वितरण सहानुभूतिपूर्ण या भावुक होने के बजाय हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की तार्किक (लॉजिकल) और स्पष्ट व्याख्या का पालन करना चाहिए। 

भगत राम (मृत) बनाम तेजा सिंह (1999)

तथ्य

यह मामला ‘वसीयत’ की व्याख्या और उत्तराधिकारियों के बीच संपत्ति के हस्तांतरण से संबंधित है। मुख्य मुद्दा वसीयत की शर्तों के वास्तविक शाब्दिक अर्थ को समझने के लिए स्वर्णिम नियम का अनुप्रयोग था। 

मुद्दा

क्या ‘वसीयत’ की शर्तों को समझने के लिए व्याख्या के स्वर्णिम नियम का अनुप्रयोग विचारणीय है? 

निर्णय

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वसीयत और क़ानून में शब्द के शाब्दिक अर्थ के अभ्यास का अनुसरण करते हुए व्याख्या का स्वर्णिम नियम लागू किया। अदालत ने निर्णय दिया कि वसीयत को लिखित रूप में ही समझा जाना चाहिए, उसमें कोई नया अर्थ या अघोषित इरादे नहीं जोड़े जाने चाहिए। 

मुख्य मामले से प्रासंगिकता

याचिकाकर्ता ने इस मामले का उपयोग यह रेखांकित करने के लिए किया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(2) की व्याख्या उसके शाब्दिक अर्थ में की जानी चाहिए, तथा सुझाव दिया कि संबंधित संपत्ति उसके पिता के उत्तराधिकारियों के बीच हस्तांतरित की जानी चाहिए। 

प्रतिवादी द्वारा उद्धृत मामले

सुभा बी. नायर एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2008)

तथ्य

यह मामला हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत एक मृत व्यक्ति के वैध उत्तराधिकारियों को संपत्ति के वितरण से संबंधित है। कई प्रमुख मुद्दे मानक आदेश के इर्द-गिर्द घूमते हैं, जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) के तहत दिया गया था।

मुद्दा

क्या हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) के तहत उत्तराधिकार के सामान्य नियम का अनुप्रयोग वैध है?  

निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने सामान्य मानक सिद्धांत के नियम को लागू किया, जो धारा 15(1) में दिया गया है,  अधिनियम में दिए गए निर्दिष्ट पदानुक्रमिक क्रम के अनुसार संपत्ति वितरित करने में है। 

मुख्य मामले से प्रासंगिकता

इस मामले का उल्लेख प्रतिवादी की दलील के दौरान किया गया, जिन्होंने कहा कि नारायणी देवी की संपत्ति को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) के पदानुक्रमिक क्रम के अनुसार हस्तांतरित किया जाना चाहिए, जो नारायणी देवी के पति के उत्तराधिकारियों के पक्ष में होगा। 

गंगा देवी बनाम जिला न्यायाधीश, नैनीताल एवं अन्य (2008)

तथ्य

यह मामला उक्त अधिनियम के अनुपालन में उत्तराधिकारियों के बीच न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से संपत्ति के वितरण के मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमता है। 

मुद्दा

क्या न्यायसंगत वितरण को बनाए रखने के लिए उत्तराधिकार नियमों का अनुप्रयोग वैध है? 

निर्णय

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार उत्तराधिकार के नियमों को बरकरार रखा, तथा वैध उत्तराधिकारियों के बीच न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित किया। 

मुख्य मामले से प्रासंगिकता

प्रतिवादी ने अपनी दलील के दौरान इस मामले को ध्यान में रखा और कहा कि धारा 15(1)(b) के तहत उत्तराधिकार के नियमों को नारायणी देवी के पति के उत्तराधिकारियों के बीच समान वितरण सुनिश्चित करना चाहिए, जो सीधे तौर पर उनकी स्व-अर्जित संपत्ति पर उनके दावे का समर्थन करता है। 

ओमप्रकाश एवं अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य में निर्णय (2009)

ओमप्रकाश बनाम राधाचरण एवं अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की व्याख्या और संपत्ति के उत्तराधिकार में इसके कानूनी सिद्धांतों के संबंध में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। मामले की जांच के दौरान, अदालत ने सबसे पहले इस सिद्धांत पर ध्यान दिया कि न्यायिक विभाजन किसी भी भावुक या सहानुभूतिपूर्ण इरादे से प्रभावित नहीं होना चाहिए; इसके बजाय, उसे कानून की भावना और उसके नियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) और धारा 15(2) की व्याख्या के आधार पर, अदालत ने प्रतिवादी के पक्ष में फैसला सुनाया और अपील को खारिज कर दिया क्योंकि इसमें कोई आधार नहीं था। न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा ने अपनी राय दी कि कानून, बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिला की स्व-अर्जित संपत्ति के वितरण के संबंध में मौन है। उन्होंने यह भी बताया कि नारायणी देवी की संपत्ति स्व-अर्जित थी, न कि विरासत में मिली थी। इसलिए, उन्होंने सुझाव दिया कि इस मुद्दे पर धारा 15(1) लागू होगी और संपत्ति नारायणी देवी के कानूनी उत्तराधिकारियों के बीच हस्तांतरित की जानी चाहिए। न्यायाधीश ने इस बात पर जोर दिया कि भले ही उसे संपत्ति विरासत में पाने के लिए अपने वैवाहिक घराने से कोई मदद नहीं मिली, लेकिन वह स्व-अर्जित संपत्ति को उसके माता-पिता की ओर से विरासत में मिली संपत्ति में परिवर्तित नहीं करेगा। 

इस निर्णय के पीछे तर्क

इस मामले में न्यायमूर्ति एस.बी.सिन्हा की राय ने नारायणी देवी की संपत्ति के हस्तांतरण को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधानों की शाब्दिक व्याख्या से न्यायसंगत और निष्पक्ष निर्णय देना आसान हो गया। यह मामला इस मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या नारायणी देवी की संपत्ति उनके स्वयं के प्रयासों से अर्जित की गई थी या उनके माता-पिता या पति की ओर से विरासत में मिली थी। कार्यवाही के दौरान, पीठ ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) के सामान्य सिद्धांत और धारा 15(2) के विशेष सिद्धांत पर चर्चा की, जिसके आधार पर उन्होंने निर्धारित किया कि संपत्ति स्व-अर्जित थी और इसे उसके माता-पिता से विरासत में मिली संपत्ति नहीं माना जा सकता है। इसके अलावा, इस मामले में, आनुपातिकता के सिद्धांत ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि इसने इस बात पर जोर दिया कि अदालत को दिए गए वस्तुनिष्ठ साक्ष्य के आधार पर निर्णय देना चाहिए, न कि व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) या भावनात्मक इरादों के आधार पर निर्णय देना चाहिए। साथ ही, प्रावधानों की व्याख्या के दौरान, अदालत ने यह स्पष्ट किया कि स्व-अर्जित संपत्ति और विरासत में मिली संपत्ति के बीच स्पष्ट अंतर है, क्योंकि अदालत ने फैसला दिया कि नारायणी देवी की संपत्ति विरासत में मिली संपत्ति के बजाय स्व-अर्जित संपत्ति थी। न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा ने यह भी कहा कि यदि संपत्ति किसी भी पक्ष से विरासत में मिली हो, तो वंश के भीतर संपत्ति का बंटवारा करना महत्वपूर्ण है, लेकिन इस मामले में संपत्ति को स्व-अर्जित संपत्ति माना गया था, इसलिए इसमें हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) के नियमों का पालन होना चाहिए। इन सिद्धांतों और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की अन्य व्याख्याओं को लागू करके, अदालत ने माना कि संपत्ति एक स्व-अर्जित संपत्ति है, और धारा 15 (1) इस मुद्दे पर लागू होगी। 

मामले का आलोचनात्मक विश्लेषण

इस मामले में, मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई है। न्यायालय ने नारायणी की संपत्ति की प्रकृति निर्धारित करने के लिए कानूनी प्रावधानों की कई व्याख्याएं कीं है। हालाँकि, मामले की उन व्याख्याओं और निर्णयों को अनुचित माना गया, हालांकि वे भगत राम बनाम तेजा सिंह (1999) जैसे पिछले निर्णयों के अनुरूप थे। 

भगत राम बनाम तेजा सिंह के मामले में, अदालत ने फैसला सुनाया कि धारा 15(2) के प्रावधान में ‘बावजूद इसके’ शब्द शामिल है, इसलिए यह एक गैर-बाधा खंड के रूप में कार्य करता है, जो धारा 15(1) से अलग प्रावधान का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए, धारा 15(1) और धारा 15(2) एक दूसरे को प्रभावित नहीं करती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि धारा 15(2) स्वतंत्र रूप से कार्य करती है और यह धारा 15(1) से प्रभावित नहीं होती है। 

इसके अलावा, अदालत ने उपर्युक्त मामले में स्थापित सिद्धांत पर भरोसा किया कि कानून हिंदू महिला की स्व-अर्जित संपत्ति के हस्तांतरण पर चुप है, और अधिनियम की धारा 15 (1) लागू होगी।

  • धारा 15(1) उन शर्तों की सामान्य प्रक्रियाओं से संबंधित है जिनके तहत ऐसी संपत्ति हस्तांतरित की जाएगी और उत्तराधिकारियों का क्रम बताती है।
  • धारा 15(2) के अंतर्गत इस प्रावधान को ऐसे खण्ड के रूप में माना गया है जो हिन्दू महिला की निर्वसीयत संपत्ति के हस्तांतरण से संबंधित है।

इसके अलावा, यदि हम एम.डी.एच.एस.आई.आई.डी.सी. एवं अन्य बनाम हरिओम एंटरप्राइजेज एवं अन्य के मामले को देखें, तो न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि संपत्ति की प्रकृति का निर्धारण करने के लिए आनुपातिकता के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिए और न्यायालय ने कहा कि संपत्ति के निर्धारण के दौरान, इसे तार्किक और स्पष्ट व्याख्या के आधार पर किया जाना चाहिए, न कि किसी भावुक तरीके से, जिससे स्पष्ट निर्णय हो जाए। प्रावधान की व्याख्या के दौरान न्यायालय इसे व्यापक अर्थ में व्याख्या करने के बजाय शाब्दिक व्याख्या का विकल्प चुनता है, न्यायालय की यह कार्रवाई अधिनियम को लागू करने के वास्तविक अर्थ को निर्धारित करने के लिए क़ानून की व्याख्या करने की सीमा को सीमित करती है। 

जैसा कि हम इस मामले के एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे की बात करते हैं, जो ओमप्रकाश एवं अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य के मामले में अदालत द्वारा की गई शाब्दिक व्याख्या है, मामले का निर्णय हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) की शाब्दिक व्याख्या के दायरे में आता है, लेकिन यह धारा 15 की स्वर्णिम व्याख्या के अनुरूप नहीं है। यह व्याख्या बेतुकी थी और इसकी काफी आलोचना हुई, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार, इस मामले का फैसला भविष्य के मामलों पर लागू होगा, इसलिए उस स्थिति में, यदि किसी हिंदू महिला की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है, तो उसकी स्व-अर्जित संपत्ति उसके पति को मिलेगी, भले ही उन्होंने उसकी शिक्षा के लिए कोई योगदान न दिया हो। 

यदि न्यायालय ने धारा 15 की व्याख्या के स्वर्णिम नियम को लागू किया होता, तो निर्णय उसके माता-पिता के पक्ष में दिया जाता, क्योंकि उन्होंने ही उसकी पढ़ाई में सहयोग दिया था। अदालत का यह फैसला उत्तराधिकार कानूनों में लैंगिक समानता की प्रगति और विकास के लिए एक झटका था। 

  • आलोचकों ने तर्क दिया कि जटिल पारिवारिक मामलों में कठोर शाब्दिक व्याख्या से अन्यायपूर्ण परिणाम हो सकते हैं और ऐसी स्थितियों में, न्यायालय को न्याय और समानता के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इस मामले में आलोचकों ने बिना वसीयत के मर चुकी हिंदू महिला की स्व-अर्जित संपत्ति के उत्तराधिकार और हस्तांतरण के संबंध में कई अवधारणाएं पर सवाल उठाया था।
  • इस मामले के फैसले को पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से देखा गया है, जो महिलाओं के स्वयं अर्जित संपत्ति पर अधिकारों को कम करता है। आलोचकों ने तर्क दिया कि पुरुष की स्व-अर्जित संपत्ति में उसके रक्त संबंधियों को प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन महिला का अपनी स्व-अर्जित संपत्ति पर अधिकार उसके अपने रक्त संबंधियों के बजाय उसके पति के पक्ष को प्राथमिकता देता है।

निष्कर्षतः, इस मामले को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के भविष्योन्मुखी (फ्यूचरिस्टिक) और प्रगतिशील उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए एक चूके अवसर के रूप में देखा गया है। 

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में, ओमप्रकाश एवं अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य के निर्णय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत उत्तराधिकार को नियंत्रित करने वाले कानूनी सिद्धांतों की पुनः पुष्टि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने विधायी मंशा, विशेष रूप से अधिनियम की धारा 15(1) और धारा 15(2) के अनुपालन में कानून या प्रावधानों की व्याख्या करने के महत्व को रेखांकित किया है। इस अवधारणा पर प्रकाश डालते हुए, अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि बिना वसीयत के मर जाने वाली हिंदू महिला की स्व-अर्जित संपत्ति को धारा 15(1) के सामान्य नियमों के अनुसार हस्तांतरित किया जाना चाहिए, जब तक कि यह धारा 15(2) के अनुसार उसके माता-पिता से स्पष्ट रूप से विरासत में न मिली हो। इसके अलावा, अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भावना और सहानुभूति के इरादे से लिए गए निर्णयों को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए; इसके बजाय, इन्हें अधिनियम में निर्धारित न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से किया जाना चाहिए। इस फैसले का प्रभाव व्यापक रूप से संबंधित पक्षों से आगे तक फैला हुआ है, तथा यह समान तथ्यों और परिस्थितियों वाले भविष्य के मामलों के लिए एक उदाहरण स्थापित करता है। यह निर्णय उत्तराधिकार और विरासत के मार्गदर्शन के साथ-साथ पारिवारिक शांति बनाए रखने के लिए एक स्पष्ट कानूनी ढांचे की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1) का क्या महत्व है?

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) बिना वसीयत लिखे मरने वाली हिंदू महिला के उत्तराधिकार के लिए सामान्य नियम निर्धारित करती है। इस प्रावधान में उत्तराधिकारियों का एक पदानुक्रमिक क्रम है, जिसमें उसके बच्चे, उसका पति और अन्य करीबी रिश्तेदार शामिल हैं। यह धारा सभी संपत्तियों पर लागू होती है, सिवाय उन संपत्तियों को छोड़कर जो धारा 15(2) मे उल्लिखित है। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(2) हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) से किस प्रकार भिन्न है?

धारा 15(2) को एक विशेष नियम माना जाता है जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) में सामान्य नियम के लिए अपवाद प्रदान करता है। यह सुनिश्चित करता है कि उसके माता-पिता या पति की ओर से विरासत में मिली संपत्ति अधिनियम की धारा 15(1) में उल्लिखित सामान्य नियमों का पालन करने के बजाय उस संपत्ति के वास्तविक मालिक की वंशावली के भीतर ही रहनी चाहिए। 

गैर-बाधा खंड की पीठ की व्याख्या क्या थी?

अदालत ने यह स्पष्ट किया कि गैर-बाधा खंड हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) को रद्द करता है, जहां एक हिंदू महिला को अपने माता-पिता की ओर से या अपने पति की ओर से संपत्ति विरासत में मिली है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि संपत्ति असली मालिक के वंश के अंतर्गत ही रहेगी। 

संदर्भ

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