भारतीय संविधान का निर्माण

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यह लेख Oishika Banerji द्वारा लिखा गया है और Naincy Mishra द्वारा इसे आगे अद्यतन (अपडेट) किया गया है। यह लेख भारतीय संविधान के निर्माण और इसके निर्माण में शामिल कार्यों का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। इसमें संविधान के स्रोतों, इसके निर्माण में शामिल विभिन्न समितियों (कमेटी), अनेक बहसों और चर्चाओं तथा अंततः संविधान की मुख्य विशेषताओं पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

भारत, सबसे बड़ा लोकतंत्र, दुनिया के सबसे लंबे संविधान के साथ गर्व से खड़ा है जिसमें 25 भागों और 12 अनुसूचियों में 448 अनुच्छेद शामिल हैं। भारत के संविधान के निर्माण के पीछे जो कहानी है, उसका भारतीय इतिहास में बहुत महत्व है। 1934 में, भारत के संविधान को बनाने के लिए एक संविधान सभा की स्थापना भारतीय साम्यवादी (कम्युनिस्ट) आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्ति श्री एम.एन. रॉय के दिमाग की उपज थी। हालांकि, इस विचार को तब बल मिला जब 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसकी वकालत की। हालाँकि इस मांग को शुरू में ब्रिटिश सरकार ने 1940 में स्वीकार कर लिया था, लेकिन सर स्टैफ़ोर्ड क्रिप्स के साथ भेजे गए मसौदा (ड्राफ्ट) प्रस्ताव को मुस्लिम लीग ने गर्मजोशी से स्वीकार नहीं किया। अंत में, यह कैबिनेट मिशन ही था जिसने संविधान सभा के विचार को आगे बढ़ाया और भारतीय संविधान के निर्माण की शुरुआत की, जिससे इतिहास बना।

लोकतांत्रिक भारत के सर्वोच्च कानून का मसौदा भारतीय संविधान सभा द्वारा तैयार किया गया था। भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के ऐतिहासिक कर्तव्य को पूरा करने में सभा को ठीक दो साल, ग्यारह महीने और अठारह दिन लगे। इस अवधि के दौरान, सभा ने 165 दिनों में ग्यारह सत्र आयोजित किए, जिनमें से 114 दिन केवल मसौदा संविधान पर विचार करने में व्यतीत हुए। अंततः, 26 नवंबर 1949 को संविधान को अपनाया गया, जो 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ, जिसे ‘भारत के गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस लेख में, लेखक उन सभी महत्वपूर्ण घटनाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास करता है, जिनके कारण भारतीय संविधान का निर्माण हुआ, जिसे भारत में सभी कानूनों की जननी माना जाता है।

भारतीय संविधान की आवश्यकता

भारत के लिए संविधान बनाने का विचार एक दिन में नहीं आया। इसके लिए राष्ट्र-निर्माताओं को कई वर्षों तक सोचना-समझना पड़ा। देश के अलग-अलग हिस्सों से आए नेताओं के पास समाज में सुधार के लिए अलग-अलग तरीके थे, जो उन्हें अलग-अलग तरह की सामाजिक परिस्थितियों से रूबरू करवाते थे। वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शुरू हुई विभिन्न सुधारवादी विचारधाराओं से भी प्रेरित थे, जैसे रूसी क्रांति के कारण समाजवाद (सोशलिज़्म) का विचार, फ्रांसीसी क्रांति से ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व (फ्रेटरनिटी)’ का विचार, ब्रिटेन में संसदीय लोकतंत्र की प्रथा जारी रहना आदि। हालांकि, भारतीय संदर्भ में इन विचारधाराओं का अनुकरण (इमिटेटिंग) करने के बजाय, नेताओं ने सवाल उठाया कि क्या वे लोगों की व्यापक विविधता और उनके अलग-अलग जीवन-शैली को देखते हुए भारत के लिए उपयुक्त होंगे।

भारतीय संविधान बनाने की आवश्यकता विभिन्न ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों से उत्पन्न हुई है। इनमें से कुछ कारण इस प्रकार हैं:-

  • ब्रिटिश औपनिवेशिक (कॉलोनियल) शासन का अंत- भारत लगभग 200 वर्षों तक ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन रहा। जब राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन ने गति पकड़नी शुरू की, तो एक नए शासन ढांचे की स्थापना के लिए संविधान की आवश्यकता महसूस हुई, जो औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा निर्देशित न हो।
  • विविधता में एकता- भारत विविध संस्कृतियों, धर्मों, भाषाओं और परंपराओं वाला एक विशाल देश है। एक ऐसा संविधान आवश्यक था जो एक समान कानूनी ढांचा प्रदान कर सके जो इस विशाल विविधता को समायोजित कर सके और साथ ही अपने लोगों के बीच एकता और सद्भाव सुनिश्चित कर सके।
  • मौलिक अधिकारों की सुरक्षा- भारतीय संविधान का एक प्राथमिक उद्देश्य अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना था। इन अधिकारों में समानता का अधिकार, बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार आदि शामिल हैं। इन अधिकारों को सुनिश्चित करने और राज्य द्वारा किसी भी मनमाने अतिक्रमण (एन्क्रोचमेंट) से बचाने के लिए संविधान आवश्यक था।
  • लोकतंत्र की स्थापना- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने लोकतांत्रिक गणराज्य बनना चुना। इसलिए, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, शक्तियों का पृथक्करण (सेपरेशन ऑफ़ पावर्स), कानून का शासन और सरकार की शाखाओं के बीच नियंत्रण और संतुलन सहित लोकतंत्र के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए संविधान की आवश्यकता थी।
  • सामाजिक न्याय और समानता- इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय समाज हमेशा से जाति, लिंग और धर्म के आधार पर सदियों से सामाजिक भेदभाव से ग्रस्त रहा है। संविधान का उद्देश्य भेदभाव को गैरकानूनी घोषित करके, हाशिए (मार्जिनलाइज़्ड) पर पड़े समुदायों के लिए आरक्षण के माध्यम से सकारात्मक कार्रवाई को बढ़ावा देकर और सभी नागरिकों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करके सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देना था।
  • शासन की रूपरेखा- संविधान सरकार की संरचना, उसकी शक्तियों, कार्यों और जिम्मेदारियों को परिभाषित करके शासन के लिए रूपरेखा प्रदान करता है। यह सरकार की संस्थाओं, जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थापना करता है, और उनकी भूमिकाओं और संबंधों को रेखांकित करता है।
  • संघीय प्रणाली को अपनाना- भारत ने सरकार की संघीय प्रणाली को चुना है, जहाँ केंद्र सरकार और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा होता है। भारतीय संविधान केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के इस बंटवारे के साथ-साथ उनके बीच किसी भी विवाद को सुलझाने के लिए तंत्र को भी रेखांकित करता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मान्यता- भारत को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता दिलाने तथा अन्य देशों के साथ संधियों, समझौतों और राजनयिक (डिप्लोमेटिक) संबंधों में प्रवेश करने के लिए कानूनी आधार प्रदान करने के लिए एक संविधान आवश्यक था।
  • ऐतिहासिक संदर्भ- ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के लिए विवाद आत्मनिर्णय और स्वशासन के लिए भी विवाद था। संविधान का मसौदा तैयार करना भारतीय लोगों की स्वतंत्रता, समानता और न्याय की आकांक्षाओं को साकार करने में एक महत्वपूर्ण कदम था।

संक्षेप में, भारतीय संविधान की आवश्यकता नव स्वतंत्र राष्ट्र के आधारभूत (फॉउण्डेशनल) सिद्धांतों और मूल्यों को निर्धारित करने तथा उसके शासन, विकास और प्रगति के लिए एक रास्ता प्रदान करने के लिए थी।

भारतीय संविधान के स्रोत

भारतीय संविधान का मसौदा 20वीं सदी के मध्य में तैयार किया गया था और इस प्रकार, विभिन्न संवैधानिक प्रक्रियाओं के साथ-साथ राष्ट्रों के संविधानों को भी ध्यान में रखा गया था। यही कारण है कि हमारे संविधान की विभिन्न विशेषताओं को विभिन्न संविधानों से प्रेरणा लेने और फिर उन्हें भारतीय समाज की स्थितियों के अनुरूप संशोधित  करने के बाद शामिल किया गया है। जबकि हमारे भारतीय संविधान का संरचनात्मक हिस्सा काफी हद तक भारत सरकार अधिनियम 1935 पर आधारित है, इसके दार्शनिक (फिलॉसॉफिकल), राजनीतिक और अन्य भाग अन्य देशों के संविधानों से लिए गए हैं।

भारत सरकार अधिनियम, 1935

भारत सरकार अधिनियम 1935 ब्रिटिश शासन के दौरान पारित सबसे लंबा और सबसे विस्तृत अधिनियम था, जिसमें 321 धाराएँ और 10 अनुसूचियाँ थीं। इस कानून ने अपनी विषय-वस्तु मुख्य रूप से चार स्रोतों से ली थी – साइमन आयोग (कमीशन) (1930) की रिपोर्ट, तीसरे गोलमेज सम्मेलन (1932) के दौरान चर्चा और विचार-विमर्श, 1933 का श्वेत पत्र और संयुक्त चयन समितियों की रिपोर्ट। इस अधिनियम से ली गई विशेषताएँ इस प्रकार हैं:-

  • शक्तियों का विभाजन – इस अधिनियम ने केंद्र और इकाइयों के बीच तीन सूचियों के रूप में शक्तियों के विभाजन का प्रावधान किया – केंद्र के लिए संघीय सूची (इसने वर्तमान में संघ सूची का रूप ले लिया है), प्रांतों के लिए प्रांतीय (प्रोविंशियल) सूची (आज, इसे राज्य सूची के रूप में जाना जाता है) और समवर्ती (कंकररेंट) सूची (वर्तमान संविधान के तहत समवर्ती सूची का भी प्रावधान है)। वर्तमान संविधान में, सूचियाँ VII अनुसूची के अंतर्गत दी गई हैं और इन विषयों पर कानून बनाने की शक्ति अनुच्छेद 246 से प्राप्त होती है।
  • प्रांतीय स्वायत्तता – भारत सरकार अधिनियम 1935 ने प्रांतों में द्विशासन की व्यवस्था को समाप्त कर दिया और इसके स्थान पर ‘प्रांतीय स्वायत्तता’ की शुरुआत की, जिसका अर्थ था कि प्रांतों को अपने परिभाषित क्षेत्रों में प्रशासन की स्वायत्त इकाइयों के रूप में कार्य करने की अनुमति दी गई। इसने प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की भी शुरुआत की, जहाँ राज्यपाल प्रांतीय विधायिका के लिए जिम्मेदार मंत्रियों की सहायता और सलाह पर कार्य करता है। वर्तमान में, इस उद्देश्य के लिए अनुच्छेद 163 का संदर्भ लिया जा सकता है।
  • द्विसदनीयता (बाइकमेरॉलिज्म) – इस अधिनियम ने 11 में से छह प्रांतों में द्विसदनीयता की शुरुआत की, जिसका मतलब था कि उन राज्यों में विधान परिषद (उच्च सदन) के साथ-साथ विधान सभा (निचला सदन) भी थी। वर्तमान में, भारत में, 6 राज्यों, अर्थात् आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उड़ीसा, तेलंगाना, बिहार और उत्तर प्रदेश में द्विसदनीय विधायिका है। द्विसदनीयता प्रदान करने वाला संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 168 है।

अन्य देशों के संविधान

संविधान सभा ने विभिन्न देशों के संविधानों से विभिन्न विशेषताएं ली हैं। इन विशेषताओं को शामिल करने की यात्रा का विस्तृत विवरण लेख के बाद के भाग में दिया गया है।

ब्रिटिश संविधान

  • संसदीय शासन प्रणाली
  • कानून का शासन
  • विधायी प्रक्रिया 
  • एकल नागरिकता
  • कैबिनेट प्रणाली
  • विशेषाधिकार रिट (प्रिरोगेटिव रिट)
  • संसदीय विशेषाधिकार
  • द्विसदनीयता

अमेरिकी संविधान

  • मौलिक अधिकार
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता
  • न्यायिक समीक्षा 
  • राष्ट्रपति पर महाभियोग (इम्पीचमेंट)
  • सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाना
  • उप-राष्ट्रपति का पद

आयरिश संविधान

  • राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी)
  • राज्य सभा (उच्च सदन) के लिए सदस्यों का नामांकन (नॉमिनेशन)
  • राष्ट्रपति के चुनाव की विधि

कैनेडियन संविधान

  • एक मजबूत केंद्र वाला संघ
  • केंद्र में अवशिष्ट शक्तियों (रेसिडुअरी पावर्स) का निहित होना
  • केंद्र द्वारा राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति
  • सर्वोच्च न्यायालय का सलाहकारी क्षेत्राधिकार

ऑस्ट्रेलियाई संविधान

  • समवर्ती सूची
  • व्यापार, वाणिज्य (कॉमर्स) और समागम (इंटरकोर्स) की स्वतंत्रता
  • संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक

वाइमर संविधान

  • आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन

सोवियत संविधान

  • मौलिक कर्तव्य
  • प्रस्तावना (प्रिएंबल) में न्याय के आदर्श (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक)

फ्रांसीसी संविधान

  • गणतंत्र 
  • प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्श

दक्षिण अफ़्रीकी संविधान

  • भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया
  • राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव

जापानी संविधान

  • विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया

भारतीय संविधान के निर्माता

संविधान सभा का विचार कैबिनेट मिशन द्वारा प्रस्तावित किया गया था, और तदनुसार सभा की संरचना कैबिनेट मिशन योजना के अनुरूप बनाई गई थी। इस योजना में सभा के लिए निर्वाचित (इलेक्टेड) और मनोनीत सदस्यों के संयोजन का सुझाव दिया गया था। 1946 में हुए चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) ने 208 सीटें जीतीं, जबकि मुस्लिम लीग को 73 सीटें मिलीं और 15 सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों को मिलीं। हालांकि, रियासतों (प्रिंसली स्टेट्स) द्वारा संविधान सभा में भाग न लेने के निर्णय के कारण 93 सीटें खाली रह गईं। यह उल्लेखनीय है कि भारतीय लोगों द्वारा सीधे निर्वाचित न होने के बावजूद, संविधान सभा में समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधि शामिल थे, जिनमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, पारसी, एंग्लो-इंडियन, भारतीय ईसाई, अनुसूचित जाति/जनजाति, पिछड़े वर्ग और इन सभी समुदायों की महिलाएं शामिल थीं।

संरचना

संविधान सभा की संरचना इस प्रकार थी:

  1. 292 सदस्य जो प्रांतीय विधान सभाओं (पीएलए) के माध्यम से चुने गए थे; 
  2. भारतीय रियासतों का प्रतिनिधित्व 93 सदस्यों द्वारा किया गया था; और 
  3. मुख्य आयुक्तों (चीफ कमिशनर्स) के प्रांतों का प्रतिनिधित्व 4 सदस्यों द्वारा किया गया था।

इस प्रकार, संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 389 होनी थी। हालाँकि, 3 जून, 1947 को माउंटबेटन योजना के कार्यान्वयन (इम्प्लीमेंटेशन) के परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप नए बने पाकिस्तान के लिए एक अलग संविधान सभा का निर्माण हुआ। इसका मतलब यह था कि कुछ प्रांतों के प्रतिनिधि अब भारतीय संविधान सभा का हिस्सा नहीं हो सकते थे, जिसके परिणामस्वरूप सदस्यों की संख्या घटकर 299 रह गई।

संविधान सभा को लेकर आलोचना

संविधान सभा को अपने अस्तित्व के दौरान कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, जिन्हें नीचे सूचीबद्ध किया गया है;

  1. संविधान सभा का निर्माण बहुत समय लेने वाला प्रयास था: अमेरिकी संविधान (1789) के निर्माताओं के साथ तुलना करते हुए, आलोचकों ने कहा कि भारतीय संविधान के निर्माताओं ने जितना समय लिया जाना चाहिए था, उससे अधिक समय लिया था।
  2. संविधान सभा न तो प्रतिनिधि निकाय थी और न ही संप्रभु: आलोचकों ने बताया कि सभा को प्रतिनिधि निकाय नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसके सदस्यों को ‘सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार’ (यूनिवर्सल एडल्ट फ्रैंचाइज़) (यूएएफ) के माध्यम से नहीं चुना गया था और चूंकि सभा के गठन की जड़ें ब्रिटिश सरकार के पास थीं, इसलिए यह निकाय संप्रभु नहीं था।
  3. संविधान सभा पर कांग्रेस दल के सदस्यों का प्रभुत्व था: ग्रैनविले ऑस्टिन नामक एक ब्रिटिश-संवैधानिक विशेषज्ञ ने बताया कि भारत की संविधान सभा एक-दलीय निकाय थी, जिससे यह आरोप लगाया गया कि सभा को केवल कांग्रेस के सदस्यों द्वारा ही शासित किया जाना चाहिए।
  4. संविधान सभा एक हिंदू-प्रधान निकाय थी: आलोचकों ने मुख्य रूप से बताया था कि संविधान सभा ने देश के केवल हिंदुओं का प्रतिनिधित्व किया था, बाकी धर्मों को पीछे छोड़ दिया था।

संविधान सभा की कार्यप्रणाली

9 दिसंबर, 1946 को नई दिल्ली में भारतीय संसद के संविधान कक्ष में पहली बार संविधान सभा बुलाई गई। कक्ष की पहली पंक्ति में पंडित जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, आचार्य जे.बी. कृपलानी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, श्रीमती सरोजिनी नायडू, श्री हरे-कृष्ण महताब, पंडित गोविंद बल्लभ पंत, डॉ. बी.आर. अंबेडकर, श्री शरत चंद्र बोस, श्री सी. राजगोपालाचारी और श्री एम. आसफ अली जैसी नामचीन हस्तियाँ (नोटेबल फिगर्स) मौजूद थीं। इस शुभ अवसर पर मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति को विशेष रूप से देखा गया क्योंकि वे मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र चाहते थे। संविधान सभा के सबसे बुजुर्ग सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने बैठक की अस्थायी अध्यक्षता संभाली, जिसमें 211 सदस्यों ने भाग लिया। इसके बाद, डॉ. राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का अध्यक्ष चुना गया। इसके बाद, एच.सी. मुखर्जी और वी.टी. कृष्णमाचारी को उपाध्यक्ष चुना गया, इस प्रकार सभा के लिए दो उपाध्यक्ष स्थापित हुए।

संविधान सभा का कामकाज पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा 13 दिसंबर 1946 को सभा के समक्ष रखे गए उद्देश्य प्रस्ताव के आधार पर आगे बढ़ा और 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा इसे अपनाया गया। उद्देश्य प्रस्ताव में आठ सिद्धांत सूचीबद्ध किए गए थे जो स्वतंत्रता और संप्रभुता के मूलभूत तत्वों के साथ भारत के संवैधानिक ढांचे को तैयार करने के लिए मार्गदर्शक थे। उक्त प्रस्ताव द्वारा पुष्टि की गई सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सरकार का अधिकार देश के लोगों से आएगा। इसने न्याय (सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक), कानून के समक्ष समानता और नागरिकों के लिए विभिन्न स्वतंत्रताएं सुनिश्चित कीं। इसके अलावा, भारतीय समाज में लंबे समय से चले आ रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए, प्रस्ताव में पिछड़े वर्गों, आदिवासी क्षेत्रों और अल्पसंख्यक समूहों से संबंधित व्यक्तियों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने का भी प्रावधान किया गया। इसके अलावा, वैश्विक शांति को बनाए रखने और मानव कल्याण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से, उद्देश्य प्रस्ताव ने हर कीमत पर राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा करने की वकालत की। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ने संविधान सभा के कामकाज में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव पेश किए और वे हमारी चर्चा के उद्देश्य से यहाँ उल्लेख करने योग्य हैं: –

  1. सभा पूरी तरह से कार्यशील संप्रभु निकाय बन गई और 1947 के अधिनियम के माध्यम से भारत के संबंध में ब्रिटिश संसद की छत्रछाया में बनाए गए किसी भी कानून को रद्द, परिवर्तित या संशोधित किया जा सकता था। 
  2. सभा को मुख्य रूप से दो कार्य सौंपे गए थे;
  • स्वतंत्र राष्ट्र के लिए संविधान बनाना; तथा
  • देश और उसके लोगों के लिए शासन हेतु कानून बनाना।

3. सभा की कुल सदस्य संख्या 299 निर्धारित की गई थी, जिसमें निम्नलिखित शामिल थे

  • भारतीय प्रांत (229), और
  • रियासतें (70)।

सभा ने कानून बनाने और भारतीय संविधान तैयार करने के अलावा कई अन्य तरीकों से भी काम किया, जैसे;

  • 22 जुलाई 1947 और 24 जनवरी 1950 को क्रमशः राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रगान को अपनाया गया। 
  • मई 1949 में, सभा ने राष्ट्रमंडल में भारत की सदस्यता की पुष्टि की थी। 
  • 24 जनवरी 1950 को सभा ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को अपना पहला राष्ट्रपति चुना।

अंततः 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा द्वारा भारत के लिए संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए डॉ. बी.आर. अंबेडकर की अध्यक्षता में एक मसौदा समिति (ड्राफ्टिंग कमिटी) गठित की गई। जब भी समिति की बैठक होती थी, तो बार-बार बहस, चर्चा, तर्क-वितर्क, खंडों को हटाना और खंडों को जोड़ना होता था और यह सब तब सार्थक हुआ जब 26 नवंबर, 1949 को 284 सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ देश द्वारा भारत के संविधान को अपनाया गया। उसके बाद, 26 जनवरी, 1950 से संविधान लागू होने के बाद विधानसभा का अस्तित्व समाप्त हो गया और 1952 में एक नई संसद का गठन किया गया।

संविधान सभा की समितियाँ

किसी भी तरह के कुप्रबंधन (मिसमैनेजमेंट) से बचने और काम के बोझ को कम करने के लिए, संविधान सभा ने संविधान निर्माण के विशिष्ट क्षेत्रों में काम करने वाली विभिन्न समितियों का गठन किया।

प्रमुख समितियाँ

आठ प्रमुख समितियाँ थीं, अर्थात्;

  1. संघ शक्ति समिति – पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में। इस समिति को उन विषयों को परिभाषित करने की जिम्मेदारी दी गई थी जिन पर संघ की कार्यपालिका (एक्सिक्यूटिव) और विधायिका (लेजिस्लेचर) के पास शक्ति है। 
  2. संघ संविधान समिति – पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में। इसे भारत का संविधान लिखने के लिए बनाया गया था।
  3. प्रांतीय संविधान समिति – सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में। इस समिति का गठन प्रांतीय संविधान के एक स्वरूप पर चर्चा करने और उसे प्रदान करने के लिए किया गया था, जो प्रांतीय स्तर पर सरकार की प्रणाली और स्वरूप को निर्धारित करेगा। 
  4. प्रारूप समिति – डॉ. बी.आर. अंबेडकर की अध्यक्षता में। इसे संविधान सभा की अन्य समितियों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों के आधार पर भारत के लिए एक नया संविधान तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।
  5. मौलिक अधिकार, अल्पसंख्यक और जनजातीय एवं बहिष्कृत (एक्सक्लूडेड) क्षेत्रों पर सलाहकार समिति – सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में गठित इस समिति में निम्नलिखित पाँच उप-समितियाँ थीं:
  • मौलिक अधिकार उप-समिति जिसके अध्यक्ष जे.बी. कृपलानी हैं। 
  • अल्पसंख्यक उप-समिति जिसके अध्यक्ष एच.सी. मुखर्जी हैं। 
  • उत्तर-पूर्व सीमांत जनजातीय क्षेत्र तथा असम बहिष्कृत एवं आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्र उप-समिति जिसके अध्यक्ष गोपीनाथ बारदोलोई हैं। 
  • बहिष्कृत एवं आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्र (असम के अलावा) उप-समिति जिसके अध्यक्ष ए.वी. ठक्कर हैं। 
  • उत्तर-पश्चिम सीमांत जनजातीय क्षेत्र उप-समिति।

6. प्रक्रिया नियम समिति – डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में। यह समिति संविधान सभा के सभी नियमों को बनाने के लिए जिम्मेदार थी, जिसमें सदस्यों के प्रवेश और इस्तीफे, सभा और इसकी विभिन्न समितियों में कामकाज का संचालन और सभा के कामकाज में शामिल सभी व्यक्तियों के वेतन और भत्ते तय करना शामिल था।

7. राज्य समिति (राज्यों के साथ बातचीत के लिए समिति) – पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में।

8. संचालन समिति – डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में।

छोटी समितियाँ

शेष 13 समितियों को छोटी समितियाँ माना गया:-

  1. वित्त और कर्मचारी समिति – डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में।
  2. साख (क्रेडेंशियल) समिति – अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर की अध्यक्षता में।
  3. सदन समिति – बी. पट्टाभि सीतारमैया की अध्यक्षता में।
  4. कार्य समिति का क्रम – डॉ. के.एम. मुंशी।
  5. राष्ट्रीय ध्वज पर तदर्थ (एड-हॉक) समिति – डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में।
  6. संविधान सभा के कार्यों पर समिति – जी.वी. मावलंकर की अध्यक्षता में।
  7. सर्वोच्च न्यायालय पर तदर्थ समिति – एस. वरदाचारी की अध्यक्षता में (नोट: वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे)।
  8. मुख्य आयुक्तों के प्रांतों पर समिति – बी. पट्टाभि सीतारमैया की अध्यक्षता में।
  9. मसौदा संविधान की जांच करने के लिए विशेषज्ञ समिति – नलिनी रंजन सरकार की अध्यक्षता में (नोट: वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे)।
  10. भाषाई प्रांत आयोग – एस.के. धर की अध्यक्षता में (नोट: वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे)।
  11. मसौदा संविधान की जांच करने के लिए विशेष समिति – जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में
  12. प्रेस दीर्घा (गैलरी) समिति – उषा नाथ सेन की अध्यक्षता में
  13. नागरिकता पर तदर्थ समिति – एस. वरदाचारी (नोट: वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे)।

संविधान सभा की प्रारूप समिति

ऊपर बताई गई सभी समितियों में से डॉ. बी.आर. अंबेडकर की अध्यक्षता वाली प्रारूप समिति का विशेष उल्लेख आवश्यक है। 29 अगस्त 1947 को गठित प्रारूप समिति को विभिन्न समितियों के प्रस्तावों को ध्यान में रखते हुए भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने का मुख्य कार्य सौंपा गया था। इस समिति में संविधान सभा के सात सदस्य शामिल थे;

  1. डॉ. बी.आर. अंबेडकर समिति के अध्यक्ष बने;
  2. डॉ. के.एम. मुंशी
  3. सैयद मोहम्मद सादुल्लाह
  4. एन. माधव राव (नोट: उन्होंने बी.एल. मित्तर का स्थान लिया, जिन्होंने अस्वस्थता के कारण इस्तीफा दे दिया था)
  5. एन. गोपालस्वामी अयंगर
  6. अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर
  7. टी. टी. कृष्णमाचारी (नोट: उन्होंने डी.पी. खेतान का स्थान लिया, जिनकी मृत्यु 1948 में हो गई थी)

समिति ने अपना पहला मसौदा तैयार करने में छह महीने से अधिक का समय नहीं लिया (फरवरी 1948 में प्रकाशित), जिसमें सुझावों, सार्वजनिक टिप्पणियों और विभिन्न आलोचनाओं के आधार पर परिवर्तन किए गए, और उसके बाद दूसरा मसौदा अक्टूबर 1948 में जारी किया गया।

महिलाएँ और संविधान सभा

संविधान सभा का एक उल्लेखनीय पहलू भारतीय संविधान को आकार देने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी थी। इसके सदस्यों में 15 महिलाएँ थीं जिन्होंने स्वतंत्र भारत के संविधान के निर्माण में अपने-अपने तरीके से बहुमूल्य योगदान दिया। इन 15 व्यक्तियों में से प्रत्येक के विशिष्ट योगदान इस प्रकार दिए गए हैं:-

  1. श्रीमती अम्मू स्वामीनाथन ने जोर देकर कहा कि भारतीय संविधान की नींव दो मजबूत स्तंभों पर टिकी है: मौलिक अधिकार और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत। उन्होंने राय व्यक्त की कि संविधान अत्यधिक व्यापक और भारी होने के कारण इसमें कई सूक्ष्म विवरण शामिल हैं जिन्हें इसके पाठ के बजाय सरकार और विधानमंडल द्वारा संभाला जाना बेहतर है।
  2. श्रीमती एनी मैस्करेन ने प्रांतीय चुनावों पर उल्लेखनीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। भारत के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका के लिए उनकी श्रद्धांजलि को भी सभा में सराहना मिली।
  3. बेगम ऐजाज रसूल ने कहा कि मंत्रालय एक स्थिर निकाय है, इसलिए इसे किसी खास दल या विधानमंडल की सनक और इच्छाओं के अधीन नहीं होना चाहिए, जिसके प्रति यह जवाबदेह है। इसके अलावा, भारतीय संविधान के प्रारूपण के दौरान अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा में डॉ. बी.आर. अंबेडकर द्वारा किए गए सराहनीय प्रयासों की उनकी प्रशंसा भी उल्लेखनीय है।
  4. मद्रास निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाली श्रीमती दक्षयानी वेलायुदन ने सभा में हरिजन समुदाय के कल्याण के बारे में अपनी चिंताएँ लगातार व्यक्त कीं। उन्होंने उनके लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र के विचार का कड़ा विरोध किया और अपने अधिकांश भाषणों में जबरन मजदूरी और अस्पृश्यता (अनटचेबिलिटी) की प्रथा की निंदा की।
  5. श्रीमती जी. दुर्गाबाई ने प्रांतीय उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति की वकालत की, उनका तर्क था कि यह जिम्मेदारी पूरी तरह से राज्यपाल और उनकी मंत्रिपरिषद के पास होनी चाहिए। इसके अलावा, देवदासी प्रथा के निषेध, शोषण से बच्चों की सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर सीमाओं की आवश्यकता पर उनके विचार भी सराहनीय थे।
  6. श्रीमती हंसा मेहता ने देश में महिलाओं के साथ लंबे समय से हो रहे उत्पीड़न को देखते हुए भारत में महिलाओं के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने के महत्वपूर्ण महत्व पर बल दिया।
  7. श्रीमती पूर्णिमा बनर्जी ने स्कूलों में धार्मिक शिक्षा पर राज्य के नियंत्रण पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और संतुलित दृष्टिकोण की वकालत की। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि सही मायने में ‘धर्मनिरपेक्षता’ तभी प्राप्त की जा सकती है जब देश के नागरिक एकजुट हों।
  8. पश्चिम बंगाल निर्वाचन क्षेत्र से संबंधित श्रीमती रेणुका रे ने महिलाओं के लिए समानता और न्याय पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया। 
  9. श्रीमती सरोजिनी नायडू ने भारत की एक समावेशी संविधान सभा की मांग की थी।
  10. श्रीमती सुचेता कृपलानी ने भारत के राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान के पद्य गाकर संविधान सभा के माहौल को उत्साहित किया था। 
  11. श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित ने उत्तर-राज विश्व व्यवस्था में नए एशिया की केन्द्रीयता का लक्ष्य रखा था।
  12. राजकुमारी अमृत कौर स्वतंत्र भारत की पहली महिला थीं जो स्वास्थ्य मंत्री के रूप में कैबिनेट में शामिल हुईं। उन्होंने भारतीय बाल कल्याण परिषद की स्थापना की, उसके बाद दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और लेडी इरविन कॉलेज की स्थापना की। 
  13. श्रीमती मालती चौधरी ने राष्ट्र के विकास में शिक्षा की भूमिका पर जोर दिया।
  14. श्रीमती लीला रे ने स्वतंत्रता से पहले और बाद के भारत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे जातीय महिला संघ और ढाका महिला सत्याग्रह संघ की स्थापना के लिए जिम्मेदार हैं, जिसने क्रमशः महिला सशक्तिकरण और नमक कर विरोधी आंदोलन की दिशा में काम किया। 
  15. श्रीमती कमला चौधरी ने महिलाओं की शिक्षा और सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया।

वाद-विवाद और विचार-विमर्श

संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर संविधान सभा की चर्चा और विचार-विमर्श से उन व्यक्तियों की मानसिक प्रक्रियाओं के बारे में दिलचस्प जानकारी मिलती है, जिन्हें भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने का कार्य सौंपा गया था।

राज्यों का संघ

निर्माताओं के बीच एक अनूठा सवाल यह उठा कि भारत के भावी राज्य को संघ या महासंघ (फेडरेशन) कहा जाए। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि देश की स्वतंत्रता यात्रा के दौरान, कांग्रेस ने हमेशा एक मजबूत केंद्र के साथ भारत की एकता और अखंडता पर जोर दिया है। एक बार, नेताओं ने कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर लिया, जिसमें मुस्लिम लीग का सहयोग हासिल करने के उद्देश्य से एक कमजोर केंद्रीय सरकार का सुझाव दिया गया था; हालाँकि, विभाजन के कारण, स्वीकृति वैसे भी फलदायी नहीं रही। इस प्रकार, जबकि सभा शुरू में भारत के भविष्य को एक संघ के रूप में वर्णित करने के लिए इच्छुक थी, अंतिम दृष्टिकोण ‘संघ’ शब्द के पक्ष में था। डॉ. अंबेडकर ने कहा कि ऐसा यह स्पष्ट करने के लिए किया गया था कि 

  1. भारतीय संघ राज्यों के बीच किसी समझौते का परिणाम नहीं है और 
  2. घटक राज्यों  को इससे अलग होने की कोई स्वतंत्रता नहीं है।

नये राज्यों को स्वीकार/स्थापित करने की शक्ति

संघ में नए राज्यों को शामिल करने या नए राज्य स्थापित करने की केंद्र सरकार की शक्ति के संबंध में, यह पश्चिम बंगाल विधान सभा थी जिसने यह विचार व्यक्त किया कि किसी भी राज्य विधानमंडल से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह ऐसे किसी प्रस्ताव पर सहमत हो जो उसके क्षेत्रों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता हो। इस प्रकार, यह सुझाव दिया गया कि किसी विधेयक को पेश करने पर प्रतिबंध (जिस राज्य की सीमा प्रभावित होनी थी, उसकी सहमति प्राप्त करना) लगाना वांछनीय नहीं होगा। इस प्रकार, अनुच्छेद 3 ने वह रूप ले लिया है जिस रूप में इसे आज रखा गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार अधिनियम 1935 की धारा 290 इस प्रावधान की पूर्ववर्ती है, जिसमें ब्रिटिश सरकार को ब्रिटिश भारत में प्रांतीय सीमाओं को बदलने का अधिकार दिया गया था।

मौलिक अधिकार

1946 की कैबिनेट मिशन योजना में मौलिक अधिकारों पर रिपोर्ट करने के लिए एक सलाहकार समिति की स्थापना का प्रावधान था, लेकिन 1947 के उद्देश्य प्रस्ताव में सभा ने विभिन्न अधिकारों और स्वतंत्रताओं की गारंटी और सुरक्षा के लिए एक भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने की गंभीरता से प्रतिज्ञा की थी। अनुच्छेद 14 के संबंध में, बी.एन. राउ ने अपने व्याख्यात्मक (एक्सप्लेनरी) नोट में बताया कि अनुच्छेद 14 का पहला भाग, जिसमें “कानून के समक्ष समानता” का उल्लेख है, वाइमर संविधान से अपनाया गया था, लेकिन इसका दायरा नागरिकों पर भी लागू करने के लिए बढ़ाया गया था। और “कानून के समान संरक्षण” से संबंधित दूसरा भाग अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन पर आधारित था।

अनुच्छेद 15 को फिर से लंबी चर्चा और विभिन्न संशोधनों के बाद पेश किया गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रावधान का खंड 3 बी.एन. राउ द्वारा वाशिंगटन में न्यायमूर्ति फ्रैंकफर्ट के साथ चर्चा के बाद डाला गया था, जिन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि महिलाओं के लिए कभी-कभी कानूनी प्रावधान किए जा सकते हैं, जैसे कि बच्चे के जन्म से पहले और बाद में विशिष्ट अवधि के लिए उनके रोजगार पर प्रतिबंध लगाना। अनुच्छेद 17 के संबंध में, यह सुझाव दिया गया था कि ‘अस्पृश्यता’ शब्द के साथ ‘अप्राप्यता’ (अनएप्रोचएबिलिटी) शब्द जोड़ा जाना चाहिए, लेकिन सुझाव को स्वीकार नहीं किया गया। दिलचस्प बात यह है कि अनुच्छेद 17 को उसके वर्तमान स्वरूप में सभा में ‘महात्मा गांधी की जय’ के नारों के बीच स्वीकार किया गया।

अनुच्छेद 19 के लिए यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि वर्तमान में इसमें प्रेस की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। हालांकि, मुंशी और अंबेडकर द्वारा तैयार किए गए प्रावधान के प्रारंभिक मसौदे में प्रेस की स्वतंत्रता, पत्राचार की गोपनीयता (सीक्रेसी ऑफ़ करेस्पोंडेंस) का अधिकार, देश के किसी भी हिस्से में निवास और बसने का अधिकार, संपत्ति अर्जित करने का अधिकार आदि का स्पष्ट उल्लेख था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बी.एन. राऊ को संबोधित एक पत्र में श्री अल्लादी के. अय्यर ने आग्रह किया कि मौलिक अधिकारों को सार्वजनिक व्यवस्था, सुरक्षा और संरक्षा के अधीन होना चाहिए। अय्यर ने पत्राचार की गोपनीयता के अधिकार का भी इस आधार पर विरोध किया कि इससे भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के प्रावधानों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा और सभी निजी पत्राचार को राज्य के कागजात का दर्जा मिल जाएगा। उनका मानना ​​था कि भारतीय डाकघर अधिनियम, 1898 के प्रावधान काफी पर्याप्त थे। वास्तव में, उत्तर-पूर्व क्षेत्र और अन्य आदिवासी क्षेत्रों के सदस्यों द्वारा भी आशंका जताई गई थी कि संपत्ति अर्जित करने के अधिकार का कुछ लोग आदिवासी लोगों के नुकसान के लिए अनुचित लाभ उठा सकते हैं।

यह ध्यान देने योग्य है कि मसौदा अनुच्छेद में बहुत सारे अपवाद (एक्सेप्शन) होने की आलोचना से निपटते हुए, डॉ. अंबेडकर ने गिट्लो बनाम न्यूयॉर्क (1925) के मामले में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का उल्लेख किया, जिसमें यह माना गया था कि अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता से यह नहीं पता चलता कि कोई व्यक्ति बिना जिम्मेदारी के जो चाहे बोलने या प्रकाशित करने का पूर्ण अधिकार देता है, न ही यह हर संभव भाषा के उपयोग के लिए उन्मुक्ति प्रदान करने वाला अप्रतिबंधित और निरंकुश लाइसेंस देता है और इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करने से रोकता है।

ठाकुर दास भार्गव ने ‘प्रतिबंध’ ​​शब्द से पहले ‘उचित’ शब्द को जोड़ने का सुझाव दिया था ताकि ‘अन्यथा निर्जीव वस्तु में आत्मा डाली जा सके’। उनके अनुसार, इससे कार्यपालिका और विधायिका लोगों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ करने से बच जाएगी और देश की अदालतों को यह निर्धारित करने का अधिकार मिल जाएगा कि कोई विशेष अधिनियम जनहित में है या नहीं और लगाए गए प्रतिबंध उचित हैं या नहीं। जैसा कि आज स्पष्ट है, इस सुझाव को अंबेडकर ने स्वीकार किया था।

वर्तमान अनुच्छेद 21 के संबंध में मुंशी के मसौदे में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के बिना उसके जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। पन्निकर ने आग्रह किया कि जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को केवल सार्वजनिक व्यवस्था और शांति के लिए एक पूर्णतया पवित्र विषय माना जाना चाहिए। संपत्ति का अधिकार कानून के अधीन दिया जाना चाहिए। इस सुझाव का मुंशी, अंबेडकर और राजगोपालाचारी ने समर्थन किया और तदनुसार ‘संपत्ति’ शब्द को हटा दिया गया। ‘स्वतंत्रता’ शब्द में ‘व्यक्तिगत’ शब्द जोड़ा गया क्योंकि यह महसूस किया गया कि ‘स्वतंत्रता’ को व्यापक रूप से समझा जा सकता है ताकि अन्य चीजों के अलावा अनुबंध की स्वतंत्रता को भी शामिल किया जा सके।

इस प्रावधान में, ‘उचित प्रक्रिया’ शब्द के संबंध में काफी विवाद था। आम तौर पर, इस अभिव्यक्ति को अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसकी व्याख्या के संदर्भ में समझा जाता था। अंतिम विश्लेषण में, ‘उचित प्रक्रिया’ शब्द का मतलब वही था जो अदालतों ने कहा था। राउ की अमेरिकी यात्रा के दौरान न्यायमूर्ति फ्रैंकफर्ट के साथ बी.एन. राउ के साथ चर्चा में, उन्हें बताया गया कि ‘उचित प्रक्रिया’ खंड में निहित समीक्षा की शक्ति – 

  1. अलोकतांत्रिक थी क्योंकि यह कुछ न्यायाधीशों को कानून को वीटो करने की शक्ति प्रदान करती थी, और 
  2. इसने न्यायपालिका पर अनुचित बोझ डालने का भी प्रयास किया। 

इसके बाद, मसौदा समिति ने ‘कानून की उचित प्रक्रिया के बिना’ की जगह ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार’ शब्द रख दिया। ये शब्द जापानी संविधान के अनुच्छेद 31 से उधार लिए गए थे।

धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित अनुच्छेद 25 से 28 की चर्चा के दौरान, आस्ट्रेलिया के संविधान के अनुच्छेद 160 के संदर्भ में जेवोवा के साक्षियों के मामले में आस्ट्रेलिया के न्यायमूर्ति लैथम के निर्णय का संदर्भ दिया गया, जिसमें कहा गया था कि मानव इतिहास में हर समय ऐसे धर्म रहे हैं, जिनमें स्वीकृत प्रथाओं को बड़ी संख्या में लोगों द्वारा अनिवार्य रूप से बुरा और दुष्ट माना जाता है। इसका परिणाम यह हुआ कि सभी धार्मिक विश्वासों को पूर्ण संरक्षण प्रदान करने से संगठित समाज लुप्त हो सकता है। इसलिए, अय्यर का विचार था कि इसमें एक शर्त जोड़ी जानी चाहिए कि प्रावधान में ऐसा कुछ भी नहीं होगा जो राज्य को सामाजिक सुधार के किसी भी उपाय को करने से रोके।

अनुच्छेद 32 में रिट के प्रावधान के बारे में के.एम. मुंशी का मानना ​​था कि यदि देश के नए संविधान में रिट नहीं दी गई तो लोग वर्षों तक मुकदमेबाजी के बाद किसी सरकारी अधिनियम की संवैधानिकता का परीक्षण होने से पहले ही अपने बहुमूल्य अधिकारों को खोने के लिए खुद को समर्पित कर देंगे। इस प्रकार, प्रवर्तन की त्वरित मशीनरी के बिना, संघ और राज्य सरकारें संभवतः हमारी स्वतंत्रता के लिए बहुत हानिकारक कार्यक्रम में चूक सकती हैं।

राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत

यह विचार कि संविधान में कुछ ऐसे अधिकार शामिल किए जाने चाहिए जो न्यायोचित नहीं हैं, के समर्थक सप्रू और बी.एन. राऊ थे, जबकि आलोचक टी.टी. कृष्णमाचारी और मुंशी थे। सभा के सामने 1937 का आयरिश संविधान था, जिसमें मौलिक अधिकारों और सामाजिक नीति के निर्देशक सिद्धांतों के बीच अंतर किया गया था। हमारी संविधान सभा में, जो लोग चाहते थे कि निर्देशक सिद्धांत न्यायसंगत हों, उन्होंने जोर देकर कहा कि एक समय सीमा होनी चाहिए जिसके भीतर सभी निर्देशक सिद्धांत न्यायसंगत हो जाने चाहिए; अन्यथा, वे पवित्र भावनाओं और इच्छाओं और सामाजिक क्रांति के लिए दिखावा मात्र रह जाएंगे। अंततः, सिद्धांतों को काफी समर्थन के साथ शामिल किया गया। अंबेडकर ने अपने भाषण में कहा कि हालांकि इन सिद्धांतों के पीछे कोई कानूनी बल नहीं था, लेकिन वे यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि उनके पास कोई बाध्यकारी बल नहीं था, न ही वे केवल इसलिए बेकार थे क्योंकि वे प्रकृति में न्यायसंगत नहीं थे।

सरकार का स्वरूप

निर्माताओं के मन में यह बात गहराई से बैठी थी कि भविष्य की भारतीय सरकार एक लोकतांत्रिक प्रकार की सरकार होनी चाहिए। उन्होंने तीन मौजूदा स्वरूप पर विचार-विमर्श किया – अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली, ब्रिटिश कैबिनेट सरकार और स्विस निर्वाचित कार्यकारी। आखिरकार, उन्होंने ब्रिटिश कैबिनेट प्रणाली के संशोधित संस्करण (वर्जन) को चुना। इस निर्णय में राष्ट्रपति को संवैधानिक प्रमुख के रूप में नियुक्त करना शामिल था, जिसे पांच साल के कार्यकाल के लिए अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। ब्रिटिश प्रणाली का विकल्प भारत के ब्रिटेन के साथ लंबे समय तक संबंध से भी प्रभावित था। मुंशी ने यह विचार व्यक्त किया कि संसदीय प्रणाली एक अधिक मजबूत सरकार प्रदान करती है क्योंकि विधायिका और कार्यकारी के सदस्य अधिव्यापन (ओवरलैप) होते हैं और सरकार के प्रमुख विधायिका पर नियंत्रण रखते हैं।

भारतीय संविधान का अधिनियमन और प्रवर्तन

संविधान को 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था, जिसमें मसौदा समिति द्वारा तैयार किए गए और अक्टूबर 1948 में प्रकाशित मसौदे को तीन बार पढ़ने के बाद एक प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां शामिल थीं। संविधान के मसौदे पर प्रस्ताव को 26 नवंबर, 1949 को पारित घोषित किया गया, जिसके बाद राष्ट्रपति के साथ-साथ सदस्यों के हस्ताक्षर भी प्राप्त हुए। इस दिन को ‘कानून दिवस’ या ‘संविधान दिवस’ के रूप में जाना जाता है। यह ध्यान देने योग्य है कि प्रस्तावना संविधान के अधिनियमन के बाद आई। 395 अनुच्छेदों में से कुछ अनुच्छेद जैसे अनुच्छेद 5 से 9, अनुच्छेद 379, 392 और 393, 26 नवंबर, 1949 को ही लागू हो गए थे। बाकी अनुच्छेद गणतंत्र दिवस यानी 26 जनवरी 1950 को लागू हुए। जैसे ही भारत का संविधान लागू हुआ, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 और भारत सरकार अधिनियम, 1935 का अस्तित्व समाप्त हो गया। वर्तमान में, हमारा संविधान 448 अनुच्छेदों, 25 भागों और 12 अनुसूचियों से सुसज्जित है।

संविधान की प्रमुख विशेषताएँ

आधुनिक संविधान

चूँकि भारतीय संविधान का मसौदा 20वीं सदी के मध्य में तैयार किया गया था, इसलिए इसके निर्माताओं को दुनिया के विभिन्न देशों के कई संविधानों के साथ-साथ विभिन्न संवैधानिक प्रक्रियाओं को भी ध्यान में रखने का लाभ मिला। यही कारण है कि हमारे संविधान की विभिन्न विशेषताओं को विभिन्न संविधानों से प्रेरणा लेने और फिर उन्हें भारतीय समाज की स्थितियों के अनुरूप संशोधित करने के बाद शामिल किया गया है। जबकि हमारे भारतीय संविधान का संरचनात्मक हिस्सा मुख्य रूप से भारत सरकार अधिनियम 1935 पर आधारित है, इसके दार्शनिक, राजनीतिक और अन्य भाग अन्य देशों के संविधानों से लिए गए हैं, जैसा कि पहले ही ऊपर चर्चा की जा चुकी है।

सबसे लंबा लिखित संविधान

भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है, जिसमें इसके प्रावधानों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। संविधान का हाथी जैसा आकार कई कारणों से है, जैसे –

  • भौगोलिक कारक (ज्योग्राफिकल फैक्टर्स) – भारत दुनिया का सातवाँ सबसे बड़ा देश है और इसमें बहुत ही विविध सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमि के लोग रहते हैं। उनके बीच आपसी अविश्वास को दूर करने के लिए, निर्माताओं ने अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए मौलिक अधिकारों और सुरक्षा उपायों पर विस्तृत प्रावधान शामिल करना आवश्यक समझा।
  • ऐतिहासिक कारक (हिस्टोरिकल फैक्टर्स) – भारत सरकार अधिनियम 1935, जिस पर हमारा संविधान आधारित है, अपने आप में बहुत बड़ा है। नए प्रावधानों को शामिल करने से इसका आकार और भी बड़ा हो गया है।
  • केंद्र और राज्यों का संगठन और संरचना – संविधान केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के संगठन और संरचना से संबंधित है। इसमें केंद्र-राज्य संबंध, सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत, संसदीय प्रक्रिया आदि के संबंध में विस्तृत मानदंड हैं।
  • संविधान सभा में विधिवेत्ताओं (लीगल लुमिनरिस) का प्रभुत्व – इसने भी संविधान के प्रावधानों को विस्तृत बनाने में योगदान दिया।

कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण

दुनिया के किसी भी अन्य संविधान की तरह, भारतीय संविधान भी संसद को संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है ताकि वह समाज और राष्ट्र की बदलती जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार खुद को समायोजित कर सके। यह संशोधन शक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत प्रदान की गई है, जिसमें संविधान के किसी भी प्रावधान को जोड़ने, बदलने या निरस्त करने के माध्यम से संशोधन करना शामिल है। 1950 में इसे अपनाने के बाद से, भारतीय संविधान में समय-समय पर कई संशोधन हुए हैं।

प्रस्तावना

संविधान के निर्माताओं, संविधान के स्रोतों, इसके पीछे की अंतिम स्वीकृति और इसके लक्ष्यों और उद्देश्यों के बारे में स्पष्ट करने के लिए, संविधान में एक ‘प्रस्तावना’ जोड़ी गई है। इसमें वह अधिनियमन खंड शामिल है जिसने संविधान को लागू किया और नागरिकों के लिए सुरक्षित किए जाने वाले अधिकारों और स्वतंत्रताओं की घोषणा की। यह देश में स्थापित की जाने वाली सरकार और राजनीति के मूल प्रकार (“संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य”) की भी घोषणा करता है।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में, यह निर्धारित किया गया था कि प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है और संविधान को प्रस्तावना में व्यक्त भव्य और महान दृष्टिकोण के प्रकाश में पढ़ा और व्याख्या किया जाना चाहिए।

समाजवादी राज्य

हालांकि शुरू में ‘समाजवादी’ (सोशलिस्ट) शब्द संविधान में नहीं था, लेकिन इसे 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया और इस प्रकार, इस आदर्श के प्रति भारत की प्रतिबद्धता स्पष्ट हो गई। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय संदर्भ में समाजवाद का अर्थ नीति के मामले में राज्य के स्वामित्व पर जोर देने से बहुत दूर है। भारत ने हमेशा एक मिश्रित अर्थव्यवस्था का पक्ष लिया है जहाँ सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र एक साथ सह-अस्तित्व में हों। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आर्थिक कानून का आकलन और मूल्यांकन करने के लिए डीपीएसपी के साथ इस अवधारणा का उपयोग किया है। डीएस नाकारा बनाम भारत संघ (1983) में सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, समाजवाद का मुख्य उद्देश्य आय, स्थिति और जीवन के मानकों की असमानता को खत्म करना और कामकाजी लोगों को एक सभ्य जीवन स्तर प्रदान करना है।

कल्याणकारी राज्य

काफी हद तक आधुनिक दृष्टिकोण से प्रभावित भारतीय संविधान एक अलग सरकारी दर्शन को मूर्त रूप देता है, जो स्पष्ट रूप से घोषित करता है कि भारत को एक सामाजिक कल्याणकारी राज्य के रूप में संगठित किया जाएगा। कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो लोगों को सामाजिक सेवा प्रदान करता है और उनके सामान्य कल्याण को बढ़ावा देता है। एक कल्याणकारी राज्य के रूप में भारत का विचार संवैधानिक प्रस्तावना में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वास्तव में, इस अवधारणा को मजबूत करने के लिए, निर्माताओं ने डीपीएसपी को शामिल किया है, जो भारतीय संवैधानिक प्रणाली के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक लक्ष्यों को निर्धारित करता है। जबकि ये डीपीएसपी गैर-न्यायसंगत प्रकृति के हैं, सरकार सामाजिक कल्याण और रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार आदि जैसे बुनियादी सामाजिक मूल्यों को प्राप्त करने और अधिकतम करने के लिए बाध्य है।

धर्मनिरपेक्ष राज्य

भारत एक बहु-धार्मिक देश है और इस प्रकार, किसी भी समूह के धर्म के आधार पर पक्षपात को रोकने और उसके साथ भेदभाव न करने को सुनिश्चित करने के लिए, भारत धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को बढ़ावा देता है। जबकि यह अवधारणा हमेशा भारतीय संवैधानिक न्यायशास्त्र में मौजूद थी, इसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) द्वारा स्पष्ट किया गया, जिसने प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा। राज्य द्वारा धर्मनिरपेक्षता सुनिश्चित करने का अर्थ है कि राज्य किसी भी आधिकारिक धर्म की घोषणा, मान्यता, पक्ष या पहचान नहीं करता है; बल्कि, यह सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है। इसके अलावा, राज्य पूजा और धर्म की स्वतंत्रता के रूप में कई मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है, साथ ही धर्म के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को भी गैरकानूनी घोषित करता है। यह ध्यान देने योग्य है कि, केशवानंद भारती मामले के अनुसार, धर्मनिरपेक्षता संविधान की एक बुनियादी विशेषता है।

उत्तरदायी सरकार

लोकतांत्रिक राज्य के विचार को मजबूत करने के लिए, भारतीय संविधान राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर संसदीय शासन प्रणाली स्थापित करने का प्रयास करता है। संसदीय शासन प्रणाली में, कार्यपालिका निर्वाचित विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है। 20वीं सदी की शुरुआत से ही कांग्रेस द्वारा उत्तरदायी सरकार की मांग की जाती रही है और यह शब्द अंततः भारत सरकार अधिनियम 1919 (जिसे मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है) में पहली बार सामने आया। हालाँकि, उस समय, इस अवधारणा को भारत के लोगों द्वारा सरकार में अधिक प्रतिनिधित्व के संदर्भ में अधिक समझा जाता था।

भारत में केंद्र स्तर पर संसदीय शासन प्रणाली का अर्थ है कि कार्यकारी शक्ति, हालांकि औपचारिक रूप से राष्ट्रपति में निहित है, वास्तव में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद द्वारा प्रयोग की जाती है और लोकसभा के लिए उत्तरदायी होती है। लगभग समान स्वरूप राज्यों पर भी लागू होता है।

मौलिक अधिकार

भारतीय संविधान की एक सर्वोत्कृष्ट (क्विन्टिसेन्सल) विशेषता यह है कि यह लोगों को कुछ बुनियादी मानवाधिकारों और स्वतंत्रताओं की गारंटी देता है, उदाहरण के लिए, कानून की समानता और कानूनों का समान संरक्षण; भेदभाव, अस्पृश्यता या शोषण के विरुद्ध अधिकार; भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; पूजा और धर्म; सभा और संघ; व्यापार या व्यवसाय; आदि; दोहरे खतरे और पूर्वव्यापी कानूनों के विरुद्ध अधिकार (एक्स पोस्ट फक्टो लॉ)। ये अविभाज्य -न्यायसंगत अधिकार हैं, हालाँकि, सामाजिक नियंत्रण के हितों में कुछ उचित प्रतिबंधों के साथ। उन्हें संविधान के भाग III में, विशेष रूप से अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक प्रदान किया गया है। इसके अलावा, संविधान अनुच्छेद 32 (सर्वोच्च न्यायालय का रिट क्षेत्राधिकार) और अनुच्छेद 226 (उच्च न्यायालयों का रिट क्षेत्राधिकार) के तहत इन अधिकारों के प्रवर्तन के लिए एक प्रभावी तंत्र प्रदान करता है।

मौलिक अधिकारों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का मानना ​​है कि उनकी व्याख्या व्यापक और उदारतापूर्वक (लिबरली) की जानी चाहिए, संकीर्ण (नैरो) रूप से नहीं। यह माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से स्पष्ट है, क्योंकि इसने संविधान के भाग III में दिए गए मौलिक अधिकारों के दायरे में कई नए अधिकार दिए हैं, जैसे निजता का अधिकार, अपनी पसंद का साथी रखने का अधिकार आदि।

राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत

डॉ. बीआर अंबेडकर द्वारा “भारतीय संविधान की नई विशेषता” के रूप में वर्णित, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) संविधान में शामिल सिद्धांतों का एक समूह है, जिसका उद्देश्य लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार लाना है। यह भारत को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में देखने के विचार के अनुरूप है और राज्य प्राधिकारियों के लिए अपने कानून बनाने में इन्हें लागू करना अनिवार्य है। डीपीएसपी संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36-51) में निहित हैं। चूंकि वे प्रकृति में गैर-न्यायसंगत हैं, इसलिए उनके उल्लंघन के लिए उन्हें कानून की न्यायालय में लागू नहीं किया जा सकता है। मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के मामले में, यह माना गया कि भारतीय संविधान डीपीएसपी और मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन की नींव पर स्थापित है।

मौलिक कर्तव्य

जिस तरह राज्य पर डीपीएसपी के अनुसार कार्य करने का नैतिक दायित्व है, उसी तरह संविधान भी देश के नागरिकों द्वारा पालन किए जाने वाले कुछ कर्तव्यों का प्रावधान करता है, ताकि यह याद दिलाया जा सके कि उनके अधिकारों का आनंद नागरिकों द्वारा देश, समाज और साथी नागरिकों के प्रति किए जाने वाले कर्तव्यों की चेतना के साथ-साथ चलता है। हालाँकि मौलिक कर्तव्य शुरू में संविधान में नहीं थे, लेकिन उन्हें भाग IVA के तहत अनुच्छेद 51A के रूप में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) द्वारा जोड़ा गया था। कुल मिलाकर, नागरिकों के ग्यारह मौलिक कर्तव्य हैं, जैसे संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों और संस्थानों का सम्मान करना, हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित करने वाले आदर्शों को संजोना (रीशिंग), देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता को बनाए रखना आदि।

चुनाव

भारत को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए प्रतिनिधियों के चुनाव के आधार के रूप में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (यूएएस) को अपनाने पर गर्व है। यूएएस को अपनाना अपने आप में संविधान निर्माताओं की ओर से एक साहसिक कदम था, क्योंकि भारत एक ऐसा देश था जिसकी आबादी काफी हद तक निरक्षर थी और किसी भी संपत्ति-आधारित या शैक्षिक योग्यता को लागू करने से वे बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांतों से वंचित हो जाते।

स्वतंत्र, उचित और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए, संविधान में संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनावों की निगरानी और संचालन के लिए एक स्वायत्त चुनाव आयोग (अनुच्छेद 324) का भी प्रावधान है।

एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका

एक सुव्यवस्थित और सुविनियमित (वेल रेगुलेटेड) न्यायिक तंत्र देश की एक अन्य प्रमुख विशेषता है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय सबसे ऊपर है, उसके नीचे राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय हैं, और अंत में अधीनस्थ न्यायालय हैं, अर्थात जिला न्यायालय और अन्य निचली अदालतें। अमेरिका के विपरीत, जहाँ न्यायालयों की दोहरी प्रणाली मौजूद है, भारत में एक एकीकृत न्यायपालिका है जो संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा अधिनियमित किसी भी कानून के तहत उत्पन्न होने वाले सभी मामलों पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करती है। न्यायपालिका की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका लोगों के मौलिक अधिकारों को किसी भी अनुचित अतिक्रमण से बचाना है। सर्वोच्च न्यायालय को स्वयं “लोगों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक” माना जाता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रावधान इस प्रकार हैं – न्यायाधीशों के कार्यकाल की सुरक्षा, निश्चित सेवा शर्तें, विधायिकाओं में उनके आचरण पर चर्चा के संबंध में निषेध, अवमानना ​​शक्ति (कंटेम्प्ट पावर्स) , न्यायपालिका से कार्यपालिका का पृथक्करण आदि।

यह ध्यान देने योग्य है कि शुरू में, कलकत्ता में 1773 के विनियमन अधिनियम (रेगुलेटिंग एक्ट) द्वारा एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी। इसके अलावा, मद्रास और बॉम्बे में क्रमशः 1800 और 1823 में दो सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किए गए थे। हालाँकि, भारत उच्च न्यायालय अधिनियम 1861, जिसे विभिन्न प्रांतों के लिए उच्च न्यायालय बनाने के लिए अधिनियमित किया गया था, ने तीनों सर्वोच्च न्यायालयों के साथ-साथ प्रांत (प्रेसीडेंसी) शहरों में सदर अदालतों को भी समाप्त कर दिया। इसके बाद, भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत भारत का संघीय न्यायालय बनाया गया, जिसके पास प्रांतों और संघीय राज्यों के बीच विवादों को सुलझाने और उच्च न्यायालयों के निर्णयों के खिलाफ अपील सुनने का अधिकार था। अंत में, भारत का सर्वोच्च न्यायालय, जैसा कि यह अपने वर्तमान स्वरूप में है, 26 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया, जब भारतीय संविधान लागू हुआ।

एकात्मक पूर्वाग्रह वाली संघीय प्रणाली 

भारतीय संविधान दोहरी राजनीति स्थापित करता है, यानी दो-स्तरीय शासन प्रणाली जिसमें एक स्तर पर केंद्र सरकार और दूसरे पर राज्य सरकार होती है। इसके तहत संविधान शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान की सर्वोच्चता, स्वतंत्र न्यायपालिका और द्विसदनीयता प्रदान करता है। हालांकि, संघीय ढांचे के भीतर, संविधान केंद्रीकरण के संबंध में कुछ प्रावधान भी प्रदान करता है, जिसका अर्थ है कि केंद्र सरकार के पास कार्रवाई का एक बड़ा क्षेत्र है और इस प्रकार वह राज्यों की तुलना में अधिक शक्तिशाली भूमिका निभाती है। संविधान की कुछ एकात्मक या गैर-संघीय विशेषताएं इस प्रकार हैं – एकल संविधान जिसमें एकल नागरिकता, स्वतंत्र न्यायपालिका, अखिल भारतीय सेवाएं, केंद्र द्वारा राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति, आपातकालीन प्रावधान आदि का प्रावधान है। इन कारणों से, प्रोफेसर केसी व्हेयर भारत को एक ‘अर्ध-संघीय राज्य’ के रूप में वर्णित करते हैं जो रूप में संघीय है लेकिन भावना में एकात्मक है।

यह ध्यान देने योग्य है कि ‘संघ’ शब्द के स्थान पर निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 1 के अंतर्गत ‘राज्यों का संघ’ शब्द का प्रयोग यह इंगित करने के लिए किया है कि 

  1. भारतीय संघ राज्यों के बीच किसी समझौते का परिणाम नहीं है और 
  2. इसके घटक राज्यों को इससे अलग होने की कोई स्वतंत्रता नहीं है।

एकल नागरिकता

भारतीय संविधान की मुख्य एकात्मक विशेषताओं में से एक यह है कि यह केवल एकल नागरिकता प्रदान करता है, जबकि अमेरिका जैसे देशों में ऐसा नहीं है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अमेरिका के साथ-साथ उस राज्य का भी नागरिक होता है, जहाँ वह रहता है। दूसरी ओर, भारत में सभी नागरिकों को पूरे देश में नागरिकता के संबंध में समान राजनीतिक और नागरिक अधिकार प्राप्त हैं, चाहे वे जिस भी राज्य में पैदा हुए हों या रह रहे हों। संविधान के भाग II (अनुच्छेद 511) में भारत की नागरिकता से संबंधित प्रावधान हैं। इसके अलावा, नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत विस्तृत प्रावधान किए गए हैं।

आपातकालीन प्रावधान

देश के राष्ट्रपति को किसी भी असामान्य स्थिति से प्रभावी ढंग से निपटने में सक्षम बनाने के लिए, भारतीय संविधान ने भाग XVIII के तहत अनुच्छेद 352 से अनुच्छेद 360 तक विस्तृत आपातकालीन प्रावधान प्रदान किए हैं। संविधान में इन प्रावधानों को शामिल करने का मुख्य उद्देश्य देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा, लोकतांत्रिक राजनीतिक ढांचे और संविधान की रक्षा करना है। आपातकाल के दौरान एक विशेषता यह है कि सभी शक्तियाँ और राज्य केंद्र सरकार के नियंत्रण में होते हैं। इस प्रकार, यह संविधान के किसी भी उचित औपचारिक संशोधन के बिना देश के संघीय ढांचे को एकात्मक में बदल देता है। भारतीय संविधान के तहत तीन प्रकार के आपातकाल हैं:-

  1. अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल – इसे युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह (आर्म्ड रेबेलिएन) के आधार पर घोषित किया जाता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पहले, ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द के स्थान पर ‘आंतरिक अशांति’ (इंटरनल डिस्टर्बेंस) शब्द का उपयोग किया जाता था। इन शब्दों का प्रतिस्थापन (सब्स्टिटूशन) 44वें संविधान संशोधन अधिनियम (1978) द्वारा किया गया था। मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1980) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि राष्ट्रीय आपातकाल को दुर्भावना के आधार पर या आपातकाल की घोषणा पूरी तरह अप्रासंगिक और बाहरी तथ्यों पर आधारित होने के आधार पर न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
  2. अनुच्छेद 356 और 365 के तहत राज्य आपातकाल – इसे राष्ट्रपति शासन के रूप में भी जाना जाता है। अनुच्छेद 356 राज्य के भीतर संवैधानिक तंत्र की विफलता के आधार पर राज्य आपातकाल का प्रावधान करता है, जबकि अनुच्छेद 365 केंद्र के निर्देशों का पालन करने में विफलता होने पर आपातकाल की घोषणा का प्रावधान करता है।
  3. अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल – यह देश की वित्तीय स्थिरता या ऋण के लिए खतरे के आधार पर घोषित किया जाता है।

भारतीय संविधान का महत्व

राष्ट्र का सर्वोच्च कानून

संविधान कानूनी आधार के रूप में कार्य करता है जिस पर किसी देश के सभी कानून और नियम आधारित होते हैं। यह कानूनी प्रणाली में स्थिरता और सुसंगतता प्रदान करके देश पर शासन करने में सर्वोच्च अधिकार रखता है। यह शासन के लिए रूपरेखा तैयार करता है, नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को परिभाषित करता है, और विभिन्न सरकारी संस्थानों की संरचना और शक्तियों को स्थापित करता है।

कानून का शासन

भारतीय संविधान कानून के शासन के सिद्धांत को कायम रखकर अपना महत्व दर्शाता है, जिसका अर्थ है कि सरकारी अधिकारियों सहित कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। यह सुनिश्चित करता है कि कानून सभी नागरिकों और संस्थानों पर समान रूप से लागू होते हैं, चाहे उनकी स्थिति या पद कुछ भी हो। यह सिद्धांत कानूनी प्रणाली के भीतर निष्पक्षता, न्याय और जवाबदेही को बढ़ावा देता है, शक्ति के मनमाने उपयोग को रोकता है और व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है।

मौलिक अधिकारों की सुरक्षा

भारतीय संविधान मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी देता है, जो सभी नागरिकों को दी जाने वाली आवश्यक स्वतंत्रता और आज़ादी हैं। इन अधिकारों में समानता का अधिकार, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार और संवैधानिक उपचार का अधिकार शामिल हैं। संविधान यह सुनिश्चित करता है कि इन अधिकारों का राज्य या किसी व्यक्ति द्वारा उल्लंघन न किया जाए और नागरिक अपने अधिकारों का उल्लंघन होने पर निवारण की मांग कर सकते हैं।

शासन में स्थिरता और निरंतरता

भारतीय संविधान नियंत्रण और संतुलन के साथ लोकतांत्रिक शासन की प्रणाली स्थापित करके शासन में स्थिरता और निरंतरता के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है। यह सरकार के विभिन्न अंगों, यानी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की संरचना और शक्तियों को रेखांकित करता है और उनकी भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को निर्दिष्ट करता है। इसके अतिरिक्त, संविधान सरकारी अधिकारियों के चुनाव और नियुक्ति के लिए प्रक्रियाएँ निर्धारित करता है, जिससे सत्ता का सुचारू संक्रमण सुनिश्चित होता है और शासन में अचानक व्यवधानों को रोका जाता है। वास्तव में, विवादों और असहमति को हल करने के लिए न्यायिक समीक्षा की शक्ति जैसे शांतिपूर्ण तंत्र भी हैं।

राष्ट्रीय एकता

चूँकि भारत एक बहु-विविध देश है, इसलिए भारतीय संविधान भारत की विविध आबादी को एक साथ जोड़ने वाला एक साझा ढाँचा प्रदान करके राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह देश की समृद्ध सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता को स्वीकार करता है और उसका सम्मान करता है, साथ ही समानता, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के माध्यम से एकता और एकीकरण के महत्व पर जोर देता है।

भारतीय संविधान की आलोचना

उधार लिया गया संविधान

चूँकि भारतीय संविधान विभिन्न विदेशी स्वरुपो से प्रेरणा लेकर बनाया गया है, इसलिए आलोचकों का तर्क है कि इस निर्भरता के परिणामस्वरूप एक ऐसा दस्तावेज़ तैयार हुआ है जिसमें कुछ भी नया या मौलिक नहीं है और इसमें भारत के अद्वितीय सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भ के लिए पर्याप्त अनुकूलन का अभाव है।

1935 के भारत सरकार अधिनियम की नक़ल

आलोचकों के अनुसार, भारतीय संविधान के कई प्रावधान भारत सरकार अधिनियम, 1935 से काफी मिलते-जुलते हैं, जिसे ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने अधिनियमित किया था। इसे औपनिवेशिक प्रभावों से अलग होने और देश के मूलभूत कानूनी दस्तावेज़ के प्रारूपण में भारत की संप्रभुता को मुखर करने में विफलता के सबूत के रूप में देखा जाता है।

गैर-गांधीवादी संविधान

आलोचकों का तर्क है कि संसदीय लोकतंत्र, केंद्रीकृत शासन और आधुनिक कानूनी ढाँचे पर ज़ोर देने वाला संविधान, अहिंसा, ग्राम स्वशासन (ग्राम स्वराज) और आर्थिक आत्मनिर्भरता (सर्वोदय) जैसे सिद्धांतों पर आधारित विकेंद्रीकरण (डीसेंटरलाइज़ेशन) और जमीनी स्तर के लोकतंत्र के गांधी के दृष्टिकोण को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं करता है। उनके अनुसार, गांधीवादी आदर्शों को प्राथमिकता न देने से असमानताएँ बनी रहती हैं और सामुदायिक सशक्तिकरण कमज़ोर होता है।

आकार में बहुत लंबा

आलोचकों का तर्क है कि संविधान बहुत बड़ा और बहुत विस्तृत है, जिसमें कुछ अनावश्यक प्रावधान भी हैं। वे शासन में पारदर्शिता, दक्षता और पहुँच बढ़ाने के लिए एक सुव्यवस्थित और अधिक संक्षिप्त संविधान की वकालत करेंगे।

जटिल “वकीलों की भाषा” का उपयोग

आलोचक अक्सर तर्क देते हैं कि सघन कानूनी शब्दावली और जटिल वाक्यांश संविधान को आम नागरिकों के लिए उसमें उल्लिखित अपने अधिकारों और दायित्वों को समझना चुनौतीपूर्ण बनाते हैं। यह जटिलता नागरिकों और कानूनी प्रणाली के बीच प्रभावी संचार को भी बाधित करती है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जागरूकता और भागीदारी की कमी होती है।

भारतीय संविधान में लाए गए परिवर्तन

किसी भी कानून को सबसे प्रभावी ढंग से तभी बनाया जा सकता है जब उसे समाज की बदलती जरूरतों और परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जा सके। दुनिया भर के संविधानों के साथ भी यही स्थिति है, जो देशों में कानून बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण आधार के रूप में कार्य करते हैं। जबकि कुछ संविधान कठोर होते हैं, जो स्थायी मूल्य के सिद्धांतों को निर्धारित करते हैं और गहन विचार-विमर्श के बाद ही संशोधित किए जाते हैं, अन्य लचीले होते हैं, जिनमें संशोधन आसानी से किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश संविधान को संसद के किसी भी साधारण अधिनियम द्वारा संशोधित किया जा सकता है।

इसी तरह, भारतीय संविधान में संसद को संशोधन करने की शक्ति भी दी गई है ताकि वह समाज और राष्ट्र की बदलती जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार खुद को समायोजित कर सके। यह संशोधन शक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत प्रदान की गई है, जिसमें संविधान के किसी भी प्रावधान को जोड़ने, बदलने या निरस्त करने के माध्यम से संशोधन करना शामिल है। 1950 में अपनाए जाने के बाद से, भारतीय संविधान में समय-समय पर कई संशोधन हुए हैं।

संविधान संशोधन की प्रक्रिया

भारत में संविधान के विभिन्न प्रावधानों को उनकी संशोधनीयता के संबंध में अलग-अलग तरीके से निपटाया जाता है। भारतीय संविधान में संशोधन की तीन श्रेणियाँ पाई जा सकती हैं:-

  1. संवैधानिक प्रावधान, जो तुलनात्मक रूप से कम महत्वपूर्ण हैं, उन्हें एक सरल विधायी प्रक्रिया द्वारा संशोधित किया जा सकता है, जैसे कि उन्हें संसद में किसी अन्य सामान्य कानून को पारित करते समय अपनाया जाता है। इन प्रावधानों के लिए, संसद को ऐसे कानून बनाने का अधिकार दिया गया है जो इन अनुच्छेदों के प्रावधानों से अलग हैं। इस प्रकार, वे अनुच्छेद 368 के तहत निर्धारित विशेष प्रक्रिया के अधीन नहीं हैं। उदाहरण के लिए-
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 2 के अंतर्गत किसी नए राज्य को शामिल करने के लिए अनुसूची I और IV में अनुवर्ती (कान्सक्वेंट) संशोधन किए जा सकते हैं, जो क्रमशः राज्यों के बीच क्षेत्र की परिभाषा और राज्यसभा में सीटों के आवंटन का प्रावधान करते हैं।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 11 के तहत संसद को अनुच्छेद 5 से 10 के बावजूद नागरिकता के अधिग्रहण और समाप्ति के लिए कोई भी प्रावधान बनाने की शक्ति प्राप्त है।

2. कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान जिन्हें संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत निर्धारित प्रक्रिया (विशेष बहुमत के नियम) का पालन करके ही संशोधित किया जा सकता है:-

  • संसद के किसी भी सदन में संवैधानिक संशोधन का विधेयक (बिल) पेश करें।
  • विधेयक को प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्यता के बहुमत से तथा उस सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत से पारित किया जाना चाहिए।
  • राष्ट्रपति को विधेयक पर अपनी सहमति देनी चाहिए।

3. कुछ संवैधानिक प्रावधान जो संघीय चरित्र से संबंधित हैं, जिन्हें अक्सर ‘जड़बद्ध (एंट्रेन्च्ट) प्रावधान’ माना जाता है, उन्हें अनुच्छेद 368 के तहत निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार संशोधित किया जा सकता है, प्रक्रिया में थोड़ा बदलाव करके राष्ट्रपति के पास उनकी स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किए जाने से पहले, विधेयक को कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा संकल्पों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। यह धारा 368 के खंड (2) के तहत ही प्रदान किया गया है। उदाहरण के लिए-

  • अनुच्छेद 54 और 55 के तहत भारत के राष्ट्रपति के चुनाव का तरीका। 
  • अनुच्छेद 73 और 162 के तहत क्रमशः संघ और राज्यों की कार्यकारी शक्ति की सीमा। 
  • अब तक, संसद में भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों में परिवर्तन लाने के लिए 106 संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किए गए हैं।

न्यायिक व्याख्या

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित नहीं है और इसके खिलाफ न्यायिक सुरक्षा उपाय भी हैं। सबसे महत्वपूर्ण सुरक्षा उपायों में से एक यह है कि संसद संविधान के उन प्रावधानों में संशोधन नहीं कर सकती जो संविधान के ‘मूल संरचना’ का हिस्सा हैं। इस संबंध में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न न्यायिक निर्णय इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि मूल संरचना का गठन क्या होता है और संसद द्वारा उनमें संशोधन क्यों नहीं किया जाना चाहिए।

मूल संरचना के सिद्धांत को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त एक कानूनी सिद्धांत के रूप में समझा जा सकता है जो संविधान के उन मूल सिद्धांतों और मूल्यों की पहचान करता है जिन्हें संसद संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत अपनी संशोधन शक्ति के माध्यम से संशोधित नहीं कर सकती है। यह सिद्धांत 24 अप्रैल 1973 को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक मामले में स्थापित किया गया था। 13 न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि संसद के पास संविधान के आवश्यक संरचना या ढांचे को बदलने का अधिकार नहीं है। मूल संरचना का सिद्धांत मनमाने संशोधनों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण सुरक्षा के रूप में कार्य करता है और संविधान के सार को संरक्षित करने में मदद करता है।

इस मामले में न्यायाधीशों द्वारा दी गई कुछ महत्वपूर्ण राय इस प्रकार हैं:

  • संविधान में संशोधन करने की शक्ति अनुच्छेद 368 में ही पाई जाती है। इस संबंध में, आई.सी. गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) में न्यायालय के निर्णय को खारिज कर दिया गया। 
  • साधारण कानून और संवैधानिक कानून के बीच अंतर होता है। संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 13 में ‘कानून’ शब्द का उपयोग ‘संवैधानिक कानून’ को शामिल करने के लिए नहीं किया क्योंकि इसका मतलब होगा कि अनुच्छेद 368 को मौलिक अधिकार या संविधान के किसी अन्य भाग को कम करने की शक्ति प्रदान करना।
  • संसद की संशोधन शक्ति का प्रयोग इस तरह से नहीं किया जा सकता कि संविधान की मौलिक या बुनियादी विशेषताएं नष्ट हो जाएं। इस प्रकार, कोई भी संवैधानिक संशोधन जो संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है, अधिकारातीत (अल्ट्रा वायरस) है।

भारतीय संविधान की मूल संरचना

अनेक न्यायिक घोषणाओं से भारतीय संविधान की मूल संरचना की मूल विशेषताएं या तत्व निम्नानुसार निर्धारित किए जा सकते हैं:-

  • संविधान की सर्वोच्चता।
  • संविधान की संप्रभु, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक प्रकृति।
  • सरकार के विभिन्न अंगों अर्थात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण।
  • संविधान का संघीय चरित्र।
  • संविधान की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति।
  • देश की एकता और अखंडता।
  • कानून का शासन।
  • न्यायिक समीक्षा।
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता।
  • संसदीय प्रणाली।
  • कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय)।
  • न्याय तक प्रभावी पहुँच।
  • स्वतंत्रता के साथ-साथ व्यक्ति की गरिमा भी।
  • मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के बीच सामंजस्य और संतुलन।
  • मौलिक अधिकारों के अंतर्निहित सिद्धांत।
  • समानता का सिद्धांत।
  • अनुच्छेद 32 (रिट क्षेत्राधिकार), 136 (विशेष अनुमति याचिका के संबंध में क्षेत्राधिकार), 141 (सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून की प्रकृति अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी) और 142 (सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का प्रवर्तन) के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां।
  • अनुच्छेद 226 (रिट क्षेत्राधिकार) और 227 (सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति) के तहत उच्च न्यायालय की शक्तियाँ।
  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव।
  • संविधान में संशोधन करने की संसद की सीमित शक्ति।

निष्कर्ष

जैसा कि हम इस लेख के अंत में आ रहे हैं, यह उल्लेख करना उचित है कि संविधान सभा के कामकाज पर विभिन्न आलोचनाओं के बावजूद, कोई भी इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकता है कि आज, यदि भारत संप्रभुता, लोकतंत्र और स्वतंत्रता के साथ-साथ नागरिकों और राष्ट्र के राज्यों दोनों के अधिकारों और कर्तव्यों की हवा में रह रहा है और सांस ले रहा है, तो यह उन उल्लेखनीय हस्तियों के अथक प्रयासों के कारण है, जो भारत को इसकी सबसे बड़ी संपत्ति, या जैसा कि हम इसे कहते हैं, भारत का संविधान उपहार में देने के लिए एक साथ आए हैं।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

संविधान क्या है?

संविधान किसी राष्ट्र का मूल कानून होता है जो उसकी सरकारी संरचना और शासन को निर्धारित करता है। माना जाता है कि सैन मैरिनो गणराज्य का संविधान दुनिया का सबसे पुराना संविधान है, जो 8 अक्टूबर 1600 को लागू हुआ था।

भारतीय संविधान कब अपनाया गया था?

भारतीय संविधान 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था।

‘कानून दिवस’ कब मनाया जाता है?

कानून दिवस या संविधान दिवस 26 नवंबर को मनाया जाता है क्योंकि भारतीय संविधान 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था।

यदि संविधान पहले ही पूरा हो चुका था, तो 26 जनवरी को संविधान लागू करने के दिन के रूप में क्यों चुना गया?

जबकि भारतीय संविधान को 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था, यह 26 जनवरी 1950 की तारीख को लागू हुआ क्योंकि 26 जनवरी 1930 वह तारीख थी जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के नेताओं ने दिसंबर 1929 में अपने लाहौर अधिवेशन (सेशन) में “पूर्ण स्वराज” के लिए तय किया था, जिसकी अध्यक्षता डॉ. जवाहरलाल नेहरू ने की थी।

क्या भारतीय संविधान 1935 के भारत सरकार अधिनियम की नक़ल है? 

यद्यपि भारतीय संविधान की कई विशेषताएं भारत सरकार अधिनियम 1935 से ली गई हैं, लेकिन यह कहना गलत होगा कि यह उक्त अधिनियम की नक़ल है, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने ऐसे प्रावधानों को शामिल करने और उन्हें भारतीय समाज की स्थितियों के अनुरूप सर्वोत्तम तरीके से संशोधित करने से पहले उनकी प्रयोज्यता (ऍप्लिकेबिलिटी) पर सवाल उठाए और विचार-विमर्श किया।

संवैधानिक सलाहकार कौन है? 

श्री बी.एन. राव को संविधान सभा का संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया गया था। वे भारतीय संविधान के लोकतांत्रिक ढांचे की सामान्य संरचना के लिए जिम्मेदार व्यक्ति थे।

भारतीय संविधान के जनक के रूप में किसे जाना जाता है? 

डॉ. बी.आर. अंबेडकर को भारतीय संविधान के जनक के रूप में जाना जाता है। वे संविधान सभा में मसौदा समिति के अध्यक्ष भी थे।

संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष कौन थे? 

डॉ. सचिदानंद सिन्हा संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे और बाद में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष चुना गया।

संदर्भ

  • Legal Classics Making of India’s Constitution, HR Khanna, Eastern Book Company

 

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