गंडुरी कोटेश्वरम्मा और अन्य बनाम चाकिरी यानादी और अन्य (2011)

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यह लेख Arya Senapati द्वारा लिखा गया है। यह गंडूरी कोटेश्वरम्मा एवं अन्य बनाम चाकिरी यानादी एवं अन्य (2011) के मामले में उल्लिखित कानूनी सिद्धांतों को उसके तथ्यों, मुद्दों और निर्णय के विस्तृत विश्लेषण के माध्यम से बताने का प्रयास करता है। यह लेख हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 से संबंधित मामले में शामिल सभी महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधानों और पहलुओं को भी इसमे शामिल करेगा। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा लिखा गया है।

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परिचय

हिंदू संयुक्त परिवार भारत में एक अनूठी संस्था है। यह अपने सभी सदस्यों के लाभ के लिए संपत्ति का स्वामित्व और निपटान करता है। संयुक्त रूप से संपत्ति के स्वामित्व वाले परिवार के विभिन्न सदस्यों के कई अधिकारों और हितों के कारण, अधिकांश भारतीय परिवारों में संपत्ति विवाद आम बात है। सबसे महान महाकाव्य, “महाभारत” से लेकर वर्तमान समय के सबसे ऐतिहासिक मामलों तक, संपत्ति विवाद हमेशा भारत में चर्चा का विषय रहे हैं। हिंदू संयुक्त परिवार में हितों का हस्तांतरण आदर्श रूप से उत्तराधिकार की मिताक्षरा प्रणाली के माध्यम से किया जाता है। मिताक्षरा प्रणाली, सहदायिकता (कोपर्सनरी) की अवधारणा बनाती है, जो किसी संपत्ति में हित प्राप्त करने के लिए उत्तराधिकार के तरीके को नियंत्रित करती है। आदर्श स्थिति में संयुक्त परिवार में जन्म से सहदायिकता प्राप्त होती है। यदि कोई हिंदू व्यक्ति बिना वसीयत किए मर जाता है, तो उसे निर्वसीयत (इंटस्टेट) कहा जाता है। बिना वसीयत के उत्तराधिकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 द्वारा शासित होता है, जो उत्तरजीविता (सर्वायवरशीप) के माध्यम से हितों के हस्तांतरण की मिताक्षरा प्रणाली का पालन करता है, जिसका मूल रूप से अर्थ है कि बिना वसीयत के जीवित बचे लोग ही उसकी संपत्ति में हित प्राप्त करेंगे। कानून ने हित हस्तांतरण के कई अलग-अलग कानूनी सिद्धांतों और प्रथाओं को भी समेकित (क्न्सोलीडेट) किया। 

इतिहास के पन्नों में महिलाओं को सहदायिक संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिला और उन्हें पूर्ण सहदायिक नहीं माना गया। एक बेटी को अपने पिता की संपत्ति पर बेटे की तरह कोई अधिकार नहीं था। इसने दहेज प्रथा को भी जन्म दिया, जिससे कई समस्याएं पैदा हुईं और लैंगिक समानता और महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए खतरा पैदा हो गया। जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ और नारीवादी आंदोलनों ने महिलाओं के साथ समान व्यवहार की मांग की, विधायिका ने महिलाओं को उनके पुरुष समकक्षों के बराबर सहदायिक संपत्ति पर अधिकार देने के महत्व को समझा। इससे हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 बना, जिसमें कहा गया कि सहदायिक संपत्ति के संबंध में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार और दायित्व होंगे। उन्हें संपत्ति में उनके पुरुष समकक्षों (काउंटरपार्टस) के समान ही हिस्सा मिलेगा। उन्हें जन्म से ही सहदायिक का दर्जा भी प्राप्त होगा। इस क्रांतिकारी कदम ने सहदायिक संपत्ति पर महिलाओं के दावे को मजबूत किया। न्यायालयों को जिस प्रश्न ने परेशान किया वह यह था कि क्या संशोधन पारित होने के दौरान लंबित मामलों मे महिलाओ द्वारा संपत्ती के विभाजन के लिये किये जा रहे आवेदनो पर आगे जाकर जो निर्णय पारित किए जा सकते है क्या उनपर भी यह संशोधित अधिनियम  लागू किया जा सकता था। इसके कारण कई ऐतिहासिक निर्णय हुए, जिनमें से एक गंडूरी कोटेश्वरम्मा एवं अन्य बनाम चाकिरी यानादीी एवं अन्य (2011) का मामला है। ऐसे मामलों में संशोधन के पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टीव) स्वरूप से लागू होने की संभावना और विभिन्न संपत्ति विवादों के परिणामों पर इसके परिणामों के सवाल से भी निपटा गया क्योंकि महिलाओं ने अचल संपत्तियों के लंबित विभाजन के मुकदमों में सहदायिक संपत्ति में हिस्सेदारी का दावा करते हुए आवेदन दायर करना शुरू कर दिया। इसलिए, न्यायपालिका के लिए संशोधित प्रावधानों की उचित व्याख्या करना और संशोधन अधिनियम के उद्देश्यों की उचित रूप से रक्षा और प्रचार करने के लिए ऐसे मामलों पर इसके प्रभाव को स्पष्ट करना आवश्यक था। 

मामले का विवरण

  1. अपीलकर्ता: गंडुरी कोटेश्वरम्मा और अन्य
  2. प्रतिवादी: चकिरी यानिदी और अन्य
  3. न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  4. प्रकार: विशेष अनुमति याचिका
  5. पीठ: न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर, न्यायाधीश आर. एम. लोधा 
  6. दिनांक: 12.10.2011
  7. उद्धरण: एआईआर 2012 एससी (सर्वोच्च न्यायालय) 169
  8. इसमें शामिल प्रावधान: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 97

मामले के तथ्य

यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक विशेष अनुमति याचिका से उत्पन्न हुआ है। अपीलकर्ता और प्रतिवादी चकरी वेंकट स्वामी के बेटा और बेटी हैं। वे रिश्ते में भाई-बहन हैं। प्रथम प्रतिवादी (मूल रूप से वादी) ने विभाजन के लिए मुकदमा दायर किया था। यह मुकदमा वरिष्ठ सिविल न्यायाधीश, ओंगोल की अदालत में दायर किया गया था, और इसमें उनके पिता चकरी वेंकट स्वामी (प्रथम प्रतिवादी), उनके भाई चकरी अंजी बाबू (द्वितीय प्रतिवादी) और उनकी दो बहनों (इस मामले में अपीलकर्ता) को मूल रूप से तीसरे और चौथे प्रतिवादी के रूप में शामिल किया गया था। 

यह मामला अनुसूचित (शेड्यूल्ड) संपत्तिया A, C और D जो सहदायिक संपत्तियां थीं, के संबंध में दायर किया गया था। वादी ने आरोप लगाया कि वह, प्रथम प्रतिवादी और द्वितीय प्रतिवादी प्रत्येक के पास संपत्ति में 1/3 हिस्सा है। “B” नामक एक और संपत्ति है, जो उनकी मां की थी, और उनका दावा है कि इस मामले के सभी पक्षों के पास उनकी मां से संबंधित संपत्ति का 1/5 हिस्सा बराबर है। मुकदमे के लंबित रहने के दौरान, 1993 में प्रथम प्रतिवादी की मृत्यु हो गई। 

विचारणीय अदालत ने 19 मार्च, 1999 को अपने फैसले और प्रारंभिक डिक्री में माना कि वादी अनुसूची A, C और D संपत्तियों में 1/3 हिस्से का हकदार था और मृतक प्रथम प्रतिवादी द्वारा छोड़े गए 1/3 हिस्से में 1/4 हिस्से का भी हकदार था। विचारणीय अदालत के अनुसार, अनुसूचित संपत्ति B के अनुसार, वादी केवल 1/5 हिस्से का हकदार था। 

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील में विवाद अनुसूची B संपत्ति से संबंधित नहीं है, बल्कि अनुसूची A, C और D संपत्तियों तक सीमित है। विचारणीय न्यायालय ने संपत्तियों के अंतर्देशीय लाभ (मेसने प्रॉफिट) की एक अलग जांच का भी आदेश दिया था।

ऊपर दी गई प्रारंभिक डिक्री को 27 सितंबर, 2003 को संशोधित किया गया था, जिसमें घोषित किया गया था कि वादी अनुसूचित संपत्ति B में प्रथम प्रतिवादी द्वारा छोड़े गए 1/5वें हिस्से में दूसरे, तीसरे और चौथे प्रतिवादी के समान हिस्से का हकदार था। 19 मार्च, 1999 की प्रारंभिक डिक्री में दिए गए निर्णय और 27 सितंबर, 2003 को डिक्री के संशोधित संस्करण (वर्जन) को आगे बढ़ाते हुए वादी ने विचारणीय अदालत के समक्ष दो आवेदन दायर किए। पहला, शर्तों को निर्धारित करते हुए अंतिम डिक्री पारित करने के लिए था और दूसरा, अंतर्देशीय लाभ निर्धारित करने के लिए था। विचारणीय अदालत ने आवेदनों को आगे बढ़ाते हुए अनुसूचित संपत्तियों के विभाजन के लिए एक आयुक्त (कमिशनर) नियुक्त किया और अब तक आयुक्त को जांच के बाद अपनी प्रतीवेद्न (रिपोर्ट) प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है। 

जबकि आयुक्त द्वारा प्रस्तुत प्रतीवेद्न पर विचार किया जा रहा था और अंतिम डिक्री पारित होने से पहले, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, 9 सितंबर, 2005 को प्रभावी हुआ। उक्त 2005 संशोधन अधिनियम के आधार पर, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 प्रतिस्थापित (सब्स्टीट्युट) की गई थी। 2005 के संशोधन अधिनियम से चिंतित, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मामले के वर्तमान अपीलकर्ताओं (जो मूल रूप से तीसरे और चौथे प्रतिवादी थे) ने अनुसूची संपत्तियों A, C और D के विभाजन के संबंध में उनके पक्ष में एक प्रारंभिक डिक्री पारित करने के लिए एक आवेदन दायर किया। उन्होंने उक्त संपत्तियों को चार बराबर हिस्सों में विभाजित करने और उनमें से प्रत्येक को एक-एक भाग का आवंटन (एलोकेशन) माप और सीमाओं (“मेट्स एंड बाउंड्स”) द्वारा और संपत्तियों के कब्जे के हस्तांतरण की मांग की। 

तीसरे और चौथे प्रतिवादी द्वारा दायर आवेदन को वादी ने चुनौती दी थी। दूसरे प्रतिवादी के मामले में, उन्होंने स्वीकार किया कि तीसरे और चौथे प्रतिवादी 2005 के संशोधन अधिनियम के आधार पर उस हिस्से के हकदार हैं जिसका वे दावा कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि भागो के आधार पर, उन्हें परिवार पर पड़ने वाले कर्ज के लिए भी उत्तरदायी होना चाहिए। 

पक्षों और उनकी दलीलों को सुनने के बाद, विचारणीय अदालत ने 15 जून, 2009 को एक आदेश पारित किया। उक्त आदेश में, विचारणीय अदालत ने वर्तमान अपीलकर्ताओं (तीसरे और चौथे प्रतिवादी) के आवेदन को स्वीकार कर लिया और निर्णय दिया कि वे प्रारंभिक डिक्री में भागो के पुनः आवंटन के हकदार थे और उन्हें प्रत्येक को 1/4 हिस्सा मिलना चाहिए और साथ ही अनुसूचित संपत्तियों A, C और D का अलग से कब्जा भी मिलना चाहिए। 

विचारणीय अदालत द्वारा दिए गए इस आदेश को वादी (वर्तमान प्रतिवादी 1) ने अपील के माध्यम से आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने अपील को स्वीकार कर लिया और 26 अगस्त, 2009 के आदेश के आधार पर विचारणीय अदालत द्वारा दिए गए आदेश को रद्द कर दिया। 

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर, प्रतिवादी 3 और 4 ने आदेश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने हेतु विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से आदेश को चुनौती दी। 

मामले मे शामिल कानूनी मुद्दे

  1. क्या अपीलकर्ता अनुसूचित संपत्तियों A, C और D में समान हिस्से के हकदार हैं?
  2. क्या वे उक्त संपत्तियों में अपने हिस्से के पृथक (सेपरेट) कब्जे के भी हकदार हैं?
  3. 2005 का संशोधन हिंदू महिलाओं के लिए सहदायिक संपत्तियों के विभाजन को कैसे प्रभावित करता है?

अपीलकर्ताओं की दलीलें 

  1. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संशोधन के बाद धारा 6 को प्रतिस्थापित किया गया। उक्त धारा पूर्वव्यापी रूप से प्रभावी हो सकती है और संपत्ति के विभाजन से संबंधित सभी चल रहे/लंबित मुकदमों पर लागू हो सकती है और इसलिए, उन्हें उनके योग्य हिस्से प्रदान करने के लिए इस मामले में भी लागू होनी चाहिए। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की संशोधित धारा 6 अपीलकर्ता को सहदायिक संपत्ति में बराबर का हिस्सा प्रदान करती है, और इसलिए, प्रतिवादी, उनके भाई द्वारा की गई चुनौती अच्छी तरह से स्थापित नहीं है। 
  2. उन्होंने तर्क दिया कि विभाजन के लिए प्रारंभिक डिक्री, जो प्रतिवादी के पक्ष में दी गई थी, वह अंतिम समझौता नहीं है और केवल अंतरिम है। इसलिए, प्रारंभिक डिक्री में दिए गए निर्णय को संशोधन द्वारा लाए गए परिवर्तनों के सार को दर्शाने के लिए बदला जा सकता है। प्रारंभिक डिक्री में दिया गया निर्णय केवल अस्थायी प्रकृति का है, और इसलिए, इसे संशोधन के वास्तविक सार को दर्शाने के लिए अद्यतन (अपडेट) किया जाना चाहिए। 

प्रतिवादी की दलीलें 

  1. प्रतिवादी ने तर्क दिया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संशोधन को पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किया जा सकता। दावा यह था कि विभाजन के लिए प्रारंभिक निर्णय अंतिम था और इसलिए, संशोधन द्वारा किए गए संशोधनों को प्रतिबिंबित (रिफ्लेक्ट) करने के लिए इसे बदला नहीं जा सकता। 
  2. प्रतिवादी ने दावा किया कि अधिनियम का पूर्वव्यापी उपयोग होने से मुकदमे में अस्पष्टता और बहुलता पैदा होगी और इसलिए, इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। प्रतिवादियों के तर्कों के अनुसार, प्रारंभिक डिक्री निर्णायक (क्न्क्लुजीव) और अपरिवर्तनीय थी। 

उच्च न्यायालय का निर्णय 

  1. उच्च न्यायालय ने देखा कि हाल के दिनों में, धारा 6 में संसद के संशोधन ने बेटियों को बेटो को बराबर सहदायिक का दर्जा प्रदान किया है। बेटियों के दावे के आधार पर, प्रतिवादी 1 और 2, अर्थात प्रतिवादी 3 और 4 ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XX नियम 18 के तहत एक आवेदन दायर किया, जो केवल अंतिम डिक्री की तैयारी पर लागू होता है। इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि अंतिम डिक्री हमेशा प्रारंभिक डिक्री के अनुरूप होनी चाहिए। यदि कोई पक्ष प्रारंभिक डिक्री को बदलना या संशोधित करना चाहता है, तो उसके लिए एकमात्र रास्ता अपील दायर करना और अन्य उपायों की तलाश करना है। जब तक प्रारंभिक डिक्री विद्यमान (सबसिस्ट) है, तब तक भागो का आबंटन उल्लिखित तरीके से अलग तरीके से नहीं किया जा सकता है। 

गंडुरी कोटेश्वरम्मा और अन्य बनाम चकिरी यानादी और अन्य (2011) में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने इस तात्कालिक अपील के कानून और तथ्यों पर निम्नलिखित राय दी:

  1. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 को हिंदुओं में बिना वसीयत के उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों को संहिताबद्ध करने के इरादे से अधिनियमित किया गया था, और इसने उत्तराधिकार पर स्थापित कानूनों में कई बदलाव किए। ये बदलाव मिताक्षरा सहदायिक के सदस्यों को दिए गए विशेष अधिकारों को प्रभावित किए बिना किए गए थे। विधानमंडल का मानना था कि मिताक्षरा सहदायिक में बेटियों को शामिल न करने से गंभीर लिंग आधारित भेदभाव होता है और इसलिए, आवश्यक प्रावधानों के साथ कानून में बदलाव करने का इरादा था। इस इरादे के कारण, 2005 का संशोधन प्रभावी हुआ। उक्त संशोधन के कथन और उद्देश्य में उल्लेख किया गया है कि मिताक्षरा सहदायिक संपत्ति से महिलाओं को बाहर रखने का मतलब है कि महिलाएं, पुरुषों की तरह पैतृक (एन्सेस्ट्रल) संपत्ति का उत्तराधिकार नहीं ले सकती हैं। यह कानून, जो बेटियों को सहदायिक स्वामित्व में भाग लेने से बाहर रखता है, न केवल लिंग के आधार पर भेदभाव में योगदान देता है, बल्कि अनुच्छेद 14 के तहत भारतीय संविधान द्वारा आश्वासित समानता के मौलिक अधिकार के बाद के भी होने वाले उत्पीड़न की ओर भी ले जाता है। महिलाओं को सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए उन्हें सहदायिक संपत्ति व्यवस्था में शामिल करना आवश्यक है। 
  2. उपरोक्त उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संसद ने संशोधन के माध्यम से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 को प्रतिस्थापित किया और एक पूरी तरह से नई धारा जोड़ी, जिसमें कहा गया कि संशोधन के लागू होने से हिंदू संयुक्त परिवार, जो मिताक्षरा कानून द्वारा शासित है, में बेटियाँ और सहदायिक शामिल होंगे। बेटियाँ, पुरुष समकक्षों की तरह ही सहदायिकता प्राप्त करेंगी, जो जन्म से ही प्राप्त होती है। बेटियों को सहदायिक संपत्ति में अपने पुरुष समकक्षों के समान ही अधिकार प्राप्त होंगे इसलिए बेटियों को सहदायिक संपत्ति के संबंध में बेटे के समान ही दायित्व भी प्राप्त होंगे। 
  3. धारा 6 के प्रावधान में कहा गया है कि इस प्रावधान में निहित कोई भी बात 20 दिसंबर 2004 से पहले हुए किसी भी निपटान, अलगाव (एलियनेशन), विभाजन या वसीयती निपटान को प्रभावित नहीं करेगी या उसे अमान्य करने का कारण नहीं बनेगी। 
  4. प्रावधान में यह भी कहा गया है कि संशोधन लागू होने के बाद, कोई भी अदालत किसी बेटे, पोते या परपोते के खिलाफ अपने पिता, दादा या परदादा से बकाया किसी भी ऋण की वसूली के लिए केवल हिंदू कानून के तहत ऐसे पैतृक ऋण का भुगतान करने के पवित्र दायित्व के आधार पर कार्यवाही करने के अधिकार को स्वीकार नहीं करेगी। संशोधन के लागू होने से पहले लिया गया कोई भी ऋण इस प्रावधान से प्रभावित नहीं होगा। 
  5. प्रावधान में अंततः कहा गया है कि इसमें निहित कानून 20 दिसंबर, 2004 से पहले किए गए किसी भी विभाजन पर लागू नहीं होगा। यहां विभाजन से तात्पर्य विभाजन विलेख (डीड) के निष्पादन द्वारा किए गए किसी भी विभाजन से है, जिसे पंजीकरण अधिनियम, 1908 के तहत विधिवत पंजीकृत किया गया है या न्यायालय के आदेश द्वारा किया गया कोई विभाजन है। 
  6. नई धारा 6 संयुक्त हिंदू परिवार के पुरुष और महिला सदस्यों के बीच सहदायिक संपत्ति में अधिकारों की समानता के लिए 9 सितंबर, 2005 से एक बड़ा मामला बनाती है। संसद ने इस संशोधन के आधार पर बेटियों को सहदायिक संपत्ति पर मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं। सहदायिक की बेटी को अब सहदायिक माना जाएगा और वह जन्म से ही सहदायिक हो जाएगी। संशोधित प्रावधान के तहत मिताक्षरा सहदायिक संपत्ति के तहत बेटियों और बेटों को समान अधिकार और दायित्व होंगे यह घोषणा, स्पष्ट और सुस्पष्ट है। इसलिए, 9 सितंबर 2005 से, एक बेटी पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी की हकदार है और एक बेटे के तरह ही सहदायिक है। 
  7. मिताक्षरा कानून के तहत बेटियों को हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति में दिया गया अधिकार पूर्ण है, सिवाय धारा 6 की उपधारा 1 के साथ संलग्न प्रावधान के तहत उल्लिखित कुछ परिस्थितियों को छोड़कर। जिन श्रेणियों को धारा 6 के अपवाद के रूप में माना जाता है, वे इसे 20 दिसंबर, 2004 से पहले किसी भी संपत्ति के विभाजन और 20 दिसंबर, 2004 से पहले किसी भी संपत्ति के वसीयतनामा निपटान सहित निपटान या अलगाव पर लागू नहीं होती हैं। 
  8. इस प्रावधान के तहत विभाजन की परिभाषा के आधार पर, यह पता लगाना प्रासंगिक हो जाता है कि क्या विभाजन न्यायालय के आदेश द्वारा या पंजीकरण अधिनियम, 1908 के तहत विधिवत पंजीकृत विभाजन विलेख द्वारा प्रभावी हुआ था। अदालत के समक्ष यह प्रश्न था कि क्या 19 मार्च, 1999 को विचारणीय अदालत द्वारा पारित और 27 सितंबर, 2003 को संशोधित प्रारंभिक डिक्री ने अपीलकर्ताओं को 2005 के संशोधन अधिनियम के आधार पर दिए गए लाभों से वंचित कर दिया, भले ही विभाजन के लिए अंतिम डिक्री प्राप्त नहीं हुई थी।
  9. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह एक स्थापित कानूनी स्थिति है कि संयुक्त हिंदू परिवार का विभाजन विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है। वर्तमान मामले में, विभाजन 20 दिसंबर, 2004 से पहले या तो विभाजन के पंजीकृत दस्तावेज या न्यायालय के आदेश द्वारा प्रभावित नहीं हुआ था। विभाजन के कई चरण होते हैं, और न्यायालय द्वारा प्रदान की गई डिक्री केवल भागो के निर्धारण के चरण में थी, जिसका उल्लेख 1 मार्च, 1999 की डिक्री में किया गया था, जिसे बाद में आयुक्त द्वारा प्रदान की गई प्रतीवेदन के अलावा 27 सितंबर, 2003 को संशोधित किया गया था। 
  10. प्रारंभिक डिक्री पर कानून की बात करें तो सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रारंभिक डिक्री पक्षकारों के अधिकारों और हितों को निर्धारित करती है। यह अच्छी तरह से स्थापित है कि विभाजन के लिए मुकदमा प्रारंभिक डिक्री के आवेदन द्वारा निपटाया नहीं जा सकता है; विभाजन केवल अंतिम डिक्री के माध्यम से ही प्रभावी हो सकता है जो हिंदू संयुक्त परिवार को माप और सीमाओं के माध्यम से विभाजित करता है। एक बार प्रारंभिक डिक्री पारित होने के बाद, मुकदमा बंद नहीं होता है। अंतिम डिक्री पारित होने तक मुकदमा जारी रहता है। प्रारंभिक डिक्री और अंतिम डिक्री के बीच होने वाली घटनाओं और परिस्थितियों के मामले में, अदालतों को प्रारंभिक डिक्री में संशोधन करने या बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार पक्षों के अधिकारों और हितों को फिर से निर्धारित करने के लिए एक और प्रारंभिक डिक्री पारित करने से कोई भी बाधा नहीं डाल सकती है। 
  11. सर्वोच्च न्यायालय ने फूलचंद एवं अन्य बनाम गोपाल लाल (1967) के मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ के पिछले निर्णय का हवाला दिया। इस मामले में न्यायालय ने माना कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो न्यायालयों को मामले की परिस्थितियों के आधार पर प्रारंभिक प्रकृति की एक या अधिक डिक्री पारित करने से रोकता है, तथा विभाजन के मुकदमों में ऐसा करना पूरी तरह से आवश्यक हो जाता है, जब प्रारंभिक डिक्री के बाद कुछ पक्षों की मृत्यु हो जाती है, तथा इसलिए भागो में वृद्धि की जाती है। जहां तक विभाजन का संबंध है, इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि प्रारंभिक डिक्री के बाद कोई घटना घटित होती है, जिसके कारण भागो में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है, तो न्यायालय बिना किसी प्रतिबंध के ऐसा कर सकता है और न्यायालय को यह करना भी चाहिए। चूंकि सिविल प्रक्रिया संहिता स्पष्ट रूप से दूसरी प्रारंभिक डिक्री जारी करने की संभावना पर विचार नहीं करती है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि यह इसे प्रतिबंधित (क्न्टेम्प्लेट) करती है। इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि अंतिम डिक्री आने तक मामला जारी रहता है तथा विशेष रूप से विभाजन के मामले में न्यायालय के पास प्रारंभिक डिक्री के बाद उत्पन्न होने वाले सभी विवादों को तय करने का अधिकार क्षेत्र है।
  12. इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एस. साई रेड्डी बनाम एस. नारायण रेड्डी एवं अन्य (1990) के मामले में अपने ही पिछले निर्णय का हवाला दिया। जिसमें न्यायालय के समक्ष एक ऐसा मामला प्रस्तुत किया गया था जिसमें इस अपील में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत प्रश्न के समान ही प्रश्न शामिल था। यह मामला विचारणीय अदालत के समक्ष विभाजन के लिए एक मुकदमे में कार्यवाही के लंबित रहने से संबंधित था और अंतिम डिक्री पारित होने से पहले, 1956 के अधिनियम को आंध्र प्रदेश के राज्य विधानमंडल द्वारा संशोधित किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप अविवाहित बेटियों को संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सेदारी का हकदार घोषित किया गया था। अविवाहित बेटियाँ, जो मामले में प्रतिवादी थीं, ने राज्य संशोधन के बाद संयुक्त परिवार की संपत्ति में अपने हिस्से का दावा करते हुए विचारणीय अदालत में आवेदन किया। विचारणीय अदालत ने अपने फैसले में इस आधार पर आवेदन को खारिज कर दिया कि एक प्रारंभिक डिक्री पहले ही पारित हो चुकी थी और विशिष्ट भाग घोषित किए गए थे, और इसलिए, अविवाहित बेटियों के लिए राज्य संशोधन के आधार पर संपत्ति में हिस्सेदारी का दावा करना खुला नहीं था। इस निर्णय के परिणामस्वरूप, अविवाहित बेटियों ने आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय के समक्ष संशोधन को प्राथमिकता दी, जिसने विचारणीय अदालत के आदेश को अलग रखा और घोषित किया कि अविवाहित बेटियाँ वास्तव में संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सेदारी की हकदार थीं। उच्च न्यायालय ने आगे निर्देश दिया कि संशोधन के अनुसार विचारणीय अदालत को अविवाहित बेटियों के हिस्से का निर्धारण करना चाहिए। अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने यह विचार दिया कि विभाजन विभिन्न तरीकों से प्रभावित हो सकता है। जब विभाजन के लिए अदालत में मुकदमा दायर किया जाता है, तो प्रारंभिक डिक्री पक्षो के भागो को निर्धारित करती है, उसके बाद अंतिम डिक्री होती है, जो विशिष्ट संपत्तियों की अनुमति देती है और सीमाओं के अनुसार विभाजन का निर्देश देती है। जब तक आवंटियों को अचल संपत्ति का कब्ज़ा देने के लिए अंतिम डिक्री पारित नहीं की जाती, तब तक विभाजन पूरा नहीं होता। भाग आवंटित करने वाली प्रारंभिक डिक्री विभाजन प्रक्रिया को पूरा नहीं करती है, बल्कि वह संपूर्ण प्रक्रिया का केवल एक चरण है। अंतिम आदेश के लंबित रहने के दौरान, परिस्थितियों के अनुसार भागो में बदलाव हो सकता है। इस मामले में, यह स्पष्ट है कि केवल एक प्रारंभिक डिक्री पारित की गई थी और अंतिम डिक्री पारित होना बाकी था। राज्य संशोधन द्वारा संशोधित प्रावधानों के आधार पर अंतिम डिक्री पारित की जा सकती है। यहाँ हस्तक्षेप करने वाली घटना राज्य द्वारा किया गया संशोधन है, जिसका प्रभाव किसी भी अन्य पर्यवेक्षी (सुपरवेनिंग) विकास की तरह ही प्रतिवादियों के हिस्से को अलग-अलग करने का है। यह देखते हुए कि कानून लाभकारी है और इसका उद्देश्य महिलाओं को सशक्त बनाना है जो समाज का एक कमजोर हिस्सा हैं, इसमे प्रावधान के लिए एक उदार अर्थान्वयन (लिबरल कंस्ट्रक्शन) जोड़ना आवश्यक है। इस कारण से, न्यायालय विभाजन की अवधारणा की बराबरी नहीं कर सकते हैं जिसे विधायिका ने वर्तमान मामले में ध्यान में रखा है, संयुक्त परिवार की स्थिति के मात्र विच्छेद (डीजोल्युशन) के साथ, जो संयुक्त परिवार के सदस्य द्वारा इच्छा की अभिव्यक्ति (एक्स्प्रेशन) से प्रभावित होता है। विधायिका द्वारा माना गया विभाजन निस्संदेह एक ऐसा विभाजन है जो सभी मामलों में पूर्ण और अपरिवर्तनीय है। प्रारंभिक डिक्री केवल भागो की घोषणा कर सकती है, लेकिन विभाजन अंतिम डिक्री में निर्धारित सीमाओं के माध्यम से किया जाता है। इसलिए, बेटियों को संशोधित प्रावधानों द्वारा दिए जाने वाले लाभों से वंचित नहीं किया जा सकता है, और किसी भी अन्य विरोधाभासी दृष्टिकोण न्हें लैंगिक समानता के उचित लाभों से वंचित करने वाला होगा। 
  13. उपरोक्त निर्णय के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रस्तुत सिद्धांत वर्तमान अपील पर पूरी तरह लागू है। सर्वोच्च न्यायालय को आश्चर्य हुआ कि उच्च न्यायालय ने आदेश देते समय उपरोक्त मामले में दिए गए निर्णय के बिंदुओं पर विचार नहीं किया। 
  14. सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, उच्च न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 20 नियम 18 के सार की सराहना न करके स्पष्ट रूप से त्रुटि की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि किसी अचल संपत्ति के विभाजन को नियंत्रित करने वाले मुकदमे में यदि ऐसी संपत्ति का सरकार को किए गए राजस्व (रेवेन्यु) भुगतान के लिए मूल्यांकन नहीं किया जाता है, तो पक्षो के हिस्से की घोषणा करने के लिए प्रारंभिक डिक्री पारित करना आवश्यक है। ऐसे मामले में, न्यायालय अंतिम डिक्री पारित करने के लिए तैयार होता है। फूलचंद मामले में, कानून स्पष्ट है कि सिविल प्रक्रिया संहिता एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री पारित करने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाती है, और एक प्रारंभिक डिक्री पारित होने और अंतिम डिक्री लंबित होने के बाद भी, आवंटित भागो को संशोधित किया जा सकता है यदि कोई भी विपरीत परिस्थिति उत्पन्न होती है। न्यायालय के पास पहले से पारित प्रारंभिक डिक्री को संशोधित करने या कानून में राज्य या केंद्रीय संशोधन जैसी बदली हुई परिस्थितियों के आधार पर एक नई प्रारंभिक डिक्री पारित करने की शक्ति है। एक मुकदमा जो अचल संपत्ति के विभाजन से संबंधित है, अंतिम डिक्री पारित होने तक चलता है और अंतिम डिक्री पारित होने के बाद समाप्त हो जाता है। कानून में यह बात नहीं कही गई है कि एक बार प्रारंभिक डिक्री पारित हो जाने के बाद उसे संशोधित नहीं किया जा सकता। यह विचार कानून की गलत व्याख्या है। न्यायालय को अंतिम डिक्री पारित होने तक प्रारंभिक डिक्री में बदलाव करने का अधिकार है। इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि विभाजन के मुकदमे में पक्षकारों के अधिकारों का अंतिम निर्णय केवल उसी मुकदमे में होना चाहिए, किसी अन्य कार्यवाही में नहीं। 
  15. सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 97 में यह प्रावधान है कि जब भी कोई पक्ष न्यायालय द्वारा पारित प्रारंभिक डिक्री से व्यथित होता है और ऐसी डिक्री के विरुद्ध अपील नहीं करता है, तो उसे अंतिम डिक्री के विरुद्ध की जाने वाली किसी भी अपील में इसकी सत्यता पर विवाद करने से रोका जाएगा। यह ध्यान देने योग्य है कि यह कानून, हालांकि, न्यायालयों को घटनाओं और अन्य परिस्थितियों में परिवर्तन के मामले में प्रारंभिक डिक्री को संशोधित, सुधारित या परिवर्तित करने से नहीं रोकता है, भले ही कोई अपील न की गई हो। 
  16. इन सिद्धांतों के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया और उच्च न्यायालय के विवादित निर्णय को रद्द कर दिया क्योंकि यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित फूलचंद और एस साई रेड्डी के स्थापित कानून के विरुद्ध था। सर्वोच्च न्यायालय ने विचारणीय अदालत को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में किए गए संशोधनों को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार अंतिम डिक्री तैयार करना शुरू करने का आदेश दिया।

निर्णय का आलोचनात्मक विश्लेषण 

यह निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि यह 2005 के संशोधन के आधार पर सहदायिक के रूप में बेटियों को समान हक से सबंधित प्रावधानों के संबंध में, प्रक्रिया और सार दोनों को स्पष्ट करता है। यह एक प्रगतिशील निर्णय है जो यह मानता है कि संशोधन के प्रारंभ के दौरान विभाजन का मुकदमा लंबित होने पर भी बेटियाँ सहदायिक संपत्ति में अपने हिस्से का दावा कर सकती हैं, क्योंकि अधिकारों और भागो को तय करने वाली अंतिम डिक्री अभी तक पारित नहीं हुई है। यह प्रक्रियात्मक पक्ष पर भी स्पष्ट करता है कि एक अदालत विभाजन के मुकदमे में कई प्रारंभिक डिक्री पारित कर सकती है या किसी भी घटना या संशोधन जैसी परिस्थितियों में बदलाव के कारण पिछले प्रारंभिक डिक्री को संशोधित कर सकती है ताकि अंतिम डिक्री में संशोधन के इरादे को दर्शाया जा सके। इस मामले ने सहदायिक संपत्ति में बेटी के अधिकारों और प्रावधानों के प्रभाव के बारे में भ्रम को दूर किया। इसने इसके बाद उठने वाले कई मामलों के लिए एक मार्गदर्शक प्राधिकरण के रूप में भी काम किया है। आलोचना का एकमात्र बिंदु यह है कि यह मामले के प्रावधानों के भावी या पूर्वव्यापी इस्तेमाल के बारे में बहुत भ्रम और अस्पष्टता पैदा करता है। कानूनी मुद्दों पर विस्तृत स्पष्टता प्रदान करने के लिए नीचे चर्चा किए गए मामलों में इन अस्पष्टताओं को बाद में स्पष्ट किया गया। 

संबंधित ऐतिहासिक मामले

हाल ही में ऐसे कई अन्य मामले आए हैं जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 की व्याख्या पर ऐतिहासिक निर्णय हैं, जो बेटी के सहदायिक अधिकारों को अधिक स्पष्ट तरीके से समझने में मदद कर सकते हैं। वे निम्नलिखित हैं:

दानम्मा उर्फ सुमन सुरपुर एवं अन्य बनाम अमर एवं अन्य (2018)

इस मामले में उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील की गई है, जिसने विचारणीय अदालत के निर्णय को बरकरार रखा और, संक्षेप में, 2005 के संशोधन अधिनियम के लागू होने से पहले पैदा हुए अपीलकर्ताओं को सहदायिक अधिकार देने से इनकार कर दिया। मामले के संक्षिप्त तथ्य बताते हैं कि हिंदू अविभाजित संयुक्त परिवार के प्रस्तावक/कर्ता श्री गुरुलिंगप्पा सावदी का वर्ष 2001 में निधन हो गया और वे अपने पीछे अपनी विधवा और चार बच्चों को छोड़ गए। चार बच्चों में से दो बेटे और दो बेटियाँ थीं, जिनका नाम दानम्मा और महानंदा था, जो इस मामले के अपीलकर्ता हैं। वर्ष 2002 में, बिना वसीयत किए हुए व्यक्ति के बेटे अमर ने संयुक्त परिवार की सहदायिक संपत्ति के अलग कब्जे के लिए विभाजन विलेख के लिए मुकदमा दायर किया और उसने बेटियों को इस दावे पर कोई हिस्सा देने से इनकार कर दिया यह बताते हुए कि वे अधिनियम के संशोधन से पहले पैदा हुई थीं और उन्हें शादी के समय दहेज भी मिला था जिसे सहदायिक संपत्ति में किसी भी हिस्से के त्याग के रूप में माना जा सकता है। विचारणीय अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा कि बेटियाँ सहदायिक नहीं हैं क्योंकि वे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के लागू होने से पहले पैदा हुई थीं और इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि उन्हें अपनी शादी के समय दहेज के रूप में अपना हिस्सा मिला था क्योंकि उनके पास संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं था। अपील पर, उच्च न्यायालय ने इसी आधार पर विचारणीय अदालत के फ़ैसले को बरकरार रखा। उच्च न्यायालय ने 2007 में अपना फ़ैसला सुनाया और मुक़दमे के लंबित रहने के दौरान 2005 का संशोधन पारित किया गया, जिसने सहदायिक के रूप में बेटियों के अधिकारों को स्पष्ट किया। 

जो मुद्दे उठे वे निम्नलिखित थे: 

  • क्या बेटियों को केवल इस आधार पर सहदायिक संपत्ति में उनके हिस्से से वंचित किया जा सकता है कि वे अधिनियम के लागू होने से पहले पैदा हुई थीं? और
  • क्या 2005 का संशोधन बेटियों को बेटों की तरह जन्म से सहदायिक बना देगा? 

इन मुद्दों के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संशोधित हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 की उदारतापूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए ताकि कानून के उद्देश्य और कानून निर्माताओं की, महिलाओं को एक समान आधार प्रदान करने और लैंगिक समानता स्थापित करने की मंशा को आगे बढ़ाया जा सके। इस विचार के आधार पर, संशोधन अधिनियम सभी बेटियों पर लागू होना चाहिए, भले ही वे कानून के अधिनियमित होने के बाद या पहले पैदा हुई हों। धारा 6 के पूर्वव्यापी या भावी आवेदन के बारे में भ्रम पहली बार प्रकाश बनाम फुलवती (2015) के मामले देखा गया था, और सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि कानून के मूल प्रावधान में कोई भी संशोधन अपने आप में भावी (प्रोस्पेक्टीव) है जब तक कि क़ानून में निहित या व्यक्त तरीके से इसके विपरीत बताया गया न हो। सर्वोच्च न्यायालय धारा 6 की शाब्दिक व्याख्या पर अड़ा रहा हालाँकि, निर्णय में कानून के निहितार्थ (इम्प्लीकेशन) पर कोई स्पष्टता नहीं दी गई तथा इसकी व्याख्या करते समय विधायिका की मंशा पर भी गौर नहीं किया गया।

सर्वोच्च न्यायालय ने सभी पूर्ववर्ती निर्णयो (प्रिसिडेन्ट) को ध्यान में रखा और कहा कि कानून की भाषा की शाब्दिक व्याख्या की जानी चाहिए और इसके परिणामस्वरूप, धारा 6(1) को भावी दृष्टि से लागू किया जाएगा और अन्य उपधाराओं को पूर्वव्यापी दृष्टि से लागू किया जाएगा। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि प्रावधानों और उसके पीछे विधिनिर्माताओं की मंशा की सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनिअस) व्याख्या की जा सके। चूंकि यह संशोधन मुकदमे के लंबित रहने के दौरान लाया गया था, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल प्रारंभिक डिक्री पारित होने से बेटी के अधिकार समाप्त नहीं हो जाते हैं और यह संशोधन न्यायालय की अंतिम डिक्री पर भी लागू होगा। न्यायालय ने कहा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बेटियां अधिनियम के अधिनियमित होने से पहले पैदा हुई थीं। मायने यह रखता है कि वे 2005 के संशोधन अधिनियम के दौरान जीवित थीं और इसलिए उन्हें बेटों के समान अधिकार मिलने चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना कि बेटियों को जन्म से सहदायिक के रूप में, पुरुष समकक्षों के समान दर्जा प्राप्त होगा। 

विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2023)

यह मामला महिला के सहदायिक अधिकारों से संबंधित सबसे हालिया ऐतिहासिक मामलों में से एक है। फूलवती और धन्नामा में पिछले निर्णयों ने बहुत भ्रम और अस्पष्टताएँ पैदा कीं। सर्वोच्च न्यायालय ने मुद्दों को सुलझाने, प्रावधान की सटीक व्याख्या प्रदान करने और इसके आसपास के सभी भ्रम को दूर करने के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया। सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न माम्लो के निर्णयो और मिसालों पर भरोसा किया और माना कि संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति एक निर्बाध विरासत (अनओब्स्ट्रक्टेड हेरीटेज) है। ऐसी संपत्ति में, विभाजन का अधिकार पूर्ण है और किसी व्यक्ति को उसके जन्म के आधार पर प्रदान किया जाता है। इसके विपरीत, अलग संपत्ति एक बाधित विरासत है जिसमें अलग संपत्ति के मालिक की मृत्यु से स्वामित्व और विभाजन का अधिकार बाधित होता है। बाधित विरासत के मामले में, अधिकार जन्म पर आधारित नहीं होता है बल्कि संपत्ति के मूल मालिक की मृत्यु पर निर्भर करता है। इन टिप्पणियों के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विभाजन का अधिकार एक निर्बाध विरासत में बेटी के जन्म से उत्पन्न होता है, और यह अप्रासंगिक है कि संशोधन के प्रभावी होने पर पिता जीवित थे या मृत। इसलिए, इस फैसले ने प्रकाश बनाम फुलवती (2015) में दिए गए फैसले को खारिज कर दिया, और माना कि सहदायिक अधिकार एक पिता से जीवित बेटी को मिलते हैं न कि एक जीवित सहदायिक से जीवित बेटी को। अदालत ने फैसला दिया कि अधिनियम की धारा 6 में निहित प्रावधानों के प्रभाव न तो भावी हैं और न ही पूर्वव्यापी हैं, बल्कि प्रकृति में पूर्वव्यापी हैं। इसका मतलब है कि सहदायिक का समान अधिकार बेटी को 9 नवंबर 2005 से दिया जाएगा, लेकिन इसका असर यह पिछली घटना पर आधारित है, जो कि बेटी का जन्म है। इस प्रभाव को पूर्वव्यापी कहा जाता है क्योंकि यदि बेटी ने अतीत में जन्म नहीं लिया होता, तो इसके परिणामस्वरूप बेटी के लिए कोई अधिकार नहीं बनता। इस दृष्टिकोण ने पिछले निर्णयों में निहित भ्रम और अस्पष्टताओं को दूर कर दिया।

न्यायालय ने आगे कहा कि काल्पनिक विभाजन को वास्तविक विभाजन के बराबर नहीं माना जा सकता। काल्पनिक विभाजन कानूनी कल्पना की उपज है, और इसका उपयोग और निहितार्थ केवल उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए अनुमेय सीमाओं तक ही किया जाना चाहिए जिसके लिए इसे बनाया गया था। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि काल्पनिक विभाजन में निर्धारित भाग अंतिम नहीं हैं और सहदायिक के जन्म और मृत्यु पर निर्भर करते हैं। इस सिद्धांत के परिणामस्वरूप, एक बेटी संयुक्त परिवार की संपत्ति में अधिकारपूर्वक हिस्सा मांग सकती है, भले ही काल्पनिक विभाजन 9 नवंबर 2005 से पहले किया गया हो, क्योंकि काल्पनिक विभाजन वास्तविक विभाजन नहीं है। मौखिक विभाजन का इन सिद्धांतों के बचाव के रूप में दावा नहीं किया जा सकता है। 

निष्कर्ष

जब संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 14 को शामिल किया, जो कि भारतीय संविधान के तहत समानता का अधिकार है, जो हर नागरिक को उनके लिंग, वर्ग, जाति, धर्म आदि के बावजूद मौलिक अधिकार के रूप में आश्वासित है, तो उनका इरादा राज्य द्वारा बनाए गए सभी कानूनों में समान गुणों को प्रतिबिंबित करना था, जिसमें दो वर्गों के साथ समान व्यवहार करने की संभावना थी। उत्तराधिकार के मामले में, वर्ग लिंग है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में 2005 का संशोधन अधिनियम लिंग भेदभाव के अन्यायपूर्ण इतिहास को सुधारने के लिए बहुत बाद में उठाया गया एक प्रगतिशील कदम था, लेकिन प्रावधानों की भाषा ने बहुत भ्रम पैदा किया, इतना कि संशोधन के लगभग दो दशक बाद 2023 में भी न्यायपालिका प्रावधानों के वास्तविक अर्थ और व्याख्या को स्पष्ट करने का प्रयास कर रही है। गंडूरी कोटेश्वरम्मा और अन्य बनाम चाकिरी यानादीी और अन्य (2011) का मामला इस प्रावधान की व्याख्या करने के प्रयास की शुरुआत का एक बिंदु था इसलिए, न्यायालय द्वारा निर्धारित विभिन्न मामलों और उदाहरणों के माध्यम से पुत्री के सहदायिक अधिकारों के संबंध में वैधानिक प्रावधानों की व्याख्या में प्रगति को समझना महत्वपूर्ण है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

हिंदू महिला की अलग संपत्ति के स्वामित्व के संबंध में क्या प्रावधान है?

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 में कहा गया है कि हिंदू महिला की अलग संपत्ति उसे उक्त संपत्ति का पूर्ण मालिक बनाती है, जिसमें उसका स्त्रीधन भी शामिल है, लेकिन कोई प्रतिबंधित संपत्ति शामिल नहीं है। 

बेटियाँ उत्तराधिकारियों की किस श्रेणी में आती हैं?

बेटों की तरह ही बेटियों को भी प्रथम श्रेणी की वारिस माना जाता है। इसका मूल अर्थ यह है कि जब कोई हिंदू पुरुष बिना वसीयत के मर जाता है, तो उसकी संपत्ति सबसे पहले प्रथम श्रेणी के वारिसों को मिलेगी। प्रथम श्रेणी के वारिसों में बेटे, बेटियाँ, विधवाएँ, पहले मर चुके बेटों और बेटियों के बच्चे और माँ शामिल हैं। 

बेटी को कितना हिस्सा मिलना चाहिए?

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत हिंदू पुरुष की संपत्ति के उत्तराधिकार के सामान्य नियमों के अनुसार, बेटियों को बेटों और विधवाओं की तरह ही 1 हिस्सा पाने का अधिकार है। अगर बेटी की मृत्यु वसीयत से पहले हो जाती है, तो बेटी के जीवित बच्चों को वह हिस्सा मिलेगा जिसकी वह हकदार थी। 

काल्पनिक विभाजन और वास्तविक विभाजन में क्या अंतर है?

जबकि काल्पनिक विभाजन एक कानूनी कल्पना है, वास्तविक विभाजन अंततः पक्ष के अधिकारों को निर्धारित करता है। काल्पनिक विभाजन एक नए सहदायिक के जन्म या मौजूदा सहदायिक की मृत्यु से प्रभावित हो सकता है, लेकिन वास्तविक विभाजन प्रकृति में अंतिम होता है। 

क्या कोई न्यायालय विभाजन के मुकदमे में एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री पारित कर सकता है?

हां, सिविल प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो न्यायालय को अंतिम डिक्री पारित होने से पहले कई प्रारंभिक डिक्री पारित करने या मौजूदा प्रारंभिक डिक्री में संशोधन करने से रोकता है। जब भी कोई अतिरिक्त परिस्थिति उत्पन्न होती है, तो न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह पिछली प्रारंभिक डिक्री में संशोधन करे या नई डिक्री पारित करे। 

विभाजन के अंतिम आदेश में उल्लिखित सीमा और माप का क्या अर्थ है? 

वाक्यांश “माप और सीमा” मूल रूप से सर्वेक्षक द्वारा दिया गया संपत्ति के एक हिस्से के विवरण से संबंधित अर्थ है, जिसे दूरियों, कोणों और दिशाओं का उपयोग करके सावधानीपूर्वक मापा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप भूमि का कानूनी विवरण प्राप्त होता है। 

क्या सहदायिक संपत्ति में बेटी द्वारा समान हिस्सेदारी का दावा करने के लिए पिता और बेटी का जीवित होना आवश्यक है? 

नहीं। 2005 के संशोधन अधिनियम के लागू होने के दौरान बेटी का जीवित होना ज़रूरी है, लेकिन पिता का जीवित होना ज़रूरी नहीं है क्योंकि बेटियाँ जन्म से ही सहदायिकता प्राप्त कर लेती हैं। सहदायिकता जीवित पिता से जीवित बेटी को नहीं मिलती। 

संदर्भ

 

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