यह लेख Diksha Shastri द्वारा लिखा गया है। यह कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव-इन एंटरप्राइजेज के मामले को उजागर करने का प्रयास करता है, जहां ओपन-एयर सिनेमा, उर्फ ड्राइव-इन सिनेमा पर कर लगाने पर सवाल उठाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उठाया गया मुख्य मुद्दा यह था कि राज्य को ड्राइव-इन सिनेमा में प्रवेश करने वाले मोटर वाहनों पर मनोरंजन कर लगाने के लिए नियम बनाने की अनुमति है या नहीं। यह लेख मामले का फैसला करते समय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले के पीछे के सभी तथ्यों, मुद्दों और तर्क को शामिल करता है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।
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परिचय
कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव-इन एंटरप्राइजेज (2001) (जिसे आगे ‘मामला’ कहा जाएगा) का मामला ड्राइव-इन सिनेमा पर मनोरंजन कर लगाने की राज्य की शक्ति की सीमा के मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमता है। ड्राइव-इन सिनेमा आम तौर पर एक ओपन-एयर सिनेमाघर होता है, जहाँ दर्शक अपने मोटर वाहन में आराम से बैठकर फ़िल्में देख सकते हैं।
मनोरंजन कर, जिसे कभी-कभी आनन्द (एम्यूजमेंट) कर भी कहा जाता है, मनोरंजन के व्यावसायीकरण (कमर्शियलाइजेशन) पर लगाया जाने वाला एक प्रकार का कर है। उदाहरण के लिए, जब आप मूवी टिकट या खेल आयोजनों, प्रदर्शनियों आदि के टिकट खरीदते हैं तो आप मनोरंजन कर का भुगतान करते हैं। अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) कर व्यवस्था के एक भाग के रूप में, मनोरंजन करों को माल और सेवा कर (जीएसटी) के माध्यम से अप्रत्यक्ष करों के लिए एकल प्रणाली की शुरुआत से पहले अलग से वसूला जाता था।
इस अप्रत्यक्ष कर से जुड़ा मुद्दा यह था कि क्या राज्य सरकार के पास ड्राइव-इन सिनेमा में प्रवेश करने वाली गाड़ियों पर कुछ मनोरंजन कर लगाने का अधिकार है या नहीं। आइए विस्तार से अदालत के तर्क को देखें।
मामले का विवरण
आइये मामले के मूल विवरण को समझने से शुरुआत करें।
मामले का नाम: कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव-इन एंटरप्राइजेज
न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
फैसले की तारीख: 13 मार्च, 2001
पक्ष: कर्नाटक राज्य (अपीलकर्ता), और मेसर्स ड्राइव-इन एंटरप्राइजेज (प्रतिवादी)
प्रतिनिधित्व: एवी विश्वनाथ शास्त्री और ओपी राणा (प्रतिवादी के लिए), श्री एमएसके शास्त्री ( अपीलकर्ता के लिए)
उद्धरण: ए आई आर 2001 एस सी 1328 226
पीठ: न्यायमूर्ति वीएन खरे, न्यायमूर्ति रूमा पाल
महत्वपूर्ण प्रावधान और कानून: कर्नाटक मनोरंजन कर अधिनियम 1958 की धाराएं 2, 4A और 6, कर्नाटक सिनेमा (विनियमन) नियम 1971 का नियम 111-A, कर्नाटक सिनेमा (विनियमन) अधिनियम, 1964 की धारा 22
मामले के तथ्य
चिंता तब उत्पन्न हुई जब इस मामले में प्रतिवादी, अर्थात् बंगलौर शहर के बाहरी इलाके में स्थित ड्राइव-इन सिनेमाघर के मालिक ने कर्नाटक मनोरंजन कर अधिनियम 1958 की धारा 2 को निरस्त करने के लिए कर्नाटक उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर किया , क्योंकि इस धारा को शामिल करना राज्य की शक्तियों से परे था।
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि ड्राइव-इन सिनेमा शब्द सिनेमाघर के अन्य रूपों से अलग है, क्योंकि यह लोगों को खुले वातावरण में कथा चित्र (फीचर्ड फिल्में) देखने की अनुमति देता है। इसके अलावा, ड्राइव-इन सिनेमा की कानून के तहत एक अलग परिभाषा है। ऐसा कहा जा रहा है कि, इस विशेष ड्राइव-इन सिनेमाघर में, एक सभागार (ऑडिटोरियम) भी था जहाँ बिना वाहन वाले लोग 3 रुपये का भुगतान करके बैठ सकते थे और फिल्म देख सकते थे। इस राशि से, अब अपीलकर्ता राज्य सरकार ने मनोरंजन कर लगाया। अब, उन सभी लोगों के लिए जो अपनी कार से फिल्म देखने में रुचि रखते थे और कारों को सभागार में लाए थे, उनसे 2 रुपये का अतिरिक्त शुल्क लिया गया था। केरल राज्य ने मनोरंजन के लिए आने वाले लोगों पर कर लगाने के बजाय, सिनेमाघर के अंदर इन कारों के प्रवेश के लिए भी शुल्क लेना शुरू कर दिया। कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष ड्राइव इन सिनेमा के मालिक द्वारा पहली रिट याचिका दायर की गई।
कर्नाटक उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने याचिका स्वीकार कर ली और कारों के प्रवेश पर लगाए गए अतिरिक्त मनोरंजन कर को रद्द कर दिया। न्यायालय ने माना कि चूंकि मनोरंजन कर किसी व्यक्ति पर नहीं लगाया जा रहा था, इसलिए राज्य द्वारा ऐसा कर वसूलना अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इस निर्णय के परिणामस्वरूप, कर्नाटक मनोरंजन कर अधिनियम 1958 में संशोधन करके अधिनियम की धारा 2, धारा 4A और धारा 6 को बदल दिया गया।
हालांकि, कानून में इस संशोधन के बाद भी राज्य ने मोटर वाहनों पर मनोरंजन कर लगाना जारी रखा। इसके परिणामस्वरूप भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत सरकार की कार्रवाई को चुनौती देने वाली रिट याचिका के माध्यम से एक और अपील हुई। यह अनुच्छेद उच्च न्यायालय को अधिकारों के प्रवर्तन के लिए बंदी (हेबियस) प्रत्यक्षीकरण (कॉर्पस), परमादेश (मेंडमस), निषेध (प्रोहिबिशन),अधिकार पृच्छा (क्यो वारन्टो) और उत्प्रेषण (सर्टियोरारी) के आदेशों और रिटों को बुलाने की शक्ति प्रदान करता है। इस रिट याचिका को अनुमति दी गई और उच्च न्यायालय ने संबंधित उपधारा, अर्थात अधिनियम की धारा 2(i)(v) को खारिज कर दिया। इसके बाद राज्य ने इस आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसके परिणामस्वरूप कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव-इन एंटरप्राइजेज (2001) का मामला सामने आया ।
उठाए गए मुद्दे
यह मामला एक महत्वपूर्ण मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमता है। क्या राज्य के पास ड्राइव-इन सिनेमाघर में वाहनों के प्रवेश पर मनोरंजन कर लगाने का अधिकार है या नहीं। कानूनी शब्दावली में, सभी कानूनों को ध्यान में रखते हुए, इस मुद्दे को इस प्रकार से तैयार किया जा सकता है:
क्या राज्य विधानमंडल ड्राइव-इन थियेटर के अंदर कारों या अन्य वाहनों के प्रवेश पर सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 62 के तहत कर लगाने के लिए कानून बनाने में सक्षम है।
इसलिए, इस मामले में कानून बनाने की राज्य की शक्ति के संदर्भ में, ऐसे कानून की वास्तविक प्रकृति और चरित्र का निर्धारण करना सर्वोच्च न्यायालय पर निर्भर करता है। आइए देखें कि पक्षों द्वारा क्या तर्क दिए गए।
पक्षों के तर्क
अपीलकर्ता
वर्तमान मामले में अपीलकर्ता कर्नाटक राज्य था। राज्य की ओर से उपस्थित वकील ने आग्रह किया कि अधिनियम में एक नया खंड जोड़ना पूरी तरह से वैध था, और इन संशोधनों के परिणामस्वरूप, राज्य ड्राइव-इन सिनेमाघर में कार, मोटरबाइक या अन्य वाहन के प्रवेश पर मनोरंजन कर लगाने के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम था। इसके अलावा, सार और तत्व (पिथ एंड सब्सटेंस) का सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने यह भी कहा कि कर व्यक्ति पर लगाया जाता है, वाहन पर नहीं।
प्रतिवादी
जवाबी कार्रवाई के तौर पर, प्रतिवादी मेसर्स ड्राइव-इन एंटरप्राइजेज की ओर से पेश हुए वकील ने दावा किया कि ड्राइव-इन सिनेमाघर सामान्य सिनेमाघर या सिनेमा घर की श्रेणी में नहीं आते हैं। वास्तव में, इसकी सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि यह लोगों को अपने मोटर वाहन लाने और उसका आराम से उपयोग करने की अनुमति देता है। इसलिए, वाहन प्रवेश शुल्क भी आने वाले व्यक्ति पर लगाए गए मनोरंजन कर के अंतर्गत आता है। इसलिए, दावा किया गया कि राज्य ड्राइव-इन सिनेमा में मोटर वाहनों और कारों के प्रवेश पर इस शुल्क की अनुमति देने के लिए ऐसा विधान बनाने में सक्षम नहीं था।
इसके अलावा, वे तर्क देते हैं कि राज्य केवल उस व्यक्ति पर कर लगाने के लिए सक्षम है जिसका मनोरंजन फिल्म या सिनेमा द्वारा किया जा रहा है। इसलिए, उन्होंने कहा कि कर लगाने की अनुमति केवल मनुष्यों के लिए है, किसी भी निर्जीव वस्तु के लिए नहीं। नतीजतन, चूंकि वाहन किसी व्यक्ति की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते हैं, इसलिए राज्य ड्राइव-इन सिनेमाघर में मोटर वाहनों पर मनोरंजन कर लगाने के लिए कानून बनाने के लिए सक्षम नहीं था।
कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव-इन एंटरप्राइजेज (2001) में शामिल कानून/अवधारणाएं
अब जब हम मामले के दोनों पक्षों की सभी दलीलें जानते हैं, तो मुद्दे को समझना थोड़ा आसान हो जाता है। हालाँकि, किसी मामले में मुख्य मुद्दे की स्पष्ट समझ होने के अलावा, अदालत के अंतिम निर्णय तक पहुँचने के लिए सभी कानूनी सिद्धांतों और विधान को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए, अब सिद्धांतों पर गहराई से विचार करते हैं:
कर्नाटक मनोरंजन अधिनियम, 1958
कर्नाटक राज्य ने पूरे कर्नाटक राज्य में मनोरंजन कर लगाने के लिए एक समान कानून बनाने हेतु इस अधिनियम को लागू किया।
प्रवेश के लिए भुगतान की परिभाषा
- इस मामले में चर्चित सबसे महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधान धारा 2(i)(v) है, जिसे उच्च न्यायालय ने अमान्य करार दिया था। धारा 2 परिभाषा के लिए है, जबकि खंड (i) प्रवेश के लिए भुगतान के लिए एक समावेशी परिभाषा देता है, जबकि उप-खंड (v) विशेष रूप से ड्राइव-इन जैसे सिनेमाघरों में वाहन के प्रवेश के लिए भुगतान के बारे में बात करता है।
कुछ स्थानों पर चलचित्र प्रदर्शन पर कर
राज्य द्वारा स्थानीय अधिकारियों की जनसंख्या के आधार पर करों की दर निर्धारित करने के लिए धारा 4A पेश की गई थी। इस धारा को शामिल करने से राज्य द्वारा ड्राइव-इन में वाहनों के प्रवेश पर कर लगाने की इच्छा के पीछे का दृढ़ संकल्प पता चलता है।
कर भुगतान का तरीका
उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अधिनियम की धारा 6 में भी संशोधन किया गया। हालांकि, राज्य ने इसमें और संशोधन करते हुए यह तथ्य शामिल कर दिया कि कर की गणना टिकट की बिक्री के साथ-साथ प्रवेश की संख्या के आधार पर भी की जानी चाहिए।
इन प्रावधानों में संशोधन करके मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाया गया।
कर्नाटक सिनेमा (विनियमन) नियम, 1971
नियमों के नियम 111-A के अनुसार , ड्राइव-इन सिनेमा को खुले परिसर वाले सिनेमा के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें दर्शक अपनी कार या अन्य मोटर वाहनों के अंदर फिल्म या कथा चित्र देख सकते हैं। इसके अलावा, इसमें सभागार भी शामिल हैं, जहाँ बिना कार वाले लोग बैठकर या खड़े होकर अपनी फिल्में देख सकते हैं। प्रवेश के लिए अधिकतम क्षमता 1000 कारों को चुना गया था।
कर्नाटक सिनेमा (विनियमन) अधिनियम, 1964
इस अधिनियम को पूरे कर्नाटक राज्य में सिनेमाघरों के विनियमन (रेगुलेशन) के लिए एक समान कानून बनाने के लिए भी लागू किया गया था। अधिनियम की धारा 22 में विधानमंडल के समक्ष रखे जाने वाले विभिन्न नियमों और आदेशों का उल्लेख है। इस प्रकार, इस धारा ने कर्नाटक राज्य सरकार को सिनेमाघरों के विनियमन के लिए नियमों को लागू करने की शक्तियाँ प्रदान कीं। परिणामस्वरूप, यह वह प्रावधान है, जिसके आधार पर कर्नाटक राज्य सरकार ड्राइव-इन सिनेमा में मोटर वाहनों के प्रवेश पर कर लगाने के लिए विधानमंडल बना रही थी।
सार और तत्व का सिद्धांत
यह तर्क देते हुए कि कर व्यक्ति पर लगाया गया था न कि वाहन पर, अपीलकर्ता राज्य के विद्वान वकील ने सार और तत्व के सिद्धांत पर भरोसा किया। इसका वास्तव में क्या मतलब है?
शब्द पिथ का अर्थ है किसी चीज़ का सार। हालाँकि, सब्सटेंस का अर्थ है चीज़ का आवश्यक भाग मतलब तत्व। यह सिद्धांत हमेशा उपयोगी रहा है जब राज्य और केंद्र की विधायी शक्तियाँ आपस में टकराती हैं, फिर भले ही भारत के संविधान की अनुसूची VII में सूचियाँ मौजूद हों।
इस सिद्धांत के अनुसार, जब कानून के किसी विषय पर राज्य और केंद्र की विधायी शक्तियों के बीच भ्रम की स्थिति हो और उस कानून का वास्तविक उद्देश्य अनुसूची VII के माध्यम से प्रदान की गई शक्तियों के दायरे में आता हो, तो कानून वैध माना जाएगा, भले ही वह दूसरे पक्ष की विधायी शक्ति का अतिक्रमण करता हो। इसलिए, यदि किसी कानून का उद्देश्य राज्य की शक्तियों के भीतर किसी विषय को आगे बढ़ाने में मदद करता है, तो वे कानून को वैध बना सकते हैं, भले ही वह उद्देश्य उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो।
सार और तत्व के सिद्धांत की विशेषताएं
विवाद का समाधान
जब भी राज्य की विधायी शक्ति और केंद्र की विधायी शक्ति के बीच विवाद उत्तपन्न होता है, तो यह सिद्धांत सत्ता के अतिक्रमण के संघर्ष को हल करने में मदद करता है।
नम्यता (फ्लेक्सिबिलिटी)
इस सिद्धांत के परिणामस्वरूप, विधायी शक्तियों को उन विषयों के लिए कानून बनाने का एक अस्पष्ट क्षेत्र मिल जाता है जो पूरी तरह से उनके दायरे में नहीं आते हैं।
वास्तविक प्रकृति पर ध्यान देंना
इस सिद्धांत की सहायता से, न्यायालय कानून के व्यापक लाभ या वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए मामले को तकनीकी पहलुओं से परे जाकर देख सकते हैं।
संतुलन बनाए रखता है
सार और तत्व का यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि केंद्र और राज्य समान रूप से एक-दूसरे के कामों में हस्तक्षेप के बिना अपनी शक्तियों का प्रभावी ढंग से प्रयोग कर सकते हैं।
सिद्धांत का दायरा
सार और तत्व के सिद्धांत का प्राथमिक दायरा भारतीय संविधान की अनुसूची VII में सूचीबद्ध विषयों के बीच संतुलन बनाना और बनाए रखना है। हालाँकि, यह तब भी लागू होता है जब मामले केंद्रीय और राज्य कानूनों के बीच विरोधाभास से संबंधित हों।
फिर भी, इस सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वस्तु और विषय के बीच संबंध निर्धारित करना अलग-अलग लोगों के लिए काफी व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) है। उदाहरण के लिए, वर्तमान मामले में, राज्य ने कहा कि भले ही अधिनियम मनोरंजन करों के विनियमन के लिए था क्योंकि यह लोगों के लिए था और कारों के प्रवेश के लिए नहीं था, फिर भी उसे सिद्धांत के कारण यह कानून बनाने और इसे लागू करने की अनुमति थी। आइए देखें कि इस संबंध में न्यायालय ने क्या निर्णय दिया है।
मामले में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने एक सटीक निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विभिन्न न्यायालयों द्वारा समान मामलों में निर्धारित कानूनों, कानूनी सिद्धांतों और मिसालों पर भरोसा किया। आइए इस मामले में न्यायालय द्वारा संदर्भित प्रासंगिक निर्णयों को देखें।
(मॉरिस) लेवेंथल एवं अन्य बनाम डेविड जोन्स लिमिटेड (1930)
यह मामला भूमि के पट्टेदारों द्वारा संपत्ति/परिसर के लिए कर का भुगतान करने में पट्टेदारों (लेसी) और पट्टादाताओं (लेसर) की देनदारियों को समझने के लिए की गई अपील के इर्द-गिर्द घूमता है। यह पट्टेदारों के पक्ष में न्यू साउथ वेल्स के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ एक अपील थी।
इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या ब्रिज टैक्स लगाने वाली विधायिका तब तक जीवित रह सकती है या नहीं, जब तक कि केवल भूमि पर कर लगाने के लिए विधायिका बनाने की शक्ति न हो। सार-तत्व पर विचार करते हुए, यह माना गया कि भूमि पर कर लगाने की विधायी शक्ति के तहत ब्रिज टैक्स लगाना वैध और मान्य था।
गवर्नर जनरल इन काउंसिल बनाम मद्रास प्रांत (1945)
यह मामला तब उठा जब गवर्नर जनरल इन काउंसिल ने मद्रास जनरल सेल्स टैक्स एक्ट, 1939 की वैधता को चुनौती दी। इस अधिनियम ने भारत में उत्पादित वस्तुओं की पहली बिक्री पर कर लगाने की अनुमति दी। यहाँ मुख्य मुद्दा यह था कि क्या यह अधिनियम पहली बिक्री पर कर लगाने की सीमा तक वैध था या नहीं, या यह प्रांतीय विधायी शक्तियों की क्षमता से बाहर था। यह देखते हुए कि वस्तुओं की बिक्री पर कर लगाने की प्रांतीय विधायी शक्ति संविधान के माध्यम से प्रदान की गई थी, अधिनियम को वैध माना गया। अदालत ने सरकार द्वारा लगाए गए विभिन्न करों के बीच अंतर पर जोर दिया, भले ही कभी-कभी वे व्यावहारिक रूप से ओवरलैप हो सकते हैं।
रजा बुलंद शुगर कंपनी बनाम रामपुर नगर पालिका (1962)
यह मामला एक सार्वजनिक कंपनी और रामपुर के नगरपालिका मंडल के बीच जल कर लगाने के विवाद से जुड़ा है। अपीलकर्ता रामपुर में दो चीनी मिलों का मालिक था और उसने उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम, 1916 को अमान्य ठहराने के लिए एक आवेदन दायर किया था। इस तरह के आवेदन के कारण थे कि कर लगाने या अधिनियम के लिए कोई उचित प्रकाशन नहीं था, और दूसरा, यह कि कर नहीं लगाया जा सकता था क्योंकि इमारत सार्वजनिक जल स्रोत के करीब नहीं थी।
हालाँकि, न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया और निम्नलिखित कारणों से जल कर लगाने को बरकरार रखा:
- उर्दू समाचार पत्र में प्रकाशन पर्याप्त था क्योंकि इसकी पहुंच व्यापक थी; तथा
- पहले सरकार की मंजूरी ली गई, जिससे तकनीकी उल्लंघन ठीक हो गया।
केरल राज्य विद्युत बोर्ड बनाम इंडियन एल्युमिनियम कंपनी (1976)
इस मामले में केरल राज्य विद्युत आपूर्ति (केरल राज्य विद्युत बोर्ड और लाइसेंसधारी क्षेत्र) अधिभार आदेश 1968 की वैधता पर सवाल उठाया गया था। यहां मुख्य मुद्दा यह था कि केरल आवश्यक लेख नियंत्रण अधिनियम 1961 के तहत राज्य सरकार बिजली को नियंत्रित करती है या नहीं, जो केंद्र सरकार का अधिकार क्षेत्र है। अधिनियम की वास्तविक प्रकृति और चरित्र को निर्धारित करने के लिए, अदालत ने सार और तत्व के सिद्धांत पर भरोसा किया। यह माना गया कि कानून अपने आप में वैध था और बिजली से संबंधित पारित अधिसूचना भी वैध थी। मुख्य आधार यह था कि बिजली की बिक्री मूल्य (एक समवर्ती सूची का विषय) के विनियमन का सार और तत्व वैध था।
आरआर इंजीनियरिंग कंपनी बनाम जिला परिषद, बरेली (1980)
इस मामले में उत्तर प्रदेश राज्य में स्थानीय अधिकारियों द्वारा लगाए गए संपत्ति कर और परिस्थितियों की वैधता को चुनौती देने वाली दो अपीलें शामिल थीं। मुख्य मुद्दा यह था कि राज्य सरकार के पास ऐसा कर लगाने का विधायी अधिकार है या नहीं। सार और तत्व के सिद्धांत को एक बार फिर से ध्यान में रखा गया और इसकी वास्तविक प्रकृति को निर्धारित करने के लिए, अदालत ने केवल दो प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित किया:
- चाहे वह आय पर कर था; या
- क्या यह पेशे या व्यापार आदि पर कर था?
यह माना गया कि यह कर आय पर नहीं बल्कि संपत्ति पर था। इसलिए, उन्होंने फैसला किया कि कर अनुसूची VII की सूची II के आधार पर वैध था क्योंकि यह निम्नलिखित विषयों पर राज्य विधायी शक्तियों की अनुमति देता है:
- भूमि एवं भवनों पर कर; तथा
- व्यवसायों, व्यापारों आदि पर कर।
परिणामस्वरूप, यह माना गया कि राज्य को निश्चित रूप से सूची II में शामिल करों को लगाने के लिए विधानमंडल बनाने का अधिकार था।
गुडइयर इंडिया लिमिटेड एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (1990)
यह मामला हरियाणा में निर्माताओं द्वारा कच्चे माल पर खरीद कर की वैधता पर चर्चा करता है। विभिन्न निर्माताओं ने तर्क दिया कि निर्मित माल की खेप पर लगाया गया कर राज्य सरकार की विधायी शक्तियों की सीमा से परे है।
इसकी वैधता का निर्धारण करते समय, न्यायालय ने कहा कि विधायी अधिनियम का कुल उद्देश्य विधायी शक्ति के संदर्भ में किसी विशिष्ट कर अधिरोपण की वास्तविक प्रकृति और चरित्र का निर्धारण करने में निर्णायक नहीं है।
परिणामस्वरूप, याचिका स्वीकार कर ली गई और न्यायालय ने करों को अवैध करार दे दिया।
कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव-इन एंटरप्राइजेज (2001) में निर्णय
कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव इन एंटरप्राइजेज (2001) के मामले में , न्यायालयों ने निर्णय देने से पहले विभिन्न कानूनी सिद्धांतों और मिसालों पर भरोसा किया। इसमें शामिल तत्वों पर सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के पिछले निर्णय को गलत पाया। परिणामस्वरूप, राज्य सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील को अनुमति दी गई और ड्राइव-इन सिनेमा में मोटर वाहनों के प्रवेश पर कर लगाने को वैध माना गया।
न्यायालय के किसी भी कानूनी निर्णय या आदेश के पीछे एक तर्क होता है जो उनके निर्णय का समर्थन करता है। आइए कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव इन एंटरप्राइजेज (2001) के निर्णय के पीछे के तर्क को विस्तार से देखें।
इस निर्णय के पीछे का तर्क
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या राज्य विधानमंडल के पास ऑटोमोबाइल पर मनोरंजन कर लगाने के लिए कानून बनाने की शक्ति है या नहीं। सार और तत्व के कानूनी सिद्धांतों पर विचार करते हुए, न्यायालय को सबसे पहले कानून की वास्तविक प्रकृति और चरित्र को जानना आवश्यक था। इसलिए न्यायालय को पूरे अधिनियम, उसके उद्देश्य, दायरे और प्रावधानों के अन्य प्रभावों को देखना चाहिए। इन सभी की जांच के बाद, यदि यह पाया जाता है कि अधिनियम राज्य की विधायी शक्ति के काफी करीब है, तो इसे वैध माना जा सकता है। इसलिए, न्यायालय ने राज्य विधानमंडल और उसकी योग्यता के संदर्भ में कर लगाने की वास्तविक प्रकृति का पता लगाने के लिए मिसालों की जांच करने का फैसला किया।
उदाहरणों की जांच के बाद, न्यायालय कानून के कथन और ऊपर दिए गए अधिकांश उदाहरणों में दिए गए दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत था। इससे यह साबित हुआ कि इन मामलों में कर की प्रकृति निर्णायक नहीं थी, बल्कि यह वास्तविक प्रकृति और चरित्र था जिसने राज्य की योग्यता निर्धारित करने में मदद की।
फिर, न्यायालय ने ऊपर चर्चा किए गए प्रावधानों की जांच की। सूची II की प्रविष्टि 62 पर नज़र डालने पर यह स्पष्ट था कि राज्य के पास विलासिता और मनोरंजन पर कर लगाने के लिए विधानमंडल बनाने की शक्ति है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि मनोरंजन का तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसका मनोरंजन किया जा रहा है।
इस आधार पर अंतिम मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए आगे बढ़ते हुए, न्यायालय ने अधिनियम की धारा 3 पर भरोसा किया, जो प्रवेश के प्रत्येक भुगतान पर कर लगाने का प्रावधान था।
इस प्रकार, यह पाया गया कि राज्य वास्तव में ऐसे कानून बनाने और ड्राइव-इन सिनेमाघर के अंदर प्रवेश पर कर लगाने में सक्षम था। अब, मुख्य चुनौती यह निर्धारित करना था कि किसी वाहन को मनोरंजक माना जाएगा या नहीं। जिसके लिए, अदालत ने माना कि यह स्पष्ट है कि कार अकेले सिनेमाघर में नहीं जा सकती; इसका उपयोग मनोरंजन किए जा रहे व्यक्ति के प्रवेश के लिए किया जाता है। इसलिए, व्यक्ति को अपनी कार या अन्य मोटर वाहन के साथ ड्राइव-इन सिनेमाघर में प्रवेश दिया जाता है। इसके अलावा, यह भी साबित होता है कि चूंकि व्यक्ति कार में प्रवेश कर रहा है और फिर उसमें पूरी फिल्म का आनंद ले रहा है, इसलिए उन्हें बेहतर गुणवत्ता का अनुभव मिलता है। इस प्रकार, मनोरंजन कर लगाना व्यक्ति द्वारा प्राप्त आराम के विभिन्न स्तरों पर भी निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, सभागार में खड़े व्यक्ति को अपनी कार में बैठे व्यक्ति की तुलना में आराम का एक अलग स्तर मिलेगा।
परिणामस्वरूप, सार और तत्व पर विचार करते हुए, यह माना गया कि प्रवेश शुल्क कार में बैठे व्यक्ति पर लगाया गया था। इसलिए, यह राज्य विधायी शक्तियों के लिए एक सक्षम अधिनियम है।
उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में अपील स्वीकार कर ली।
मामले का विश्लेषण
जब आप मामले के तथ्यों पर नज़र डालते हैं, तो ऐसा लग सकता है कि लगाया गया कर राज्य विधानमंडल की क्षमता के भीतर नहीं था। हालाँकि, जब आप गहराई से जाँच करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी निर्णय का विश्लेषण या समझने का सही तरीका इसमें शामिल कानूनी सिद्धांतों को समझना है। इस मामले में, सार और तत्व के सिद्धांत ने एक प्रमुख भूमिका निभाई, जो किसी कर की सरल शब्दावली की तुलना में उसकी वास्तविक प्रकृति पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है।
एक नज़र में, वाहनों के प्रवेश पर कर हमें ऐसा ही लगेगा। हालाँकि, निर्णायक कारक की कुंजी न्यायालय के हाथों में है और वह कानून की व्याख्या कैसे करता है। उदाहरण के लिए, न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मनोरंजन कर कैसे काम करता है, सभी प्रासंगिक शर्तों को कानूनी रूप से परिभाषित किया और निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए उनकी व्याख्या की। परिणामस्वरूप, यह देखा गया कि दिन के अंत में, कार से प्रवेश करने वाले व्यक्ति को आराम और मनोरंजन की अधिक अनुभूति होगी। इसके अलावा, वह कार में बैठे-बैठे ही मनोरंजन करेगा। इसलिए, कर की वास्तविक प्रकृति व्यक्ति पर थी, न कि कार पर। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उच्च न्यायालय ने आवेदन को अनुमति देने के अपने निर्णय में गलती की थी, जिसे अब सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है।
इस मामले में एक और महत्वपूर्ण पहलू सार और तत्व का सिद्धांत था। इससे यह विश्लेषण करने में मदद मिलती है कि भले ही राज्य और केंद्र के पास काम करने के लिए अपने-अपने विषय हों, लेकिन शक्तियों का अधिव्यापन (ओवरलैप) होना अपरिहार्य है। ऐसी स्थितियों में सार और तत्व जैसे सिद्धांत बचाव में आते हैं और अदालत को कानून की बेहतर और अधिक स्पष्ट व्याख्या करने में मदद करते हैं।
निष्कर्ष
निष्कर्ष के तौर पर, मनोरंजन कर उन लोगों पर लगाया जाता है जिनका मनोरंजन किया जा रहा है। इसमें मोटर कार/वाहन में ड्राइव-इन सिनेमाघर में प्रवेश करने वाले लोग भी शामिल हैं। इसके साथ ही, जब भी केंद्र और राज्य के बीच अनुसूची VII के तहत प्रदान की गई विधायी शक्ति में भ्रम या विरोधाभास होता है, तो सार और तत्व का सिद्धांत राज्य/केंद्र की वास्तविक शक्ति के संबंध में कानूनों की वास्तविक प्रकृति और सार को समझने में मदद करता है। जब यह मेल खाता है, तो विधायिका वैध है, भले ही इसके कुछ हिस्से राज्य की सूची में न हों।
यह मामला इस सिद्धांत की प्रयोज्यता का एक बहुत अच्छा उदाहरण है। इसके अलावा, यह मनोरंजन करों की स्पष्ट व्याख्या प्रदान करता है, ड्राइव-इन सिनेमा क्या है, और कर्नाटक मनोरंजन अधिनियम में लगाए गए कर की वास्तविक प्रकृति को लागू करना राज्य विधानमंडल की क्षमता के भीतर था।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या ड्राइव-इन सिनेमाघरों में मोटर वाहनों के प्रवेश पर मनोरंजन कर लागू होता है?
हां, कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स ड्राइव इन एंटरप्राइजेज (2001) के मामले में यह निर्णय लिया गया था कि इस तरह का कर लगाना राज्य विधानमंडल के अधिकार क्षेत्र में आता है। जबकि, सार-तत्व पर विचार करने पर, कर वास्तव में कार में बैठे और मनोरंजन किए जा रहे व्यक्ति पर लगाया जाता है, न कि कार पर।
ड्राइव-इन सिनेमा का क्या अर्थ है?
ड्राइव-इन सिनेमा को एक ओपन-एयर सिनेमाघर के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो अन्य सिनेमाघरों से अलग है, जहाँ दर्शक अपनी कार में बैठकर किसी कथा चित्र या अन्य सिनेमा का आनंद ले सकते हैं। यह सिनेमाघर में कारों और अन्य मोटर वाहनों के प्रवेश की अनुमति देता है।
सार और तत्व का सिद्धांत क्यों महत्वपूर्ण है?
सार और तत्व का सिद्धांत वह कानूनी सिद्धांत है जिसके माध्यम से राज्य और केंद्र की विधायी शक्तियों के विषय के बीच विवाद को सुलझाया जा सकता है। यह सुझाव देता है कि भले ही कानून विधायी शक्तियों के अधिकारों का अतिक्रमण कर रहा हो, अगर इसकी वास्तविक प्रकृति और सार राज्य/केंद्र को दी गई शक्तियों के संबंध में है, तो यह वैध कानून है। यह दोनों विधायी निकायों को कुछ लचीलापन प्रदान करता है और उन्हें व्यापक भलाई के लिए कार्रवाई करने की अनुमति देता है।
संदर्भ