कावेरी जल विवाद मामला (1992)

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यह लेख Gauri Gupta द्वारा लिखा गया है। इस लेख का उद्देश्य कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) (1992) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करना है। यह लेख भारत के प्रमुख अंतर्राज्यीय जल विवादों में से एक पर केंद्रित है तथा विवाद के इतिहास से लेकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय तक की समयरेखा प्रस्तुत करता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

प्राचीन काल से ही नदी जल भारत के विभिन्न राज्यों के बीच एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। उपमहाद्वीप (सब कॉन्टिनेंट) का प्रत्येक राज्य अपने भूभाग में उपलब्ध जल का अधिकतम उपयोग करने का प्रयास करता है, जिसके कारण पड़ोसी राज्यों के बीच जल का अनुचित एवं अप्रभावी आवंटन होता है। जल संसाधनों के कुशल उपयोग के लिए बहुउद्देशीय परियोजनाओं के निर्माण में सहयोग करने के लिए केन्द्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का पालन करने के बावजूद, राज्य सरकारों के बीच अंतर-राज्यीय विवादों के कारण प्रगति धीमी और विलंबित रही है। राज्यों ने बहुउद्देशीय परियोजनाओं के निर्माण में सहयोग किया है। 

संवैधानिक चुनौती इस तथ्य में निहित है कि राज्य की सीमाओं के पार बहने वाली नदियों पर किसी एक राज्य द्वारा दावा नहीं किया जा सकता है, जिससे जल विवादों का समाधान जटिल हो जाता है। भारत में सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़े अंतर-राज्यीय जल विवादों में कृष्णा-गोदावरी, नर्मदा, सतलुज-यमुना लिंकिंग नहर और कावेरी नदी के जल से संबंधित विवाद शामिल हैं। 

भारत के संविधान के अंतर्गत अंतर्राज्यीय जल विवादों की एक विशिष्ट स्थिति है, क्योंकि वे किसी विशेष न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते हैं। इस मुद्दे और बढ़ते अंतर-राज्यीय जल विवादों से निपटने के लिए, अंतर-राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 (जिसे आगे अधिनियम कहा जाएगा) की धारा 3 के अंतर्गत न्यायाधिकरणों की स्थापना की गई थी। इसके पीछे उद्देश्य अंतर-राज्यीय जल विवादों का न्यायनिर्णयन (एडज्यूडिकेशन) सुनिश्चित करना था, साथ ही केंद्र सरकार को इन विवादों की प्रत्यक्ष और कुशलतापूर्वक निगरानी और प्रबंधन करने में सक्षम बनाना था। 

कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बीच कावेरी नदी जल विवाद 19वीं सदी से चला आ रहा है। पूर्ववर्ती मैसूर और मद्रास राज्यों ने कावेरी जल के उपयोग और विकास को विनियमित करने के लिए 1892 और 1924 में दो समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे। समझौते के अनुसार, कावेरी नदी के 75% जल का उपयोग तमिलनाडु और पुडुचेरी द्वारा, 23% कर्नाटक द्वारा तथा शेष 2% केरल द्वारा किया जाना था। 

स्वतंत्रता-पूर्व काल में मैसूर और मद्रास शहरों के बीच यह जल विवाद अंग्रेजों की सलाह पर मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) समझौते के माध्यम से सुलझाया गया था। हालाँकि, 1956 में मैसूर और मद्रास राज्यों के पुनर्गठन के बाद जल संसाधनों का विभाजन, दोनों राज्यों के बीच विवाद का एक प्रमुख कारण बन गया। इसके बाद तमिलनाडु राज्य ने कर्नाटक द्वारा कावेरी नदी पर बांध बनाने का विरोध किया, लेकिन राज्य ने आगे बढ़कर बांध बना दिए। इससे कावेरी जल विवाद शुरू हुआ। 

इन विवादों को हल करने के लिए, संसद ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 262 के तहत अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 को अधिनियमित किया ताकि अंतर-राज्यीय नदी जल के वितरण को विनियमित और नियंत्रित किया जा सके। इस अधिनियम के अनुसार, राज्य सरकार के अनुरोध पर जल के उपयोग से संबंधित विवादों के निपटारे के लिए जल विवाद न्यायाधिकरण का गठन किया जाएगा। 

मामले का विवरण

मामले का नाम

कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण, पुनः

मामला संख्या

आपराधिक अपील संख्या 1774/2010

निर्णय की तिथि

22 नवंबर, 1991

न्यायालय का नाम

भारत का सर्वोच्च न्यायालय

शामिल प्रावधान और क़ानून

  1. अंतर-राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 की धारा 3
  2. अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 की धारा 4
  3. अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 की धारा 5
  4. अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 की धारा 6
  5. भारत के संविधान का अनुच्छेद 14
  6. भारत के संविधान का अनुच्छेद 21
  7. भारत के संविधान का अनुच्छेद 32
  8. भारत के संविधान का अनुच्छेद 136
  9. भारत के संविधान का अनुच्छेद 245(1)
  10. भारत के संविधान का अनुच्छेद 262
  11. राज्य सूची की प्रविष्टि 17 और संघ सूची की प्रविष्टि 56 

कावेरी जल विवाद मामले की पृष्ठभूमि

कावेरी दक्षिण भारत की सबसे बड़ी नदी है, जिसका बेसिन क्षेत्र और सहायक नदियाँ कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के भूभाग में काफी विस्तृत हैं, जिनमें कर्नाटक ऊपरी तटवर्ती राज्य है, जबकि तमिलनाडु निचला तटवर्ती राज्य है। कुल 802 किलोमीटर की लंबाई के साथ, यह नदी कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों की सीमाओं तक पहुंचने से पहले दक्षिण-पूर्व दिशा में लगभग 381 किलोमीटर की यात्रा करती है। बंगाल की खाड़ी में शामिल होने से पहले यह नदी लगभग 357 किलोमीटर की दूरी तय करती है तथा लगभग 64 किलोमीटर तक दोनों राज्यों की सीमा पर बहती है। 

मद्रास प्रेसीडेंसी और मैसूर राज्य ने 1892 में एक समझौता किया, जिसके बाद कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों ने नदी जल बंटवारे के लिए 1924 में एक समझौता किया। यह समझौता 1974 में समाप्त हो गया जिसके बाद दोनों राज्यों के बीच नदी के पानी के उपयोग की सीमा के संबंध में वार्ता हुई। इन वार्ताओं के परिणामस्वरूप जून 1972 में एक तथ्य जांच समिति की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य तथ्यों का पता लगाना तथा जल संसाधन के उपयोग की उपलब्धता और दोनों राज्यों में क्षेत्रों की प्रकृति, विशेषकर नदी बेसिन के भीतर के क्षेत्रों को समझना था। 

समिति ने दिसंबर 1972 और अगस्त 1973 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसके बाद, कावेरी नदी बेसिन में तीन राज्यों की मौजूदा और नियोजित परियोजनाओं में जल संसाधनों की बचत का आकलन करने के प्रश्न की जांच के लिए एक केंद्रीय टीम गठित की गई। टीम का नेतृत्व श्री सी.सी.पटेन और भारत सरकार के सिंचाई मंत्रालय के अपर सचिव ने किया। समिति ने नहरों के निर्माण और लाइनिंग के कार्यों को सुदृढ़ (रेनफोर्स) करके, कावेरी नदी बेसिन के भीतर जलाशयों के संचालन को एकीकृत करके, कमांड क्षेत्र में पानी की आवश्यकता का वैज्ञानिक रूप से आकलन करके तथा जलाशयों से छोड़े जाने वाले पानी की निगरानी करके सिंचाई प्रणाली में सुधार और आधुनिकीकरण की सिफारिश की। 

इन वार्ताओं के परिणामस्वरूप “1976 समझौता” हुआ, जिसमें अधिशेष (सरप्लस) जल को क्रमशः तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल राज्यों के बीच 30:53:17 के अनुपात में विभाजित करने की परिकल्पना की गई। इसके अलावा, अध्ययन दल ने सुझाव दिया कि बचत के मामले में, कर्नाटक को 87 टीएमसी, तमिलनाडु को 4 टीएमसी और केरल को 34 टीएमसी के अनुपात में आवंटन किया जाना चाहिए। 

यद्यपि अंतर-राज्यीय बैठकें नियमित आधार पर आयोजित की गईं, लेकिन उनसे कोई लाभ नहीं हुआ। परिणामस्वरूप, तमिलनाडु राज्य ने जून 1986 में अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत अनुरोध पत्र प्रस्तुत किया। प्रावधान के अनुसार, केन्द्र सरकार को जल विवाद के कुशल निर्णय के लिए एक न्यायाधिकरण गठित करने का अधिदेश दिया गया था। पत्र में तमिलनाडु राज्य ने कर्नाटक में निर्माण कार्यों के खिलाफ शिकायत की तथा राज्य के निचले इलाकों के हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए ऊपरी इलाकों के पानी को अपने अधिकार में लेने का अनुरोध किया। इसके अलावा, इसने 1892 और 1924 के समझौतों को लागू करने की मांग की, जिनकी अवधि समाप्त हो चुकी थी। 

तमिलनाडु रैयत संगठन द्वारा दायर रिट याचिका की सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार ने मामला न्यायालय पर छोड़ दिया। राज्यों के बीच हुई वार्ता और पारित की गई राशि की लंबाई पर गहन विचार करने के बाद 4 मई 1990 को निर्णय सुनाया गया। न्यायालय ने पाया कि वार्ता विफल हो गई है और केन्द्र सरकार को अधिनियम की धारा 4 के तहत एक न्यायाधिकरण गठित करने का आदेश दिया। न्यायालय के निर्देशों का पालन करते हुए, केन्द्र सरकार ने 2 जून, 1990 को कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण का गठन किया तथा तमिलनाडु राज्य से उत्पन्न विवाद को उनके अनुरोध पत्र के साथ न्यायाधिकरण को भेज दिया। 

कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण (‘‘न्यायाधिकरण’’) ने 20 जुलाई, 1990 को अपनी पहली बैठक आयोजित की, जिसमें तमिलनाडु राज्य ने अंतरिम राहत की मांग करते हुए न्यायाधिकरण के समक्ष अपना पत्र प्रस्तुत किया, जिसके बाद न्यायाधिकरण ने राज्य को एक आवेदन प्रस्तुत करने का आदेश दिया। न्यायाधिकरण के निर्देशों के अनुसार, संघ शासित प्रदेश पांडिचेरी और तमिलनाडु राज्य द्वारा अंतरिम राहत के लिए दो आवेदन प्रस्तुत किए गए। 

पांडिचेरी ने अपने आवेदन में न्यायाधिकरण से तमिलनाडु और कर्नाटक दोनों राज्यों को सितंबर से मार्च की अवधि के दौरान कावेरी नदी से पानी छोड़ने का आदेश देने की मांग की थी। 

न्यायाधिकरण ने मुख्य विवाद की सुनवाई की प्रक्रिया के साथ-साथ इन आवेदनों पर भी विचार किया। इसने विवादित राज्यों को मामले के विवरण के माध्यम से अपनी दलीलें दाखिल करने का निर्देश दिया तथा केरल और कर्नाटक राज्यों को अंतरिम राहत के लिए आवेदनों पर अपने जवाब प्रस्तुत करने को कहा। 

सभी विवादित राज्यों ने अपने प्रथम चरण की दलीलें और मामले के बयान प्रस्तुत कर दिए तथा कर्नाटक और केरल राज्यों ने वर्ष के अंत तक अंतरिम राहत के लिए आवेदनों पर अपने उत्तर दाखिल कर दिए। 

1991 में न्यायाधिकरण ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें कहा गया कि कर्नाटक, कावेरी नदी से तमिलनाडु को एक निश्चित अनुपात में पानी उपलब्ध कराएगा। इसके अलावा, न्यायाधिकरण ने इस बात पर भी विचार किया कि हर महीने कितना पानी छोड़ा जाएगा, हालांकि, इस बारे में अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका। न्यायाधिकरण के निर्देश के बाद, तमिलनाडु ने आदेश के कार्यान्वयन की मांग करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। 

न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद न्यायाधिकरण ने 2007 में अपना अंतिम निर्णय दिया। केंद्र ने 2013 में न्यायाधिकरण के आदेश को अधिसूचित किया। आदेश में कहा गया कि कुल उपलब्ध 740 टीएमसी फीट पानी में से 419 टीएमसी फीट पानी तमिलनाडु को, 270 टीएमसी फीट पानी कर्नाटक को, 30 टीएमसी फीट पानी केरल को और 7 टीएमसी फीट पानी पांडिचेरी को आवंटित किया जाएगा। 

कावेरी जल विवाद मामले के तथ्य

तथ्य जांच समिति और केन्द्र सरकार द्वारा गठित अध्ययन दल की सिफारिशों के बावजूद, राज्यों के बीच वार्ता फलदायी नहीं रही। इसके बाद, तमिलनाडु रैयत संघ ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की, जिसमें अधिनियम के तहत विवाद को न्यायाधिकरण को स्थानांतरित करने के लिए केंद्र सरकार को परमादेश (मैंडेमस) रिट जारी करने की मांग की गई। इसके अलावा, इसमें अंतरिम राहत की मांग करने वाले आवेदन का भी प्रावधान किया गया। सर्वोच्च न्यायालय में दायर इस रिट याचिका का तमिलनाडु राज्य द्वारा समर्थन किया गया। 

यह याचिका सात वर्षों तक सर्वोच्च न्यायालय में लंबित रही और इस अवधि के दौरान अंतरिम राहत के लिए कोई आवेदन नहीं किया गया। इससे व्यथित होकर तमिलनाडु राज्य ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। इसके अलावा, केंद्र शासित प्रदेश पांडिचेरी ने अंतरिम राहत के लिए अपने आवेदन में न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेश के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका दायर की थी। इन याचिकाओं को मिलाकर सिविल अपील में परिवर्तित कर दिया गया। 

इसके अलावा, कर्नाटक के राज्यपाल ने कर्नाटक कावेरी बेसिन सिंचाई संरक्षण अध्यादेश, 1991 नामक एक अध्यादेश जारी किया, जिसमें कर्नाटक में कावेरी नदी बेसिन के सिंचाई योग्य क्षेत्रों में सिंचाई की सुरक्षा और संरक्षण का प्रावधान किया गया। अध्यादेश ने राज्य को तमिलनाडु राज्य के लिए उपयुक्त जल की मात्रा के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार दिया। 

उठाए गए मुद्दे 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए:  

  1. क्या कर्नाटक कावेरी बेसिन सिंचाई संरक्षण अध्यादेश, 1991 संवैधानिक प्रकृति का है?
  2. क्या न्यायाधिकरण का आदेश अधिनियम की धारा 5(2) के दायरे में आता है?
  3. क्या न्यायाधिकरण को विवादित पक्षों को अंतरिम राहत देने का अधिकार था?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत तर्क नीचे संक्षेप में दिए गए हैं:

  1. तमिलनाडु राज्य ने तर्क दिया कि अधिनियम की योजना में न्यायाधिकरण द्वारा अंतरिम आदेश जारी करने का प्रावधान नहीं है। अधिनियम की धारा 5 में प्रावधान है कि धारा 4 के अंतर्गत न्यायाधिकरण गठित होने के बाद, केन्द्र सरकार जल से संबंधित विवाद तथा उससे संबंधित किसी भी मामले को न्यायाधिकरण को भेजेगी। जब ऐसा कोई मामला न्यायाधिकरण को भेजा जाता है, तो न्यायाधिकरण को उसके पास भेजे गए मामलों की जांच करने तथा अपने निष्कर्षों को बताते हुए एक रिपोर्ट भेजने और उसके पास भेजे गए सभी मामलों पर निर्णय देने का अधिदेश (मैंडेट) प्राप्त होता है। 
  2. इसके अतिरिक्त, यदि केन्द्र सरकार या किसी राज्य सरकार की यह राय है कि रिपोर्ट में दी गई किसी बात के लिए न्यायाधिकरण को भेजे गए किसी मामले पर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है, तो ऐसी सरकार निर्णय से तीन महीने की अवधि के भीतर मामले को एक बार फिर विचार के लिए भेज सकती है। एक बार ऐसा हो जाने पर, न्यायाधिकरण मामले के संबंध में स्पष्टीकरण देते हुए एक अन्य रिपोर्ट भेज सकता है, जिसे संशोधित माना जाएगा। 
  3. याचिकाकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि अधिनियम की धारा 6 केन्द्र सरकार को न्यायाधिकरण के निर्णय को आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित करने का निर्देश देती है, जिसे तब अंतिम माना जाता है और विवादित पक्षों पर बाध्यकारी होता है तथा तत्काल प्रभावी होता है। 
  4. कर्नाटक राज्य ने तर्क दिया कि अधिनियम की योजना में यह प्रावधान है कि पूर्ण जांच के बाद केवल एक अंतिम रिपोर्ट बनाई जाएगी, जिसमें न्यायाधिकरण के निष्कर्ष उन मामलों पर प्रस्तुत किए जाएंगे, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा निर्णय के लिए भेजा गया है। 
  5. उन्होंने आगे बताया कि रिपोर्ट तब अंतिम मानी जाती है जब तथ्य जांच पर आधारित हों तथा वे अस्थायी न हों तथा प्रथम दृष्टया सतही जांच पर आधारित न हों। 
  6. इसके अलावा, कर्नाटक सरकार ने तर्क दिया कि न्यायाधिकरण के आदेश को अधिनियम की धारा 5(2) के तहत “निर्णय” या “रिपोर्ट” नहीं माना जा सकता क्योंकि यह अधिनियम के तहत प्रदान की गई जांच के अनुरूप नहीं था। इसलिए, रिपोर्ट को अंतिम नहीं माना जा सकता है और भले ही इसे आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित कर दिया जाए, यह विवाद से संबंधित पक्षों पर बाध्यकारी नहीं हो सकता है। यह भी तर्क दिया गया कि चूंकि कोई जांच, तथ्यों पर निष्कर्ष, रिपोर्ट या निर्णय नहीं था, इसलिए केंद्र सरकार न्यायाधिकरण के अंतरिम आदेश को प्रकाशित करने के लिए बाध्य नहीं है। 
  7. तमिलनाडु राज्य ने आगे तर्क दिया कि कर्नाटक अध्यादेश, जिसे बाद में अधिनियमित किया गया, भारत के संविधान के विरुद्ध है। इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि इस कानून का वास्तविक उद्देश्य और प्रयोजन न्यायाधिकरण के आदेश को निरस्त करना तथा कावेरी नदी से अन्य राज्यों को दिए जाने वाले पानी की मात्रा के संबंध में एकतरफा निर्णय लेना था। 
  8. उन्होंने यह भी तर्क दिया कि ऐसे मामलों का निर्णय अधिनियम के तहत केन्द्र सरकार द्वारा स्थापित न्यायाधिकरणों द्वारा किया जा सकता है तथा राज्य सरकारों को ऐसे मामलों पर कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार, कानून का उद्देश्य सद्भावनापूर्ण नहीं था और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि यह विशिष्ट उद्देश्यों के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त न्यायाधिकरण द्वारा पारित न्यायिक आदेश को खारिज करता है। 
  9. दूसरे शब्दों में, तमिलनाडु राज्य ने तर्क दिया कि यह अध्यादेश संविधान के अधिकारातीत (अल्ट्रा वायर्स) है, क्योंकि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 262 के तहत अपनी शक्तियों के अनुसार संसद द्वारा बनाए गए कानून को रद्द करने का प्रयास करता है। इसके अलावा, यह कानून, जो संविधान की सूची II की प्रविष्टि 17 के अंतर्गत आता है, राज्यक्षेत्र से बाहर भी लागू होता है तथा कावेरी नदी के पानी का उपयोग करने के तमिलनाडु के लोगों के अधिकारों का उल्लंघन करता है। 
  10. इसके अलावा, यह कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है क्योंकि कर्नाटक सरकार की कार्रवाई मनमानी है और कावेरी नदी पर पानी के लिए निर्भर रहने वाले निवासियों के जीवन की उपेक्षा करती है।
  11. संघ राज्य क्षेत्र पांडिचेरी ने तर्क दिया कि यह अध्यादेश असंवैधानिक तथा दिखावटी कानून है, क्योंकि जब केंद्र सरकार ने कावेरी नदी जल विवाद के लिए न्यायाधिकरण गठित कर दिया है, तो कर्नाटक राज्य को इस पर कानून बनाने का अधिकार नहीं है। यह कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है क्योंकि यह तमिलनाडु और पांडिचेरी को पानी की आपूर्ति कम कर देता है, जिससे वे जीवित रहने के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन से वंचित हो जाते हैं। 

प्रतिवादी

कर्नाटक के मामले के समर्थन में राज्य के महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) सहित कर्नाटक राज्य के विभिन्न व्यक्तियों और प्राधिकारियों द्वारा छह हस्तक्षेप आवेदन दायर किए गए थे, जिनमें ऐसी दलीलें उठाई गई थीं जो राज्य द्वारा स्वयं उठाई गई दलीलों के समान थीं। 

  1. प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि अध्यादेश के प्रावधानों का उद्देश्य स्पष्ट है कि न्यायाधिकरण के पास कोई अंतरिम आदेश पारित करने या न्यायाधिकरण के उक्त निर्णय और उसके कार्यान्वयन को रद्द करने के लिए अंतरिम राहत प्रदान करने की कोई शक्ति या अधिकार क्षेत्र नहीं है। इसलिए, अधिनियम ने कानून के तहत नियुक्त न्यायाधिकरण के किसी भी अंतरिम आदेश के प्रभाव की अवहेलना की है और उसे निरस्त कर दिया है। 
  2. कर्नाटक राज्य ने इस पर कोई विवाद नहीं किया। अधिनियम का दूसरा प्रभाव यह है कि कर्नाटक राज्य को कावेरी नदी और उसकी सहायक नदियों से उतना पानी लेने का अधिकार है, जितना वह आवश्यक समझे। 
  3. इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि इस बात पर विवाद नहीं किया जा सकता कि अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 भारत के संविधान की सूची I की प्रविष्टि 56 के अंतर्गत कानून नहीं है। इसके पीछे तर्क यह है कि इस अनुच्छेद में अंतर-राज्यीय नदियों और नदी घाटियों के विकास और विनियमन का प्रावधान है। इसका संबंध तटवर्ती राज्यों से संबंधित विवादों से नहीं है। इसके अलावा, दोनों सूचियों में से किसी भी प्रविष्टि में अंतर-राज्यीय नदी जल से संबंधित विवादों के निपटारे का प्रावधान नहीं है। 
  4. महाधिवक्ता ने तर्क दिया कि संघ सूची की प्रविष्टि 97, अंतरराज्यीय नदी के जल के उपयोग, वितरण और नियंत्रण के विषय से संबंधित है। अनुच्छेद 262 ऐसी नदियों के जल के उपयोग, वितरण और नियंत्रण को अपने दायरे में शामिल नहीं करता। 
  5. इसके अलावा, श्री वेणुगोपाल का संविधान की प्रविष्टि 56 के दायरे के संबंध में कर्नाटक राज्य जैसा ही तर्क था। उन्होंने तर्क दिया कि यद्यपि एक अंतर्राज्यीय नदी का जल तटवर्ती राज्यों के क्षेत्रों से होकर गुजरता है, फिर भी इसे किसी एक विशिष्ट राज्य में स्थित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे प्रवाह की स्थिति में होते हैं। 
  6. परिणामस्वरूप, कोई भी विशेष राज्य ऐसे जल पर अनन्य स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता और अन्य राज्यों को जल प्रवाह से वंचित नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, कोई भी विशेष राज्य नदी जल के उपयोग के लिए कानून नहीं बना सकता, क्योंकि कानून बनाने की शक्ति उसके क्षेत्र से बाहर नहीं जाती। 

जल विवादों के समाधान के लिए सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों का अवलोकन

अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956

यह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 262 के अनुपालन हेतु संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था, जिसमें अंतर्राज्यीय नदी और नदी घाटी के प्रशासन, स्वामित्व और आवंटन से उत्पन्न जल से संबंधित विवादों को निपटाने का प्रावधान है। यह अधिनियम जल विवाद के घटकों पर विस्तार से प्रकाश डालता है तथा उसे विकसित करने की प्रक्रिया भी बताता है। 

अधिनियम के अनुसार, यदि राज्य सरकार की राय है या उसके पास यह मानने के कारण हैं कि जल से संबंधित कोई विवाद है या होगा, तो वह अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत केंद्र सरकार से विवाद को न्यायाधिकरण को सौंपने का अनुरोध कर सकती है। यदि केन्द्र सरकार को विश्वास हो जाता है कि विवाद को वार्ता से नहीं सुलझाया जा सकता है, तो वह अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत ऐसे विवादों के न्यायनिर्णयन के लिए न्यायाधिकरण का गठन करती है। 

मामले की सुनवाई के बाद न्यायाधिकरण अपना निर्णय केन्द्र सरकार को रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत करता है और सरकार उसे आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित करती है। प्रकाशन के बाद यह विवादित पक्षों पर बाध्यकारी हो जाता है। 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ऐसे विवादों की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय द्वारा नहीं की जा सकती। अधिनियम की धारा 11 के तहत उनके अधिकार क्षेत्र पर रोक है। 

हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि अधिनियम में ऐसे सिद्धांतों और दिशानिर्देशों का अभाव है जो न्यायाधिकरण द्वारा ऐसे विवादों के समाधान में एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

नदी बोर्ड अधिनियम, 1956

नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 यह सुनिश्चित करने के लिए अधिनियमित किया गया था कि केंद्र सरकार अंतर-राज्यीय नदियों और नदी घाटियों के विनियमन और विकास के लिए नदी बोर्ड की स्थापना करके लेन-देन वाली नदियों और नदी घाटियों के विकास पर ध्यान दे। अधिनियम के तहत स्थापित बोर्ड की मुख्य रूप से दो जिम्मेदारियां हैं: 

  1. अंतर-राज्यीय नदी जल के संसाधनों के सही और इष्टतम उपयोग की देखरेख करना, और
  2. सिंचाई, जल आपूर्ति और जलविद्युत उत्पादन कार्यक्रमों की निगरानी करना। 

इसके अलावा, केंद्र को संबंधित प्राधिकारियों के अनुरोध पर इस पर विचार करने के लिए एक परिषद गठित करने का अधिकार है। 

यह ध्यान देने योग्य है कि बोर्ड की भूमिका सलाहकार प्रकृति की है और इसके द्वारा दी गई सिफारिशें किसी भी तरह से बाध्यकारी नहीं हैं। 

कावेरी जल विवाद मामले से संबंधित कानून (1992)

अंतर-राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956

अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम की धारा 3

यह प्रावधान राज्य सरकार को जल विवादों से संबंधित मामलों को ऐसे विवादों के न्यायनिर्णयन हेतु न्यायाधिकरण की स्थापना हेतु केन्द्र सरकार को संदर्भित करने की शक्ति प्रदान करता है। 

अधिनियम की धारा 3 में यह प्रावधान है कि यदि किसी राज्य सरकार को लगता है कि राज्यों की साझा सीमाओं के भीतर बहने वाली किसी नदी के जल के उपयोग के संबंध में कोई विवाद है या निकट भविष्य में विवाद की संभावना है या ऐसे विवादों के कारण उसके क्षेत्र के लोगों पर निम्नलिखित कारणों से नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है: 

  1. दूसरे राज्य ने कोई कार्यकारी या विधायी कार्रवाई की है या करने की योजना बना रहा है, 
  2. अन्य राज्य या उसके प्राधिकारी नदी जल के उपयोग, वितरण या नियंत्रण के संबंध में अपनी शक्तियों का प्रयोग करने में विफल रहते हैं, या
  3. दूसरा राज्य ऐसे जल के उपयोग, वितरण या नियंत्रण के संबंध में समझौते की शर्तों को लागू करने में विफल रहा है; 

राज्य सरकार को यह अधिकार है कि वह ऐसे विवाद को अधिनियम के तहत स्थापित न्यायाधिकरण को सौंपने के लिए केन्द्र सरकार से संपर्क कर सकती है। 

अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम की धारा 4

यह प्रावधान न्यायाधिकरण के गठन का प्रावधान करता है। जब कोई राज्य सरकार अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत न्यायाधिकरण की स्थापना के लिए अनुरोध करती है और केन्द्र सरकार का मानना है कि विवाद को राज्यों के बीच वार्ता के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता है, तो केन्द्र सरकार के लिए यह अधिदेश है कि वह राज्य सरकार से ऐसे अनुरोध प्राप्त होने के एक वर्ष के भीतर आधिकारिक राजपत्र में नोटिस जारी करके ऐसे विवादों के निर्णय के लिए जल विवाद न्यायाधिकरण की स्थापना करे। 

प्रावधान के अनुसार जल या उससे संबंधित किसी भी मामले से संबंधित कोई भी विवाद, जो अंतर-राज्यीय जल विवाद (संशोधन) अधिनियम, 2002 के लागू होने से पहले न्यायाधिकरण द्वारा सुलझा लिया गया था, उसे पुनः नहीं खोला जाएगा। 

इसके अलावा, धारा 4 में न्यायाधिकरण की संरचना का प्रावधान है जो इस प्रकार होगी: 

  1. न्यायाधिकरण में एक अध्यक्ष और दो अन्य सदस्य होंगे, जिन्हें भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से नामित किया जाएगा, जो नामांकन के समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय या किसी राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हों। 
  2. केन्द्रीय सरकार को न्यायाधिकरण के परामर्श से उसके समक्ष संचालित कार्यवाहियों में न्यायाधिकरण को सलाह देने के लिए दो या अधिक व्यक्तियों को सहायक के रूप में नियुक्त करने का विवेकाधिकार है। 

अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम की धारा 5

यह प्रावधान जल विवादों के न्यायनिर्णयन का प्रावधान करता है। इसमें निम्नलिखित प्रावधान है: 

  1. मामले को न्यायाधिकरण को संदर्भित करना: जब अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत न्यायाधिकरण का गठन किया जाता है, तो केन्द्र सरकार को विवाद या उससे संबंधित किसी मामले को न्यायाधिकरण के समक्ष निर्णय हेतु भेजने का अधिदेश प्राप्त होता है। यह अधिनियम की धारा 8 के तहत निषेध के अधीन है। धारा 8 में प्रावधान है कि नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 के तहत मध्यस्थता के लिए भेजे जाने वाले मामलों में उत्पन्न विवाद के संबंध में न्यायाधिकरण को कोई संदर्भ नहीं दिया जाएगा। 
  2. न्यायाधिकरण को जांच करने और रिपोर्ट देने की शक्तियाँ: न्यायाधिकरण को केंद्र सरकार द्वारा संदर्भित मामलों की जांच करने और तीन साल की अवधि के भीतर केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजने की शक्ति है। रिपोर्ट में तथ्यों को रेखांकित किया जाएगा तथा मामले के संबंध में अपना निर्णय दिया जाएगा। 

यदि न्यायाधिकरण अपरिहार्य प्रकृति के कारणों से तीन वर्ष की अवधि के भीतर निर्णय पर नहीं पहुंचता है, तो केन्द्र सरकार को इस अवधि को दो या अधिक वर्षों के लिए बढ़ाने का अधिकार है। 

3. मामले को आगे विचार हेतु भेजा जा रहा है : यदि केन्द्रीय सरकार या कोई राज्य सरकार न्यायाधिकरण के निर्णय पर सावधानीपूर्वक विचार करने के पश्चात् इस राय में आती है कि उसे ऐसे स्पष्टीकरण या मार्गदर्शन की आवश्यकता है जो न्यायाधिकरण द्वारा मूलतः प्रस्तुत नहीं किया गया था, तो केन्द्रीय सरकार या कोई राज्य सरकार उस मामले को मूलतः निर्णय दिए जाने की तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर एक बार फिर न्यायाधिकरण को संदर्भित कर सकती है। जब मामला संदर्भित किया जाता है, तो न्यायाधिकरण ऐसे संदर्भ की तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर स्पष्टीकरण पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए तथा केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों को मार्गदर्शन प्रदान करते हुए रिपोर्ट केन्द्रीय सरकार को अग्रेषित कर सकता है। ऐसे मामले में निर्णय को संशोधित करने की बात कही गयी है। 

इसमें यह प्रावधान है कि केन्द्र सरकार को यह शक्ति है कि वह एक वर्ष की अवधि बढ़ा सके जिसके भीतर न्यायाधिकरण को अपनी रिपोर्ट भेजनी होगी, जैसा कि वह आवश्यक समझे। 

4. अधिनियम की धारा 5(4) में प्रावधान है कि न्यायाधिकरण के सदस्यों के बीच मतभेद की स्थिति में, इस मुद्दे पर बहुमत की राय के अनुसार निर्णय लिया जाएगा। 

अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम की धारा 6

यह प्रावधान न्यायाधिकरण के निर्णय को प्रकाशित करने का प्रावधान करता है। इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार को न्यायाधिकरण के निर्णय को आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित करने का अधिदेश प्राप्त है। एक बार प्रकाशित होने के बाद, निर्णय अंतिम होगा और विवादित पक्षों पर बाध्यकारी होगा तथा उक्त तिथि से प्रभावी होगा। 

इसके अलावा, यह प्रावधान यह भी कहता है कि जब न्यायाधिकरण का निर्णय प्रकाशित हो जाएगा, तो उसका प्रभाव भारत के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश या डिक्री के समान होगा। 

भारत का संविधान

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के सभी नागरिकों को समानता के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है। यह कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण के सिद्धांतों का प्रावधान करता है। यह जाति, पंथ, धर्म, जन्म स्थान, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। 

दूसरे शब्दों में, यह असमान व्यवहार पर रोक लगाता है और यह प्रावधान करता है कि भारत का प्रत्येक नागरिक कानून की नजर में समान है। 

कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण की अवधारणाएं, हालांकि एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त होती हैं, लेकिन एक दूसरे से भिन्न हैं। 

कानून के समक्ष समानता की अवधारणा ब्रिटिश संविधान से उधार ली गई है। कानून के समक्ष समानता यह स्पष्ट करती है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। दूसरे शब्दों में, यह विशेषाधिकारों के अभाव का प्रावधान करता है तथा सभी व्यक्तियों को समान रूप से देश के सामान्य कानून के अधीन करता है। इस अवधारणा को नकारात्मक अर्थ में माना जाता है क्योंकि यह राज्यों को नागरिकों के बीच भेदभाव करने से रोकता है। दूसरी ओर, कानून के समान संरक्षण की अवधारणा अमेरिकी संविधान से उधार ली गई है। समान संरक्षण कानून में यह प्रावधान है कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए तथा किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इस अवधारणा में कहा गया है कि समान परिस्थितियों में व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए, जिसका तात्पर्य यह है कि सरकार को समाज के कमजोर और असुरक्षित वर्गों के पक्ष में सकारात्मक कार्रवाई करने का अधिकार है। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21

अनुच्छेद 21 भारतीय संविधान का हृदय है। संविधान में सबसे अधिक जैविक और प्रगतिशील प्रावधान माना जाने वाला अनुच्छेद 21 एक जीवंत प्रावधान माना जाता है। 

फ्रांसिस कोरली मुलिन बनाम प्रशासक (1981) के मामले में न्यायमूर्ति पी.भगवती ने कहा कि अनुच्छेद 21 “एक लोकतांत्रिक समाज में सर्वोच्च महत्व के संवैधानिक मूल्य को मूर्त रूप देता है।” इसके अलावा, न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा कि यह अनुच्छेद “जीवन और स्वतंत्रता की प्रक्रियागत मैग्ना कार्टा सुरक्षा” है।

इसमें यह प्रावधान है कि भारतीय क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति (चाहे वह भारतीय नागरिक हो या विदेशी नागरिक) को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा। 

इसमें दो अधिकार दिए गए हैं: 

  1. जीवन का अधिकार, और
  2. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत “जीवन” शब्द का तात्पर्य केवल सांस लेने की शारीरिक क्रिया से नहीं है। इसका अर्थ व्यापक है और इसका दायरा बढ़ता जा रहा है तथा इसके दायरे में सम्मान के साथ जीने का अधिकार, सम्मान के साथ मरने का अधिकार, आजीविका का अधिकार, सुरक्षित पेयजल और प्रदूषण मुक्त वातावरण का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार आदि शामिल हैं। 

ए.पी.प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड II बनाम प्रोफेसर एम.वी. नायडू (1999) के ऐतिहासिक फैसले में, आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा प्रदूषणकारी उद्योगों को आंध्र प्रदेश के दो मुख्य जलाशयों, अर्थात् हिमायत सागर झील और उस्मान सागर झील के पास अपने उद्योग स्थापित करने की छूट दी गई थी। हालाँकि, यह पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 का उल्लंघन था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस छूट को खारिज कर दिया तथा न्यायालय ने आगे कहा कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 राज्यों को किसी विशेष उद्योग को ऐसे क्षेत्रों में छूट देने का अधिकार नहीं देते, जहां प्रदूषणकारी उद्योग स्थापित करना प्रतिबंधित है। 

एम.सी.मेहता बनाम कमल नाथ (1997) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्य जल की आपूर्ति को विनियमित करने के लिए बाध्य हैं, तथा इसके अलावा, उन्हें स्वस्थ जल के अधिकार का भी पालन करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कोई स्वास्थ्य संबंधी खतरा न हो। 

इसके अलावा, एम.सी.मेहता बनाम भारत संघ (1988) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तटवर्ती अधिकारों के सिद्धांत को मान्यता दी और पुनर्जीवित किया तथा कहा कि प्रत्येक तटवर्ती मालिक को किसी भी बाधा, विनाश या अनुचित प्रदूषण के बिना प्राकृतिक जलधारा के जल के निरंतर प्रवाह का अधिकार है। 

अपने ऐतिहासिक पेवमेंट ड्वेलर मामले में, जिसे ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम (1985) के नाम से भी जाना जाता है, सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने माना कि आजीविका का अधिकार जीवन के अधिकार से उत्पन्न होता है। न्यायालय ने कहा कि लागू कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अलावा किसी का जीवन नहीं छीना जा सकता या उसे समाप्त नहीं किया जा सकता है। इस अधिकार का एक महत्वपूर्ण पहलू व्यक्ति का आजीविका का अधिकार है जो उसके भरण-पोषण और अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32

इस प्रावधान को भारत के संविधान का हृदय और आत्मा माना जाता है। भारत के संविधान के तहत सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार, अनुच्छेद 32, मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन का प्रावधान करता है। यह प्रावधान व्यक्तियों को राज्यों के विरुद्ध अपने मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है। 

सर्वोच्च न्यायालय को बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस), परमादेश (मैण्डमस्), उत्प्रेषण (सर्टिओररी), अधिकार पृच्छा (क्वो-वारंटो) और प्रतिषेध (प्रोहिबिशन) के स्वरूप में निर्देश, आदेश या रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है। इस अधिकार को तब तक निलंबित नहीं किया जा सकता जब तक कि संविधान ऐसा प्रावधान न करे। 

कुछ शर्तें हैं जिनके तहत सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों को यह अधिकार देने से इनकार कर सकता है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं: 

  1. याचिका दायर करने में देरी
  2. दुर्भावनापूर्ण याचिका
  3. भौतिक तथ्यों का गलत प्रस्तुतीकरण या दमन
  4. संवैधानिक उपचार के अधिकार के लिए वैकल्पिक उपचार का अस्तित्व 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136

यह प्रावधान विशेष अनुमति याचिकाओं (एसएलपी) से संबंधित है, जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपलब्ध एक कानूनी उपाय है और व्यक्तियों को देश की किसी निचली अदालत या न्यायाधिकरण के निर्णय, डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से अनुमति लेने की अनुमति देता है। यह सर्वोच्च न्यायालय में निहित एक असाधारण शक्ति है और यह किसी विशेष मामले तक सीमित नहीं है। यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है कि वह तथ्य या विधि या दोनों के प्रश्नों से संबंधित मामलों पर विचार करना चाहता है या नहीं। 

एसएलपी दायर करने की समयावधि उस न्यायालय या न्यायाधिकरण जिसके निर्णय के विरुद्ध अपील न्यायालय में दायर की गई है, के निर्णय या आदेश की तारीख से 90 दिन है। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय को एसएलपी दायर करने में देरी को माफ करने का अधिकार है, यदि उसका मानना है कि ऐसा असाधारण परिस्थितियों में किया गया है। 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि एसएलपी को अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, इसमें सशस्त्र बलों से संबंधित कानूनों के तहत किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा पारित निर्णय, निर्धारण, सजा या आदेश शामिल नहीं हैं। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 245(1)

यह प्रावधान इस बात से संबंधित है कि संसद और राज्य विधानमंडल किस सीमा तक कानून बना सकते हैं। इसमें प्रावधान है कि संसद को ऐसे कानून पारित करने का अधिकार है जो भारत के क्षेत्र या उसके किसी भाग पर लागू हों। इसी प्रकार, राज्य विधानमंडलों को ऐसे कानून बनाने का अधिकार है जो पूरे राज्य या उसके कुछ हिस्सों पर लागू हों। 

यह प्रावधान निरपेक्ष (एब्सोल्यूट) प्रकृति का नहीं है तथा यह भारत के संविधान के अधीन है। दूसरे शब्दों में, संसद या राज्य विधानमंडल के पास कानून बनाने की असीमित शक्ति नहीं है और वे भारत के संविधान के अधीन हैं। संविधान के अधिकारातीत कोई भी कानून न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया जाएगा। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 262

यह प्रावधान अंतर-राज्यीय नदियों और नदी घाटियों से संबंधित विवादों के न्यायनिर्णयन से संबंधित है। इसमें प्रावधान किया गया है कि संसद को ऐसी नदी घाटियों या अंतरराज्यीय नदियों में जल के उपयोग, वितरण और नियंत्रण के संबंध में विवादों या शिकायतों के निपटारे के लिए कानून द्वारा व्यवस्था करने का अधिकार है। इसके अलावा, इसमें कहा गया है कि भारत के संविधान के प्रावधानों के बावजूद, संसद कानून द्वारा यह प्रावधान कर सकती है कि न तो सर्वोच्च न्यायालय और न ही कोई अन्य न्यायालय ऐसे मामलों पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करेगा। 

यदि संसद ने इस प्रावधान के अंतर्गत कोई कानून नहीं बनाया है तो वह उसे सर्वोच्च न्यायालय या संबंधित उच्च न्यायालय को भेज सकती है। हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह संसद के विवेक पर निर्भर करता है।

राज्य सूची की प्रविष्टि 17 और संघ सूची की प्रविष्टि 56

संघ सूची की प्रविष्टि 56 में प्रावधान है कि जनता के हित में अंतरराज्यीय नदियों और नदी घाटियों के विकास और विनियमन पर कानून बनाने का अधिकार केवल संसद को है। इसके अलावा, राज्य सूची की प्रविष्टि 17 में यह प्रावधान है कि जल और उससे संबंधित सभी मामले संघ सूची की प्रविष्टि 56 के प्रावधानों के अधीन होंगे, जो संसद को इस पर कानून बनाने का अधिकार देता है। 

दूसरे शब्दों में, जल राज्य सूची के दायरे में आता है, जिसका तात्पर्य यह है कि केवल राज्य को ही इस पर कानून बनाने का अधिकार है। हालाँकि, यह अधिकार संघ सूची की प्रविष्टि 56 द्वारा सीमित है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 262 में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि संसद को प्रविष्टि 57 के अंतर्गत दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है। इसके पीछे तर्क यह है कि नदियां विभिन्न प्रदेशों से बहती हैं और किसी भी राज्य का जल संसाधन पर एकमात्र अधिकार नहीं है। राज्यों को संसाधन पर लाभ प्राप्त करने के लिए भेदभावपूर्ण कानून नहीं बनाना चाहिए या मनमाना व्यवहार नहीं अपनाना चाहिए। परिणामस्वरूप, समानता बनाए रखने तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसी भी राज्य की आवश्यकताओं के साथ भेदभाव न हो, केंद्र को सशक्त बनाना आवश्यक हो गया। 

कावेरी जल विवाद मामले में फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उसका दृढ़ विश्वास है कि अध्यादेश कावेरी नदी से पांडिचेरी और तमिलनाडु के क्षेत्रों में नदी के पानी के प्रवाह को प्रभावित करने के लिए लागू किया गया था, जो कि निचले तटवर्ती राज्य हैं। इस संबंध में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अध्यादेश का क्षेत्राधिकार अतिरिक्त है और यह राज्य के विधायी अधिकार क्षेत्र से परे है, जिसके परिणामस्वरूप यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 245(1) का उल्लंघन है।

इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि यदि न्यायाधिकरण के पास अंतरिम राहत देने का अधिकार नहीं है, तो केंद्र सरकार इन विवादों से संबंधित मामलों को न्यायाधिकरण के समक्ष प्रस्तुत करने में अक्षम होगी। इसका तात्पर्य यह है कि न्यायाधिकरण के पास ऐसे मामलों पर कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होगा, भले ही उन विवादों का संदर्भ उसके समक्ष लाया गया हो। इसके अलावा, यदि न्यायाधिकरण के पास विवादित पक्षों को अंतरिम राहत देने की शक्ति नहीं है, तो न्यायाधिकरण द्वारा दिया गया आदेश अधिनियम की धारा 5(2) के दायरे में एक रिपोर्ट माना जाएगा और इस प्रकार, इसे अधिनियम की धारा 6 के तहत केंद्र सरकार द्वारा प्रकाशित नहीं किया जाएगा। इसका तात्पर्य यह है कि न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेश ऐसे मामले में प्रभावी नहीं होगा। न्यायालय ने विस्तार से बताते हुए कहा कि न्यायाधिकरण को तमिलनाडु राज्य द्वारा अंतरिम राहत प्रदान करने के लिए किए गए दावों पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा किए गए अनुरोध पर विचार करने का अधिकार है। परिणामस्वरूप, केन्द्र सरकार को ऐसे विवादों को न्यायाधिकरण के समक्ष निर्णय हेतु भेजने का अधिकार है। 

अधिनियम की धारा 5 केन्द्र सरकार को जल से संबंधित विवादों तथा अन्य संबंधित या प्रासंगिक मामलों को अधिनियम के तहत स्थापित न्यायाधिकरण को भेजने का अधिकार देती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अंतरिम राहत के लिए अनुरोध, भले ही वह अनिवार्य निर्देश या निषेधात्मक आदेश की प्रकृति का हो, एक ऐसा मामला होगा जो मुख्य विवाद से ही जुड़ा होगा। परिणामस्वरूप, अंतरिम राहत प्रदान करने के संबंध में तमिलनाडु राज्य द्वारा किया गया अनुरोध ऐसे संदर्भ का एक भाग है। इसलिए, न्यायाधिकरण का निर्णय अधिनियम की धारा 5(2) के दायरे में होगा और इसलिए प्रभावी प्रकृति का होने के लिए इसे अधिनियम की धारा 6 के तहत प्रकाशित किया जाएगा। 

अंत में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि 1991 में कर्नाटक के राज्यपाल द्वारा पारित अध्यादेश कर्नाटक राज्य के विधायी दायरे से बाहर था और इस प्रकार, भारत के संविधान का उल्लंघन था। इसके अलावा, न्यायाधिकरण का आदेश अधिनियम की धारा 5(2) के दायरे में एक निर्णय था और इसलिए इसे केंद्र सरकार द्वारा अधिनियम की धारा 6 के अनुसार आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित किया जाना आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के तहत स्थापित न्यायाधिकरण विवादित पक्षों को अंतरिम राहत देने के लिए सक्षम है, जब कोई विवाद केंद्र सरकार द्वारा उसके पास भेजा गया हो। 

जल विवाद पर ऐतिहासिक निर्णय

टी.एन. कावेरी नीरप्पासाना विलाई पोरुलगल विवासयिगल नाला उरीमाई पधुगप्पु संगम बनाम भारत संघ (1990)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कावेरी नदी से जल वितरण के मुद्दे को सीधे केंद्र सरकार द्वारा देखा जाना चाहिए। इसके पीछे तर्क यह था कि नदी जल से संबंधित विवादों की सुनवाई करने में सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर प्रतिबंध था। परिणामस्वरूप, केन्द्र सरकार ने विवाद की जांच के लिए एक न्यायाधिकरण का गठन किया, जिसमें तमिलनाडु राज्य ने जल वितरण के लिए एक अंतरिम आवेदन दायर किया था। हालाँकि, आवेदन खारिज कर दिया गया क्योंकि राज्य को इसे दायर करने का कोई अधिकार नहीं था। 

तमिलनाडु राज्य बनाम कर्नाटक राज्य (1991)

टी.एन. कावेरी नीरप्पसना विलाइपोरुलगल विवसाइगल नाला उरिमाई पादुगप्पु संगम बनाम भारत संघ (1990) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को तमिलनाडु राज्य द्वारा स्वीकार नहीं किया गया। परिणामस्वरूप, इस मामले में, उन्होंने भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और तर्क दिया कि न्यायाधिकरणों को अंतरिम आवेदन स्वीकार करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायाधिकरणों को अन्तरवर्ती (इंटरमीडिएट) आवेदनों पर निर्णय लेने का अधिकार है, क्योंकि वे जल विवादों से जुड़े मामलों के संबंध में भारत के संविधान के अनुच्छेद 262 के अंतर्गत सक्षम प्राधिकारी हैं। अपनी शक्ति के आधार पर न्यायाधिकरण ने कर्नाटक राज्य को पानी छोड़ने का आदेश दिया। हालाँकि, उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया और न्यायाधिकरण के आदेश को रद्द करने के लिए एक अध्यादेश पारित किया, जिसे बाद में कावेरी नदी जल न्यायाधिकरण (1992) के मामले में चुनौती दी गई।

आंध्र प्रदेश राज्य बनाम कर्नाटक राज्य (2000)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर दोहराया कि उसे न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए पंचाट (अवॉर्ड) की वैधता पर गौर करने का अधिकार है और न्यायाधिकरण के निर्णयों की व्याख्या करने का अधिकार है। इसके अलावा, उसने यह भी स्पष्ट किया कि जल विवादों के निपटारे से संबंधित मामलों पर विचार करने का उसे अधिकार नहीं है। दूसरे शब्दों में, जल से संबंधित विवादों पर इसके अधिकार क्षेत्र पर प्रतिबंध है। इसी प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए तथा हरियाणा राज्य बनाम पंजाब राज्य (2004) के मामले में इस संबंध में अपनी स्थिति दोहराई, जिसमें उसने यमुना और सतलुज नदियों पर निर्मित नहर के विवाद से संबंधित मामले में न्यायाधिकरण के निर्णय की वैधता पर विचार किया था। 

गांधी साहित्य सिंह बनाम भारत संघ (2003)

इस मामले में, अधिनियम की धारा 4 के तहत गठित कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त अध्यक्ष और दो अन्य सदस्य शामिल थे, द्वारा दिए गए निर्णयों को भारत के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी भी व्यक्ति को न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए निर्णय की वैधता को चुनौती देने का अधिकार नहीं है और इसके अलावा, भारत के संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत ऐसी शक्ति केवल राज्य सरकार के पास निहित है। 

आत्मा लिंगा रेड्डी बनाम भारत संघ (2008)

यह जल एवं उससे संबंधित विवादों से संबंधित मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के संबंध में एक महत्वपूर्ण निर्णय है। न्यायालय ने जल से संबंधित विवादों से अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 131 के क्षेत्राधिकार को बाहर रखा तथा कहा कि ऐसे विवादों का निपटारा केवल न्यायाधिकरणों द्वारा किया जाएगा। 

तमिलनाडु राज्य बनाम केरल राज्य (2014)

यह मामला उस परिदृश्य को समझने के लिए महत्वपूर्ण है जिसमें जल से संबंधित विवादों पर सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र  है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में जहां मुद्दा केवल जल विवाद तक ही सीमित न हो, बल्कि अन्य विवाद भी इसमें शामिल हों, सर्वोच्च न्यायालय को जल संसाधन के बंटवारे से संबंधित विवाद सहित सभी विवादों पर निर्णय लेने का अधिकार है। 

कर्नाटक राज्य बनाम तमिलनाडु राज्य (2017)

इस मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र के दायरे पर विस्तार से प्रकाश डाला और कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 262(2) और अधिनियम की धारा 11 द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के बावजूद, सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए सशक्त है। इसके लिए तर्क यह दिया गया कि न्यायाधिकरण भारत की संसद द्वारा पारित अधिनियम के तहत गठित एक वैधानिक प्राधिकरण है। परिणामस्वरूप, सर्वोच्च न्यायालय को न्यायाधिकरण के मापदंडों, दायरे, प्राधिकार और अधिकार क्षेत्र पर विचार करने का अधिकार प्राप्त है। 

हरियाणा राज्य बनाम पंजाब राज्य

पंजाब और हरियाणा राज्य ने रावी-ब्यास परियोजना के तहत सतलुज-यमुना नदी पर निर्मित लिंक नहर की खुदाई के लिए एक समझौता किया था। पंजाब राज्य ने अपने क्षेत्र के भीतर नहर के हिस्से को खोदने का अपना दायित्व पूरा नहीं किया। इसके बाद, हरियाणा राज्य ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत एक वाद दायर किया और पंजाब को अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए अनिवार्य निषेधाज्ञा देने की प्रार्थना की। 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नहर का निर्माण अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 के दायरे में आने वाला जल विवाद नहीं है। इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि नहर के निर्माण का विवादित राज्यों के बीच जल संसाधनों के बंटवारे से कोई संबंध नहीं है। 

इसके अलावा, न्यायालय ने पाया कि राज्य सरकारों ने 1981 में भारत के प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद एक समझौता किया था। परिणामस्वरूप, उन्हें इस विषय पर विरोधाभासी रुख अपनाने की अनुमति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब राज्य को सतलुज-यमुना नदियों पर नहर की खुदाई जारी रखने तथा यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि नहर एक वर्ष के भीतर चालू हो जाए। यदि पंजाब राज्य एक वर्ष के भीतर अपने दायित्वों को पूरा करने में विफल रहता है, तो यह केन्द्र सरकार का कर्तव्य होगा कि वह अपनी एजेंसियों के माध्यम से यह सुनिश्चित करे कि नहर कार्यात्मक है। 

अंतर्राज्यीय जल विवादों पर अंतर्राष्ट्रीय ऐतिहासिक निर्णय

दुनिया भर की कई अदालतों ने विभिन्न मामलों में ऐतिहासिक फैसले सुनाए हैं, जिनमें अंतर-राज्यीय जल विवादों के बारे में विचार किए जाने वाले महत्वपूर्ण बिंदुओं का सुझाव दिया गया है। भारत प्राचीन काल से ही इन विवादों का सामना कर रहा है और इन निर्णयों का विश्लेषण करने से ऐसे विवादों को सुलझाने और समस्या का प्रभावी समाधान खोजने में सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। 

कैनसस राज्य बनाम कोलोराडो राज्य (1907)

इस ऐतिहासिक मामले में, संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रमुख नियम प्रदान किया कि प्रत्येक राज्य को दूसरे राज्य के साथ अधिकारों की समानता प्राप्त है। इसका तात्पर्य यह है कि राज्य अन्य राज्यों के साथ समान स्तर पर हैं और कोई भी राज्य अपने कानून और विचार दूसरों पर थोपने की स्थिति में नहीं है। न्यायालय ने इस संबंध का उपयोग यह समझाने के लिए किया कि प्रत्येक राज्य को अपने क्षेत्र से बहने वाले जल पर अधिकार है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह एक सार्वजनिक अधिकार है और किसी को भी इसे विचलित करने या बाधित करने का अधिकार नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि इसका उचित उपयोग करने का अधिकार है। 

दूसरे शब्दों में, संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय में स्पष्ट किया गया कि बहते पानी का अधिकार उस राज्य में निहित है जिसकी भूमि पर वह बहता है और किसी को भी पानी के इस प्रवाह को मोड़ने या बाधित करने का अधिकार नहीं है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मालिक को अपने क्षेत्र से बहने वाले पानी का उपयोग करने का अनुचित अधिकार है। 

यह बात इस मामले के लिए भी प्रासंगिक है क्योंकि तटवर्ती राज्य अन्य राज्यों के हितों की अपेक्षा अपने हितों के बारे में अधिक चिंतित थे, जैसा कि इस मामले से स्पष्ट है, जिसमें कर्नाटक राज्य ने अन्य राज्यों की आवश्यकताओं पर विचार किए बिना अपनी सीमाओं के भीतर जल भंडारण के लिए बांधों का निर्माण शुरू कर दिया। हालाँकि, प्रत्येक राज्य को अपनी सीमाओं के भीतर बहने वाली कावेरी नदी के पानी पर समान अधिकार है, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है। 

न्यू जर्सी राज्य बनाम न्यूयॉर्क राज्य (1931)

इस ऐतिहासिक मामले में, अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी अन्य शालिका (शेड) में पानी ले जाने की अनुमति निश्चित समय पर दी जानी चाहिए, जब तक कि राज्यों को औपचारिक आधार पर पानी के उपयोग से वंचित न किया गया हो। इस मामले के संदर्भ में, विभिन्न जल स्रोतों में जल के प्रवाह को ध्यान में रखा जाना चाहिए, क्योंकि भारत एक ऐसी अर्थव्यवस्था है, जिसकी आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि क्षेत्र है। परिणामस्वरूप, पानी को उन क्षेत्रों की ओर मोड़ा जाना चाहिए जहां पानी की कमी है तथा इसे केवल तटवर्ती राज्यों तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। 

कनेक्टिकट राज्य बनाम मैसाचुसेट्स राष्ट्रमंडल (1931)

इस मामले में, अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जल के आवंटन के संबंध में विवादों को निपटाने के अधिकार की समानता का तात्पर्य जल के विभाजन से नहीं है, बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि समानता के सिद्धांत का अर्थ है कि संविधान के समक्ष सभी राज्य समान हैं। 

कैनसस बनाम कोलोराडो (1907)

इस मामले में, अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बहते पानी का अधिकार एक सार्वजनिक अधिकार है, जिसका तात्पर्य यह है कि यह उन सभी लोगों के लिए समान है जिनकी भूमि से होकर यह बहता है। किसी भी प्राधिकारी, संस्था या व्यक्ति को इसमें बाधा डालने या इसे मोड़ने का अधिकार नहीं है। इसके अलावा, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भूमि से बहने वाले जल के उचित उपयोग का अधिकार है। 

न्यायाधिकरण के निर्णय में कमियां

न्यायाधिकरण ने 5 फरवरी, 2007 को अपना निर्णय दिया और कावेरी नदी का जल निम्नानुसार आवंटित किया: 

  • तमिलनाडु: 419 टीएमसी
  • कर्नाटक: 270 टीएमसी
  • केरल: 30 टीएमसी
  • पांडिचेरी: 7 टीएमसी

इसके अलावा, पंचाट में 10 टीएमसी पानी पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए तथा 4 टीएमसी पानी समुद्र में अपरिहार्य निकास के लिए आरक्षित किया गया। 

इसका तात्पर्य यह है कि अंतिम निर्णय में यह प्रावधान था कि कर्नाटक अपने बिलिगुंड्लु स्थल से तमिलनाडु को 192 टीएमसी पानी जारी करेगा। इसमें पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए आबंटित 10 टीएमसी पानी भी शामिल है। इस निर्णय के तहत तमिलनाडु राज्य को बिलिगुंड्लु और मेट्टूर के बीच की दूरी में वर्षा के माध्यम से 25 टीएमसी अतिरिक्त पानी प्रदान किया गया। इसका तात्पर्य यह है कि न्यायाधिकरण के निर्णय के अनुसार कर्नाटक के क्षेत्र से तमिलनाडु राज्य के मेट्टूर बांध में प्रवाहित होने वाले पानी की कुल मात्रा 217 टीएमसी थी और राज्य के लिए शेष हिस्सा वर्षा और उसके क्षेत्र में बहने वाली नदियों से प्राप्त होगा। इसके अलावा, पंचाट में यह भी प्रावधान था कि तमिलनाडु राज्य कर्नाटक से मिलने वाले 192 टीएमसी पानी में से 7 टीएमसी पानी पांडिचेरी को जारी करेगा। 

न्यायाधिकरण के निर्णय में गंभीर कमियां थीं। इनमें विवादों के समाधान में अत्यधिक विलंब तथा लंबी कार्यवाही शामिल थी। इसके अलावा, न्यायाधिकरण को अपना निर्णय देने और रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं थी। एक अन्य महत्वपूर्ण नुकसान पंचाट की अंतिमता से संबंधित है। अधिनियम के अनुसार, न्यायाधिकरण का निर्णय अंतिम है तथा न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। हालाँकि, राज्य भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 जिसमें विशेष अनुमति याचिकाओं का प्रावधान है के तहत सर्वोच्च न्यायालय में जा सकते हैं। न्यायाधिकरण के निर्णय की एक अन्य पृष्ठभूमि न्यायाधिकरण की संरचना के संबंध में है, जिसमें ऐसे मामलों के विशेषज्ञ व्यक्तियों के बजाय केवल न्यायिक अधिकारी ही शामिल होते हैं। इसके अलावा, जल से संबंधित विवादों और राजनीति के बीच बढ़ते संबंध ने ऐसे विवादों को वोट बैंक की नीतियों में बदल दिया है। 

पानी का बंटवारा कैसे किया जा रहा है

कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण के 2007 के अंतिम निर्णय तथा फरवरी 2018 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में नदी जल बंटवारे की प्रणाली के बारे में विस्तार से बताया गया है। इसके अलावा, यह इन निर्णयों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत तंत्र भी प्रदान करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि सामान्य वर्ष में कावेरी बेसिन में 740 हजार मिलियन क्यूबिक फीट (टीएमसी फीट) पानी उपलब्ध होना चाहिए। इसके बाद, न्यायालय ने निम्नलिखित आवंटन किए: 

  • कर्नाटक: 284.75 टीएमसी फीट।
  • तमिलनाडु: 404.25 टीएमसी फीट।
  • केरल: 30 टीएमसी फीट।
  • पांडिचेरी: 7 टीएमसी फीट।

तमिलनाडु राज्य को आवंटित कुल मात्रा में से, कर्नाटक राज्य को यह सुनिश्चित करना है कि 177.24 टीएमसी फीट पानी मासिक आधार पर अंतर-राज्यीय सीमा पर स्थित बिलिगुंड्लु को दिया जाए। इस मात्रा में से 123.14 टीएमसी फीट पानी जून और सितंबर के महीनों के बीच दिया जाना है, जो दक्षिण-पश्चिम मानसून का मौसम है। परिणामस्वरूप, इस दौरान कावेरी नदी में बाढ़ आ गई। 

कावेरी जल विवाद मामले में हालिया घटनाक्रम

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की विशेष पीठ ने 2007 में कहा था कि कावेरी नदी राष्ट्रीय संपत्ति है। उन्होंने कहा कि कर्नाटक तमिलनाडु राज्य को 177.25 टीएमसी पानी की आपूर्ति करेगा। इसके पीछे तर्क यह था कि बेंगलुरु शहर में पानी की मांग और आवश्यकता में वृद्धि हुई है। 

इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संविधान भारत के भूभाग के भीतर राज्यों को समान दर्जा प्रदान करता है। परिणामस्वरूप, किसी भी राज्य को नदी के किसी भी हिस्से पर पूर्ण अधिकार का दावा करने का अधिकार नहीं है जो उसके क्षेत्र में बह रहा है या उसकी सीमाओं को साझा कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने जल संसाधनों पर पूर्ण अधिकार से इनकार करते हुए संसाधनों के समतापूर्ण एवं न्यायसंगत वितरण के सिद्धांतों को बरकरार रखा। 

इसके बाद न्यायालय ने केंद्र सरकार को कर्नाटक राज्य से तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी को पानी छोड़ने के लिए कावेरी प्रबंधन योजना बनाने का आदेश दिया। इसके लिए मंजूरी 18 मई, 2018 को मिली। 

हालाँकि, न्यायाधिकरण अधिनियम के तहत न्यायालय के आदेश देने के अधिकार और केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त बोर्ड के अधिकार क्षेत्र को चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उसका निर्णय और केन्द्र सरकार द्वारा बोर्ड का गठन सद्भावनापूर्ण था तथा उसके आदेश का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए किया गया था। 

यह ध्यान देने योग्य है कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रथागत सिद्धांतों की आवश्यक विशेषताओं पर प्रकाश डालता है। 

कावेरी जल विवाद मामले का विश्लेषण (1992)

कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण के ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यादेश पारित करने के संबंध में कर्नाटक राज्य के विधायी दायरे के बारे में अपनी स्थिति स्पष्ट की थी। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि न्यायाधिकरण का आदेश अधिनियम की धारा 5(2) के दायरे में एक कानूनी निर्णय माना जाता है और इसके परिणामस्वरूप, न्यायाधिकरण को विवादित पक्षों को अंतरिम राहत देने का अधिकार है। यह बात न केवल नदी जल के बंटवारे से संबंधित विवादों के संबंध में है, बल्कि ऐसे मामलों से संबंधित और प्रासंगिक विवादों के संबंध में भी है। कई राज्यों के बीच कावेरी नदी के पानी के बंटवारे से संबंधित विवाद इस बात की स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करता है कि यदि राज्यों को ऐसे विवादों का सामना करना पड़े तो क्या किया जाना चाहिए। प्रत्येक तटवर्ती राज्य को अपने क्षेत्र से होकर बहने वाली नदियों पर समान अधिकार होना चाहिए ताकि जल का निष्पक्ष और न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित हो सके। किसी भी राज्य विशेष को अपने स्वार्थों को ध्यान में नहीं रखना चाहिए। इसके अलावा, पानी को उन क्षेत्रों में भेजा जाना चाहिए जो सूखे की आशंका वाले हैं तथा जिन क्षेत्रों को कृषि एवं अन्य विकासात्मक उद्देश्यों के लिए अधिक पानी की आवश्यकता होती है। 

इसके अलावा, कृष्णा, नर्मदा और गोदावरी नदियों से जुड़े प्रमुख नदी जल विवादों में न्यायाधिकरणों द्वारा कई निर्णय दिए गए हैं। हालाँकि, इन पंचाटो के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। परिणामस्वरूप, यद्यपि न्यायाधिकरणों द्वारा निर्णय दे दिए गए हैं, फिर भी पंचाटो के अप्रभावी क्रियान्वयन के कारण टकराव अभी भी मौजूद है। इसके अलावा, विशेष कानूनों से संबंधित तकनीकी कठिनाइयों को दूर करने के लिए न्यायाधिकरण में विशेषज्ञों की नियुक्ति करना महत्वपूर्ण है। 

इसके अलावा, विवाद करने वाले पक्षों को न्यायाधिकरण के निर्णय के विरुद्ध अपील करने का अधिकार नहीं है। न्यायाधिकरण का निर्णय एक बार प्रकाशित होने पर पक्षों पर बाध्यकारी हो जाता है। यद्यपि केन्द्र सरकार या राज्य सरकारें निर्णय पर विस्तृत स्पष्टीकरण मांग सकती हैं, जिसे बाद में संशोधित किया जा सकता है, लेकिन निर्णय के क्रियान्वयन की मांग करने या उसके विरुद्ध अपील करने के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं हैं। 

 

शिफारिशें 

वर्तमान मामले और उससे संबंधित मुद्दों को ध्यान में रखते हुए, लेखक निम्नलिखित सिफारिशें करना चाहेंगे: 

  1. भारत की संसद को विदेशी देशों, विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा के जल विवादों के संबंध में लिए गए ऐतिहासिक निर्णयों पर गौर करना चाहिए। उनके सिद्धांतों को समझते हुए, संसद भारतीय परिदृश्य के संदर्भ में विवादों को हल करने के लिए मौजूदा कानूनों में संशोधन कर सकती है। 
  2. सर्वोच्च न्यायालय को जल विवादों से संबंधित मामलों के निपटारे के लिए केंद्र सरकार और न्यायाधिकरणों के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश निर्धारित करने चाहिए।
  3. केन्द्र सरकार को जल एवं इससे संबंधित मामलों से संबंधित विवादों के समाधान में न्यायाधिकरणों की निगरानी के लिए विशेषज्ञों की एक समिति नियुक्त करनी चाहिए। इसके अलावा, समिति पारदर्शिता और शक्तियों का पृथक्करण सुनिश्चित कर सकती है। 
  4. न्यायाधिकरणों को विभिन्न वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों को समझना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विवाद करने वाले पक्ष सौहार्दपूर्ण समाधान पर पहुंच सकें। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उनकी आवश्यकताएं निर्धारित समयावधि के भीतर पूरी हो जाएं। इसके अलावा, इससे न्यायाधिकरण पर मामले का बोझ कम होगा तथा प्रभावी परिणामों के साथ कुशल एवं त्वरित समाधान सुनिश्चित होगा। 

निष्कर्ष

अंतरराज्यीय नदी जल बंटवारे से संबंधित विवाद भारत में स्वतंत्रता-पूर्व काल से ही एक प्रमुख मुद्दा रहा है। हालाँकि, ये विवाद अभी भी मौजूद हैं और पूरी तरह से हल नहीं हुए हैं। भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है, इसलिए नदियाँ यहाँ एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं। प्रत्येक तटवर्ती राज्य का अपने क्षेत्र से होकर बहने वाली नदी के पानी पर अपना अधिकार है। प्रत्येक राज्य के लिए अन्य राज्यों की आवश्यकताओं पर विचार करना महत्वपूर्ण है, और चूंकि अधिकांश तटवर्ती राज्य ऐसा करने में विफल रहते हैं, इसलिए नदी जल के बंटवारे को लेकर विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है। विशेषज्ञ बताते हैं कि चूंकि केन्द्र सरकार द्वारा स्थापित न्यायाधिकरण के आदेश से अक्सर विवादित पक्षों के बीच विवाद बढ़ जाता है, इसलिए नदी जल बंटवारे से संबंधित विवादों को सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका वार्ता है, जिसमें राज्य अपने दावे, आवश्यकताएं और जरूरतें सामने रख सकते हैं। इसके बाद, किसी भी पक्ष के सर्वोत्तम हितों को नुकसान पहुंचाए बिना आपसी समझौते पर पहुंचा जा सकता है। 

कावेरी नदी जल न्यायाधिकरण का मामला ऐसे ही विवाद का एक उदाहरण है। कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और संघ शासित प्रदेश पांडिचेरी के लिए कावेरी नदी के पानी के हिस्से का प्रावधान करने वाले न्यायाधिकरण के आदेश से असंतुष्ट होकर, तमिलनाडु राज्य ने न्यायाधिकरण के निर्णय पर सवाल उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इससे न केवल विवाद समाधान प्रक्रिया में देरी होती है और यह अधिक जटिल हो जाती है, बल्कि जल जैसे महत्वपूर्ण संसाधन के वितरण में भी देरी होती है, जिससे हजारों लोगों की आजीविका प्रभावित होती है और परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था की वृद्धि और विकास प्रभावित होता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

भारत में जल विवादों पर किस प्राधिकरण का अधिकार क्षेत्र है?

केंद्र सरकार अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 की धारा 3 के अंतर्गत जल से संबंधित विवादों या उससे संबंधित या सुसंगत मामलों पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिए एक न्यायाधिकरण का गठन करती है। किसी अन्य न्यायालय या प्राधिकरण को ऐसे विवादों पर विचार करने का अधिकार नहीं है तथा उनका अधिकार क्षेत्र भारतीय संविधान तथा अधिनियम द्वारा वर्जित है। 

क्या भारत के सर्वोच्च न्यायालय को जल विवादों पर विचार करने का अधिकार है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 262, जल या उससे संबंधित मामलों से संबंधित विवादों पर विचार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय या भारत के किसी अन्य न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर रोक लगाता है। इसके अलावा, अधिनियम की धारा 11 इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर रोक लगाती है। हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इसका एक अपवाद भी है। सर्वोच्च न्यायालय जल विवादों से जुड़े मामलों पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकता है, यदि वे अन्य मुद्दों से जुड़े हों जिन पर सर्वोच्च न्यायालय अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है। इस मामले में, पानी से संबंधित सभी विवादों का निर्णय भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाएगा। 

संदर्भ

 

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