श्रीमती उज्जम बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961)

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यह लेख Advocate Devshree Dangi द्वारा लिखा गया है। यह लेख संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दायर उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 के तहत बिक्री कर अधिकारी के मूल्यांकन आदेश को रद्द करने की मांग करने वाली एक याचिका का विश्लेषण है। इसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मामले में कानूनी जटिलताओं पर चर्चा की गई है। साथ ही, कुछ वस्तुओं की बिक्री कर से छूट के संबंध में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी की गई कुछ अधिसूचनाएं भी शामिल हैं। इसमें उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 और भारत के संविधान के विभिन्न कानूनी प्रावधानों पर भी चर्चा की गई है। यह लेख संविधान के तहत उल्लेखित प्रावधानों और कर निर्धारण आदेशों की न्यायिक समीक्षा के दायरे के साथ उनके संबंध के आधार पर कुछ प्रश्नों पर चर्चा करता है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh ने किया है। 

Table of Contents

परिचय

यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 के तहत कुछ विशेष अधिसूचनाओं, जो कुछ वस्तुओं को बिक्री कर से छूट देती हैं, के संबंध में बिक्री कर के निर्धारण आदेश को रद्द करने के लिए एक याचिका है। याचिकाकर्ता, जो हस्तनिर्मित बीड़ी बनाने और बेचने का व्यवसाय करता था, को 1 अप्रैल 1958 से 30 जून 1958 की अवधि के लिए कर निर्धारण आदेश जारी किया गया था, जबकि ऐसी अधिसूचनाएँ थीं कि ऐसे निर्मित सामानों पर बिक्री कर नहीं लगाया जाता था। विवाद के मुख्य मुद्दे यह थे कि क्या उत्तर प्रदेश राज्य सरकार द्वारा विभिन्न निर्दिष्ट गतिविधियों और वस्तुओं के लिए प्रदान की गई कानूनी छूटों की व्याख्या और लागू करना बिक्री कर अधिकारी द्वारा सही था और क्या याचिकाकर्ता को कर निर्धारण के माध्यम से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) और अनुच्छेद 32 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ था। यह मामला संविधान के अनुच्छेद 12 के व्याख्या पर भी सवाल उठाता है, और अनुच्छेद 32 के प्रावधान के साथ कर निर्धारण आदेशों की न्यायिक समीक्षा के पूरे पहलू और “राज्य” की परिभाषा पर भी सवाल उठाता है।

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: श्रीमती उज्जम बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961)
  • मामले का प्रकार: 1962 एआईआर एससी 1621, 1963 एससीआर (1) 778
  • न्यायालय का नाम: सर्वोच्च न्यायालय 
  • पीठ: न्यायमूर्ति एस.के.दास, एल.कपूर, ए.के.सरकार, एम.हिदायतुल्ला, एन.राजगोपाला अयंगर, आर.मुधोलकर, सुब्बाराव 
  • पक्षों का नाम: उज्जम बाई (याचिकाकर्ता), उत्तर प्रदेश राज्य (प्रतिवादी)। 
  • महत्वपूर्ण क़ानून: उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948, भारत का संविधान 
  • फैसले की तारीख: 28 अप्रैल 1961

मामले के तथ्य 

  • इस मामले में, याचिकाकर्ता हस्तनिर्मित बीड़ी के निर्माण और बिक्री में एक साझेदार था। उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने दिनांक 14 दिसंबर 1957 के अधिसूचना के माध्यम से “सिगार, सिगरेट, बीड़ी और तंबाकू” की बिक्री को उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 के तहत बिक्री कर देयता से छूट दी थी। हालांकि, यह छूट इस शर्त के अधीन थी कि डीलरों को 13 दिसंबर 1957 तक ऐसे सामानों पर लगाए गए अतिरिक्त केंद्रीय उत्पाद शुल्क का भुगतान करना होगा। बाद में, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने 25 नवंबर 1958 के अधिसूचना के माध्यम से 1 जुलाई 1958 से बिना किसी शर्त के इन वस्तुओं को बिक्री कर से छूट दी।
  • यह मामला तब सामने आया जब बिक्री कर अधिकारी ने 1 अप्रैल 1958 से 30 जून 1958 तक की निर्धारण अवधि के दौरान याचिकाकर्ता को कर देयताओं के निर्धारण के लिए एक नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ता ने उस कर निर्धारण देयता से असहमति जताई, जो बिक्री कर अधिकारी ने उस पर लगाई थी, और उपरोक्त अधिसूचनाओं के तहत बिक्री कर से छूट का दावा किया।
  • बिक्री कर अधिकारी ने अधिसूचना पर याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए तर्कों पर विचार नहीं किया और आग्रह किया कि अधिसूचना सभी डीलरों पर लागू होगी, न कि केवल उन पर जिन्होंने 13 दिसंबर 1957 को कारोबार बंद होने के समय अतिरिक्त केंद्रीय उत्पाद शुल्क का भुगतान किया था। इसलिए, याचिकाकर्ता बिक्री कर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है क्योंकि उन्होंने ऐसे उत्पाद शुल्क का भुगतान नहीं किया है। 
  • याचिकाकर्ता ने फिर उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 9 (अपील) के तहत अपीलीय प्राधिकरण (न्यायाधीश) के समक्ष बिक्री कर अधिकारी के निर्णय के खिलाफ अपील की। लेकिन इसे 1 मई 1959 को खारिज कर दिया गया।
  • इसके बाद, याचिकाकर्ता की फर्म ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय का रुख किया और बिक्री कर अधिकारी के आदेश को चुनौती दी। 
  • उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि अधिसूचना के संबंध में बिक्री कर अधिकारी द्वारा की गई व्याख्या में कोई स्पष्ट त्रुटि नहीं थी। इसके बाद, याचिकाकर्ता की फर्म ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद 133(1)(a) के तहत अपील की। शुरुआत में, अपील को गैर-मुकदमेबाजी के कारण खारिज कर दिया गया था, लेकिन बाद में, याचिकाकर्ता की फर्म ने अपील की बहाली और देरी के माफी के लिए आवेदन किया।
  • जब अपील सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन थी, याचिकाकर्ता की फर्म ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक नई याचिका दायर की, जिसमें अनुच्छेद 19(1)(g) और 31 के तहत उल्लिखित मौलिक अधिकारों को लागू करने की मांग की गई। 
  • इस याचिका में चुनौती दी गई थी कि क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस कानूनी कार्रवाई को सीधे सर्वोच्च न्यायालय में लाया जा सकता है। प्रतिवादियों ने सर्वोच्च न्यायालय के कैलाश नाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1957) फैसले की प्रयोज्यता को भी चुनौती दी जिस पर याचिकाकर्ता ने भरोसा किया था।
  • इसके जवाब में संविधान पीठ ने कुछ सवालों को अंतिम फैसले के लिए बड़ी पीठ के पास भेज दिया। इसमें यह सवाल भी शामिल था कि क्या कर कानून के तहत एक मूल्यांकन आदेश, जो वैध है, केवल गलत व्याख्या के आधार पर अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत चुनौती दी जा सकती है। साथ ही, क्या संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत ऐसे आदेश की वैधता पर सवाल उठाया जा सकता है। 

उठाए गए मुद्दे 

  • क्या मूल्यांकन का आदेश, जो एक कर अधिनियम के तहत बनाया गया है और कानून के दायरे में है, उसको संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करने के लिए अलग रखा जा सकता है क्योंकि यह अधिनियम या उसके तहत बनाई गई अधिसूचना के प्रावधान की गलत व्याख्या पर आधारित था?
  • क्या ऐसे मूल्यांकन आदेश की सत्यता को संविधान के अनुच्छेद 32 का सहारा लेकर चुनौती दी जा सकती है?
  • क्या उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम में शामिल अपील या पुनरीक्षण या किसी अन्य उपाय जैसे उपचार, उक्त निर्धारण आदेश के खिलाफ शिकायतों का निराकरण करने के लिए पर्याप्त है अथवा क्या विचाराधीन अधिनियम को कानून विरुद्ध बताया गया है तो शामिल उपचार अप्रभावी या अपर्याप्त है?
  • क्या संविधान का अनुच्छेद 265, जो यह प्रावधान करता है कि कानून के उपबंधों के अनुसार ही कर लगाया या वसूल किया जाएगा, का मूल्यांकन आदेशों और मौलिक अधिकारों के प्रावधानों के अनुपालन पर कोई प्रभाव पड़ता है?
  • पहले के मामले के कानून, जो कराधान कानूनों और मौलिक अधिकारों की बातचीत से संबंधित हैं, किस हद तक उन शर्तों पर असर डालते हैं जिनके तहत मूल्यांकन आदेश के मामले में उत्प्रेषण (सर्शियोरारी) या निषेध की रिट लागू की जा सकती है?

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता

  • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि कर लगाना याचिकाकर्ता के व्यापार और व्यवसाय पर संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत निहित अधिकारों का उल्लंघन है। उनका मानना ​​था कि इस कर के लगाने से उनके संचालन और संगठन को प्रभावी ढंग और कुशलता से संचालन करने में बाधा उत्पन्न हुई क्योंकि इसके अधिकांश कार्यों को विनियमित किया जा रहा था जिसे उन्होंने संविधान में निहित अपने अधिकारों का उल्लंघन माना।
  • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि कर का प्रभाव संविधान के अनुच्छेद 31 के विपरीत, मुआवजे के बिना संपत्ति का असंवैधानिक निष्कासन है। कर का भुगतान करने वाले लोगों ने तर्क दिया कि कर सरकार को नागरिकों के प्रति अपनी कुछ जिम्मेदारियों से मुक्त करने के साधन के रूप में आया है; उन्होंने इसे असंवैधानिक बताया क्योंकि सरकार एक तरह से लोगों की आय या संपत्ति का एक हिस्सा बिना भुगतान के ले रही थी या जब्त कर रही थी। 
  • हालांकि, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि बिक्री कर अधिकारी ने उसके साथ अनुचित व्यवहार किया था, जिसने 14 दिसंबर, 1957 की एक अधिसूचना को गलत समझा था। लेकिन जैसा कि अधिसूचना जारी करते समय याचिकाकर्ता ने उल्लेख किया था, यह उन उत्पादों तक सीमित नहीं होना चाहिए जिन पर अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाया गया है, साथ ही भुगतान किया गया था। उन्होंने तर्क दिया कि इसके कारण गलत व्याख्या की गई, जिसके परिणामस्वरूप उनके उत्पादों पर लागू की गई।
  • ऐसे में, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि इस गलत अर्थान्यवन (कंस्ट्रक्शन) के कारण जो कर लगाया जा रहा है वह वास्तव में गैरकानूनी है। उन्होंने तर्क दिया कि बिक्री कर अधिकारी द्वारा अधिसूचना की गलत व्याख्या के प्रभाव के कारण, कर लगाया गया जो कानून के तहत कानूनी रूप से वैध नहीं था, यह अनुचित और अनधिकृत के बिना व्यापार करने के उनके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है।
  • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि निर्धारण आदेश असंवैधानिक है क्योंकि यह अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता है। उन्होंने दावा किया कि यह उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन है जिसके चलते अनुच्छेद 32 के तहत न्यायालय का क्षेत्राधिकार अनुचित निर्धारण को संबोधित करने के लिए लागू किया जाता है, जिससे उनके वैध रूप से व्यापार करने की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।
  • याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि जबकि कर कानून संविधान के भाग III के अंतर्गत नहीं आते हैं और इसलिए अनुच्छेद 265 द्वारा संरक्षित हैं, लेकिन प्रासंगिक अधिनियम के तहत अर्ध-न्यायिक न्यायाधिकरण जैसे बिक्री कर अधिकारी द्वारा किया गया आदेश अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन हो सकता है, भले ही अधिनियम विधि के दायरे में हो। उन्होंने तर्क दिया कि अर्ध-न्यायिक कार्यों के आधार पर मौलिक अधिकारों का उल्लंघन संविधान का उल्लंघन करता है, भले ही कानून का दुरुपयोग हो।
  • याचिकाकर्ता के पक्ष में श्री पालखीवाला द्वारा, कर अधिनियम का ऐसा अर्थान्व्यन जो असंवैधानिक है, अनुच्छेद 19(1)(घ) का उल्लंघन करेगा। यह एक संवैधानिक बिंदु था कि इस संदर्भ में क्षेत्राधिकार संबंधी और क्षेत्राधिकार से बाहर की त्रुटियों के बीच का अंतर महत्वहीन है। व्यापार और व्यवसाय करने के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन तब संभव है जब कोई भी प्राधिकरण किसी क़ानून का गलत अर्थ लगाता है या कोई भी अर्ध-न्यायिक न्यायाधिकरण किसी कानून या कानून के किसी विशेष प्रावधान का गलत अर्थ लगाता है जो आवेदक के संवैधानिक अधिकारों को प्रभावित करता है।
  • याचिकाकर्ता ने कैलाश नाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1957) के मामले पर भरोसा किया और तर्क दिया कि निर्धारण का एक गलत आदेश वास्तव में एक अर्ध-न्यायिक प्राधिकरण द्वारा एक अधिनियम के तहत अधिसूचना के गलत अर्थ लगाने को शामिल करता है और भले ही अधिनियम विधि के दायरे में है तो भी उनके साथ अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत व्यापार करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है।

प्रतिवादी

प्रतिवादियों की ओर से यह प्रस्तुत किया गया कि याचिका सुनवाई योग्य नहीं है क्योंकि यह उन तथ्यों पर आधारित है जो किसी भी मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के किसी भी प्रश्न को जन्म नहीं देते हैं। अधिनियम वैध है, और इसके सभी भाग कानून की दृष्टि से अच्छे हैं। 

प्रतिवादियों ने कहा कि अधिनियम में बिक्री कर अधिकारी को कर का आकलन करने का अधिकार देने वाला प्रावधान उचित है। किसी अर्ध-न्यायिक न्यायाधिकरण द्वारा अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए दिया गया ऐसा कोई भी निर्णय पूर्ण, वैध और कानूनी है।

उनका मत था कि त्रुटि, यदि कोई हो, उसे करना मूल्यांकन प्राधिकारी के क्षेत्राधिकार में है, और उसके द्वारा दिया गया निर्णय कानूनी रूप से सही है, चाहे वह कितना भी गलत क्यों न हो।

प्रतिवादियों ने आगे तर्क दिया कि कोई भी कानूनी रूप से वैध अधिनियम किसी भी संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता है। इस मामले में जिस प्रकार की त्रुटि का आरोप लगाया गया है उसे सुधारने के लिए कार्रवाई का सही तरीका अपील है या ऐसे मामलों में जहां गलती रिकॉर्ड पर देखी जा सकती है, संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर करना है। यदि इन उपायों का पालन नहीं किया जाता है, तो निर्णय गलत होने पर भी उसे उलटने का कोई कारण नहीं है।

उनके मुताबिक ऐसा कोई गलत अर्थान्व्यन नहीं हो सकता जिसके परिणामस्वरूप संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हो या किसी भी तरह की गलती हो। मूल्यांकन प्राधिकारी के भीतर निर्धारण की अवधारणा के बारे में शिकायत की गई त्रुटि, और ऐसे मामले में निर्णय लेने से संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत व्यापार करने की स्वतंत्रता के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं होता है।

प्रतिवादियों ने बताया कि अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त “राज्य” शब्द का अर्थ न्यायिक प्राधिकारी नहीं है। इस प्रकार, मूल्यांकन प्राधिकारी द्वारा दिए गए आदेश के संदर्भ में मौलिक अधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं है। 

प्रतिवादियों ने इस तर्क से इनकार किया कि अर्ध-न्यायिक न्यायाधिकरण अनुच्छेद 12 प्राधिकरणों के दायरे से बाहर हैं, जिन्हें ‘अन्य प्राधिकरण’ कहा जाता है। उन्होंने इसका तर्क इस आधार पर दिया है कि अपने कार्यकारी कार्यों को निष्पादित करते समय, बिक्री कर अधिकारी किसी भी कानूनी तरीके से न्यायपालिका से संबद्ध नहीं होते हैं। 

प्रतिवादियों ने याचिकाकर्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया है कि कर कानून का गलत अर्थान्व्यन अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत किसी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसा तर्क क्षेत्राधिकार संबंधी और गैर-क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटियों के बीच अंतर पर विचार करने में विफल रहता है।

जब उनसे अधिनियम के इस क्षेत्र के बारे में अपनी राय व्यक्त करने के लिए कहा गया, तो प्रतिवादियों ने यह भी दावा किया कि अपील या पुनरीक्षण (रिवीजन) उनकी संतुष्टि के लिए त्रुटि को ठीक करने के लिए पर्याप्त उपाय प्रदान करता है। वे आगे प्रस्तुत करते हैं कि ये उपाय पर्याप्त हैं और संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत याचिका बिक्री कर अधिकारी द्वारा निर्धारित सीमा को चुनौती देने का उचित तरीका नहीं है।

श्रीमती उज्जम बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) में चर्चा किए गए कानून

उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 के प्रावधान

उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 9: मूल्यांकन प्रक्रियाएं और डीलर के दायित्व

धारा 9 बिक्री या खरीद द्वारा करों का आकलन करने की प्रक्रिया का वर्णन करती है। यदि कोई डीलर या अन्य व्यक्ति मूल्यांकन प्राधिकारी द्वारा किए गए निर्णय से असहमत है, तो उसे निर्णय प्राप्त होने के दिन से तीस दिनों के भीतर अपील करने का अधिकार है। यदि कर, शुल्क या जुर्माने की राशि के संदर्भ में विवाद का विषय एक हजार रुपये से अधिक नहीं है, तो अपीलकर्ता को अपील पर शीघ्र विचार करने का अनुरोध करने का अधिकार है। अपील उपयुक्त प्रपत्र में लिखी गई है, और अपीलकर्ता को अपील को उचित तरीके से सत्यापित करना होगा। अपीलीय प्राधिकारी या तो दिए गए आदेश की पुष्टि कर सकता है, उसे संशोधित कर सकता है या आदेश को रद्द भी कर सकता है या नया आदेश पारित करने के लिए मामले को आकलन प्राधिकारी को वापस भेज सकता है। अपीलीय प्राधिकारी यह भी आदेश दे सकता है कि कर, शुल्क या जुर्माना, जब भी आदेश दिया गया हो, अपील का निर्णय होने तक भुगतान नहीं किया जाना चाहिए। अपीलीय प्राधिकारी द्वारा किया गया यह निर्णय अंतिम है, और इस निर्णय या संशोधन के खिलाफ किसी अपील की अनुमति नहीं है। इसमें यह भी बताना होगा कि यदि कर, शुल्क या जुर्माने की राशि का पूरा भुगतान किया गया है, तो प्रारंभिक राशि कम होने पर अतिरिक्त राशि वापस की जानी चाहिए। अपीलीय प्राधिकारी सरकारी विभाग की तरह ही आयुक्त के अधीन होता है, लेकिन साथ ही, अपीलीय प्राधिकारी के विवेक का उल्लंघन नहीं कर सकता क्योंकि इसका उपयोग अपने कार्यों को करने के लिए किया जाता है।

उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 3: दायित्व और कर दरों का पहलू

उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 के तहत, धारा 3 के तहत कर देयता का प्रावधान निर्धारित किया गया है। इस धारा के अनुसार, व्यावसायिक संस्थाओं पर बिक्री या खरीद से संबंधित उनके कारोबार के आधार पर कर लगाया जाता है। कहीं भी उत्पन्न होने वाला कोई भी कर अधिनियम में बताई गई दरों पर देय होता है, प्रावधानों के अधीन कि ऐसे कुछ उदाहरण हैं जब डीलरों द्वारा उनका भुगतान नहीं किया जाता है। यह शर्त, निश्चित रूप से, जहां तक ​​कर देयता का संबंध है, निर्दिष्ट राशि को समायोजित करने के राज्य सरकार के अधिकार को सीमित नहीं करती है। इसके अलावा, यह कमीशन एजेंटों के लिए कर दायित्व और कुछ परिस्थितियों में राज्य सरकार द्वारा दी गई मंजूरी से संबंधित प्रावधानों से संबंधित है, उदाहरण के लिए, बिजली परियोजनाओं में औद्योगिक इकाइयों के लिए। 

उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 4: विशिष्ट वस्तुओं और बिक्री पर कर छूट

धारा 4, जिसे “कर से छूट” के रूप में जाना जाता है, वर्णन करती है कि किन शर्तों पर अधिनियम के अनुसार कोई कर देय नहीं है। फिर भी, यह पानी, दूध, नमक (प्रसंस्कृत या ब्रांडेड नमक के अलावा), समाचार पत्र और राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा छूट प्राप्त अन्य वस्तुओं की बिक्री या खरीद पर कर पर पूर्ण छूट के प्रावधानों को निर्दिष्ट करता है। इसके अलावा, इसमें यह भी कहा गया है कि यह कुछ व्यक्तियों, उदाहरण के लिए ऑल इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन, गांधी आश्रम, मेरठ या उनकी शाखाओं द्वारा उत्पादों की बिक्री या खरीद पर लागू नहीं होगा। यह प्रावधान राज्य सरकार को राजपत्र में अधिसूचना का उपयोग करके अन्य व्यक्तियों या व्यक्तियों के वर्गों द्वारा बिक्री या खरीद पर राहत देने का अधिकार भी देता है। फिर भी, राज्य सरकार द्वारा किसी भी वित्तीय वर्ष में आठ हजार रुपये से अधिक की शर्तों और शुल्क में छूट देते हुए शुल्क नहीं लगाया और लिया जा सकता है। प्रावधान के स्पष्टीकरण में उल्लेख किया गया है कि उपरोक्त छूट वाले उत्पादों को इस हद तक छूट नहीं है कि वे खनिज पानी, वातित पानी, गाढ़ा दूध या शिशु दूध के बहिष्करण के अंतर्गत आते हैं।

भारतीय संविधान के प्रावधान

अनुच्छेद 12: ‘राज्य’ की परिभाषा

कानूनी दृष्टिकोण से, एक राज्य को केवल एक राष्ट्र के एक घटक भाग के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसका एक निश्चित क्षेत्र पर प्रभुत्व होता है और एक राज्य-राष्ट्र में एक व्यक्तिगत इकाई के रूप में काम करने के लिए आवश्यक सभी गुण होते हैं। अनुच्छेद 12 बताता है कि संविधान के भाग III के अर्थ में ‘राज्य’ की श्रेणी में कौन आता है, जो मौलिक अधिकारों से संबंधित है। वे भारत की केंद्र सरकार और संसद, प्रत्येक राज्य की राज्य सरकार और राज्य विधानमंडल, और भारत के क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के क्षेत्राधिकार के भीतर हर अन्य प्राधिकरण हैं।

अनुच्छेद 13: मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: मौलिक अधिकारों से असंगत या उनका अवमानना करने वाले कानून

अनुच्छेद 13(1) कहता है कि संविधान के लागू होने के समय लागू कोई भी मौजूदा कानून, जहाँ तक वह संविधान के भाग III के प्रावधानों के विरुद्ध है, शून्य और निरर्थक हो जाएगा। अनुच्छेद 13(2) कहता है कि राज्य को कोई भी नया कानून बनाने से रोका गया है जो इन अधिकारों को समाप्त या निरस्त कर दे; ऐसा करने वाला कोई भी कानून असंगतता की सीमा तक निष्प्रभावी होगा। अनुच्छेद 13(3)(a) के तहत दिए गए शब्द ‘कानून’ का अर्थ अत्यंत व्यापक है, और यह अध्यादेश, आदेश, उप-विधि, नियम, विनियम, अधिसूचना या भारत के क्षेत्र के भीतर कानूनी अधिनियम बनाने में कानूनी रूप से सक्षम व्यक्तियों के समूह के प्रयोग के रूप में किए गए किसी भी विनियमन को शामिल करता है। अनुच्छेद 13(3)(b) के अनुसार, लागू कानून में वह कानून भी शामिल है जिसे संविधान के लागू होने से पहले भारत में विधायी या किसी अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा अधिनियमित किया गया हो, भले ही ऐसे कानून को लागू करने के लिए कोई प्राधिकरण अस्तित्व में न हो और वह संविधान के लागू होने के समय लागू न हो। यह अनुच्छेद 368 के अनुसार संविधान के किसी भी संशोधन से संबंधित नहीं है, जैसा कि अनुच्छेद 13(4) द्वारा प्रदान किया गया है।

अनुच्छेद 19(1)(g): व्यापार की स्वतंत्रता से संबंधित कुछ अधिकारों के प्रावधान

अनुच्छेद 19(1)(g) प्रत्येक नागरिक को कोई भी पेशा अपनाने या किसी व्यवसाय, व्यापार में संलग्न होने का अधिकार प्रदान करता है। फिर भी यह अधिकार उन प्रतिबंधों के अधीन है जो सार्वजनिक हित में उचित और आवश्यक दोनों हैं, साथ ही अनुच्छेद 19(6) में दिए गए अन्य आधार भी हैं। अनुच्छेद 19(6) सरकार को 19(1)(g) के तहत प्रदत्त अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है। इसमें पेशेवरों के लिए योग्यता निर्धारित करना भले ही इसका मतलब नागरिकों को छोड़कर हो और राज्य-संचालित उद्यमों को संचालित करने में सक्षम बनाना शामिल है।

अनुच्छेद 32: प्रत्येक नागरिक को सर्वोच्च न्यायालय में उपचार मांगने का संवैधानिक अधिकार दिया गया है

अनुच्छेद 32 संविधान के भाग III के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने का यह अधिकार देता है। सर्वोच्च न्यायालय के पास विषयों के उपरोक्त अधिकारों के संदर्भ में निर्देश, आदेश या रिट जारी करने की शक्ति है या बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस), परमादेश (मैन्डैमस), निषेधाज्ञा (प्रोहिबिशन), स्वत्व प्रदर्शन आदेश (क्वो वारंटो) और उत्प्रेषण जैसी रिट जारी कर सकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 एक व्यापक प्रावधान है क्योंकि यह सभी मौलिक अधिकारों को शामिल करता है। यह न्यायिक समीक्षा की भी अनुमति देता है, इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय को इन अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों और अधिनियमों की समीक्षा करने की अनुमति देता है। इस प्रकार, अनुच्छेद 32 देश में प्रशासनिक अधिनायकवाद द्वारा नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के साथ-साथ न्याय और अधिकारों की रक्षा का दावा करने का एक अधिकार भी बना रहता है। हालाँकि, अर्ध-न्यायिक इकाई द्वारा की गई कानून की मात्र भूल को अनुच्छेद 32 के तहत ठीक नहीं किया जा सकता है।

अनुच्छेद 133(a): कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों से अपील में अपीलीय क्षेत्राधिकार जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 132 में प्रस्तुत किया गया है

अनुच्छेद 134A उन परिस्थितियों और शर्तों का प्रावधान करता है जिनके तहत किसी भी दीवानी मामले में उच्च न्यायालय के किसी भी फैसले, डिक्री या अंतिम आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है। भारत में उच्च न्यायालय की दीवानी कार्यवाही में किसी भी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है यदि उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134A के तहत प्रमाणित करता है कि मामले में सामान्य महत्व के कानून का एक महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल है और उच्च न्यायालय की राय में ऐसे प्रश्न को सर्वोच्च न्यायालय में भेजा जाना चाहिए।

अनुच्छेद 226: कुछ रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालय को यह शक्ति देता है कि वह बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेधाज्ञा, स्वत्व प्रदर्शन आदेश और उत्प्रेषण जैसे रिटों सहित ऐसे निर्देश या आदेश या रिट जारी कर सके, जो भाग III में वर्णित किसी भी अधिकार की रक्षा या प्रवर्तन के उद्देश्य से और किसी अन्य मामले के लिए भी हो।

अनुच्छेद 265: कानून के अधिकार के बिना कोई कर नहीं लगाया जाएगा

यह अनुच्छेद प्रदान करता है कि सरकारी अधिकारियों के लिए मंजूरी और उचित कानूनी प्राधिकरण के बिना कर लगाना गैरकानूनी है, ऐसा तब होता है जब उनके लगाए जाने का कोई कानूनी आधार नहीं होता है। यह अनिवार्य बनाता है कि किसी भी प्रकार का कर लगाना पूरी तरह से कानून के तहत होना चाहिए, चाहे वह आयकर जैसा प्रत्यक्ष कर हो या वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसा अप्रत्यक्ष कर हो। 

अधिसूचना दिनांक 14 दिसंबर 1957

यह अधिसूचना उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 4 के तहत जारी की गई थी। इसमें राज्य में कुछ श्रेणियों के सामानों पर बिक्री कर में छूट दी गई थी, जिसमें बीड़ी और कई अन्य सशर्त छूट शामिल थी। यहां एक विस्तृत विवरण दिया गया है:

छूट का दायरा: अधिसूचना में विशेष रूप से सामान “सिगार, सिगरेट, बीड़ी, और तम्बाकू” को उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 के तहत बिक्री कर का भुगतान करने के दायित्व से मुक्त किया जाएगा।

छूट के लिए शर्त: यह शर्त इस प्रकार थी: डीलरों को अतिरिक्त केंद्रीय उत्पाद शुल्क चुकाना था, जो 13 दिसंबर, 1957 से पहले लागू कराधान कानूनों के प्रावधानों के अनुसार इन वस्तुओं पर देय हो रहे थे। 

प्रभावी तिथि: यह बहिष्करण 14 दिसंबर, 1957 से, या उस तारीख से, जब 14 दिसंबर, 1957 के बाद दवा या टीकाकरण की आवश्यकता वाले समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।

शामिल किए गए सामान की प्रकृति: बीड़ी जो हाथ से बनी सिगरेट है, को भी इस अधिसूचना के तहत बिक्री कर के तहत कर से मुक्त वस्तुओं का हिस्सा बना दिया गया।

इसलिए, अधिसूचना में पहचाने गए उत्पादों के लिए एक अवधारणात्मक प्रतिरक्षा तैयार की गई है। बीड़ी, बिक्री कर की वसूली से इस शर्त पर कि संबंधित उत्पाद शुल्क के भुगतान का साक्ष्य मूल्यांकन प्राधिकारी को प्रदान किया गया था।

आगामी (सब्सीक्वन्ट) अधिसूचना दिनांक 25 नवंबर 1958:

निम्नलिखित अधिसूचना में, बीड़ी पर बिक्री कर से छूट को और अधिक स्पष्ट किया गया था और एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में विस्तारित किया गया था। यहां विस्तृत पहलू दिए गए हैं:

बिना शर्त छूट: अधिसूचना ने 1 जुलाई 1958 से हस्तनिर्मित और यंत्र निर्मित बीड़ी पर बिक्री कर के बिना शर्त भुगतान से संबंधित बिक्री कर कानून के प्रावधानों को निलंबित कर दिया।

छूट का विस्तार: अतः, इस अधिसूचना के माध्यम से, पहले की शर्त (इस बिंदु पर, जहां खरीद उत्पाद शुल्क का भुगतान करने के प्रमाण के अधीन थी) को समाप्त कर दिया गया था, और सभी प्रकार की बीड़ी की बिक्री को छूट दे दी गई थी।

इस प्रकार, बाद की अधिसूचना के अस्तित्व में, केवल बीड़ी को ही 1 जुलाई 1958 से पहले से भुगतान किए गए या लंबित उत्पाद शुल्क में बिक्री कर से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया था।

श्रीमती उज्जम बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में निर्णय (1961) 

अर्ध न्यायिक आदेशों की न्यायिक समीक्षा का दायरा 

दोनों पक्षों के तथ्यों और विवादों का विश्लेषण करने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वह एक अर्ध-न्यायिक निकाय के आदेश को रद्द करने के लिए सक्षम है, यदि उसका आदेश किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। यह वह जगह भी है जहां अर्ध-न्यायिक निकाय के अधिनियम की समीक्षा करने के लिए न्यायालय की शक्ति जो कि विधि विरुद्ध कार्य कर रही है या ऐसा करने के लिए क्षेत्राधिकार का अभाव है, उन मामलों में न्यायालय को प्रदत्त शक्ति के अनुरूप है। इसके अलावा, अदालत ने विशेष रूप से रेखांकित किया था कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन न करना और प्रासंगिक अधिनियम में निर्धारित अनिवार्य प्रक्रियात्मक प्रावधानों का पालन न करना अदालत द्वारा हस्तक्षेप की अनुमति दे सकता है।

अर्ध-न्यायिक प्राधिकारियों द्वारा की गई त्रुटि के मामले में अनुच्छेद 32 के तहत उपलब्ध उपचारों की प्रासंगिकता 

सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि अर्ध-न्यायिक मंच द्वारा कानून के बिंदु पर अनजाने में की गई त्रुटि को संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उपचार का लाभ उठाकर संबोधित नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने माना कि एक ‘कर अधिनियम’ के तहत किसी प्राधिकरण द्वारा किया गया निर्धारण आदेश, जो कानून के दायरे में है, को केवल इसलिए संविधान के अनुच्छेद 19(1)(d) का ‘विरोधाभासी’ नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह अधिनियम के प्रावधान या निकाय द्वारा जारी अधिसूचना की गलत व्याख्या पर आधारित है। अदालत ने माना कि जब तक न्यायाधिकरण का निर्णय क्षेत्राधिकार के भीतर था और ऐसा आदेश कानून के प्रावधान के विरुद्ध नहीं था, तब तक उसके द्वारा पारित आदेश रद्द करने के लिए उत्तरदायी नहीं था। इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 32 के तहत याचिका असफल होने योग्य है।

कैलाश नाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1957) में दिए गए निर्णय को परिष्कृत (रिफाइन) करना

सर्वोच्च न्यायालय ने कैलाश नाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1957) के फैसले की समीक्षा की। इस फैसले के अनुसार, किसी विधि-सम्मत (इंट्रा वायर्स) कानून के तहत दी गई शक्ति का प्रयोग करते समय की गई त्रुटि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं करती है और इसलिए इसे अनुच्छेद 32 के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। इसने कर लगाने और प्रशासनिक विवेक के संबंध में न्यायिक समीक्षा की कसौटी को कम करने में भी मदद की।

अदालत ने उन आदेशों के बीच अंतर करने के मुद्दों पर विचार किया जो विधि-सम्मत कानूनों के तहत किए गए थे, जहां ऐसे आदेश वैध प्राधिकरण के अंतर्गत आते हैं, और दूसरी ओर, उन आदेशों पर जो विधि-विरुद्ध कानूनों के तहत किए गए थे जिनका कोई कानूनी बल नहीं था और उन्हें अनुच्छेद 32 के तहत चुनौती दी जा सकती थी। उसने कई मामलों के संदर्भ लिए हैं, इस बात को रेखांकित करने के लिए कि अर्ध-न्यायिक प्राधिकरण द्वारा लिया गया गलत निर्णय, जब तक वह वैध कानून के तहत काम करता है, किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।

अंत में, अदालत ने याचिकाकर्ता की दलील को खारिज कर दिया और प्रतिवादी के साथ सहमत होते हुए दोहराया कि विधि-विरुद्ध कानून के तहत किया गया आदेश, भले ही विवादास्पद हो, संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं करता है और इसे अनुच्छेद 32 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती। इस फैसले ने कैलाश नाथ के मामले के बाद कानून को बदल दिया और कर लगाने और प्रशासनिक फैसलों में न्यायिक समीक्षा के दायरे की एक नई परिभाषा दी।

इस फैसले के पीछे तर्क

फैसले का आधार करदाताओं के लिए कर प्राधिकरणों की कर मांगों के खिलाफ शिकायत करने के लिए उपलब्ध मार्गों और मौलिक अधिकारों पर उनके प्रभाव के संबंध में कानूनी स्थिति के व्यापक विश्लेषण में निहित है। निर्णय इस स्थायी प्रस्ताव की पुष्टि करता है कि कर निर्धारण का औचित्य कर लगाने वाली संस्था द्वारा क्षेत्राधिकार सीमाओं और कर प्रक्रिया से जुड़ी वैधानिक औपचारिकताओं के पालन पर निर्भर करता है, न कि निर्धारण प्रक्रिया में केवल त्रुटियों के अस्तित्व पर। यह इसी बात को रेखांकित करता है कि किसी भी त्रुटि के बावजूद, निर्धारण के कार्य प्राधिकरण के क्षेत्राधिकार के भीतर, कानून या प्रक्रिया से संबंधित उसकी शक्ति के क्षेत्र में चालू रहते हैं।

इसके अलावा, निर्णय का उद्देश्य प्रशासनिक कार्यों के रूप में राज्य द्वारा किए गए उपायों और अर्ध-न्यायिक मंचों में लिए गए निर्णयों के बीच अंतर को स्पष्ट करना और इस पर बल देना है। यह इस प्रस्ताव को स्थापित करने में एक लंबा रास्ता तय करता है कि भले ही अर्ध-न्यायिक न्याधिकारण के माध्यम से किए गए कानूनी निर्धारण संभवतः गलत हों, ये निर्धारण मौजूदा कानूनी व्यवस्था की स्वीकृति रखते हैं और इसलिए, संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत चुनौती की सीमा से बाहर हैं। यह इस बात पर जोर देने में मदद करता है कि व्यापार-विस्तार व्याख्या के विपरीत, अर्ध-न्यायिक ट्रिब्यूनल की भूमिका के लिए उसके क्षेत्राधिकार शक्तियों के अलावा, अदालतों को निर्णय लेने की क्षमता में गलती करने पर उसे कुछ संवैधानिक चुनौतियों से बचाने की आवश्यकता होती है।

इसके अलावा, यह रेखांकित करता है कि निराश करदाता के लिए आगे कानूनी उपाय उपलब्ध हैं, जिसमें कर निर्धारण के लिए किसी न्यायिक निर्णय को चुनौती देने के कानूनी और उचित तरीके के रूप में उच्च न्यायालय में अपील करने की संभावना भी शामिल है। नतीजतन, श्रेष्ठ मार्ग की उपलब्धता को उजागर करने के माध्यम से, निर्णय का उद्देश्य कर निर्धारण से जुड़े मामलों में उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करने और ऐसे कर निर्धारणों से उत्पन्न किसी भी कथित अन्याय की स्थिति में एक निर्धारित प्रक्रियात्मक ढांचे का पालन करने की आवश्यकता पर बल देना है। यह विवादों और मामलों की स्थिति में मजबूत कानूनी सहारा की उपलब्धता को कमजोर किए बिना कर निर्धारणों को नियंत्रित करने वाले कानूनी नियमों की सुगमता बनाए रखने का प्रयास करता है।

वास्तव में, निर्णय में दिए गए तर्क केवल एक ही लक्ष्य के साथ संपूर्ण हैं: अर्थात् मूल्यांकन के संबंध में लागू कानूनी ढांचे को प्रभावित किए बिना व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लक्ष्य के साथ कार्यकारी शक्ति और करों की अपील के लिए न्यायिक प्राधिकरण के बीच संबंध बनाए रखना।

न्यायाधीशों के विचार और राय 

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय यह स्पष्ट करता है और दोहराता है कि यद्यपि अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए विशेष क्षेत्राधिकार देता है, लेकिन कानूनी या व्याख्यात्मक त्रुटियों के आधार पर व्यावहारिक रूप से चुनौतीपूर्ण कर निर्धारण के लिए क्षेत्राधिकार को आदर्श रूप से सीधे अनुच्छेद 32 के बजाय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक आवेदन दाखिल करके अपील जैसे कानूनी उपायों के माध्यम से मांगा जाना चाहिए। न्यायालय कर अधिकारियों के क्षेत्राधिकार में आने वाली गलतियों और त्रुटियों और अनुच्छेदों और मौलिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के बीच अंतर करने में बहुत सावधान था। न्यायालय ने तर्क दिया कि यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि ऐसे मामलों को द्विआधारी तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति एस.के.दास 

न्यायमूर्ति एस.के.दास ने अपने अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार भारत के नागरिकों का एक मौलिक अधिकार है। उन्होंने बताया कि यह अधिकार प्रक्रिया की किसी तकनीकी जटिलता के अधीन नहीं है, और इसे बिना किसी बाधा के बनाए रखा जाना चाहिए। उन्होंने अपने क्षेत्राधिकार के तहत एक कानूनी कर अधिनियम के तहत किसी प्राधिकरण द्वारा कर निर्धारण के मुद्दे को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि इस पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है कि किसी कानून की गलत व्याख्या की गई है। ऐसी त्रुटियों को सीधे न्यायिक समीक्षा के लिए न्यायालय के सामने नहीं लाया जाना चाहिए, बल्कि वैधानिक अपीलों या अनुच्छेद 226 के तहत अपील के माध्यम से लाया जाना चाहिए, जहां त्रुटि अभिलेख से स्वयं स्पष्ट है।

न्यायमूर्ति कपूर

न्यायमूर्ति कपूर द्वारा चुना गया अर्थान्व्यन का आम तौर पर स्वीकृत सिद्धांत यह है कि कानून पूरी तरह से संवैधानिक और वैध है और आंशिक रूप से असंवैधानिक या अमान्य नहीं है। उन्होंने कानूनों के संवैधानिक आयाम और ऐसे परिणामी कानूनों के तहत किए गए आकलन के परिणामों पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि यदि इनमें से कोई भी असंवैधानिक हो जाता है, तो इस कानून के तहत सभी मूल्यांकन समान रूप से असंवैधानिक हैं। 

न्यायमूर्ति सुब्बा राव

न्यायमूर्ति सुब्बा राव ने संविधान के प्रारंभिक महत्व पर भी प्रकाश डाला और कहा कि यह राष्ट्र का एक ढांचा है और अदालत का संविधान में बताए गए मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करना है। उन्होंने अनुच्छेद 32 में निहित व्यापक क्षेत्राधिकार पर भी ध्यान केंद्रित किया जो सर्वोच्च न्यायालय को प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं से बंधे बिना मौलिक अधिकारों की रक्षा करने की शक्ति देता है।

न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला

न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला ने अनुच्छेद 32 के दायरे को समझाया और यह भी बताया की यह उन मामलों पर कैसे लागू होता है जो मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े हैं। उन्होंने बताया कि अनुच्छेद 32 नागरिकों को निवारण के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय में आने का अधिकार प्रदान करता है, इस प्रावधान के तहत किसी भी राहत का दावा केवल मौलिक अधिकारों की गारंटी के घोर उल्लंघन के आधार पर किया जा सकता है – कोई इसका हकदार नहीं है। प्राधिकरण के क्षेत्राधिकार के भीतर कानून या तथ्य की त्रुटियों के आधार पर इस अनुच्छेद के तहत राहत की तलाश करें, भले ही त्रुटि स्पष्ट हो। 

न्यायमूर्ति अय्यंगार

न्यायमूर्ति अय्यंगार ने विधायी क्षमता और अर्ध-न्यायिक कार्रवाई के बीच अंतर को उजागर किया। उन्होंने कहा कि अर्ध-न्यायिक कार्रवाइयां मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकती हैं यदि ऐसी कार्रवाइयों को अंजाम देने के लिए कानून की स्पष्ट रूप से गलत व्याख्या की गई हो। 

न्यायमूर्ति मुधोलकर

न्यायमूर्ति मुधोलकर ने वैध कानूनों और उचित प्रक्रियाओं के तहत किए गए कर आकलन के कानूनी निहितार्थों को स्पष्ट किया। इस बात पर प्रकाश डाला गया कि अकेले कानून या व्याख्या की त्रुटियां मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं हैं, जब तक कि वे विधायी क्षमता से परे न हों या संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न करें।

उज्जम बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) में उद्धृत (साइट) महत्वपूर्ण मामले

रामजीलाल बनाम आयकर अधिकारी, मोहिंदरगढ़ (1951) 

इस मामला मे संविधान के दो प्रावधान शामिल हैं, अर्थात् अनुच्छेद 31 और 265। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संविधान का अनुच्छेद 265 इस प्रस्ताव के साथ स्पष्ट किया गया है कि कोई भी कर लगाया या एकत्र नहीं किया जा सकता है जब तक कि यह कानून द्वारा अधिकृत न हो, यह कहा जा सकता है निश्चितता के साथ कि अनुच्छेद 31 के खंड (1) के प्रावधान उन परिस्थितियों में संपत्ति छीनने से संबंधित हैं जिनमें कर लगाना या एकत्र करना शामिल है। इसके अलावा, चूंकि अनुच्छेद 265 से प्राप्त अधिकार संविधान के भाग III में बताए गए अधिकारों से संबंधित नहीं है, इसलिए अनुच्छेद 32 के तहत इसका दावा नहीं किया जा सकता है।

हिम्मतलाल हरिलाल मेहता बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1954)

यह मामला केंद्रीय प्रावधान और बरार बिक्री कर अधिनियम के तहत बिक्री कर से जुड़े विवाद के संबंध में उत्पन्न हुआ। सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से पुष्टि की कि जहां किसी कर क़ानून के तहत कानूनी प्रावधान अधिकार के बाहर है, इसलिए शून्य है, तो जो कोई भी इसके तहत कार्रवाई करता है वह अनुच्छेद 265 के तहत गणना के अनुसार कानून के अधिकार के बिना कार्य कर रहा है। अन्यथा, अनुच्छेद 19(1)(g) आता है और विवादित अधिनियम के बल का उपयोग करके कर एकत्र करने की धमकी अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत मौलिक अधिकारों का पर्याप्त उल्लंघन है।

बंगाल इम्यूनिटी फर्म लिमिटेड बनाम बिहार राज्य (1955)

यह मामला अंतरराज्यीय वाणिज्य (कमर्शियल) पर बिक्री कर की वैधता से निपटता है। सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि कानून के प्राधिकार के बिना कोई भी कर लगाया या एकत्र नहीं किया जा सकता है, और ‘कानून के प्राधिकार’ जैसे शब्दों का मतलब केवल एक अच्छे और वैध कानून का प्राधिकार हो सकता है। जहां इस तर्क में दम है कि कर के मूल्यांकन, लगाने और संग्रह की अनुमति देने वाला अधिनियम अनुच्छेद 286 का उल्लंघन करता है, तो प्रभावित पक्ष द्वारा रिट के रूप में उपाय को अनुकूलित किया जाना चाहिए। यह भी स्वीकार किया गया कि अधिनियम के तहत उपाय पर्याप्त नहीं हो सकता है यदि अधिनियम स्वयं अधिकारातीत और शून्य है।

टाटा आयरन एंड स्टील फर्म लिमिटेड बनाम एस.आर. सरकार (1960) 

इस मामला में केंद्रीय बिक्री कर अधिनियम के प्रावधानों के तहत दोहरे कराधान का मुद्दा शामिल था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को रेखांकित किया कि किसी ऐसे क़ानून के तहत कर एकत्र करने का प्रयास, जो विधि विरुद्ध है, संविधान के तहत गारंटीकृत अधिकारों का उल्लंघन है और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्च न्यायालय में कार्रवाई का कारण प्रस्तुत करना अनुच्छेद 265 के तहत वर्जित नहीं है। फिर भी, न्यायालय ने कैलाश नाथ के मामले में दिए गए फैसले को किसी भी तरह से रामजीलाल मामले में शामिल करके फैसला नहीं सुनाया।

परभणी ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड बनाम क्षेत्रीय परिवहन प्राधिकरण, औरंगाबाद (1960)

यह मामला इस आरोप पर आधारित था कि परिवहन प्राधिकरण का निर्णय अनुच्छेद 14 के प्रतिकूल था। मोटर कैरिज अनुमति देने के मामले में परिवहन प्राधिकरण के निर्णय से व्यथित परभणी ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड ने इस न्यायालय के हस्तक्षेप की मांग की है। परभणी ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड ने फैसले को भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार परिवहन प्राधिकरण जैसी तथ्यात्मक स्थिति में अर्ध न्यायिक निकाय का निर्णय गलत होने पर भी अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं हो सकता।

प्रशासनिक कार्य, एक प्राधिकारी द्वारा की गई कार्रवाइयों को संदर्भित करता है जबकि अर्ध-न्यायिक निर्णय एक प्राधिकारी द्वारा की गई कार्रवाइयों को संदर्भित करता है जिसमें न्यायिक और प्रशासनिक कार्य दोनों की कुछ विशेषताएं होती हैं। वह इस वास्तविकता से अवगत था कि जब वैचारिक कानूनों का उपयोग तथ्य स्थितियों को संबोधित करने के लिए किया जाता है, तो अर्ध-न्यायिक निकाय इसे गलत समझ सकते हैं। हालांकि, ऐसी त्रुटियों का मतलब अनुच्छेद 14 और समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है। अनुच्छेद 14 के अधिकार के विपरीत, अधिनियम के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के लिए, यह साबित करना होगा कि यह मनमाने ढंग से किया गया था, द्वेष का परिणाम था या यह प्राकृतिक न्याय के खिलाफ था। यह रुख अर्ध-न्यायिक प्रक्रियाओं को बनाए रखता है, जिससे किसी भी संवैधानिक चुनौती की अनुमति नहीं मिलती है, हर बार जब किसी निर्णय को समानता सिद्धांतों की अवज्ञा माना जाता है, तो साथ ही असमानता के उल्लंघन से भी बचाता है।

गुलाबदास बनाम सहायक कलेक्टर सीमा शुल्क (1957)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 32 के प्रावधान को स्पष्ट किया गया है कि यदि किसी कानून के विभिन्न प्रावधानों के तहत कोई गलत आदेश पारित किया जाता है जो क्षेत्राधिकार की दृष्टि से वैध है, तो भले ही आदेश गलत हो, किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है, इसलिए इसे क़ानून के साथ चुनौती दी जानी चाहिए, अनुच्छेद 32 के तहत नहीं।

मोहम्मद यासीन बनाम टाउन एरिया कमेटी (1952) 

इस मामले पर प्रस्ताव को सुदृढ़ करने के लिए भरोसा किया गया था कि किसी कानून के वैध होने के लिए न केवल विधायी अधिनियमन में विधायी क्षमता होनी चाहिए, बल्कि उसे संविधान के प्रावधानों का पालन करना होगा, विशेष रूप से उन प्रावधानों का जो अधिकारों के बिल से संबंधित है।

कवलप्पारा कोट्टाराथिल कोचुन्नी मूपिल नायर बनाम मद्रास राज्य (1960)

इस मामला में सर्वोच्च न्यायालय के संबंध में भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 में निहित शक्ति की सीमा को भी समझाया गया है। इसने दोहराया कि इस आशय की कोई दलील नहीं दी जा सकती कि अन्य उपाय भी उपलब्ध हैं क्योंकि अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार स्वयं एक प्रवर्तनीय अधिकार है। न्यायालय ने यह भी विशिष्ट निर्णय देना अनावश्यक पाया कि क्या न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत किसी याचिका पर विचार करने से इनकार कर सकता है यदि मुद्दों में तथ्य के मामलों का निर्धारण शामिल है, जिन पर पक्षों ने विवाद किया है।

दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1960)

इस मामले में यह निर्धारण किया गया था कि क्या अनुच्छेद 32 के तहत आने वाली याचिका पुनः न्याय (रेस जुडिकेटा) के सिद्धांत को आकर्षित कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, यदि किसी विवाद को गुण के आधार पर बनाया जाता है और अनुच्छेद 226 के तहत याचिका खारिज कर दी जाती है और उसके खिलाफ अपील नहीं की जाती है तो बाद में अनुच्छेद 32 के तहत दायर की गई याचिका रद्द हो जाती है। हालांकि, न्यायालय इस नियम से संबंधित परिस्थितियों को सूचीबद्ध करने में बहुत विशिष्ट था, उदाहरण के लिए जहां अनुच्छेद 226 के तहत याचिका को सहमति के आधार पर, अन्य कानूनी निवारण की उपलब्धता के आधार पर खारिज कर दिया जाता है या बिना किसी तर्कसंगत आदेश के खारिज कर दिया जाता है।

मामले का विश्लेषण 

वर्तमान मामले में शामिल तथ्य और मुद्दे भारत में कर निर्धारण तंत्रों और संविधान द्वारा संरक्षित अधिकारों के बीच सहयोग की ओर इशारा करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। याचिकाकर्ता फर्म ने अपनी अपील के आधार के रूप में राज्य अधिसूचनाओं का हवाला देते हुए, बिक्री कर अधिकारी द्वारा मूल्यांकन के खिलाफ हस्तनिर्मित बीड़ी के निर्माण और बिक्री का बचाव किया। मामले की जड़ यह थी कि क्या एक रद्द करने योग्य कर अधिनियम के तहत मूल्यांकन को अनुच्छेद 19(1)(d) के तहत सवाल किया जा सकता है, जिसका आह्वान कानून के अनुच्छेद 32 के तहत प्रावधानों के दोष प्रबंधन पर आधारित है और क्या ऐसी चुनौती शुरू की जा सकती है ।

यह सवाल खड़े करता है कि अंतर-समूह लेनदेन के संदर्भ में कर अधिकारियों का क्षेत्राधिकार कहां से शुरू/समाप्त हुआ और कर विधियों को किस व्याख्यात्मक अक्षांश की अनुमति दी जानी थी। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, दिसंबर 1957 की अधिसूचना के बाद कीमत में शामिल अतिरिक्त केंद्रीय उत्पाद शुल्क के लिए कर छूट से इनकार करने के बिक्री कर अधिकारी के फैसले को याचिकाकर्ता द्वारा चुनौती दी गई थी। नवंबर 1958 में बाद की अधिसूचना ने इस शर्त को समाप्त कर दिया, जिससे पूर्वव्यापी प्रभाव और इन शर्तों के वैधानिक अर्थ का सवाल उठा खड़ा हुआ।

इस मामले के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक यह देखने से मिलता है कि कैसे कर निर्धारणों ने मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने चुने हुए किसी भी पेशे, व्यवसाय, व्यापार में अनुच्छेद 19(1)(d) के तहत, संलग्न होने का अधिकार शामिल है। याचिकाकर्ता की इस दलील की व्याख्या कि कर अधिसूचनाओं की गलत व्याख्या ने इस अधिकार का उल्लंघन किया है, हमें राज्य की कार्रवाई और आर्थिक स्वतंत्रता की सीमा से संबंधित बहसों पर अधिक ध्यान देने देती है।

वर्तमान मामले में निर्धारित सिद्धांतों का पालन करने वाले कई मामले सामने आए। कमलापति त्रिवेदी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1978) का मामला वर्तमान मामले में निर्धारित कराधान शक्ति और मौलिक अधिकारों के पैमाने पर आधारित था। यह विशेष मामला भी एक उम्दा संघर्ष था, सरकार की कर लगाने की शक्ति के खिलाफ एक नागरिक के अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाने के अधिकार के खिलाफ। इस मामले में वर्तमान मामले ने एक मिसाल के रूप में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अदालत ने यह उजागर करने के लिए इसका उल्लेख किया कि पिछले न्यायालयों ने अनुच्छेद 19(1)(d) में अधिकारों और कर लगाने के राज्य के अधिकार के बीच संतुलन पर कैसे विचार किया है।

मेहता कंस्ट्रक्शन बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (1981) के मामले में, इस मामले में कर निर्धारण में त्रुटियों के बीच अंतर किया गया। यह मामला सरकार के एक विशेष कर निर्धारण का विरोध करने पर केंद्रित था। वर्तमान मामले का उल्लेख मूल्यांकन चरण में सरकार द्वारा की गई कानूनी गलतियों (जिसकी अपील की आवश्यकता नहीं होती है) और सरकार द्वारा करों के कार्यान्वयन में क्षेत्राधिकार से परे जाने वाली गलतियों (जिनकी अपील की जा सकती है) के बीच अंतर करने के लिए किया गया था।

कानूनी तर्क को लागू करते हुए, निर्णय ने कैलाश नाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले को कर निर्धारण के कुछ पहलुओं और मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंधों के उदाहरण के रूप में संदर्भित किया। इस बिंदु से, स्थिति अधिक अनुकूल है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय न्यायशास्त्र में नई दिशाओं को विकसित करने और कानूनी मानदंडों की निरंतरता बनाए रखने के लिए काम कर रहा है।

निष्कर्ष 

संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर वर्तमान याचिका, अधिसूचना की गलत व्याख्या के आधार पर केवल कर निर्धारण को अलग रखने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाए रखने योग्य नहीं मानी गई है। अदालत ने यह कहते हुए जारी रखा कि ऐसी शिकायतों के लिए उपयुक्त सहारा वैधानिक अपीलों और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत आवेदनों में था। निर्णय प्रभावी रूप से अर्ध-न्यायिक न्यायाधिकरणों पर लागू होने वाले सिद्धांत को स्पष्ट करता है, जो एक तरफ कानून की त्रुटियों और दूसरी तरफ क्षेत्राधिकार सरलता से संबंधित है। इस प्रकार, कर निर्धारण के परिणामों के कारण उत्पन्न होने वाली स्थितियों में कानूनी प्रक्रिया का सावधानीपूर्वक पालन करना महत्वपूर्ण है। यह उल्लेखनीय है कि निर्णय ने अनुच्छेद 12 से संबंधित कई सवालों का जवाब नहीं दिया, विशेष रूप से “राज्य” शब्द की परिभाषा और कानूनी और न्यायपूर्ण दृष्टिकोणों के संदर्भ में इसके निहितार्थ के बारे में।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में किस प्रकार योगदान देता है?

भारतीय संविधान के अनुसार, अनुच्छेद 32 के तहत, मौलिक अधिकारों को संरक्षित करने और सुरक्षित रखने के लिए विशेष तरीके हैं। संविधान प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करने की स्वतंत्रता देता है। यह अधिकार प्रक्रिया की किसी भी तकनीकी जटिलता के अधीन नहीं है और इसे बिना किसी रोक के लागू किया जाना चाहिए।

अनुच्छेद 32 में कहा गया है कि भारत के नागरिकों को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार है। यह सर्वोच्च न्यायालय को इन अधिकारों की रक्षा के लिए सामान्य और महत्वपूर्ण कानूनी रिट- बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेधाज्ञा, स्वामित्व प्रदर्शन आदेश, और उत्प्रेषण को प्रभावी रूप से जारी करने की अनुमति देता है। यह अनुच्छेद व्यक्तियों के लिए सीधे कानूनी सहारा लेना संभव बनाता है जहां उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। यह सुनिश्चित करता है कि ऐसे अधिकार संविधान में अच्छी तरह से निहित हैं और केवल कागज पर मात्र प्रावधान नहीं हैं बल्कि संरक्षित और लागू करने योग्य हैं।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 12, ‘राज्य’ की अवधारणा को समझाते हुए, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की संभावनाओं को किस प्रकार प्रभावित करता है?

अनुच्छेद 12 में परिभाषित ‘राज्य’ की अवधारणा, भारत के संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के संबंध में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है। अनुच्छेद 12 के अनुसार, “राज्य” शब्द बहुत व्यापक है, और यह केंद्र सरकार, राज्य सरकार और भारत के क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के प्रशासन के तहत राज्य के भीतर किसी अन्य प्राधिकरण को शामिल करता है। यह अवधारणा अर्ध-न्यायिक निकायों सहित सरकार की तीनों शाखाओं के किसी भी कार्य को शामिल करने के लिए अन्य मौलिक अधिकारों को विस्तारित करने में आगे बढ़ती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मौलिक अधिकारों का संरक्षण केवल केंद्र और राज्य सरकारों की कार्रवाई तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अनुच्छेद 12 में ‘राज्य’ की परिभाषा के अंतर्गत आने वाले अन्य सभी प्राधिकरणों की कार्रवाई तक भी है। स्थानीय और अन्य प्राधिकरण, अधिकांश ऐसी संस्थाओं की तरह, मौलिक अधिकारों का पालन और सम्मान करने के लिए कुछ कानूनी आवश्यकताओं के अधीन भी हैं। इसलिए, अनुच्छेद 12 का व्यापक अर्थ न केवल कार्यों के विषयों का विस्तार करके बल्कि राज्य से भिन्न व्यक्तियों और कानूनी संस्थाओं के कार्यों को मान्यता देकर मौलिक अधिकारों के संरक्षण का विस्तार करता है। यह यह भी सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न संस्थाओं के खिलाफ अपने संवैधानिक अधिकारों को लागू कर सकता है, जिससे भारत के नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों की रक्षा की संभावना बढ़ जाएगी।

वह कौन सी कानूनी प्रक्रिया है जिसका उपयोग भारत में करदाता अपने कर निर्धारण के खिलाफ अपील करने के लिए कर सकते हैं और यह प्रक्रिया क्या है? 

भारतीय कर अधिनियमों के अंतर्गत आयकर निर्धारिती के पास कानूनी अधिकार और उपचार मौजूद हैं, जो अधिक कर या गलत कर निर्धारण के दावों के लिए संबंधित निर्धारण अधिकारी द्वारा किए गए निर्धारणों को चुनौती देने के लिए कानूनी औपचारिकताएं हैं। कर निर्धारण और डीलर के कर्तव्यों के आकलन के तरीके उत्तर प्रदेश बिक्री कर अधिनियम, 1948 की धारा 9 में प्रदान किए गए हैं। इस अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, व्यापारियों को दाखिल करने की तिथि से एक माह के भीतर अपना विवरण दाखिल करना आवश्यक है। यदि व्यापारी विवरण दाखिल करने में विफल रहता है या गलत विवरण दाखिल करता है, तो इस अधिनियम के तहत शासित राजस्व (रेवेन्यू) प्राधिकरणों के पास सर्वोत्तम निर्णय मूल्यांकन करने की शक्ति है। उपरोक्त चुनौती के लिए, करदाताओं को संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत राज्य के समक्ष सांविधिक अपील और आवेदन का अधिकार है। अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए या उनके बचाव में उन्हें लागू करने के लिए आदेश जारी करने का अधिकार देता है। इसका सीधा सा मतलब है कि करदाता अपने अधिकारों का पालन कर सकते हैं, जिससे उन्हें उन आकलनों को बदलने की अनुमति मिलती है जो उन्हें असमान या गलत लगते हैं।

वर्तमान मामले में लिया गया निर्णय किस प्रकार कर अधिकारियों के दायरे में आने वाली गलतियों और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के बीच अंतर करने में मदद करता है?

उपरोक्त निर्णय के विश्लेषण ने मूलभूत अधिकार के उल्लंघन के मामलों और आयकर कर अधिनियम, 1961 के दायरे में आने वाले मामलों के बीच अंतर करने के लिए दिशानिर्देश स्थापित किए। इनमें से, यह निर्णय लेते हुए कि कर प्राधिकरण कानून के बिंदु पर या कानून की उसकी व्याख्या में गलत है, तो यह कहा जा सकता है कि ऐसा मौलिक अधिकार के उल्लंघन में किया गया है; उनका क्षेत्राधिकार सांविधिक उपाय तक ही सीमित है।

लेकिन अगर कर का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों के अनुरूप किया गया है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित है, तो इस मामले का निपटारा निस्संदेह संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत करना होगा क्योंकि इस अधिकार का उल्लंघन किया गया है। वर्तमान निर्णय की प्रक्रिया में, उच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कर निर्धारण के सिलसिले में कानूनी गलतियों और संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने के बीच स्पष्ट अंतर है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 265 कर लगाने और कानून के प्रावधानों का पालन करने के लिए बाध्य करने की शक्तियों को कैसे नियंत्रित करता है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 265 केंद्र और राज्यों को राजस्व बढ़ाने और कर लगाकर शक्तियां ग्रहण करने की शक्ति का अतिक्रमण करने से रोकने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। कानून के अधिकार के बिना किसी भी प्रकार के कर लगाने पर रोक लगाने वाला संवैधानिक प्रावधान हमारे संविधान के अनुच्छेद 265 में पाया जाता है। इस प्रावधान का उद्देश्य किसी भी प्रकार के करों पर प्रतिबंध लगाना है जब तक कि कानून का प्रावधान न हो; यह करों के मूल्यांकन और संग्रहण में कानूनी आधार या निम्नलिखित विधायी आवश्यकताओं के महत्व को दोहराता है। इस सीमा के माध्यम से, अनुच्छेद 265 कानूनी तरीका बताता है जिसके माध्यम से करों को लागू और एकत्र किया जा सकता है ताकि पीड़ित व्यक्तियों को सरकार द्वारा इस शक्ति के दमनकारी अभ्यास के खिलाफ अपने अधिकारों और हितों की रक्षा करने का अवसर दिया जा सके।

मौजूदा कानूनों को संविधान के तहत नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकने में भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 की क्या भूमिका है?

भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 में यह जांचने का महत्वपूर्ण काम है कि भारत में कोई भी कानून लागू न हो जो भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के खिलाफ हो। अनुच्छेद 13 यह प्रतिपादित करता है कि जिसके आधार पर कोई भी कानून जो संविधान के प्रारंभ के समय लागू है और संविधान के भाग III के प्रावधानों के प्रतिकूल है, उसे शून्य घोषित कर दिया जाता है। यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि कानून भाग III के तहत संविधान में निहित अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है, इस प्रकार लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा होती है। अनुच्छेद 13 संविधान की सर्वोच्चता की भी रक्षा करता है, क्योंकि संविधान में उपलब्ध प्रावधानों के साथ असंगत कानूनों को अमान्य घोषित कर दिया गया है, जिससे संविधान के प्रावधानों को संविधान में निहित अधिकारों के प्रवर्तन के माध्यम से मौजूदा कानूनों द्वारा किसी भी अतिक्रमण से बचाया जा सकता है। 

 

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