यह लेख Pruthvi Ramkanta Hegde द्वारा लिखा गया था। यह लेख जॉन वल्लमट्टम बनाम भारत संघ (2003) के मामले में तथ्यों, मुद्दों, टिप्पणियों और निर्णय की व्याख्या करता है। यह निर्णय भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 की वैधता पर टिप्पणी करता है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 का अवलोकन (ओवरव्यू) और यह कैसे भारत के संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, इस पर भी लेखक द्वारा चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारत में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की अवधारणा पर काफ़ी चर्चा और बहस हुई है। यूसीसी का उद्देश्य एक ऐसा कानून स्थापित करना है जो सभी नागरिकों पर लागू हो, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। इस प्रकार यह धार्मिक ग्रंथों और रीति-रिवाजों से प्राप्त विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेता है। यूसीसी का मुख्य उद्देश्य समानता और एकता को बढ़ावा देना है।
समान नागरिक संहिता द्वारा संबोधित किये जाने वाले महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है व्यक्तिगत कानूनों में भेदभावपूर्ण प्रावधान, जैसे कि 1925 के भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम में पाये जाने वाले प्रावधान। जॉन वल्लमट्टम बनाम भारत संघ (2003) के ऐतिहासिक मामले ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 के तहत ईसाई समुदाय के साथ असमान व्यवहार को प्रकाश में लाया गया। यह धारा ईसाइयों पर धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति देने पर कुछ प्रतिबंध लगाती है, और यह धारा अन्य धार्मिक समुदायों पर लागू नहीं होती है।
मामले का विवरण
मामले का नाम
जॉन वल्लमट्टम बनाम भारत संघ (2003)
मामले का प्रकार
रिट याचिका (सिविल) 242
निर्णय की तिथि
21 जुलाई 2003
न्यायालय का नाम
भारत का माननीय सर्वोच्च न्यायालय
समतुल्य उद्धरण (साइटेशन)
रिट याचिका (सी) संख्या 242/1997
न्यायपीठ
तत्कालीन माननीय मुख्य न्यायाधीश, वी.एन. खरे; माननीय न्यायमूर्ति, एस.बी. सिन्हा; और माननीय न्यायमूर्ति, ए.आर. लक्ष्मणन
मामले के पक्ष
याचिकाकर्ता
जॉन वल्लमट्टम और अन्य
प्रतिवादी
भारत संघ
संबंधित क़ानून और प्रावधान
भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 25 और अनुच्छेद 26 और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118।
जॉन वल्लमट्टम बनाम भारत संघ (2003) के तथ्य
- जॉन वल्लमट्टम नामक एक ईसाई पादरी ने भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह रिट याचिका दायर की।
- इस रिट याचिका के माध्यम से उन्होंने 1925 के भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 को चुनौती दी।
- याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह धारा उन ईसाइयों के विरुद्ध भेदभाव करती है जो धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए अपनी संपत्ति छोड़ना चाहते हैं।
- धारा 118 की उत्पत्ति ब्रिटिश मॉर्टमैन क़ानून से हुई थी और इसे भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम में शामिल किया गया था।
उठाए गए मुद्दे
- क्या भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करती है?
- क्या भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 के परिणामस्वरूप अन्य धर्मों के अनुयायियों (फॉलोवर्स) की तुलना में ईसाइयों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार हुआ?
याचिकाकर्ता की दलीलें
- याचिकाकर्ता ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष तर्क दिया कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक है। उनकी दलीलें मुख्य रूप से भारत में अन्य धार्मिक समुदायों की तुलना में ईसाइयों के साथ असमान व्यवहार की ओर इशारा करती थीं, विशेष रूप से धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति के वसीयत (बिक्वीथ) के संबंध में।
- याचिकाकर्ता ने दावा किया कि धारा 118 ने केवल ईसाइयों पर अनुचित प्रतिबंध लगाए हैं। इस प्रावधान के अनुसार ईसाई धार्मिक या धर्मार्थ उपयोग के लिए संपत्ति नहीं दे सकते, जब तक कि वसीयतकर्ता (टेस्टेटर) की मृत्यु से कम से कम बारह महीने पहले वसीयत निष्पादित (एक्सीक्यूटेड) न की गई हो और उसके निष्पादन के छह महीने के भीतर कानूनी संग्रह (लीगल रिपॉजिटरी) में जमा न कर दी गई हो।
- याचिकाकर्ता ने आगे तर्क दिया कि ऐसी सख्त शर्तें हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, सिख या जैन पर नहीं लगाई गई थीं। इसलिए, यह एक अनुचित और अन्यायपूर्ण वर्गीकरण था जो पूरी तरह से धर्म पर आधारित था।
- एक अन्य तर्क यह उठाया गया कि यह भेदभाव उचित नहीं है क्योंकि यह भारत के संविधान के मौलिक अधिकारों, विशेषकर संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 25 और 26 का उल्लंघन करता है।
- याचिकाकर्ता के अनुसार, यह प्रावधान सीधे तौर पर अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है। यह भारतीय संविधान के तहत पुष्टि किए गए मौलिक अनुच्छेदों में से एक है। अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण (प्रॉटेक्शन) को सुनिश्चित करता है।
- याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि धारा 118 सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करने में विफल रही है, क्योंकि इसमें ईसाइयों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया गया है।
- इसके अलावा, यह भी बताया गया कि अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 के अनुसार, केवल ईसाइयों पर विशेष प्रतिबंध लगाना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन होगा, जो धर्म के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
- याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 25 अंतरात्मा (कनसाइंस) की स्वतंत्रता और धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने के अधिकार की गारंटी देता है। दान (चैरिटी) देना ईसाई धार्मिक अभ्यास का एक अभिन्न अंग था, और ये प्रतिबंध इस धार्मिक अभिव्यक्ति में बाधा डालते हैं।
- यह दावा किया गया कि विवादित धारा गोवा को छोड़कर केवल ईसाइयों पर लागू होती है और इसमें सख्त शर्तें लगाई गई हैं। इसके अलावा, हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, सिख और जैन इन प्रतिबंधों के अधीन नहीं हैं।
- इसके अलावा, अनुच्छेद 26 धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता प्रदान करता है। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि धारा के प्रतिबंध ईसाइयों को अपने धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्तों का स्वतंत्र रूप से प्रबंधन करने से रोकते हैं।
- धारा 118 ने उन ईसाई वसीयतकर्ताओं पर अनुचित और भेदभावपूर्ण बोझ डाला जिनके भतीजे(निस), भतीजियाँ (नेफ्यू) या निकट संबंधी थे। इन वसीयतकर्ताओं को अपनी वसीयत बनाते समय धारा 118 का अनुपालन करना पड़ता था, जबकि ऐसे लोगों को ऐसा नहीं करना पड़ता था जिनके कोई रिश्तेदार नहीं थे।
- याचिकाकर्ता ने इस बात पर जोर दिया कि इन प्रतिबंधों का वैध और वास्तविक धर्मार्थ वसीयत सुनिश्चित करने के उद्देश्य से कोई ठोस संबंध नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां
इस मामले पर निर्णय देते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 के अनुसार धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति देने की बात आती है, तो कानून की किताब में विवादित प्रावधान को बनाए रखने का कोई औचित्य (जस्टिफिकेशन) नहीं है। यह मनमाना है और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है। इस प्रावधान के अनुसार, एक ईसाई अपने भतीजे, भतीजी या करीबी रिश्तेदार के साथ धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति नहीं दे सकता है जब तक कि:
- वसीयत को वसीयतकर्ता की मृत्यु से कम से कम 12 महीने पहले निष्पादित किया जाता है।
- वसीयत को निष्पादन के छह महीने के भीतर कानूनी रूप से निर्दिष्ट स्थान पर जमा कर दिया जाता है।
- वसीयतकर्ता की मृत्यु तक वसीयत जमा रहती है।
अधिनियम की धारा 58 के अनुसार यह सख्त प्रक्रिया हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, सिख या जैन पर लागू नहीं होती। चूंकि धारा 3 के तहत ईसाइयों को कोई छूट नहीं दी गई है, इसलिए उन्हें हर 12 महीने में एक नई वसीयत बनानी होगी, अगर वसीयतकर्ता की मृत्यु वर्ष के भीतर नहीं होती है।
न्यायालय ने आगे कहा कि इसी प्रतिबंध की तुलना अन्य धर्मों से की जानी चाहिए। तदनुसार, दूसरी ओर, मुसलमानों को धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति वसीयत करते समय ऐसे किसी प्रतिबंध का सामना नहीं करना पड़ता है। यदि उत्तराधिकारी ( हेयर्स) मौजूद हैं तो मुसलमान अपनी कुल संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा वैध रूप से वसीयत कर सकते हैं। एकमात्र आवश्यकता यह है कि वसीयतकर्ता स्वस्थ दिमाग का होना चाहिए और नाबालिग नहीं होना चाहिए। अगर वसीयतकर्ता की मृत्यु हो जाती है, तो वसीयत अमान्य (वोयड) हो जाती है। मुस्लिम कानून के तहत, किसी व्यक्ति, संस्था, गैर-मुस्लिम, नाबालिग या पागल व्यक्ति के पक्ष में वसीयत बनाई जा सकती है और किसी भी संपत्ति को वसीयत किया जा सकता है।
हिंदुओं के लिए, मंदिर या धर्मार्थ संस्था की स्थापना करना एक धार्मिक कर्तव्य और धर्म का एक पहलू माना जाता है।
इसके अलावा, न्यायालय ने मृत्युदंड संबंधी कानूनों का भी हवाला दिया, जो इस प्रावधान के निर्माण का आधार हैं, अर्थात भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118। हालांकि, धारा 118 का कानूनी आधार अब मौजूद नहीं है, क्योंकि इसे 1960 के धर्मादाय अधिनियम द्वारा निरस्त कर दिया गया था।
न्यायालय ने आगे कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 का भी उल्लंघन करता है, जो धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं। ईसाइयों के लिए, धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति देना उनके विश्वास का एक मूलभूत पहलू माना जाता है। बाइबल में भी इसी बात को प्रोत्साहित किया गया है। जब धार्मिक स्वतंत्रता जैसे किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन होने का दावा किया जाता है, तो न्यायालय को यह जांच करनी चाहिए कि क्या संबंधित कार्य का उद्देश्य व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य की रक्षा करना है। इसके अतिरिक्त, यह अन्य संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है। यह कानून द्वारा संबंधित आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित करने या सामाजिक कल्याण और सुधार प्रदान करने के लिए भी अधिकृत है। न्यायालय इस जांच का संचालन करने के लिए बाध्य है।
इस मामले पर निर्णय देते समय न्यायालय ने डी.एस. नकारा बनाम भारत संघ (1983) के मामले का अवलोकन किया। न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 14 और कानून पर इसके प्रभाव के बारे में कई प्रमुख बिंदुओं पर जोर दिया:
संविधान के अनुच्छेद 14 का मूल सिद्धांत यह है कि यह ऐसे कानूनों पर रोक लगाता है जो विभिन्न समूहों के साथ अनुचित व्यवहार करते हैं। लेकिन यह ऐसे कानूनों की अनुमति देता है जो लोगों या चीजों को उचित भेदभाव के आधार पर वर्गीकृत करते हैं। इस तरह के वर्गीकरण को वैध होने के लिए, इसे दो परीक्षणों को पूरा करना होगा:
- बोधगम्य विभेद (इंटेलिजबल डिफ्रेंशिआ): वर्गीकरण उन विशेषताओं या स्थितियों पर आधारित होना चाहिए जो सम्मिलित समूह को उससे बाहर रखे गए समूह से अलग करती हैं।
- तर्कसंगत संबंध (रैशनल नेक्सस): इस अंतर का कानून के उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध होना चाहिए। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सबसे पहले चिरंजीत लाल चौधरी बनाम भारत संघ (1950) के मामले में इस सिद्धांत को संबोधित किया था। बाद के निर्णयों में न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जब वर्गीकरण और उसके उद्देश्य के बीच तार्किक संबंध हो तो विभेदीकरण स्वाभाविक रूप से भेदभावपूर्ण नहीं होता।
न्यायालय ने उपरोक्त निर्णय में यह भी कहा कि समाज स्वाभाविक रूप से असमान है। इसलिए, एक कल्याणकारी राज्य को कम सुविधा प्राप्त लोगों की मदद करने के लिए कार्यकारी और विधायी दोनों तरह की कार्रवाई करनी चाहिए।
न्यायालय ने प्रेमन बनाम भारत संघ (1998) मामले में केरल उच्च न्यायालय के फैसले का भी हवाला दिया और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 के संबंध में कई बिंदुओं पर चर्चा की:
- यह गैर-ईसाइयों की तुलना में ईसाइयों के साथ भेदभाव करता है।
- यह गैर-वसीयतनामा स्वभाव की तुलना में ईसाइयों द्वारा इच्छा के माध्यम से वसीयतनामा स्वभाव के साथ भेदभाव करता है।
- यह कम वांछनीय (डिज़ाईअरबल) उद्देश्यों सहित अन्य उपयोगों की तुलना में संपत्ति के धार्मिक और धर्मार्थ उपयोग के प्रति भेदभाव करता है।
- यह उन ईसाइयों के प्रति भेदभाव करता है जिनके भतीजे, भतीजी या निकटतम रिश्तेदार जैसे रिश्तेदार हैं, उन ईसाइयों की तुलना में जिनके ऐसे रिश्तेदार नहीं हैं।
- यह उन ईसाइयों के प्रति भेदभाव करता है जो वसीयत बनाने के 12 महीने के भीतर मर जाते हैं, जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता।
केरल उच्च न्यायालय ने इन भेदभावपूर्ण पहलुओं को पाते हुए, संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), 15 (धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध), 25 (अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता) तथा 26 (धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता) के अंतर्गत धारा 118 को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
कानूनी पहलू
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 में धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए वसीयत पर प्रतिबंध बताए गए हैं। तदनुसार, इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
कोई व्यक्ति जिसका भतीजा, भतीजी या निकट संबंधी हो, अपनी वसीयत में धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति नहीं छोड़ सकता, जब तक कि:
- वसीयत मृत्यु से कम से कम 12 महीने पहले बनाई जाती है।
- वसीयत को उसके निर्माण के छह महीने के भीतर जीवित व्यक्तियों की वसीयतों को संग्रहीत (स्टोरिंग) करने के लिए कानूनी रूप से निर्दिष्ट स्थान पर जमा कर दिया जाता है।
अपवाद (एक्सेप्शन):
यह नियम पारसियों पर लागू नहीं होता।
उदाहरण:
यदि कोई व्यक्ति जिसका भतीजा है, वसीयत बनाता है (उपर्युक्त नियमों का पालन न करते हुए):
- गरीब लोगों की मदद करें
- बीमार सैनिकों की सहायता करें
- अस्पताल बनाएं या बनाए रखें
- अनाथों को शिक्षित करें
- विद्वानों की सहायता करें
- स्कूल बनाएं या बनाए रखें
- पुल बनाएं या उसकी मरम्मत करें
- सड़कें बनाएं
- चर्च बनाएं या उसकी मरम्मत करें
- धर्म के मंत्रियों की सहायता करें
- सार्वजनिक उद्यान बनाएं या उसका समर्थन करें
ये सभी वसीयतें अमान्य होंगी।
जॉन वल्लमट्टम बनाम भारत संघ (2003) में निर्णय
अपने फैसले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118, धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए वसीयतनामा निपटान (डिस्पोज़िशन) के मामलों में ईसाइयों के साथ भेदभाव करती है। न्यायालय ने आगे कहा कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 25 और 26 का उल्लंघन करती है। अनुच्छेद 14 यह सुनिश्चित करता है कि कानून के तहत सभी के साथ समान व्यवहार किया जाए। न्यायालय ने पाया कि अधिनियम की धारा 118 ने धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति छोड़ने के तरीके पर सख्त नियम लागू करके ईसाइयों के साथ अनुचित व्यवहार किया।
मृत्यु से एक साल पहले वसीयत बनाने और जमा करने जैसे नियम अन्य धार्मिक समूहों पर लागू नहीं किए गए। धर्म के आधार पर इस असमान व्यवहार के कारण न्यायालय ने अनुच्छेद 14 के तहत धारा 118 को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इस धारा ने ईसाई वसीयतकर्ताओं पर अनुचित शर्तें लगाईं। जैसे कि मृत्यु से कम से कम 12 महीने पहले वसीयत बनाने और छह महीने के भीतर जमा करने की आवश्यकता। यह भी माना गया कि चूंकि ये शर्तें अन्य धार्मिक समुदायों पर नहीं लगाई गईं, इसलिए उन्होंने ईसाइयों के खिलाफ भेदभाव पैदा किया।
भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों कानूनी मिसालों की जांच करने के बाद, तत्कालीन माननीय मुख्य न्यायाधीश वी.एन. खरे ने निर्धारित किया कि धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए वसीयत पर प्रतिबंध लगाना, जो सार्वजनिक भलाई के लिए है, अनुचित है और भेदभाव का गठन करता है। भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की मुख्य न्यायाधीश की जांच से यह निष्कर्ष निकला कि प्रतिबंध अनुचित थे, धर्मार्थ उद्देश्यों की परोपकारी प्रकृति पर जोर देते हुए। गरीबों की मदद, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और जन कल्याण जैसे धर्मार्थ उद्देश्य परोपकारी हैं और केवल धर्म से बंधे नहीं हैं। इसलिए, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 के तहत धार्मिक और धर्मार्थ दोनों उद्देश्यों के लिए वसीयत को अलग-अलग माना जाना अनुचित और संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ माना गया, जो कानून के तहत समानता की गारंटी देता है।
न्यायालय ने यह भी माना कि संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म के आधार पर भेदभाव के विरुद्ध व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है, न कि समूहों या समुदायों की समग्र रूप से रक्षा करता है। यह व्यक्तियों के लिए समानता सुनिश्चित करने पर केंद्रित है, चाहे उनका धार्मिक जुड़ाव कुछ भी हो। अंततः, मुख्य न्यायाधीश ने न्यायालय के सर्वसम्मत (यूनैनमस) निर्णय के साथ याचिका को स्वीकार कर लिया और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 को असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि यह धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए वसीयतनामा निपटान के विरुद्ध भेदभाव करके संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
परिणामस्वरूप, न्यायालय ने रिट याचिका स्वीकार कर ली। न्यायालय ने 1925 के भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 को भी असंवैधानिक घोषित कर दिया।
निष्कर्ष
इस मामले ने भारत में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। तदनुसार, यूसीसी का उद्देश्य विभिन्न धर्मों के अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों को सभी नागरिकों के लिए एक ही नियम से बदलना है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 सरकार को सभी के लिए समान व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए यूसीसी बनाने और उसे लागू करने की दिशा में काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है। हालाँकि, इस अनुच्छेद में यूसीसी का सीधे तौर पर उल्लेख नहीं किया गया है।
उदाहरण के लिए, गोवा में सभी निवासियों के लिए समान नागरिक संहिता है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, क्योंकि 1961 में अपनी स्वतंत्रता के बाद भी गोवा ने पुर्तगाली नागरिक संहिता का उपयोग जारी रखा। इसी तरह, 2024 में, उत्तराखंड स्वतंत्रता के बाद समान नागरिक संहिता लागू करने वाला भारत का पहला राज्य बन गया।
समान नागरिक संहिता लागू करके भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि सभी नागरिकों के लिए कानून निष्पक्ष और समान हों, चाहे उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो। यह मामला बताता है कि विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग कानून किस तरह भेदभाव और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का कारण बन सकते हैं।
न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 के अंतर्गत नियम, जो इस बात पर प्रतिबंध लगाते हैं कि संपत्ति को धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए कैसे छोड़ा जा सकता है, उचित नहीं थे। इस निर्णय के बाद, लोगों को अब यह तय करने की अधिक स्वतंत्रता है कि वे अपनी संपत्ति को धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए कैसे छोड़ना चाहते हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
समान नागरिक संहिता (यूसीसी) क्या है?
समान नागरिक संहिता (यूसीसी) भारत में प्रस्तावित एक कानून है जिसका उद्देश्य विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों को एक समान नियमों से बदलना है जो सभी नागरिकों पर लागू होते हैं। इसका मतलब है कि विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिए अलग-अलग कानून होने के बजाय, सभी के लिए एक समान कानून होगा।
यह निर्णय भारत में ईसाइयों के लिए क्या बदलाव लेकर आया है?
धारा 118 को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बाद, भारत में ईसाइयों को अब धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति दान करने की उनकी क्षमता पर पहले लगाए गए कड़े प्रतिबंधों का सामना नहीं करना पड़ेगा। इससे उन्हें वसीयत के मामलों में अन्य धार्मिक समुदायों के सदस्यों के समान अधिकार प्राप्त करने में मदद मिलती है।
वसीयतनामा निपटान क्या है और इसमें क्या शामिल किया जा सकता है?
वसीयतनामा निपटान से तात्पर्य किसी व्यक्ति की संपत्ति या परिसंपत्तियों (एसेट्स) के आवंटन (एलोकेशन) से है, जैसा कि उनकी वसीयत में निर्दिष्ट है, जो उनकी मृत्यु के बाद प्रभावी होता है। इसमें अचल संपत्ति (रियल एस्टेट), व्यक्तिगत सामान, वित्तीय संपत्ति, डिजिटल संपत्ति और बौद्धिक संपदा (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी) शामिल है, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित नहीं है।
संदर्भ