तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी (1999)

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यह लेख Sahil Arora द्वारा लिखा गया है। यह लेख आतंकवादी और विध्वंसकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (टाडा अधिनियम) के तहत एक महत्वपूर्ण मामले पर प्रकाश डालता है, जिसमें भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या एक मानव बम द्वारा की गई थी, जो श्रीलंका के एलटीटीई का कार्यकर्ता था। इसमें मामले के तथ्य, पक्षों द्वारा दी गई दलीलें, निर्णय और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संदर्भित मामले संबंधी कानूनों को शामिल किया गया है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी (1999), जिसे राजीव गांधी हत्याकांड मामले के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय कानूनी इतिहास में एक ऐतिहासिक फैसला है, जिसे अन्य मुद्दों के अलावा देश में आतंकवाद के पहले मामले के रूप में कुख्यात (इनफेमसली) रूप से याद किया जाता है, जिसे एक विशेष आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियाँ (रोकथाम) (टाडा) अदालत द्वारा निपटाया गया था। इस मामले में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 21 मई 1991 को श्रीपेरंबदूर में एक आत्मघाती हमलावर द्वारा हत्या कर दी गई थी और उनके साथ-साथ पास में खड़े 15 अन्य लोगों की भी जान चली गई थी। हत्या की साजिश के आरोप विभिन्न व्यक्तियों पर लगाए गए थे, लेकिन अंततः उनमें से केवल चार को ही दोषी ठहराया गया और उन्हें मृत्युदंड की सजा दी गई, जिसे बाद में तमिलनाडु सरकार ने आजीवन कारावास में बदल दिया। और हाल ही में, वर्ष 2022 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हत्या में शामिल सभी दोषियों की समयपूर्व रिहाई का आदेश दिया। 

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) 1860 के तहत षड्यंत्र के आरोपों के अलावा, इस मामले में कई अन्य कानूनी प्रावधान भी शामिल थे, जैसे दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) 1973; साक्ष्य अधिनियम, 1872; शस्त्र अधिनियम, 1959; विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, 1908; पासपोर्ट अधिनियम, 1967; विदेशी अधिनियम, 1946, वायरलेस टेलीग्राफी अधिनियम, 1933; और टाडा अधिनियम, 1987। 

मामले की पृष्ठभूमि

29 जुलाई 1987 को भारत और श्रीलंका के बीच भारत-श्रीलंका शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसे पीएम राजीव गांधी की हत्या के पीछे मुख्य कारण माना जाता है। 

1983 में श्रीलंका में श्रीलंकाई सिंहली और तमिलों के बीच गृहयुद्ध चल रहा था। उस समय श्रीलंका की लगभग 70% आबादी सिंहली थी और 23% तमिल थे। ये तमिल भी दो श्रेणियों में थे, अर्थात् श्रीलंकाई तमिल और भारतीय तमिल। दरअसल, 1948 में श्रीलंका को स्वतंत्रता मिलने से पहले, कुछ भारतीय तमिलों को ब्रिटिश लोग क्षेत्रीय कार्य के लिए श्रीलंका ले जाते थे और स्वतंत्रता मिलने के बाद, कुछ भारतीय तमिलों ने वहीं रहने का निर्णय लिया। समय के साथ, श्रीलंका में कई सरकारी पदों पर तमिलों का कब्जा हो गया और सिंहली समुदाय को यह डर था कि तमिल उन पर हावी हो जाएंगे। इसलिए तमिलों को दरकिनार करने के लिए श्रीलंका में कई सुधार लाए गए, जैसे सिंहल को श्रीलंका की आधिकारिक भाषा घोषित करना, सिंहलियों को शिक्षा में आरक्षण देना और बौद्ध धर्म को श्रीलंका का प्राथमिक धर्म घोषित करना। कुल मिलाकर तमिलों के लिए नरक जैसी स्थिति पैदा करने के प्रयास किये गये। 

इस कठोर परिस्थिति में वेलुपिल्लई प्रभाकरन नामक एक व्यक्ति सामने आया, जिसे “एलटीटीई (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम)” नामक विद्रोही समूह के गठन के पीछे का विख्यात मन (मास्टरमाइंड) माना जाता है। इस समूह का गठन मुख्यतः दो कारणों से किया गया था। पहला, सिंहली समुदाय के साथ हो रहे अनुचित व्यवहार से सुरक्षा प्राप्त करना और दूसरा, तमिल भाषी क्षेत्र के लिए श्रीलंका से अलग एक स्वतंत्र देश का निर्माण करना। 

तो, कुल मिलाकर, उस समय पूरा संघर्ष केवल एलटीटीई समूह और सिंहली समुदाय, या श्रीलंका की सेना, जो सिंहली समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है, के बीच था। 

शुरू में तो ऐसा लगा कि समस्याएं सुलझ रही हैं, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, स्थिति पहले से भी बदतर होती गई। दोनों समुदाय एक-दूसरे के लोगों पर हमला करते रहते हैं, बड़ी संख्या में आम लोगों की हत्या और उत्पीड़न करते हैं। उस समय तक युद्ध, जो उस समय केवल श्रीलंका तक ही सीमित था, भारत में भी अपना प्रभाव दिखाने लगा था। भारत में तमिल समुदाय ने श्रीलंका में मौजूद भारतीय तमिलों की सुरक्षा के लिए कुछ कदम उठाने हेतु भारत सरकार पर द

बाव डालना शुरू कर दिया। उस समय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार थी, जो श्रीलंका को आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करके इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए सहमत हुए थे। पहले तो श्रीलंका सरकार को भारत सरकार का यह व्यवहार पसंद नहीं आया, लेकिन तमिलों के खिलाफ अत्याचार रोकने की चेतावनी मिलने के बाद वे कुछ नरमी दिखाने को तैयार हो गए और श्रीलंकाई तमिलों को भारत द्वारा आवश्यक आपूर्ति भेजने को स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया। 

इसके बाद श्रीलंका सरकार इस मामले पर भारत सरकार से बातचीत करने के लिए आगे आई। राजीव गांधी ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और कोलंबो, श्रीलंका की यात्रा पर चले गये। वहां श्रीलंका के राष्ट्रपति जे.आर.जयवर्धने और भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मुलाकात हुई और उनके बीच भारत-श्रीलंका शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसमें मुख्य रूप से दो मांगें शामिल थीं। 

  • पहला यह कि श्रीलंका सरकार वहां मौजूद तमिलों को सभी बुनियादी अधिकार और सुविधाएं प्रदान करे, और
  • दूसरा यह था कि बदले में, एलटीटीई सहित सभी तमिल उग्रवादी और विद्रोही समूह अपने हथियार सौंप देंगे।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि सब कुछ सुचारू रूप से चले, प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वेलुपिल्लई प्रभाकरन से मिलने का फैसला किया ताकि वे उन्हें दोनों पक्षों के लिए शांति समझौते के महत्व को समझा सकें। उस समय, प्रभाकरन सहमत हो गए, लेकिन समझौते पर हस्ताक्षर के दिन, कोलंबो में कई दंगे हुए, जिसके कारण श्रीलंका के राष्ट्रपति जे.आर.जयवर्धने को अपनी सेना को तमिल क्षेत्रों से कोलंबो स्थानांतरित करना पड़ा। लेकिन तमिल क्षेत्र में मौजूदा स्थिति से निपटने के लिए श्रीलंका के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से भारत से सैन्य सहायता का अनुरोध किया, जिस पर उन्होंने सहमति जताई। और सिर्फ 6 घंटे में भारत से आईपीकेएफ (भारतीय शांति सेना) को श्रीलंका बुला लिया गया। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इस कदम की आलोचना की गई क्योंकि इस कदम ने भारतीय सेनाओं को श्रीलंका के भारतीय तमिलों के खिलाफ खड़ा कर दिया। 

स्थिति को नियंत्रित करने के लिए आईपीकेएफ को बुलाए जाने के बाद, शुरू में एलटीटीई सदस्यों ने अपने हथियार आत्मसमर्पण करना शुरू कर दिया, लेकिन कुछ समय बाद, युद्ध जैसी स्थिति फिर से उत्पन्न हो गई, इस बार एलटीटीई सदस्यों और भारतीय सेना के बीच स्थिति उत्पन्न हो गई। 

एक तरफ भारतीय सेनाओं और एलटीटीई के बीच झड़पें चल रही थीं और दूसरी तरफ 1989 में श्रीलंका के नए राष्ट्रपति नियुक्त हुए, जिनका नाम रणसिंघे प्रेमदासा था और प्रेमदासा ने एलटीटीई से हाथ मिला लिया। लेकिन एलटीटीई ने एक शर्त रखी कि आईपीकेएफ को भारत वापस भेज दिया जाए और प्रेमदासा ने यही आदेश दिया। 

भारत में भी 1989 में चुनाव हुए और राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा तथा वी.पी.सिंह को भारत का नया प्रधानमंत्री चुना गया। और वे आईपीकेएफ को श्रीलंका से वापस भारत बुलाने पर भी सहमत हो गये। 

समय बीतता गया और 1991 में वी.पी.सिंह सरकार के अविश्वास प्रस्ताव हारने के बाद पुनः चुनाव कराने का प्रस्ताव रखा गया। चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी ने एक बार कहा था कि यदि उनका पक्ष सत्ता में आई तो वे आईपीकेएफ को श्रीलंका वापस भेज देंगे। यह खबर प्रभाकरण को पता चली और उसने चुनाव जीतने से पहले राजीव गांधी की हत्या करने और आईपीकेएफ को श्रीलंका वापस भेजने का फैसला किया। इसके बाद प्रभाकरण और एलटीटीई की खुफिया समूह ने राजीव गांधी की हत्या की योजना बनाई और 21 मई 1991 को उनकी योजना को सफलतापूर्वक अंजाम दिया गया। 

तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी (1999) के तथ्य

  1. आईकेपीएफ द्वारा भारतीय सरकार के हस्तक्षेप को रोकने के लिए, एलटीटीई आतंकवादी समूह ने राजीव गांधी की हत्या करने का फैसला किया ताकि वह भारत में अगला चुनाव न जीत सकें और श्रीलंका में सेना वापस न भेज सकें।
  2. इस मिशन में शामिल प्रमुख सदस्य शिवरासन, सुभा, नलिनी (A-1), मुरुगन (A-3) और धनु (डीए) थे। कुछ लोगों ने उनके मिशन से पहले और बाद में भी कई चरणों में उनका समर्थन किया। सदस्यों को विस्फोटकों के प्रयोग के संबंध में प्रशिक्षण दिया गया। धनु (डीए) नामक एक श्रीलंकाई लड़की, जो एलटीटीई की सदस्य थी, को मानव बम के रूप में चुना गया था, तथा अन्य लोगों को उसके कार्य के दौरान उसकी सहायता करने के लिए कई कार्य दिए गए थे। 
  3. नलिनी (A-1) एक साधारण भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की थी जो एक निजी फर्म में काम करती थी। वह एलटीटीई और हत्या की साजिश में शामिल हो गई क्योंकि वह मुरुगन (ए-3) (एक एलटीटीई कार्यकर्ता) के प्रति आकर्षित हो गई थी और वास्तव में, उससे शादी करना चाहती थी। इस प्रकार, वह आवश्यक रसद उपलब्ध कराकर मिशन में एलटीटीई सदस्यों की मदद करती रहीं।
  4. षड्यंत्रकारी झूठी पहचान और जाली दस्तावेजों का उपयोग करके भारत पहुंचे। फिर वे सभी हत्या के कार्य की तैयारी के लिए अलग-अलग स्थानों पर फैल गए। 
  5. संथान (A-2), मुरुगन (A-3),शंकर (A-4), विजयनंदन (A-5), रुबन (A-6), कनागासबपति (A-7), अथिराई (A-8), रॉबर्ट पायस (A-9), जयकुमार (A-10), शांति (A-11), विजयन (A-12), सेल्वालुक्ष्मी (A-13), भास्करन (A-14), रंगम (A-24), और विक्की (A-25), मृतक अभियुक्त शिवरासन, धनु (डीए), सुभा, नीरो, गुंडू (त्रिची) संथान (A-2), सुरेश मास्टर, डिक्सन, अम्मान, ड्राइवर अन्ना, और जमुना ने आपराधिक षड्यंत्र की निर्दिष्ट अवधि के दौरान अलग-अलग समय पर गुप्त रूप से श्रीलंका से और अन्य तरीकों से भारत में प्रवेश किया। 
  6. वे कई चुनावी रैलियों में जाकर राजनेताओं के लिए किए गए इंतजामों को देखने गए, ताकि उन्हें अंदाजा लग सके कि राजीव गांधी के आसपास कितनी सुरक्षा होगी और वे किस तरह से उन तक पहुंच सकते हैं।
  7. शिवरासन ने अपने समूह के साथ मिलकर राजीव गांधी की हत्या के लिए विस्फोटक उपकरण तैयार किया था।
  8. शिवरासन (डीए) ने मृतक अभियुक्त धनु (डीए), सुभा, नीरो और ड्राइवर अन्ना के साथ संथन (A-2), शंकर (A-4), विजयनंदन (A-5) और रुबन (A-6) को कोडिक्करै लाया और आपराधिक साजिश के उद्देश्य को अंजाम देने में मदद करने के लिए तमिलनाडु में विभिन्न स्थानों पर अन्य अभियुक्तों के लिए आवास की व्यवस्था की।
  9. षड्यंत्रकारी अपनी तैयारियों के दौरान निर्देश और अद्यतन जानकारी प्राप्त करने के लिए वायरलेस संचार के माध्यम से श्रीलंका में मौजूद लिट्टे नेताओं के संपर्क में रहे। श्रीपेरम्बदूर चुनावी रैली में राजीव गांधी की हत्या की योजना को अंतिम रूप दिया गया। 
  10. अरिवु (A-18) ने इरुम्बोराई (A-19) के साथ जून 1990 में गुप्त रूप से जाफना और श्रीलंका के अन्य स्थानों का दौरा किया और 4.5.1991 को मद्रास में एक कावासाकी मोटरसाइकिल खरीदी, ताकि वह और उसके एक-दूसरे सह-षड्यंत्रकारी तेजी से पूरे श्रीलंका में आवागमन कर सकें। उन्होंने “द सैटेनिक फोर्स” नामक संकलन के मुद्रण और प्रकाशन के लिए धन की व्यवस्था की और इसकी एक प्रति शिवरासन (डीए) के माध्यम से प्रभाकरण (फरार) को भेजी। मुरुगन (A-3) के माध्यम से एक अन्य समूह ने वायरलेस उपकरण को चलाने के लिए एक बैटरी खरीदी तथा बेल्ट बम को विस्फोट करने के लिए दो अन्य बैटरी सेल खरीदे, जिनका उपयोग धनु (डीए) द्वारा राजीव गांधी की हत्या के लिए किया जाना था।
  11. अरिवु (A-18) ने हरिबाबू (डीए) को घटनाओं की तस्वीरें लेने के लिए फिल्म रोल दिया, जिन्होंने पूम्पुहार हस्तशिल्प, माउंट रोड मद्रास से चंदन की एक माला भी खरीदी, जिसका उपयोग धनु (डीए) ने राजीव गांधी को माल्यार्पण और माल्यार्पण की आड़ में धोखा देने और वीवीआईपी हिस्से में प्रवेश पाने के लिए किया;
  12. 21 मई 1991 को राजीव गांधी एक चुनावी रैली को संबोधित करने के लिए श्रीपेरंबदूर पहुंचे और योजना के अनुसार धनु (डीए), नलिनी (A-1), हरिबाबू (डीए), शिवरासन, सुभा और मुरुगन (A-3) ने अपने पद संभाल लिए।
  13. जिस मैदान में राजीव गांधी रैली को संबोधित करने वाले थे उसे दो हिस्सों में बांटा गया था और एक तरफ एक विशेष क्षेत्र बनाया गया था जहां कुछ लोगों को राजीव गांधी से करीब से मिलने की इजाजत थी। मानव बम धनु (डीए) ने भीड़ का फायदा उठाया और उन प्रतिभागियों के साथ घुलमिल गया जो राजीव गांधी से मिलने के लिए विशेष क्षेत्र में खड़े थे। धनु (डीए) ने ऐसे कपड़े पहने थे कि वह बेल्ट बम और उसके डेटोनेटर को अपने कपड़ों के नीचे छिपा सकती थी ताकि जब राजीव गांधी उसके पास पहुंचें तो उसे सक्रिय कर सके। 
  14. कुछ ही मिनटों के बाद राजीव गांधी रैली स्थल पर पहुंचे और वहां मौजूद लोगों से मिलने लगे। जब वह धनु (डीए) के पास पहुंचे, तो उसने पहले उन्हें माला पहनाई और फिर राजीव गांधी के पैर छूने के बहाने झुकी और अपने शरीर पर बंधे बम को विस्फोट कर दिया। 
  15. तत्काल ही बम विस्फोट हो गया, जिसके परिणामस्वरूप राजीव गांधी के साथ-साथ पास में खड़े 15 अन्य लोग भी मारे गये। इस विस्फोट में धनु (डी.ए.) और हरिबाबू (डी.ए.) (घटना की तस्वीरें लेने वाले फोटोग्राफर) की भी मौके पर ही मौत हो गई। वहीं कई अन्य घायल हो गए। 
  16. विस्फोट के बाद, नलिनी (A-1) मृतक अभियुक्त  शिवरासन और सुभा के साथ घटनास्थल से भाग गई और जयकुमार (A-10) और शांति (A-11) के आवास पर पहुंची और जयकुमार (A-10) के आवास में शरण ली। 
  17. विस्फोट के तुरंत बाद आपातकालीन सेवाएं सहायता प्रदान करने के लिए घटनास्थल पर पहुंच गईं तथा स्थानीय पुलिस और एजेंसियों ने मामले की जांच शुरू कर दी। घटना की गंभीरता और इसके राष्ट्रीय महत्व को देखते हुए मामले की जांच सीबीआई (केन्द्रीय जांच ब्यूरो) और एसआईटी (विशेष जांच दल) ने अपने हाथ में ले ली। 
  18. जांच के दौरान कई साक्ष्य एकत्र किए गए, जिनमें फोरेंसिक रिपोर्ट, विस्फोट में बचे हरिबाबू (डीए) के कैमरे से ली गई तस्वीरें, संचार रिकॉर्ड और गवाहों की गवाही शामिल हैं। इस साक्ष्य के आधार पर नलिनी (A-1), मुरुगन (A-3) व अन्य सहित कई लोगों को गिरफ्तार किया गया।
  19. सीबीआई ने भारतीय दंड संहिता, टाडा, वायरलेस संचार अधिनियम, विस्फोटक पदार्थ अधिनियम और अन्य सहित विभिन्न कानूनों के तहत 26 व्यक्तियों के खिलाफ आरोप दायर किए।

उठाए गए मुद्दे 

  1. क्या अभियुक्त नलिनी (A-1) हत्या के लिए उत्तरदायी है, भले ही उसने हत्या का अपराध नहीं किया हो?
  2. क्या अभियुक्त नलिनी (A-1) और अन्य को टाडा अधिनियम के प्रावधानों के तहत उत्तरदायी ठहराया जाएगा?
  3. क्या एक अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति दूसरे सह-अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है? 
  4. क्या इस कृत्य के लिए अभियुक्त को दी गई मृत्युदंड की सजा उचित थी? 

पक्षों के तर्क

अभियोजन पक्ष की दलीलें

  1. अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि नलिनी (A-1) षड्यंत्र की शुरुआत में एलटीटीई समूह की सदस्य नहीं थी, लेकिन फिर भी उसने समूह के मौजूदा सदस्यों को रसद और रहने की जगह उपलब्ध कराकर उनकी मदद की थी। नलिनी (A-1) की वजह से ही अन्य षड्यंत्रकारी उन स्थानों के बारे में जानकारी जुटाने में सक्षम हुए। इसके अलावा, नलिनी (A-1) भी धनु (डीए) का समर्थन करने के लिए हत्या स्थल पर मौजूद थी। इससे पूरे षडयंत्र में उसकी सक्रिय भागीदारी का पता चलता है, और इस प्रकार, भारतीय दंड संहिता की धारा 120-B के अनुसार, अपराध करने की साजिश का हिस्सा होने के कारण वह अन्य अभियुक्त व्यक्तियों के समान ही अपराध के लिए उत्तरदायी है। 
  2. इस बात पर जोर दिया गया कि यह हत्या पूरी तरह से आतंकवादी कृत्य थी। इस हत्या के माध्यम से एलटीटीई ने न केवल देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेता की हत्या की है, बल्कि इस कृत्य से लोगों के मन में भय पैदा हुआ है, सार्वजनिक व्यवस्था बाधित हुई है तथा देश के चुनावों में देरी हुई है। इससे स्पष्ट है कि हत्या के पीछे उनका उद्देश्य कानून द्वारा स्थापित सरकार को उखाड़ फेंकना था और यह सब विस्फोटक पदार्थों की सहायता से किया गया था। इन सभी घटनाओं को मिलाकर यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि अभियुक्त व्यक्तियों पर टाडा अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत आरोप लगाए जाने चाहिए। 

इसके अलावा, क्योंकि नलिनी (A-1) ने जानबूझकर इस हत्या को अंजाम देने में मदद की थी, जो एक विघटनकारी गतिविधि है, यह तर्क दिया गया कि उसे टाडा अधिनियम के प्रावधानों के तहत भी दंडित किया जाना चाहिए। 

3. टाडा अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस अधीक्षक के पद से नीचे के पद के पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई संस्वीकृति उस व्यक्ति के लिए साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है और इसका इस्तेमाल उसी मामले में आरोपित और विचाराधीन किसी भी सह-अभियुक्त के खिलाफ भी किया जा सकता है। जांच के बाद, सीबीआई ने विभिन्न संस्वीकृति दर्ज की, और उनमें से कई एक दूसरे से मेल खाते थे, जैसे मुरुगन (A-3) की संस्वीकृति, जो उसके सह-अभियुक्त नलिनी (A-1), संथन (A-2), अरिवु, भाग्यनाथन और पद्मा की संस्वीकृति से मेल खाती है। अतः अपेक्षित प्रावधान की सभी आवश्यक शर्तें पूरी हो जाती हैं, और इस प्रकार अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति का इस्तेमाल सह-अभियुक्त के विरुद्ध भी किया जा सकता है।

4. अभियोजन पक्ष ने हत्या में शामिल सभी अभियुक्तों के लिए मृत्युदंड की मांग की, क्योंकि उनका कृत्य अत्यंत जघन्य तथा पूरे राष्ट्र के लिए अत्यंत विघटनकारी था। उन सभी का अपराध करने का एक ही इरादा है, इसलिए सभी को समान रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। यह मामला भी दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में आता है, क्योंकि साजिश का उद्देश्य राजीव गांधी की हत्या और कई अन्य लोगों की हत्या के साथ पूरा नहीं हुआ था, बल्कि यह इस घटना के बाद भी जारी रहा। एलटीटीई ने देश भर में विभिन्न स्थानों और व्यक्तियों को निशाना बनाने की योजना बनाई थी। 

बचाव पक्ष की दलीलें

  1. बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि नलिनी (A-1) को अंतिम योजना और उसके घातक परिणामों की पूरी जानकारी नहीं थी। वह केवल परिधीय गतिविधियाँ ही कर रही थी, और वह भी मुरुगन (A-3) के अनुरोध पर, क्योंकि वह उसे पसंद करती थी। इस प्रकार, नलिनी (A-1) में मेन्स रीआ का अभाव था, जो किसी भी व्यक्ति को अपराध का दोषी ठहराने के लिए आवश्यक है। इसके अलावा, घटनास्थल पर मौजूद होना उसकी हत्या में प्रत्यक्ष संलिप्तता (इन्वॉल्वमेंट) नहीं है। 

इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि षड्यंत्र का उद्देश्य पूरा होने के बाद षड्यंत्र में शामिल हुए कुछ लोगों पर एक साथ मुकदमा चलाया गया, जिसके परिणामस्वरूप जांच में भारी पूर्वाग्रह पैदा हुआ। 

2. बचाव पक्ष ने टाडा अधिनियम के प्रावधानों की प्रयोज्यता को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य यह नहीं दर्शाते कि टाडा की धारा 3 या धारा 4 के तहत कोई अपराध किया गया है। न तो राजीव गांधी की हत्या को टाडा अधिनियम की धारा 3 के तहत आतंकवादी कृत्य माना जा सकता है, न ही इसी अधिनियम की धारा 4 के तहत कोई अन्य विघटनकारी गतिविधि मानी जा सकती है। यह दावा किया गया कि यह घटना राजनीति से प्रेरित थी, तथा इसका उद्देश्य जनता को आतंकित करना या देश में अस्थिरता पैदा करना नहीं था। 

3. बचाव पक्ष ने आगे दलील दी कि चूंकि टाडा अधिनियम की धारा 3 और 4 लागू नहीं होतीं, इसलिए टाडा अधिनियम की धारा 15 के तहत विचार किए गए सभी संस्वीकृतियों को भी वैध नहीं माना जाना चाहिए। इसके अलावा, नलिनी (A-1) के संस्वीकृति पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि बाद में उसने भी अपनी टिप्पणी पलटते हुए कहा कि यह दबाव में किया गया था। बचाव पक्ष ने कुछ न्यायिक उदाहरणों का भी हवाला दिया जिनमें अदालतों ने ऐसे संस्वीकृतियों की स्वीकार्यता के खिलाफ फैसला सुनाया है। 

4. यह तर्क दिया गया कि अभियोजन पक्ष ने गलत तरीके से कहा कि साजिश 1987 से 1992 की अवधि की थी, क्योंकि वास्तव में, हत्या के दिन से पहले भी ऐसे कोई संकेत नहीं मिले थे, और इस प्रकार, यह मामला दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में नहीं आता है। यह दलील दी गई कि अपराध को कम करने वाली परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए, और इसके अलावा, नलिनी (A-1) और अन्य ने पूरे मामले में पुनर्वास की संभावना दिखाई है, इसलिए मृत्युदंड अत्यधिक होगा। यह दलील दी गई है कि अपराध को कम करने वाली परिस्थितियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, और इसके अलावा, नलिनी (A-1) और अन्य ने पूरे मामले में पुनर्वास की संभावना दिखाई है, इसलिए मृत्युदंड अत्यधिक होगा। टाडा अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, आपराधिक कृत्य अपेक्षित इरादे या उद्देश्य से किया जाना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से अभियोजन पक्ष इसे साबित करने में विफल रहता है। इस प्रकार, टाडा के प्रावधानों को किस तरह लागू किया जाए, इस बारे में इरादे की कमी है। 

तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी (1999) में शामिल कानूनी पहलू

टाडा: आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियाँ) अधिनियम, 1987

टाडा (आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियाँ) अधिनियम वह मुख्य अधिनियम है जिसके इर्द-गिर्द यह पूरा मामला घूमता है। मामला चलते रहने के दौरान, कई अनियमितताओं के कारण यह अधिनियम समाप्त हो गया। इसे वर्ष 1985 में लाया गया था और मात्र एक दशक बाद, वर्ष 1995 में यह समाप्त हो गया। यह अधिनियम आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियों को रोकने और उनसे निपटने के लिए विशेष प्रावधान लाने के लिए पेश किया गया था। जब से यह अधिनियम लाया गया था, तब से इसकी कई कारणों से आलोचना हो रही थी, उदाहरण के लिए, यह कहा गया था कि इस अधिनियम के प्रावधान इतने कठोर हैं कि वे सीआरपीसी और भारतीय संविधान के कुछ प्रावधानों को दरकिनार कर रहे हैं। इस अधिनियम के तहत कई नए आपराधिक अपराध जोड़े गए, जो बहुत ही खुले थे, पुलिस अधिकारियों को अधिक शक्तियां दी गईं जिनका दुरुपयोग किया जा रहा था, तथा गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार और उनकी सुरक्षा कम कर दी गई थी। संस्वीकृति के प्रावधान की भी आलोचना की गई क्योंकि पुलिस ने यातना के माध्यम से संस्वीकृति प्राप्त कर ली थी, जिसे काफी हद तक प्रासंगिक माना जाता था, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि वह स्वैच्छिक नहीं थी। केवल एक दशक में, इस टाडा अधिनियम के तहत 75,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया, और उनमें से 95% मामलों में व्यक्ति को रिहा कर दिया गया, तथा इस अधिनियम के तहत केवल 2% मामलों में दोषसिद्धि हुई। 

  • धारा 3: टाडा अधिनियम की धारा 3 में सरकार को डराने या लोगों को आतंकित करने के उद्देश्य से किए गए आतंकवादी कृत्यों के लिए दंड का प्रावधान है। इस धारा में मृत्युदंड और आजीवन कारावास जैसी कठोर सजाओं के साथ-साथ जुर्माने का भी प्रावधान है। इस धारा के तहत सजा में ऐसे कार्य शामिल होने चाहिए जिनमें बम, आग्नेयास्त्र या कोई अन्य खतरनाक पदार्थ शामिल हो, जिससे मृत्यु, चोट या संपत्ति को नुकसान हो सकता है और इस मामले में, जांच के माध्यम से, यह पाया गया कि अभियुक्त ही वे लोग थे जिन्होंने साजिश रची और अपने समूह के साथ विस्फोटक तैयार किए। 
  • टाडा अधिनियम की धारा 4 में विघटनकारी गतिविधियों में शामिल किसी भी व्यक्ति के लिए दंड का प्रावधान है। विघटनकारी गतिविधियों में वे कार्य शामिल हैं जो भारत की संप्रभुता और इसकी क्षेत्रीय अखंडता को बाधित करते हैं या भारत के किसी भी हिस्से के अलगाव या उत्तराधिकार का समर्थन करते हैं। यह धारा किसी भी ऐसे व्यक्ति को भी दंडित करती है जो किसी व्यवधान उत्पन्न करने वाले को शरण देता है, छुपाता है या ऐसा कोई प्रयास करता है। इस प्रावधान के तहत अधिकतम कारावास आजीवन कारावास है, तथा न्यूनतम सजा पांच वर्ष कारावास है। इस मामले के तहत आरोप लगाया गया था कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या से देश में विघटनकारी माहौल पैदा हुआ और राष्ट्र की संप्रभुता को नुकसान पहुंचा। इसके अलावा, टाडा अदालत ने धारा 4 के तहत संस्वीकृति को वैध साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया, जिसने अभियुक्तों की सजा को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। 

  • टाडा अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति बिना अनुमति के शस्त्र नियम, 1962 में उल्लिखित कोई हथियार या गोलाबारूद, या बम या कोई अन्य विस्फोटक पदार्थ अपने पास रखता है, तो उसे अधिकतम आजीवन कारावास और न्यूनतम पांच वर्ष के कारावास की सजा दी जाएगी। आत्मघाती हमलावर धनु ने राजीव गांधी की हत्या को अंजाम देने के लिए विस्फोटक उपकरण का इस्तेमाल किया था। इसके अलावा, जांच में विस्फोटक, डेटोनेटर और हथियारों सहित कई प्रकार की वस्तुएं सामने आईं, जो अभियुक्तों से जुड़ी थीं। 
  • टाडा अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया कोई भी संस्वीकृति, जो पुलिस अधीक्षक के पद से नीचे का न हो और जिसे लिखित रूप में या किसी यांत्रिक उपकरण पर दर्ज किया गया हो, बाद में इस अधिनियम या संबंधित नियमों के तहत किसी भी अपराध के लिए अदालत में उस व्यक्ति के खिलाफ सबूत के रूप में माना जा सकता है। इस धारा से जुड़ी एक शर्त यह है कि संस्वीकृति दर्ज करने से पहले, संस्वीकृति करने वाले व्यक्ति को पहले ही सूचित कर दिया जाएगा कि वह संस्वीकृति देने के लिए किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं है। पुलिस अधिकारी भी उस व्यक्ति से आवश्यक प्रश्न पूछने के बाद, जब वह पूरी तरह से संतुष्ट हो जाए कि संस्वीकृति करने वाला व्यक्ति स्वेच्छा से ऐसा कर रहा है, तब बयान दर्ज करेगा। सामान्य परिस्थितियों में, पुलिस अधिकारी के समक्ष दी गई संस्वीकृति को साक्ष्य नहीं माना जाएगा, लेकिन टाडा के प्रावधान इस सामान्य सिद्धांत को दरकिनार कर देते हैं और नियम बनाते हैं कि जांच के दौरान अभियुक्त नलिनी, मुरुगन और अन्य की संस्वीकृति भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत स्वीकार्य हैं। 

टाडा, 1987 के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें। 

आईपीसी: भारतीय दंड संहिता, 1860

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 120-A आपराधिक षड्यंत्र शब्द को परिभाषित करती है। इस परिभाषा के अनुसार, दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच किसी अवैध कार्य को करने, या अवैध तरीकों से किसी वैध कार्य को प्राप्त करने के लिए किया गया समझौता इस अपराध के अंतर्गत दोषी ठहराया जा सकता है। समझौते के साथ अपराध को आपराधिक षड्यंत्र के रूप में परिभाषित करने के लिए एक अधिनियम भी संलग्न किया जाएगा। इसके अंतर्गत अवैध कार्य या तो समझौते का मुख्य उद्देश्य हो सकता है, या समग्र उद्देश्य का एक हिस्सा मात्र हो सकता है। अभियोजन पक्ष ने अभियुक्तों के बीच बैठकों, योजना सत्रों और संचार तथा लिट्टे के साथ उनके संबंधों के साक्ष्य प्रस्तुत किए, जिसके माध्यम से उन्होंने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि राहुल गांधी की हत्या के लिए समझौता किया गया था, और बाद में, न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषी ठहराने के लिए धारा 120-A और धारा 120-B भी लागू की। 
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 120-B आपराधिक षड्यंत्र के अपराध के लिए दंड का प्रावधान करती है। इस प्रावधान के अनुसार, जहां किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऐसे अपराध के लिए आपराधिक षड्यंत्र रचा जाता है, जो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या दो वर्ष या उससे अधिक के सश्रम कारावास से दंडनीय है, तो उन व्यक्तियों को उसी प्रकार दंडित किया जाएगा, जैसे कि उन्होंने उस अपराध को बढ़ावा दिया हो। इसके अलावा, आपराधिक षडयंत्र में भाग लेने वाले व्यक्तियों को, परंतु पूर्वोक्त दंडनीय अपराध करने की साजिश को छोड़कर, छह महीने तक के कारावास या जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकता है। 

आईपीसी के तहत षड्यंत्र के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें। 

परीक्षण प्रक्रिया

  1. अगले ही दिन, 22 मई 1991 को प्रातः 1:15 बजे, भारतीय दंड संहिता की धारा 307, 302 और 326 तथा भारतीय विस्फोटक अधिनियम, 1872 की धारा 3, 4 और 5 के अंतर्गत एफ.आई.आर. दर्ज की गई। हालाँकि, इस मामले की सुनवाई 1994 में शुरू हुई और कई वर्षों तक विभिन्न अदालतों में चली। 
  2. जांच के दौरान कई अभियुक्तों को गिरफ्तार किया गया और टाडा अधिनियम की धारा 15 के तहत कुछ संस्वीकृति भी ली गई। सबूत के तौर पर घटनास्थल से हरिबाबू (डीए) का कैमरा बरामद किया गया, जिसमें विस्फोट से पहले की कई तस्वीरें हैं और उनमें से कुछ में घटनास्थल पर अभियुक्त शिवरासन, धनु (डीए), सुभा और नलिनी (A-1) की मौजूदगी भी है। 
  3. भाग्यनाथन (A-20) के संस्वीकृति से पता चला कि शिवरासन घटनास्थल पर सभी अभियुक्तों का मार्गदर्शन कर रहा था। उन्होंने ही धनु (डी.ए.) को अपने साथ लिया और वहां उपस्थित महिला कांस्टेबल को 500 रुपये देकर वे आगे की पंक्ति में चले गए जहां राजीव गांधी आकर कुछ आम लोगों से मिलेंगे। विस्फोट के बाद भागने की योजना उसी ने तैयार की थी। इसके अलावा, यह शिवरासन ही था जिसने अरिवु (A-18) से बम तैयार करने के लिए बैटरी, क्लिप, तार और अन्य सामग्री लाने के साथ-साथ श्रीलंका में एलटीटीई  मुख्यालय से संपर्क करने के लिए एक वायरलेस सेट भी लाने को कहा था। 
  4. षड्यंत्र में अभियुक्तों की संलिप्तता स्थापित करने के लिए फर्जी पहचान दस्तावेज, वायरलेस संचार उपकरण और नोट्स जैसे अन्य साक्ष्य प्रदर्शित किए गए। शिवरासन और पोट्टू अम्मन द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले वायरलेस स्टेशन भी पाए गए, जिनके माध्यम से वे एक-दूसरे से संवाद करते थे। 
  5. सीबीआई ने उपर्युक्त अधिनियमों के तहत 26 अभियुक्तों के खिलाफ नामित टाडा अदालत में आरोप पत्र दायर किया। यह मुकदमा टाडा के तहत नामित विशेष अदालत में शुरू किया गया, जो आतंकवाद और विध्वंसकारी गतिविधियों से संबंधित मामलों को संभालती है। अभियोजन पक्ष ने 17 अभियुक्तों की संस्वीकृति और कई साक्ष्य पेश किये। लगभग 288 गवाहों और 1449 दस्तावेजों की जांच की गई और उन्हें अदालत के समक्ष रखा गया। 
  6. कुल मिलाकर, नामित अदालत द्वारा 251 आरोप तय किए गए, जिनमें से आरोप संख्या 1 सभी अभियुक्तों के लिए समान था, और शेष 250 आरोप विभिन्न अभियुक्तों के लिए अलग-अलग शीर्षकों के अंतर्गत अलग-अलग लगाए गए थे। इन शुल्कों को तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- 
  1. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के साथ धारा 120-B के अंतर्गत;
  2.  टाडा अधिनियम की धारा 3, 4 और 15 के अंतर्गत; तथा
  3. (i) भारतीय दंड संहिता के कई प्रावधानों के तहत 

            (ii) विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, 1908 की धारा 3, 4 और 5 के अंतर्गत 

            (iii) शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 25

            (iv) पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 12

            (v) विदेशी अधिनियम, 1946 की धारा 14 

            (vi) वायरलेस टेलीग्राफी अधिनियम, 1933 की धारा 6 (1A)

  1. दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 313 के तहत अभियुक्तों के बयान दर्ज किए गए। 
  2. इन सभी प्रक्रियात्मक नियमों के कारण मुकदमे की प्रक्रिया में काफी देरी हुई। ऐसा मुख्य रूप से अप्रासंगिक साक्ष्यों को स्वीकार कर लेने के कारण हुआ, जिसके कारण कानूनी प्रक्रिया लंबी खिंच गई, जो अन्यथा अधिक कुशल और केंद्रित हो सकती थी। इस विलंब के लिए कई कारक जिम्मेदार थे जिनकी नीचे विस्तार से चर्चा की गई है। 
  3. पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारक मामले की जटिलता है। इस मामले में कई अभियुक्त और प्रतिवादी थे तथा कई आरोप थे जिसके कारण कार्यवाही लंबी चली। हमारी न्याय प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक व्यक्ति को उचित अवसर दिया जाए और सभी कानूनी आवश्यकताएं पूरी की जाएं, जिसमें कार्यक्रमों का समन्वय और साक्ष्य की मात्रा का प्रबंधन शामिल है, और इसके परिणामस्वरूप अनजाने में देरी होती है। 
  4. दूसरे, इस मामले में, ऐसे कई साक्ष्य अभियुक्तों के विरुद्ध प्रस्तुत किये गये जो सीधे तौर पर मामले से संबंधित नहीं थे, जिससे कार्यवाही और जटिल हो गयी। इससे कार्यवाही और भी जटिल हो गई। चूंकि यह सब न्यायाधीशों को भ्रमित करता है, इसलिए इससे फैसला सुनाने का काम मुश्किल हो जाता है। 
  5. इन विशिष्ट मुद्दों के अतिरिक्त, मुकदमे में देरी के लिए कुछ सामान्य कारक भी जिम्मेदार थे, जैसे कि अदालती कार्य-सूची में अत्यधिक भीड़, न्यायाधीशों की कमी और प्रशासनिक अक्षमताएं। 

तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी (1999) में निर्णय

  1. हत्या और विस्फोट की इस घटना के बाद 23 जून 1991 को तमिलनाडु राज्य को टाडा के अंतर्गत अधिसूचित किया गया तथा 14 मई 1992 को टाडा अधिनियम, 1957 के प्रावधानों के अंतर्गत एलटीटीई को गैरकानूनी संगठन घोषित कर दिया गया। 
  2. सभी साक्ष्यों की जांच और प्रस्तुत सभी सामग्रियों पर विचार करने के बाद, नामित अदालत ने सभी 26 आरोपियों को उनके विरुद्ध लगाए गए सभी आरोपों में दोषी पाया। 
  3. न्यायालय ने निर्णय सुनाते समय विशेष रूप से इस तथ्य को संज्ञान में लिया कि राजीव गांधी के साथ 15 अन्य आम लोगों की भी जान गयी, जिनमें से कई ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी थे: (i) पी.के.  गुप्ता, राजीव गांधी के निजी सुरक्षा अधिकारी, (ii) लता कन्नन, (iii) कोकिलावाणी, (iv) इकबाल, पुलिस अधीक्षक, (v) राजगुरु, पुलिस निरीक्षक, (vi) एडवर्ड जोसेफ, पुलिस निरीक्षक, (vii) इथिराज, पुलिस उपनिरीक्षक, (viii) सुंदरराजू पिल्लई, पुलिस कांस्टेबल, (ix) रवि, कमांडो पुलिस कांस्टेबल, (x) धर्मन, पुलिस कांस्टेबल, (xi) चंद्रा, महिला पुलिस कांस्टेबल, (xii) संथानी बेगम, ( xiii) डैरिल पीटर, (xiv) कुमारी सरोजा देवी और (xv) मुनुस्वामी। उनके अलावा, उस घटना में कई अन्य लोगों को गंभीर और साधारण चोटें आईं। 
  4. प्रारंभिक चरण में, टाडा अधिनियम के तहत गठित निर्दिष्ट अदालत ने सभी 26 अभियुक्तों को हत्या, षड्यंत्र और आतंकवाद सहित विभिन्न अपराधों में दोषी पाया। अदालत ने सभी अभियुक्तों को मौत की सजा सुनाई। 
  5. मृत्युदंडों की पुष्टि के लिए मामला मद्रास उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया, जहां विभिन्न अभियुक्तों के लिए अलग-अलग दंड निर्धारित किए गए। कुछ को सिर्फ़ अलग-अलग राशि के जुर्माने की सज़ा सुनाई गई, कुछ को अलग-अलग अवधि के लिए सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई और कुछ को विचारण न्यायालय द्वारा दी गई मौत की सज़ा की पुष्टि की गई, लेकिन सिर्फ़ चार अभियुक्तों के लिए, जिनके नाम नलिनी (A-1), संथन (A-2), मुरुगन (A-3) और अरिवु (A-18) हैं। बाकी अभियुक्तों के लिए, अपराध में उनकी संलिप्तता के आधार पर उनकी सज़ा को अलग-अलग वर्षों के कारावास में बदल दिया गया। 
  6. न्यायालय ने कहा कि उन्हें टाडा अधिनियम की धारा 3 या 4 के तहत कोई अपराध लाने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं मिला। उनके अनुसार, टाडा की धारा 3 और 4 के तहत न तो कोई आतंकवादी कृत्य हुआ है और न ही कोई अन्य विघटनकारी गतिविधि हुई है। इस प्रकार, इस अधिनियम के तहत सभी अभियुक्तों के विरुद्ध आरोप विफल हो जाते हैं। 
  7. अदालत ने घटना के चार मुख्य अभियुक्तों नलिनी (A-1), संथन (A-2), मुरुगन (A-3) और अरिवु (A-18) को भारतीय दंड संहिता की धारा 109, 120-B, 302, 324, 326 और धारा 34 सहित कानून के विभिन्न प्रावधानों के तहत उनके गंभीर कृत्यों के लिए मौत की सजा सुनाई।
  8. चार अन्य अभियुक्तों, धनसेकरन (A-23), एन. राजसूर्या (A-24), विक्की (A-25) और रंगनाथ (A-26) को भारतीय दंड संहिता की धारा 212 के तहत अपराधों के लिए दो साल की कठोर कारावास की सजा दी गई। रंगनाथ (A-26) को भी भारतीय दंड संहिता की धारा 216 के तहत दो वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। 
  9. रंगम (A-24) और विक्की (A-25) बिना किसी वैध यात्रा दस्तावेज के अवैध माध्यम से भारत में प्रवेश कर गए और वे अनधिकृत रूप से भारत में रुके भी। इसलिए, विदेशी नागरिक होने के नाते, उन्हें भी विदेशी अधिनियम की धारा 14 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है और सजा सुनाई गई है। इन आरोपों के तहत दी गई सजा को चुनौती नहीं दी गई। 
  10. कुछ अभियुक्तों, अर्थात् शांति (A-11), सेल्वालुक्समी (A-13), और शनमुगावदिवेलु (A-15), को शुरू में कारावास की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में, उनके खिलाफ पर्याप्त सबूतों के अभाव के कारण, उन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया, और उनकी सजा भी रद्द कर दी गई। 
  11. नलिनी (A-1) और कुछ अन्य अभियुक्तों ने अपनी मृत्युदंड की सजा के खिलाफ भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने नलिनी (A-1) और अन्य तीन अभियुक्तों की मौत की सजा को बरकरार रखा, जैसा कि विचारण न्यायालय ने सुनाया था और मद्रास उच्च न्यायालय ने भी इसकी पुष्टि की थी। अन्य अभियुक्तों को हत्या में उनकी प्रत्यक्ष संलिप्तता के अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने बरी कर दिया। 
  12. इसके बाद, नलिनी (A-1) और अन्य अभियुक्तों ने भारत के राष्ट्रपति से संपर्क कर अपनी मौत की सजा को माफ करने का अनुरोध किया। लेकिन राष्ट्रपति ने उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया और उन्हें कोई माफी नहीं दी गयी। 
  13. हालाँकि, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के इस निर्णय के बाद यह निर्धारित किया कि राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम नहीं है और न्यायालय को उनके निर्णय की समीक्षा करने का अधिकार है। इस बार न्यायालय ने मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए साक्ष्यों की पुनः जांच की, जैसे कि जांच के दौरान अभियुक्तों का सहयोग, जेल में रहने के दौरान उनका अच्छा आचरण, तथा यह भी कि उस समय तक नलिनी (A-1) ने एक पुत्री को जन्म दिया था। इस प्रकार, न्यायालय का मानना है कि इस स्तर पर मृत्युदंड देना एक अतिवादी कदम होगा। इसके अलावा, जांच के दौरान वह पहले ही काफी समय जेल में बिता चुकी है; इसलिए, इन आधारों पर उसे कुछ राहत दी जा सकती है। 
  14. इस प्रकार, 1999-2000 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नलिनी (A-1) और अन्य अभियुक्तों की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन उनकी मृत्युदंड की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया। 
  15. इसके बाद, दो दशक से अधिक समय की अवधि में, राष्ट्रपति और तमिलनाडु के राज्यपाल के समक्ष कई अन्य याचिकाएं और दया याचिकाएं प्रस्तुत की गईं। 2018 में कुछ को पैरोल पर रिहा किया गया और कुछ को पूरी तरह से रिहा कर दिया गया। 
  16. अंततः 11 नवंबर 2022 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने शेष सभी छह दोषियों, अर्थात् नलिनी (A-1), संथन (A-2), मुरुगन (A-3), रॉबर्ट पायस (A-9), जयकुमार (A-10) और रविचंद्रन (A-16) को तत्काल रिहा करने का आदेश दिया, जो सभी 3 दशकों से अधिक समय से आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे। हालाँकि, नलिनी (A-1) और रविचंद्रन पहले से ही 27 दिसंबर 2021 से उस तारीख तक पैरोल पर थे, जैसा कि तमिलनाडु सरकार द्वारा उनके राज्य निलंबन और सजा नियमों के अनुसार स्वीकृत किया गया था। 

कानूनी मामले 

करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य (1994)

यह मामला इसलिए उल्लिखित किया गया क्योंकि इसमें पुलिस अधिकारियों द्वारा दर्ज अभियुक्तों की संस्वीकृति की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया था। इस मामले में अदालत ने माना कि यदि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) की धारा 183) के प्रावधानों का अनुपालन किया जाता है, तो इस तरह की संस्वीकृतियो को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं माना जाएगा। अदालत ने टाडा अधिनियम की धारा 15 के तहत संस्वीकृति दर्ज करते समय कुछ दिशा-निर्देश भी निर्धारित किए, और यह दावा किया गया कि इस मामले में भी इन दिशा-निर्देशों का पालन किया गया था, इसलिए टाडा अधिनियम की धारा 15 के अनुसार संस्वीकृति स्वीकार्य माने जाएंगे, क्योंकि उन्हें प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के साथ निर्धारित किया गया था, जिन्हें अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा के लिए सुनिश्चित किया जाना चाहिए। ऐसी संस्वीकृतियो की स्वीकार्यता के लिए दिशानिर्देश इस प्रकार हैं- 

  1. अधिकारी का पद: संस्वीकृति लेने वाले पुलिस अधिकारी का पद पुलिस अधीक्षक से कम नहीं होना चाहिए। 
  2. संस्वीकृति का अभिलेखन: संस्वीकृति केवल धारा में उल्लिखित तरीके से ही दर्ज की जाएगी, जिसमें संस्वीकृति को लिखना भी शामिल है। 
  3. स्वैच्छिकता: संस्वीकृति लेने से पहले, संस्वीकृति करने वाले व्यक्ति को सूचित किया जाएगा कि वह कोई भी संस्वीकृति करने के लिए बाध्य नहीं है, और यदि वह फिर भी संस्वीकृति करना चाहता है, तो उस संस्वीकृति को उसके खिलाफ सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि व्यक्ति से ली गई संस्वीकृति स्वैच्छिक है, तथा किसी बलपूर्वक नहीं लिया गया है। 
  4. विश्वास करने का कारण: जब तक पुलिस अधिकारी आश्वस्त न हो या उसके पास यह विश्वास करने का कारण न हो कि संस्वीकृति स्वेच्छा से की जा रही है, तब तक पुलिस अधिकारी संस्वीकृति को दर्ज नहीं करेगा। यदि आवश्यक हो, तो आवश्यक प्रश्न पूछे जाएं, यदि व्यक्ति को विश्वास हो जाए कि उसने स्वेच्छा से संस्वीकृति की है। 
  5. परीक्षण की स्वीकार्यता: इस धारा के अंतर्गत की गई  संस्वीकृति, संस्वीकृति देने वाले व्यक्ति के साथ-साथ सह-अभियुक्त, दुष्प्रेरक या षड्यंत्रकारियों के परीक्षण के अंतर्गत स्वीकार्य माना जा सकता है, बशर्ते कि उन सभी पर एक ही मामले में अभियुक्त के साथ आरोप लगाया गया हो और उन पर एक साथ मुकदमा चलाया गया हो।
  6. संवैधानिक सुरक्षा उपायों का अनुपालन: इस धारा के तहत संस्वीकृति दर्ज करने का प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अनुरूप बनाया गया है, जो व्यक्तियों को आत्म-दोषी ठहराए जाने से बचाता है।

अब्दुल रजाक शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य (1987), नजीर अहमद बनाम राजा-सम्राट (1936) और नेहरू मंगतू सतनामी बनाम सम्राट (1937)

इन मामलों में यह प्रावधान था कि मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त की संस्वीकृति दर्ज करने के बाद उसके हस्ताक्षर अवश्य लिये जाने चाहिए। यह एक अनिवार्य एवं हितकारी प्रावधान है तथा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया है कि अभियुक्तों के हितों की रक्षा की जाए। और यदि अभियुक्त के हस्ताक्षर प्राप्त नहीं किए गए तो उस संस्वीकृति को अस्वीकार्य माना जाएगा। 

इन सभी मामलों में मुद्दे मुख्य रूप से एक जैसे हैं जो कि संस्वीकृति दर्ज करते समय पालन किए जाने वाले नियमों के इर्द-गिर्द घूमते हैं, और सभी मामलों में अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 (बीएनएसएस की धारा 183) के अनुसार, मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए जाने वाली  संस्वीकृति पर अभियुक्त के हस्ताक्षर प्राप्त करना अनिवार्य है। यदि अभियुक्त के हस्ताक्षर प्राप्त करने में विफलता होती है, तो इसे एक महत्वपूर्ण अनियमितता माना जाएगा, जिसे सीआरपीसी की धारा 463 (बीएनएसएस की धारा 509) के माध्यम से भी ठीक नहीं किया जा सकता है। 

सरदार सिंह कैवेशर बनाम महाराष्ट्र राज्य (1964) और केहर सिंह एवं अन्य बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन) (1988)

इन मामलों को षड्यंत्र का सार स्पष्ट करने के लिए संदर्भित किया गया था। ये मामले दर्शाते हैं कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 120-A (भारतीय न्याय संहिता, 2023 (बीएनएस) की धारा 61(1)) में वर्णित एक या दूसरे कार्य करने के लिए सहमति होगी। उनकी सहमति या तो प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा सिद्ध की जा सकती है या पक्षों के आचरण और/या कृत्यों से इसका अनुमान लगाया जा सकता है, और यह सहमति ही अपराध मानी जाएगी तथा सिद्ध होने पर दंडनीय होगी। 

ये मामले इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि सह-षड्यंत्रकारियों के कृत्य, बयान और लेखन, यहां तक कि साजिश के गठन के बाद किए गए बयान भी, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 10 (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (बीएसए) की धारा 8) के अनुसार, अन्य सह-षड्यंत्रकारियों के खिलाफ स्वीकार्य माने जाएंगे। ऐसी स्वीकार्यता इस तथ्य में पाई जाती है कि इस तरह के साक्ष्य षड्यंत्र के अस्तित्व और दायरे को साबित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980)

इस मामले को मृत्युदंड की सजा सुनाते समय गंभीर और कम करने वाली परिस्थितियों पर विचार करने तथा यह पता लगाने के लिए भेजा गया था कि यह मामला दुर्लभतम मामलों में आता है या नहीं। भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (बीएनएस की धारा 103) की संवैधानिक वैधता सुनिश्चित करने के लिए सीआरपीसी की धारा 354(3) और धारा 235(2) (बीएनएसएस की धारा 393(3) और धारा 258(2)) का भी अवलोकन किया गया। सीआरपीसी की धारा 354 के अनुसार, जहां न्यायालय किसी व्यक्ति को किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी ठहराता है जिसके लिए मृत्युदंड, आजीवन कारावास या कई वर्षों के कारावास की सजा निर्धारित है, तो न्यायालय को सजा सुनाते समय कारण बताना होगा। सीआरपीसी की धारा 235 में न्यायाधीश द्वारा दोषमुक्ति या दोषसिद्धि के निर्णय के बारे में बताया गया है, और जहां न्यायाधीश किसी व्यक्ति को दोषी ठहराता है, तो वह निर्णय लेने से पहले सजा के विषय पर अभियुक्त को सुनने की अनुमति देगा और फिर कानून के अनुसार सजा सुनाएगा। 

इस मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया जिसमें “दुर्लभतम में से दुर्लभतम” सिद्धांत को प्रस्तुत किया गया तथा मृत्युदंड के सावधानीपूर्वक और सतर्क प्रयोग के महत्व पर बल दिया गया। इस मामले ने भारत में मृत्युदंड से संबंधित न्यायशास्त्र को बढ़ाने में मदद की, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि मृत्युदंड के मामलों की घोषणा करते समय सावधानीपूर्वक विचार किया जाए। 

तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी मामले का आलोचनात्मक विश्लेषण

तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी का यह मामला, जिसे राजीव गांधी हत्याकांड के नाम से भी जाना जाता है, की सुनवाई के दौरान और उसके समापन के बाद भी विभिन्न चरणों में आलोचना की गई। 

अदालत की देरी की आलोचना की गई क्योंकि हमारी भारतीय न्यायपालिका ने ऐसे संवेदनशील मामले पर तीन दशक से अधिक समय व्यतीत कर दिया। और इतना सब होने के बाद भी अंत में सभी अभियुक्तों/दोषियों को न्यायालय द्वारा रिहा कर दिया गया। रिहाई के इस आदेश को कई राजनीतिक दलों ने अस्वीकार्य बताया है, क्योंकि उनका मानना है कि इससे भविष्य के लिए गलत मिसाल कायम होगी। 

इस मामले में टाडा कानून के प्रावधानों पर भी सवाल उठाए गए थे, क्योंकि इस कानून के तहत किसी व्यक्ति को बिना सुनवाई के हिरासत में रखा जा सकता है, अभियुक्त के अधिकारों का हनन होता है और वे सीमित हो जाते हैं, जिससे उनके निष्पक्ष बचाव की संभावना प्रभावित होती है और कई अन्य बातें भी सामने आती हैं, जिसके कारण अंततः इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। हालांकि अब यह कानून निरस्त हो चुका है। 

यह मामला इस बात को भी सामने लाता है कि किसी देश को अपने कूटनीतिक निर्णय अत्यंत सावधानी से लेने चाहिए। कुछ लोगों का मानना था कि राजीव गांधी का आईपीकेएफ को श्रीलंका भेजने का फैसला गलत था, जिसके कारण अंततः यह सब हुआ। 

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में, यह कहा जा सकता है कि यह मामला न्याय, कानूनी सिद्धांतों और मानवाधिकार विचारों के जटिल अंतर्संबंध को दर्शाता है। यह मामला हमारे देश के कानूनी और गैर-कानूनी दोनों पहलुओं में सुधार की आवश्यकता को प्रकाश में लाता है। इसमें कानून की उचित प्रक्रिया सुनिश्चित करते हुए न्याय की मांग और मानवाधिकारों के संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया। देश की सुरक्षा और रक्षा में सुधार की जरूरत है, तथा कूटनीतिक संबंधों को अधिक संवेदनशील तरीके से लिया जाना चाहिए, क्योंकि यह मामला स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि कैसे एक छोटा सा निर्णय इतने सारे निर्दोष लोगों की जान ले सकता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

इस मामले में अभियुक्त नलिनी और अन्य अभियुक्तों के खिलाफ लगाए गए मुख्य आरोप क्या हैं?

नलिनी और 25 अन्य अभियुक्तों पर विभिन्न आपराधिक कानूनों के तहत कई अपराधों के आरोप लगाए गए थे, जिनमें हत्या, हत्या की साजिश, जाली दस्तावेज बनाना और उनका उपयोग करना, अवैध चैनलों के माध्यम से भारत के क्षेत्रों में अवैध रूप से प्रवेश करना और आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (टाडा) का उल्लंघन शामिल था। ये सभी आरोप राजीव गांधी की हत्या की योजना बनाने और उसे सफलतापूर्वक पूरा करने में कथित संलिप्तता पर आधारित थे। 

इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की क्या भूमिका थी?

इस मामले की जांच के दौरान पाया गया कि राजीव गांधी की हत्या में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) का हाथ था। एलटीटीई श्रीलंका स्थित एक अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन है। अपने चुनाव अभियान के दौरान राजीव गांधी के भाषण में उन्होंने कहा था कि यदि वे अगला चुनाव जीतते हैं तो वे भारतीय सेना, आईपीकेएफ को वापस श्रीलंका भेज देंगे। इस भाषण से लिट्टे के सदस्य भड़क गये और उन्होंने राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची। हमले की योजना बनाने में एलटीटीई के कार्यकर्ताओं की संलिप्तता से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि यह एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा था और इसका राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रभाव पड़ा। 

11 मई 1999 को दिए गए इस फैसले का क्या महत्व था?

11 मई 1999 को सुनाए गए फैसले का भारतीय इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा क्योंकि इसके परिणामस्वरूप नलिनी सहित कई अभियुक्तों को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश में शामिल होने और उसे पूरा करने के लिए सफलतापूर्वक दोषी ठहराया गया। अदालत का निर्णय आरोपों की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत किए गए अनेक साक्ष्यों और संस्वीकृति पर आधारित था। इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद से संबंधित मामलों में न्याय बनाए रखने की महत्वपूर्ण भूमिका पर बल दिया गया। 

संदर्भ

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