औद्योगिक संबंधों में मध्यस्थता 

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यह लेख Akshay Gendle द्वारा लिखा गया है। इसमें औद्योगिक (इंडस्ट्रियल) विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता (मीडिएशन) की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसके अलावा, इसमें धारा 10A के तहत स्वैच्छिक मध्यस्थता और मध्यस्थता समझौतों और उनके पंचाटो (अवॉर्ड) के बाध्यकारी मूल्य के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

समाज में दो तरह के लोग काम करते हैं: वे जो विभिन्न प्रतिष्ठानों (एस्टेब्लिशमेंट) में दैनिक मजदूरी पर काम करते हैं और वे जो इन प्रतिष्ठानों जैसे कारखानों, मशीनों आदि के मालिक हैं। मुख्य रूप से, मालिक मुनाफे पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और श्रमिक अपने दैनिक वेतन को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह बुनियादी अंतर अक्सर उनके बीच विवादो को जन्म देता है, जिसे अगर समय रहते हल नहीं किया जाता है, तो बड़े विवाद हो सकते हैं जिन्हें अंततः औद्योगिक विवाद कहा जाता है।  

ऐसे विवादों से दोनों पक्षों को भारी नुकसान होता है, इसलिए औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 ऐसे विवादों को मध्यस्थता के माध्यम से सुलझाने का एक सौहार्दपूर्ण तरीका प्रदान करता है। पक्ष, न्यायनिर्णयन (एडज्यूडिकेशन) के लिए जाने के बजाय, शांतिपूर्ण समाधान के इन तरीकों के माध्यम से कानून के बाहर अपने विवाद को सुलझा सकते हैं। 

लेकिन सवाल यह है कि ऐसा कैसे होता है? वे अदालत के बाहर समझौते में क्यों विश्वास करते हैं? सरकार की क्या भूमिका है? हम इन सभी सवालों पर आगे चर्चा करेंगे। इसके अलावा, लेख में श्रमिकों और उनके नियोक्ताओं के बीच औद्योगिक विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की गई है। 

मध्यस्थता क्या है?

एक अवलोकन 

मध्यस्थता वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों में से एक है जिसमें पक्ष अपने विवाद को मध्यस्थ या कई मध्यस्थों के पास भेजते हैं और फिर मध्यस्थ उनके विवाद को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने का प्रयास करते हैं। पूरी प्रक्रिया न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना होती है।  

मुख्य रूप से, मध्यस्थता की उत्पत्ति मध्य युग में अंग्रेजों के इतिहास में देखी जा सकती है। व्यापारियों के बीच होने वाले वाणिज्यिक विवादों के कारण मध्यस्थता की अवधारणा विकसित हुई। इसलिए, व्यापारियों ने विवादों को सुलझाने के लिए एक वैकल्पिक विधि की मांग की जो ऐसे मामलों में लागू करने में तेज़ और आसान हो। इसलिए, मध्यस्थता की शुरुआत हुई, जिसने इंग्लैंड की अदालत की सख्त मुकदमेबाजी प्रक्रियाओं के बिना विवादों को हल करना शुरू कर दिया और ब्रिटिश तटों पर वाणिज्य करने वाले गैर-अंग्रेजी व्यापारियों/पक्षों के लिए भी सुलभ हो गया। वाणिज्यिक विवादों में मध्यस्थता के उदय के साथ, ब्रिटिश संसद ने 1698 में पहला मध्यस्थता अधिनियम पारित किया। 

भारत की बात करें तो मध्यस्थता की शुरुआत तब हुई जब लोग अपने विवाद ग्राम पंचायत के पास भेजते थे। यह ग्राम पंचायत स्वायत्त रूप से काम करेगी और इसमें गांव का सरपंच या मुखिया और उसकी पंचायत के अन्य कुलीन व्यक्ति शामिल होंगे। ऐसी पंचायत का फैसला दोनों पक्षों पर बाध्यकारी होगा और वे उस अवधि के दौरान मौजूद औपचारिक विवाद-समाधान निकायों के हस्तक्षेप के बिना विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने का प्रयास करेंगे। 

भारत में, उचित मध्यस्थता कानून का पहला प्रयास अंग्रेजों ने वर्ष 1772 में विनियमन अधिनियम की मदद से किया था। 1772 के इस विनियमन अधिनियम ने पारंपरिक पंचायतों को खत्म करने के बजाय उन्हें मध्यस्थता के रूप में उचित मान्यता दी और कुछ विवादों वाले पक्षों को अपने विवादों को सुलझाने के लिए उनके पास जाने की सिफारिश की। अधिनियम ने यहां तक ​​कहा कि पंचायत का फैसला बाध्यकारी होगा और उसे न्यायालय के फैसले के बराबर दर्जा प्राप्त होगा।  

वैधानिक और संविदात्मक मध्यस्थता 

भारत में, कोई व्यक्ति अपने विवाद को या तो वैधानिक मध्यस्थता नामक क़ानून की मदद से या अपने अनुबंध में मौजूद किसी स्पष्ट खंड की मदद से मध्यस्थता के लिए संदर्भित कर सकता है जिसे संविदात्मक मध्यस्थता कहा जाता है। वैधानिक मध्यस्थता के कुछ प्रमुख उदाहरण रेलवे अधिनियम 1989, विद्युत अधिनियम 2003, राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम 1956, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एंटरप्राइज) विकास अधिनियम, 2006 आदि हैं। इन अधिनियमों के किसी भी प्रावधान के अंतर्गत आने वाले किसी भी विवाद वाले व्यक्ति को मध्यस्थता की मदद से ऐसे विवाद को हल करना होता है।  

दूसरी ओर, संविदात्मक मध्यस्थता का तात्पर्य पक्षों द्वारा अपने अनुबंध में एक अलग खंड को शामिल करना या एक संपूर्ण मध्यस्थता समझौते पर हस्ताक्षर करना है, जिसमें कहा गया है कि इस समझौते से संबंधित सभी भावी विवादों को मध्यस्थता के लिए भेजा जाएगा, और निर्णय इस समझौते के पक्षों पर बाध्यकारी होगा। इसके अलावा, इस तरह के खंड या समझौते में अनुबंध करने वाले पक्षों के बीच विवादों को हल करने के लिए परस्पर स्वीकृत बुनियादी दिशा-निर्देश शामिल होने चाहिए, जैसे मध्यस्थता की सीट, स्थान, मध्यस्थों की संख्या, कार्यवाही की भाषा, आदि।

औद्योगिक विवाद क्या है?

औद्योगिक विवाद की अवधारणा पर जाने से पहले, हमें यह समझना होगा कि औद्योगीकरण क्या है और इसकी मूल बातें क्या हैं। औद्योगीकरण की अवधारणा को उन्नत तकनीकी मशीनों की मदद से पारंपरिक कृषि अर्थव्यवस्था को विनिर्माण अर्थव्यवस्था में बदलने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। भारत में, औद्योगीकरण की शुरुआत 19वीं सदी के मध्य में बॉम्बे में पहली भाप से चलने वाली कपास मिल के शामिल होने के साथ हुई। समय के साथ, पूरे भारत में कई उद्योग शामिल किए गए जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से विनिर्माण अर्थव्यवस्था में बदल दिया। 

इस तीव्र औद्योगिकीकरण के कारण श्रमिकों और उनके नियोक्ताओं के बीच औद्योगिक विवादों में भी वृद्धि हुई है। प्रबंधन या नियोक्ता लाभ को अधिकतम करने पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करते हैं; दूसरी ओर, श्रमिक या मजदूर अपनी आय या दैनिक मजदूरी को यथासंभव अधिकतम करने की अपेक्षा करते हैं, जिससे उनके बीच विवाद होता है और अंततः औद्योगिक विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है। 

आम तौर पर इस औद्योगिक विवाद के दो पहलू हैं। पहला, प्रबंधन, जिसके पास व्यवसाय चलाने के लिए सभी आवश्यक उपकरण, मशीनरी और बुनियादी ढाँचा होता है, जिसे उत्पादन का कारक कहा जा सकता है और दूसरा, श्रमिक, जो वास्तव में माल का निर्माण करते हैं। प्रबंधन मुनाफे पर ध्यान केंद्रित करता है; इसलिए, श्रमिकों के बीच अनुशासन, अच्छे आचरण और नियमों को लागू करने की कोशिश करता है, जबकि श्रमिक उच्च आय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रबंधन के निर्णयों में अपनी बात रखने, सुरक्षित कार्य वातावरण आदि पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यहां, दोनों पक्षों के अलग-अलग हित हैं, इसलिए उनके बीच विवाद होना लाजिमी है।  

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2(k) के तहत औद्योगिक विवादों को “नियोक्ता और नियोक्ता के बीच, या नियोक्ता और श्रमिक के बीच, या श्रमिक और श्रमिक के बीच कोई विवाद के रूप में परिभाषित किया गया है, जो किसी व्यक्ति के रोजगार या गैर-रोजगार या रोजगार की शर्तों या श्रम की शर्तों से जुड़ा हुआ है।”

इस प्रकार परिभाषा के अनुसार, औद्योगिक विवाद निम्नलिखित पक्षों के बीच हो सकते हैं 

  • नियोक्ता और नियोक्ता 
  • नियोक्ता एवं श्रमिक 
  • श्रमिक और श्रमिक

इसके अलावा, परिभाषा में विवाद के आधार भी दिए गए हैं जैसे

  • रोजगार या गैर-रोजगार 
  • रोजगार की शर्ते
  • श्रम की शर्ते

ऐसे कई तरीके हैं जिनसे कर्मचारी अपने रोजगार की शर्तों और नियमों के संबंध में अपना असंतोष दिखा सकते हैं। उनमें से कुछ हैं हड़ताल, तालाबंदी, धीमी गति से काम करना, कलम बंद हड़ताल, बंद घेराव, आदि। मुख्य रूप से, हड़ताल की मदद से, कर्मचारी चल रहे काम को रोक देते हैं और नियोक्ता पर दबाव बनाने या अपनी मांगों को मानने के लिए मजबूर करने की कोशिश करते हैं। यदि नियोक्ता, श्रमिकों की मांगों को मानने के बजाय, कारखाने पर ताला लगा देता है और श्रमिकों को काम पर रखने से मना कर देता है, जिससे उनकी मांगें अस्वीकार हो जाती हैं, तो स्थिति को तालाबंदी कहा जाता है। जब ऐसी स्थिति होती है, तो विवाद निवारण तंत्र ऐसी समस्याओं को हल करने के लिए काम करना शुरू कर देता है और विवादित पक्षों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश करता है, मुख्य रूप से मध्यस्थता और सुलह की मदद से, जिसकी चर्चा आगे के खंडों में की गई है। 

औद्योगिक विवादों के प्रकार 

औद्योगिक विवादों को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। 

हित विवाद

आम तौर पर, हित विवादों को आर्थिक विवाद के रूप में भी जाना जाता है। ये विवाद तब होते हैं जब श्रमिकों की ओर से वेतन, नौकरी की सुरक्षा या उनके रोजगार की शर्तों को बढ़ाने की मांग की जाती है और नियोक्ता इसके लिए तैयार नहीं होता है। यहां, आर्थिक शक्ति नियोक्ता के हाथों में होती है; इसलिए, इन मुद्दों को इस हद तक नहीं बढ़ाना चाहिए कि वे दोनों पक्षों के बीच आर्थिक शक्ति का परीक्षण बन जाएं। इन विवादों को उसी समय वार्ता और सुलह के माध्यम से हल किया जाना चाहिए।

शिकायत या अधिकार विवाद

जब कोई कर्मचारी अपने रोजगार की शर्तों से संतुष्ट नहीं होता है और नियोक्ता कर्मचारी के अधिकारों का उल्लंघन करने की कोशिश करता है, तो शिकायत विवाद होता है। आम तौर पर, जब कर्मचारियों में कुछ असंतोष होता है, तो वे उसी के बारे में शिकायत दर्ज करने की कोशिश करते हैं। जब ऐसी शिकायत नियोक्ता द्वारा संबोधित नहीं की जाती है, तो यह शिकायत में बदल जाती है। ऐसी शिकायतें किसी कर्मचारी, श्रमिक या श्रमिकों के समूह या उनकी ओर से यूनियन द्वारा दर्ज की जा सकती हैं। 

जब प्रबंधन या नियोक्ता द्वारा शिकायतों का उचित समाधान नहीं किया जाता है, तो वे कानूनी विवादों में बदल सकती हैं, जिससे दोनों पक्षों को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसके अलावा, ऐसे विवाद लंबे समय तक श्रमिकों और प्रबंधन के बीच अंतहीन तनाव पैदा कर सकते हैं। ऐसे विवाद में सरकार पक्षों को त्वरित और शांतिपूर्ण निवारण तंत्र के लिए मध्यस्थता की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित करती है। ऐसे विवादों के कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:

  • किसी कर्मचारी की बर्खास्तगी (डिस्मिसल) और बहाली (रेंसटेटमेंट) तथा उसके लिए मुआवजा
  • मजदूरी, भुगतान का तरीका, किसी कर्मचारी के अधिकार का हनन जब मजदूरी के संबंध में दो पंचाट दिए गए हों और कर्मचारी को किसी एक को चुनने की स्वतंत्रता हो 
  • सुरक्षित कार्य वातावरण, सुरक्षा उपाय और स्वास्थ्य प्रदान करने से संबंधित विवाद 
  • कार्य घंटे, भविष्य निधि (प्रोविडेंट फंड), ग्रेच्युटी, पेंशन, पदोन्नति (प्रमोशन), पदावनत (डिमोशन), वरिष्ठता 

अनुचित श्रम प्रथा विवाद

मजदूर नियोक्ताओं के लिए काम करने वाली ताकत हैं और उन्हें उनके काम के लिए भुगतान मिलता है। लेकिन कभी-कभी मजदूर अपने नियोक्ताओं के दबाव के कारण आवश्यकता से अधिक काम करते हैं, जिससे अनुचित श्रम व्यवहार को बढ़ावा मिलता है। औद्योगिक विवाद अधिनियम में अनुसूची V के तहत कई अनुचित श्रम व्यवहार निर्धारित किए गए हैं । इसके अलावा, अधिनियम श्रमिक, नियोक्ता और यहां तक ​​कि ट्रेड यूनियन द्वारा अनुचित व्यवहार को भी मान्यता देता है और इसके लिए क्रमशः धारा 25 और धारा 26 के तहत सजा निर्धारित करता है।

नियोक्ता की ओर से की जाने वाली कुछ अनुचित श्रम प्रथाओं का विवरण नीचे दिया गया है।

  • ऐसी हड़ताल जो कि अवैध हड़ताल न हो के दौरान कामगारों की भर्ती करना। 
  • मान्यता प्राप्त ट्रेड यूनियनों के साथ सद्भावपूर्वक सामूहिक सौदेबाजी करने से इंकार करना।
  • किसी कर्मचारी को दुर्भावनापूर्ण तरीके से एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करना।
  • श्रमिकों को उत्पीड़न के माध्यम से बर्खास्त करना।
  • किसी हड़ताल में भाग लेने के कारण किसी कर्मचारी को बर्खास्त करना।
  • ट्रेड यूनियन गतिविधियों के कारण श्रमिकों को उच्च पदों पर पदोन्नत करने से इंकार करना।

मान्यता विवाद

अधिकांश समय, ट्रेड यूनियन कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और ऐसे कर्मचारियों की ओर से नियोक्ताओं या प्रबंधन के साथ वार्ता करते हैं। यह उचित प्रक्रिया है, लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब कई ट्रेड यूनियनें होती हैं और उनमें से सभी दावा करते हैं कि वे अपने कर्मचारियों के सर्वोत्तम हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अब, विवाद को हल करने के लिए, नियोक्ता वार्ता शुरू करना चाहते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि उन्हें ऐसी वार्ता के लिए किस ट्रेड यूनियन को मान्यता देनी चाहिए। 

एक सटीक ट्रेड यूनियन की यह मान्यता महत्वपूर्ण है क्योंकि इस तरह के ट्रेड यूनियन को सौदेबाजी के अधिकार और कर्मचारियों की ओर से सामूहिक समझौतों पर वार्ता करने की क्षमता मिलती है। इसके अलावा, कभी-कभी नियोक्ता अपनी नफरत के कारण किसी विशेष ट्रेड यूनियन को मान्यता नहीं देना चाहते हैं, जिसके कारण नियोक्ताओं द्वारा ऐसे ट्रेड यूनियनों का उत्पीड़न होता है। 

लेकिन अंत में, यह वार्ता (नेगोशिएशन) प्रक्रिया महत्वपूर्ण है और इसे जल्दी से जल्दी पूरा किया जाना चाहिए, क्योंकि वार्ता में देरी से उत्पादन में बाधा आती है, ऑर्डर में अनावश्यक देरी होती है, और कर्मचारी-नियोक्ता संबंधों में तनाव पैदा होता है जो अंततः लंबे समय में औद्योगिक शांति और मुनाफे को प्रभावित करता है। ट्रेड यूनियनों की मान्यता के लिए सरकार द्वारा बनाए गए दिशा-निर्देशों के आधार पर मान्यता विवादों का निपटारा किया जाता है।

औद्योगिक विवाद में मध्यस्थता की भूमिका

जैसा कि पहले चर्चा की गई है, मध्यस्थता न्यायालय के बाहर विवादों को निपटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इसलिए कई बार, पक्ष पारंपरिक न्यायालयों के हस्तक्षेप के बिना अपने विवादों को सुलझाने के तरीके के रूप में मध्यस्थता को चुनते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि पक्षों के पास अपने विवादों को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करते समय बहुत सी चीजों को चुनने की व्यापक गुंजाइश होती है। उदाहरण के लिए, पक्ष मध्यस्थों की संख्या, शासी कानून, मध्यस्थता की सीट और स्थान, मध्यस्थता की भाषा, अधिकार क्षेत्र आदि चुन सकते हैं।  

औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत भी, पक्ष अपने विवाद को हल करने के लिए अंतिम विकल्प के रूप में न्यायनिर्णयन चुनने से पहले अपने विवाद को मध्यस्थता के लिए संदर्भित कर सकते हैं। चूंकि इन पक्षों के बीच अपने भविष्य के विवाद को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करने के लिए कोई पूर्व समझौता नहीं है, इसलिए अधिनियम औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10A के तहत निपटान के साधन के रूप में स्वैच्छिक मध्यस्थता का विकल्प देता है।

स्वैच्छिक मध्यस्थता 

औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के मूल मसौदे में स्वैच्छिक मध्यस्थता का प्रावधान नहीं था। विवाद को सुलझाने का एकमात्र तरीका न्यायनिर्णयन और समझौता था। इसके कारण कड़ी आलोचना हुई और परिणामस्वरूप, सरकार ने औद्योगिक विवाद विविध प्रावधान (संशोधन) अधिनियम, 1956 के माध्यम से धारा 10A पेश की। स्वैच्छिक मध्यस्थता शुरू होने के बावजूद, मध्यस्थता के पंचाट को न्यायनिर्णयन या समझौता के निर्णय के बराबर दर्जा नहीं मिला। लेकिन बाद में, 1964 के संशोधन ने धारा 10A (3A) पेश की, जिसने अंततः मध्यस्थता के पंचाट को समान दर्जा दिया।

सरकार ने स्वैच्छिक मध्यस्थता को बढ़ावा देने के लिए 1969 में राष्ट्रीय श्रम आयोग की सिफारिश पर राष्ट्रीय मध्यस्थता संवर्धन (प्रमोशन) बोर्ड की स्थापना भी की। यहां तक ​​कि 1962 में भारतीय श्रम सम्मेलन ने भी मध्यस्थता के महत्व पर जोर दिया।  

फिर भी, स्वैच्छिक मध्यस्थता का भारत में कोई विशेष स्थान नहीं था, और आयोग ने इसके लिए निम्नलिखित कारण बताए:

  • कुशल मध्यस्थों का अभाव 
  • न्यायनिर्णयन में गहरा विश्वास 
  • मध्यस्थों के निर्णय के विरुद्ध कोई अपील नहीं 
  • पक्षों, विशेषकर श्रमिकों के लिए लागत 

यह भी तर्क दिया गया कि स्वैच्छिक मध्यस्थता की प्रक्रिया पर सरकार का कुछ हद तक नियंत्रण होता है, इसलिए विवादित पक्षों से उसे ज़्यादा आकर्षण नहीं मिलता। लेकिन नई आर्थिक नीति (एनईपी) 1991 के तहत सरकार ने विनिवेश नीति नामक नीति चुनी, जिससे औद्योगिक विवादों में उसका हस्तक्षेप सीमित हो गया। 

इसके अलावा, सरकार केवल औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत विवाद को मध्यस्थता के लिए भेजने की भूमिका निभा रही थी, तथा मध्यस्थ के रूप में कार्य नहीं कर रही थी; इसलिए, मध्यस्थता की प्रक्रिया पर उसका कभी कोई नियंत्रण नहीं था। 

एनईपी, 1991 ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को बढ़ावा देकर भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर खोल दिया। भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलने के साथ ही निजी क्षेत्र की कई कंपनियाँ बनीं और सरकार ने इन निजी कंपनियों को स्वैच्छिक मध्यस्थता की प्रक्रिया के माध्यम से अपने विवादों को सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया। 

मध्यस्थता समझौता 

आईडी अधिनियम की धारा 10A में मध्यस्थता समझौतों का प्रावधान है और हम आगे इस धारा का विस्तृत विवरण देंगे। 

इस धारा के तहत, पक्षकार अपने विवाद को स्वैच्छिक मध्यस्थता के लिए संदर्भित कर सकते हैं; ऐसा विवाद मौजूद हो सकता है या होने की आशंका हो सकती है। लेकिन स्वैच्छिक मध्यस्थता की एक शर्त यह है कि पक्षकार किसी भी विवाद को स्वैच्छिक मध्यस्थता के लिए संदर्भित नहीं कर सकते हैं; ऐसा विवाद एक औद्योगिक विवाद होना चाहिए, और उसके बाद ही स्वैच्छिक मध्यस्थता लागू होगी।   

यह धारा 10A यह शब्द देती है कि ‘किसी भी समय पक्षकार अपने विवाद को स्वैच्छिक मध्यस्थता के लिए संदर्भित कर सकते हैं।’ लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पक्षकार किसी भी समय अपने विवाद को संदर्भित कर सकते हैं; बल्कि, उन्हें आईडी अधिनियम की धारा 10 के तहत उचित सरकार द्वारा उनके विवाद को निर्णय के लिए संदर्भित करने से पहले अपने विवाद को स्वैच्छिक मध्यस्थता के लिए संदर्भित करना आवश्यक है। 

धारा 10A (1A) में कहा गया है कि यदि पक्ष आपसी सहमति से मध्यस्थों का चयन करने में विफल रहते हैं, तो वे अपने विवाद में मध्यस्थ के रूप में कार्य करने के लिए श्रम न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी निर्णायक अधिकारी को चुन सकते हैं। भले ही पक्ष सम संख्या में मध्यस्थों का चयन करते हों, लेकिन धारा उन्हें निर्णय देते समय उनके बीच बराबरी की स्थिति में एक अंपायर चुनने का अधिकार देती है। बराबरी की स्थिति में, अंपायर का निर्णय मान्य होगा। पहले, पक्षों के पास अंपायर चुनने का कोई विकल्प नहीं था, इसलिए जब बराबरी होती थी, तो पक्षों के लिए एकमात्र सहारा न्यायनिर्णयन था। 

धारा 10A (2) में कहा गया है कि मध्यस्थता समझौता न केवल लिखित रूप में होना चाहिए बल्कि औद्योगिक विवाद के पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित भी होना चाहिए। इस तरह के समझौते में मध्यस्थों का नाम भी होगा और यह निर्धारित तरीके से होना चाहिए। 

इसके अलावा, धारा 10A (3) में कहा गया है कि मध्यस्थता समझौते की एक प्रति उपयुक्त सरकार को भेजी जाएगी, और इसे उपयुक्त सरकार द्वारा 1 महीने के भीतर आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित किया जाएगा। धारा 1 महीने की अवधि के भीतर मध्यस्थता समझौते को प्रकाशित करने का आदेश देती है, लेकिन फिर भी, कुछ उच्च न्यायालयों ने इसी मुद्दे पर अन्य रुख अपनाया है। उदाहरण के लिए, मॉडर्न स्टोर्स बनाम कृष्णदास (1969) में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि “धारा 10A (3) के तहत आवश्यकताएं आंशिक रूप से अनिवार्य और आंशिक रूप से निर्देशात्मक हैं”। 

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने करनाल लेदर कर्मचारी संगठन बनाम लिबर्टी फुटवियर कंपनी (रजिस्टर्ड) और अन्य (1989) मामले में भ्रम को दूर किया और इसका समाधान किया, जिसमें उपयुक्त सरकार ने 1 महीने की अवधि के भीतर आधिकारिक राजपत्र में मध्यस्थता समझौते को प्रकाशित नहीं किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि यह मध्यस्थता समझौता श्रमिकों सहित इस समझौते के सभी पक्षों को बाध्य करेगा; इसलिए, उन्हें इस तरह के समझौते के बारे में अवगत कराया जाना चाहिए। इसके अलावा, श्रमिकों को विवाद, समझौते और यहां तक ​​कि मध्यस्थ के बारे में भी पता होना चाहिए जो उनके अपने मामले से निपट रहा है। इस समझौते को प्रकाशित करने से उन्हें यदि आवश्यक हो तो मध्यस्थ के समक्ष अपने विचार प्रस्तुत करने का अवसर भी मिलता है। इस प्रकार, इस समझौते को उपयुक्त सरकार द्वारा आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित किया जाना चाहिए। 

इसके अलावा, धारा 10A (3A) के तहत, अधिनियम उन श्रमिकों को मध्यस्थ के समक्ष अपना मामला प्रस्तुत करने का अवसर देता है जो मध्यस्थता समझौते में प्रत्यक्ष पक्ष नहीं हैं, लेकिन विवाद से संबंधित हैं। ऐसे श्रमिक भी मध्यस्थ के निर्णय से बंधे होंगे। 

सवाल यह है कि चूंकि धारा 10A (3A) स्वैच्छिकता के सिद्धांत पर आधारित है, क्या उन पक्षों को बाध्य करना जो मध्यस्थता समझौते में सीधे पक्ष नहीं हैं या जिन्होंने इस तरह की मध्यस्थता के लिए अपनी सहमति नहीं दी है, स्वैच्छिक मध्यस्थता के सिद्धांत का उल्लंघन है? इसका उत्तर नहीं है क्योंकि इस धारा के तहत अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है और यह अधिनियम के उद्देश्य के अधीन है। न्यायालय ने इस मुद्दे को संबोधित करते हुए तर्क दिया कि संविधान के तहत मौलिक अधिकार भी पूर्ण अधिकार नहीं हैं, बल्कि उचित प्रतिबंध के अधीन हैं।

अंत में, धारा 10A (4A) में कहा गया है कि विवाद के पक्षों द्वारा विवाद को मध्यस्थता के लिए भेजे जाने पर उपयुक्त सरकार के पास हड़ताल या तालाबंदी को रोकने की शक्ति है। 

मध्यस्थता समझौता महत्वपूर्ण है क्योंकि यह विवाद के संदर्भित होने के बाद मध्यस्थता की पूरी कार्यवाही को नियंत्रित करता है। धारा 10A विवादित पक्षों को निष्पक्ष, स्वतंत्र मध्यस्थों की मदद से कानून की अदालत के बाहर अपने विवाद को हल करने का एक अंतिम विकल्प प्रदान करता है। हालाँकि विवाद को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करना अनिवार्य नहीं है, फिर भी सरकार द्वारा विवाद को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करने के लिए अत्यधिक प्रोत्साहित किया जाता है यदि पक्षों के बीच सुलह नहीं होती है। सरकार का इरादा बिल्कुल स्पष्ट है, क्योंकि वे औद्योगिक विवादों को यथासंभव कम करना चाहते हैं, और यदि वे होते भी हैं, तो उन्हें न्यायनिर्णयन के बजाय मध्यस्थता और सुलह के माध्यम से हल किया जाना चाहिए।

इन पंचाटो की बाध्यकारी प्रकृति

आईडी अधिनियम की धारा 18 स्पष्ट रूप से पक्षों पर मध्यस्थता पंचाट की बाध्यकारी प्रकृति के बारे में बात करती है। धारा 18(2) के अनुसार, मध्यस्थता पंचाट उन पक्षों पर बाध्यकारी है जिन्होंने आईडी अधिनियम की धारा 10A के तहत अपने विवाद को मध्यस्थता के लिए भेजा है। इसके अलावा, धारा 18(3) मध्यस्थता पंचाट की आगे की प्रवर्तनीयता की व्याख्या करती है, जैसे, नियोक्ता के मामले में, पंचाट उसके कानूनी उत्तराधिकारियों, उत्तराधिकारियों आदि पर बाध्यकारी होगा। पंचाट उन व्यक्तियों पर बाध्यकारी होगा जो उस प्रतिष्ठान या प्रतिष्ठान के उस हिस्से में कार्यरत हैं जिससे विवाद संबंधित है। 

मध्यस्थता कैसे लाभदायक है?

  • तीव्र 

आमतौर पर, मध्यस्थता के तहत कार्यवाही पारंपरिक अदालतों की तुलना में तेज़ होती है, जिससे पक्षों को त्वरित न्याय या समझौता मिल जाता है। यही कारण था कि आईडी अधिनियम में स्वैच्छिक मध्यस्थता की शुरुआत की गई थी। 

  • गोपनीय

पारंपरिक कानूनी अदालतों के विपरीत, मध्यस्थता की कार्यवाही केवल उन पक्षों के बीच होती है जिन्होंने अपने विवाद को मध्यस्थता के लिए भेजा था। इसमें कोई मीडिया कवरेज नहीं होती है, और पत्रकार शामिल नहीं होते हैं जिससे कार्यवाही की गोपनीयता बनाए रखने में मदद मिलती है।  

  • प्रक्रिया में लचीलापन 

मध्यस्थ को अपनी पसंद की प्रक्रिया अपनाने की अनुमति है, बशर्ते कि ऐसी प्रक्रिया पहले से मौजूद कानूनों और नियमों के विरुद्ध न हो और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध न हो। जब तक ये शर्तें पूरी होती हैं, मध्यस्थ को मध्यस्थता की प्रक्रिया के बारे में पूरी स्वायत्तता प्राप्त होती है। 

  • विशेषज्ञता

मध्यस्थता में, पक्षों को अपने विवाद के लिए मध्यस्थों की संख्या चुनने की स्वतंत्रता होती है। इस प्रकार, पक्षकार ज्यादातर ऐसे लोगों को चुनते हैं जो ऐसे मामलों में विशेषज्ञ होते हैं ताकि उनके मामलों में उनकी विशेषज्ञता का उपयोग किया जा सके। यह लाभ पारंपरिक अदालतों में बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं है। 

  • पंचाट की अंतिमता 

आम तौर पर, मध्यस्थता के फैसले हमेशा अंतिम होते हैं, और कुछ स्थितियों में ही उच्च न्यायालयों में अपील की जा सकती है, यानी मध्यस्थता में अपील का दायरा काफी संकीर्ण है। इससे फैसले की अंतिमता सुनिश्चित होती है, और एक बार निर्णय हो जाने के बाद पक्ष भविष्य में मुकदमेबाजी से मुक्त हो जाते हैं। 

निर्णय

आईडी अधिनियम की धारा 10 A के तहत स्वैच्छिक मध्यस्थता के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, और ये प्रश्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष थे, और उन्होंने मामले के कानूनों की मदद से ऐसी दुविधाओं को हल करने की कोशिश की है और हम उन सवालों पर आगे स्पष्टीकरण के लिए उन्हीं केस कानूनों पर चर्चा करेंगे।

क्या मध्यस्थ को धारा 10A के तहत अपनी स्वयं की प्रक्रिया का पालन करने की अनुमति है

डेली अलजामियात बनाम गोपीनाथ (1976) में न्यायमूर्ति रोहतगी ने कहा कि मध्यस्थ किसी भी प्रक्रिया से बंधा नहीं है। भले ही मध्यस्थ किसी विशिष्ट प्रक्रिया से बंधा न हो, लेकिन वह वैधानिक प्रावधानों और मौजूदा नियमों का पालन करने के लिए बाध्य है, और प्रक्रिया प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए। 

10A मध्यस्थ को क्या दर्जा प्राप्त है क्या उसे वैधानिक मध्यस्थ या निजी मध्यस्थ माना जा सकता है

रोहतास इंडस्ट्रीज बनाम इट्स यूनियन (1976) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 10A के तहत मध्यस्थ के पास उन पक्षों को भी बाध्य करने का अधिकार है जो मध्यस्थता समझौते के पक्षकार भी नहीं हैं, क्योंकि क़ानून इसकी अनुमति देता है। इस प्रकार 10A मध्यस्थ को वैधानिक मध्यस्थ माना जा सकता है और उसके निर्णय न्यायिक समीक्षा के लिए भी उत्तरदायी हैं। 

क्या उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत 10A पंचाट को रद्द कर सकता है यदि कानून की कोई त्रुटि है या मध्यस्थ ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है या अधिकार क्षेत्र के बिना कार्य किया है 

आर. बनाम नेशनल जॉइंट काउंसिल फॉर द कोर्ट डेंटल टेक्नीशियन्स (1953) के विवाद समिति में, यह कहा गया था कि उत्प्रेषण (सर्टियोरारी) या निषेध की रिट केवल वैधानिक मध्यस्थ को ही भेजी जा सकती है और यह पहले से ही स्थापित है कि 10A मध्यस्थ एक वैधानिक मध्यस्थ है, और इसलिए उच्च न्यायालय के पास अनुच्छेद 226 के तहत 10A पंचाट को रद्द करने की शक्ति है। उत्प्रेषण की रिट न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों को भेजी जा सकती है, और 10A मध्यस्थ पहले से ही अर्ध-न्यायिक निकाय के रूप में स्थापित है। इसलिए, यह उच्च न्यायालय के रिट क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता है। 

निष्कर्ष

किसी भी विवाद को सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका विवादित पक्षों को वार्ता की मेज पर लाना है, और यह एक बहुत ही कठिन काम है। लेकिन विवाद समाधान के इन तरीकों से, हम विवादित पक्षों को एक साथ लाकर और उन्हें निष्पक्ष तीसरे पक्ष की मदद से सीधे अपनी समस्याओं पर चर्चा करने की अनुमति देकर वही काम कर सकते हैं। 

मध्यस्थता से पक्षों को अपने विवादों का सौहार्दपूर्ण ढंग से सबसे अच्छा समाधान खोजने में मदद मिलती है; इसलिए, पक्षों के बीच भविष्य में बेहतर संबंध की हमेशा उम्मीद रहती है और औद्योगिक विवादों में यह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, यह पद्धति पारंपरिक अदालतों पर बोझ को कम करने में भी मदद कर रही है; यही कारण है कि सरकार भी औद्योगिक संबंधों में इसे बढ़ावा दे रही है।    

निष्कर्ष रूप में, हम कह सकते हैं कि भारत में औद्योगिक विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह पारंपरिक अदालतों की तुलना में विवादित पक्षों को अधिक लचीलापन, त्वरित समाधान और समाधान प्रक्रिया पर अच्छा नियंत्रण प्रदान करता है। लेकिन, कई बार, पक्ष इसे चुनना नहीं चाहते हैं क्योंकि उन्हें इसके लाभों के बारे में पता नहीं है; इसलिए, हमें उनके बारे में जागरूकता फैलाने के लिए हर मंच पर, लेखों, सोशल मीडिया आदि के माध्यम से इसके बारे में बात करनी चाहिए। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

मध्यस्थता और सुलह के बीच क्या अंतर है?

मध्यस्थता एक अर्ध-न्यायिक कार्यवाही है जिसमें एक स्वतंत्र तीसरा पक्ष शामिल होता है जो विवाद को हल करने के लिए मध्यस्थ के रूप में कार्य करेगा और मध्यस्थता का निर्णय दोनों पक्षों पर बाध्यकारी होगा। जबकि, सुलह का नेतृत्व एक सुलहकर्ता द्वारा किया जाता है जो वार्ता और संचार की मदद से पक्षों को पारस्परिक रूप से स्वीकृत समझौते तक पहुँचने में मदद करेगा। 

मध्यस्थ कौन है?

मध्यस्थ एक स्वतंत्र तृतीय पक्ष होता है जो पक्षों द्वारा उसके समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर किसी विवाद पर निर्णय देता है। 

संदर्भ

 

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