इंडियन एक्सप्रेस न्यूज़पेपर्स (बॉम्बे) बनाम भारत संघ एवं अन्य (1986)

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यह लेख Shivani.A द्वारा लिखा गया है। यह इंडियन एक्सप्रेस न्यूज़पेपर्स (बॉम्बे) बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य के मामले का विश्लेषण करने वाला एक विस्तृत लेख है। यह मामला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत दिए गए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है। यह लेख मामले के संक्षिप्त तथ्य, शामिल मुद्दे, मामले का निर्णय और निर्णय के पीछे तर्क प्रदान करता है। यह कानून के महत्वपूर्ण प्रावधानों के साथ-साथ निर्णय देते समय न्यायाधीशों द्वारा संदर्भित कानूनी मामलों से भी संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।

 

Table of Contents

परिचय 

” प्रेस की स्वतंत्रता एक बहुमूल्य विशेषाधिकार है जिसे कोई भी देश त्याग नहीं सकता। ” – महात्मा गांधी।

भारत में, लोगों का यह व्यापक रूप से मानना ​​है कि मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए, लोगों को उम्मीद है कि मीडिया हमेशा सरकार के किसी भी डर या दबाव के बिना तथ्यों को प्रसारित करेगा। मीडिया के इस तरह से काम करने के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता यह है कि उसे बाहरी कारकों के किसी भी प्रभुत्व के बिना स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को प्रकाशित करने और व्यक्त करने की स्वतंत्रता दी जाए। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का एक मात्र अवलोकन हमें यह समझने में मदद करता है कि संविधान भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है। हालाँकि, यह स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं करता है कि यह अधिकार अपने दायरे में प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता को भी शामिल करता है और इसलिए, यह मुद्दा कि क्या मीडिया अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अपने अधिकार का दावा कर सकता है, बार-बार अदालतों के सामने लाया गया है। हालाँकि, यह मुद्दा अब स्पष्ट हो गया है क्योंकि अदालतों ने स्पष्ट कर दिया है कि मीडिया की स्वतंत्रता भी उक्त अनुच्छेद के तहत एक मौलिक अधिकार है। 

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कर लगाने के सरकार के कर्तव्य और मीडिया के भाषण के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की चुनौती थी, और न्यायालय इस संतुलन को स्थापित करने में सफल रहा। न्यायालय ने माना कि सरकार द्वारा कर लगाने मात्र से मीडिया की अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता बाधित नहीं होती है। इसने आगे कहा कि सरकार निश्चित रूप से प्रेस पर कर लगाने की हकदार है, हालांकि, उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह उन पर कोई अनुचित बोझ न डाले। दूसरे शब्दों में, न्यायालय ने माना कि सरकार को प्रेस को चुप कराने के लिए कर लगाने की अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करना चाहिए। इसलिए, यह लेख मामले के तथ्यों, इसमें शामिल मुद्दों, निर्णय सुनाते समय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जिन मामलों पर भरोसा किया गया, और निर्णय के औचित्य (ओवरव्यू) का अवलोकन प्रदान करता है।

मामले का विवरण

मामले का नाम: इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बॉम्बे) बनाम भारत संघ

मामले की संख्या: 1986 एआईआर 515

समतुल्य उद्धरण: 1985 एससीआर (2) 287, 1985 एससीसी (1) 641

संबंधित अधिनियम: सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 , सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम, 1975

महत्वपूर्ण प्रावधान: अनुच्छेद 19(1)(a), अनुच्छेद 19(1)(g) , भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 , सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 13(2)

न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय 

पीठ: न्यायमूर्ति ईएस वेंकटरमैया, न्यायमूर्ति ओ. चिन्नप्पा रेड्डी, न्यायमूर्ति एपी सेन

याचिकाकर्ता: इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स लिमिटेड।

प्रतिवादी: भारत संघ एवं अन्य।

निर्णय की तिथि: 6 दिसंबर 1986

इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बॉम्बे) बनाम भारत संघ एवं अन्य, 1986 के तथ्य 

इससे पहले, भारत सरकार समाचार पत्रों पर किसी भी प्रकार का कर या आयात (इंपोर्ट) शुल्क नहीं लगाती थी। हालाँकि, वर्ष 1985 में, सरकार ने विदेशों से आयात किए जाने वाले समाचार पत्रों पर अन्य सहायक शुल्कों के साथ आयात शुल्क लगाने का निर्णय लिया। समाचार पत्रों पर कर लगाने के सरकार के इस निर्णय के कारण, प्रकाशकों को समाचार पत्रों की कीमत बढ़ानी पड़ी। इससे समाचार पत्रों के प्रसार में कमी आई, जिससे कंपनी का राजस्व कम हो गया। इसलिए, समाचार पत्र ट्रस्ट के कर्मचारियों, शेयरधारकों आदि ने कर की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की। याचिकाकर्ताओं ने अदालत से अनुरोध किया कि कर को असंवैधानिक घोषित किया जाए क्योंकि यह उनकी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है, जबकि प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि समाचार पत्रों पर कर लगाना उनका कर्तव्य था।

इंडियन एक्सप्रेस न्यूज़पेपर्स (बॉम्बे) बनाम भारत संघ एवं अन्य, 1986 में शामिल कानून

भारत का संविधान

संविधान का अनुच्छेद 14

यह अनुच्छेद कानून के तहत समान व्यवहार का सिद्धांत प्रदान करता है। इस अनुच्छेद में 2 महत्वपूर्ण वाक्यांश शामिल हैं: ‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून का समान संरक्षण’। ‘कानून के समक्ष समानता’ वाक्यांश का अर्थ है कि सरकार द्वारा सभी लोगों के साथ उनके लिंग, जाति, पंथ आदि के बावजूद समान व्यवहार किया जाना चाहिए।

दूसरा वाक्यांश, ‘कानून का समान संरक्षण’ पहले वाक्यांश के अपवाद के रूप में कार्य करता है। यह खंड इस सिद्धांत पर आधारित है कि ‘समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए’ और सरकार को भेदभाव करने और वंचित समूहों को विशेष सुविधाएँ प्रदान करने में सक्षम बनाता है। हालाँकि, सरकार भेदभाव नहीं कर सकती है और अपनी मर्जी के अनुसार लोगों को सुविधाएँ प्रदान नहीं कर सकती है, इसके बजाय, सरकार को उन लोगों को वर्गीकृत करना चाहिए जो लाभ उठाएँगे और ऐसा वर्गीकरण उचित होना चाहिए। इसके अलावा, सरकार को किसी तरह के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए लोगों को वर्गीकृत करना चाहिए।

इस मामले में सरकार ने समाचार पत्र कंपनियों को छोटी, मध्यम और बड़ी कंपनियों में वर्गीकृत किया था और याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि ऐसा वर्गीकरण अनुचित है और अनुच्छेद 14 के खिलाफ है। हालांकि, अदालत ने इस अनुच्छेद का हवाला देते हुए कहा कि वर्गीकरण उचित है और समानता के अधिकार के खिलाफ नहीं है।

संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a)

यह अनुच्छेद व्यक्ति को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। यह अनुच्छेद देश के नागरिकों को स्वतंत्र रूप से भाषण और अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार प्रदान करता है, हालाँकि, संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत दी गई कुछ स्थितियों में सरकार द्वारा उन पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

अनुच्छेद 19(2) राज्य को लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने की शक्ति देता है। नागरिकों पर प्रतिबंध तब लगाए जा सकते हैं जब कोई व्यक्ति निम्नलिखित बयान देता है:

  • भारत की संप्रभुता और अखंडता के विरुद्ध,
  • राज्य की सुरक्षा के विरुद्ध,
  • जो देश के अन्य विदेशी देशों के साथ संबंधों को प्रभावित करता है,
  • जो सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने की प्रवृत्ति रखता है,
  • जो अभद्र या अनैतिक है,
  • जो न्यायालय की अवमानना ​​के बराबर है,
  • जो किसी अन्य व्यक्ति को बदनाम करने की प्रवृत्ति रखता है,
  • हिंसा भड़काने के लिए।

इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने कहा कि सरकार द्वारा कर लगाने से उनके भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होता है। इसलिए, न्यायालय ने अनुच्छेद 19(1)(a) का हवाला दिया और कहा कि हालांकि इस अनुच्छेद में प्रेस की स्वतंत्रता का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन अनुच्छेद की भाषा से इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए न्यायालय ने माना कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में प्रेस का अधिकार भी शामिल है।  

संविधान का अनुच्छेद 19(1)(g)

यह अनुच्छेद नागरिकों को कोई भी व्यापार, पेशा या व्यवसाय करने का अधिकार प्रदान करता है। इसमें कहा गया है कि सभी व्यक्तियों को सरकार की ओर से किसी भी प्रतिबंध के बिना अपने पसंद का व्यापार चुनने का अधिकार है। हालाँकि, संविधान राज्य को अनुच्छेद 19(6) के तहत इस अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाने की शक्ति भी देता है। राज्य निम्नलिखित परिस्थितियों में इस अधिकार को प्रतिबंधित कर सकता है:

  • राज्य किसी भी संगठन में रोजगार के लिए आवश्यक योग्यता के संबंध में नियम बना सकता है और इसके द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति को उस विशेष संगठन में रोजगार पाने से रोक सकता है, जिसके पास वांछित योग्यता नहीं है। 
  • राज्य के पास किसी भी व्यापार या कारोबार पर एकाधिकार करने की शक्ति है, जिसका संचालन विशेष रूप से राज्य निगमों द्वारा किया जाता है, तथा वह किसी भी नागरिक या नागरिकों के समूह को ऐसा व्यापार या कारोबार करने से रोक सकता है।

याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि प्रतिवादियों ने उनके व्यापार की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सरकार द्वारा कर लगाने से उनकी कंपनी के राजस्व में कमी आई है। याचिकाकर्ताओं के दावे का पता लगाने के लिए, अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) का हवाला दिया और माना कि कर लगाने से याचिकाकर्ताओं के व्यापार के अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है। 

सीमा शुल्क अधिनियम, 1962

धारा 13(2)

यह धारा केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर एवं सीमा शुल्क समिति को भारत में आयातित या भारत से निर्यातित किसी भी माल या माल के वर्ग के लिए टैरिफ मूल्य तय करने के लिए आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना (नोटिफिकेशन) जारी करने की शक्ति देती है। समिति द्वारा ऐसा मूल्य तय करने के बाद, शुल्क ऐसे टैरिफ मूल्य के संदर्भ में लगाया जाएगा। सरकार ने इस प्रावधान के तहत प्रदत्त शक्ति का उपयोग समाचार पत्रों पर कर लगाने के लिए किया।

उठाए गए मुद्दे 

  1. क्या समाचार पत्रों पर आयात शुल्क लगाना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत याचिकाकर्ताओं को प्रदत्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है?
  2. क्या समाचार पत्रों को आकार के आधार पर वर्गीकृत करने से संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन हुआ है?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ताओं के तर्क

  • इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत उनके भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन किया है क्योंकि सरकार द्वारा लगाए गए कर के कारण उनके समाचार पत्रों के प्रसार में कमी आई है।
  • याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत व्यापार के उनके अधिकार का उल्लंघन किया है। चूंकि सरकार ने समाचार पत्रों पर कर लगाया था, इसलिए याचिकाकर्ताओं को इसकी कीमत बढ़ानी पड़ी। कई लोगों ने अधिक कीमत पर समाचार पत्र खरीदने से इनकार कर दिया, जिससे समाचार पत्र कंपनी के राजस्व में गिरावट आई।
  • इसके अलावा, उन्होंने यह भी तर्क दिया कि सरकार ने समाचार पत्रों पर कर लगाने का फैसला इसलिए किया क्योंकि सरकार याचिकाकर्ताओं की अभिव्यक्ति और भाषण पर प्रतिबंध लगाना चाहती थी और साथ ही वह आम जनता को समाचार पत्रों में प्रकाशित जानकारी तक पहुंचने से रोकना चाहती थी। 

प्रतिवादियों के तर्क 

  • प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि सरकार का प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने का कोई इरादा नहीं है। इसके बजाय, उन्होंने तर्क दिया कि कर सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए और सरकार के राजस्व को बढ़ाने के लिए लगाया गया था। 
  • सरकार ने यह भी तर्क दिया कि लगाया गया कर उचित है तथा यह भी तर्क दिया कि संविधान के तहत कर लगाना उसका कर्तव्य है।

इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बॉम्बे) बनाम भारत संघ एवं अन्य 1986 में निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को अख़बारी (न्यूज़प्रिंट) पर लगाए गए कर नीति पर पुनर्विचार करने का आदेश दिया। साथ ही यह भी घोषित किया कि अख़बारों पर कर लगाने से प्रेस की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं होता। न्यायालय ने कर लगाने के सरकार के कर्तव्य और संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रेस की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की। न्यायालय ने कहा कि लगाए गए कर उचित होने चाहिए, जिससे अख़बारों पर किसी तरह का बोझ न पड़े। साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि वह यह सुनिश्चित करेगा कि सरकार द्वारा कर लगाए जाने के कारण मीडिया की शक्ति और स्वतंत्रता पर कोई असर न पड़े।

मामले का मुद्दावार (इश्यू वाइस) निर्णय

क्या समाचार पत्रों पर आयात शुल्क लगाना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत याचिकाकर्ताओं को प्रदत्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।

इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने कहा कि भारत सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत प्रेस की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए समाचार पत्रों पर कर लगाया था। इसके अलावा, उन्होंने यह भी दावा किया कि कर लगाने से संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत व्यापार के उनके अधिकार का उल्लंघन हुआ क्योंकि समाचार पत्रों की कीमत बढ़ानी पड़ी जिससे अंततः उनके प्रसार में कमी आई। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 और सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम, 1975 के तहत जिस तरह से कर लगाया गया, उससे कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ गया। 

इसके अलावा, उन्होंने यह भी दावा किया कि अख़बार पर कर लगाने की कोई ज़रूरत नहीं थी क्योंकि 1985 तक अख़बारों को कर से छूट दी गई थी। एक बार में इतनी बड़ी मात्रा में कर लगाने और मुद्रास्फीति (इनफ्लेशन) के कारण याचिकाकर्ताओं के लिए उन पर लगाए गए शुल्क को वहन करना असंभव हो गया। इसलिए, उन्होंने दावा किया कि चूंकि कर की तर्कसंगतता निर्धारित करने के लिए शुल्क वहन करने की क्षमता एक अनिवार्य कारक है, इसलिए सरकार द्वारा लगाया गया कर अनुचित है और इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता है।

हालांकि, प्रतिवादियों ने दावा किया कि जनहित में कर लगाना और सरकार के पास पर्याप्त राजस्व बनाए रखना उनका कर्तव्य है। उन्होंने याचिकाकर्ताओं द्वारा उन पर लगाए गए आरोपों का खंडन किया और दावा किया कि कर लगाना किसी भी तरह के दुर्भावनापूर्ण इरादे से मुक्त था और तर्क दिया कि यह याचिकाकर्ताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ नहीं है।

याचिकाकर्ताओं ने सकाळ पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1961) के मामले का भी हवाला दिया। इस मामले में सकाळ पेपर्स लिमिटेड नाम की एक कंपनी थी जो एक समाचार पत्र प्रकाशन कंपनी थी। इस कंपनी ने समाचार पत्र (मूल्य और पृष्ठ) अधिनियम, 1956 और दैनिक समाचार पत्र (मूल्य और पृष्ठ) आदेश, 1960 की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। इस अधिनियम में प्रावधान था कि समाचार पत्र कंपनियों को पृष्ठों की संख्या के आधार पर समाचार पत्रों की कीमत तय करनी चाहिए। इसने विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए एक निश्चित स्थान भी तय किया और प्रकाशित किए जाने वाले पूरक की संख्या भी निर्धारित की। इसलिए, कंपनी ने दावा किया कि अधिनियम अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत उनके अधिकार का उल्लंघन कर रहा है। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि समाचार पत्र अधिनियम, 1956 और 1960 का आदेश असंवैधानिक था क्योंकि वे प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करते थे

याचिकाकर्ताओं द्वारा जिस दूसरे मामले पर भरोसा किया गया, वह बेनेट कोलमैन एवं अन्य बनाम भारत संघ (1972) का मामला है। इस मामले में, न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या 1972-73 की न्यूज़प्रिंट नीति द्वारा शुरू किए गए प्रतिबंध संवैधानिक थे। इस नीति ने 4 मानदंडों के आधार पर प्रतिबंध लगाए: 

  • सबसे पहले, जब कोई एजेंसी पहले से ही दो समाचार पत्र प्रकाशित कर रही थी, और उनमें से कम से कम एक दैनिक था, तो उन्हें कोई नया समाचार पत्र शुरू करने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
  • दूसरा प्रतिबंध यह था कि कोई भी समाचार पत्र 10 पृष्ठों से अधिक नहीं हो सकता था।
  • इसके अलावा, यदि किसी समाचार पत्र में 10 से कम पृष्ठ हों, तो वे समाचार पत्रों की संख्या में केवल 20% की वृद्धि कर सकते हैं। 
  • एक ही प्रतिष्ठान के विभिन्न समाचारपत्रों के बीच या एक ही समाचारपत्र के विभिन्न संस्करणों के बीच अखबारी कागज के आदान-प्रदान की अनुमति नहीं थी।

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सरकार के पास पृष्ठों की संख्या पर सीमा लगाने का अधिकार नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रकाशित किए जाने वाले पृष्ठों की संख्या पर प्रतिबंध लगाने से न केवल याचिकाकर्ताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगेगा, बल्कि अख़बार में छपने वाले विज्ञापनों में कमी के कारण याचिकाकर्ताओं के राजस्व पर भी असर पड़ेगा। इससे अख़बार की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। 

इस मामले में न्यायाधीशों ने दोनों मामलों पर भरोसा किया और पाया कि दोनों में से कोई भी मामला सरकार के समाचार पत्रों पर कर लगाने के अधिकार से संबंधित नहीं था। न्यायालय ने यह भी पाया कि समाचार पत्र उद्योग को सातवीं अनुसूची की प्रविष्टि 92 सूची 1 के तहत कराधान (टैक्सेशन) से स्पष्ट रूप से छूट नहीं दी गई थी। 

इस मामले में न्यायाधीशों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के पहले संशोधन पर भी भरोसा किया। न्यायालय ने पाया कि भले ही संयुक्त राज्य अमेरिका में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूर्ण थी, फिर भी सरकार के पास समाचार पत्रों पर कर लगाने का अधिकार था, और केवल इसलिए प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त नहीं हो जाती क्योंकि सरकार के पास समाचार पत्रों पर कर लगाने का अधिकार था। भारत में प्रेस की स्वतंत्रता के दायरे पर विचार करते हुए न्यायालय ने पाया कि भारत में प्रेस को दो स्वतंत्रताएँ प्राप्त हैं: 

  • अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 
  • किसी भी पेशे, व्यवसाय, व्यापार या उद्योग में संलग्न होने की स्वतंत्रता। 

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भले ही सरकार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई कर नहीं लगा सकती, लेकिन सरकार प्रेस के पेशे, व्यापार और व्यवसाय की स्वतंत्रता पर कर लगा सकती है। हालांकि, न्यायालय ने यह भी घोषित किया कि लगाया गया कर उचित होना चाहिए और अनुच्छेद 19(2) के तहत उल्लिखित प्रतिबंधों के भीतर होना चाहिए। यदि लगाया गया कर अनुच्छेद 19(2) के तहत सीमाओं के भीतर नहीं है, तो यह असंवैधानिक हो जाता है। न्यायाधीशों द्वारा बताई गई एक और बात यह है कि कर को सरकार द्वारा इस तरह से लगाया जाना चाहिए कि यह समाचार पत्रों पर कोई बोझ न डाले। इसने यह भी माना कि इस मामले में, सरकार ने समाचार पत्रों पर सीमा शुल्क लगाया जो ” ज्ञान पर अधिरोपण (इंपोजिशन) है और वस्तुतः एक व्यक्ति पर साक्षर होने और एक नागरिक के रूप में अपने कर्तव्य के प्रति सचेत होने के लिए अपने आस-पास की दुनिया के बारे में खुद को सूचित करने के लिए लगाया गया बोझ है।

वर्तमान मामले के संदर्भ में, न्यायालय ने माना कि यद्यपि याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि समाचार पत्रों का प्रचलन कम हो गया है, वे यह साबित करने में विफल रहे कि प्रचलन में कमी सरकार द्वारा समाचार पत्रों पर लगाए गए कर का प्रत्यक्ष परिणाम थी। न्यायालय ने पाया कि प्रचलन में कमी विभिन्न कारणों से हो सकती है जैसे कि जीवन-यापन की लागत में वृद्धि, लोगों द्वारा पहले जितने समाचार पत्र खरीदने में अनिच्छा, खराब प्रबंधन, संपादकीय नीति में परिवर्तन, या कुछ फीचर लेखकों की अनुपस्थिति और जरूरी नहीं कि सीमा शुल्क के कारण ऐसा हुआ हो। इसलिए, चूंकि याचिकाकर्ता यह साबित करने में सफल नहीं हुए कि प्रचलन में कमी सरकार द्वारा लगाए गए कर का परिणाम थी, इसलिए न्यायालय ने विवादित कानून को रद्द नहीं किया, बल्कि, उसने सरकार को कर नीति पर पुनर्विचार करने और इस तरह से कर लगाने का निर्देश दिया कि इससे समाचार पत्रों पर बोझ न पड़े।

क्या समाचार पत्रों को आकार के आधार पर वर्गीकृत करने से संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन हुआ है?

समाचार पत्रों पर कर लगाते समय सरकार ने समाचार पत्रों को उनके आकार के आधार पर वर्गीकृत किया था। समाचार पत्रों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया था: छोटे, मध्यम और बड़े। वर्गीकरण किसी विशेष कंपनी द्वारा प्रसारित समाचार पत्रों की संख्या के आधार पर किया गया था। यदि कोई कंपनी 15,000 से कम समाचार पत्र प्रसारित करती है, तो कंपनी को एक छोटी कंपनी माना जाता है और ऐसी कंपनियों को किसी भी आयात शुल्क का भुगतान करने से छूट दी जाती है। यदि कोई कंपनी 15000 और 50,000 समाचार पत्र प्रसारित करती है, तो उस कंपनी को एक मध्यम कंपनी माना जाएगा और उसे 5% मूल्य-वर्धित (एड –वालोरेम) शुल्क का भुगतान करना होगा। इसके अलावा, यदि किसी कंपनी के समाचार पत्रों का प्रसार 50,000 से अधिक है, तो उस कंपनी को एक बड़ी कंपनी माना जाएगा और उसे 15% मूल्य-वर्धित शुल्क का भुगतान करना होगा। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि ऐसा वर्गीकरण तर्कहीन है और संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ है। 

हालांकि, न्यायालय ने पाया कि इस तरह का वर्गीकरण उचित था और इसमें तर्कसंगत संबंध था। ऐसा इसलिए है क्योंकि छोटी और मध्यम कंपनियों के पास अपने समाचार पत्रों में सीमित विज्ञापन होते हैं और इस तरह, ऐसे समाचार पत्रों द्वारा उत्पन्न आय कम होती है। इसलिए, सरकार द्वारा ऐसी छोटी और मध्यम समाचार पत्र कंपनियों की सहायता करने और ग्रामीण पाठकों को बढ़ावा देने के लिए यह वर्गीकरण किया गया था। इसलिए, न्यायालय ने माना कि वर्गीकरण भेदभावपूर्ण नहीं था और संविधान के अनुच्छेद 14 के विरुद्ध नहीं था।

भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा प्रेस की स्वतंत्रता का महत्व

न्यायाधीशों ने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से प्राप्त होने वाले मुख्य सामाजिक उद्देश्यों पर भी प्रकाश डाला। वे इस प्रकार हैं:

  • अधिकार व्यक्ति को आत्म-सिद्धि प्राप्त करने में सहायता करता है,
  • यह सत्य को समझने में मदद करता है,
  • यह व्यक्ति को निर्णय लेने की प्रक्रिया में मदद करता है,
  • यह स्थिरता और सामाजिक परिवर्तन के बीच संतुलन बनाए रखने में मदद करता है। 

भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए न्यायालय ने कहा कि सरकार को समाचार पत्र उद्योग से संबंधित मामलों पर कर लगाते समय अन्य मामलों की तुलना में अधिक सतर्क रहना चाहिए।

न्यायालय ने यह भी माना कि ” प्रेस की स्वतंत्रता सामाजिक और राजनीतिक संबंधों का हृदय है। ” न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया कि वर्तमान समय में मीडिया द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका महत्वपूर्ण है, क्योंकि लोग औपचारिक और अनौपचारिक शैक्षिक उद्देश्यों के लिए मीडिया का उपयोग करते हैं। समाचार पत्र समाज के सभी क्षेत्रों से संबंधित लोगों के बीच सूचना फैलाने का एक महत्वपूर्ण साधन है, क्योंकि टेलीविजन जैसे अन्य मीडिया के माध्यम वंचित वर्ग के लोगों तक नहीं पहुँच पाते क्योंकि वे महंगे होते हैं। सूचना तक पहुँचने का उनके पास एकमात्र उपाय समाचार पत्र ही है। इसलिए, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सरकार को समाचार पत्रों पर कर लगाते समय इन सभी बिंदुओं पर विचार करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लगाया जाने वाला कर उचित हो।

न्यायालय ने यह भी कहा कि समाचार पत्र भी तथ्य और राय प्रकाशित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि समाचार पत्रों में जनता की राय को प्रभावित करने की शक्ति भी होती है और वे अक्सर सरकार की आलोचना करने वाले लेख प्रकाशित करते हैं। ऐसे लेख सरकार के लिए खतरा बनते हैं और सरकारें स्वाभाविक रूप से विभिन्न तरीकों से ऐसे समाचार पत्रों के विचारों को दबाने की कोशिश करती हैं।

इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र बनाम यूओआई (1986) में संदर्भित उदाहरण

रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950)

मामले के तथ्य

इस मामले में, मद्रास राज्य ने ‘क्रॉसरोड्स’ नामक पत्रिका के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया था। ऐसा इसलिए क्योंकि पत्रिका में कुछ ऐसे लेख थे जो सरकार की आलोचना करते थे और मद्रास लोक व्यवस्था रखरखाव अधिनियम, 1949 की धारा 9(1-a) के विरुद्ध थे। इसलिए, याचिकाकर्ता, जो पत्रिका का संपादक (एडिटर) और प्रकाशक था, ने अदालत में याचिका दायर कर दावा किया कि यह धारा उसके भाषण के अधिकार का उल्लंघन करती है। 

मामले का मुद्दा

क्या मद्रास लोक व्यवस्था अनुरक्षण अधिनियम, 1949 की धारा 9(1-a) याचिकाकर्ता के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है। 

मामले का फैसला

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि मद्रास मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर एक्ट, 1949 की धारा 9(1-a) प्रेस की स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है और इसलिए इसे असंवैधानिक घोषित किया। 

बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य (1950)

मामले के तथ्य

इस मामले में याचिकाकर्ता का नाम बृज भूषण शर्मा था। वे स्वतंत्र भारत नामक अख़बार के संपादक और पत्रकार थे। इस अख़बार में उन्होंने एक लेख प्रकाशित किया था जिसमें उन्होंने सरकार की आलोचना की थी। इसलिए उन पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 124 A के तहत देशद्रोह का आरोप लगाया गया और उन्हें पुलिस ने हिरासत में ले लिया। (नए भारतीय न्याय संहिता, 2023 (बीएनएस) से ‘देशद्रोह’ शब्द को हटा दिया गया है और इसकी जगह बीएनएस की धारा 152 के तहत ‘भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाला कृत्य’ शब्द रखा गया है ।) हालांकि, बृज भूषण शर्मा ने कहा कि यह उनके भाषण के अधिकार के खिलाफ है और इसलिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की।

मामले का मुद्दा

क्या याचिकाकर्ता को केवल सरकार की आलोचना करने के कारण हिरासत में लेना उसके भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।

मामले का फैसला 

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है और इस पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि जो भाषण राजद्रोही प्रकृति का हो, उस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है और इस प्रकार, उसने माना कि याचिकाकर्ता के भाषण के अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है।

इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र बनाम यूओआई (1986) में फैसले का विश्लेषण

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को प्रेस की स्वतंत्रता से जुड़ा एक ऐतिहासिक फैसला माना जा सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में अनुच्छेद 19(1)(a) की जिस तरह से व्याख्या की है, वह सराहनीय है। न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील को सही तरीके से नकार दिया कि सरकार द्वारा लगाया गया कर उनके भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी सुनिश्चित किया कि सरकार अखबारों पर अनुचित कर लगाकर कर लगाने की अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करे, क्योंकि सरकार की यह शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।

न्यायालय ने यह भी कहा कि सिर्फ इसलिए कि सरकार के पास सातवीं अनुसूची की प्रविष्टि 92 सूची 1 के तहत कर लगाने का अधिकार है, इसका मतलब यह नहीं है कि यह न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के दायरे से बाहर है। इस तरह न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं को आश्वासन दिया कि उनके भाषण के अधिकार की रक्षा की जाएगी और यह भी सुनिश्चित किया कि सरकार को समाचार पत्रों पर कर लगाने के उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा। तत्काल मामला काफी महत्वपूर्ण है और इसने बाद के विभिन्न सर्वोच्च न्यायालय के मामलों के आधार के रूप में कार्य किया है। अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ (2020) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा किया और माना कि जम्मू और कश्मीर के लोगों को इंटरनेट तक पहुंच से रोकने की सरकार की कार्रवाई अमान्य और अनुच्छेद 19(1)(a) के खिलाफ है। न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों जैसे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध मनमाने ढंग से और गुप्त रूप से नहीं लगाया जा सकता है। 

Lawshikho

निष्कर्ष 

इसलिए, ऊपर जो कहा गया है, उसके मद्देनजर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बॉम्बे) बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उचित और न्यायसंगत है। इसे संविधान के अनुच्छेद 19 से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय भी माना जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अदालत ने प्रेस को उपलब्ध भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे को स्पष्ट किया है। इसके अलावा, इसने यह भी सुनिश्चित किया कि इस फैसले से सरकार को समाचार पत्रों पर कर लगाने के अपने दायित्व के पालन में कोई बाधा न आए। इस प्रकार, यह निर्णय प्रेस के अधिकारों के साथ-साथ सरकार के दायित्व या कर्तव्य के बीच एक सही संतुलन के रूप में कार्य करता है। 

संदर्भ

 

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