कुन्हयाम्मेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2000)

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यह लेख Avneet Kaur द्वारा लिखा गया है। यह कुन्हायम्मेड बनाम केरल राज्य के ऐतिहासिक मामले का व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। यह लेख मामले में शामिल कानूनी बिन्दुओं के साथ-साथ फैसले के विभिन्न पहलुओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। यह आगामी मामलों में निर्णय के बाद की स्थिति का विश्लेषण करने का भी प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय न्यायिक प्रणाली में सर्वोच्च न्यायालय अंतिम प्राधिकार रखता है। कोई अन्य सर्वोच्च प्राधिकारी नहीं है जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की जांच कर सके। सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का भी अधिकार है। ऐसा करने से न्याय के शीघ्र निपटान को सुनिश्चित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पर कुछ विवेकाधिकार भी रखा गया है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय आमतौर पर विशेष अनुमति याचिकाओं को खारिज करते समय स्पष्टीकरण देने का सहारा नहीं लेता है। तदनुसार, बड़ी संख्या में विशेष अनुमति याचिकाएं शुरू में ही खारिज कर दी जाती हैं। इसके बाद, ऐसी याचिकाओं को खारिज करने के परिणामों और विलय के सिद्धांत के बारे में प्रश्न अन्वेषण (एक्सप्लोरेशन) का मुद्दा बन जाता है। 

कुन्हयाम्मेड बनाम केरल राज्य (2000) मामले में ऐतिहासिक निर्णय इस विषय पर बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। अंततः, मामला विभिन्न स्थितियों में विलय के सिद्धांत की प्रयोज्यता के प्रश्न तथा किसी आदेश की पुनर्विलोकन के लिए याचिका दायर करने के अधिकार के साथ विशेष अनुमति याचिकाओं के बीच संबंध के प्रश्न पर निर्णय लेने के लिए आगे बढ़ा। 

मामले का विवरण

मामले का नाम

कुन्हयाम्मेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2000)

फैसले की तारीख

19.07.2000

मामले के पक्ष

याचिकाकर्ता

कुन्हयाम्मद एवं अन्य

प्रतिवादी

केरल राज्य और अन्य।

समतुल्य उद्धरण

एआईआर 2000 सर्वोच्च न्यायालय  2587, 2000 एआईआर एससीडब्लू 2608, (2000) 9 जेटी 110 (एससी) 

मामले का प्रकार

विशेष अनुमति याचिका

शामिल विधान

शामिल कानून

न्यायपीठ

न्यायमूर्ति के.टी. थॉमस, न्यायमूर्ति डी.पी. महापात्रा, न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी

कुन्हायम्मेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2000) के तथ्य 

केरल राज्य ने केरल निजी वन (निहितीकरण और समनुदेशन) अधिनियम, 1971 (जिसे आगे केरल निजी वन अधिनियम कहा जाएगा) अधिनियमित किया, जिसके तहत केरल में निजी वनों का अधिकार सरकार को प्रदान किया गया तथा ऐसी भूमि को खेती के लिए किसानों को सौंपने की शक्ति भी सरकार को प्रदान की गई। यह अधिनियम 10.5.1971 से पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव से लागू हुआ। एक बड़े परिवार ने 1020 एकड़ भूमि क्षेत्र के संबंध में वन न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल), कोझिकोड के समक्ष मामला दायर किया। केरल निजी वन अधिनियम, 1971 के तहत गठित वन न्यायाधिकरण ने 11.08.1982 को अपना आदेश दिया, जिसमें कहा गया कि विचाराधीन भूमि सरकार में निहित नहीं थी। 

वन न्यायाधिकरण के आदेश के विरुद्ध केरल राज्य द्वारा केरल उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई। केरल उच्च न्यायालय ने 17 दिसंबर 1982 को अपील खारिज कर दी। उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील, पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन के लिए कोई उपाय भी उपलब्ध नहीं था। केरल राज्य ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका दायर की। यह याचिका भी 18. 07.1983 को खारिज कर दी गई। 

इसके बाद, 1986 में केरल निजी वन अधिनियम में एक संशोधन किया गया जिसके तहत धारा 8C को 19.11.1983 से पूर्वव्यापी प्रभाव देते हुए अधिनियमित किया गया। धारा 8C के माध्यम से शामिल किए गए विशेष प्रावधान से सरकार को यह अधिकार मिल गया कि वह उच्च न्यायालय से अधिनियम की धारा 8A के तहत पारित आदेश की पुनर्विलोकन करने के लिए कह सकती है, यदि उसके पास यह मानने का कारण हो कि यह आदेश उचित प्राधिकार के बिना दी गई रियायतों या प्रासंगिक सूचना उपलब्ध न कराने के कारण दिया गया था। यह प्रावधान केरल निजी वन संशोधन अधिनियम, 1986 के प्रारंभ से लेकर 31.03.1987 तक एक विशिष्ट अवधि के लिए प्रभावी था। 

तदनुसार, केरल राज्य ने 17.12.1982 को दिए गए अपने आदेश की पुनर्विलोकन के लिए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष आवेदन दायर किया। पुनर्विलोकन आवेदन से व्यथित होकर याचिकाकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की। 

मामले में उठाए गए मुद्दे

  • क्या केरल उच्च न्यायालय 17.12.1982 को पारित अपने आदेश के पुनर्विलोकन के लिए प्रार्थना पर विचार कर सकता है, भले ही ऐसे पुनर्विलोकन में 18.07.1983 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केरल राज्य द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका को खारिज करते हुए पारित आदेश को बाधित या परिवर्तित करने की क्षमता हो।
  • जब उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पुष्टि के माध्यम से एक साथ विलय कर दिए गए हैं, तो क्या उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश के खिलाफ पुनर्विलोकन याचिका दायर करना अभी भी संभव है? 

कुन्हयाम्मेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2000) में पक्षों के तर्क

अपीलकर्त्ता

  • अपीलकर्ताओं के वकील ने कहा कि केरल उच्च न्यायालय का दिनांक 17.12.1982 का आदेश सर्वोच्च न्यायालय के दिनांक 18.07.1983 के विशेष अनुमति याचिका को खारिज करने के आदेश के साथ विलय कर दिया गया है। इसलिए, उच्च न्यायालय का आदेश अब कानून की नजर में अस्तित्व में नहीं है और ऐसे आदेश के पुनर्विलोकन के लिए कोई भी आवेदन पूरी तरह से गुमराह करने वाला है। 
  • इस प्रकार, वकील ने विलय के सिद्धांत पर भरोसा जताया, जिसके अनुसार जब उच्च न्यायालय किसी अपील या याचिका पर आदेश पारित करता है, तो निचली अदालत या न्यायाधिकरण का आदेश उच्च न्यायालय के आदेश में विलय या सम्मिलित हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि निचली अदालत का आदेश अब स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में नहीं है और इसे उच्च न्यायालय के आदेश द्वारा निरस्त माना जाता है। 
  • अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि सर्वोच्च न्यायालय का दिनांक 18.07.1983 का आदेश केरल उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 17.12.1982 को पारित आदेश की पुष्टि करता है। इसलिए, केरल उच्च न्यायालय अपने आदेश के पुनर्विलोकन के लिए आवेदन पर विचार नहीं कर सकता, पुनर्विलोकन अधिकार क्षेत्र के प्रयोग में आदेश में बाधा डालना तो दूर की बात है। दलीलें इस तर्क पर आधारित थीं कि उच्च न्यायालय के आदेश के पुनर्विलोकन के लिए आवेदन स्वीकार्य नहीं है। 

प्रतिवादी

  • प्रतिवादियों की ओर से वकील ने तर्क दिया कि केरल उच्च न्यायालय द्वारा 17.12.1982 को दिया गया आदेश दोषपूर्ण था और उच्च न्यायालय के आदेश का पुनर्विलोकन मांगने का अधिकार केरल निजी वन अधिनियम की धारा 8C द्वारा समर्थित था। यह धारा केरल राज्य को यह अधिकार देती है कि वह उच्च न्यायालय के किसी आदेश के पुनर्विलोकन के लिए कह सकता है, यदि राज्य सरकार के पास यह मानने का कारण हो कि आदेश या तो रियायतों पर आधारित था या उचित प्राधिकार के बिना दिया गया था या प्रासंगिक सूचना का अभाव था। 

कुन्हयाम्मेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2000) मामले में निर्णय

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि केरल उच्च न्यायालय को केरल निजी वन अधिनियम 1971 की धारा 8C के तहत मामलों का पुनर्विलोकन करने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ केरल राज्य सरकार द्वारा की गई अपील को खारिज कर दिया, क्योंकि उन्हें अपील की अनुमति देने का कोई वैध कारण नहीं मिला। 

विलय के सिद्धांत की प्रयोज्यता

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विलय के सिद्धांत के पीछे विचार यह है कि एक ही विषय होने पर कई आदेश या फैसले एक साथ नहीं रह सकते। जब निचली अदालत के आदेश को पुनर्विलोकन के लिए उच्च न्यायालय में ले जाया जाता है, तो निचली अदालत के निर्णय की अंतिमता अनिश्चित हो जाती है। हालाँकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस सिद्धांत का सार्वभौमिक अनुप्रयोग नहीं है। सिद्धांत का अनुप्रयोग उच्चतर न्यायालय के अधिकार क्षेत्र और चुनौती दिए जा रहे विशिष्ट मामलों पर निर्भर करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने शंकर रामचंद्र अभ्यंकर बनाम कृष्णजी दत्तात्रेय बापट (1969) मामले में दिए गए निर्णय का भी उल्लेख किया, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि विलय के सिद्धांत को लागू करने के लिए तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए: 

  • न्यायालय को अपीलीय या पुनर्विलोकन अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिए,
  • अदालत को एक नोटिस जारी करना चाहिए था, और
  • दोनों पक्षों की उपस्थिति में पूरी सुनवाई होनी चाहिए थी। 

न्यायालय ने यू.जे.एस.चोपड़ा बनाम बॉम्बे राज्य (1955) के मामले में इस न्यायालय के पिछले निर्णय का भी उल्लेख किया। इस मामले में यह माना गया कि जब उच्च न्यायालय अपने अपीलीय या पुनर्विलोकन अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए नोटिस देने और दोनों पक्षों की उपस्थिति में पूरी सुनवाई करने के बाद कोई निर्णय सुनाता है, तो वह निर्णय निचली अदालत के निर्णय का स्थान ले लेता है। इसलिए, उच्च न्यायालय का निर्णय अंतिम निर्णय बन जाता है जिसे निचली अदालतों द्वारा कानून के अनुसार लागू किया जाना होता है। 

पुनर्विलोकन याचिका की स्वीकार्यता

न्यायालय ने आगे कहा कि विलय का सिद्धांत और किसी आदेश का पुनर्विलोकन करने का अधिकार परस्पर जुड़ी हुई अवधारणाएं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उच्च न्यायालय के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में विलय करने के मामले में, कोई भी व्यक्ति उच्च न्यायालय से पुनर्विलोकन की मांग नहीं कर सकता, क्योंकि उसका आदेश या निर्णय अब अस्तित्व में नहीं है। यह वह स्थिति हो सकती है जब उच्च न्यायालय का कोई निर्णय या आदेश विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से अपील के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाया जाता है और सर्वोच्च न्यायालय अपील की विशेष अनुमति को खारिज कर देता है। 

हालाँकि, यदि आदेशों का विलय नहीं हुआ है, तो पुनर्विलोकन मांगने का अधिकार अभी भी प्राप्त किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास राज्य बनाम मदुरै मिल्स कंपनी लिमिटेड (1966) के मामले में दिए गए निर्णय पर भी भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि विलय का सिद्धांत सभी स्थितियों में लागू नहीं होता है, जब भी दो आदेश होते हैं, एक अवर न्यायालय द्वारा अपीलीय या पुनर्विलोकन अधिकार क्षेत्र में पारित किया गया हो और दूसरा उच्च न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा अपीलीय या पुनर्विलोकन अधिकार क्षेत्र में पारित किया गया हो। विलय के सिद्धांत की प्रयोज्यता आदेश की प्रकृति और संबंधित न्यायालय को प्रदत्त अधिकार क्षेत्र पर निर्भर करती है। 

ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालय का आदेश या निर्णय कानून की दृष्टि में अभी भी विद्यमान रहता है तथा उसे अपने द्वारा दिए गए आदेशों कानपुनर्विलोकन करने का अधिकार भी प्राप्त है। अभिलेख न्यायालय होने के नाते, उच्च न्यायालय अपने निर्णयों का पुनर्विलोकन भी कर सकता है। हालाँकि, उच्च न्यायालय केवल गुण-दोष के आधार पर ही पुनर्विलोकन आवेदन पर विचार करता है। 

सी.पी.सी.1908 के आदेश 47 नियम 1 के प्रकाश में पुनर्विलोकन अधिकार क्षेत्र 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसी स्थिति में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 47 नियम 1 पर विचार किया जाना चाहिए। इस नियम में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति निम्नलिखित स्थितियों में व्यथित महसूस करता है तो वह किसी निर्णय या आदेश के पुनर्विलोकन के लिए आवेदन कर सकता है- 

  • जहां किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील दायर करने के लिए आवेदन स्वीकार्य है, लेकिन दायर नहीं किया गया है, या
  • जहां किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील की अनुमति नहीं है, या
  • लघु वाद न्यायालय द्वारा लिए गए निर्णय द्वारा

पुनर्विलोकन अन्य विभिन्न आधारों पर भी किया जा सकता है, जैसे कि नए और महत्वपूर्ण साक्ष्य की खोज, जो पूर्व ज्ञान में नहीं थे या मूल कार्यवाही के दौरान प्रस्तुत नहीं किया जा सका था, या रिकॉर्ड पर स्पष्ट गलती या त्रुटि के कारण, या किसी अन्य वैध कारण से। पुनर्विलोकन के लिए आवेदन उस न्यायालय में किया जाना चाहिए जिसने डिक्री या आदेश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि निर्णय या आदेश के विरुद्ध अपील दायर करने के विकल्प की उपलब्धता, पुनर्विलोकन के लिए आवेदन करने के अधिकार पर रोक नहीं लगानी चाहिए, सिवाय इसके कि पुनर्विलोकन के लिए आधार अपीलकर्ता के आधार के समान ही हों। 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पहले परिदृश्य पर विचार किया, जहां किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील की अनुमति है, लेकिन वह अभी तक दायर नहीं की गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के संबंध में तुंगभद्रा इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम आंध्र प्रदेश सरकार (1964) के मामले में दिए गए निर्णय पर भरोसा किया। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष अपील की अनुमति के आवेदन को खारिज कर दिए जाने के बाद पुनर्विलोकन के लिए आवेदन दायर किया गया था। उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष अनुमति याचिका को खारिज करने के अनुरूप पुनर्विलोकन आवेदन को खारिज कर दिया। हालाँकि, यह माना गया कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 47 नियम 1(1) के तहत आवश्यकताएँ पूरी हो जाएँगी यदि पुनर्विलोकन आवेदन दायर करने की तिथि पर कोई अपील दायर नहीं की गई हो। ऐसी स्थिति में, पुनर्विलोकन याचिका पर सुनवाई करने वाले उच्च न्यायालय को लंबित अपील की परवाह किए बिना, आवेदन पर उसके गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेने का अधिकार है। हालाँकि, यदि पुनर्विलोकन आवेदन पर निर्णय होने से पहले अपील का निपटारा कर दिया जाता है, तो पुनर्विलोकन याचिका पर उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र समाप्त हो जाता है। 

इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि चूंकि वर्तमान मामले में, जब पुनर्विलोकन आवेदन दायर किया गया था तब कोई अपील दायर नहीं की गई थी, इसलिए उच्च न्यायालय को पुनर्विलोकन आवेदन पर विचार करने का अधिकार है। 

यदि डिक्री के विरुद्ध अपील के निपटारे से पहले पुनर्विलोकन की अनुमति दे दी जाती है, तो संबंधित डिक्री अस्तित्व में नहीं रहेगी, तथा अपील अप्रासंगिक हो जाएगी तथा उसमें योग्यता का अभाव हो जाएगा। किसी डिक्री के पुनर्विलोकन के बाद उसके विरुद्ध अपील दायर करना संभव नहीं है। आदेश 47 नियम 1 में स्पष्ट किया गया है कि विशेष अनुमति याचिका खारिज होने के बाद भी पुनर्विलोकन दायर किया जा सकता है। इसलिए, इसमें वह स्थिति भी शामिल है जहां विशेष अनुमति प्रदान नहीं की जाती। जब तक विशेष अनुमति नहीं दी जाती, तब तक कानून की दृष्टि में उच्च न्यायालय में कोई अपील नहीं की जा सकती। विशेष अनुमति दिए जाने से पहले ही उच्च न्यायालय में पुनर्विलोकन दायर किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि एक बार अपील की विशेष अनुमति प्रदान कर दिए जाने के बाद, उच्च न्यायालय के आदेश की वैधता पर विचार करने का अधिकार उच्च न्यायालय के पास नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के पास होता है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 का दायरा

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 132 से 136 सर्वोच्च न्यायालय को अपनी अपीलीय अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने का अधिकार देते हैं। ये अनुच्छेद विभिन्न स्थितियों का निर्धारण करते हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील की जा सकती है। हालाँकि, अनुच्छेद 136 एक अद्वितीय प्रावधान है जिसके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय को असाधारण और व्यापक अधिकार क्षेत्र प्राप्त होता है। इन अनुच्छेदों को सर्वोच्च न्यायालय की अवशिष्ट शक्ति के रूप में संदर्भित किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत वे उन मामलों में अपील सुन सकते हैं, जो अन्य अनुच्छेदों में शामिल नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 136 का उद्देश्य पूर्ववर्ती अनुच्छेदों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को खत्म करना है। इससे सर्वोच्च न्यायालय को उचित मामलों में अपील की अनुमति देने के लिए अप्रतिबंधित विवेकाधीन शक्ति प्रदान करने में सहायता मिलती है। हालांकि, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अनुच्छेद 136 किसी भी तरह से लोगों को अपील का अधिकार नहीं देता है, बल्कि यह सर्वोच्च न्यायालय को अपने विवेक और मामले की योग्यता के आधार पर अपील की अनुमति देने या न देने का अधिकार देता है। 

विशेष अनुमति याचिका का दोहरा चरण

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 136 के तहत अपील की विशेष अनुमति के लिए आवेदन स्वीकार करने के प्रत्येक मामले में दो चरण शामिल होते हैं: 

  • सबसे पहले, अपील करने की अनुमति प्रदान करना।
  • दूसरा, अपील की सुनवाई।

मामले के तर्कों और गुण-दोषों पर विचार करने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय या तो अनुमति देने से इंकार कर सकता है और याचिका को या तो विपरीत पक्ष की उपस्थिति के बिना या नोटिस जारी करने के बाद खारिज कर सकता है। यदि सर्वोच्च न्यायालय अनुमति दे देता है तो याचिका अपील के चरण में चली जाएगी। अतः कानूनी स्थिति को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से संक्षेपित किया जा सकता है- 

  • जब अपील की विशेष अनुमति के लिए कोई याचिका सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आती है, तो पहला कदम यह विचार करना होता है कि अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं।
  • अनुमति देने या न देने का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के विवेकाधीन अधिकार क्षेत्र में आता है, न कि उसके अपीलीय अधिकार क्षेत्र में आता है। 
  • यदि याचिका खारिज कर दी जाती है तो इसका अर्थ यह होगा कि सर्वोच्च न्यायालय का यह विचार है कि मामला अनुपयुक्त है तथा इसमें अपील का कोई आधार नहीं है।
  • यदि अनुमति दे दी जाती है, तो इसका अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र प्रारंभ हो गया है। अनुमति मिलने के बाद याचिकाकर्ता सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील कर सकता है। इससे अपीलीय अधिकार क्षेत्र का मार्ग प्रशस्त होता है, जिससे याचिकाकर्ता और प्रतिवादी दोनों को एक-दूसरे का सामना करने का अवसर मिलता है। 
  • इसके अलावा, यदि अपील की विशेष अनुमति के लिए याचिका दायर की जाती है, तो भी मूल निर्णय, डिक्री या आदेश अंतिम रहता है तथा पक्षों के बीच बाध्यकारी होता है। हालाँकि, एक बार अपील की अनुमति दे दी गई तो मूल निर्णय की अंतिमता अनिश्चित हो जाती है और ख़तरे में पड़ जाती है। हालाँकि, यह तब तक प्रभावी और बाध्यकारी है जब तक कि इसे अमान्य नहीं मान लिया जाता या न्यायालय इसके क्रियान्वयन को निलंबित करने के लिए कोई विशिष्ट आदेश जारी नहीं कर देता। 

विशेष अनुमति याचिका को अनुमति देने के चरण में ही गैर-वाक्यात्मक (नॉन-स्पीकिंग) आदेश द्वारा खारिज करना

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब विशेष अनुमति याचिका को बिना किसी कारण के अपील की अनुमति के लिए आवेदन के स्तर पर खारिज कर दिया जाता है, तो यह रेस जुडीकाटा नहीं बनता है और इससे विलय भी नहीं होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कोचीन पोर्ट ट्रस्ट के कर्मकार बनाम कोचीन पोर्ट ट्रस्ट के बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज एवं अन्य (1978) मामले का भी उल्लेख किया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जब किसी विशेष अनुमति याचिका को बिना किसी कारण के गैर-वाक्यात्मक आदेश द्वारा खारिज कर दिया जाता है, तो इसका तात्पर्य ‘रेस जुडिकाटा’ नहीं होता है। बल्कि, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस मामले में अपील के लिए विशेष अनुमति की आवश्यकता नहीं थी। 

इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि न्यायाधिकरण के आदेश के विरुद्ध अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति याचिका को खारिज करने से, संबंधित आदेश के विरुद्ध अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर करने पर स्वतः रोक नहीं लगती है। सर्वोच्च न्यायालय ने मैनेजमेंट ऑफ डब्ल्यू. इंडिया मैच कंपनी लिमिटेड बनाम औद्योगिक न्यायाधिकरण (1958) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें उच्च न्यायालय ने कहा था कि अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की अनुमति मांगने का अधिकार, अपील करने के अधिकार के समान नहीं है, और उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत किसी आवेदन को इस आधार पर खारिज नहीं कर सकता कि याचिकाकर्ता के पास अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में जाने का कोई अन्य उपाय है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मद्रास उच्च न्यायालय का बयान पूरी तरह सही नहीं है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति याचिका पर तभी विचार करने की प्रथा है, जब कोई सामान्य महत्व का कानून या तथ्य का महत्वपूर्ण प्रश्न हो या चुनौती दिए गए आदेश या निर्णय से स्पष्ट अन्याय हो। बिना कारण बताए विशेष अनुमति याचिका खारिज करने का यह अर्थ नहीं है कि न्यायालय ने याचिकाकर्ता की दलीलों को अस्वीकार कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह अवश्य समझा जाना चाहिए कि कार्यभार की अधिकता के कारण न्यायालय प्रायः ऐसे मामलों में विशेष अनुमति प्रदान करता है, जहां पक्ष अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय के माध्यम से प्रभावी राहत प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसे मामलों में, विशेष अनुमति याचिका को बिना किसी स्पष्टीकरण के खारिज कर दिया जाता है, हालांकि, यह पक्ष को अनुच्छेद 226 के तहत राहत मांगने से नहीं रोकता है। यह अनुचित होगा यदि उच्च न्यायालय केवल विशेष अनुमति याचिका खारिज करने के आधार पर राहत देने से इनकार कर दे। सर्वोच्च न्यायालय ने मेसर्स रूप डायमंड्स एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1989) के मामले में दिए गए निर्णय का भी उल्लेख किया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि किसी विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिए जाने मात्र को उस निर्णय की सत्यता को स्वीकार करने का न्यायालय का समर्थन नहीं माना जा सकता, जिसके विरुद्ध अपील की जा रही है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय कर्मचारी कल्याण संघ बनाम भारत संघ एवं अन्य (1989) के मामले में दिए गए निर्णय पर भी भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि जब सर्वोच्च न्यायालय किसी विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर देता है और अनुच्छेद 136 के तहत कारण बताता है, तो वह निर्णय अनुच्छेद 141 के तहत बाध्यकारी हो जाता है। लेकिन यदि विशेष अनुमति याचिका को बिना कोई कारण बताए खारिज कर दिया जाता है, तो इससे अनुच्छेद 141 के तहत कोई कानून स्थापित नहीं होता है। इसलिए, जब किसी विशेष अनुमति याचिका को बिना कारण बताए खारिज कर दिया जाता है, तो इसका अर्थ यह होता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय लिया है कि यह विशेष अनुमति देने के लिए उपयुक्त मामला नहीं है। 

विशेष अनुमति याचिका को वाक्यात्मक आदेश द्वारा खारिज करना

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विशेष अनुमति याचिका को स्पष्ट आदेश द्वारा खारिज करने से विलय नहीं हो जाता। हालाँकि, इसमें अनुशासन नियम और संविधान के अनुच्छेद 141 के प्रावधान लागू हो सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब अपील की अनुमति के लिए याचिका को न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया जाता है, तो ऐसा गैर-वाक्यात्मक आदेश  (कारण बताए बिना) या वाक्यात्मक आदेश (कारण सहित) के माध्यम से किया जा सकता है। गैर-वाक्यात्मक आदेश के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय का आदेश या फैसला मूल आदेश को प्रतिस्थापित नहीं करता है या कोई नया कानून घोषित नहीं करता है। यदि बर्खास्तगी के पीछे कोई कारण है, तो भी इसका परिणाम विलय नहीं होगा, क्योंकि न्यायालय विवेकाधीन अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर रहा है, अपीलीय अधिकार क्षेत्र का नहीं। हालाँकि, आदेश में बताए गए कारणों को संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत कानून की घोषणा माना जा सकता है, जो सभी अदालतों और संबंधित पक्षों पर बाध्यकारी है। पक्ष और वह न्यायालय या न्यायाधिकरण जिसके आदेश को चुनौती दी गई थी, न्यायिक अनुशासन और एकरूपता के सिद्धांत पर आधारित आदेश में दिए गए कथन से बंधे हैं।

अतः वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामले में समाधान हेतु कोई समस्या उपस्थित नहीं है। केरल राज्य ने उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध पहले भी सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी, लेकिन उनकी अपील असफल रही थी। सर्वोच्च न्यायालय को अपील की अनुमति देने के लिए कोई पर्याप्त कारण नहीं मिला। आदेश में निर्णय के लिए विस्तृत स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था तथा यह एक गैर-वाक्यात्मक आदेश था जिसे गुण-दोष के आधार पर खारिज कर दिया गया था, लेकिन इसका मूलतः अर्थ यह है कि न्यायालय को मामले का पुनर्विलोकन करने की आवश्यकता नहीं दिखी। महत्वपूर्ण बात यह है कि केरल उच्च न्यायालय के 17.12.1982 के आदेश की अभी भी पुनर्विलोकन की जा सकती है, क्योंकि यह सर्वोच्च न्यायालय के 18.07.1983 के आदेश के साथ विलयित नहीं हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि केरल उच्च न्यायालय को केरल निजी वन अधिनियम की धारा 8C के तहत ऐसे मामलों का पुनर्विलोकन करने का अधिकार है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती नहीं दी गई है। अपीलकर्ता के वकील ने सुनवाई के दौरान यह तर्क उठाने का प्रयास किया, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली क्योंकि इसे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका में नहीं उठाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण को उचित बताया तथा अपील को बिना किसी लागत के खारिज करने का आदेश दिया।

कुन्हयाम्मेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2000) का आलोचनात्मक विश्लेषण

कुन्हयाम्मेड बनाम केरल राज्य के मामले में निर्णय के निहितार्थ का विस्तृत विश्लेषण निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से अनुमान लगाया जा सकता है-

  • इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब कोई उच्च प्राधिकारी किसी निचली अदालत, न्यायाधिकरण या प्राधिकरण द्वारा लिए गए निर्णय को संशोधित करता है, उलटता है या पुष्टि करता है, तो निचले प्राधिकारी का निर्णय उच्च प्राधिकारी के निर्णय के साथ विलय हो जाता है। उच्चतर प्राधिकारी का निर्णय ही प्रभावी होता है तथा कानून द्वारा लागू किया जाता है। हालाँकि, उच्च एवं निम्न न्यायालयों के संदर्भ में विलय की अवधारणा थोड़ी जटिल हो सकती है। यद्यपि यह सही है कि उच्च न्यायालय द्वारा लिया गया निर्णय सामान्यतः निम्न न्यायालय के निर्णय से अधिक महत्वपूर्ण होता है, तथापि अधिकार क्षेत्र और विषय-वस्तु के आधार पर इसमें कुछ अपवाद भी हो सकते हैं। विलय के सिद्धांत में खामियां, अनिश्चितताएं और अपवाद हैं, तथा इसका अनुप्रयोग विशिष्ट कानूनों, विनियमों और प्रत्येक मामले की विशेष परिस्थितियों से प्रभावित हो सकता है। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि विलय का सिद्धांत सर्वत्र लागू नहीं होता। इसकी प्रयोज्यता उच्चतर प्राधिकारी द्वारा प्रयोग किये जाने वाले अधिकार क्षेत्र की प्रकृति और विशेष मामले की विषय-वस्तु पर निर्भर करती है। उच्च अधिकारी को संबंधित आदेश को पलटने, संशोधित करने या पुष्टि करने की शक्ति होनी चाहिए। विलय के सिद्धांत को अपीलीय अधिकार क्षेत्र के प्रयोग पर लागू किया जा सकता है, विशेष अनुमति याचिका पर निर्णय लेने में विवेकाधीन अधिकार क्षेत्र पर नहीं। इसके अलावा, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि विलय का सिद्धांत चुनौती दिए गए आदेश को उच्चतर न्यायालय के निर्णय से प्रतिस्थापित नहीं करता है। इसके बजाय, इसका अर्थ यह है कि उच्च न्यायालय का निर्णय बाध्यकारी और आधिकारिक हो जाता है, जबकि निचली अदालत का निर्णय बरकरार रहता है। 
  • इस मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण मामलों की जांच की, उनमें से सबसे मौलिक यह था कि क्या अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) को खारिज करने के बाद उच्च न्यायालय के पिछले आदेश के खिलाफ अनुच्छेद 226 के तहत पुनर्विलोकन याचिका दायर की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व के निर्णयों को दरकिनार करते हुए कहा कि ऐसी परिस्थितियों में पुनर्विलोकन याचिका दायर की जा सकती है। इस निर्णय के पीछे तर्क निष्पक्षता और न्याय सुनिश्चित करना था। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विशेष अनुमति याचिका को खारिज करना, संबंधित पक्षों के अधिकारों का अंतिम निर्धारण नहीं माना जाना चाहिए और न ही इसे सभी उपचारों की समाप्ति माना जाना चाहिए। विशेष अनुमति याचिका के खारिज होने के बाद पुनर्विलोकन याचिका की अनुमति देने से, पक्षों को निवारण की मांग करने का अवसर मिलेगा, यदि उन्हें लगता है कि पहले के निर्णय में कोई त्रुटि या अन्याय था। सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय की अखंडता और प्राधिकार को बनाए रखने के महत्व को भी स्वीकार किया। 

कुन्हयाम्मेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2000) में चर्चित कानून

केरल निजी वन (निहितीकरण और समनुदेशन) अधिनियम, 1971)

केरल निजी वन (निहितीकरण एवं समनुदेशन) अधिनियम, 1971 में केरल में निजी वनों के प्रबंधन एवं संरक्षण के उद्देश्य से कई प्रावधान हैं। ये प्रावधान निजी वनों से संबंधित मामलों से संबंधित थे, जैसे कि उनका वर्गीकरण, सरकार, वन मालिकों और वनाधिकारियों के अधिकार और दायित्व। अधिनियम की मुख्य विशेषताओं में से एक यह थी कि केरल राज्य में निजी वनों का स्वामित्व और नियंत्रण राज्य सरकार के पास होगा। 

  • धारा 8A: यह राज्य सरकार को यह शक्ति प्रदान करती है कि यदि राज्य वन न्यायाधिकरण के निर्णय से सहमत नहीं है तो वह उसके आदेश की तिथि से 60 दिनों के भीतर उच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकती है। ऐसी अपील प्राप्त होने पर, उच्च न्यायालय न्यायाधिकरण के निर्णय की पुष्टि या उसे रद्द कर सकता है या उसे न्यायाधिकरण को वापस भेज सकता है या कोई अन्य उचित आदेश दे सकता है। धारा 8A के तहत की गई ऐसी अपील में उच्च न्यायालय द्वारा लिया गया कोई भी निर्णय अंतिम माना जाता है।
  • धारा 8C: यह राज्य सरकार को किसी सीमा के बावजूद कुछ मामलों में पुनर्विलोकन के लिए आवेदन करने की अनुमति देता है। सरकार वन न्यायाधिकरण के निर्णय के विरुद्ध अपील दायर कर सकती है, यदि उसके पास यह मानने का कारण हो कि निर्णय रियायतों पर आधारित है या उचित सूचना के बिना लिया गया है। इसके अतिरिक्त, निर्णय की प्रमाणित प्रति प्राप्त करने में देरी होने पर सरकार अपील दायर कर सकती है। इसी प्रकार, सरकार भी उपरोक्त आधारों पर उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश के विरुद्ध अपील दायर करने की हकदार है। 

इस प्रावधान का विवादास्पद पहलू यह है कि यह केरल सरकार द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज किये जाने के ठीक बाद लागू हुआ। 

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 47, नियम 1

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 47 नियम 1 किसी डिक्री या आदेश के पुनर्विलोकन के लिए आवेदन दायर करने के प्रावधानों से संबंधित है। यह प्रावधान उस प्रक्रिया और परिस्थितियों को सूचीबद्ध करता है जिसके तहत कोई व्यक्ति किसी निर्णय के पुनर्विलोकन के लिए आवेदन कर सकता है। कोई व्यक्ति निम्नलिखित परिस्थितियों में पुनर्विलोकन हेतु आवेदन कर सकता है- 

  • यदि अपील की जा सकती है, लेकिन अभी तक की नहीं गई है।
  • यदि किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील की अनुमति नहीं है।
  • यदि लघु वाद न्यायालय से प्राप्त संदर्भ पर निर्णय लिया गया हो। 

इसके अलावा, यह भी दर्शाया जाना चाहिए कि पुनर्विलोकन के लिए आवेदन करने के पीछे का कारण या तो मामले के लिए महत्वपूर्ण नए साक्ष्य की खोज है, या कोई प्रथम दृष्टया गलती या त्रुटि है, या कोई अन्य वैध कारण है। इसमें आगे यह भी प्रावधान है कि पुनर्विलोकन के लिए आवेदन उसी न्यायालय में किया जाना चाहिए जिसने प्रथम बार आदेश दिया था। इसलिए, इसका उद्देश्य गलतियों को सुधारने का एक तरीका प्रदान करना और किसी भी नए साक्ष्य पर विचार करना है जो मामले के निर्णय को प्रभावित कर सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि आवेदन को स्वीकार करना या अस्वीकार करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। आवेदन केवल निर्धारित समय-सीमा के भीतर ही दायर किया जा सकता है। 

भारत का संविधान, 1950

कुन्हयाम्मद मामले में भारतीय संविधान के कई प्रावधानों जैसे अनुच्छेद 136, 141 और 226 पर चर्चा की गई। ये अनुच्छेद महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जो भारतीय कानूनी प्रणाली के भीतर विभिन्न संस्थाओं को कुछ शक्तियां और अधिकार क्षेत्र प्रदान करते हैं। 

  • अनुच्छेद 136: यह अनुच्छेद भारत के सर्वोच्च न्यायालय को किसी मामले में अपील के लिए विशेष अनुमति देने की विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है, यदि कोई असाधारण परिस्थिति हो या कानून या तथ्य का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हो। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय को अपील के लिए विशेष अनुमति देने या अस्वीकार करने का विवेकाधिकार प्राप्त है। विशेष अपील की अनुमति दाखिल करने के लिए निर्दिष्ट समय-सीमा उस निर्णय जिसके विरुद्ध अपील की जा रही है, या आदेश की तारीख से 90 दिन है। लेकिन यदि इसके बाद कोई आवेदन दायर किया जाता है, तो सर्वोच्च न्यायालय उसे अनुमति दे सकता है, बशर्ते कि विलंब को उचित ठहराने वाली कोई असाधारण परिस्थिति हो। कुछ मामले ऐसे हैं जो अनुच्छेद 136 के दायरे से बाहर रहते हैं, जैसे सशस्त्र बलों से संबंधित न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा पारित निर्णय, आदेश, सजा और निर्धारण। 
  • अनुच्छेद 141: यह अनुच्छेद भारतीय विधिक प्रणाली में पूर्व निर्णयों के सिद्धांत की नींव रखता है, जिसे स्टेयर डेसीसिस के नाम से भी जाना जाता है। यह अनुच्छेद स्थापित करता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून भारत के क्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होगा। इसका अर्थ यह है कि मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिए गए निर्णय और व्याख्याएं कानूनी मिसाल कायम करती हैं जिनका निचली अदालतों को पालन करना चाहिए। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय का संपूर्ण निर्णय बाध्यकारी नहीं है। यह निर्णय के पीछे का तर्क है जिसे समान परिस्थितियों से संबंधित प्रश्न पर निर्णय लेते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए। 
  • अनुच्छेद 226: यह अनुच्छेद उच्च न्यायालयों को बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस), परमादेश (मेंड़मस), प्रतिषेध (प्रोहिबिशन), अधिकार पृच्छा (क्वो वारंटो) और उत्प्रेषण (सर्टिओरारी) रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है। ये रिट मौलिक अधिकारों की सुरक्षा और कानून के शासन को लागू करने के लिए आवश्यक उपकरण हैं। उच्च न्यायालय इन रिटों का उपयोग यह सुनिश्चित करने के लिए कर सकते हैं कि सरकार और उसके प्राधिकारियों की कार्रवाई कानून के अनुरूप हो। 

ये संवैधानिक प्रावधान न्याय के सिद्धांतों को कायम रखने, कानून के अनुप्रयोग में एकरूपता सुनिश्चित करने तथा भारत में व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

निष्कर्ष

कुन्हयाम्मेड बनाम केरल राज्य मामले में दिया गया निर्णय एक ऐतिहासिक निर्णय था जिसका भारतीय न्याय व्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। विशेष अनुमति याचिका खारिज होने के बाद भी पुनर्विलोकन याचिका दायर करने की अनुमति देकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निष्पक्षता और न्याय सुनिश्चित करने का वादा प्रदर्शित किया है। इस निर्णय में इस बात को महत्व दिया गया कि यदि पक्षों को लगता है कि पिछले निर्णय में कोई त्रुटि या अन्याय हुआ है तो उन्हें निवारण का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। ऐसे मामलों में पुनर्विलोकन याचिकाओं को अनुमति देकर न्यायालय ने न्याय के हितों की बेहतर पूर्ति के लिए कानूनी ढांचे को अनुकूलित करने और विकसित करने की अपनी इच्छा दर्शाई है। 

निष्कर्षतः, कुन्हयाम्मेड मामले में दिया गया निर्णय कानून की विकासशील प्रकृति के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाता है। यह भविष्य के मामलों के लिए एक मिसाल के रूप में कार्य करता है और इस धारणा को बल देता है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

विशेष अनुमति याचिका क्या है?

यह भारत में उपलब्ध एक कानूनी उपाय है जो किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी आदेश, निर्णय या फैसले से व्यथित व्यक्तियों को ऐसे आदेश, निर्णय या फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुमति लेने की अनुमति देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 में इस संबंध में प्रावधान दिया गया है। हालाँकि, सशस्त्र बलों से संबंधित किसी भी निर्णय, आदेश, डिक्री या निर्धारण के मामले में अपील करने का यह अवसर उपलब्ध नहीं है। 

विलय का सिद्धांत क्या है?

विलय का सिद्धांत एक कानूनी सिद्धांत है जो यह प्रावधान करता है कि जब निचली अदालत के फैसले के खिलाफ अपील दायर की जाती है और उच्च न्यायालय मामले का पुनर्विलोकन करता है और अपना फैसला सुनाता है, तो निचली अदालत के फैसले को उच्च न्यायालय के फैसले में “विलय” माना जाता है। उच्च न्यायालय का आदेश ही एकमात्र प्रभावी आदेश होता है तथा निचली अदालत का आदेश समाप्त हो जाता है। 

विशेष अनुमति याचिका के दो चरण क्या हैं?

विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) में दो चरण शामिल होते हैं। पहला चरण अपील की अनुमति के लिए आवेदन दाखिल करना है। यह तब होता है जब याचिकाकर्ता किसी निचली अदालत या न्यायाधिकरण के निर्णय या आदेश के विरुद्ध अपील करने के लिए विशेष अनुमति मांगते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करता है। दूसरा चरण विशेष अपील की सुनवाई का है। यदि सर्वोच्च न्यायालय अपील पर सुनवाई की अनुमति देता है, तो वह मामले का पुनर्विलोकन करेगा और यह निर्णय लेगा कि निचली अदालत के निर्णय को बरकरार रखा जाए या उसे रद्द किया जाए। 

संदर्भ

 

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