यह लेख Sumaiyya Anas द्वारा लिखा गया है। इसमें मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (आर्बिट्रेशन एंड कांसिलीएशन), 1996 के तहत एक मध्यस्थ को हटाने के आधार को शामिल किया गया है। यह लेख मध्यस्थ के रूप में किसे नियुक्त किया जा सकता है, निर्धारित गुण और विशेषताएं और अयोग्यताएं, साथ ही न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) की संरचना पर एक विस्तृत जानकारी प्रदान करता है। इसमें कानूनी मामले और स्पष्टीकरणों के साथ मध्यस्थों की नियुक्ति, चुनौती, निष्कासन, समाप्ति और प्रतिस्थापन के लिए निर्धारित प्रक्रियाओं का गहन विश्लेषण शामिल है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारत के लोगों की विशाल जनसांख्यिकी के कारण अक्सर कानूनी प्रणाली, विशेषकर न्यायपालिका में भीड़भाड़ हो जाती है। इसे दरकिनार करने के लिए, विवाद समाधान के वैकल्पिक तरीकों का उपयोग किया जाता है, जिसमें मध्यस्थता सबसे आम है। यह व्यापक रूप से और अच्छी तरह से स्थापित है, जो विवाद करने वाले पक्षों को विवाद समाधान और न्याय की दिशा में एक वैकल्पिक मार्ग प्रदान करता है। मध्यस्थता का एक प्रमुख पहलू कमियों को दूर करते हुए मुकदमेबाजी के फायदों को शामिल करना है। एक लाभ में मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के अनुसार मध्यस्थ के चयन और नियुक्ति में योगदान देने वाले पक्ष शामिल हैं।
अधिनियम धारा 10 और धारा 11 में मध्यस्थ की नियुक्ति की प्रक्रिया के विभिन्न चरणों के लिए व्यापक दिशानिर्देश प्रदान करता है, जिसमें धारा 12 और धारा 13 के तहत वे शर्तें शामिल हैं जिनके तहत एक इकाई को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, और वे शर्तें जिनमें विफल होने पर मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है। इसमें मध्यस्थ को हटाने और उनके जनादेश को समाप्त करने की प्रक्रिया और आधार भी शामिल हैं। इसके बाद, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम धारा 15 में हटाए गए मध्यस्थों के प्रतिस्थापन के लिए निर्धारित प्रक्रिया प्रदान करता है।
मध्यस्थ कौन है
विवाद की देखरेख और समाधान के लिए किसी तटस्थ (न्यूट्रल) पक्ष के बिना मध्यस्थता प्रक्रिया अधूरी है। मध्यस्थ स्वतंत्र, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष तीसरे पक्ष की संस्थाएं हैं जिनका विवाद से कोई संबंध नहीं है, जिन्हें मुद्दे का समाधान करने वाला निर्णय पारित करने के लिए नियुक्त किया जाता है। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 18 में कहा गया है कि विवाद के पक्षों के साथ समानता का व्यवहार किया जाना चाहिए, और मध्यस्थों को उन्हें अपना पक्ष प्रस्तुत करने का पूरा अवसर प्रदान करना चाहिए।
मध्यस्थ की योग्यताएँ
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 196, कोई योग्यता या विशेषताएँ प्रदान नहीं करता है जिसे एक इकाई को मध्यस्थ बनने के लिए पूरा करना होगा। जैसा कि धारा 11 उप-धारा (1) में कहा गया है, यह पक्षों का विवेक है कि वे अपने विवाद में मध्यस्थ के रूप में किसी भी राष्ट्रीयता के व्यक्ति को नियुक्त करना चुनें। धारा 11 की उप-धारा (2) पक्षों को न केवल अपनी पसंद के मध्यस्थों को नियुक्त करने की स्वतंत्रता प्रदान करती है, बल्कि ऐसा करने की प्रक्रिया भी निर्धारित करने की स्वतंत्रता प्रदान करती है। इसका मतलब यह है कि किसी भी संस्था या व्यक्ति के लिए किसी विवाद में मध्यस्थ बनने का दायरा तब तक बहुत बड़ा है, जब तक विवाद करने वाले पक्ष नियुक्ति के लिए सहमति के पात्र हैं।
एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण की संरचना
मध्यस्थ न्यायाधिकरणों की संरचना की शर्तें और विनियमन अधिनियम के अध्याय III के अंतर्गत आते हैं।
मध्यस्थों की संख्या
अधिनियम की धारा 10 – “मध्यस्थों की संख्या” पक्षों को मध्यस्थों की संख्या चुनने की स्वतंत्रता देती है, इस शर्त के साथ कि यह एक विषम संख्या होनी चाहिए। यदि पक्ष मध्यस्थों की संख्या पर सहमत होने में असमर्थ हैं, तो एकमात्र मध्यस्थ हो सकता है।
मध्यस्थों की नियुक्ति
मध्यस्थों की नियुक्ति की प्रक्रिया अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत आती है। यदि पक्षों के बीच हस्ताक्षरित मध्यस्थता समझौते के अनुसार भी वह मध्यस्थों को चुनने में असमर्थ हैं, तो निर्धारित प्रक्रिया निम्मलिखित है:
- प्रत्येक पक्ष एक व्यक्ति को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त करता है,
- फिर, चुने गए मध्यस्थ अंतिम एकल व्यक्ति को नियुक्त करेंगे, जो पीठासीन मध्यस्थ के रूप में कार्य करेगा।
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 11 उप-धारा (4)(a) के अनुसार, पक्षों को विपरीत पक्ष से मध्यस्थता का अनुरोध प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर मध्यस्थ नियुक्त करने का प्रयास करना चाहिए। यदि विवाद के पक्ष सीमा के भीतर चयन करने में विफल रहते हैं, तो धारा 11 उप-धारा (4)(b) के अनुसार, उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, या न्यायालय द्वारा सौंपी गई मध्यस्थ संस्था में से किसी एक को नियुक्ति दी जानी चाहिए। इन अधिकारियों को मध्यस्थों की नियुक्ति से पहले उनकी विशेषज्ञ योग्यता, स्वतंत्रता या संबद्धता और निष्पक्षता को सत्यापित करना होगा। उपर्युक्त गुणों के संबंध में मध्यस्थों से लिखित खुलासे भी लिए जाते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता के मामलों के लिए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय या उनके द्वारा अधिकृत व्यक्ति या संस्था एक मध्यस्थ नियुक्त करेगी। पूर्ण निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए यह मध्यस्थ विवाद करने वाले पक्षों से भिन्न राष्ट्रीयता का होना चाहिए।
सर्वोच्च या उच्च न्यायालय या मध्यस्थ संस्था में धारा 11 उपधारा (13) के तहत की गई नियुक्ति के लिए आवेदन का निपटारा विपरीत पक्ष के लिए नोटिस पर उल्लिखित तामील की तारीख से तीस दिनों के भीतर किया जाना चाहिए।
जो मध्यस्थ नहीं हो सकता
कुछ व्यक्ति किसी विवाद में निष्पक्ष और न्यायपूर्ण सफल मध्यस्थता प्रक्रिया प्राप्त करने के लिए मध्यस्थ के रूप में नियुक्त होने के पात्र नहीं हैं। अधिनियम की धारा 12 उप-धारा (5) निर्देश देती है कि जब तक कोई पूर्व समझौता न हो, ऐसे व्यक्ति जिनका पक्षों, वकील या विवाद के साथ किसी भी क्षमता में व्यक्तिगत या व्यावसायिक संबंध है, प्रासंगिक कार्यवाही में मध्यस्थ नहीं हो सकते हैं।
अधिनियम की सातवीं अनुसूची उन शर्तों को प्रदान करती है जो किसी व्यक्ति को किसी विशेष विवाद में मध्यस्थ के रूप में चुने जाने से अयोग्य ठहराती है, जिसे विस्तृत रूप से सूचीबद्ध किया गया है:
- यदि मध्यस्थ और वकील या पक्षों या अन्य मध्यस्थों के बीच कोई संबंध मौजूद है:
- यदि मध्यस्थ पहले कर्मचारी, सलाहकार रहा है या वर्तमान में है या दोनों पक्षों में से किसी के साथ कोई अन्य व्यावसायिक संबंध है।
- यदि मध्यस्थ वर्तमान में किसी भी पक्ष या उनके सहयोगी का प्रतिनिधित्व या सलाह दे रहा है।
- यदि मध्यस्थ वर्तमान में किसी वकील या फर्म का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो दोनों पक्षों में से किसी एक के लिए वकील के रूप में कार्य कर रहा है।
- यदि मध्यस्थ उसी फर्म में वकील के रूप में कार्यरत है जो वर्तमान में दोनों पक्षों में से किसी एक का प्रतिनिधित्व कर रहा है।
- यदि मध्यस्थ के पास किसी भागीदार के किसी सहयोगी में प्रबंधकीय, प्रभावशाली या नियंत्रित पेशेवर स्थिति है, यदि उक्त सहयोगी मौजूदा विवाद में शामिल है।
- यदि मध्यस्थ जिस कानूनी फर्म में कार्यरत है, वह पहले से ही विवाद में शामिल थी, भले ही मध्यस्थ सहायता नहीं कर रहा था या उसे समाप्त कर दिया गया था।
- यदि मध्यस्थ की फर्म वर्तमान में किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों के साथ एक महत्वपूर्ण व्यवसाय या वित्तीय संबंध में शामिल है।
- यदि दोनों पक्षों में से कोई एक या पक्षों का प्रबंधन मध्यस्थ का निकटतम रिश्तेदार है।
- यदि दोनों में से किसी एक पक्ष का प्रतिनिधित्व मध्यस्थ द्वारा किया जा रहा है।
- यदि मध्यस्थ किसी भी पक्ष या कार्यवाही के परिणाम में पर्याप्त मौद्रिक हित रखता है।
- मध्यस्थ और मौजूदा विवाद के बीच संबंध का अस्तित्व:
- यदि मध्यस्थ ने पहले किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों को विवाद पर कानूनी सलाह या विशेषज्ञता प्रदान की है।
- यदि मध्यस्थ की वर्तमान विवाद में कोई पिछली भागीदारी रही हो।
- मौजूदा विवाद में मध्यस्थ की रुचि:
- यदि मध्यस्थ के पास किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों में से किसी भी शेयर का मालिक है, चाहे वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो, निजी तौर पर रखा गया हो।
- यदि मध्यस्थ के किसी निकटतम रिश्तेदार का कार्यवाही के परिणाम में पर्याप्त मौद्रिक हित है।
- यदि मध्यस्थ या उनके निकटतम रिश्तेदार का किसी असंबद्ध तीसरे पक्ष के साथ घनिष्ठ संबंध है, जो प्रतिकूल पंचाट प्राप्त करने वाले पक्ष की ओर से सहारा लेने के लिए उत्तरदायी हो सकता है।
एक मध्यस्थ को हटाना
विभिन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं जो एक या अधिक मध्यस्थों को मध्यस्थ बनने के लिए अयोग्य बना सकती हैं। ऐसा उनके आंशिक, पक्षपाती, अन्यायपूर्ण होने या उनकी अपेक्षित अनुपलब्धता के परिणामस्वरूप हो सकता है। मध्यस्थों को हटाने को आम तौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती
जब किसी व्यक्ति से मध्यस्थ के रूप में नियुक्त होने के लिए संपर्क किया जाता है, तो वे कुछ जानकारी का खुलासा करने के लिए बाध्य होते हैं। अधिनियम की धारा 12 नियुक्ति को चुनौती देने के आधार को नियंत्रित करती है। इसमें कहा गया है कि व्यक्ति को लिखित रूप में किसी भी परिस्थिति या संबंध का विवरण देना चाहिए, चाहे वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो, जो कि पक्षों के हित में हो या जो विवाद हो। कहा गया हित अतीत या वर्तमान का हो सकता है, और व्यावसायिक, वित्तीय, पेशेवर, पारिवारिक या किसी अन्य प्रकृति का हो सकता है। ऐसी कोई स्थिति नहीं होनी चाहिए जो मध्यस्थ की निष्पक्षता और स्वतंत्रता में संदेह पैदा कर सके। व्यक्ति को यह भी बताना होगा कि क्या वे इस प्रक्रिया को करने में सक्षम हैं और इसे बारह महीनों के भीतर सर्वोत्तम ढंग से पूरा करने के लिए पर्याप्त समय समर्पित करना होगा।
यह खुलासा बिना किसी देरी के होना चाहिए। धारा 12 उप-धारा (1) (b) निर्देश देती है कि ऐसे खुलासे उसी फॉर्म में किए जाने चाहिए जो अधिनियम की छठी अनुसूची के तहत प्रदान किया गया है।
एक मध्यस्थ की समापन
जब धारा 13 उप-धारा (5) के तहत किए गए आवेदन के आधार पर एक मध्यस्थ पंचाट (अवार्ड) को रद्द कर दिया जाता है, तो अदालत इस बात पर निर्णय लेगी कि अपने आप से चुनौती देने वाला मध्यस्थ किसी शुल्क का हकदार है या नहीं।
मध्यस्थ की चुनौती के अलावा, कुछ परिस्थितियों में उनका अधिदेश समाप्त किया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें “हटाया” जा सकता है। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 की धारा 14 और धारा 15 इस संबंध में दिशानिर्देश प्रदान करती है।
मध्यस्थ को हटाने का आधार
विभिन्न परिस्थितियाँ और मुद्दे एक मध्यस्थ को चुनौती या समाप्ति के माध्यम से हटाने के लिए उत्तरदायी बनाते हैं। इसमें मध्यस्थों का कार्यवाही से हटना या मामले में मध्यस्थ की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर संदेह करने का उचित कारण रखने वाले पक्ष शामिल हैं।
चुनौती के लिए आधार
एक बार मध्यस्थ नियुक्त हो जाने के बाद, इसे मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 12 की उप-धारा (3) के तहत चुनौती दी जा सकती है, इस शर्त पर कि:
- ऐसी स्थिति मौजूद है जो स्वतंत्रता, रुचि की कमी और निष्पक्षता पर संदेह करने का उचित कारण प्रदान करती है जो एक उचित समाधान के लिए आवश्यक है, या
- मध्यस्थ के पास पक्षों द्वारा वांछित और सहमत विशेषज्ञता या योग्यता नहीं है।
अधिनियम की पांचवीं अनुसूची उन आधारों पर विस्तृत जानकारी प्रदान करती है जिन्हें मध्यस्थ की निष्पक्षता और संबद्धता के संबंध में उचित संदेह माना जाता है:
- मध्यस्थ का किसी भी पक्ष या शामिल वकील के साथ संबंध। इसमें शामिल है, लेकिन यहीं तक सीमित नहीं है:
- यदि मध्यस्थ मध्यस्थता कार्यवाही में किसी भी पक्ष का कानूनी प्रतिनिधि है या विवाद समाधान के परिणाम में वित्तीय रूप से महत्वपूर्ण रुचि रखता है।
- कोई भी अतीत या वर्तमान व्यावसायिक संबंध- कर्मचारी, सलाहकार, आदि।
- यदि मध्यस्थ वर्तमान में किसी एक पक्ष या किसी एक पक्ष के संबंध का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें किसी एक पक्ष के लिए वकील के रूप में कार्य करने वाला वकील या फर्म भी शामिल है।
- यदि मध्यस्थ उसी फर्म में वकील के रूप में कार्यरत है जो किसी भी पक्ष या फर्म के वकील के रूप में प्रतिनिधित्व या कार्य कर रहा है जो पहले इस मुद्दे में शामिल था।
- यदि मध्यस्थ या मध्यस्थ के किसी करीबी परिवार के सदस्य को नियुक्त करने वाली कंपनी वर्तमान में किसी एक पक्ष या उनके सहयोगियों में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी के साथ वित्तीय रूप से शामिल है।
- यदि मध्यस्थ के पास शामिल पक्षों में से किसी एक में प्रबंधकीय, प्रभावशाली या नियंत्रित स्थिति है।
- यदि मध्यस्थ के पास किसी भी पक्ष की संबद्ध फर्म में प्रबंधकीय, प्रभावशाली या नियंत्रित स्थिति है, जो सीधे तौर पर विवाद में रुचि रखता है।
- यदि नियुक्ति करने वाले पक्ष या उनके सहयोगी को नियमित रूप से मध्यस्थ से सलाह मिलती है और उसकी फर्म को इससे महत्वपूर्ण वित्तीय आय प्राप्त होती है या नहीं होती है।
- मौजूदा विवाद में मध्यस्थ की भागीदारी या संबंध:
- यदि मध्यस्थ पहले मामले में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहा हो।
- यदि मध्यस्थ ने पहले किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों को विवाद के संबंध में कानूनी या विशेषज्ञ राय प्रदान की है।
- मध्यस्थ द्वारा विवाद में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हित:
- यदि मध्यस्थ किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निजी तौर पर शेयर रखता है।
- यदि मध्यस्थ का कोई निकटतम रिश्तेदार है जो प्रक्रिया के परिणाम में पर्याप्त वित्तीय हित रखता है।
- यदि मध्यस्थ या कोई तत्काल रिश्तेदार किसी तीसरे असंबंधित पक्ष के साथ घनिष्ठ संबंध रखता है जो संभावित रूप से उस पक्ष की ओर से सहारा लेने के लिए उत्तरदायी है जिसे विवाद में प्रतिकूल निर्णय मिलता है।
- पिछली सेवाओं या अन्यथा के माध्यम से विवाद में मध्यस्थ की भागीदारी:
- यदि मध्यस्थ ने पिछले तीन वर्षों के भीतर वकील के रूप में कार्य किया है या सलाह प्रदान की है या किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों से परामर्श किया है, भले ही अब कोई संबंध मौजूद नहीं है।
- यदि दोनों में से किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों ने पहले दो या अधिक बार अन्य मध्यस्थता कार्यवाही के लिए मध्यस्थ नियुक्त किया है। यह तब भी लागू होता है, जब मध्यस्थ वर्तमान में किसी अन्य संबंधित मध्यस्थता कार्यवाही में सेवा दे रहा हो, जिसमें विवाद में कोई भी पक्ष या उनके सहयोगी शामिल हों।
- यदि मध्यस्थ को नियुक्त करने वाली फर्म ने मध्यस्थ की भागीदारी के बिना और किसी असंबंधित मामले में किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों की ओर से वकील के रूप में कार्य किया है।
- मध्यस्थों या वकील के बीच संबंध या संबद्धता का अस्तित्व:
- यदि मध्यस्थ एक ही फर्म में कार्यरत हैं।
- मध्यस्थ पिछले तीन वर्षों के भीतर किसी अन्य मध्यस्थ या वकील के साथ संबद्ध या भागीदार था।
- यदि मध्यस्थ की उसी फर्म में कार्यरत एक वकील किसी अन्य विवाद में प्रतिनिधित्व कर रहा है जिसमें पक्ष समान हैं या उनके सहयोगी हैं।
- यदि मध्यस्थ का कोई निकटतम रिश्तेदार कानूनी फर्म में शामिल है या कार्यरत है जो दोनों पक्षों में से किसी एक का प्रतिनिधित्व कर रहा है, भले ही वे विवाद पर काम नहीं कर रहे हों।
- यदि पिछले तीन वर्षों के भीतर एक ही कंपनी या वकील द्वारा मध्यस्थ को तीन या अधिक बार नियुक्त किया गया हो।
- यदि किसी मध्यस्थ और किसी भी पक्ष या प्रक्रिया में शामिल किसी अन्य के बीच कोई संबंध मौजूद है:
- यदि मध्यस्थ जिस फर्म में कार्यरत है, वह वर्तमान में किसी अलग मामले में किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों के खिलाफ प्रतिनिधित्व कर रही है।
- यदि मध्यस्थ पिछले तीन वर्षों में किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों के साथ पेशेवर क्षमता में जुड़ा हुआ था।
- अन्य परिस्थितियाँ:
- यदि मध्यस्थ किसी भी पक्ष या उनके सहयोगियों में सामग्री या पर्याप्त संख्या में शेयर रखता है – यदि वह सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध इकाई है।
- यदि मध्यस्थ को किसी मध्यस्थ संस्था में कोई पद प्राप्त है जिसके पास विवाद में नियुक्ति का अधिकार है।
- यदि मध्यस्थ किसी भी पक्ष के किसी सहयोगी में नियंत्रक, प्रबंधकीय या प्रभावशाली पद रखता है जैसे कि निदेशक, या प्रबंधक, या प्रबंधन का हिस्सा है, भले ही उक्त सहयोगी सीधे तौर पर विवाद में शामिल न हो।
अनुसूची बेहतर स्पष्टीकरण के लिए कुछ वाक्यांशों के लिए स्पष्टीकरण भी प्रदान करती है, जैसा कि सातवीं अनुसूची में वर्णित है।
हालाँकि, चुनौती तभी दी जा सकती है जब उपरोक्त जानकारी नियुक्ति के बाद पक्षों को उपलब्ध हो जाए। यदि उन्हें नियुक्ति से पहले मध्यस्थ के निष्पक्ष या अयोग्य होने के बारे में पता था और फिर भी उन्होंने उन्हें नियुक्त करने का फैसला किया, तो नियुक्ति को चुनौती नहीं दी जा सकती।
समाप्ति के लिए आधार
किसी मध्यस्थ को कार्यवाही से हटाने के लिए, कुछ आधार होते हैं जिन्हें मध्यस्थ को संतुष्ट करना होगा।
अधिनियम की धारा 14 – उस मामले में मध्यस्थ के परिणामों की रूपरेखा तैयार करती है जब वे अपने कर्तव्यों को पूरा करने में विफल होते हैं या उन्हें ऐसा करना असंभव लगता है। इसमें कहा गया है कि मध्यस्थ के अधिकार और अधिदेश को समाप्त कर दिया जाएगा, और उसके स्थान पर किसी अन्य मध्यस्थ को नियुक्त किया जाएगा यदि:
- वे अपने कार्यों को कानूनी रूप से, अर्थात् कानून के अनुसार करने में असमर्थ हो जाते हैं।
- वे अपने कार्यों को वास्तविक रूप से करने में असमर्थ हो जाते हैं, जिसका तात्पर्य किसी ऐसी चीज़ से है जो वास्तव में मौजूद है लेकिन सामाजिक मानदंडों के अनुसार संभावित रूप से अवैध या अस्वीकार्य है।
- मध्यस्थ अपने पद से हट जाता है।
- विवाद के पक्षकार अपने अधिदेश/ अधिकार को समाप्त करने के लिए सहमत हैं।
यदि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती है जिसमें उप-धारा (1) के खंड (a) के तहत मुद्दे अनसुलझे रहते हैं, तो कोई भी पक्ष मध्यस्थ के आदेश की समाप्ति का निर्धारण करने के लिए संबंधित न्यायालय में आवेदन कर सकता है, जब तक कि पक्ष अलग-अलग सहमत न हों। इसके अतिरिक्त, यदि एक मध्यस्थ अपने अधिदेश से हट रहा है या हटाया जा रहा है तो इसका स्वचालित रूप से यह मतलब नहीं है कि धारा 12 की उप-धारा (3) में उल्लिखित आधार को स्वीकार कर लिए गए हैं।
मध्यस्थ को हटाने की प्रक्रिया
धारा 13 और धारा 14, जो विवाद करने वाले पक्षों को समाधान की प्रक्रिया के संबंध में स्वतंत्र शासन देने के अलावा, मध्यस्थों को हटाने के संबंध में व्यापक दिशानिर्देश भी प्रदान करती हैं।
चुनौती के लिए प्रक्रिया
मध्यस्थता के अधिकांश अन्य पहलुओं के समान, पक्षों को मध्यस्थ को चुनौती देने की प्रक्रिया पर सहमत होने की अनुमति है। हालाँकि, ऐसी परिस्थिति में जब सहमत प्रक्रिया विफल हो जाती है, अधिनियम की धारा 13 मध्यस्थ को चुनौती देने के लिए दिशानिर्देश प्रदान करती है। यह निर्देशित किया जाता है कि न्यायाधिकरण के गठन, मध्यस्थ की नियुक्ति, या उनकी निष्पक्षता पर संदेह करने के उचित कारणों की जानकारी प्राप्त होने के 15 दिनों की अवधि के भीतर चुनौती दी जानी चाहिए। यह इसके माध्यम से किया जाना चाहिए:
- चुनौती के कारणों वाला एक लिखित पत्र मध्यस्थ न्यायाधिकरण को भेजा जाना चाहिए,
- इसके बाद मध्यस्थ पीछे हट जाता है, या विपरीत पक्ष चुनौती स्वीकार कर लेता है।
यदि किसी भी प्रक्रिया के तहत चुनौतियाँ सफल नहीं होती हैं, तो नियुक्त मध्यस्थों को विवाद समाधान प्रक्रिया जारी रखनी होगी और एक मध्यस्थ पंचाट पारित करना होगा। पंचाट पारित होने के बाद, पक्ष इसे रद्द करने के लिए अधिकारियों के पास आवेदन कर सकते हैं।
किसी मामले या कार्यवाही में मध्यस्थ के प्राधिकार की समाप्ति और प्रतिस्थापन की प्रक्रिया
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 15, किसी मामले/कार्यवाही में मध्यस्थ के अधिकार की समाप्ति के बारे में बात करती है और प्रतिस्थापन के पहलू को संबोधित करती है। इसमें कहा गया है कि मध्यस्थ का अधिकार और जनादेश तब समाप्त हो जाएगा जब मध्यस्थ अपने पद से हटने के लिए सहमत हो जाता है, या पक्ष उन्हें मध्यस्थ के रूप में हटाने के लिए सहमत हो जाती हैं।
एक मध्यस्थ को हटाए जाने के बाद कार्यवाही के लिए एक स्थानापन्न मध्यस्थ नियुक्त किया जाता है। नियुक्ति प्रक्रिया उन नियमों का पालन करेगी जो पक्षों द्वारा पहले स्थापित किए गए थे। मध्यस्थता न्यायाधिकरण के विवेक पर कार्यवाही और सुनवाई या तो वहीं जारी रहेगी जहां इसे बाधित किया गया था या शुरुआत से दोहराया जाएगा। हालाँकि, यदि विवाद के पक्षकार इस संबंध में प्रक्रिया पर सहमत हैं, तो इसका पालन किया जाएगा। इसके अतिरिक्त, केवल मध्यस्थ के प्रतिस्थापन का मतलब यह नहीं होगा कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा कोई भी आदेश या निर्णय अमान्य हो जाएगा – इस पर भी पक्षों द्वारा सहमति व्यक्त की जाएगी।
कानूनी मामले
एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम देवास मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड
ऐतिहासिक मामला एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम देवास मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड (2018), दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया था जो मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 उप-धारा (4) पर आधारित है। यह मामला धारा 11 उप-धारा (6) के तहत सीजेआई के अधिकार क्षेत्र और अधिकार पर चर्चा से संबंधित है।
तथ्य
जनवरी 2005 में, देवास मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड (देवास) ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की वाणिज्यिक (कमर्शियल) शाखा, एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एंट्रिक्स) के साथ एक समझौता किया। यह देवास द्वारा अंतरिक्ष यान इसरो-एंट्रिक्स एस-बैंड पर एक अंतरिक्ष खंड क्षमता के पट्टे के संबंध में था। जब एंट्रिक्स ने 25 फरवरी, 2011 को समझौता समाप्त कर दिया तो देवास ने मध्यस्थता कार्यवाही शुरू की। याचिकाकर्ता कंपनी ने तब देवास द्वारा भुगतान की गई अग्रिम क्षमता आरक्षण शुल्क के धनवापसी के रूप में 58.37 करोड़ रुपये का चेक भेजा; हालाँकि, उत्तरदाताओं ने यह कहते हुए चेक लौटा दिया कि समझौता अभी भी कायम है।
याचिकाकर्ता ने, जवाब में, मध्यस्थता प्रक्रिया में पक्षों के बीच मुद्दे पर चर्चा करने और हल करने के लिए वरिष्ठ प्रबंधन को नामित किया। हालाँकि, सहमत प्रक्रिया का उल्लंघन करते हुए, और याचिकाकर्ताओं को नोटिस दिए बिना, उत्तरदाताओं ने अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय (आईसीसी) में मध्यस्थता के लिए एक अनुरोध प्रस्तुत किया और श्री वी.वी. वीडर को इसका मध्यस्थ नियुक्त किया गया और नामित किया। याचिकाकर्ता को अनुरोध के बारे में तभी पता चला जब इसे आईसीसी द्वारा उन्हें भेजा गया। चूंकि उत्तरदाताओं ने एकतरफा अनुरोध किया था, याचिकाकर्ताओं ने अनसीटरल नियमों के तहत मध्यस्थता कार्यवाही शुरू की, और न्यायमूर्ति सुजाता वी. मनोहर को इसका मध्यस्थ नियुक्त किया; इसके बाद उसने देवास से नोटिस प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर अपना मध्यस्थ नियुक्त करने को कहा।
जबकि देवास ने नोटिस का जवाब नहीं दिया, आईसीसी ने जवाब दिया कि अनुरोध विचार के लिए प्रस्तुत किया जाएगा। इसके बाद यह अर्जी सर्वोच्च न्यायालय को मिली।
मुद्दे
जिस बड़ी पीठ के पास मामला भेजा गया, उसके सामने कई मुद्दे रखे गए:
- क्या न्यायालय के पास अधिनियम की धारा 11 के तहत किसी न्यायाधिकरण को अमान्य घोषित करने का अधिकार है, यह देखते हुए कि मध्यस्थों को एक संस्थान द्वारा नियुक्त किया गया है जो मध्यस्थता समझौते के अनुसार कार्य कर रहा है?
- क्या मध्यस्थ न्यायाधिकरण के अधिकार क्षेत्र पर केवल उक्त न्यायाधिकरण के समक्ष ही सवाल उठाया जा सकता है या धारा 11 के तहत न्यायालय के समक्ष लिया जा सकता है?
- क्या न्यायालय के पास पहले से नियुक्त मध्यस्थ न्यायाधिकरण में हस्तक्षेप करने और एक नया नियुक्त करने का अधिकार क्षेत्र है?
फैसला
माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हालांकि एक मध्यस्थ की नियुक्ति को निश्चित रूप से इसमें शामिल पक्षों द्वारा चुनौती दी जा सकती है, यह केवल अधिनियम की धारा 12-15 (चुनौती के लिए आधार, चुनौती प्रक्रिया, विफलता या कार्य करने में असंभवता) द्वारा निर्धारित प्रक्रिया में किया जाना चाहिए, और जनादेश की समाप्ति और मध्यस्थ के प्रतिस्थापन), और धारा 11 नहीं। पीठ यह मानने में बहुत स्पष्ट थी कि सीजेआई के पास उस मध्यस्थ को बदलने का अधिकार क्षेत्र नहीं है जो पहले से ही मध्यस्थता समझौते के अभ्यास में नियुक्त किया गया था।
ओयो होटल्स एंड होम्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम राजन तिवारी और अन्य
ओयो होटल्स एंड होम्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम राजन तिवारी और अन्य (2021) के ऐतिहासिक मामले में, जिसकी सुनवाई दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष हुई थी, पीठ ने अधिनियम की धारा 11 के तहत एक मध्यस्थ की नियुक्ति और उसे निवारक करने पर विचार किया।
तथ्य
याचिकाकर्ता, ओयो होटल्स एंड हाउसेस प्राइवेट लिमिटेड (ओयो) ने कार्यवाही में उनके दावों को निर्धारित करने के लिए एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करने के लिए अदालत से अधिनियम की धारा 11 उप-धारा (6) के तहत मामला दायर किया। ऐसा तब हुआ जब पहले से नियुक्त मध्यस्थ के पास पक्षों के बीच मामले का फैसला करने का कोई अधिकार क्षेत्र या अधिकार नहीं था। मुद्दा यह था कि पक्षों के बीच एक पट्टा विलेख तैयार किया गया था, और कोविड -19 महामारी और उसके बाद के लॉकडाउन के कारण याचिकाकर्ता का कामकाज गंभीर रूप से प्रभावित हुआ था। इसलिए, उन्होंने प्रतिवादी को एक ईमेल के माध्यम से फ़ोर्स मेज्योर क्लॉज़ लागू किया।
याचिकाकर्ताओं ने प्रस्तुत किया कि प्रतिवादी समझौते में अपने दायित्वों के संबंध में दस्तावेजों के एक सेट को पूरा करने और अद्यतन करने में विफल रहा। इसके अलावा उन्होंने विलेख के कुछ खंडों को गलत तरीके से प्रस्तुत करके धन की मांग की, मध्यस्थता की कार्यवाही शुरू की, एक मध्यस्थ को नामित किया, और जुलाई 2020 में याचिकाकर्ता के साथ इसकी सूचना दी। हालांकि, चूंकि याचिकाकर्ता महामारी और परिणामी लॉकडाउन से तार्किक रूप से प्रभावित था, इसलिए वह अनुशंसित मध्यस्थ की पुष्टि के लिए नोटिस का जवाब देने में असमर्थ था।
यह मुद्दा तब उठा जब उत्तरदाताओं ने याचिकाकर्ताओं की मंजूरी के बिना और अदालत का दरवाजा खटखटाने के बजाय मध्यस्थ को चुना। याचिकाकर्ता को एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति के बारे में तब पता चला जब उसे प्राथमिक सुनवाई के लिए नोटिस भेजा गया। इसके बाद, उन्होंने कार्यवाही पर आपत्ति जताई और रद्द करने की मांग की। इसके बावजूद, एकमात्र मध्यस्थ निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सुनवाई के लिए आगे बढ़ा – जहां उसने फिर से अपनी आपत्तियां उठाईं, यह दावा करते हुए कि नियुक्ति वास्तविक और कानूनी दोनों थी।
उत्तरदाताओं ने प्रस्तुत किया कि अधिनियम की धारा 11 के तहत दिए गए पंचाट को समाप्त करने की मांग करने वाला याचिकाकर्ता अमान्य था क्योंकि उसने अपने दावों को साबित नहीं किया, साथ ही उसने सभी सुनवाई में भाग लिया- यह दावा करते हुए कि इसमें निहित सहमति थी। उन्होंने अतिरिक्त तर्क दिया कि अधिनियम की धारा 12 से 15 में निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना धारा 11(6) को लागू नहीं किया जा सकता है और याचिकाकर्ता ने पूर्व सूचना नहीं दी थी। इसलिए, उत्तरदाताओं ने निष्कर्ष निकाला कि याचिका स्वयं समीचीन थी।
मुद्दे
मामले की जड़ एक मध्यस्थ की नियुक्ति के संबंध में है – यदि दूसरे पक्ष ने सहमति नहीं दी है तो क्या मध्यस्थ कार्यवाही और उसके बाद का निर्णय वैध है?
फैसला
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता के दावों को स्वीकार कर लिया। उन्होंने माना कि यदि विपरीत पक्ष से मध्यस्थ की कोई पुष्टि नहीं होती है, तो अधिनियम की धारा 11 के तहत एक आवेदन कायम रखा जा सकता है। याचिका को अदालत ने अनुमति दे दी थी, और परिणामस्वरूप दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया गया था।
निष्कर्ष
मध्यस्थता न्याय प्रणाली का एक अनिवार्य हिस्सा है – यह अदालतों और न्यायपालिका से भारी बोझ हटाता है और उन्हें अधिक गंभीर प्रकृति के मामलों की सुनवाई करने की अनुमति देता है। हालाँकि, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि नियुक्त मध्यस्थ उस भूमिका को निभाने में सक्षम है जो उसे दी गई है – उनके पास न केवल कुछ योग्यताएं और विशेषताएं होनी चाहिए, बल्कि उन्हें निष्पक्ष, स्वतंत्र और न्यायपूर्ण भी होना चाहिए। इस मामले में कि मध्यस्थ अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने या समय और ऊर्जा समर्पित करके अपने दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ है, उन्हें प्रभावी ढंग से हटा दिया जाना चाहिए। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में प्रदान किए गए नियम उन दिशानिर्देशों की रूपरेखा तैयार करते हैं जो एक निष्पक्ष प्रक्रिया सुनिश्चित करते हैं। मध्यस्थों को हटाना और ऐसा करने की क्षमता अन्य चरणों की तरह ही मध्यस्थता का एक आवश्यक पहलू है – यह विवाद में शामिल पक्षों को समाधान में अधिक बोलने की अनुमति देता है, साथ ही यह सुनिश्चित करने में भी सहायता करता है कि कार्यवाही यथासंभव न्यायसंगत हो। हालाँकि भारत को मध्यस्थता को विवाद समाधान तंत्र के रूप में मान्यता देने से पहले एक लंबा रास्ता तय करना है, लेकिन इस बात की गारंटी है कि उपचार हमेशा उपलब्ध हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
मध्यस्थता के विभिन्न चरण क्या हैं?
अदालती कार्यवाही के विपरीत, मध्यस्थता कार्यवाही आम तौर पर लचीली होती है और इसका निर्णय विवाद के पक्षकारों द्वारा किया जाता है। इसे आम तौर पर चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
- दोनों में से कोई भी पक्ष मध्यस्थता का अनुरोध करता है, जिसके बाद विरोधी पक्ष को नोटिस दिया जाता है।
- संबंधित विवाद पर निर्णय लेने के लिए दोनों पक्षों द्वारा मध्यस्थों की नियुक्ति की जाती है।
- दोनों पक्षों को अपने पक्ष, साक्ष्य और दावे प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता है – या तो स्वयं या कानूनी प्रतिनिधियों के माध्यम से। यह या तो मौखिक रूप से या लिखित प्रस्तुतियों के माध्यम से हो सकता है।
- मध्यस्थ न्यायाधिकरण दोनों पक्षों को सुनता है, प्रस्तुतियाँ और सबूतों पर विचार करता है, और पंचाट पारित करने से पहले विवाद पर निर्णय लेता है।
मध्यस्थता की प्रक्रिया में कितने मध्यस्थ हो सकते हैं?
जैसा कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 10 में कहा गया है, विवाद करने वाले पक्षों को किसी भी संख्या में मध्यस्थों को चुनने का अधिकार है, जब तक कि संख्या एक विषम संख्या बनी रहे।
क्या मध्यस्थता में पंचाट बाध्यकारी है?
मध्यस्थ पंचाटों की अंतिमता और बाध्यकारी प्रकृति को अधिनियम की धारा 35 और 36 के तहत विनियमित किया जाता है। पंचाट अदालत के आदेशों और निर्णयों की तरह ही लागू करने योग्य होते हैं – पक्षकार पंचाट के निर्देश के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होते हैं।
क्या किसी पंचाट के खिलाफ अपील की जा सकती है?
ऐसे दो तरीके हैं जिनसे किसी मध्यस्थ निर्णय को चुनौती दी जा सकती है; या तो अपील के माध्यम से या पंचाट को रद्द करने के अनुरोध के माध्यम से। अधिनियम की धारा 34 एक मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिए आवेदन, प्रक्रिया और कारणों का प्रावधान करती है। धारा 37 उन दुर्लभ परिस्थितियों पर निर्देश देती है जिनमें अपील की अनुमति दी जाएगी।
मध्यस्थता की लागत क्या है?
मध्यस्थ कार्यवाही में विचार करने और भुगतान करने के लिए विभिन्न कारक हैं, जिनमें मध्यस्थ संस्था, मध्यस्थ/न्यायाधिकरण, वकील या कानूनी प्रतिनिधि और अन्य खर्च शामिल हैं।
संदर्भ