सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964): मामला विश्लेषण

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यह लेख Jyotika Saroha द्वारा लिखा गया है। वर्तमान लेख सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) मामले में ऐतिहासिक निर्णय का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। यह तथ्यात्मक पृष्ठभूमि, तथ्यों, मुद्दों, न्यायालय के निर्णय, न्यायाधीशों की राय और उक्त मामले में लागू कानूनों के बारे में विस्तार से बताता है। अंत में, यह सज्जन सिंह के मामले के बाद के प्रभावों से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय संविधान अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए लंबी और कड़ी लड़ाई का परिणाम है। यह 1950 के वर्ष में अस्तित्व में आया और आज तक विभिन्न संशोधनों के माध्यम से अस्तित्व में है। भारतीय न्यायपालिका संविधान की संरक्षक है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई निर्णय देकर वह संविधान की संरक्षक बन गई है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए ऐतिहासिक निर्णयों को मिसाल के रूप में लिया गया है और ये अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 और 368 के लंबे ऐतिहासिक निहितार्थ हैं और इन दोनों अनुच्छेदों के बीच काफी विवाद है। इन प्रावधानों के बीच स्थिति स्पष्ट करने के लिए इस संबंध में कई संशोधन किये गये। अनुच्छेद 13 उन कानूनों के बारे में बताता है जो भारतीय संविधान के भाग III में निर्धारित मौलिक अधिकारों से असंगत हैं। जबकि, अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया से संबंधित है।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) का विवरण

मामले का नाम

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य

मामला संख्या

1964 की रिट याचिका संख्या 31, 50, 52, 54, 81 और 82

समतुल्य उद्धरण

1965 एआईआर 845, 1965 एससीआर (1) 933, एआईआर 1965 सर्वोच्च न्यायालय 845, 1965 (1) एससीआर 933, 1965 (1) एससीजे 377, 1965 (1) एससीडब्ल्यूआर 593

शामिल कानून

भारत का संविधान

महत्वपूर्ण प्रावधान

अनुच्छेद 368, अनुच्छेद 31A, अनुच्छेद 31B, अनुच्छेद 13(2), और अनुच्छेद 32

न्यायालय

भारत का सर्वोच्च न्यायालय

न्यायपीठ

न्यायमूर्ति पी.बी. गजेंद्रगडकर, न्यायमूर्ति जे.आर. मुधोलकर, न्यायमूर्ति के.एन. वांचू, न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्ला और न्यायमूर्ति रघुबर दयाल।

निर्णय के लेखक

न्यायमूर्ति पी.बी.गजेंद्रगडकर

मामले के पक्ष

याचिकाकर्ता

सज्जन सिंह

प्रतिवादी

राजस्थान राज्य

निर्णय की तारीख

30.10.1964

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) की पृष्ठभूमि

विवाद इस बात से जुड़ा था कि क्या संसद के पास मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति है। उक्त विवाद को हल करते समय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन मामलों के माध्यम से बुनियादी संरचना (बेसिक स्ट्रक्चर) का सिद्धांत विकसित किया गया जो भविष्य के लिए मिसाल कायम करता है। यद्यपि संविधान में ‘बुनियादी संरचना’ का कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन उक्त अवधारणा न्यायिक घोषणाओं के माध्यम से विकसित की गई थी। इस सिद्धांत ने मुख्य रूप से केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले से अपना आकार लिया। हालाँकि, अगर हम सज्जन सिंह के मामले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नज़र डालें, तो यह सब ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) के मामले से शुरू हुआ, जिसे निवारक निरोध मामले के रूप में जाना जाता है, एक ऐतिहासिक मामला जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 की व्याख्या की। इस मामले में, याचिकाकर्ता, जिसका नाम ए.के. गोपालन था, जो एक साम्यवादी (कम्युनिस्ट) नेता था, को मद्रास राज्य द्वारा निवारक निरोध अधिनियम, 1950 के तहत गिरफ्तार किया गया था। इसलिए, उन्होंने कई आधारों पर अपनी हिरासत को चुनौती दी और तर्क दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि उनकी गिरफ्तारी करते समय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का भी पालन नहीं किया गया। यह निर्धारित किया गया था कि अनुच्छेद 21 कार्यपालिका की मनमानी कार्रवाइयों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है न कि विधायिका की मनमानी कार्रवाइयों के खिलाफ। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में उक्त अधिनियम की वैधता को यह कहते हुए बरकरार रखा कि राज्य संविधान के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को छीन सकता है। बाद में, शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) के मामले में, पहले संशोधन अधिनियम, 1951 को चुनौती दी गई, जिसने जमींदारी कानूनों को समाप्त कर दिया। उक्त संशोधन अधिनियम ने संपत्ति के मौलिक अधिकार पर प्रतिबंध लगा दिया और अनुच्छेद 31A और 31B जोड़े गए। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मौलिक अधिकारों को संसद द्वारा संशोधित करने की अनुमति नहीं है क्योंकि वे भारतीय संविधान का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले संशोधन अधिनियम, 1951 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जिसने उपरोक्त नए अनुच्छेद पेश किए। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 368 के अनुसार संविधान में संशोधन करने की शक्ति के भीतर मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति को भी शामिल किया, जिसका अर्थ है कि संसद संविधान के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों को छीन सकती है और इस तरह के संशोधन को संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत अर्थ के भीतर असंगत नहीं माना जाएगा। अब, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ए.के. गोपालन और शंकरी प्रसाद के मामलों में अपने ऐतिहासिक निर्णय सुनाए जाने के बाद, सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) के मामले में संसद के मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति के बारे में सवाल फिर से सामने आया, जिसमें 17वें संशोधन अधिनियम, 1964 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। शंकरी प्रसाद का मामला सज्जन सिंह के मामले के लिए रास्ता बनाता है।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) के तथ्य

राजस्थान सरकार ने भूमि सुधार अधिनियम पारित किया और बाद में संसद ने 17वां संशोधन अधिनियम भी पारित किया। संशोधन अधिनियम में, अनुच्छेद 31A के तहत कानूनी वाक्यांश ‘संपत्ति’ का विस्तार किया गया। अनुच्छेद 31A के तहत किए गए इस संशोधन के जरिए भूमि अधिग्रहण की शक्ति बढ़ा दी गई और बाद में इसे संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल दिया गया ताकि इसे किसी भी अदालत में चुनौती न दी जा सके। याचिकाकर्ता, सज्जन सिंह, जो एक रियासत, रतलाम के शासक थे, जिसे बाद में भारतीय संघ में जोड़ा गया था। भारत सरकार और सज्जन सिंह के बीच एक समझौता हुआ जिसके तहत उन्हें कुछ विशेषाधिकार दिए गए, लेकिन 17वें संशोधन अधिनियम, 1964 के लागू होने के बाद भूमि रखने के अधिकार के संबंध में भी बदलाव किए गए। याचिकाकर्ता ने उक्त अधिनियम को चुनौती दी और तर्क दिया कि यह भारतीय संविधान के अनुसार उसे दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हुए असंवैधानिक और अमान्य है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद 32 के तहत कई जमींदारों द्वारा इसी चिंता के संबंध में याचिकाएं दायर की गईं थीं।

उठाये गये मुद्दे 

  • क्या 17वां संशोधन अधिनियम संवैधानिक रूप से अमान्य है?
  • क्या अनुच्छेद 368 के अंतर्गत मौलिक अधिकार में किया गया संशोधन अनुच्छेद 13(2) में “कानून” शब्द के दायरे में आता है?
  • क्या अनुच्छेद 368 के अनुसार संसद के पास संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति है?

पक्षों के तर्क 

याचिकाकर्ता

  1. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 17वां संशोधन अधिनियम भूमि मामलों से संबंधित है और संसद के पास भूमि मामलों के संबंध में कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है, इसलिए उक्त अधिनियम संवैधानिक रूप से अमान्य है।
  2. याचिकाकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1952) के मामले में दिए गए निर्णय पर पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
  3. उन्होंने यह भी तर्क दिया कि 17वें संशोधन अधिनियम ने अदालतों को उक्त मामले पर निर्णय लेने से बाहर कर दिया, जो पूरी तरह से असंवैधानिक प्रकृति का है।
  4. यह तर्क दिया गया कि उक्त संशोधन अधिनियम से अनुच्छेद 226 प्रभावित होने की संभावना है। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि अनुच्छेद 368 के प्रावधान में निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, जो संवैधानिक संशोधन करने के लिए आधे से भी कम राज्यों की मंजूरी का प्रावधान करता है।

प्रतिवादी

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि मुकदमा खारिज किया जा सकता है क्योंकि यह समयपूर्व है।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) मामले में चर्चा किये गये कानून और उदाहरण

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) के मामले में निम्नलिखित कानूनों पर चर्चा की गई:

17वाँ संवैधानिक संशोधन

17वां संशोधन अधिनियम 20 जून, 1964 को लागू हुआ और इसमें अनुच्छेद 31A और संविधान की 9वीं अनुसूची में संशोधन किया गया, इसके अलावा भूमि मामलों से निपटने वाले 44 राज्य कानून जोड़े गए।

अनुच्छेद 31B

इसमें कहा गया है कि 9वीं अनुसूची में उल्लिखित अधिनियमों और विनियमों को इस आधार पर असंगत नहीं माना जाएगा कि वे संविधान के भाग III में प्रदत्त अधिकारों को लेते हैं या कम करते हैं। विधानमंडल उक्त अधिनियमों और विनियमों में संशोधन कर सकता है और उन्हें निरस्त कर सकता है।

अनुच्छेद 368

यह प्रावधान किया गया है कि संसद, अपनी घटक शक्ति का प्रयोग करके, इस अनुच्छेद में निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसार संविधान के किसी भी प्रावधान को जोड़, संशोधित या निरस्त कर सकती है। इस अनुच्छेद के खंड (2) में प्रावधान है कि संविधान में संशोधन की प्रक्रिया संसद के किसी भी सदन में उक्त उद्देश्य के लिए विधेयक पेश करके शुरू की जा सकती है। एक बार जब विधेयक प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है, तो उसके बाद इसे राष्ट्रपति के पास उनकी सहमति प्राप्त करने के लिए भेजा जाएगा। प्रावधान में, यह दिया गया है कि यदि ऐसा संशोधन खंड (a) – (e) से निर्धारित प्रावधानों में संशोधन करना चाहता है तो उक्त संशोधन के लिए कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा अनुमोदन (अप्रूव) की आवश्यकता होगी और यह विधेयक को राष्ट्रपति के पास उनकी सहमति प्राप्त करने के उद्देश्य से भेजे जाने से पहले किया जाना है। इसके अलावा, खंड (3) में यह दिया गया है कि अनुच्छेद 13 इस अनुच्छेद के तहत संशोधनों पर लागू नहीं होगा।

अनुच्छेद 13

यह उन कानूनों से संबंधित है जो मौलिक अधिकारों के अनुरूप नहीं हैं और अमान्य माने जाते हैं। इस अनुच्छेद के खंड (2) में कहा गया है कि राज्य ऐसा कोई कानून नहीं बनाएगा जो इस भाग के तहत प्रदत्त अधिकारों को छीनता या कम करता हो; इस खंड के उल्लंघन में बनाया गया कोई भी कानून भी शून्य माना जाएगा।

अनुच्छेद 32

यह अनुच्छेद इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को लागू करने के उपायों का प्रावधान करता है। यह संविधान के भाग 3 के तहत प्रदत्त अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार प्रदान करता है। यह अनुच्छेद पाँच रिटों का प्रावधान करता है जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है। यह बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबीअस कॉर्पस), परमादेश (मैंडामस) , उत्प्रेषण (सर्टिओरारी), अधिकार पृच्छा (क्वो वारंटो) और निषेध (प्रोअबिशन) की प्रकृति में आदेश, निर्देश और रिट जारी कर सकता है।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) में उदाहरणों पर चर्चा की गई

करिम्बिल कुन्हिकोमन बनाम केरल राज्य (1961) के मामले में, केरल कृषि संबंध अधिनियम, 1961 को अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी क्योंकि, याचिकाकर्ताओं की दलीलों के अनुसार, अधिनियम द्वारा तय की गई सीमा के परिणामस्वरूप भेदभाव होता है और यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने उक्त अधिनियम को रद्द कर दिया।

ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) मामले में, न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री ने कहा था कि मौलिक अधिकार वे हैं जिन्हें लोग अपने लिए आरक्षित रखते हैं और किसी अधिनियम की संवैधानिक वैधता तय करने के लिए, उक्त अधिनियमों की वैधता निर्धारित करने का कर्तव्य आमतौर पर वरिष्ठ न्यायालय पर है।

श्री शंकरी प्रसाद देव बनाम भारत संघ और बिहार राज्य (1951) में, पहले संवैधानिक संशोधन अधिनियम को चुनौती दी गई थी। संशोधन अधिनियम में नए सम्मिलित अनुच्छेद अनुच्छेद 31A और 31B थे और उन्होंने अनुच्छेद 226 में बदलाव करने की मांग की थी और इसलिए अनुच्छेद 368 के तहत प्रावधान में निर्धारित अनुसमर्थन की आवश्यकता थी। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह अनुच्छेद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अनुच्छेद 226 के तहत दी गई उच्च न्यायालय की शक्तियों को प्रभावित नहीं करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 की वैधता को बरकरार रखा।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) में मुद्देवार निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने 3:2 के बहुमत से माना कि 17वां संशोधन अधिनियम संवैधानिक रूप से वैध है।

17वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की वैधता

विवादित अधिनियम की वैधता की जाँच करने के लिए, न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 368 में निर्धारित शक्तियों के वास्तविक दायरे को निर्धारित करना आवश्यक समझा। वास्तविक दायरे पर विचार करते समय, अनुच्छेद 226 को देखना आवश्यक है, जो एक संवैधानिक प्रावधान है जो प्रावधान के खंड (b) के अंतर्गत आता है। इसलिए, यदि संसद अनुच्छेद 226 में संशोधन करने का इरादा रखती है, तो प्रावधान में निर्धारित आवश्यकता का पालन किया जाना चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि अनुच्छेद 368 के दो भाग हैं, एक मूल भाग है और दूसरा परंतुक है और दोनों का एक दूसरे के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए एक उचित निर्माण होना चाहिए। न्यायालय ने माना कि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 368 के प्रावधानों के तहत भाग III का उल्लेख नहीं किया है; ऐसा करके, न्यायालय ने माना कि इस मामले को संसद द्वारा अनुच्छेद 368 के मूल प्रावधानों के अनुसार निपटाया जाना चाहिए, न कि परंतुक के अनुसार। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 368 के भीतर निर्धारित संसद की शक्तियों के वास्तविक दायरे को देखते हुए 17वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा, जिसका उद्देश्य भारतीय संविधान की 9वीं अनुसूची के दायरे में आने वाली भूमि अधिग्रहण और संपत्तियों की संवैधानिक वैधता को सुरक्षित करना था।

अनुच्छेद 368 के अनुसार मौलिक अधिकारों में किया गया संशोधन अनुच्छेद 13(2) के ‘कानून’ शब्द के अंतर्गत दायरे में आता है

अनुच्छेद 13 में दिए गए ‘कानून’ शब्द से निपटते समय यदि इसमें अनुच्छेद 368 के तहत किए गए संवैधानिक संशोधन शामिल हैं, न्यायालय ने कहा कि उक्त अनुच्छेद में ‘कानून’ शब्द की कोई पूर्ण या स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है, लेकिन इसमें अनुच्छेद 368 के तहत किया गया संवैधानिक संशोधन शामिल नहीं होगा। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 13 में दिए गए ‘कानून’ शब्द का अर्थ लगाते समय उक्त शब्द की व्याख्या करना अत्यधिक सावधानी का विषय है।

अनुच्छेद 368 के अनुसार मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की संसद की शक्ति

न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 31A और 31B जोड़कर संसद का एकमात्र उद्देश्य राज्य विधानसभाओं को उनकी आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देने में सहायता करना है और इसी उद्देश्य से 1952 में दूसरा संशोधन भी पारित किया गया था। संसद ने कृषि सुधारों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित किया जो गांवों में रहने वाले लोगों की मदद कर सकते हैं जिनकी वित्तीय क्षमताएं ऐसे सुधारों से जुड़ी हैं। न्यायालय ने आगे सार और तत्त्व का परीक्षण लागू किया और कहा कि मौलिक अधिकारों में संशोधन करने में संसद का एकमात्र उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक नीतियों के रास्ते में आने वाली किसी भी संभावित बाधा को दूर करना था। साथ ही, उक्त विवादित अधिनियम अनुच्छेद 226 में निर्धारित प्रावधानों को प्रभावित या परिवर्तित नहीं करता है।

निर्णय का औचित्य

सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता के इस तर्क से असहमति जताते हुए कहा कि 17वां संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 226 के तहत दिए गए उच्च न्यायालय के अधिकारों का उल्लंघन करता है, कहा कि केंद्र सरकार का मुख्य उद्देश्य उक्त मामले पर राज्य के कृत्यों को संविधान की 9वीं अनुसूची में डालकर न्यायिक समीक्षा से बचाना था। न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि संवैधानिक संशोधन अनुच्छेद 13 के “कानून” शब्द के दायरे में नहीं आते हैं। परिणामस्वरूप, अनुच्छेद 368 के अनुसार ऐसे संशोधन मौलिक अधिकारों में संशोधन करने में सक्षम हैं।

असहमतिपूर्ण राय

इस निर्णय की आज भी आलोचना की जाती है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा नहीं की। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्ला और न्यायमूर्ति मुधोलकर ने असहमतिपूर्ण राय दी थी। न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्ला ने बहुमत की राय को स्वीकार नहीं किया और कहा कि मौलिक अधिकार भारतीय संविधान का अभिन्न अंग हैं और संवैधानिक संशोधन के अधीन नहीं हैं क्योंकि वे मनुष्यों के मूल अधिकार हैं और संसद उन पर निर्णय नहीं ले सकती है।

दूसरी ओर, न्यायमूर्ति मुधोलकर ने कहा कि मौलिक अधिकार संविधान के मूल तत्व हैं और इनमें संशोधन नहीं किया जा सकता है।

सज्जन सिंह मामले के बाद के प्रभाव

सज्जन सिंह के मामले में दिए गए निर्णय को आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले में खारिज कर दिया गया था, जिसमें यह माना गया था कि अनुच्छेद 368 के अनुसार, यदि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो संसद के पास संवैधानिक संशोधन करने की कोई शक्ति नहीं है। गोलकनाथ के मामले में दी गई राय पूरी तरह से सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) के मामले में दी गई न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्ला की असहमतिपूर्ण राय पर आधारित थी। इसके अलावा, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में व्यक्त की गई ‘बुनियादी संरचना’ की अवधारणा भी सज्जन सिंह के मामले में दी गई न्यायमूर्ति मुधोलकर की असहमतिपूर्ण राय पर आधारित थी। केशवानंद भारती के मामले में, पीठ ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन करने के लिए असीमित या निरंकुश अधिकार प्रदान नहीं करता है। साथ ही, इस निर्णय के बाद सरकार ने समतामूलक समाज का मार्ग प्रशस्त करने के लिए पूर्व रियासतों को दिए गए विशेषाधिकारों को खत्म करने का फैसला किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस ऐतिहासिक निर्णय के माध्यम से यह प्रतिपादित किया कि संविधान देश का कानून है और सर्वोच्च है।

निष्कर्ष

यह कहकर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मौलिक अधिकार भारतीय संविधान का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 17वें संशोधन अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि संसद के पास भारतीय संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की विशेष शक्तियां हैं। हालाँकि, इस मामले के निर्णय को आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले में पलट दिया गया था, जिसे आगे केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में खारिज कर दिया गया था। सज्जन सिंह का मामला एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसने बुनियादी संरचना के सिद्धांत के लिए आधार तैयार किया है और भारत के क्षेत्र में लागू कानूनों की संवैधानिक वैधता निर्धारित करने में भी मदद की है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

कौन से मामले केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के ऐतिहासिक मामले के पूर्ववर्ती हैं?

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक मामले के अग्रदूत (प्रिकर्सर) ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) थे, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि मौलिक अधिकार पूर्ण नहीं हैं और कुछ कारणों से निलंबित किए जा सकते हैं। श्री शंकरी प्रसाद देव बनाम भारत संघ और बिहार राज्य (1951) में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर विचार किया और माना कि यह शक्ति पूर्ण है। इसके अलावा, सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) में जहां सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संसद के पास मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति है। अंत में, आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) में, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्तियों पर फिर से विचार किया। यह माना गया कि शक्ति पूर्ण नहीं है और कुछ प्रतिबंध हैं।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) में दिए गए निर्णय को किस मामले में खारिज किया गया था?

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) में दिए गए निर्णय को आईसी गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य (1967) में खारिज कर दिया गया था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर विचार किया था। न्यायालय ने संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति के दायरे को सीमित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि ये शक्तियाँ असीमित और निरंकुश नहीं हैं और भाग III के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को संवैधानिक संशोधन के माध्यम से नहीं छीना जा सकता है।

बुनियादी संरचना का सिद्धांत क्या है?

‘बुनियादी संरचना’ के सिद्धांत की शुरुआत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक मामले में की गई थी; हालाँकि, इस सिद्धांत का आधार सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964) के मामले में स्थापित किया गया था। केशवानंद भारती के मामले में न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत दी गई संसद की शक्तियां असीमित नहीं हैं और संविधान की ‘बुनियादी संरचना’ में संशोधन नहीं किया जा सकता है।

सार और तत्व का सिद्धांत क्या है?

सार और तत्व का सिद्धांत भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है; यह कनाडाई संविधान से आता है। यह मूल रूप से तब सामने आता है जब यह निर्धारित करने का प्रश्न उठता है कि कोई कानून किसी विशिष्ट विषय से संबंधित है या नहीं।

संदर्भ

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