यह लेख Upasana Sarkar द्वारा लिखा गया है। यह लेख दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173 से संबंधित है, जो एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा की गई जांच की रिपोर्ट के संबंध में विवरण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173, जांच एजेंसियों के लिए जांच के समापन पर रिपोर्ट दर्ज करने के लिए नियम और प्रक्रियाएं निर्धारित करती है। यह उन अपराधों से संबंधित है जहां मजिस्ट्रेट को किसी अपराध का संज्ञान (कॉग्निजियंस) लेने का अधिकार है। यह प्रावधान कहता है कि पुलिस अधिकारी जांच पूरी करने के बाद उस पर एक रिपोर्ट बनाएं और उसे अदालत में जमा करें। फिर मामले को आगे बढ़ाने के लिए पुलिस रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। इसे राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रारूप में बनाया जाना चाहिए। यह धारा आगे की जांच के लिए पुलिस की शक्तियों से भी संबंधित है।
पुलिस रिपोर्ट
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2(r) पुलिस रिपोर्ट का अर्थ बताती है। इसे एक रिपोर्ट के रूप में परिभाषित किया गया है जो धारा 173(2) के तहत पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। यह वह रिपोर्ट है जिसमें जांच का अंतिम निष्कर्ष शामिल है। जो आरोप-पत्र न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है उसे अंतिम रिपोर्ट माना जाता है। पुलिस रिपोर्ट राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रावधानों के अनुसार बनाई जानी चाहिए, जो धारा 173 के तहत दिए गए हैं। यह निम्नलिखित पुलिस रिपोर्ट जांच के विभिन्न चरणों में भेजी जाती है-
- जांच अधिकारी या पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा बनाई गई प्रारंभिक रिपोर्ट जिसे धारा 157 के तहत मजिस्ट्रेट को दिया जाना आवश्यक है।
- एक अधीनस्थ अधिकारी द्वारा किए गए अपराध से संबंधित रिपोर्ट धारा 168 के तहत संबंधित पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को भेजी जानी चाहिए।
- जांच पूरी होने के बाद जांच अधिकारी द्वारा बनाई गई अंतिम रिपोर्ट, जिसे चालान भी कहा जाता है, धारा 173 के तहत मजिस्ट्रेट को दी जानी चाहिए। इस रिपोर्ट को समापन रिपोर्ट के रूप में भी जाना जाता है।
पुलिस रिपोर्ट में मामले के तथ्यों और जांच अधिकारी द्वारा निकाले गए अंतिम निष्कर्ष से संबंधित जानकारी शामिल होगी। इसमें मौखिक और दस्तावेजी दोनों साक्ष्य शामिल हैं। मजिस्ट्रेट इस रिपोर्ट को देखने के बाद तय करेगा कि किसी मामले का संज्ञान लिया जाए या नहीं लिया जाए। मजिस्ट्रेट रिपोर्ट की पूरी तरह से जांच करने और यह देखने के लिए बाध्य है कि क्या इसमें अदालत के लिए मुकदमा शुरू करने के लिए आवश्यक उचित दस्तावेज और सामग्री शामिल है।
सीआरपीसी की धारा 173 का दायरा
पुलिस किसी मामले की जांच तब शुरू करती है जब पुलिस स्टेशन में केवल संज्ञेय अपराधों के लिए शिकायत दर्ज की जाती है। यह माना जाता है कि जांच तब तक जारी रहेगी जब तक कि पुलिस अधिकारी द्वारा पुलिस रिपोर्ट (जिसे आरोप पत्र भी कहा जाता है) दायर नहीं की जाती है। यह प्रावधान पुलिस को बिना अनावश्यक देरी के जांच करने और फिर रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को सौंपने का निर्देश देता है। पुलिस को मजिस्ट्रेट द्वारा एक निश्चित अवधि के भीतर आरोप-पत्र प्रस्तुत करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। जांच पूरी होने के बाद आरोप पत्र दाखिल होने के बाद मुकदमा शुरू होता है। मजिस्ट्रेट अपने विवेक से पुलिस अधिकारियों द्वारा दायर रिपोर्ट को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है।
जांच पूरी होने पर पुलिस अधिकारी द्वारा बनाई गई रिपोर्ट
सीआरपीसी की धारा 173(1)
इस उपधारा में कहा गया है कि किसी मामले की जांच पुलिस अधिकारी को बिना किसी अनावश्यक देरी के पूरी करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, इसका मतलब है कि इस धारा के तहत किसी मामले की जांच में बिना उचित आधार के देरी नहीं की जानी चाहिए।
सीआरपीसी की धारा 173(1A)
धारा 173(1A) में कहा गया है कि नीचे उल्लिखित अपराधों के संबंध में किसी भी जांच की तारीख की गणना उस शुरुआती दिन से की जाएगी जब पुलिस अधिकारी या पुलिस स्टेशन के जांच अधिकारी ने जानकारी दर्ज की थी। वाक्यांश “बच्ची के बलात्कार की प्रक्रिया तीन महीने के भीतर पूरी की जा सकती है” इस उपधारा के तहत शब्दों, अक्षरों और अंकों को प्रतिस्थापित किया जाएगा “भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 376A, 376AB, 376B, 376C, 376D, 376DA, 376 DB, या 376E के तहत अपराध की प्रक्रिया को दो महीने के भीतर पूरा किया जाएगा”।
सीआरपीसी की धारा 173(2)
- इसमें कहा गया है कि पुलिस अधिकारियों को जांच पूरी करने के बाद रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को सौंपनी चाहिए, जिसे अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार दिया गया है। रिपोर्ट उस तरीके से प्रस्तुत की जानी चाहिए जो राज्य सरकार द्वारा पहले से ही निर्धारित है। इसमें निम्नलिखित चीजें शामिल होंगी:
- मामले में शामिल सभी पक्षों के नाम;
- मामले से संबंधित जानकारी की प्रकृति;
- उन व्यक्तियों के नाम जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित हैं;
- यदि ऐसा लगता है कि कोई अपराध किया गया है, और यदि हां, तो उन लोगों का विवरण जिन्होंने उक्त अपराध किया होगा;
- यदि अपराध करने के अभियुक्त व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया गया है;
- यदि अभियुक्त को जमानत के साथ या उसके बिना बांड पर रिहा किया गया है;
- यदि आरोपी को धारा 170 के अनुसार हिरासत में भेज दिया गया है;
- यदि यह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376, 376A, 376AB, 376B, 376C, 376D, 376DA, 376DB, या धारा 376E के तहत किसी अपराध से संबंधित है, तो क्या पीड़िता की मेडिकल जांच रिपोर्ट संलग्न की गई है या नहीं;
2. इस उपधारा में कहा गया है कि पुलिस अधिकारी को उस व्यक्ति को, यदि कोई हो, जिसने शुरू में किसी अपराध की घटना के बारे में जानकारी दी थी, जानकारी के संबंध में उसके द्वारा की गई कार्रवाई के बारे में सूचित करना चाहिए, इस तरह से कि राज्य सरकार निर्दिष्ट कर सके।
सीआरपीसी की धारा 173(3)
इस धारा के अनुसार, यदि धारा 158 के तहत किसी मामले के लिए पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी को नियुक्त किया गया है, तो रिपोर्ट ऐसे अधिकारी द्वारा न्यायालय को प्रस्तुत की जानी चाहिए, यदि राज्य सरकार ने सामान्य या विशेष निर्देश द्वारा ऐसा करने का निर्देश दिया हो। यदि राज्य सरकार की ओर से कोई निर्देश नहीं है तो जांच अधिकारी रिपोर्ट सौंप सकते हैं। पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी को जांच अधिकारी को आगे की जांच के लिए निर्देश देने का अधिकार है, भले ही ऐसा आदेश मजिस्ट्रेट द्वारा पारित न किया गया हो।
सीआरपीसी की धारा 173(4)
इसमें कहा गया है कि यदि मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट से पता चलता है कि अभियुक्त को उसके बांड पर रिहा कर दिया गया है, तो मजिस्ट्रेट उस बांड से मुक्ति का आदेश दे सकता है, यदि वह उचित समझे।
सीआरपीसी की धारा 173(5)
यह धारा 170 के दायरे में आने वाले मामलों में रिपोर्ट तैयार करने की प्रक्रिया बताता है। पुलिस अधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को निम्नलिखित विवरण दे:
- जांच के समय पहले ही मजिस्ट्रेट को भेजी जा चुकी सभी सूचनाओं के अलावा अन्य सभी दस्तावेज या प्रासंगिक तथ्य और सबूत जिन पर अभियोजन पक्ष भरोसा करने का प्रस्ताव करता है;
- जब पुलिस धारा 161 के तहत लोगों के बयान दर्ज कर चुकी है और अभियोजन पक्ष उन लोगों से पूछताछ करने को तैयार है। पुलिस को उन बयानों को मजिस्ट्रेट के पास भेजना होगा।
यह प्रावधान जिस प्रकार के दस्तावेज़ों की अपेक्षा करता है वे आम तौर पर पोस्टमार्टम परीक्षाओं, लिखावट विशेषज्ञों, रासायनिक परीक्षकों, फ़िंगरप्रिंट विशेषज्ञों आदि पर रिपोर्ट हैं। अभियुक्त को पुलिस अधिकारी से उन व्यक्तियों के बयानों की अभिलेख मांगने की भी अनुमति है जिनसे जांच के दौरान पूछताछ की गई थी और अपने बचाव के रूप में प्रासंगिक जानकारी का उपयोग कर सकता है।
सीआरपीसी की धारा 173(6)
यह उन मामलों से संबंधित है जहां पुलिस अधिकारी जांच के दौरान पूछताछ किए गए लोगों द्वारा दिए गए बयान के किसी भी हिस्से का खुलासा नहीं करता है क्योंकि यह मामले की विषय वस्तु के लिए महत्वहीन है या अभियुक्त को इसका खुलासा करना न्याय के हित में आवश्यक नहीं है और सार्वजनिक हित के लिए हानिकारक है। ऐसी स्थिति में, पुलिस अधिकारी हिस्से को निर्दिष्ट करेगा और एक टिप्पणी संलग्न करेगा जिसमें मजिस्ट्रेट से अनुरोध किया जाएगा कि वह आरोपी को दी जाने वाली प्रतियों में उन हिस्सों को शामिल न करें और इस तरह के अनुरोध के लिए अपने कारण व्यक्त करें।
सीआरपीसी की धारा 173(7)
इसमें कहा गया है कि यदि किसी मामले की जांच करते समय पुलिस अधिकारी ऐसा करना उचित समझता है, तो वह आरोपी को धारा 173 की उपधारा (5) में उल्लिखित सभी या किसी भी दस्तावेज की प्रतियां प्रदान कर सकता है।
सीआरपीसी की धारा 173(8)
यह उपधारा कहती है कि यदि पुलिस इस धारा की उपधारा (2) के तहत मजिस्ट्रेट को पुलिस रिपोर्ट या आरोप पत्र प्रस्तुत करती है, तो यह उन्हें उस मामले में आगे की जांच करने से नहीं रोकेगा। आगे की जांच करते समय, यदि पुलिस अधिकारी को कोई नया मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य मिलता है, तो वह निर्धारित प्रारूप में उस पर एक रिपोर्ट बनाकर मजिस्ट्रेट को भेजेगा। उस रिपोर्ट को पूरक रिपोर्ट या पूरक आरोप पत्र या अतिरिक्त चालान के रूप में बताया जा सकता है।
लक्कोस जकारिया बनाम जोसेफ जोसेफ (2022) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट को यह तय करते समय कि अभियुक्त व्यक्ति ने कोई विशेष अपराध किया है या नहीं, जिसके लिए उसे हिरासत में लिया गया था, धारा 173(2) के तहत उसके समक्ष दायर पुलिस रिपोर्ट पर विचार करना चाहिए और साथ ही पूरक आरोप-पत्र का भी अध्ययन करना चाहिए। पूरक आरोप पत्र को अतिरिक्त चालान के रूप में भी जाना जाता है। मजिस्ट्रेट को आरोप-पत्र (चालान) के साथ या उससे पहले प्रस्तुत किए गए सबूतों के साथ-साथ आगे की जांच की पूरक रिपोर्ट (अतिरिक्त चालान) के साथ प्रस्तुत किए गए सबूतों को भी ध्यान में रखना होगा।
सीबीआई बनाम हेमेंद्र रेड्डी (2023) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 173(2) के तहत अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद धारा 173(8) के तहत किसी मामले में आगे की जांच करने पर कोई रोक नहीं है, जिसे अदालत पहले ही स्वीकार कर चुकी है। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि दोहरे खतरे (डबल जियोपर्डी) का सिद्धांत आगे की जांच के लिए लागू नहीं होगा क्योंकि यह प्रारंभिक जांच की एक निरंतरता मात्र है। दोहरे ख़तरे का मतलब है कि किसी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि एक ही अपराध के लिए अभियुक्त की दो बार जांच की जाए। जांच अभियोजन और सजा से बिल्कुल अलग है। इसलिए, यह अभियोजन के बराबर नहीं है। आगे कहा गया कि धारा 173(8) के तहत आगे की जांच के लिए आवेदन पर विचार करते समय अदालत को अभियुक्त को सुनने का कोई दायित्व नहीं है।
सीआरपीसी की धारा 173(8) को शामिल करने के कारण
न्याय को कायम रखने और निर्दोष लोगों को दंडित होने से बचाने के लिए उपधारा (8) को शामिल किया गया था। कई बार ऐसा होता है कि पुलिस रिपोर्ट जमा करने के बाद उन्हें नए सबूत मिलते हैं जो बताते हैं कि अभियुक्त व्यक्ति दोषी नहीं है। इसलिए निर्दोष अभियुक्तों के साथ अन्याय से बचने के लिए, यदि ऐसा लगता है कि अभियुक्त निर्दोष है तो जांच को फिर से खोलने के लिए इस धारा का उपयोग किया जाता है। यह पुलिस को नए साक्ष्य एकत्र करने के लिए किसी मामले की आगे की जांच करने और फिर उसे अदालत को सौंपने की शक्ति देता है ताकि अनुचित अभियोजन से बचा जा सके। इसकी प्रतियां अभियुक्त को दी जाती हैं।
यह धारा केवल आगे की जांच के लिए पुलिस की शक्ति से संबंधित है। पुलिस अधिकारी को नये सिरे से जाँच या पुनः जाँच करने का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। आगे की जांच का मतलब है पिछली जांच को जारी रखना है, नई जांच नहीं। इसका अर्थ है पिछले साक्ष्यों के अतिरिक्त और अधिक साक्ष्य प्राप्त करना। आगे की जांच करने के बाद, एक और रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है, नई नहीं। पुलिस आगे की जांच करना शुरू कर देती है यदि उन्हें किए गए अपराध के संबंध में कुछ नया मिलता है, जिसके आधार पर पुलिस रिपोर्ट बनाई गई थी।
आरोपपत्र प्रस्तुत होने पर मजिस्ट्रेट क्या कर सकता है?
जब आरोप-पत्र यह कहते हुए प्रस्तुत किया जाता है कि अपराध किया गया है, तो मजिस्ट्रेट निम्नलिखित तीन तरीकों से आगे बढ़ सकता है-
1. जब मजिस्ट्रेट आरोप-पत्र स्वीकार कर लेता है
मजिस्ट्रेट आरोप-पत्र स्वीकार कर सकता है और अपराध का संज्ञान ले सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 190 में कहा गया है कि कोई भी प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट और केवल द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट जो ऐसे मामलों से निपटने के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा विशेष रूप से सशक्त हैं, धारा 190(2) के तहत किसी भी अपराध का संज्ञान ले सकते हैं।
- अपराध का गठन करने वाले तथ्यों की व्यक्तिगत शिकायत पर;
- पुलिस अधिकारी द्वारा अपराध का गठन करने वाले ऐसे तथ्यों की पुलिस रिपोर्ट पर;
- किसी पुलिस अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से सूचना प्राप्त करने पर, या ऐसे अपराध के घटित होने की स्वयं की जानकारी पर स्वत: संज्ञान ले सकते हैं।
2. जब मजिस्ट्रेट आरोप पत्र को खारिज कर देता है
मजिस्ट्रेट आरोप-पत्र को अस्वीकार कर सकता है और कार्यवाही बंद कर सकता है। ऐसी स्थिति में, यदि पीड़ित पक्ष या शिकायतकर्ता को पुलिस रिपोर्ट संतोषजनक नहीं लगती है तो वह संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष विरोध याचिका प्रस्तुत कर सकता है। पीड़ित पक्ष निम्नलिखित कार्य कर सकता है-
- वह विरोध याचिका में कारण बता सकता है कि वह पुलिस रिपोर्ट से क्यों असंतुष्ट है।
- वह मजिस्ट्रेट की निगरानी में आगे की जांच के लिए प्रार्थना कर सकता है।
- वह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 200 और धारा 202 के तहत आगे की कार्यवाही के लिए भी प्रार्थना कर सकता है।
3. जब मजिस्ट्रेट धारा 156(3) के तहत आगे की जांच का निर्देश देता है
मजिस्ट्रेट को दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 190 के तहत किसी मामले का संज्ञान लेने के बाद धारा 156(3) के तहत संज्ञेय अपराध की किसी भी जांच का निर्देश देने का अधिकार दिया गया है। यदि कोई पुलिस अधिकारी किसी मामले की ठीक से जांच करने में विफल रहता है, तो जिस मजिस्ट्रेट के पास उस मामले का संज्ञान लेने की क्षमता है, वह जांच का निर्देश दे सकता है। न्यायिक मजिस्ट्रेटों को संज्ञेय अपराधों का संज्ञान लेने का अधिकार है, लेकिन कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को यह अधिकार नहीं है।
अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत होने पर मजिस्ट्रेट क्या कर सकता है?
जब एक अंतिम रिपोर्ट यह कहते हुए प्रस्तुत की जाती है कि कोई अपराध नहीं किया गया है, तो मजिस्ट्रेट निम्नलिखित तीन तरीकों से आगे बढ़ सकता है-
1. मजिस्ट्रेट अंतिम रिपोर्ट स्वीकार कर सकता है
जब जांच अधिकारी धारा 173 के तहत अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करता है, तो मजिस्ट्रेट अंतिम रिपोर्ट स्वीकार कर सकता है। यदि मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी की अंतिम रिपोर्ट और उसके निष्कर्ष से सहमत है, तो वह कार्यवाही बंद कर सकता है।
2. मजिस्ट्रेट अंतिम रिपोर्ट को अस्वीकार कर सकता है
जब जांच अधिकारी धारा 173 के तहत अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करता है, तो मजिस्ट्रेट उसे प्रस्तुत अंतिम रिपोर्ट को अस्वीकार कर सकता है और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 190(1)(b) के तहत अपराध का संज्ञान ले सकता है। यदि मजिस्ट्रेट जांच के निष्कर्ष से संतुष्ट नहीं है तो वह इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है। यदि मजिस्ट्रेट मामले के तथ्यों से संतुष्ट है और मामले का संज्ञान लेने के लिए पर्याप्त आधार देखता है, तो वह मुकदमे के चरण में आगे बढ़ सकता है।
मजिस्ट्रेट की विवेकाधीन शक्ति
- पुलिस अधिकारी द्वारा उसे सौंपी गई अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार या अस्वीकार करना मजिस्ट्रेट की विवेकाधीन शक्ति के अंतर्गत है।
- मजिस्ट्रेट, अपने विवेक से, रिपोर्ट से असहमत हो सकता है और इसे अस्वीकार कर सकता है और उसे सौंपे गए या पुलिस रिपोर्ट के साथ संलग्न अन्य दस्तावेजों और सबूतों के आधार पर अपराध का संज्ञान ले सकता है।
3. मजिस्ट्रेट आगे की जांच का निर्देश दे सकता है
मजिस्ट्रेट जांच अधिकारी को मामले की आगे की जांच करने का निर्देश दे सकता है यदि वह संतुष्ट है कि जांच आकस्मिक तरीके से की गई थी और इसमें गहन और उचित जांच की आवश्यकता है। मजिस्ट्रेट धारा 156(3) के तहत आगे की जांच का निर्देश दे सकता है। जांच अधिकारी द्वारा अंतिम रिपोर्ट दायर किए जाने के बाद भी मजिस्ट्रेट को इस धारा के तहत किसी मामले में आगे की जांच करने की अपनी शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार है। संक्षेप में, मजिस्ट्रेट अंतिम रिपोर्ट में जांच अधिकारी द्वारा दिए गए निष्कर्ष और आगे की जांच के आदेश से सहमत नहीं हो सकता है।
जब विरोध याचिका दायर की गई हो तो एक मजिस्ट्रेट क्या कर सकता है?
जब विरोध याचिका दायर की गई है, तो मजिस्ट्रेट निम्नलिखित तीन तरीकों से आगे बढ़ सकता है-
1. मजिस्ट्रेट विरोध याचिका को खारिज कर सकता है
मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी द्वारा प्रस्तुत पुलिस रिपोर्ट को मंजूरी दे सकता है और पीड़ित पक्ष द्वारा दायर विरोध याचिका को खारिज कर सकता है। वह जांच अधिकारी की राय से सहमत हो सकता है और अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार कर सकता है।
2. मजिस्ट्रेट विरोध याचिका स्वीकार कर सकता है
मजिस्ट्रेट विरोध याचिका को मंजूरी दे सकता है, अंतिम रिपोर्ट को अस्वीकार कर सकता है, और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 190 के अनुसार अपराध का संज्ञान ले सकता है। वह जांच अधिकारी की राय से असहमत हो सकता है और अपराध करने वाले आरोपी को तुरंत बुला सकता है, जैसा कि जांच के दौरान एकत्र की गई सामग्रियों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
3. मजिस्ट्रेट विरोध याचिका को शिकायत याचिका के रूप में मान सकता है
मजिस्ट्रेट अंतिम रिपोर्ट को मंजूरी देने से पहले शिकायतकर्ता को सूचना जारी कर सकता है। यदि शिकायतकर्ता अंतिम रिपोर्ट के खिलाफ विरोध याचिका दायर करता है, तो मजिस्ट्रेट इसे शिकायत याचिका के रूप में मान सकता है और आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अध्याय XV में निर्धारित प्रावधानों के अनुसार विरोध याचिका पर कार्रवाई कर सकता है।
4. विरोध याचिका दायर होने के बाद मजिस्ट्रेट आगे की जांच का निर्देश दे सकता है
जब शिकायतकर्ता को सूचित किया जाता है, तो वह उचित औचित्य के साथ विरोध याचिका दायर कर सकता है कि वह इसे क्यों दायर कर रहा है। वह यह ध्यान में ला सकता है कि जांच कानून के प्रावधानों के अनुसार नहीं की गई थी। यदि मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता के कारणों से संतुष्ट है, तो वह मामले की आगे की जांच का निर्देश दे सकता है।
सीआरपीसी की धारा 173 के संबंध में प्रासंगिक न्यायिक घोषणाएँ
- समाज परिवर्तन समुदाय बनाम केरल राज्य (2012) 7 एससीसी 407 के मामले में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि पुलिस अधिकारी जो किसी मामले की जांच का प्रभारी है, उसे अतिरिक्त जानकारी या सबूत मिलता है, तो उसके लिए इसे निर्धारित प्रारूप में पूरक रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को अग्रेषित करना अनिवार्य है। यह भी देखा गया कि दोबारा जांच की अनुमति नहीं है, लेकिन आगे की जांच निषिद्ध नहीं है। पुलिस अधिकारी आरोप पत्र (चार्ज शीट) दाखिल करने के बाद आगे की जांच कर सकते हैं। सच्चाई का पता लगाने और जनता को प्रभावी न्याय दिलाने के लिए आगे की जांच आवश्यक है। इसे सिर्फ इसलिए नहीं रोका जाएगा क्योंकि इससे मुकदमे के समापन की प्रक्रिया में देरी हो रही है।’ पुलिस अधिकारी को धारा 173(8) के तहत किसी मामले की आगे की जांच करने का वैधानिक अधिकार है, हालांकि यह मजिस्ट्रेट पर निर्भर है कि वह उसे प्रस्तुत रिपोर्ट से सहमत है या असहमत है।
- विनुभाई हरिभाई मालवीय और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2019) 17 एससीसी के मामले में, उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया। इस आधार पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी कि वीनूभाई के कानूनी उत्तराधिकारियों ने मूल्य वृद्धि के कारण सूरत में जमीन के संबंध में पावर-ऑफ-अटॉर्नी बनाकर एक साजिश रची है। अभियुक्त ने जमीन के वैध मालिकों से जमीन हड़पने की कोशिश की थी। उच्चतम न्यायालय की राय थी कि मजिस्ट्रेट किसी मामले के संज्ञान के बाद के चरण में भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत अपनी शक्ति का उपयोग कर सकता है। इसलिए, न्यायालय ने यह कहते हुए एक डिक्री पारित की कि मजिस्ट्रेट धारा 156(3) के साथ पठित धारा 173(8) के अनुसार मुकदमे के चरण में जाने से पहले किसी मामले में आगे की जांच के लिए निर्देश दे सकता है और दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 2(h), किसी जांच की पुलिस रिपोर्ट होने के बाद भी निर्देश दे सकता है।
- श्री देसराजू वेणुगोपाल बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो (2021) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173(8) उस जांच एजेंसी या पुलिस अधिकारी को, जो किसी विशेष मामले का प्रभारी है, आरोप-पत्र प्रस्तुत करने के बाद भी किसी मामले में जांच करने की निरंकुश (अनफेटर्ड) शक्ति देती है या बिना किसी शर्त या प्रतिबंध के रिपोर्ट के शक्ति देती है। जांच एजेंसी को आगे की जांच के लिए मजिस्ट्रेट से पूर्व अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है। यह भी कहा गया था कि सिर्फ इसलिए कि कोई भी सबूत परीक्षण चरण में दायर किया जाता है (यानी, पुलिस रिपोर्ट जमा करने के बाद) इसका मतलब यह नहीं है कि इसे खारिज कर दिया जा सकता है। आगे की जांच करने की शक्ति किसी मामले के प्रभारी अधिकारी का वैधानिक अधिकार है।
- भगवंत सिंह बनाम पुलिस आयुक्त और अन्य (1985) के मामले में, यह देखा गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) के बावजूद, यदि पुलिस अधिकारी मामले की जांच नहीं करने का निर्णय लेता है क्योंकि उसे लगता है कि जांच के लिए पर्याप्त आधार उपलब्ध नहीं हैं, तो उसे धारा 157(2) के तहत शिकायतकर्ता को सूचित करना आवश्यक है। यह उसका कर्तव्य है कि वह मामले के बारे में अपने कार्यों के बारे में शिकायतकर्ता को बताए और जो रिपोर्ट उसने मजिस्ट्रेट को सौंपी है वह शिकायतकर्ता को दी जानी चाहिए। पुलिस अधिकारी से रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद, जहां यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि अपराध किया गया है, मजिस्ट्रेट या तो रिपोर्ट को मंजूरी दे सकता है और मामले का संज्ञान ले सकता है, रिपोर्ट को अस्वीकार कर सकता है और कार्यवाही बंद कर सकता है, या धारा 156 (3) के तहत आगे की जांच का आदेश दे सकता है और आगे की रिपोर्ट उन्हें सौंप सकता है। दूसरी ओर, यदि रिपोर्ट में कहा गया है कि कोई अपराध नहीं किया गया है, तो मजिस्ट्रेट या तो रिपोर्ट को मंजूरी दे सकता है और कार्यवाही बंद कर सकता है, या रिपोर्ट से असहमत हो सकता है और मामले का संज्ञान ले सकता है और पर्याप्त आधार की उपलब्धता पर आगे बढ़ सकता है या धारा 156(3) के तहत आगे की जांच करने का आदेश दें सकता है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रिपोर्ट पर विचार करते समय शिकायतकर्ता को मजिस्ट्रेट द्वारा सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए।
- बिहार राज्य और अन्य बनाम जे.ए.सी.सलदान्हा और अन्य (1980) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 156(3) के तहत आगे की जांच करने की मजिस्ट्रेट की शक्ति किसी भी तरह से राज्य सरकार की शक्ति के साथ टकराव में नहीं है। यदि कोई संज्ञेय अपराध किया गया है तो आगे की जांच का निर्देश देना मजिस्ट्रेट की स्वतंत्र शक्ति है। जांच अधिकारी द्वारा अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के बाद भी वह इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है। मजिस्ट्रेट अपने विवेक से या तो रिपोर्ट को मंजूरी दे सकता है या आगे की जांच का आदेश दे सकता है।
निष्कर्ष
कोई भी मामला सीआरपीसी की धारा 173 के तहत दायर पुलिस रिपोर्ट के आधार पर शुरू होता है, जो किसी मामले की जांच के दौरान पुलिस द्वारा खोजे गए सभी सबूतों और सूचनाओं से संबंधित है। इसमें वे सभी तथ्य और साक्ष्यों की सूची शामिल है जो किसी विशेष कार्यवाही के लिए मजिस्ट्रेट को भेजे जाते हैं। इसमें यह भी बताया गया है कि पुलिस ने जो निष्कर्ष निकाला वह जांच का अंतिम परिणाम था। रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित कर दी जाती है जिसके पास मामले को आगे बढ़ाने का क्षेत्राधिकार होता है और पुलिस रिपोर्ट देखने के बाद इसे खारिज करने का विवेक होता है। पुलिस अधिकारी के पास यह तय करने का अधिकार नहीं है कि किसी विशेष मामले में सुनवाई के चरण में आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त सबूत उपलब्ध हैं या नहीं हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
विरोध याचिका क्या है?
विरोध याचिका शिकायतकर्ता या पीड़ित व्यक्ति द्वारा तब प्रस्तुत की जाती है जब वह पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत की गई पुलिस रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं होता है और व्यक्ति पुलिस रिपोर्ट के विरुद्ध याचिका दायर कर सकता है। इस याचिका को विरोध याचिका कहा जाता है। इसे संहिता में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। संक्षेप में, यह अंतिम रिपोर्ट के विरुद्ध प्रस्तुत की गई आपत्ति (ऑब्जेक्शन) है।
मजिस्ट्रेट आगे की जांच का आदेश कब देता है?
मजिस्ट्रेट मुख्य रूप से दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 173(2) के तहत पुलिस द्वारा अदालत में प्रस्तुत की गई पुलिस रिपोर्ट के खिलाफ मुखबिर द्वारा दायर विरोध याचिका के आधार पर आगे की जांच का आदेश देता है।
क्या मजिस्ट्रेट स्वत: संज्ञान लेकर जांच शुरू कर सकता है?
दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 173(8) के अनुसार, किसी आपराधिक मामले में आगे की जांच के लिए स्वत: निर्देश देना मजिस्ट्रेट की विवेकाधीन शक्ति नहीं है।
रिपोर्ट को कौन रद्द कर सकता है, रोक सकता है या आगे बढ़ा सकता है?
जब धारा 173(2) के तहत कोई रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है, तो मजिस्ट्रेट रिपोर्ट को रद्द करने, रोकने या आगे बढ़ने की अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकता है। पुलिस या जांच अधिकारियों को ऐसा करने का अधिकार नहीं है। केवल उचित क्षेत्राधिकार वाला सक्षम न्यायालय ही मामले से निपट सकता है और मामले को रद्द कर सकता है, रोक सकता है या आगे बढ़ा सकता है।
क्या जांच अधिकारी को आगे की जांच करने के लिए मजिस्ट्रेट से औपचारिक अनुमति लेने की आवश्यकता है?
आगे की जांच करने के लिए मजिस्ट्रेट से औपचारिक अनुमति लेना अनिवार्य नहीं है। कानून आगे की जांच के लिए मजिस्ट्रेट से पूर्व अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य नहीं बनाता है।
क्या जांच अधिकारी न्यायालय के आदेश के बिना आगे की जांच शुरू कर सकता है?
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी भी मामले में आगे की जांच केवल अदालत के आदेश से ही शुरू की जा सकती है जहां अंतिम रिपोर्ट पहले ही प्रस्तुत की जा चुकी है। जांच अधिकारी के पास ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने पीतांबरन बनाम केरल राज्य और अन्य (2023) के मामले में यह देखा।
संदर्भ