यह लेख स्कूल ऑफ लॉ, क्राइस्ट यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु के छात्र Parth Verma ने लिखा है। यह लेख 52वें संविधान संशोधन की विशेषताओं, इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उद्देश्यों, अपवादों, वर्तमान मुद्दों और उन्हें दूर करने के तरीकों की व्याख्या करना चाहता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय
एक कहावत है कि ‘सत्ता भ्रष्ट करती है, और पूर्ण सत्ता पूर्ण रुप से भ्रष्ट करती है।’ सत्ता हासिल करने की यह खोज राजनेताओं विशेष रूप से विधान सभाओं के सदस्यों (विधायकों) में भी दिखाई देती है। आजादी के लगभग 40 साल बाद तक, विधायक संसद या राज्य विधानसभा में सीट पाने के लिए सत्ता में आने वाले विभिन्न दलों के बीच बदलाव करते थे। इसने बड़े पैमाने पर दलबदल के कारण बहुत सारे दलों को भंग कर दिया, जिससे विभिन्न राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई, जिसमें बहुसंख्यक दल लगातार बदलते रहे। यह मंत्रियों के निहित स्वार्थों से उत्पन्न एक राजनीतिक समस्या थी। इस तरह की भ्रष्ट प्रथाओं को समाप्त करने के लिए, 1985 में 52 वां संविधान संशोधन पेश किया गया था, यह संशोधन निश्चित रूप से उस समय के राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ा बदलाव लाया क्योंकि विधायकों के बीच अन्य राजनीतिक दलों के दलबदल पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया था। हालाँकि, इसे कुछ खामियों का सामना करना पड़ा जिनका विभिन्न राजनेताओं द्वारा आज तक शोषण किया जा रहा है।
नतीजतन, सभी खामियों को कवर करने के लिए मौजूदा दलबदल कानूनों में कुछ बदलाव लाना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। इस लेख का उद्देश्य इन सभी प्रमुख कमियों को देखना और उन्हें संबोधित करना है। इससे उन सभी अस्पष्टताओं को हल करने में मदद मिलेगी जो अभी भी भारत के दलबदल विरोधी कानूनों में मौजूद हैं।
52वें संविधान संशोधन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
यूनिवर्सल एडल्ट फ्रैंचाइज़ की अवधारणा भारत में अंग्रेजों द्वारा पेश की गई थी। 18 वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए मतदान देने का अधिकार मिला है। हालाँकि, स्वतंत्रता से पहले भी, राजनीतिक दलबदल होते थे जो इस अधिकार और लोकतंत्र के सिद्धांतों को कमजोर करते थे। राजनेताओं ने कैबिनेट में एक सीट प्राप्त करने और सत्ताधारी दल के सदस्य बनने के लिए इस तरह की प्रथाओं में शामिल किया। इस तरह के बड़े पैमाने पर दलबदल से विभिन्न राज्यों में बहुसंख्यक दलों का पतन हो रहा था जिससे राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई।
विधानसभा सदस्य (एमएलए) द्वारा दलबदल का सबसे प्रमुख मामला गया लाल का था। यह घटना 1967 में हुई थी। वह हरियाणा राज्य विधानसभा के सदस्य थे और बाद में उन्होंने एक ही दिन में तीन बार दल बदले। उन्होंने जनता दल में शामिल होने के लिए सबसे पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से दलबदल किया था। बाद में, वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए। फिर कांग्रेस में शामिल होने के नौ घंटे के भीतर, वह जनता दल में वापस चले गए। यह पूरी तरह से अनुचित प्रथा थी और इसने ‘आया राम गया राम’ की अत्यधिक कुख्यात अभिव्यक्ति को जन्म दिया। इसने लोगों के अधिकारों का हनन किया क्योंकि उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ने नागरिकों की अपेक्षाओं की अवहेलना करते हुए लगातार दल को बदलते रहे।
1960 के दशक से 1970 के दशक के अंत तक, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस तरह के दलबदल का एक बड़ा लाभ उठाने में सक्षम थी। इसने लगभग 100 राजनेताओं को दलबदल के माध्यम से खो दिया, लेकिन साथ ही, इसने लगभग 400 और राजनेताओं को प्राप्त किया। वे देश में सत्तारूढ़ दल के रूप में अपने नियंत्रण को मजबूत करने में सक्षम थे। वे सभी जो अन्य दलों से अलग हो गए लेकिन कांग्रेस में शामिल नहीं हुए, उनका उद्देश्य एक साथ गठबंधन बनाने का था। नतीजतन, 1967 के चुनावों के दौरान भारी दलबदल हुआ।
1967 में, संसद में दलबदल विरोधी विधेयक (बिल) प्रस्तुत करने के लिए एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए एक समिति का गठन किया गया था। हालाँकि, 1977 तक कोई और विकास नहीं हुआ। 1977 में, मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार, जो केंद्रीय स्तर पर पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी, ने संसद के 76 सदस्यों का दलबदल देखा। परिणामस्वरूप, उन्होंने अपनी शक्ति खो दी और 1979 तक सत्ताधारी दल के संबंध में अनिश्चितता बनी रही। अंततः, 1979 में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुई। लगभग सभी राज्यों में, गैर-कांग्रेसी सांसदों के बीच बड़े पैमाने पर दलबदल के कारण क्षेत्रीय दल अपनी शक्ति खो रहे थे। यह सब लोगों द्वारा विरोध और जांच को बढ़ा रहा था।
अंततः, 1984 में, राजीव गांधी ने संसद के समक्ष एक नया दलबदल विरोधी विधेयक पेश किया, जिसे 1985 में राष्ट्रपति की सहमति के साथ लोकसभा और राज्यसभा की मंजूरी प्राप्त करने के बाद पारित किया गया था। यह दल-बदल विरोधी कानून राजनेताओं द्वारा दलों के बीच दल-बदल की असंवैधानिक प्रथा को रोकने की दिशा में पहला बड़ा कदम था। हालाँकि, कानून में अभी भी कुछ कमियाँ हैं, जिसके कारण राजनीतिक दल और नागरिक अब तक पीड़ित हैं।
52वें संविधान संशोधन के उद्देश्य
इस संशोधन का प्राथमिक उद्देश्य राजनीतिक दलबदल के बढ़ते मामलों पर अंकुश लगाना था जो सीधे संवैधानिक सिद्धांतों और देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर रहे थे। निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किए जा सकते हैं जिन्हें यह संशोधन प्राप्त करना चाहता है:
- इसका उद्देश्य दलबदल के माध्यम से हो रहे राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोकना था। यह बदले में, अन्य सभी वाणिज्यिक (कमर्शियल) और राजनीतिक गतिविधियों को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
- संशोधन का उद्देश्य राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करके मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना भी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस दल के पास बहुमत है वह किसी भी प्रकार के दलबदल माध्यम से बिना किसी असुरक्षा के शासन करने में सक्षम होगी।
- इस संशोधन में प्रस्तावित दलबदल विरोधी कानून राजनेताओं को अपने दल के प्रति काफी हद तक जवाबदेह रखने में मदद करेगा। साथ ही वे अपने दल के प्रति वफादार और जिम्मेदार भी बनेंगे।
- इस संशोधन का एक अन्य प्रमुख उद्देश्य उन सभी मंत्रियों का पता लगाना था जो इस तरह के दलबदल में शामिल थे और उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करना था। नतीजतन, दलबदल करने वाले राजनेताओं को सीधे उनके पद से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। इसका एक अच्छा निवारक (डिटरेंट) प्रभाव होगा और यह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा भी करेगा।
- इस संशोधन का उद्देश्य राजनीतिक दलों विशेषकर क्षेत्रीय दलों के हितों की रक्षा करना भी था क्योंकि इन दलों में दलबदल सबसे अधिक था। इन दलों के राजनेता ज्यादातर बहुसंख्यक राष्ट्रीय पार्टियों में शामिल होते थे।
ये वे उद्देश्य थे जिन्हें यह संशोधन दल-बदल विरोधी कानून लाकर हासिल करना चाहता था।
52वें संविधान संशोधन की मुख्य विशेषताएं
दसवीं अनुसूची
1985 में पेश किए गए दलबदल विरोधी कानून को भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के रूप में जोड़ा गया था। जैसा कि पहले कहा गया है, इस अधिनियम का मूल उद्देश्य एक ओर राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए राजनेताओं के बीच राजनीतिक दलबदल को हतोत्साहित करना और दूसरी ओर नागरिकों के विश्वास की रक्षा करना है। 1985 के 85वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से दसवीं अनुसूची को संविधान में शामिल किया गया था।
दलबदल करने वाले मंत्रियों की अयोग्यता
दलबदल विरोधी कानून उन सभी मंत्रियों की अयोग्यता पर केंद्रित है जो दलबदल के ऐसे जघन्य (हिनियस) कार्यों में शामिल हैं। सभी मंत्री जो किसी दल से जुड़े हैं या यहां तक कि व्यक्तिगत उम्मीदवारों को भी निर्वाचित (इलेक्टेड) होने के बाद किसी अन्य दल में शामिल होने की अनुमति नहीं है क्योंकि इसका मतलब अंततः जनता की अवहेलना करना होगा जिसने मंत्री में विश्वास दिखाया है। हालांकि, कानून के तहत अयोग्य घोषित किए गए सदस्य अभी भी किसी भी राजनीतिक दल से उसी सदन में सीट पाने के लिए चुनाव लड़ सकते हैं, जहां से उन्हें हटाया गया था।
अध्यक्ष (चेयरपर्सन) के पास शक्तियां
संबंधित सदन के अध्यक्ष को दलबदल के आधार पर किसी भी मंत्री को अयोग्य घोषित करने की शक्ति होती है। हालाँकि, इनके निर्णय भी अदालतों द्वारा ‘न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू)’ के अधीन हैं। ये ‘न्यायिक समीक्षा’ से पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं और न्यायपालिका हमेशा उनके प्रभावी निर्णय लेने पर नजर रखेगी।
साथ ही, कोई निर्धारित समय सीमा नहीं है जिसके भीतर अध्यक्ष द्वारा मंत्री के दलबदल के संबंध में ऐसा निर्णय दिया जाना है। हालाँकि, इस शक्ति को प्रकृति में विवेकाधीन माना गया था और संसद के सदनों के अध्यक्ष की निष्पक्ष प्रकृति के संबंध में विभिन्न प्रश्न उठाए गए थे।
अयोग्यता के लिए आधार
एक निर्वाचित सदस्य को अयोग्य ठहराया जा सकता है यदि संबंधित सदन के अध्यक्ष इसे विभिन्न मानदंडों (क्राइटेरिया) के अनुसार उपयुक्त पाते हैं। निर्धारित किए गए विभिन्न मानदंड इस प्रकार हैं:
- जब निर्वाचित सदस्य अपनी मर्जी से अपनी संबद्धता (एफिलिएशन) या राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देते हैं, तो उन्हें निश्चित रूप से दलबदल के आधार पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
- यदि निर्वाचित सदस्य मतदान देता है या मतदान नहीं देता है, जो कि राजनीतिक दल या दल की ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गए किसी आदेश या निर्देश के विपरीत है, तो उनकी पूर्व अनुमति प्राप्त किए बिना, सदस्य को अयोग्य घोषित किया जा सकता है। इसे पार्टी व्हिप के नाम से भी जाना जाता है।
हालांकि, यह इस अपवाद के अधीन है कि निर्वाचित सदस्य के गैर-मतदान को इस तरह के आयोजन के 15 दिनों के भीतर राजनीतिक दल द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
3. जब कोई व्यक्ति शुरू में एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ता है, लेकिन बाद में किसी अन्य दल में शामिल हो जाता है, तो उसे दलबदल के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, जिससे उन्हें अपना पद धारण करने से अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
4. जब नामांकित (नॉमिनेटेड) सदस्य छह महीने की अवधि समाप्त होने के बाद किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है, तो उन्हें अयोग्य घोषित किया जा सकता है क्योंकि यह स्पष्ट रूप से दलबदल होगा।
ये प्रमुख आधार हैं जिनके आधार पर एक निर्वाचित सदस्य को अयोग्य घोषित किया जा सकता है। ये सभी दल-बदल और उसी के लिए मूल्यांकन, जैसा कि पहले कहा गया है, संसद के संबंधित सदन के अध्यक्ष द्वारा होगा।
साबित करने का भार
यह साबित करने का भार कि दल छोड़ने की कोई इच्छा नहीं थी, उस निर्वाचित सदस्य पर है जिस पर कथित तौर पर दल से दलबदल करने का आरोप है और जिसके खिलाफ ऐसे आरोप लगाए गए हैं। उन्हें अदालत के समक्ष यह साबित करने की आवश्यकता है कि किसी भी मंजूरी से खुद को बचाने के लिए उनकी ओर से कोई गलत इरादा नहीं था।
रवि एस नाइक बनाम भारत संघ (1994), के मामले में अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि यदि किसी विशेष सदस्य को किसी अयोग्यता का सामना करना पड़ा है और वह सदस्य कहता है कि दल में विभाजन हो गया है, तो उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जाना चाहिए।
दलबदल विरोधी कानून के अपवाद
इस संशोधन के प्रावधानों का उद्देश्य 1967 के चुनावों के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्यों के स्थानांतरण (शिफ्टिंग) को रोकना था। हालाँकि, इन प्रावधानों के कुछ अपवाद भी हैं। हालांकि व्यक्तिगत दलबदल की अनुमति नहीं है, सांसदों के एक समूह (संसद सदस्य) या विधायकों (विधान सभा के सदस्य) को बिना किसी दंड के अन्य दलों में शामिल होने या विलय (मर्ज) करने की अनुमति है। दूसरे शब्दों में, सामूहिक दल-बदल यानी, विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्यों के ‘एक तिहाई’ द्वारा दलबदल को ‘विलय’ माना जाता था। हालाँकि, विलय के नाम पर इस तरह के बड़े पैमाने पर दलबदल उन राजनीतिक दलों के लिए हानिकारक साबित हुए हैं जिन्होंने एक ही कारक के कारण अपनी शक्ति खो दी है।
यह माना जाता था कि सामूहिक दलबदल मुख्य रूप से विभिन्न दलों के साथ विलय के अच्छे उद्देश्य के लिए किया गया था। हालांकि, ज्यादातर मामलों में, ये भी लाभ के मकसद को पूरा करने और एक समूह के रूप में मंत्रियों की शक्ति की तलाश के लिए थे। इसे समझते हुए 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 में इस सीमा को बढ़ाकर दो-तिहाई कर दिया गया। दूसरे शब्दों में, अब दल के कम से कम 2/3 सदस्यों को विलय करना पड़ेगा, जिससे यह लागू कानूनों के तहत वैध हो जाएगा।
यह सामान्य अपवाद है जो दलबदल विरोधी कानून की अवधारणा के विपरीत है। इसे आज तक एक अनुचित प्रथा माना जाता है।
52वें संविधान संशोधन से संबंधित ऐतिहासिक निर्णय
केशवानंद भारती बनाम भारत संघ (1973)
इस मामले में बड़ी संख्या में पहलुओं को शामिल किया गया था जिन्हें बाद में भारतीय संविधान में शामिल किया गया था। इस मामले में, यह कहा गया है कि ‘न्यायिक समीक्षा’ संविधान की मूल संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे किसी भी परिस्थिति में अदालतों से दूर नहीं किया जा सकता है। नतीजतन, अध्यक्ष का निर्णय अदालतों की ‘न्यायिक समीक्षा’ के अधीन होना पूरी तरह से मान्य है।
राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य और अन्य (2007)
इस मामले ने दलबदल के लिए अयोग्यता के आधार के तहत ‘स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ देता है’ शब्द के अर्थ का विस्तार किया। यह कहा गया था कि जब किसी राजनीतिक दल का एक निर्वाचित सदस्य राज्यपाल को एक पत्र देता है जिसमें वह विरोधी दल के नेता को बुलाने का उल्लेख करता है, तो यह माना जाता है कि उन्होंने जानबूझकर उस मूल दल की सदस्यता को आत्मसमर्पण (सरेंडर) कर दिया है जिसका वे एक हिस्सा थे। इसके अलावा, इसने न्यायपालिका के साथ ‘न्यायिक समीक्षा’ की शक्ति पर भी जोर दिया, जो कि जब तक अन्यथा न कहा गया हो, विधायक सदस्य द्वारा पारित किसी भी निर्णय पर मान्य होगा।
मन्नादी सत्यनारायण रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश विधान सभा और अन्य (2009)
इस मामले में, अपीलकर्ता द्वारा अध्यक्ष या पीठासीन (प्रेसिडिंग) अधिकारी के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) के संबंध में एक प्रश्न उठाया गया था। हालांकि, आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि दसवीं अनुसूची के भीतर कोई प्रावधान नहीं है जो अध्यक्ष को कोई भी निर्णय लेने से पूरी तरह से रोकता है। अदालत ने आगे कहा कि जब कार्यवाही चल रही है तो अदालतों के पास ‘न्यायिक समीक्षा’ उपलब्ध नहीं है और समय पर कार्रवाई की भी अनुमति नहीं होगी। यहां तक कि कार्यवाही के चरण में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है। विवादों को सुलझाने की शक्ति, जो अध्यक्ष में निहित है, एक न्यायिक शक्ति है। इसलिए, वे जो निर्णय पारित करेंगे, वह अंतिम माना जाएगा।
केशम मेघचंद्र सिंह बनाम मणिपुर के माननीय अध्यक्ष (2020)
यह दसवीं अनुसूची में बताए गए मौजूदा दल-बदल विरोधी कानूनों की आलोचना करने वाला हाल ही के फैसलों में से एक है। न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि दल-बदल विरोधी कानून आधुनिक समय में दोषों के साथ था और किसी भी व्यक्ति को अयोग्य ठहराने की पूरी शक्ति अध्यक्ष के हाथों में केंद्रित थी। यह प्रकृति में अत्यधिक विवेकाधीन हो सकता है क्योंकि अध्यक्ष का अपने राजनीतिक दल के प्रति या तो कानूनी या वास्तविक रूप से झुकाव होगा। नतीजतन, उन्होंने सुझाव दिया कि एक बाहरी तंत्र होना चाहिए जो निर्वाचित सदस्यों द्वारा दलबदल के मामलों का निपटान करेगा। यह सबसे पहले यह सुनिश्चित करेगा कि किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह या निष्पक्षता की कोई संभावना नहीं है और दूसरा, यह कथित दलबदलू को अपने मामले का प्रतिनिधित्व करने का उचित अवसर प्रदान कर सकता है।
किहोतो होलोहन बनाम ज़चिल्हू और अन्य (1992)
इस मामले में, न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या दल-बदल विरोधी कानून सीधे तौर पर विधायिका के सदस्यों की भाषण और अभिव्यक्त (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा है कि हालांकि सभी को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी है, लेकिन राजनीतिक दल और लोगों के अधिकारों की कीमत पर व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने के लिए इसका उपयोग अनुचित या अप्रतिबंधित तरीके से नहीं किया जा सकता है। दल-बदल विरोधी कानून का उद्देश्य कुछ अन्य सैद्धांतिक (थ्योरोटिकल) मान्यताओं पर व्यक्तिगत और सामाजिक आचरण के गुणों को अधिक वरीयता देना है। इसलिए, दलबदल विरोधी कानून विधायक के किसी भी अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है बल्कि उन्हें दुर्भावनापूर्ण गतिविधियों में शामिल होने से रोकता है। नतीजतन, यह कानून संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा बनता है और एक ही समय में नागरिकों और सरकार के अधिकारों की रक्षा करता है।
राज्यपाल की भूमिका
लगभग 20वीं शताब्दी के अंत तक राज्यपाल की राज्य को किसी भी प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता का सामना करने से बचाने में एक बड़ी भूमिका थी। यदि उन्हें लगता है कि सत्तारूढ़ दल राज्य के मामलों का प्रबंधन (मैनेजमेंट) करने में सक्षम नहीं है या जब सत्ताधारी दल से बड़े पैमाने पर दलबदल हो रहा है, तो वे संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राज्य आपातकाल लगाने के लिए राष्ट्रपति को यह जानकारी दे सकते हैं। हालांकि, एस.आर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले के बाद ऐसी सिफारिश करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
वर्तमान समय में राज्यपाल को मंत्रियों की अयोग्यता के मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। दसवीं अनुसूची के तहत इसका एकमात्र अधिकार सदन के अध्यक्ष के पास है। यदि उनका निर्णय मौजूदा कानूनी प्रावधानों के विपरीत है तो इसे अदालतों द्वारा ‘न्यायिक समीक्षा’ के लिए लिया जा सकता है, लेकिन राज्यपाल के पास मामले को अपने हाथ में लेने की कोई शक्ति नहीं है। राज्यपाल के पास कोई संवैधानिक विवेक नहीं है जो उन्हें पहले ऐसे मामलों को देखने के लिए अध्यक्ष के संवैधानिक अधिकार को छीनने के लिए दिया गया था।
52वें संविधान संशोधन में मुद्दे
1985 में 52वां संशोधन पेश किया गया जिसमें कई कमियां थीं। इसके बावजूद इसे और प्रभावी बनाने के लिए कानून में शायद ही कोई बदलाव लाया गया हो। 52वें संशोधन से संबंधित विभिन्न मुद्दे इस प्रकार हैं:
- दलबदल के आधारों के बीच, यह कहा गया है कि यदि व्यक्ति पार्टी व्हिप के विपरीत मतदान देता है, तो उन्हें अयोग्य घोषित किया जा सकता है क्योंकि यह माना जाएगा कि उन्होंने दलबदल किया है। दूसरे शब्दों में, उन्हें दल के निर्णय का आँख बंद करके पालन करना होगा और यदि यह दल की नीतियों के विपरीत है तो उन्हें अपने निर्णय के लिए मतदान करने की कोई स्वतंत्रता नहीं होगी।
- किसी दिए गए निर्णय को लेने के लिए अधिकतम समय सीमा का कोई विवरण नहीं है। परिणामस्वरूप, संबंधित सदन के अध्यक्ष की ओर से निर्णय लेने की प्रक्रिया में लंबा विलंब हो सकता है।
- इस संशोधन में प्रस्तावित दल-बदल विरोधी कानून ने जवाबदेही की श्रृंखला को पूरी तरह से तोड़ दिया है क्योंकि विधायक मुख्य रूप से केवल राजनीतिक दल के प्रति जवाबदेह हो गए हैं।
- दल-बदल विरोधी कानून में किए गए 91वें संशोधन ने मंत्री की अयोग्यता के अपवाद के लिए प्रदान किया यदि उनमें से दो-तिहाई दलबदल करते हैं। इसे विलय माना जाता था लेकिन वास्तव में यह दल-बदल को बढ़ावा देने का एक रूप है जो दल के हितों को नुकसान पहुंचाता है।
- नियमों ने प्रमुख दलों को क्षेत्रीय दलों का लाभ उठाने के लिए प्रेरित किया है। उनके पास बहुत अधिक प्रभाव और धन शक्ति है जिसका उपयोग वे इन दलों के मंत्रियों को आकर्षित करने और उन्हें अपने साथ जोड़ने के लिए कर सकते हैं। इसने अनिवार्य रूप से विधायकों की एक दल से दूसरी दल में खरीद-फरोख्त (हॉर्स ट्रेडिंग) को बढ़ावा दिया है जो किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए हानिकारक है।
- 1965 में लगातार दलबदल हो रहे थे जिसके कारण ‘आया राम, गया राम’ का नारा फैल गया। इसलिए यह पता लगाया जा सकता है कि दलबदल से राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है जिससे समग्र प्रशासन प्रभावित होता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार दलबदल के मामलों पर फैसला करने के लिए एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) स्थापित करने का सुझाव दिया है लेकिन इस संबंध में संसद द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई है। न्यायालय और अन्य प्राधिकारियों (अथॉरिटी) के बीच उचित संचार में कई बाधाएं रही हैं जिसके कारण उचित कार्रवाई करने में देरी हुई है।
वर्तमान समय में ये कुछ प्रमुख मुद्दे हैं जो दलबदल विरोधी कानून से संबंधित 52वें संविधान संशोधन में मौजूद हैं। इसलिए, राजनीतिक दलों और सामान्य रूप से पूरे समाज के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए कुछ बदलाव करने की आवश्यकता है।
वर्तमान परिदृश्य
दल-बदल विरोधी कानून के उपयोग के संबंध में वर्तमान स्थिति बहुत उत्साहजनक नहीं है। कानूनों में संशोधन के बावजूद, भारत में बड़े पैमाने पर दलबदल अभी भी बहुत आम है। इसका राजनीतिक दलों और पूरे सरकारी तंत्र पर हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है।
ताजा मामला महाराष्ट्र में शिवसेना के बीच हो रहे दलबदल का है। 22 जून, 2022 को मुंबई में शिवसेना के विधान सभा के सदस्यों के बीच दल के बागी नेता एकनाथ शिंदे के साथ विधायकों की हाल ही के स्थानांतरण पर चर्चा करने के लिए एक बैठक हुई, जो असम में मुख्य दल का विरोध कर रहे हैं। दल ने सभी सदस्यों को स्पष्ट संकेत दिया कि बैठक से उनकी अनुपस्थिति से यह अनुमान लगाया जाएगा कि वे दल-बदल विरोधी कानूनों का उल्लंघन करते हुए दल छोड़ना चाहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत व्यापक दृष्टिकोण के साथ दलबदल के लिए अयोग्यता के आधार की व्याख्या की है और विधायक के आचरण को ध्यान में रखा जा सकता है ताकि उनके इरादे को निर्धारित किया जा सके।
हालाँकि, यदि दो-तिहाई सदस्य दल से अलग हो जाते हैं तो उन्हें दलबदल के आरोपों का सामना करने से बचाया जाएगा क्योंकि इसे विलय माना जाएगा।
शिवसेना के वर्तमान मामले में, लगभग 30 विधायक एकनाथ शिंदे के साथ थे, जिनमें से लगभग 55 को विलय करने की आवश्यकता थी, जिससे सामूहिक दलबदल के तहत दायित्व से बच गए। इसलिए, दल-बदल विरोधी कानून के तहत सुरक्षा उन पर लागू नहीं हो सकती है। ऐसी स्थिति में या तो सभी बागी विधायक दलबदल के कारण आवश्यक दस्तावेजी साक्ष्य के साथ अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे, अन्यथा सबूत का भार एकनाथ शिंदे के समूह और उनके साथ मौजूद विधायकों पर होगा कि वे उपाध्यक्ष को लिखें कि सुरक्षा का दावा करने के लिए उनके पास शिवसेना के निर्वाचित सदस्यों में से दो-तिहाई सदस्य हैं। मामले की सुनवाई अभी महाराष्ट्र राज्य विधानसभा के उपाध्यक्ष द्वारा की जानी है। यह दल-बदल विरोधी कानून में खामियों के दुरुपयोग के सबसे हाल ही के मामलों में से एक है जिसे अभी भी ठीक नहीं किया गया है।
इस घटना के अलावा, पिछले कुछ वर्षों में कई अन्य घटनाएं भी हुई हैं। 2021 में कांग्रेस के 17 में से 12 विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। नतीजतन, विधायकों के इस सामूहिक दलबदल से उनकी अयोग्यता नहीं हुई क्योंकि यह विलय के दायरे में आया था।
2017 में, कांग्रेस अकेली सबसे बड़ा दल था जिसे सबसे अधिक मतदान मिले लेकिन केंद्र स्तर पर सरकार नहीं बना सकी। यह उन दलबदलों के कारण था जो मंत्रियों की बड़ी धनराशि प्राप्त करने और उच्च शक्ति की तलाश में लिप्त थे। नतीजतन, कांग्रेस के लगभग दस विधायक भारतीय जनता दल (भाजपा) में चले गए, जिससे कांग्रेस के सदस्य मात्र दो रह गए। यह भी विलय के अपवाद के कारण दलबदल के बराबर नहीं था।
इन दोनों घटनाओं से यह स्पष्ट रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि इन सभी दलबदलुओं में भ्रष्टाचार निहित होने के बावजूद मंत्री आज तक अपने दायित्व से बचने में सक्षम हैं। दलबदल विरोधी कानून में कई खामियां और मुद्दे हैं और इसमें बदलाव लाने की सख्त जरूरत है।
सिफारिश
देश के दल-बदल विरोधी कानूनों में सभी प्रमुख मुद्दों के मूल्यांकन के बाद, निम्नलिखित परिवर्तनों को निश्चित रूप से शामिल करने की आवश्यकता है:-
- दलबदल के लिए विधायक सदस्य की अयोग्यता के संबंध में निर्णय एक स्वतंत्र समिति या यहां तक कि चुनाव आयोग द्वारा लिया जाना चाहिए ताकि अध्यक्ष की ओर से किसी भी पूर्वाग्रह की संभावना को कम किया जा सके।
- इस तरह के निर्णयों के निपटान के लिए एक विशिष्ट समय सीमा होनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई देरी न हो जिससे दल और साथ ही नागरिकों जिनने उन्हे चुना है दोनों को निराशा हो।
- विलय की आड़ में किसी राजनीतिक दल के मंत्रियों द्वारा सामूहिक दलबदल को रोकने के लिए मौजूदा दल-बदल विरोधी कानून में कुछ बदलाव होने चाहिए।
- साथ ही, विधायकों की भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए, अयोग्यता का आधार यह कहते हुए कि सरकार के दिशानिर्देशों के विपरीत अपना मतदान डालने वाले व्यक्ति को अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए, पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
- दलों को अपने आंतरिक तंत्र को मजबूत करने का लक्ष्य रखना चाहिए ताकि सदस्यों को सबसे पहले जवाबदेह ठहराया जा सके और परिणामस्वरूप दलबदल का सहारा न लें।
ये कुछ प्रमुख सिफारिशें हैं जिन पर सरकार के साथ-साथ राजनीतिक दलों को मंत्रियों के दलबदल को रोकने के लिए विचार करना चाहिए।
निष्कर्ष
दलबदल विरोधी कानून 1985 के 52वें संशोधन अधिनियम में पेश किया गया जो दसवीं अनुसूची का एक हिस्सा बन गया। उस समय यह एक स्वागत योग्य कदम था लेकिन उन कमियों से ग्रस्त था जिन्हें अभी भी संबोधित नहीं किया गया है। जबकि कुछ आधार विधायी सदस्यों के खिलाफ भेदभावपूर्ण हैं और उनके कानूनी अधिकारों के अभ्यास को प्रतिबंधित करते हैं, कुछ प्रावधान अध्यक्ष को विवेकाधीन शक्तियां प्रदान करते हैं और सामूहिक दलबदल की रक्षा करते हैं। दलबदल विरोधी कानूनों को उपयुक्त रूप से संशोधित करके विधायी सदस्यों के अधिकारों और नागरिकों और राजनीतिक दलों के हितों के बीच एक प्रभावी संतुलन हासिल करने की आवश्यकता है।
इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस मुद्दे को हल करने के लिए कुछ त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता है। यह राजनीतिक दलों के कल्याण और लोकतंत्र की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
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52वें संशोधन द्वारा कौन-सी अनुसूची जोड़ी गई?
52वें संशोधन अधिनियम, 1985 ने भारत में दलबदल विरोधी कानून पेश किया जो भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची का हिस्सा बन गया।
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दलबदल विरोधी कानून का अपवाद क्या है?
ऐसे मामले में जहां दल के दो-तिहाई सदस्य दोषपूर्ण होते हैं, इसे विलय माना जाएगा। इसलिए, दलबदल करने वाले सदस्यों को दलबदल विरोधी कानून के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।
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दलबदल के आधार पर विधायकों की अयोग्यता के संबंध में निर्णय लेने की शक्ति किसके पास है?
संबंधित सदन (लोकसभा या राज्य सभा) के अध्यक्ष को दलबदल के आधार पर किसी भी निर्वाचित सदस्य की अयोग्यता के संबंध में निर्णय लेने की शक्ति होती है।
संदर्भ