यह लेख Akash Krishnan द्वारा लिखा गया है और Shreya Patel द्वारा आगे अद्यतन किया गया है। यह लेख भावी अधिनिर्णय (प्रॉस्पेक्टिव ओवररूलिंग) के सिद्धांत की उत्पत्ति, अर्थ, दायरा और लाभों पर चर्चा करता है। इस सिद्धांत के अनुप्रयोग के मुख्य सिद्धांतों पर भी बेहतर समझ के लिए विचार किया गया है। लेख में भारत में उन मामलों का भी अध्ययन किया गया है, जहाँ इस सिद्धांत का उपयोग किया गया। इसके अतिरिक्त, यह लेख राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनी व्यवस्था में इस सिद्धांत के विकास और इसे मिलने वाली आलोचनाओं पर भी प्रकाश डालता है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।
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परिचय
क्या आप जानते हैं कि न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय केवल उस विशेष मामले पर ही लागू नहीं होते, बल्कि भविष्य में आने वाले उन सभी मामलों पर भी लागू होते हैं जो वर्तमान मामले के समान होते हैं। जब न्यायाधीश किसी मामले में निर्णय लेते हैं, तो वे केवल उस मामले का समाधान नहीं करते बल्कि भविष्य के समान मामलों के निर्णय का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं।
एक न्यायिक घोषणा उस विशेष मामले पर लागू होती है जिसमें वह दी गई थी, साथ ही भविष्य में आने वाले अन्य मामलों पर भी। यह “पूर्व उदाहरण (प्रीसीडेंट)” की धारणा का केंद्रीय पहलू है। जब किसी कानून की घोषणा न्यायालय द्वारा की जाती है, तो वह वर्णनात्मक (डिस्क्रिप्टिव) और निर्देशात्मक (प्रिस्क्रिप्टिव) दोनों होती है। निर्देशात्मक होने का अर्थ है कि कानून का उपयोग भविष्य के मामलों में भी न्यायाधीशों द्वारा किया जाएगा। पूर्व उदाहरण, कानून के प्रमुख स्रोतों में से एक हैं और इन्हें उच्च महत्व दिया जाता है। ये कानून के रचनात्मक और घोषणात्मक दोनों हैं। परंपरागत रूप से, स्वीकृत मानक यह है कि नियम को पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) माना जाता है। जब न्यायालय द्वारा कोई निर्णय लिया जाता है, तो आमतौर पर यह माना जाता है कि ऐसे निर्णय पिछले मामलों को भी प्रभावित करेंगे।
यही है कि कानूनी पूर्व उदाहरणों की अवधारणा कैसे काम करती है। कानूनी पूर्व उदाहरण भविष्य के मामलों के लिए मार्गदर्शक के रूप में कार्य करते हैं और पहले से ही कानून के रूप में माने जाते हैं। ये स्वतः ही उन मामलों पर लागू होते हैं जो उस निर्णय के पारित होने से पहले हुए थे। ब्लैकस्टोनियन सिद्धांत का मानना है कि न्यायाधीश कानून का निर्माण नहीं करते, वे केवल कानून की घोषणा करते हैं। घोषणात्मक सिद्धांत पूर्व उदाहरण के पूर्वव्यापी प्रभाव की वकालत करता है। इसलिए, जब किसी कानून को अमान्य माना जाता है, तो इसे आमतौर पर उस तारीख से अमान्य माना जाता है जिस दिन कानून अस्तित्व में आया या अधिनियमित हुआ।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत की उत्पत्ति
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को सबसे पहले 1900 के दशक की शुरुआत में अमेरिका में मान्यता दी गई, जब देश की विधिक न्यायशास्त्र ने प्राचीन ब्लैकस्टोनियन सिद्धांत से हटकर एक नया रूप अपनाया। यह सिद्धांत अमेरिका में धीरे-धीरे विकसित हुआ और जल्द ही इसे अंग्रेजी न्यायविदों (ज्यूरिस्ट) और अंग्रेजी न्यायालयों द्वारा स्वीकार कर लिया गया। अंग्रेजी कानून में यह व्यापक रूप से माना जाता है कि न्यायपालिका ऐसे न्यायिक पूर्व उदाहरण बनाती है जो पूर्वव्यापी और भावी दोनों मामलों को प्रभावित करेंगे, जबकि विधायिका केवल ऐसे कानून बनाती है जो आने वाले मामलों को प्रभावित करेंगे। भावी अधिनिर्णय की धारणा को कुछ न्यायालयों द्वारा इस विचार के एक अपवाद के रूप में विकसित किया गया, ताकि उन मामलों में न्यायपूर्ण निर्णय सुनिश्चित किया जा सके, जहाँ स्थापित मानदंडों का पालन करने से अनुचित समाधान हो सकता है।
भारत में भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत की उत्पत्ति
भारत में इस सिद्धांत को पहली बार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आई.सी. गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (संबंधित याचिकाओं सहित) (1967) के मामले में मान्यता दी गई और अपनाया गया। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत के उपयोग के लिए कई दिशानिर्देश निर्धारित किए। इन दिशानिर्देशों को एक पूर्व उदाहरण के रूप में अपनाया गया और वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस सिद्धांत को कई बार लागू किया गया।
आइए अब इस सिद्धांत के अर्थ और इसके लाभों को समझें।
भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत क्या है
‘भावी’ शब्द भविष्य में होने वाली घटना को संदर्भित करता है, और ‘अधिनिर्णय’ का अर्थ है किसी निर्णय को पलट देना। भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत न्यायालय को यह अधिकार देता है कि वह किसी पूर्व उदाहरण को पलटकर एक नया कानून लागू कर सके, लेकिन यह नया कानून केवल भविष्य के मामलों पर लागू होगा, पिछले किसी भी मामले पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस क्रिया का अतीत में लिए गए किसी भी निर्णय पर पूर्वव्यापी प्रभाव नहीं होगा। इस सिद्धांत का उपयोग करने का मुख्य उद्देश्य न्याय प्राप्त करना है। पूर्वव्यापी प्रभाव कई बार निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार से वंचित कर देता है।
न्यायमूर्ति बेंजामिन एन. कार्डोज़ो के अनुसार, यदि इस सिद्धांत को लागू नहीं किया गया, तो इससे अन्याय हो सकता है। समय के साथ कानून बदलते रहते हैं, और भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के माध्यम से इन नए परिवर्तनों को अपनाना आसान हो जाता है और समाज में न्याय सुनिश्चित होता है।
इस सिद्धांत के सबसे प्रमुख समर्थकों में से एक न्यायमूर्ति के. सुब्बा राव थे, जिन्होंने कहा कि इस सिद्धांत को स्वीकार करने से आने वाले मामलों के लिए आधारभूत संरचना तैयार करने में मदद मिलेगी। इसका उपयोग बेहतर और नए मानदंडों को पहचानने में सहायक होगा। यह सिद्धांत न्यायालयों को न्याय प्राप्त करने और यह सुनिश्चित करने में मदद करेगा कि सुनवाई निष्पक्ष हो।
उदाहरण के लिए, यदि एक सिद्धांत X को abc बनाम xyz के मामले में लागू किया गया। कुछ समय बाद न्यायालय ने उसी सिद्धांत से असहमति व्यक्त की और उसकी जगह एक नया सिद्धांत लागू किया। यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करेगा कि abc बनाम xyz मामले में दिए गए निर्णय पर इसका प्रभाव न पड़े और नया सिद्धांत केवल भविष्य के मामलों पर लागू हो।
अब आइए इस सिद्धांत के अनुप्रयोग के कुछ प्रमुख सिद्धांतों पर चर्चा करें।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के अनुप्रयोग के प्रमुख सिद्धांत
- भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को केवल संवैधानिक मामलों में लागू किया जा सकता है।
- इस सिद्धांत को लागू करने का एक अन्य सिद्धांत यह है कि अदालत द्वारा पहले लिए गए उन निर्णयों को मान्यता देना, जिन्हें अब पलट दिया गया है।
- भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लागू किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि केवल सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के तहत ऐसा अधिकार प्राप्त है कि वह कानून की घोषणा कर सके जो पूरे भारत में सभी अदालतों के लिए बाध्यकारी हो।
- यह सिद्धांत उन संस्थानों और निकायों को समय प्रदान करता है जो किसी कानून के पलटे जाने से प्रभावित होते हैं। इस समय के दौरान वे नई कानूनी स्थिति के अनुरूप आवश्यक बदलाव कर सकते हैं।
- यह सिद्धांत बहुत उपयोगी है क्योंकि यह अतीत में पहले से तय किए गए सभी मामलों को फिर से खोलने की आवश्यकता को समाप्त करता है और बार-बार अदालती कार्यवाही से बचाव करता है।
- अदालत को पिछली अवधि के संचालन को निर्धारित करने की शक्ति है। अदालतें यह तय कर सकती हैं कि इसे किस प्रकार लागू किया जाए, यह सुनिश्चित करते हुए कि यह सभी संबंधित पक्षों के लिए न्यायसंगत और उचित हो।
भारत में भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को अपनाना और इसकी प्रासंगिकता से जुड़े परीक्षण
भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत उन मामलों में लागू किया जाता है जहाँ न्यायालय यह मानता है कि यदि निर्णय को पूर्वव्यापी रूप से लागू किया गया, तो इससे भ्रम पैदा होगा और पहले से तय मामलों में व्यवधान (डिस्रप्शन) आएगा। न्यायालय के पास यह अधिकार होता है कि वह यह तय करे कि नए कानून और नियम किस सीमा तक लागू होंगे, ताकि न्याय बना रहे। यह माना गया कि भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत भारत की कानूनी प्रणाली और शुरुआत से शून्य सिद्धांत के अनुरूप नहीं है। भारत में असंवैधानिक घोषित कानूनों को ऐसा माना जाता है जैसे वे शुरू से ही अमान्य थे।
ऐसे में, इन कानूनों के तहत की गई सभी कार्रवाइयों को अमान्य माना जाएगा, जो समाज में व्यवधान पैदा कर सकती हैं, क्योंकि लंबे समय से इन्हीं कानूनों का पालन किया जा रहा था। यह सिद्धांत न्यायालय को यह अनुमति देता है कि वह कुछ कानूनों को उस दिन से असंवैधानिक घोषित करे जब यह निर्णय दिया गया हो, और उनके किसी भी पूर्वव्यापी प्रभाव को रोकता है। इसलिए, इस सिद्धांत को उन मामलों में लागू किया जाता है जहाँ बदलाव अत्यधिक आवश्यक होते हैं।
यह सिद्धांत अक्सर केवल ऐसे मामलों में लागू किया जाता है जो जनता के अधिकारों को प्रभावित करते हैं। भारत में, इस सिद्धांत को केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लागू किया जा सकता है। यह मुख्य रूप से संवैधानिक मामलों में लागू होता है, जहाँ पलटने वाले मामले का अतीत के मामलों और समाज पर प्रभाव पड़ सकता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में पहली बार भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को मान्यता दी और अपनाया।
आई.सी. गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (संबंधित याचिकाओं के साथ) (1967)
मामले का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में कई संशोधन पहले संविधान संशोधन अधिनियम (1951) के तहत किए गए थे। इस संशोधन को श्री शंकरि प्रसाद सिंह देव बनाम भारत संघ और बिहार राज्य (1951) के मामले में चुनौती दी गई थी। इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या मौलिक अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है और क्या यह अनुच्छेद 13 के तहत आता है या इसे उल्लंघित करता है। यह मामला न्यायपालिका और संसद के बीच एक विवाद की शुरुआत का कारण बना। 1978 में, यह मुद्दा केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के फैसले के साथ समाप्त हुआ।
इसी तरह, सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (संबंधित याचिकाओं के साथ) (1964) के मामले में भी संविधान (सत्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1964 को चुनौती दी गई थी। इस मामले में न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला ने यह विचार व्यक्त किया कि मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता, जो एक पूर्व उदाहरण बन गया। आई.सी. गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य (1967) का मामला भी इसी विचार पर आधारित था।
तथ्य
याचिकाकर्ता और उनके परिवार जलंधर, पंजाब में 500 एकड़ से अधिक भूमि के मालिक थे। हालांकि, पंजाब भूमि धारणा अधिनियम, 1953 के लागू होने के बाद सरकार ने उन्हें एक सूचना पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया कि वे प्रत्येक केवल 30 एकड़ भूमि रख सकते हैं और शेष भूमि को छोड़ना होगा। छोड़ी गई भूमि को अधिशेष (सरप्लस) भूमि माना जाएगा। इसके कारण, इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को निम्नलिखित मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी गई:
- संविधान के अनुच्छेद 19(1)(f) में संपत्ति प्राप्त करने और रखने का अधिकार।
- संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार और कानून के समक्ष समान संरक्षण।
- संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत किसी भी पेशे का अभ्यास करने का अधिकार।
मुद्दा
क्या संसद के पास संविधान के तहत नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर कानून बनाने और संशोधन करने का अधिकार है?
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के खिलाफ उठाई गई आपत्तियां
न्यायालय द्वारा पारित निर्णय पर चर्चा करने से पहले भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के खिलाफ उठाई गई निम्नलिखित आपत्तियों को समझना आवश्यक है:
- सामान्य कानून संशोधनों पर भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के उपयोग का कोई प्रमाण नहीं है। यह सिद्धांत केवल संवैधानिक कानून संशोधनों से संबंधित निर्णयों पर लागू हो सकता है।
- भारतीय न्यायशास्त्र एक पूर्व उदाहरण आधारित प्रणाली का अनुसरण करता है। इस दृष्टिकोण से हटकर अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत को अपनाना उचित नहीं होगा।
- अनुच्छेद 13 के अनुसार, यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो इसे उस सीमा तक शून्य माना जाएगा। दीप चंद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1959) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कोई भी कानून जो संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, वह एक मृतजात कानून (स्टील बॉर्न लॉ) है। इसलिए, कोई भी कानून जिसे असंवैधानिक घोषित किया गया है, उसे उसके अधिनियमित होने के समय से शून्य माना जाना चाहिए। इस प्रकार, भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत अनुच्छेद 13 के तहत निर्धारित दिशा-निर्देशों के खिलाफ होगा।
निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को लागू करने के लिए तीन महत्वपूर्ण शर्तें निर्धारित कीं, जो इस प्रकार हैं:
- भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत केवल संविधान की व्याख्या से संबंधित मामलों में ही लागू किया जा सकता है।
- इस सिद्धांत को केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही लागू किया जा सकता है।
- न्यायालय अपने निर्णय के भावी अनुप्रयोग के पहलुओं को, उसके समक्ष प्रस्तुत मामले या कारण के अनुसार, संशोधित कर सकता है।
उपरोक्त शर्तों को लागू करते हुए, न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि वह पूर्वव्यापी अधिनिर्णय (रेट्रोस्पेक्टिव ओवररूलिंग) के सिद्धांत का पालन करता है, तो यह अराजकता उत्पन्न करेगा और पुराने नियम के तहत किए गए कई लेन-देन को प्रभावित करेगा। इसलिए, वर्तमान मामले में भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को लागू किया जाएगा।
इस मामले ने सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (संबंधित याचिकाओं के साथ) (1964) और श्री शंकरि प्रसाद सिंह देव बनाम भारत संघ और बिहार राज्य (1951) में दिए गए फैसलों को पलट दिया। साथ ही, यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 13 का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है और संविधान संशोधन, अनुच्छेद 12 के तहत, एक वैध कानून है। अदालत के इस निर्णय से पहले किए गए संवैधानिक संशोधनों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। केवल भविष्य के संशोधनों को इस मामले में निर्धारित सिद्धांतों का पालन करना होगा।
विभिन्न न्यायाधीशों के असहमति वाले विचार इस मामले में कई न्यायाधीशों ने असहमति व्यक्त की। न्यायमूर्ति बच्छावत ने कहा कि अनुच्छेद 368, संविधान संशोधनों के लिए शक्ति और प्रक्रिया दोनों प्रदान करता है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं। संसद को संविधान संशोधन का अधिकार दिया गया है। हालांकि, संविधान के कुछ हिस्से जैसे कि स्वतंत्रता का सिद्धांत, धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत, और संविधान की मुख्य संरचना को किसी भी परिस्थिति में संशोधित नहीं किया जा सकता, और ऐसा करने का अधिकार संसद को नहीं दिया जाना चाहिए।
केशवानंद भारती श्रीपदगलावरु और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य (1973) के मामले में यह निर्णय दिया गया कि संविधान को संशोधित करने की शक्ति संसद को दी गई है, लेकिन यह शक्ति अनंत नहीं है। न्यायमूर्ति वांचू ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत किए गए संशोधनों की प्रकृति अन्य सामान्य कानूनों के संशोधनों से अलग है। उनके अनुसार, संसद के पास एक विशेष शक्ति है जिसे “संविधान निर्माण शक्ति” कहा जाता है। यह शक्ति संविधान में संशोधन करने की अनुमति देती है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं।
मामले का परिणाम
इस फैसले के बाद, 1971 में 24वें संविधान संशोधन को लागू किया गया, जिसने इस निर्णय को पलट दिया। अनुच्छेद 368 में संशोधन किए गए, जिसमें “शक्ति” शब्द और अनुच्छेद 13(4) जोड़ा गया। गोलकनाथ मामले में कहा गया था कि संसद संविधान में संशोधन नहीं कर सकती क्योंकि अनुच्छेद 368 में केवल संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख है, शक्ति का नहीं। 24वें संविधान संशोधन के बाद, संसद को संविधान में संशोधन करके मौलिक अधिकारों को सीमित या समाप्त करने की शक्ति प्राप्त हो गई।
आइए एक हालिया निर्णय पर चर्चा करें, जहां इस सिद्धांत को लागू किया गया था क्योंकि इससे संबंधित पक्षों के अधिकार प्रभावित हुए थे और इसे पलटने से उन पूर्व मामलों पर प्रभाव पड़ सकता है जो पहले ही न्यायालयों द्वारा निर्णय किए जा चुके हैं।
खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण आदि बनाम मैसर्स भारतीय इस्पात प्राधिकरण(2024)
यह मामला 9044 दिनों से लंबित मामलों में से एक था। केंद्र सरकार ने 1957 में खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 (‘खान अधिनियम’) पारित किया। खान अधिनियम की धारा 9 के तहत, खान पट्टा (लीज) धारकों को रॉयल्टी का भुगतान करना पड़ता था, जब भी कोई खनिज क्षेत्र से उपभोग किया जाता था या हटाया जाता था।
तमिलनाडु सरकार ने 1963 में इंडिया सीमेंट लिमिटेड को खनन के लिए पट्टा दिया। इस पर एक रॉयल्टी तय की गई, जिसके ऊपर मद्रास पंचायत अधिनियम, 1958 के तहत स्थानीय उपकर (सेस) भी देना पड़ता था। कंपनी ने इसे चुनौती दी, यह कहते हुए कि राज्य को रॉयल्टी पर उपकर लगाने का अधिकार नहीं है। एकल-न्यायाधीश पीठ ने निर्णय दिया कि सरकार इस प्रकार का उपकर लगा सकती है, क्योंकि यह भूमि पर कर है। इस फैसले से असंतुष्ट होकर, इंडिया सीमेंट लिमिटेड ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। 1989 में, सात-न्यायाधीश पीठ ने इंडिया सीमेंट लिमिटेड बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में कहा कि रॉयल्टी अप्रत्यक्ष रूप से खनिजों से संबंधित है।
इसी प्रकार, खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण बिहार में खनन पर रॉयल्टी से संबंधित समान समस्या का सामना कर रही थी। यह मुद्दा अब एक श्रृंखलाबद्ध विवाद में बदल गया, जिसमें 80 से अधिक मामले जुड़े हुए थे। तीन-न्यायाधीश पीठ ने कहा कि यह मामला मुख्य रूप से इंडिया सीमेंट लिमिटेड के फैसले से संबंधित है और इसे नौ-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजा गया।
इस मामले में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बा राव ने सुझाव दिया कि निर्णय को पूर्वव्यापी रूप से लागू करने से अराजकता उत्पन्न होगी और न्यायालय की स्थिरता पर प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने कहा कि निर्णय को केवल भविष्य के मामलों पर लागू करना एक समझदारी भरा कदम होगा, जिससे जटिल परिस्थितियों को संभाला जा सके।
अब, वर्तमान मामले में, नौ-न्यायाधीशों की पीठ की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने की। उन्होंने इस सिद्धांत को लागू करने के लिए सात मुख्य सिद्धांत बताए:
- इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक हित में किए गए पिछले कार्यों की रक्षा करना है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अमान्य कानूनी सिद्धांतों को वैध माना जाएगा। केवल भविष्य की तारीख तय की जाती है, जब से सिद्धांत प्रभावी होगा।
- अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को मामलों में राहत देने की शक्ति प्राप्त है।
- सिद्धांत केवल तभी लागू किया जाएगा, जब पूर्व उदाहरण पलटे जाएं और नए मुद्दों पर निर्णय हो।
- संस्थानों और पक्षों को नए कानूनी सिद्धांतों के साथ समायोजित करने के लिए समय दिया जाता है, जो आर्थिक और सामाजिक व्यवधान को रोकने में मदद करता है।
- इस सिद्धांत के अनुप्रयोग के तहत, पिछले मामलों में निपटाए गए मुद्दों को फिर से खोलने से रोका जाता है। यह अवैध कानूनों के लिए वापसी की आवश्यकता को सीमित करता है और मुकदमों की बहुलता से बचाता है।
- यह सिद्धांत कानूनों के बदलाव के समय सुचारू संक्रमण में मदद करता है और सुनिश्चित करता है कि लोग पुराने नियमों का पालन करके अनुचित रूप से प्रभावित न हों।
- पूरी तरह से हल किए गए मामलों को फिर से नहीं खोला जाएगा, ताकि जटिलता और कठिनाइयों से बचा जा सके।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत का न्यायिक अनुप्रयोग
वामन राव और अन्य बनाम भारत संघ (1981) के मामले में, महाराष्ट्र कृषि भूमि (होल्डिंग्स पर सीमा) अधिनियम, 1961 ने महाराष्ट्र राज्य में लोगों की कृषि भूमि पर कुछ सीमाएँ लगाई थीं। यह अधिनियम संविधान की नौवीं अनुसूची का हिस्सा था। इस अधिनियम की वैधता को चुनौती देते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय में 2000 से अधिक याचिकाएँ दायर की गईं। उच्च न्यायालय ने यह माना कि इस अधिनियम को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
न्यायालय ने कहा कि यह कानून केशवानंद भारती श्रीपदगलवारु और अन्य बनाम केरल राज्य (1973) के मामले के निर्णय से पहले नौवीं अनुसूची में जोड़े गए थे। न्यायालय ने निर्णयों के बीच एक रेखा खींची जो इस निर्णय से पहले और बाद में दिए गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि फैसले से पहले निर्णय किए गए सभी मामलों को यह कहते हुए चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। केवल वे मामले जो इस निर्णय के बाद आए, उन्हें न्यायालय में उठाया जा सकता है।
पिछले कानून सामाजिक असमानता को कम करने और राष्ट्र के विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाए गए थे। इसलिए, केवल पहले के मामलों को कानूनी चुनौती नहीं दी जाएगी। यद्यपि अधिनियम के पहले के नियम असंवैधानिक घोषित कर दिए गए थे, लेकिन इस सिद्धांत के न्यायिक अनुप्रयोग के कारण अधिनियम के तहत हुए पूर्व लेन-देन वैध बने रहेंगे।
भारत संघ और अन्य बनाम मोहम्मद रमज़ान खान (1990) के मामले में, संविधान के अनुच्छेद 311 को 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा संशोधित किया गया। इस संशोधन के तहत, किसी अभियुक्त को उसकी अनुशासनात्मक (डिसिप्लिनरी) कार्यवाही की जाँच रिपोर्ट प्राप्त करने का अधिकार समाप्त कर दिया गया। अभियुक्त को बिना कारण बताए बर्खास्त किया जा सकता था। इस संशोधन को अनुच्छेद 14 और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी गई।
न्यायालय ने भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को लागू करते हुए कहा कि इस निर्णय की तारीख से, किसी भी निकाय द्वारा ऐसा कोई आदेश जारी नहीं किया जा सकता, जिसमें दिए गए दंड के लिए कारण प्रदान किए बिना आदेश पारित किया गया हो।
न्यायालय ने कर्मचारियों को राहत प्रदान की। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को यह जानने का अधिकार है कि उसे पद से निलंबित/हटाने का कारण क्या है। बिना कारण बताए आदेश पारित करना, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
इस मामले में बने सिद्धांत की वैधता को न्यायालय ने ईसीआईएल, हैदराबाद के प्रबंध निदेशक बनाम बी. करूणाकर और अन्य (1993) के मामले में परखा। एक सरकारी कर्मचारी को बिना उचित कारण बताए और जाँच रिपोर्ट दिए बर्खास्त कर दिया गया। इस बर्खास्तगी को अनुच्छेद 14 और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी गई।
जब इस मामले में भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को लागू किया गया, तो सबसे महत्वपूर्ण कारक यह था कि पुराने शासन के तहत हुए पूर्ववर्ती लेन-देन को कोई नुकसान या असमानता नहीं होनी चाहिए। भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि न्यायालय का निर्णय केवल भविष्य में लागू होगा।
चूंकि वर्तमान मामले में सरकारी कर्मचारी को भारत संघ बनाम मोहम्मद रमज़ान खान (1990) के मामले के निर्णय से पहले बर्खास्त किया गया था, इसलिए इस निर्णय के भावी प्रभाव के कारण बर्खास्तगी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। हालांकि, कर्मचारी प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन के आधार पर आदेश को चुनौती दे सकता था और मामले में नई कार्यवाही की मांग कर सकता था। इस प्रकार, इस मामले में भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत लागू नहीं किया गया, क्योंकि बर्खास्तगी उस निर्णय से पहले हुई थी। उस समय ऐसा कोई नियम, कानून या सिद्धांत अस्तित्व में नहीं था, इसलिए निर्णय से पहले की गई कोई भी कार्यवाही प्रभावित नहीं होती।
ओडिशा सीमेंट लिमिटेड बनाम ओडिशा राज्य (1991) के मामले में, आवेदक-आकलनकर्ता (असेसी) ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश राज्यों द्वारा खनन भूमि से प्राप्त रॉयल्टी के आधार पर लगाए गए उपकर की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी। यह दावा किया गया कि यह राज्य विधायिकाओं की विधायी क्षमता के बाहर है। इसके अलावा, उपकर/रॉयल्टी की वापसी की मांग भी की गई। जिन कानूनों को चुनौती दी गई, वे थे ओडिशा उपकर अधिनियम, 1962 और उसके तहत नियम, बंगाल उपकर अधिनियम, 1880, मध्य प्रदेश उपकर अधिनियम, 1981, और मध्य प्रदेश कराधान अधिनियम, 1982।
यह देखा गया कि इंडिया सीमेंट लिमिटेड बनाम तमिलनाडु राज्य (1989) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि यदि किसी अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किया जाता है और उस अधिनियम के प्रावधानों के तहत कुछ धनराशि अधिनियम के असंवैधानिक घोषित होने से पहले वसूल की गई हो, तो राज्य उन धनराशियों को वापस करने के लिए बाध्य नहीं है।
भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि न्यायालय के निर्णय को भविष्य में प्रभावी माना जाना चाहिए, न कि पूर्वव्यापी प्रभाव दिया जाना चाहिए। चूंकि अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किया गया था, इसलिए केवल इस आदेश की तिथि से लगाए गए उपकर/रॉयल्टी को ही वापस किया जाएगा। अधिनियम के असंवैधानिक घोषित होने से पहले राज्य द्वारा लगाए गए उपकर/रॉयल्टी को वापस करने का प्रावधान नहीं था।
इंद्रा साहनी आदि बनाम भारत संघ और अन्य (1992) का मामला, जिसे प्रसिद्ध रूप से मंडल आयोग मामला कहा जाता है, आरक्षण के मुद्दों पर आधारित है। मंडल आयोग ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ बी सी) के लिए 27% आरक्षण और सामाजिक, शैक्षिक/आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (एस ई बी सी) के लिए 10% अतिरिक्त आरक्षण की सिफारिश की थी। लोगों ने तर्क दिया कि केवल जाति के आधार पर आरक्षण देना समानता और भेदभाव-निषेध के सिद्धांत का उल्लंघन है। इंद्रा साहनी और उनके समर्थकों ने यह तर्क दिया कि आरक्षण केवल आर्थिक मानदंडों के आधार पर होना चाहिए, न कि व्यक्ति की जाति के आधार पर।
इस मामले में रंगाचारी का निर्णय पलट दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि निर्णय को पूरी तरह अमान्य घोषित करने के बजाय, उसमें कुछ मामूली बदलाव किए जा सकते हैं। इस मामले में न्यायिक सृजनात्मकता (क्रिएटिविटी) का उपयोग किया गया ताकि यह परिवर्तन बिना किसी रुकावट के किया जा सके, क्योंकि इस मामले में कई लोगों और उनके अधिकार शामिल थे। परिणामस्वरूप, भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत का उपयोग किया गया ताकि पिछले लेन-देन प्रभावित न हों।
इस मामले का निर्णय नौ न्यायाधीशों की पीठ द्वारा किया गया, जिसमें 6:3 के मत से फैसला लिया गया। उन्होंने आरक्षण से संबंधित कुछ ऐतिहासिक दिशानिर्देश दिए। यह माना गया कि इस निर्णय का प्रभाव, निर्णय की तारीख से केवल 5 साल बाद लागू होगा। भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को लागू किया गया और यह सुनिश्चित किया गया कि इस निर्णय का प्रभाव पिछली घटनाओं पर न पड़े।
हर्ष ढींगरा बनाम हरियाणा राज्य और अन्य (2001) के मामले में, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण अधिनियम, 1977 की धारा 30 को चुनौती दी गई। इस धारा के तहत, हरियाणा के मुख्यमंत्री को अपनी इच्छा से भूखंड आवंटित करने का पूर्ण अधिकार दिया गया था। यह विवेकाधिकार किसी भी प्रकार की न्यायिक समीक्षा से मुक्त था। इस कानून को मनमानेपन और संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी गई।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को लागू करते हुए, न्यायालय ने पहले से तय मुद्दों को फिर से खोलने और कार्यवाही की बहुलता को रोकने का प्रयास किया। यह सिद्धांत अनिश्चितता और अनावश्यक मुकदमों से बचने में भी सहायता करता है। हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करने से पहले किए गए सभी कार्य/लेन-देन इस सिद्धांत के तहत व्यापक जनहित (लार्जर पब्लिक इंटरेस्ट) में वैध माने जाते हैं।
अधीनस्थ न्यायालयों का यह कर्तव्य है कि वे उच्च न्यायालयों द्वारा स्थापित कानून के भावी प्रभाव को भविष्य के मामलों में लागू करें। भावी अधिनिर्णय न केवल संवैधानिक नीति का हिस्सा है, बल्कि यह स्टेयर डिसीसिस (पूर्व निर्णयों पर टिके रहना) का विस्तारित पहलू है और यह न्यायिक कानून निर्माण नहीं है।
अमेरिकी न्यायशास्त्र में भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत का स्थान
भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत अमेरिकी न्यायशास्त्र से उत्पन्न हुआ है। इस सिद्धांत के लागू होने और मान्य होने से पहले, अमेरिकी न्याय प्रणाली ब्लैकस्टोनियन सिद्धांत का पालन करती थी। इस सिद्धांत के अनुसार, अदालतों के पास नए कानून बनाने की शक्ति नहीं थी। यह माना गया कि अदालतों का कर्तव्य केवल पहले से मौजूद कानूनों की व्याख्या करना और स्पष्टीकरण देना है। हालांकि, कई अमेरिकी न्यायविद इस सिद्धांत के खिलाफ थे, और इस विरोध ने भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को अपनाने का मार्ग प्रशस्त किया। अमेरिकी न्यायविद जॉर्ज एफ. कैनफील्ड ने कहा था कि अदालत का कर्तव्य है कि वह किसी पुराने नियम को, यदि वह अप्रभावी या वर्तमान कानूनी ढांचे में असंगत हो चुका है, पहचान कर एक नया नियम प्रस्तावित करे।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत की उत्पत्ति के पीछे मुख्य व्यक्ति न्यायधीश कार्डोजो थे। उन्होंने इस सिद्धांत को पहली बार ग्रेट नॉर्दर्न रेलवे बनाम सनबर्स्ट ऑयल एंड रिफाइनिंग कंपनी (1932) के मामले में पेश किया। इस मामले में, संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार इस सिद्धांत को अपनाया। न्यायालय ने यह माना कि किसी पूर्व कानून/निर्णय को पलटते समय, न्यायालय अपने निर्णय को भविष्य में प्रभावी बनाने का अधिकार रखता है। इस सिद्धांत को अपनाने के पीछे न्यायालय ने यह तर्क दिया कि किसी भी पक्ष को कानून में बदलाव या न्यायालय के रुख में परिवर्तन के कारण हानि नहीं होनी चाहिए। अर्थात्, यदि किसी निर्णय को पूर्वव्यापी प्रभाव दिया जाता है, तो पुराने कानून के तहत किए गए सभी लेन-देन अमान्य माने जाएंगे। इसलिए, पिछले लेन-देन पर ऐसे प्रभाव को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायालय के निर्णय केवल भविष्य में प्रभावी हों।
इस मामले में न्यायाधीश ने अपने निर्णय को पूर्वव्यापी रूप से लागू करने से इनकार कर दिया। भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत का उद्देश्य किसी पूर्व उदाहरण को निरस्त करना है, बिना अतीत में दिए गए निर्णयों को प्रभावित किए। यदि भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को लागू नहीं किया गया, तो कानून के विकसित होने की प्रकृति कमजोर पड़ जाएगी और यह न्यायिक सक्रियता के विपरीत होगा।
न्यायाधीश बेंजामिन एन. कार्डोजो का यह भी मानना था कि कानूनों को समय के साथ समाज में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार विकसित होना चाहिए यदि कानून स्थिर रहेंगे, तो वे उपयोगी नहीं होंगे। यदि समाज बदलता और विकसित होता रहे, लेकिन कानून पुराने बने रहें, तो इससे अन्याय उत्पन्न होगा। कानूनों को समाज के वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार बदला जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता, तो लोग अन्याय का सामना करेंगे। इसलिए, भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत नागरिकों को समय पर और निष्पक्ष समाधान प्रदान करने में सहायक उपकरण के रूप में कार्य करता है।
चिकोट काउंटी ड्रेनेज डिस्ट्रिक्ट बनाम बैक्सटर स्टेट बैंक (1940) के मामले में, ह्यूजेस की अध्यक्षता वाली अदालत ने यह माना कि किसी कानून के तहत हुई पिछली कार्रवाइयों/लेन-देन पर उस कानून को असंवैधानिक घोषित करने का प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। अतीत में हुए लेन-देन को एक नए न्यायिक निर्णय के आधार पर प्रभावित या शून्य नहीं किया जा सकता।
ग्रिफिन बनाम इलिनोइस (1956) के मामले में, अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि किसी मामले की संवैधानिक वैधता का निर्धारण करते समय अदालत “या तो/या” दृष्टिकोण अपनाने के लिए बाध्य नहीं है। वे मामले को अपने अनुसार उपयुक्त तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं और एक भावी प्रभाव वाला निर्णय दे सकते हैं।
अंग्रेजी न्यायशास्त्र में भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत
अमेरिका में प्रचलित ब्लैकस्टोनियन सिद्धांत की आलोचना अंग्रेजी न्यायविदों जैसे जेरेमी बेंथम और जॉन ऑस्टिन ने की थी। ऑस्टिन ने कहा कि केवल यह विचारधारा कि कानून अदालत द्वारा नहीं बनाया गया और यह चमत्कारिक रूप से अस्तित्व में है, केवल एक कल्पना है। कानून पहले भी न्यायाधीशों द्वारा अदालतों में बनाया गया था और भविष्य में भी समय-समय पर ऐसा ही होगा।
प्रैक्टिस स्टेटमेंट (ज्यूडिशियल प्रिसीडेंट) (1966) में हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने देखा कि ब्लैकस्टोनियन सिद्धांत समय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और अदालतें मौजूदा कानूनों और निर्णयों में संशोधन करने और उनसे अलग होने के लिए अधिकृत हैं यदि उन्हें ऐसा करना उचित लगे। मिलांगास बनाम जॉर्ज टेक्सटाइल्स लिमिटेड (1976) एसी 433 के मामले में, हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने निर्धारित (लिक्विडेट) हर्जाने के दावे पर विचार करते हुए यह माना कि भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत का अनुप्रयोग करने से किसी भी पूर्व लेन-देन पर प्रभाव नहीं पड़ेगा, बल्कि यह केवल निर्णय की तिथि से भविष्य के लेन-देन पर प्रभाव डालेगा।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के लाभ
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के कई लाभ हैं, जिसके कारण यह सिद्धांत केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्वभर में कई वर्षों से प्रचलन में है।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत का एक प्रमुख लाभ यह है कि यह अन्याय को रोकने में मदद करता है। उदाहरण के लिए, यदि न्यायालय पूर्वव्यापी रूप से कार्य करते हैं, तो जब कोई नया कानून अस्तित्व में आता है, तो इस कानून से पहले दिए गए निर्णय अमान्य माने जाएंगे, जो कि सही नहीं है और इसमें संबंधित पक्षों के अधिकारों को नुकसान होगा। यह उन पक्षों के लिए अनुचित होगा जिन्होंने उस समय मान्य कानूनों का पालन किया था। इसलिए, भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के सिद्धांत से एक सहज संक्रमण सुनिश्चित किया जा सकता है।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत का अगला लाभ यह है कि यह न्यायिक नवाचार को प्रोत्साहित करता है। इस सिद्धांत के प्रचलन में होने से, कानूनों और अन्य नियमों को समय की आवश्यकता के अनुसार आसानी से संशोधित किया जा सकता है। यह सिद्धांत उन अस्थिरताओं और अराजकता को रोकता है जो किसी ऐतिहासिक निर्णय के साथ उत्पन्न होती हैं, जब वर्तमान कानूनी सिद्धांतों को अदालती पूर्व उदहारण को पलटकर बदला जाता है।
भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत यह भी सुनिश्चित करता है कि संबंधित पक्षों को नवप्रवर्तित (न्यूली इंट्रोड्यूस्ड) कानूनों को अपनाने के लिए पर्याप्त समय मिले, जिससे कोई अव्यवस्था न हो। पुराने मामलों को फिर से खोलने की कठिनाई को भी रोका जा सकता है। यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि सभी पक्षों के अधिकार संरक्षित रहें और नए नियमों या कानूनों से उन्हें अनुचित रूप से प्रभावित न किया जाए।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत की आलोचना
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत की, विश्वभर में इसके उपयोग के बावजूद, अक्सर आलोचना की जाती है। सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि इस सिद्धांत के अनुसार, जो कानून असंवैधानिक घोषित किया गया है, वह भविष्य के मामलों पर लागू नहीं होगा, लेकिन चल रहे मामलों पर लागू होगा। ऐसे मामलों में शामिल पक्षों को यह निश्चित रूप से अनुचित लग सकता है। यह अस्थिरता और असंगति भी पैदा करता है। इसके अलावा, क्योंकि ऐसे कानून केवल भविष्य के मामलों पर लागू होते हैं, इसकी अनुकूलन प्रक्रिया बहुत धीमी हो सकती है, जिससे भ्रम उत्पन्न होता है और न्याय में बाधा आती है।
निष्कर्ष
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत का मतलब केवल यह है कि किसी न्यायालय का निर्णय भावी प्रभाव का होगा और न्यायालय द्वारा निर्णय सुनाए जाने से पहले हुए किसी भी लेन-देन को प्रभावित नहीं करेगा। इस सिद्धांत को लागू करते समय जिन मुख्य शर्तों का पालन किया जाना चाहिए, वे निम्नलिखित हैं:
- इसे केवल संविधान की व्याख्या से संबंधित मामलों में ही लागू किया जाना चाहिए।
- इसे केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही लागू किया जाना चाहिए।
- अदालत अपने निर्णय के संभाव्य अनुप्रयोग की विशेषताओं को, उसके सामने कारण या विषय की न्यायिक आवश्यकता के अनुसार, संशोधित कर सकती है।
यह सिद्धांत भारतीय न्यायशास्त्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और यह सुनिश्चित करता है कि किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करने से अतीत के लेन-देन को अमान्य कर सार्वजनिक हित को प्रभावित न किया जाए। आई.सी. गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (1967) जैसे ऐतिहासिक मामलों ने इस सिद्धांत को कैसे और किस सीमा तक लागू किया जाता है, इस पर स्पष्टता प्रदान की है।
यह भी देखा जा सकता है कि यह सिद्धांत भारतीय संविधान को आकार देने में सहायक रहा है। इस सिद्धांत के उपयोग से देश में हो रहे विकास और निष्पक्षता के बीच संतुलन बना रहता है। यह सिद्धांत संवैधानिक न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुका है और नए कानूनों को लागू करते समय असंगतियों से बचने में मदद की है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ ए क्यूस)
सिद्धांत को कैसे लागू किया जाता है?
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को तब लागू किया जाता है जब संवैधानिक अदालतें किसी पूर्व निर्णय को खारिज कर एक नया कानून लागू करती हैं, जो सभी भविष्य के मामलों में लागू होगा। यह नया कानून केवल भविष्य के मामलों में लागू किया जाएगा, जबकि पहले से दिए गए निर्णयों वाले मामलों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को पहली बार किस देश ने पेश किया?
संयुक्त राज्य अमेरिका वह पहला देश था जिसने भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को पेश किया। इसे ग्रेट नॉर्दर्न रेलवे बनाम सनबर्स्ट ऑयल एंड रिफाइनिंग कंपनी (1932) के मामले में अपनाया गया।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को कब लागू किया जा सकता है?
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत को केवल संवैधानिक मामलों में लागू किया जा सकता है।
भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत कैसे लाभकारी है?
भावी अधिनिर्णय का सिद्धांत एक नए कानून के लागू होने के बाद मामलों की बहुलता की कार्यवाही से बचने में मदद करता है। यह सिद्धांत उन मामलों को दोबारा खोलने से भी रोकता है, जो पहले ही निपटाए जा चुके हैं।
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के मुख्य नियम क्या हैं?
भावी अधिनिर्णय के सिद्धांत के मुख्य नियम यह हैं कि इसे केवल संवैधानिक मामलों में और केवल देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा उपयोग किया जा सकता है। अदालतें इस सिद्धांत का उपयोग यह तय करने के लिए भी कर सकती हैं कि नए नियम और विनियम कितने समय तक भूतकाल में लागू किए जाने चाहिए।
संदर्भ