यह लेख लॉसिखो से एडवांस्ड कॉन्ट्रैक्ट ड्राफ्टिंग, निगोशिएशन और डिस्प्यूट रेजोल्यूशन में डिप्लोमा कर रहे Sumit Kumar द्वारा लिखा गया है। इस लेख मे भारतीय अनुबंधों में शर्तों और वारंटियों, भारतीय अनुबंध की भूमिका और इनसे संबंधित कमामलों की चर्चा विस्तृत रूप मे की गई है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
परिचय
इस लेख में शर्तों और वारंटियों से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जाएगी, साथ ही कानूनी प्रभावों और उपलब्ध उपायों पर भी चर्चा की जाएगी। भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 और माल विक्रय अधिनियम, 1930 के तहत शर्तों और वारंटियों को नियंत्रित करने वाले प्रासंगिक कानूनों के बारे में बताना महत्वपूर्ण है। नवीनतम मामले के साथ-साथ कानूनों के अंतर्गत प्रासंगिक धाराओं पर भी संक्षेप में चर्चा की जाएगी। लेख में अनुबंध के तत्वों जिन पर अनुबंध करते समय विचार किया जाना आवश्यक है और उसके महत्व का भी विश्लेषण किया जाएगा। विवरणों का विश्लेषण करने के बाद, अनुबंध की पूर्ति हो जाती है क्योंकि पक्षों के बीच संबंध स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट हो जाता है।
किसी भी हस्तांतरण या लेन-देन का आधार अनुबंध ही होता है, क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि पक्ष समझौते का पालन करें और तय किए गए वादे को पूरा करें। शर्तें और वारंटियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं क्योंकि वे अनुबंध की शर्तों को परिभाषित करती हैं। इनके बीच भ्रमित होना बहुत आसान है क्योंकि ये एक दूसरे के समान लगते हैं, लेकिन वास्तव में इनके कानूनी अर्थ अलग-अलग हैं। इन दोनों शब्दों के बीच अंतर समझना महत्वपूर्ण है। एक बार अंतर समझ में आ जाए तो शर्तें स्पष्ट हो जाएंगी और अनुबंध का निष्पादन प्रभावित नहीं होगा।
शर्तें और वारंटी एक साथ चलते हैं, और अनुबंध करने वाले पक्ष उनके बीच के अंतर्सम्बन्ध को नहीं समझ पाते हैं। शर्तों में, यदि शर्तों का उल्लंघन किया जाता है, तो इससे अनुबंध की समाप्ति और क्षतिपूर्ति हो सकती है, जबकि वारंटी में केवल क्षतिपूर्ति के लिए दावा किया जाता है।
शर्तें और वारंटी
शर्त
शर्त शब्द उन अधिकारों और कर्तव्यों को परिभाषित करता है जिन्हें किसी अनुबंध में पूरा किया जाना आवश्यक होता है। यदि निर्धारित शर्तों या प्रावधानों का पालन नहीं किया जाता है, तो इससे अनुबंध के निष्पादन में बाधा उत्पन्न होगी। ये बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये किसी भी अनुबंध और उसके निष्पादन की नींव रखते हैं। विभिन्न प्रकार की शर्तों पर नीचे चर्चा की गई है:
पूर्ववर्ती (प्रेसिडेंट) शर्त
पूर्ववर्ती शर्तें वे शर्तें हैं जिन्हें अनुबंध की समय-सीमा समाप्त होने से पहले पूरा किया जाना चाहिए। यदि ये शर्तें पूरी नहीं की जातीं तो अनुबंध लागू नहीं होगा।
अनुवर्ती (सबसीक्वेंट) शर्त
अनुवर्ती शर्तें वे शर्तें हैं, जो यदि घटित होती हैं, तो अनुबंध के प्रभावी होने पर वह स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।
समवर्ती (कंकर्रेंट) शर्त
समवर्ती शर्तें वे हैं जहाँ पारस्परिक दायित्वों का पालन एक साथ किया जाना चाहिए।
वारंटी
वारंटी अनुबंध में द्वितीयक शर्तें हैं, अर्थात वे अतिरिक्त शर्तें हैं जो मुख्य अनुबंध की पूरक (सप्लीमेंट्री) हैं। वारंटी के उल्लंघन की स्थिति में, प्रभावित पक्ष को हुई हानि के लिए क्षतिपूर्ति का दावा करने का अधिकार है। हालाँकि, वारंटी का उल्लंघन होने पर अनुबंध स्वतः ही समाप्त नहीं हो जाता है। वारंटी की प्रकृति और उनसे जुड़ी अपेक्षाओं को समझने के लिए यह अंतर महत्वपूर्ण है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि वारंटी के सभी उल्लंघनों को समान रूप से नहीं माना जाता है। उल्लंघन की गंभीरता उसके परिणाम निर्धारित करती है। सामान्यतः, किसी छोटे उल्लंघन से अनुबंध को समाप्त करने का अधिकार नहीं मिलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी भी अनुबंध पक्ष का प्राथमिक उद्देश्य लेनदेन की स्थिरता और निरंतरता सुनिश्चित करना है। यद्यपि छोटे-मोटे उल्लंघनों से असुविधा या निराशा हो सकती है, लेकिन वे अनुबंध के मूल उद्देश्य को महत्वपूर्ण रूप से कमजोर नहीं करते हैं।
हालाँकि, ऐसे मामलों में जहां वारंटी का उल्लंघन पर्याप्त या मौलिक है, प्रभावित पक्ष के पास अनुबंध को समाप्त करने का विकल्प हो सकता है। मौलिक उल्लंघन तब होता है जब उल्लंघन अनुबंध के मूल तक पहुंच जाता है और निर्दोष पक्ष को उन लाभों से वंचित कर देता है जिनकी उन्हें उम्मीद थी। ऐसे मामलों में, गैर-उल्लंघन करने वाले पक्ष के हितों की रक्षा करने तथा उन्हें हुई भारी हानि की भरपाई के लिए अनुबंध को समाप्त करना आवश्यक हो सकता है।
अनुबंधात्मक संबंधों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए वारंटियों की प्रकृति को समझना, जिसमें मामूली और मौलिक उल्लंघनों के बीच का अंतर भी शामिल है, अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह पक्षों को उल्लंघन के संभावित जोखिमों और परिणामों का आकलन करने तथा अपने अधिकारों और उपायों के बारे में सूचित निर्णय लेने की अनुमति देता है।
शर्तों और वारंटियों में भारतीय अनुबंध की भूमिका
यह समझने से पहले कि भारतीय अनुबंध शर्तों और वारंटियों में क्या भूमिका निभाते हैं, यह समझना महत्वपूर्ण है कि वैध अनुबंध क्या है?
एक वैध अनुबंध के सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है कानूनी संबंध बनाने का आशय रखना है। एक बार जब ऐसा हो जाता है, तो फिर प्रस्ताव और स्वीकृति आती है; उसके बाद मन की बैठक होनी चाहिए, जिसका अर्थ समान अर्थ में समान चीजें हैं। एक बार जब अनुबंध का आधार निर्धारित हो जाता है, तो उसके बाद प्रतिफल का एक महत्वपूर्ण पहलू आता है। प्रतिफल का अर्थ है ऐसी वस्तु जिसका कानून की दृष्टि में मूल्य हो या वह वस्तु जो किसी व्यक्ति को अपने दायित्वों के निर्वहन के बदले प्राप्त हो।
एक वैध अनुबंध के आवश्यक तत्वों को समझने के बाद, पक्षों के बीच अनुबंधात्मक संबंध की संरचना करना आसान हो जाता है। निम्नलिखित प्रस्ताव समझौते को संरचना देने में मदद करते हैं।
अनुबंध प्रारूपण (ड्राफ्टिंग)
अनुबंध तैयार करते समय शर्तों और वारंटियों के बीच अंतर को समझना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि बाद में पक्षों के बीच किसी प्रकार का भ्रम या विवाद न हो। यदि दायित्वों को स्पष्ट रूप से समझा जा सके तो इससे अनुबंध का शांतिपूर्ण निष्पादन होगा।
जोखिम प्रबंधन
जोखिम प्रबंधन से संबंधित मामलों में, शर्तों और वारंटियों को समूहीकृत करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे अनुबंध के उल्लंघन से जुड़े जोखिमों को कम करने या प्रबंधित करने में मदद मिलेगी और साथ ही अनुबंध के समग्र प्रदर्शन पर इसके प्रभाव को भी कम करने में मदद मिलेगी।
विवाद समाधान
विवाद समाधान से संबंधित मामलों में, शर्त और वारंटी के बीच अंतर को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे विभिन्न प्रकार के उल्लंघनों के लिए उचित उपायों के साथ विभिन्न तंत्रों के माध्यम से विवाद को हल करने में मदद मिलेगी।
वाणिज्यिक (कमर्शियल) लेनदेन
वाणिज्यिक लेनदेन से संबंधित मामलों में शर्तें और वारंटी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं क्योंकि वे सुचारू व्यावसायिक संचालन में मदद करती हैं, जिससे विश्वास और विश्वसनीयता सुनिश्चित होती है। एक बार जब लेन-देन का आधार स्पष्ट हो जाता है, तो कानूनी ढांचे के माध्यम से उल्लंघनों को संबोधित करना आसान और सुविधाजनक हो जाता है।
शर्तों और वारंटियों के बीच अंतर को समझने से, भारतीय अनुबंध अनुबंधात्मक दायित्वों को प्रबंधित करने में मदद करेगा और समझौतों को सुव्यवस्थित करने में भी मदद करेगा।
शर्त के उल्लंघन के परिणाम
समाप्ति का अधिकार: जब किसी अनुबंध की किसी शर्त का उल्लंघन किया जाता है, तो पीड़ित पक्ष (वह पक्ष जिसने अनुबंध का उल्लंघन नहीं किया है) को सामान्यतः अनुबंध को समाप्त करने का अधिकार होता है। इसका अर्थ यह है कि पीड़ित पक्ष अनुबंध को समाप्त करने का विकल्प चुन सकता है और अनुबंध के तहत अपने दायित्वों से मुक्त हो सकता है।
- तत्काल समाप्ति: कुछ मामलों में, किसी शर्त का उल्लंघन इतना गंभीर हो सकता है कि इससे पीड़ित पक्ष को अनुबंध को तत्काल समाप्त करने का अधिकार मिल जाता है। उदाहरण के लिए, यदि बेचने वाला ऐसी वस्तुएं वितरित करता है जो सहमत मूल्य से काफी भिन्न होती हैं, तो क्रेता को अनुबंध को तुरंत समाप्त करने का अधिकार हो सकता है।
- समाप्ति की सूचना: अन्य मामलों में, पीड़ित पक्ष को अनुबंध समाप्त करने से पहले उल्लंघन करने वाले पक्ष को समाप्ति की सूचना देनी पड़ सकती है। सूचना अवधि अनुबंध में निर्दिष्ट की जा सकती है या कानून द्वारा निर्धारित की जा सकती है।
क्षतिपूर्ति का अधिकार: अनुबंध समाप्त करने के अधिकार के अतिरिक्त, पीड़ित पक्ष शर्त के उल्लंघन के कारण हुई हानि के लिए क्षतिपूर्ति का दावा भी कर सकता है। क्षतिपूर्ति का उद्देश्य उल्लंघन के परिणामस्वरूप पीड़ित पक्ष को हुई वित्तीय हानि की भरपाई करना है।
- क्षतिपूर्ति के प्रकार: पीड़ित पक्ष को विभिन्न प्रकार की क्षतिपूर्ति मिल सकती है, जिनमें शामिल हैं:
- प्रतिपूरक (कंपनसेटरी) क्षतिपूर्ति: इन क्षतिपूर्ति का उद्देश्य पीड़ित पक्ष को उस स्थिति में बहाल करना है, जिसमें वे तब होते यदि अनुबंध सहमति के अनुसार निष्पादित किया गया होता है।
- परिणामी क्षतिपूर्ति: ये क्षतिपूर्ति उन हानियों को शामिल करती है जो अनुबंध के उल्लंघन का प्रत्यक्ष और पूर्वानुमानित परिणाम हैं।
- नाममात्र क्षतिपूर्ति: यह क्षतिपूर्ति तब की जाती है जब पीड़ित पक्ष के साथ कोई कानूनी गलत हुआ हो, लेकिन उसे कोई वास्तविक वित्तीय नुकसान न हुआ हो।
अन्य उपाय: अनुबंध समाप्त करने और क्षतिपूर्ति का दावा करने के अधिकार के अलावा, शर्त के उल्लंघन की स्थिति में पीड़ित पक्ष के पास अन्य उपाय भी उपलब्ध हो सकते हैं। इन उपायों में निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:
- विशिष्ट निष्पादन: कुछ परिस्थितियों में, पीड़ित पक्ष न्यायालय से आदेश प्राप्त कर सकता है, जिसमें उल्लंघन करने पक्ष को अनुबंध के तहत अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए बाध्य किया जा सके।
- निषेधाज्ञा (इंजंक्शन): निषेधाज्ञा एक न्यायालय आदेश है जो उल्लंघन करने वाले पक्ष को अनुबंध का उल्लंघन जारी रखने या आगे ऐसी कार्रवाई करने से रोकता है जिससे स्थिति और खराब हो सकती है।
- निरसन (रिसेशन): निरसन एक न्यायालय आदेश है जो अनुबंध को रद्द कर देता है और पक्षों को उस स्थिति में बहाल कर देता है जिसमें वे अनुबंध में प्रवेश करने से पहले थे।
किसी शर्त के उल्लंघन के परिणाम गंभीर हो सकते हैं, और किसी अनुबंध के दोनों पक्षों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे उल्लंघन की स्थिति में अपने अधिकारों और दायित्वों के बारे में जागरूक रहें।
मामले
अशोक कुमार बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (2023) के मामले में, यह माना गया है कि दावे को अस्वीकार करने के लिए शर्तों का उल्लंघन मौलिक उल्लंघन की प्रकृति का होना चाहिए। इस मामले में मुद्दा वाहन चोरी से संबंधित था लेकिन बीमा कंपनी ने बीमा कंपनी को देरी से सूचित करने का हवाला देते हुए दावा अस्वीकार कर दिया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि यदि कुछ लापरवाही हुई भी थी, तो यह बीमा दावे को पूरी तरह से अस्वीकार करने के लिए शर्त का मौलिक उल्लंघन नहीं था। इसलिए, 75% तक का दावा गैर-मानक आधार पर दिया जाना चाहिए।
उपरोक्त मामले के अलावा, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की एक लंबी श्रृंखला है जिसके अनुसार शर्त का कोई भी उल्लंघन मौलिक उल्लंघन की प्रकृति का होना चाहिए ताकि दावेदार को किसी भी राशि से वंचित न किया जा सके। [देखें मनजीत सिंह बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और अन्य (2018); बी.वी. नागराजू बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, डिवीजनल ऑफिसर, हसन, [(1996) 4 एससीसी 647] नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम स्वर्ण सिंह और 9 अन्य (2004) और लखमी चंद बनाम रिलायंस जनरल इंश्योरेंस, (2016)
सुझाव (माल विक्रय अधिनियम)
इस लेख के सुझाव भाग में माल विक्रय अधिनियम, 1930 का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है। शर्तों और वारंटियों से संबंधित धाराएं माल विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 11 से धारा 17 तक शर्तों और वारंटियों के लिए बताई गई हैं।
उपरोक्त धाराओं के अलावा, कैविएट एम्प्टर के नियम की अवधारणा भी है, जिसका मूल रूप से अर्थ है कि खरीदार सावधान रहें या खरीदार को सामान का ध्यान रखना चाहिए।
- धारा 16(1) के तहत खरीद के लिए उत्पाद की उपयुक्तता
- विवरण के अनुसार बेचा गया सामान
- धारा 16(2) के अंतर्गत माल की व्यापारिक गुणवत्ता
- व्यापरिक नाम
- धारा 16(3) के तहत व्यापार उपयोग
- नमूना निरीक्षण
- धोखा
कैविएट एम्प्टर के नियम पर नवीनतम मामलों में से एक पी. किशोर कुमार बनाम विट्ठल के. पाटकर सिविल अपील संख्या (2011) है, जहां माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि “कैविएट एम्प्टर का सिद्धांत खरीदार को उस शीर्षक की सावधानीपूर्वक जांच करने का कर्तव्य सौंपता है जिसे वह खरीद रहा है, लेकिन वर्तमान मामले में वादी ने स्पष्ट रूप से ऐसे कर्तव्य से परहेज किया है जिसके लिए कानून उसकी मदद नहीं कर सकता है।”
सीमा शुल्क आयुक्त (निवारक) बनाम मेसर्स आफ्लोट टेक्सटाइल्स (आई) प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य के मामले में, जाली विशेष आयात अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) के तहत सोना खरीदने के लिए खरीदार पर जुर्माना लगाया गया है। खरीदार ने कहा है कि उसे जालसाजी के बारे में कोई जानकारी नहीं है, जबकि राजस्व विभाग ने कैविएट एम्प्टर के नियम पर भरोसा किया है और कहा है कि खरीदार को माल खरीदते समय अधिक सावधानी बरतनी चाहिए थी, क्योंकि उससे जुड़े जोखिमों की जिम्मेदारी भी उसी की है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि “क्या खरीदार ने अपने विशेष ज्ञान में अनुज्ञप्ति की वास्तविकता के बारे में कोई जांच की थी।” उसे यह साबित करना होगा कि उसने खरीदारी करते समय एसआईएल की वास्तविकता जानने के लिए जांच की थी और सावधानी बरती थी। यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो परिणाम भुगतने होंगे।”
यह ध्यान देने योग्य है कि, व्यापार के तरीकों में विकास और परिवर्तन के कारण, खरीदार के लिए खरीदने से पहले प्रत्येक उत्पाद की जांच करना संभव नहीं है। आज बाजार नए उत्पादों से भरे पड़े हैं जिनमें विशिष्ट गुण हैं और ग्राहकों से प्रत्येक उत्पाद की जांच करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। प्रतिमान बदलाव के कारण, आज के परिदृश्य में कैविएट एम्प्टर का नियम अपनी प्रासंगिकता खो चुका है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में, यह कहा जा सकता है कि शर्तों और वारंटियों के संबंध में भारतीय अनुबंध की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह नियम और शर्तों, निष्पादन और विवाद समाधान तंत्र को परिभाषित करता है। एक बार सभी मुद्दों का समाधान हो जाए तो इससे व्यवसाय का संचालन सुचारू हो जाएगा और कानूनी सुरक्षा भी मिलेगी।
संदर्भ
- https://www.livelaw.in/pdf_upload/587-ashok-kumar-v-new-india-assurance-co-ltd-31-jul-2023-484839.pdf [Accessed on 17th June 2024]https://rajdhanicollege.ac.in/admin/ckeditor/ckfinder/userfiles/files/Ch-15%20Sale%20of%20goods%20act,%201930%20Conditions%20and%20Warranties.pdf